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Monday, July 30, 2018

भाग – 28 इस्लाम: हजरत मोहम्मद साहब धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी


भाग – 28  इस्लाम: हजरत मोहम्मद साहब
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”


विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

पिछले अंको मे आपने विश्व के सबसे पुराने सनातन धर्म को पढा। जहां से हिंदुत्व, जैन, बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुये। बौद्ध धर्म ने इसाइयत को यीशु के माध्यम से इजरायल में जन्म दिया और फिर यह पूरी दुनिया में रक्तपात और धन प्रलोभन के सहारे चमत्कारों की जादूगरी से पूरी दुनिया में फैल गया। इस अंक से दुनिया के सबसे नये धर्म के संस्थापक ह्जरत मोहम्म्द साहब पर चर्चा आरम्भ करते है। सोंचने की बात है कि आखिर क्यों  यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।


हजरत मुहम्मद
हजरत मुहम्मद साहब का जन्म 970 में मक्काह में हुआ। आपके परिवार का मक्का के एक बड़े धार्मिक स्थल पर प्रभुत्व था। उस समय अरब में यहूदी, ईसाई धर्म और बहुत सारे समूह जो मूर्तिपूजक थे क़बीलों के रूप में थे। मक्का में काबे में इस समय लोग साल के एक दिन जमा होते थे और सामूहिक पूजन होता था। आपने ख़ादीजा नाम की एक विधवा व्यापारी के लिए काम करना आरंभ किया। बाद में उन्होंने उन्हीं से शादी भी कर ली। सन् ६१३ में आपने लोगों को ये बताना आरंभ किया कि उन्हें परमेश्वर से यह संदेश आया है कि ईश्वर एक है और वो इन्सानों को सच्चाई तथा ईमानदारी की राह पर चलने को कहता है। उन्होंने मूर्तिपूजा का भी विरोध किया। पर मक्का के लोगों को ये बात पसन्द नहीं आई।


मदीने का सफ़र
मुहम्मद साहब को सन् 922 में मक्का छोड़कर जाना पड़ा। मुस्लमान इस घटना को हिजरा कहते हैं और यहां से इस्लामी कैलेंडर हिजरी आरंभ होता है। अगले कुछ दिनों में मदीना में उनके कई अनुयायी बने तब उन्होंने मक्का वापसी की और मक्का के शासकों को युद्ध में हरा दिया। इसके बाद कई लोग उनके अनुयायी हो गए और उनके समर्थकों को मुसलमान कहा इस दौरान उन्हें कई विरोधों तथा लड़ाईयाँ लड़नी पड़ी। सबसे पहले तो अपने ही कुल के चचेरे भाईयों के साथ बद्र की लड़ाई हुई - जिसमें 313 लोगों की सेना ने करीब 900 लोगों के आक्रमण को परास्त किया। इसके बाद अरब प्रायद्वीप के कई हिस्सों में जाकर विरोधियों से युद्ध हुए। उस समय मक्का तथा मदीना में यहूदी व कुछ ईसाई भी रहते थे। पर उस समय उनको एक अलग धर्म को रूप में न देख कर ईश्वर की एकसत्ता के समर्थक माना जाता था।


मक्का वापसी
हजरत मुहम्मद मक्काह वापस हुवे। लोगों को ऐसा लग रहा था कि बड़ा युद्ध होगा, लैकिन कोई युद्ध नहीं हुआ , लोग शांतिपूर्वक ही रहे, और मुहम्मद साहब और उन्के अनुयाई मक्काह में प्रवेश किया। इस तरह मक्काह बिना किसी युद्ध के स्वाधीन होगया। मुहम्मद साहब की मक्का वापसी इस्लाम के इतिहास में एक महत्वपूर्ण घटना थी जिससे एक सम्प्रदाय के रूप में न रह कर यह बाद में एक धर्म बन गया।


सन् 932 में आपकी वफात हो गयी। उस समय तक सम्पूर्ण अरब प्रायद्वीप इस्लाम के सूत्र में बंध चुका था।


खिलाफत
सन् 932 में जब पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु हुई मुस्लिमों के खंडित होने का भय उत्पन्न हो गया। कोई भी व्यक्ति इस्लाम का वैध उत्तराधिकारी नहीं था। यही उत्तराधिकारी इतने बड़े साम्राज्य का भी स्वामी होता। इससे पहले अरब लोग बैजेंटाइन या फारसी सेनाओं में लड़ाको के रूप में लड़ते रहे थे पर खुद कभी इतने बड़े साम्राज्य के मालिक नहीं बने थे। इसी समय ख़िलाफ़त की संस्था का गठन हुआ जो इस बात का निर्णय करता कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है। मुहम्म्द साहब के दोस्त अबू बकर को मुहम्मद का उत्तराधिकारी घोषित किया गया।


