राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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धार्मिक कथाओं के अनुसार, आज से पांच हजार दो सौ वर्ष पूर्व मथुरा जिले के गोकुल-महावन कस्बे के निकट "रावल गांव" में वृषभानु एवं कीर्तिदा की पुत्री के रूप में राधा रानी ने जन्म लिया था।
राधा रानी के जन्म के संबंध में यह कहा जाता है कि राधा जी माता के पेट से पैदा नहीं हुई थी उनकी माता ने अपने गर्भ में "वायु" को धारण कर रखा था उसने योग माया कि प्रेरणा से वायु को ही जन्म दिया.
परन्तु वहाँ स्वेच्छा से श्री राधा प्रकट हो गई.
श्री राधा रानी जी कलिंदजा कूलवर्ती निकुंज प्रदेश के एक सुन्दर मंदिर में अवतीर्ण हुई उस समय भाद्र पद का महीना था,
शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि, अनुराधा नक्षत्र, मध्यान्ह काल १२ बजे और सोमवार का दिन था.
उस समय राधा जी के जन्म पर नदियों का जल पवित्र हो गया सम्पूर्ण दिशाए प्रसन्न निर्मल हो उठी.
वृषभानु और कीर्तिदा ने पुत्री के कल्याण की कामना से आनंददायिनी दो लाख उत्तम गौए ब्राह्मणों को दान में दी.
ऐसा भी कहा जाता है कि एक दिन जब वृषभानु जी जब एक सरोवर के पास से गुजर रहे थे, तब उन्हें एक बालिका "कमल के फूल" पर तैरती हुई मिली,
जिसे उन्होंने पुत्री के रूप में अपना लिया।
राधा रानी जी आयु में श्रीकृष्ण से ग्यारह माह बड़ी थीं. लेकिन श्री वृषभानु जी और कीर्ति देवी को ये बात जल्द ही पता चल गई कि श्री किशोरी जी ने अपने प्राकट्य से ही अपनी आँखे नहीं खोली है.
इस बात से उन्हें बड़ा दुःख हुआ कुछ समय पश्चात् जब नन्द महाराज कि पत्नी यशोदा जी गोकुल से अपने लाड़ले के साथ वृषभानु जी के घर आती है तब वृषभानु जी और कीर्ति जी उनका स्वागत करती है
यशोदा जी कान्हा को गोद में लिए राधा जी के पास आती है. और जैसे ही श्री कृष्ण और राधा आमने-सामने आते है. तब राधा जी पहली बार अपनी आँखे खोलती है.
अपने प्राण प्रिय श्री कृष्ण को देखने के लिए, वे एक टक कृष्ण जी को देखती है,
अपनी प्राण प्रिय को अपने सामने एक सुन्दर-सी बालिका के रूप में देखकर कृष्ण जी स्वयं बहुत आनंदित होते है.
जिनके दर्शन बड़े बड़े देवताओ के लिए भी दुर्लभ है तत्वज्ञ मनुष्य सैकड़ो जन्मो तक तप करने पर भी जिनकी झाँकी नहीं पाते, वे ही श्री राधिका जी जब वृषभानु के यहाँ साकार रूप से प्रकट हुई.
और गोप ललनाएँ जब उनका पालन करने लगी. स्वर्ण जड़ित और सुन्दर रत्नों से रचित चंदन चर्चित पालने में सखी जनो द्वारा नित्य झुलाई जाती हुई श्री राधा प्रतिदिन शुक्ल पक्ष के चंद्रमा की कला की भांति बढ़ने लगी....
श्री राधा क्या है ? :- रास की रंग स्थली को प्रकाशित करने वाली चन्द्रिका, वृषभानुमंदिर की दीपावली गोलोक चूड़ामणि श्री कृष्ण की हारावली है.
आज श्रीराधारानी जी के प्राकट्य दिवस पर हमारा उन परम शक्ति को सत्-सत् नमन है तथा सभी भक्तों को बहुत बहुत बधाई तथा हार्दिक शुभकामनाएं.
