आखिर क्या है क्रिया योग
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
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क्रिया योग की साधना करने वालों के द्वारा इसे एक प्राचीन योग पद्धति के रूप में वर्णित किया जाता है, जिसे आधुनिक समय में महावतार बाबाजी के शिष्य लाहिरी महाशय के द्वारा 1861 के आसपास पुनर्जीवित किया गया और परमहंस योगानन्द की पुस्तक ऑटोबायोग्राफी ऑफ़ ए योगी (एक योगी की आत्मकथा) के माध्यम से जन सामान्य में प्रसारित हुआ।
इस पद्धति में प्राणायाम के कई स्तर होते है जो ऐसी तकनीकों पर आधारित होते हैं जिनका उद्देश्य आध्यात्मिक विकास की प्रक्रिया को तेज़ करना और प्रशान्ति और ईश्वर के साथ जुड़ाव की एक परम स्थिति को उत्पन्न करना होता है। इस प्रकार क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है।
परमहंस योगानन्द के अनुसार क्रियायोग एक सरल मनःकायिक प्रणाली है, जिसके द्वारा मानव-रक्त कार्बन से रहित तथा ऑक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है। इसके अतिरिक्त ऑक्सीजन के अणु जीवन प्रवाह में रूपान्तरित होकर मस्तिष्क और मेरूदण्ड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देते है। प्रत्यक्छ प्राणशक्तिके द्वारा मन को नियन्त्रित करनेवाला क्रियायोग अनन्त तक पहुँचने के लिये सबसे सरल प्रभावकारी और अत्यन्त वैज्ञानिक मार्ग है। बैलगाड़ी के समान धीमी और अनिश्चित गति वाले धार्मिक मार्गों की तुलना में क्रियायोग द्वारा ईश्वर तक पहुँचने के मार्ग को विमान मार्ग कहना उचित होगा।
क्रियायोग की प्रक्रिया का आगे विश्लेषण करते हुये वे कहते हैं कि मनुष्य की श्वशन गति और उसकी चेतना की भिन्न भिन्न स्थिति के बीत गणितानुसारी सम्बन्ध होने के अनेक उदाहरण दिये जा सकते हैं। मन की एकाग्रता धीमे श्वसन पर निर्भर है। तेज या विषम श्वास भय, काम क्रोध आदि हानिकर भावावेगों की अवस्था का सहचर है।
योगानन्द जी के अनुसार, प्राचीन भारत में क्रिया योग भली भांति जाना जाता था, लेकिन अंत में यह खो गया, जिसका कारण था पुरोहित गोपनीयता और मनुष्य की उदासीनता। योगानन्द जी का कहना है कि भगवान कृष्ण ने भगवद गीता में क्रिया योग को संदर्भित किया है:
बाह्यगामी श्वासों में अंतरगामी श्वाशों को समर्पित कर और अंतरगामी श्वासों में बाह्यगामी श्वासों को समर्पित कर, एक योगी इन दोनों श्वासों को तटस्त करता है; ऐसा करके वह अपनी जीवन शक्ति को अपने ह्रदय से निकाल कर अपने नियंत्रण में ले लेता है।
योगानन्द जी ने यह भी कहा कि भगवान कृष्ण क्रिया योग का जिक्र करते हैं जब “भगवान कृष्ण यह बताते है कि उन्होंने ही अपने पूर्व अवतार में अविनाशी योग की जानकारी एक प्राचीन प्रबुद्ध, वैवस्वत को दी जिन्होंने इसे महान व्यवस्थापक मनु को संप्रेषित किया। इसके बाद उन्होंने, यह ज्ञान भारत के सूर्य वंशी साम्राज्य के जनक इक्ष्वाकु को प्रदान किया।” योगानन्द का कहना है कि पतंजलि का इशारा योग क्रिया की ओर ही था जब उन्होंने लिखा “क्रिया योग शारीरिक अनुशासन, मानसिक नियंत्रण और ॐ पर ध्यान केंद्रित करने से निर्मित है।” और फिर जब वह कहते हैं, “उस प्रणायाम के जरिए मुक्ति प्राप्त की जा सकती है जो प्रश्वसन और अवसान के क्रम को तोड़ कर प्राप्त की जाती है।” श्री युक्तेशवर गिरि के एक शिष्य, श्री शैलेंद्र बीजॉय दासगुप्ता ने लिखा है कि, “क्रिया के साथ कई विधियां जुडी हुई हैं जो प्रमाणित तौर पर गीता, योग सूत्र, तन्त्र शास्त्र और योग की संकल्पना से ली गयी हैं।”