उमय्यद
चौथे ख़लीफ़ा अली मुहम्मद साहब के फ़रीक (चचेरे भाई) थे और उन्होंने मुहम्मद साहब की बेटी फ़ातिमा से शादी की थी। पर इसके बावजूद उनके खिलाफ़त के समय तीसरे खलीफा उस्मान के समर्थकों ने उनके खिलाफत तो चुनौती दी और अरब साम्राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया। सन् 961 में अली की हत्या कर दी गई और उस्मान के एक निकट के रिश्तेदार मुआविया ने अपने आप को खलीफा घोषित कर दिया। इसी समय से उमेय्यद वंश का आरंभ हुआ। इसका नाम उस परिवार पर पड़ा जिसने मक्का के इस्लाम के समक्ष समर्पण से पहले मुहम्म्द साहब के साथ लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाई थी।


जल्द ही अरब साम्राज्य ने बैजेंटाइन साम्राज्य और सासानी साम्राज्य का रूप ले लिया। खिलाफ़त पिता से बेटे को हस्तांतरित होने लगी। राजधानी दमिश्क बनाई गई। उमयदों ने अरबों को साम्राज्य में बहुत ही तरज़ीह दी पर अरबों ने ही उनकी आलोचना की। अरबों का कहना था कि उम्मयदों ने इस्लाम को बहुत ही सांसारिक बना दिया है और उनमें इस्लाम के मूल में की गई बातें कम होती जा रही हैं। इन मुस्लिमों ने मिलकर अली को इस्लाम का सही खलीफा समझा। उन्हें लगा कि अली ही इस्लाम का वास्तविक उत्तराधिकारी हो सकते थे।


बगदाद में अब्बासियों की सत्ता तेरहवीं सदी तक रही। पर ईरान और उसके आसपास के क्षेत्रों में अबु इस्लाम के प्रति बहुत श्रद्धा भाव था और अब्बासियों के खिलाफ रोष। उनकी नजर में अबू इस्लाम का सच्चा पुजारी था और अली तथा हुसैन इस्लाम के सच्चे उत्ताधिकारी। इस विश्वास को मानने वालों को शिया कहा गया। अली शिया का अर्थ होता है अली की टोली वाले। इन लोगों की नज़र में इन लोगों (अली, हुसैन या अबू) ने सच का रास्ता अपनाया और इनको शासकों ने बहुत सताया। अबू इस्लाम को इस्लाम के लिए सही खलीफा को खोजकर भी फाँसी की तख़्ती को गले लगाना पड़ा। उसके साथ भी वही हुआ जो अली या इमाम हुसैन के साथ हुआ। अतः इस विचार वाले शिया कई सालों तक अब्बासिद शासन में रहे जो सुन्नी थे। इनको समय समय पर प्रताड़ित भी किया गया। बाद में पंद्रहवीं सदी में साफावी शासन आने के बाद शिया लोगों को इस प्रताड़ना से मुक्ति मिली।


विस्तार: अफ्रीका और यूरोप
मिस्र में इस्लाम का प्रचार तो उम्मयदों के समय ही हो गया था। अरबों ने स्पेन में सन् 710 में पहली बार साम्राज्य विस्तार की योजना बनाई। धीरे-धीरे उनके साम्राज्य में स्पेन के उत्तरी भाग भी आ गए। दसवीं सदी के अन्त तक यह अब्बासी खिलाफत का अंग बन गया था। इसी समय तक सिन्ध भी अरबों के नियंत्रण में आ गया था। सन् 1095 में पोप अर्बान द्वितीय ने धर्मयुद्दों की पृष्टभूमि तैयार की। ईसाईयों ने स्पेन तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुस्लिमों का मुकाबला किया। येरूसेलम सहित कई धर्मस्थलों को मुस्लिमों के प्रभुत्व से छुड़ा लिया गया। पर कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें प्रभुसत्ता से बाहर निकाल दिया गया।