मित्र अनुभव एक अवस्था होती है। हमारे संचित संस्कार साधन में एक एक कर क्रिया के माध्यम से बाहर आते है। यह क्रिया आंतरिक या वाहीक कुछ भी हो सकती है। जब चित्त के कुछ विशिष्ट संस्कार नष्ट हो जाते है तो वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। अतः इन अनुभवों हेतु आसक्ति या विरक्ति कुछ भी नही होनी चाहिए।
कुछ लोग विशेष अनुभव हेतु अपनी ओर से कोशिश करते है जो गलत है दूसरे यह हानिकारक भी हो सकता है। जैसे 100 पेज की पुस्तक को आपको पहले पेज से ही पढ़ना पड़ेगा। यदि आप बीच का पेज खोलेंगे तो आपको कुछ समझ मे भी न आएगा। साथ ही कुछ ऐसा हुआ जिसके पहले कुछ विशेष माइंड सेट अप या बॉडी सेट अप चाहिए पर वह आप पर नही तो गलत हो सकता है।
अत जो होता है सिर्फ दृष्टा भाव से देखो। लिप्त मत हो।
शक्तिपात दीक्षा के बाद अपने ही ग्रुप में कुछ लोगो को खेचरी उड्डयन और जालंधर बन्ध स्वतः ऐसे लगते है जैसे बच्चों का खेल हो।
कुण्डलनी शक्ति जो आवश्यक होता है वही क्रिया करवा कर आगे बढ़ जाती है।
अतः चिंता न करे।
यह क्रिया आपके पूर्व जन्म के आकाश भृमण की क्रिया है। शायद आप पक्षी थे।
मुझे हंसी भी आती है रोना भी आता है। फेस बुक पर गुरु लोग मिल जाते है। एक गुरु के नाम के आगे खेचरी सिद्ध महायोगी लिखा हुआ था।
मतलब खेचरी इतनी तोप है यह हुई तो आप महायोगी हो गए।
योग का न अनुभव न ज्ञान पर चुकी खेचरी हो जाती है तो महायोगी हो गए।
कृपया फोटो न पोस्ट करे। यह प्रदूषण अधिक फैलाती है।
यह सब पोस्ट न करे।
मित्र। इस ग्रुप में अनुभव जनित बातो का समावेश रहता है। अतः वीडियो और फोटो मना रहते है।
मित्र। आपको निरन्तर लिंक पोस्ट करने पर कोई आपत्ति नही की। इच्छुक लोग आपके साथ जुड़ जाएंगे। इसमें इतना उत्तेजित होने की कोई आवश्यकता नही है। कारण यह भी है ग्रुप में हर जाति धर्म के लोग भी सदस्य है। हमारा उद्देश्य बिना किसी को आहत किये सनातन का प्रचार और लोगो की समस्या हल करना है।
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मित्रो। मुझसे मेरे मित्र पत्रकार जो ग्रुप के सदस्य भी है। उन्होंने बोला आप कविता पुस्तक हेतु महाराष्ट्र अकादमी व अन्य जगह अप्लाई करे। मेरे मन से आवाज क्या तुम अपनी कला जो माँ सरस्वती की देन है उसकी कीमत लगवाओगे। क्या इस कला को धन से पुरस्कार से तौलोगे। मैंने मन की सुनी आवेदन नही किया।
मुझे मेरे मित्र ने जो इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक है बोले। यार m.tech हो phd कर डालो। आराम से हो जाएगी।
मेरे मन कहा। अब phd का क्या फायदा 2 साल में रिटायर। यह सिर्फ तुम्हारा सिर्फ अहंकार ही पोषित करेगा। मैंने phd हेतु निवेदन नही किया।
आप मित्र बताये यह गलत या सही।
यह उदाहरण है मन और बुद्धि का। यहाँ मन ने बुद्धि की बात मानी।
किसी ने कल पूछा मन और बुद्धि में क्या अंतर है। प्रश्न बहुत स्वभाविक और प्राकृतिक है। चलिये इसी को समझने का प्र्यास किया जाये कि मन बुद्धि और प्रज्ञा होती क्या है।
अब मेरे दिमाग में यह आ रहा है कि ज्ञानी कौन। वो जो अच्छे लेख लिख लेता हो या वो जो कुछ नही जानते हुए सिर्फ भक्ति में लीन रहता है।
अतः मैं अपने विचार रखना चाहता हूँ।
ज्ञानी उसको जानिये, पर्यावरण बचाय।
प्रकृति से प्रेम कर, नाम जपत जुट जाय।।1
अपनी फोटो जे पसन्द, सबको जो दिखाय।
समझो उसको ज्ञान न, गागर उलट भराय।।2
छोट छोट सी बात मा, आपा ही खो जाय।
तनिक जो दूजा बोल दे, कच्चा ही खा जाय।।3
मन बसी एक चाह जो, मेरा हो सन्मान।