नवीनतम इतिहास में हिमालय पर्वत पर स्थित बद्रीनाथ में सन् 1954 और 1955 में बाबाजी ने महान योगी एस. ए. ए. रमय्या को इस तकनीक की दीक्षा दी |
1983 में योगी रमय्या ने अपने शिष्य मार्शल गोविन्दन को 144 क्रियाओं के अधिकृत शिक्षक बनने से पहले उन्हें अनेक कठोर नियमों का पालन करने को कहा | मार्शल गोविन्दन पिछले 12 वर्षों से क्रिया योग का अनवरत अभ्यास कर रहे थे | प्रति सप्ताह 56 घंटे अभ्यास करने के अतिरिक्त उन्होंने 1981 में श्री लंका के समुद्र तट पर एक वर्ष मौन तपस्या की थी | गुरु के दिये हुए अतिरिक्त शर्तों को पूरा करने में गोविन्दन जी को तीन वर्ष और लगे | इतना होने पर योगियार ने उन्हें प्रतीक्षा करते रहने को कहा | योगियार अक्सर कहते थे कि शिष्य को गुरु अर्थात बाबाजी के चरणों तक पंहुचा देना भर ही उनका काम था |
1988 में क्रिस्मस की पूर्व संध्या पर गहन आध्यात्मिक अनुभूति के दौरान गोविन्दन जी को सन्देश मिला कि वो अपने शिक्षक के आश्रम और उनका संगठन छोड़ कर लोगों को क्रिया योग में दीक्षा देना शुरू करें |
इसके बाद मार्शल गोविन्दन के जीवन की दिशा गुरु की प्रेरणा से प्रकाशमान हुई | 1989 से उनका जीवन इस नयी दिशा में अग्रसर हुआ | लोगों तक इस शिक्षा को लाने के द्वार खुलते गए, मार्ग प्रशस्त होता गया | इस कार्य में अन्तःप्रज्ञा और अंतर-दृष्टि के माध्यम से गुरु का मार्गदर्शन निरंतर मिलता रहा | गोविन्दन जी ने मोंट्रियल में ही साप्ताहांत में क्रिया योग सिखलाना शुरू किया | क्रिया योग पर उनकी पहली पुस्तक का प्रकाशन 1991 में हुआ और इसके बाद वे सारी दुनिया में कई जगहों पर साप्ताहांत दीक्षा शिविर आयोजित करने लगे | तब से गुरु के प्रकाश से ज्यादा से ज्यादा लोगों को आलोकित करना ही उन्हें आनंदित करता है | अब तक 20 से अधिक देशों में फैले हुए 10,000 से ज्यादा लोग आध्यात्म कि इस बहुमूल्य वैज्ञानिक प्रणाली से जुड़ चुके हैं | उन्होंने क्रिया योग के 16 शिक्षकों को भी प्रशिक्षित किया है |
एम. गोविंदन सत्चिदानन्द को सन् 2014 में सम्मानित "पतंजलि पुरस्कार" दिया गया।
क्रिया योग का अभ्यास
जैसा की लाहिरी महाशय द्वारा सिखाया गया, क्रिया योग पारंपरिक रूप से गुरु-शिष्य परंपरा के माध्यम से ही सीखा जाता है। उन्होंने स्मरण किया कि, क्रिया योग में उनकी दीक्षा के बाद, “बाबाजी ने मुझे उन प्राचीन कठोर नियमों में निर्देशित किया जो गुरु से शिष्य को संचारित योग कला को नियंत्रित करते हैं।”
जैसा की योगानन्द द्वारा क्रिया योग को वर्णित किया गया है, “एक क्रिया योगी अपनी जीवन उर्जा को मानसिक रूप से नियंत्रित कर सकता है ताकि वह रीढ़ की हड्डी के छः केंद्रों के इर्द-गिर्द ऊपर या नीचे की ओर घूमती रहे (मस्तिष्क, गर्भाशय ग्रीवा, पृष्ठीय, कमर, त्रिक और गुदास्थि संबंधी स्नायुजाल) जो राशि चक्रों के बारह नक्षत्रीय संकेतों, प्रतीकात्मक लौकिक मनुष्य, के अनुरूप हैं। मनुष्य के संवेदनशील रीढ़ की हड्डी के इर्द-गिर्द उर्जा के डेढ़ मिनट का चक्कर उसके विकास में तीव्र प्रगति कर सकता है; जैसे आधे मिनट का क्रिया योग एक वर्ष के प्राकृतिक आध्यात्मिक विकास के एक वर्ष के बराबर होता है।”
स्वामी सत्यानन्द के क्रिया उद्धरण में लिखा है, “क्रिया साधना को ऐसा माना जा सकता है कि जैसे यह “आत्मा में रहने की पद्धति” की साधना है”।
बाबाजी का क्रिया योग ईश्वर-बोध, यथार्थ-ज्ञान एवं आत्म-साक्षात्कार प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है | प्राचीन सिद्ध परम्परा के 18 सिद्धों की शिक्षा का संश्लेषण कर भारत के एक महान विभूति बाबाजी नागराज ने इस प्रणाली को पुनर्जीवित किया | इसमें योग के विभिन्न क्रियाओं को 5 भागों में बांटा गया है |