आधुनिक अफ़गानिस्तान के इलाके में (जो उस समय अब्बासी सासन का अंग था) गजनी का महमूद शक्तिशाली हो रहा था। इस समय तक इस्लाम का बहुत प्रचार भारतीय उपमहाद्वीप में नहीं हो पाया था। ग्यारहवीं सदी के अन्त तक उनकी शक्ति को ग़ोर के शासकों ने कमजोर कर दी थी। ग़ोर के महमूद ने सन् 1192 में तराईन के युद्ध में दिल्ली के शासक पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। इस युद्ध के अप्रत्याशित परिणाम हुए। गोरी तो वापस आ गया पर अपने दासों (ग़ुलामों) को वहाँ का शासक नियुक्त कर आया। कुतुबुद्दीन ऐबक उसके सबसे काबिल गुलामों में से एक था जिसने एक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी नींव पर मुस्लिमों ने लगभग 900 सालों तक राज किया। दिल्ली सल्तनत तथा मुगल राजवंश उसी की आधारशिला के परिणाम थे।


तीसरे खलीफा उथमान ने अपने दूतों को चीन के तांग दरबार में भेजा था। तेरहवीं सदी के अन्त तक इस्लाम इंडोनेशिया पहुँच चुका था। सूफियों ने कई इस्लामिक ग्रंथों का मलय भाषा में अनुवाद किया था। पंद्रहवीं सदी तक इस्लाम फिलीपींस पहुँच गया था।