मेरी जय जय कार हो, यही मेरा ज्ञान।।4
जन कहे हूँ ज्ञानी मैं, वाणी मेरी मान।
मैंने जाना प्रभु क्या, दूजा है बेईमान।।5
विपुल कहे मैं क्या करूं, रस्ता प्रभु बताय।
कैसे बढ़ कर मैं चलूँ, बार बार गिर जाय।।6
ज्ञानी की इस भीड़ में, विपुल हुआ असहाय।
मूरख जाने जगत क्या, पुनि पुनि धोखा खाय।।
इस सृष्टि का संचालक और पालक ब्रह्म ही है। द्वैत अद्वैत त्री भेद इत्यादि सब हमारे द्वारा अनुभव किये हुए रूप है। जिस प्रकार जल एक है पर कही पर तालाब तो कही कुआ कही नदी सरोवरपर अंततः समुद्र बन जाता है। बीच मे अपना रूप त्याग कर वाष्प रूप धारण कर बादल बन जाता है पर पुनः जल के रूप में आना ही पड़ता है। जिस प्रकार दूध एक है पर रूप बदलने पर नाम अलग हो जाते है उसी प्रकार ब्रह्म एक है पर किस ऋषि ने किस रूप को चखा उसने वही लिख दिया।
अतः किसी को श्रेष्ठ अश्रेष्ठ कहने का सवाल उठाना ही गलत है।
हा यह बोलना कि मैं सही वह गलत यह छोटेपन और अपूर्णता की निशानी है जो बाइबिल या कुरान कहती है कि मेरा और सिर्फ मेरा ही मार्ग सही।
परन्तु एक बात यह है हर रूप के गुण अलग हो जाते है जैसे बर्फ वाष्प और जल। इनके प्रभाव भी अलग हो जाते है।
जैसे जो रस द्वैत में है भक्तिभाव में है वह कही नही।
अद्वैत में ज्ञान है पर अहंकारी और निरंकुश होने का खतरा।
पर द्वैत के नाम पर बेईमानी अधिक होती है। वही अद्वैत के नाम पर दुकानदारी।
कुल मिलाकर मेरा यह अनुभव है। सब किताबे कोने में रख दो। चाहे विज्ञान हो ज्ञान हो। अपने को पढ़ने का प्रयास करो। पहले अंतर्मुखी हो। बाद में तुमको जो अनुभव हो बस वो ही सही।
मेरे विचार से जो गुरू अपने को नहीं सम्भाल सकता वह शिष्य को कैसे सम्भाल पायेगा। कही कुछ गड़बड़ है। शक्ति कभी अपने साधक का अहित नही करती वह तो बचाती है। यह कैसी लीला की शक्ति ही मार रही है।
प्रत्याहार। इसका मतलब होता है। प्रति धन आहार।
हम इंद्रियों के द्वारा जगत को भोगते है। तब यह इंद्रियां और और लगाए रहती है। इंद्रियों की इस और को वासना या लपस्या कह सकते है। और और कई चाह को लालसा कहते है। इन सबसे मन मे जो विकार आता है उसका वास नही होना चाहिए अतः उसे वास ना कहते है।
यहाँ पर योगी यदि इंद्रियों की पुकार से पुकार से फिसल गया तो यदयपि उसका ज्ञान योग तो नष्ट नहीं होता किंतु कर्म दूषित होने का खतरा बन जाता है। जो समाज मे कानून में निंदननीय हो जाता है।
अतः योगी को प्रति आहार यानी प्रत्याहार की आदत डालने हेतु प्रयास करना चाहिए। मतलब जो इंद्रियों के आहार के विपरीतहो। जैसे स्वामी विवेकानन्द को एक बार केले देखकर खाने की इच्छा हुई। तो उन्होंने केले तो खरीदे पर छिलके खाना चालू किये। गुदा फेक दिया और मन को बोलते गए। ले ढूस ले ढूस। इस प्रकार मन को दंडित किया।
वास्तव में मनुष्य सब प्रत्याहार कर दे किंतु काम को त्यागना बेहद दुर्लभ हो जाता है। और जो प्रायः सन्तो की निंदा का कारण बन जाता है।
कुल मिलाकर यदि मन को वश में कर ले तो प्रत्याहार की आदत बन जाती है। ये मन सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। जहाँ1 एक तरफ जगत की ओर ढेलता है वही यही प्रभु भक्ति की ओर भी ले जाता है। यह सब महामाया के अधीन रहता है। अतः सब प्रभु कृपा से ही होता है। इन सबका एक ही इलाज है बार बार जबरिया अपना मन प्रभु भक्ति में लगाओ मन्त्र जप द्वारा। उसी को समर्पण कर दो सब कुछ। तब ही कल्याण होगा। और अष्टांग योग फलित होगा।
मित्रो यह सब अपने अपने अनुभव है। जो जरूरी नही सबको हो।
मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि यह सब केवल सुंदर शब्दो का खेल होता है। सब हमारे लिए व्यर्थ है।
फिलहाल मेरी तो पूरी यात्रा गुरू दीक्षा के पहले तक सिर्फ और सिर्फ मन्त्र जप से हुई। मुझे तो यह भी नही पता था कि आसन का क्या महत्व है। मैं तो पैर पोछनेवाली बोरी के ऊपर बैठ कर मन्त्र जप करता था। बस नियमित था मन्त्र जप और देवी पाठ में। साथ ही जब मौका मिले जाप करता था। इसके अलावा कुछ न जाना और न किसी ने बताया। जब लखनऊ में था तो नियमित शीतला माता के और फिर मसानी देवी के मन्दिर में 7 परिक्रमा मन्त्र जप के साथ। वह भी जैसे विवाह में लेते है। फिर काल भैरव के दर्शन और एक ही मांग मुजगे माँ के दर्शन चाहिए।
प्रत्याहार। इसका मतलब होता है। प्रति धन आहार।
हम
इंद्रियों के द्वारा जगत को भोगते है। तब यह इंद्रियां और और लगाए रहती
है। इंद्रियों की इस और को वासना या लपस्या कह सकते है। और और कई चाह को
लालसा कहते है। इन सबसे मन मे जो विकार आता है उसका वास नही होना चाहिए अतः
उसे वास ना कहते है।
यहाँ
पर योगी यदि इंद्रियों की पुकार से पुकार से फिसल गया तो यदयपि उसका ज्ञान
योग तो नष्ट नहीं होता किंतु कर्म दूषित होने का खतरा बन जाता है। जो समाज
मे कानून में निंदननीय हो जाता है।
अतः
योगी को प्रति आहार यानी प्रत्याहार की आदत डालने हेतु प्रयास करना चाहिए।
मतलब जो इंद्रियों के आहार के विपरीतहो। जैसे स्वामी विवेकानन्द को एक बार
केले देखकर खाने की इच्छा हुई। तो उन्होंने केले तो खरीदे पर छिलके खाना
चालू किये। गुदा फेक दिया और मन को बोलते गए। ले ढूस ले ढूस। इस प्रकार मन
को दंडित किया।
वास्तव
में मनुष्य सब प्रत्याहार कर दे किंतु काम को त्यागना बेहद दुर्लभ हो जाता
है। और जो प्रायः सन्तो की निंदा का कारण बन जाता है।
कुल
मिलाकर यदि मन को वश में कर ले तो प्रत्याहार की आदत बन जाती है। ये मन
सबसे बड़ा शत्रु और मित्र है। जहाँ1 एक तरफ जगत की ओर ढेलता है वही यही
प्रभु भक्ति की ओर भी ले जाता है। यह सब महामाया के अधीन रहता है। अतः सब
प्रभु कृपा से ही होता है। इन सबका एक ही इलाज है बार बार जबरिया अपना मन
प्रभु भक्ति में लगाओ मन्त्र जप द्वारा। उसी को समर्पण कर दो सब कुछ। तब ही
कल्याण होगा। और अष्टांग योग फलित होगा।
मित्रो यह सब अपने अपने अनुभव है। जो जरूरी नही सबको हो।
मैं सिर्फ इतना कहूंगा कि यह सब केवल सुंदर शब्दो का खेल होता है। सब हमारे लिए व्यर्थ है।
फिलहाल
मेरी तो पूरी यात्रा गुरू दीक्षा के पहले तक सिर्फ और सिर्फ मन्त्र जप से
हुई। मुझे तो यह भी नही पता था कि आसन का क्या महत्व है। मैं तो पैर
पोछनेवाली बोरी के ऊपर बैठ कर मन्त्र जप करता था। बस नियमित था मन्त्र जप
और देवी पाठ में। साथ ही जब मौका मिले जाप करता था। इसके अलावा कुछ न जाना
और न किसी ने बताया। जब लखनऊ में था तो नियमित शीतला माता के और फिर मसानी
देवी के मन्दिर में 7 परिक्रमा मन्त्र जप के साथ। वह भी जैसे विवाह में
लेते है। फिर काल भैरव के दर्शन और एक ही मांग मुजगे माँ के दर्शन चाहिए।
वह फलित हुआ। मेरी पहली गुरू माँ काली बनी। फिर उन्होंने वर्तमान गुरू के पास भेजा।
वह फलित हुआ। मेरी पहली गुरू माँ काली बनी। फिर उन्होंने वर्तमान गुरू के पास भेजा।
मुझे सिर्फ इतना पता है और ज्यादा कुछ न मालूम है न जानना है कि सिर्फ मन्त्र जप। दृढ़ श्रध्दा। नियमितता और समर्पण।
सब खुद मिल जाता है।