1. क्रिया हठ योग: इसमें विश्राम के आसन, बंध और मुद्रा सम्मिलित हैं | इनसे नाङी एवं चक्र जागरण के साथ-साथ उत्तम स्वास्थ्य की प्राप्ति होती है | बाबाजी ने 18 आसनों की एक श्रृंखला तैयार की है जिन्हें दो आसन के युगल में करना सिखाया जाता है | अपने शारीर की देख-भाल मात्र शारीर के लिए नहीं बल्कि इसे ईश्वर का वाहन अथवा मंदिर समझ कर किया जाता है |
2. क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम: यह व्यक्ति की सुप्त चेतना एवं शक्ति को जगा कर उसे मेरुदंड के मूल से शीर्ष तक स्थित 7 प्रमुख चक्रों में प्रवाहित करने की शक्तिशाली स्व्शन क्रिया है | यह 7 चक्रों से सम्बद्ध क्षमताओं को जागृत कर अस्तित्व के पांचों कोषों को शक्तिपुंज में परिणत करते है |
3. क्रिया ध्यान योग: यह ध्यान की विभिन्न पद्धतियों से मन को वश में करने, अवचेतन मन की शुद्धि, एकाग्रता का विकास, मानसिक स्पष्टता एवं दूरदर्शिता, बौधिक, सहज ज्ञान तथा सृजनात्मक क्षमताओं की वृद्धि और ईश्वर के साथ समागम अर्थात समाधि एवं आत्म-ज्ञान को क्रमशः प्राप्त करने की एक वैज्ञानिक प्रणाली है |
4. क्रिया मंत्र योग: सूक्ष्म ध्वनि के मौन मानसिक जप से सहज ज्ञान, बुद्धि एवं चक्र जागृत होते हैं | मंत्र मन में निरंतर चलते हुए कोलाहल का स्थान ले लेता है एवं अथाशक्ति संचय को आसान बनाता है | मंत्र के जप से मन की अवचेतन प्रवृत्तियों की शुद्धि होती है |
5. क्रिया भक्ति योग: आत्मा की ईश्वर प्राप्ति की अभीप्सा को उर्वरित करता है | इसमें मंत्रोच्चार, कीर्तन, पूजा, यज्ञ एवं तीर्थ यात्रा के साथ-साथ निष्काम सेवा सम्मिलित है | इनसे अपेक्षारहित प्रेम एवं आनंद की अनुभूति होती है | धीरे-धीरे साधक के सभी कार्य मधुर एवं प्रेममय हो जाते हैं और उसे सब में अपने प्रियतम का दर्शन होता है |
क्रिया योग में दीक्षाएं
1. प्रथम दीक्षा : क्रिया योग की प्रथम दीक्षा साप्ताहांत में आयोजित एक गहन सेमिनार में दी जाती है | इस सेमिनार में आप बाबाजी द्वारा संकलित क्रिया हठ योग के 18 स्वास्थ्यवर्धक, शक्तिवर्धक तथा विश्रामदायी आसन सीखेंगे | साथ ही सूक्ष्म उर्जा को जाग्रत एवं प्रवाहित करने के लिये “क्रिया कुण्डलिनी प्राणायाम” नामक शक्तिशाली श्वसन प्रणाली के 6 चरण का अभ्यास सीखेंगे | इसके अतिरिक्त अवचेतन मन को परिशुद्ध कर अपने मन का स्वामी बनने तथा आत्म-साक्षात्कार एवं ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति के लिये ध्यान की 7 क्रियाएँ सीखेंगे |
2. द्वितीय दीक्षा : प्रकृति की गोद में किसी ग्रामीण स्थल पर साप्ताहांत में आयोजित ‘आध्यात्मिक अंतर्यात्रा’ के दौरान द्वितीय दीक्षा दी जाती है | मंत्र दीक्षा के साथ साथ इसमें चक्रों को जाग्रत करने की शक्तिशाली तकनीक, योगनिद्रा, मौन एवं क्रियाशील ध्यान का अभ्यास सिखलाया जाता है | योग को रोजमर्रे की सामान्य गतिविधियों में उतारना इसका लक्ष्य है |
3. तृतीय दीक्षा : क्रिया योग के कुल 144 क्रियाओं में से प्रथम एवं द्वितीय दीक्षा के बाद बाकी बची हुई क्रियाओं को किसी ग्रामीण स्थल पर आयोजित 9 दिवसीय गहन अंतर्यात्रा-शिविर में सिखाया जाता है | इनमें वो क्रियाएँ भी शामिल हैं जो समाधि के विभिन्न स्तरों एवं इश्वर-सान्निध्य का अनुभव कराती है |
क्रिया योग के चार सोपान
1- ब्रह्म ग्रन्थी
2- विष्णु ग्रन्थी
3- रूद्र ग्रन्थी
4- परब्रह्म ग्रन्थी
ब्रह्म ग्रन्थी – इस सोपान में
तालव्य क्रिया
जिह्वा चालन
मानसिक ध्यान
प्राणायाम.
नाभी क्रिया
ज्योति मुद्र
छ.महा मुद्रा है । इस मे खेचरी मुद्रा पर विशेष बल दिया जाना चाहिए।
प्राणायाम के साथ ऊँ का जाप करते हुऐ षटचक्र का ध्यान किया जाता हैं।इस मे एक प्राणायाम 44सैकिण्ड का होता है। एक समय 144प्राणायाम किये जाते है।
खेचरी मुद्रा पूर्ण होने पर ब्रह्म ग्रन्थी भेदन होती है।
परिणाम-
1- आसन सिद्ध होता है।2.खेचरी मुद्रा लगने लगती है।3 चेतना मूलाधार से उठ कर अनाहत मे आ जाती हैं।4 साधक की कामनाऐ समाप्त हो जाती है।5 ब्रह्मा जी के दर्शन होते हैं।
विष्णु ग्रन्थी या ह्रदय ग्रन्थी
इस मे प्राणायाम 66 सैकिण्ड का होता है।
मन्त्र द्वादश अक्षर का हैं। एक समय 200प्राणायाम किये जाते है ।प्राणायाम के साथ सिर को घूमाने एक विशेष क्रिया की जाती हैं।
नाभि क्रिया कुम्भक लगा कर की जाती है।ज्योति मुद्रा व म हा मुद्रा भी की जाती है।
परिणाम-
1- हृदय गति रूकने लग जाती हैं।
2.वासुदेवम् कटुम्भक की भावना हो जाती है।
3- चेतना ह्रदय से उठ कर आज्ञा चक्र पर आ जाती है।
4.साधक को भगवान विष्णु जी के दर्शन होते है।
रूद्र ग्रन्थी
प्राणायाम88 सैकिण्ड का होता है । मन्त्र ओंकार है। इसमेआज्ञा चक्र पर ध्यान लगा कर श्वास लिया जाता है व छोडा जाता है। प्राणायाम करते हुऐ एक ही धारणा करनी चाहिए आज्ञा चक्र से श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हूँ।
शेष क्रिया ह्रदय ग्रन्थी वाली करनी हैं।
परिणाम-
1.श्वास लम्बे समय तक रूकने लगता है।
2 तीसरा नेत्र खुल जाता है।
3 साधक मृत्यु को जान लेता हैं। मृत्यु का भय समाप्त हो जाता है।
4 चेतना आज्ञा चक्र से दशम द्वार की तरफ चल पडती है।
5 भगवान शिव जी के साक्षात दर्शन होते है।
परब्रह्म ग्रन्थी
इस के दो भाग है।
1- पहले भाग मे प्रतिदिन पहले श्रीविद्या साधना की साधना की जाती
2- . दूसरे भाग मे प्राणायाम
लंम्बे से लम्बा खिचना है व लंम्बे से लम्बा छोडना है।साधना करते हुऐ संकल्प करे की दशम द्वार से श्वास ले रहा हू और छोड रहा।कुछ समय तो इस प्रकार करे व कुछ समय ध्यान व संकल्प करे की बिन्दु से topसे श्वास ले रहा हू व छोड़ रहा हू। यह क्रिया केवल खेचरी मुद्रा लगा कर ही करनी है ।अन्यथा परिणाम नही आऐगा।
परिणाम-
1 दशम द्वार खुल जाता है।
2.चिदाकाश मे प्रवेश हो जाता हैं
3.केवल कुम्भक की स्थिति आ जाती है।
4.आत्म साक्षात्कार हो जाता है।
5.ब्रह्म साक्षात्कार हो जाता है।
6.साधक मोक्ष पा लेता है।जीते जी संसार छुट जाता है ।साधक विदेही हो जाता है।
नियम :-यह विद्या प्रथम दिवस से एक घण्टा प्रातः व एक घण्टा साय । दूसरे मास से दो-दो घंटे व तीसरे मास तीन -तीन घण्टे व कम से कम छः वर्ष व अधिक से अधिक बारह वर्षो तक निरन्तर बिना रुके साधना करनी होती है साथ ही इस विद्या को गुप्त रखना होता है | ब्रह्मचर्य का पालन भी अनिवाय है | क्रिया योग के मार्ग पर मार्गदर्शन जरुरी है |
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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