कल एक मित्र सदस्य बने। ज्ञानी थे शायद तब ही ज्ञान की बाते पोस्ट की। बाद में बिना भूमिका अकारण अपनी दो फोटो भी डाल दी। जब मैंने निवेदन किया जब तक बहुत आवश्यक न हो फोटो पोस्ट न करे। अपने लेख के माध्यम से पर्यावरण बचाने की अपील की। पर वह तो ज्ञानी थे। मेरे विचार से ज्ञानियों में अहंकार बहुत होता है अतः वे जल्दी क्रोधित होकर बिना कारण ग्रुप को छोड़ गए।
ग्रुप में कई सदस्य निष्क्रिय है। परंतु कुछ सदस्यों ने चुपचापmmstm किया है। आपसे अनुरोध है। अपने अनुभव बताये। शोध में मेरी सहायता करें।
कारण यह होता है मनुष्य अपने को जाति से जन्म से उच्च और ज्ञानी समझता है वह एक भृमित सम्मान का पर्दा बना लेता है अतः अपने को छोटा कैसे प्रदर्शित कैसे करे। अतः सब छुप कर करता है।
मित्रो इस ग्रुप का उद्देश्य आत्म उत्त्थान और अवलोकन है। यहाँ सब बराबर। अतः अपना आवरण उतारकर स्पष्ट सामने आकर चर्चा करें। जिससे ग्रुप को डाटा मिले और आपको वास्तविक अनुभव।
मैं इस अनुभव पर पहुचा हूँ कि चूंकि शिव और शक्ति मनुष्य रूप में नही आ सकते अर्थात सम्पूरन साकार। पर कृष्ण ने चुकी मानवअवतार लिया था अतः वह आ सकते है। अतः भक्ति किसी की करो वह कृष्ण पर खत्म होती है।
मेरा भी यही हाल है। कभी कृष्ण की विशेष पूजा न कि पर माँ और शिव कृष्ण की ही ओरे धकेल रहे है। गोपाल कृष्ण कीअनुभूति और दर्शन नुमा अनुभव होता है। ह्रदय भी कृष्ण भक्ति में लीन हो रहा है अपने आप।
यह एक नया अनुभव और खोज है।
यानि शिव शक्ति के दर्शन बन्द नेत्र से तुरीय अवस्था मे ही होते होंगे।
पर विष्णु अवतार साक्षात मानव रूप में। हॉ शिव के हनुमान भक्त के जरूर। क्योकि वह 8 कला में अवतरित हुए। पर साक्षात शिव और शक्ति नही।
सही मायने में यह अलग तरह की खोज है। मुझे लगराधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण ता है शिवशक्ति कृष्ण सबमे अंतर है पर अंत एक है। प्रादुर्भाव एक से हुआ। निराकार सुप्त ऊर्जा से।
मैं शब्दों में शायद न लिख पाऊँ। पर कभी व्याख्यान में शायद मुख से निकल जाए।
हे प्रभु वह अनुभव जो शायद कहीं वर्णित नहीं।
नही बिल्कुल नही। यह सब ईष्ट की कृपा से हुआ है। मन्त्र जप सिर्फ इष्ट का।
मैं मन्त्र जप अंत तक माँ का ही करता रहूंगा।
मेरा मन अब सिर्फ एक शब्द का जप करने का होता है। जो मुझे माँ प्रिय लग रहा है। ॐ भी लम्बा लगता है।
हे प्रभु। यानि मैं न भृमित न गलत। मैं तो सोच रहा था यह सब मेरा भरम हो सकता है।
मित्र जो आप शारीरिक देखते है वह योग नही है। कृपया पहले कुछ लेख पढ़ ले तो वार्तालाप में सुविधा होगी।
आपके प्रश्न सही है और एक आम आदमी की सोंच को दर्शाते है।
लेखो में कई बार योग को समझाने का प्रयास किया है।
यही सनातन की विडंबना है। अधकचरे ज्ञानी अधिक है।
राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण
इतने सारे भगवान इतने योग देख कर कोई भी भृमित हो सकता है।
लोग भगवान को atm ही समझते है और प्रचारित करते है। यह दुखद है।
योग समझने के लिए कुछ प्रारम्भिक ज्ञान भी आवश्यक है। अंतर्मुखी होने की विधि का पालन के साथ।
आप जिसको योग कह रहे है वह वास्तविक योग नही है।
कृपा करें पहले लेख पढ़ें।
सही। भक्ति के लिए जवान देह चाहिए
मनुष्य का मूल स्वभाव आनन्द है। सन्सार की भौतिक वस्तुओं से जो आनन्द मिलता है वह अस्थाई होता है। जैसे शराब पी बाद का हैंग ओवर कभी कभी बेहद कष्टकारी हो जाता है।
बेटा पैदा किया। बुढापे में लात मार सकता है।
स्त्री भोग किया। उसकी वासना और बढ़ती जाती है। कभी गैर कानूनी काम हो गया तो जेल जाओ।
कार बैंक बैलेंस एक सीमा तक आनन्द देते है फिर और कीलापस्या मानव को बेईमान बनाकर गैरकानूनी काम तक करवा देती है।
जब बुढापे में इंद्रियां शिथिल होती है। पर मन वासनाओ की ओर ही भागता है तब बहुत कष्ट होते है।
कभी कभी इन कारणों से मानव आत्महत्या जैसे संगीन कुकृत्य कर बैठता है।
तो फिर वह क्या है जो स्थाई शांति और आनन्द देता है।
वह क्या है जो संकट के समय हमें सहन शक्ति देता है।
वह क्या है जो दुखो को सहने की क्षमता देता है।
वह है अपने आत्म स्वरूप को जानना। पहले यह जानना हम क्या है।
इसके लिए हमें अंतर्मुखी होना पड़ता है।
मित्र आपने एक भी लेख लिंक का नही पढ़ा है। यदि आप सिर्फबहस करने के लिए जुड़े है तो बात अलग है। पर यदि जानना चाहते है तो कुछ तो आपको ही करना पड़ेगा।
इच्छाएं पूरी नही होती है तो क्रोध उतपन्न होता है। जिससे विवेक नष्ट हो जाता है। जिससे मनुष्य कुछ भी गलत कर सकता है। अतः इच्छाएं सीमित रहे तो बेहतर।
पर सीमित कैसे रहे।
आप आत्मा परमात्मा का अनुभव कर सकते है। मेरी चुनौती औरदावा। पर करना आपको होगा। समय आपको ही देना होगा। इस ग्रुप में ईश को गालियाँ देराधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण कर भी लोगो ने कुछ नए अनुभव लिए है। परन्तु उन्होंने बात मानी और किया।
किसी दूसरे के कर्म से आप अनुभव नही ले सकते।
वासना। यानी वास ना। जिसका वास नही होना चाहिए पर है।
वासना एक अग्नि के समान होती है। इनकी जितनी पूर्ति करो उतनी ही बढ़ती जाती है।
कोई इनको सन्तुष्ट नही कर सकता।
तो फिर इनको सन्तुष्ट कैसे करे।
अंतर्मुखी होकर।
कोई भी अनुभव कैसे ले।
अंतर्मुखी होकर।
एक होती है। सत्व इच्छा जो हमे उत्थान की ओर ले जाती है दूसरी हमे पतन की ओर ले जाती है।
यह भी जानने हेतु हमे अंतर्मुखी होकर जानना होगा।
मित्र आपसे अनुरोध है एक लिंक में दिए लेखों को पढ़ ले। आपके आधे से अधिक प्रश्नों के उत्तर मिल जायेंगे। नही तो ऐसे ही भटकते रहो। आखिर मर्जी आपकी। जीवन आपका।
नहीं श्रीमान। इस स्वरूप में स्थित होना न सहज है और न आसान। आत्म दृष्टा स्वरूप कुछ समय के लिए आता है। फिर वही जगत। अतः इस रूप में निरन्तर प्रभु समर्पण और मन्त्र जप बेहद आवश्यक है। नही तो मनुष्य पुनः जगत में वापिस जाने लगता है।
पातंजली महाराज स्थाई रूप से स्थित हो गए थे। पर आज बेहद मुशिकल।
भाई होता यह है कि प्रत्येक ऋषि या मनुष्य अपने अनुभव के और अवस्था के अनुसार लिख देता है। जैसे एक नट तलवार की धार पर चल लेगा क्योकि अभ्यास है। पर एक नया अनाड़ी न चल पायेगा।
मैं अनाड़ी हूँ किंतु सत्य लिखने का प्रयास करता हूँ किसी धर्म ग्रन्थ से मिलने की बात नही करता।
प्रभु कृपा से माँ जगदम्बे की दया से मुझे वेद वर्णित लगभग सभी अनुभव हुए है। पर अक्सर वह पूरे मेल नही खाते।
शायद मेरे अनुभव अपूर्ण या भरम हो।
मनुष्य का भाव 24 घण्टे एक नही रह पाता। अतः कलियुग में जब समय मिले। भक्तो की फिल्में देखो इंटर नेट पर। अपने को चेक करो क्या तुमको प्रभु मिलन की तड़प होती है या विरह पैदा होता है। क्या तुम्हारे प्रेमाश्रु गिरते है।
यदि हाँ तो मैं समझता हूँ। आग जल रही है।
मेरी दृष्टि में तुलसी पातंजली से कम योगी नही थे। पराधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण र वह मन्त्र जप से ऊपर गए।
वास्तव में अष्टांग योग एक मार्ग है अंतिम नही।
अंतिम लक्ष्य है निराकार का अनुभव। जिज्ञासाओं का अंत। चाहे किसी भी विधि से जाओ।
मैं सहमत नही। तमाम ऋषि मुनि इस अवसथा के बाद भी फिसल जाते है।
प्रश्न है महामाया के चक्र का।
मुझे मेरे जीवन मे अपना कोई योगदान नही दिखता। सिर्फ प्रभु कृपा दिखती है। और यही कृपा सबमे दिखती है।
जैसे लाहिड़ी महाराज सिध्द हुए तो उनका क्या योगदान । प्रभु कृपा हुई। सिध्द महावतार मिले। लाहिड़ी सिध्द हो गए।
भाई अब मुझे सिर्फ प्रभु की लीला हर तरफ दिखती है।
मेरे पाप पुण्य सब उसके। मैं कुछ हूँ ही नही। मात्र एक मास का लोथड़ा।
वह जो बुद्दी प्रेरित करता है। बस यह शरीर कर देता है।
जो करता है वह उसकी इच्छा। जिस पर हो रहा है वह उसकी इच्छा।
नही मैं बहुत पापी हूँ। प्रभु कृपा मुझे पूरी नही मिली। सूर तुलसी मीरा सबको साक्षात मानव रूप में प्रभु मिले। मुझे अभी तक नमिले। जिस दिन मुझे कृष्ण के राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण विष्णु रूप के साक्षात दर्शन होंगे। तब मुझे संतुष्टि मिलेगी और मैं अपने को भाग्यशाली मानूँगा।
हालांकि मैं कुछ नही दोनो वोही। पर इस मांस के लोथड़े को भी चाहिए।
नही बिना प्रभु कृपा के कोई एक घण्टे साधना नही कर सकता।
बिना उसकी कृपा के हम सांस भी नही ले सकते।
सब तरफ उसकी ही कृपा है। उसका ही नूर है।
हाँ हम अपनी बुद्दी को धकेल कर बार बार उसको याद करने की कोशिश कर सकते है। बल्कि वो भी नही।
क्या लिखूं कुछ समझ नही पाता। कौन किसको समझा रहा है। कौन क्या समझ रहा है।
मेरा लिखना बस नाटक मात्र है।
सब तरफ वो ही है।
यार मुझे यह लगता है। जब उसकी कृपा होती है। तब वो ही गुरू बन जाता है। वोही शिष्य बन जाता है। वो ही ज्ञानी बन जाता है वो ही मूर्ख बन कर रहता है।
वो ही भक्त है वो ही विभक्त है। वो ही ज्ञान है वो ही अज्ञान है।
हमको न कुछ जानना है। क्योकि दोनो तरफ वो ही। वो ही शून्य है वो ही अनन्त है।
मैं भृमित होता हूँ कि मैं किसको समझाता हूँ।
मझसे जो आवश्यक होगा करवा लिया जाएगा। मेरी एक ही कोशिश रहती है। बस उसको स्मरण करता रहूँ।
भाई मेरी एक ही बात। प्रभु स्मरण सतत सघन। उसकी याद। समर्पण बस।
इस उत्तर में समझाया गया है कि मनुष्य क्या है। जैसा माना जाता है पंच तत्वों से बना है। अंतिम तत्व आकाश यानि वह जगह जहाँ मन बुद्दी अहंकार सोंच आत्मा परमात्मा सब रहते है। तू वहाँ भी नही है। तू इन सबके चैतन्य स्वरूप का मिश्रण है और वास्तव में मात्र एक देखनेवाले और सब तत्वों के चैतन्य स्वरूप को महसूस करने वाला दर्शक मात्र है।
कहने का अर्थ तू इन सब पंचतत्व जो निष्क्रिय होते है बेजान होते है सिर्फ अपनी अपनी प्रकृति का ही कार्य कर सकते है । वे सब जब मिले तो तू बना। अर्थात तेरा इन पर क्या नियन्त्रण तू मात्र एक दृष्टा है इस बात को समझ लेना और जानना परम् आवशयक है और यह ज्ञान की पहली सीढ़ी है।
मजा लो यह शक्ति का खेल। नशा तो बन्द कर दिया है न।
एक ज्ञान यह भी। जानना जरूरी है।
#ज़ीन्यूज़ पर एक डिबेट चल रहा था जिसमे श्री राम मंदिर पर गर्मा गर्म बहस चल रही थी।सपा के एक नेता जो नाम से तो हिन्दू था,लेकिन........
बार बार राम मंदिर के अस्तित्व पर सवाल उठा रहा था.
उसके अनुसार अगर श्री राम का मंदिर तोड़ा गया तो इसका जिक्र तुलसीदास ने क्यो नही किया...????
प्रश्न वाजिब था......वास्तव में मुझे भी सोचने पर मजबूर कर दिया था उस बन्दे ने...
खैर तलाश, रिसर्च प्रारम्भ हुआ और मिल भी गया....
पढ़ें तुलसीदास जी ने भी बाबरी मस्जिद का उल्लेख किया है!
सच ये है कि कई लोग तुलसीदास जी की सभी रचनाओं से अनभिज्ञ है और अज्ञानतावश ऐसी बातें करते हैं l वस्तुतः रामचरित मानस के अलावा तुलसीदास जी ने कई अन्य ग्रंथो की भी रचना की है . तुलसीदास जी ने #तुलसी_शतक में इस घंटना का विस्तार से विवरण भी दिया है .
हमारे वामपंथी विचारको तथा इतिहासकारो ने ये भ्रम की स्थति उत्पन्न की , कि रामचरितमानस में ऐसी कोई घटना का वर्णन नही है . श्री नित्यानंद मिश्रा ने जिज्ञाशु के एक पत्र व्यवहार में "तुलसी दोहा शतक " का अर्थ इलाहाबाद हाई कोर्ट में प्रस्तुत किया है | हमनें भी उस अर्थो को आप तक पहुंचने का प्रयास किया है | प्रत्येक दोहे का अर्थ उनके नीचे दिया गया है , ध्यान से पढ़ें |
*(1) मन्त्र उपनिषद ब्राह्मनहुँ बहु पुरान इतिहास ।*
*जवन जराये रोष भरि करि तुलसी परिहास ॥*
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि क्रोध से ओतप्रोत यवनों ने बहुत सारे मन्त्र (संहिता), उपनिषद, ब्राह्मणग्रन्थों (जो वेद के अंग होते हैं) तथा पुराण और इतिहास सम्बन्धी ग्रन्थों का उपहास करते हुये उन्हें जला दिया ।
राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण
*(2) सिखा सूत्र से हीन करि बल ते हिन्दू लोग ।*
*भमरि भगाये देश ते तुलसी कठिन कुजोग ॥*
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि ताकत से हिंदुओं की शिखा (चोटी) और यग्योपवीत से रहित करके उनको गृहविहीन कर अपने पैतृक देश से भगा दिया ।
*(3) बाबर बर्बर आइके कर लीन्हे करवाल ।*
*हने पचारि पचारि जन तुलसी काल कराल ॥*
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि हाँथ में तलवार लिये हुये बर्बर बाबर आया और लोगों को ललकार ललकार कर हत्या की । यह समय अत्यन्त भीषण था ।
*(4) सम्बत सर वसु बान नभ ग्रीष्म ऋतु अनुमानि ।*
*तुलसी अवधहिं जड़ जवन अनरथ किये अनखानि ॥*
(इस दोहा में ज्योतिषीय काल गणना में अंक दायें से बाईं ओर लिखे जाते थे, सर (शर) = 5, वसु = 8, बान (बाण) = 5, नभ = 1 अर्थात विक्रम सम्वत 1585 और विक्रम सम्वत में से 57 वर्ष घटा देने से ईस्वी सन 1528 आता है ।)
श्री तुलसीदास जी कहते हैं कि सम्वत् 1585 विक्रमी (सन 1528 ई) अनुमानतः ग्रीष्मकाल में जड़ यवनों अवध में वर्णनातीत अनर्थ किये । (वर्णन न करने योग्य) ।
*(5) राम जनम महि मंदरहिं, तोरि मसीत बनाय ।*
*जवहिं बहुत हिन्दू हते, तुलसी कीन्ही हाय ॥*
राधा की धारा और और राम मदिर प्रमाण
जन्मभूमि का मन्दिर नष्ट करके, उन्होंने एक मस्जिद बनाई । साथ ही तेज गति उन्होंने बहुत से हिंदुओं की हत्या की । इसे सोचकर तुलसीदास शोकाकुल हुये ।
*(6) दल्यो मीरबाकी अवध मन्दिर रामसमाज ।*
*तुलसी रोवत ह्रदय हति त्राहि त्राहि रघुराज॥*
मीर बाकी ने मन्दिर तथा रामसमाज (राम दरबार की मूर्तियों) को नष्ट किया । राम से रक्षा की याचना करते हुए विदीर्ण ह्रदय तुलसी रोये ।
*(7) राम जनम मन्दिर जहाँ तसत अवध के बीच ।*
*तुलसी रची मसीत तहँ मीरबाकी खाल नीच ॥*
तुलसीदास जी कहते हैं कि अयोध्या के मध्य जहाँ राममन्दिर था वहाँ नीच मीर बाकी ने मस्जिद बनाई ।
*(8)रामायन घरि घट जँह, श्रुति पुरान उपखान ।*
*तुलसी जवन अजान तँह, कइयों कुरान अज़ान ॥*
श्री तुलसीदास जी कहते है कि जहाँ रामायण, श्रुति, वेद, पुराण से सम्बंधित प्रवचन होते थे, घण्टे, घड़ियाल बजते थे, वहाँ अज्ञानी यवनों की कुरआन और अज़ान होने लगे।
अब यह स्पष्ट हो गया कि गोस्वामी तुलसीदास जी की इस रचना में जन्मभूमि विध्वंस का विस्तृत रूप से वर्णन किया किया
है!
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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