 
१.  हमेशा सही बात करो। (7- सूरह.33)
२. जब तुम पर कोई मुसीबत पड़े तो यक़ीन जानो के उसका बायस (कारण) तुम ख़ुद हो। (79- सूरह. 4)
३. ज़ालिमों की नुसरत (सहायता) करने वाला कोई नहीं। (192- सूरह. 3)
४. कभी माँगने वाले को झिड़को नहीं। (10- सूरह. 3)
५. वह बात क्यों कहते हो जो कर नहीं सकते। (2- सूरह. 61)
६. कभी किसी की टोह में मत रहा करो। (14- सूरह. 49)
७. जिस चीज़ का तुमको इल्म (ज्ञान) नहीं उसके बारे में कुछ न कहो क्योंकि कानआँख और सब के सब क़यामत के दिन जवाब देह (उत्तरदायी) होगें। (36- सूरह. 49)
८. फ़साद (झगड़े) करते न फिरो। (56- सूरह. 7)
९. तुम उन लोगों से दूर रहो जिन्होंने दीन को खेल तमाशा बना रखा है। (69- सूरह. 7)
१०. ख़्वाहेशात नफ़सानी (आत्मइच्छाओं) की पैरवी मत करो वरना राहे ख़ुदा से हट जाओगे। (26- सूरह. 83)
११. लग़ो (व्यर्थ) बातों से बचो। (4- सूरह. 44)
१२. मुनाफ़क़ीन (जिनका बाहरी व आंनतरिक एक न हो) की एक अलामत (चिन्ह) यह है के जब वह नमाज़ के लिये ख़ड़े होते हैं तो बे-दिली के साथ। (142- सूरह. 3)
१३. तुम अल्लाह के बाज़ अहकामात (आज्ञाओं) पर ईमान रखते हो और बाज़ से इन्कार कर देते हो – उसकी सज़ा दुनिया में तुम्हारी रूस्वाई है और आख़रत (परलोक) में शदीद अज़ाब (सज़ा) हैं। (85- सूरह. 4)
१४. अपने ओमूर (कार्य) में लोगों से मशविरा करो और जब कोई बात तय कर लो तो फिर अल्लाह पर भरोसा रखो क्योंकि अल्लाह इस बात को पसन्द करता है। (159- सूरह. 3)
१५. क़ाबिले मुबारकबाद हैं वो लोग जो ग़ौर से बाते सुनते हैं और उनमें से अच्छी बातों को अपनातें हैं। (18- सूरह. 39)
१६. अहकामे इलाही (ईशवरीय आज्ञाओं) के नेफ़ाज़ (लागू) में किसी क़िस्म की रू- रेआयत नहीं बर्तनी चाहिये। (2- सूरह. 24)
१७. अपनी ख़ैरात को एहसान जता कर और साएल को कबिदा ख़ातिर (रंजीदा) करके बर्बाद न करो। (264- सूरह. 2)
१८. ग़ैरों को भी अपना राज़दार न बनाओ। (76- सूरह.3)
१९. मोमिन ख़ुदा की राह में जेहाद करता है -- काफ़िर माद्दी (दुनियावी) ताक़तों की बहीली के लिये अपनी जान देता है -- तुम शैतान के साथियों से मुक़ाबला करो -- और शैतान के हरबे तो यक़ीनन कमज़ोर हैं। (76- सूरह.4)
२०. सुस्ती न करो और परेशान ख़ातिर न हो -- अगर तुम मोमिन हो तो तुम्हीं सरबलन्द रहोगे। (139- सूरह.3)
२१. किसी नाफ़रमान की बात पर बग़ैर तहक़ीक़ किये ऐतेबार न करो वरना हो सकता है कि बाद में तुम्हें नादिम (पछतावा) होना पड़े। (6- सूरह.49)
२२. एक दूसरे को बूरे अल्क़ाब (अपशब्द) से मत नवाज़ो। (11- सूरह.49)
२३. जो इलाही अहकामात (ईशवरीय आज्ञाओं) के मुताबिक़ अमल (कार्य) नहीं करते – वही काफ़िर हैं वही ज़ालिम हैं – वही फ़ासिक़ हैं। (45- सूरह.5)
२४. आपस में झगड़ा न करो वरना तुम्हारी हिम्मतें पस्त हो जायेगीं और रोब व दबदबा ख़त्म हो जाएगा। (46- सूरह.8)
२५. अगर तुम शुक्र बजा लाओगे तो हम तुम्हारी नेमतों में इज़ाफ़ा कर देंगे. (7- सूरह.14)
२६. नमाज़े शब पढ़ा करो यह तुम्हारे लिये फ़ज़ीलत है ताकि ख़ुदा तुम्हें मक़ामे महमूद (पुनीत कक्ष) अता करे। (79- सूरह.17)
२७. हर शख़्स अपने फ़ेल (कार्य) का ज़िम्मेदार है -- और रोज़े हिसाब (क़यामत) कोई किसी का बार (बोझ) नहीं उठायेगा। (165- सूरह.6)
२८. जो लोग हमारी राह में जेहाद (संघर्ष) करते हैं उनको हम दीनी राह ख़ुद बताते हैं। (69- सूरह.29)
२९. तुम अपने अहद व पैमान (वचन) की हमेशा वफ़ा (पूरा) करो। (1- सूरह.5)
३०. दरगुज़र से काम लोअच्छी बातों का हुक्म दो और जाहिलों से किनारा कश (दूर) रहो। (199- सूरह.7)
३१. नेकियों और अच्छाईयों में एक दूसरे का हाथ बटाओ लेकिन गुनाह व सरकशी में किसी का साथ न दो। (2- सूरह.5)
३२. ख़ुदा तुम्हें हुक्म देता है के अमानतें उनके मालिकों तक पहुँचाओ और जब लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो इन्साफ़ से काम लो। (58- सूरह.4)
३३. ख़ुदा किसी भी ख़यानतकार को दोस्त नहीं रखता है। (38- सूरह.22)
३४. लोग क़ुरआन के मतालिब (मतलब का बहु) पर ग़ौर क्यों नहीं करतेक्या उनके दिलों पर ताले पड़े होते हैं। (24- सूरह.47)
३५. तुम अपने माँबाप और अपने भाई बहनों को अपना ख़ैर ख़ा (अच्छाई करने वाला) न समझो अगर वह ईमान पर ग़लत बातों को तरजीह (प्राथमिकता) देते हैं। (23- सूरह.9)
३६. अगर तुम्हें अपने अज़ीज़अपना ख़ानदानअपना माल व मता अपनी तेजारत (व्यवसाय) अपने पसन्दीदा मकानात -- अल्लाह और उसके रसूल और उसकी राह में जेहाद करने से ज़्यादा अज़ीज़ (प्यारे) हैं -- तो अल्लाह के अज़ाब का इन्तेज़ार (प्रतिक्षा) करो। (24- सूरह.9)
३७. जो लोग माल व दौलत जमा करते हैं और अल्लाह की राह (मार्ग) में सर्फ़ (ख़र्च) नहीं करते तो उन्हें दर्दनाक अज़ाब से बा-ख़बर कर दो। (34- सूरह.9)
३८. शराबजुआबुतपाँसे नजिस और शैतानी खेल हैं अगर आख़ेरत (परलोक) की कामयाबी चाहते हो तो इन चीज़ों से बचो। (90- सूरह.5)
३९. जो शख़्स ईमान के साथ नेक आमाल (कार्य) भी अन्जाम देगा हम उसकी दुनिया व आख़ेरत (परलोक) दोनो सँवार देंगे। (88- सूरह.18)
४०. तो (ऐ गिरोह जिन व इन्स (जिन्नात और मनुष्य)) तुम दोने अपने परवरदिगार (ईश्वर) की कौन कौन सी नेमत को ना मानोगे। (13- सूरह. 97)

............क्रमश:...............

(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई  साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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भाग – 27 इस्लाम की यात्रा धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी




भाग – 27  इस्लाम की यात्रा
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
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पिछले अंको मे आपने विश्व के सबसे पुराने सनातन धर्म को पढा। जहां से हिंदुत्व, जैन, बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुये। बौद्ध धर्म ने इसाइयत को यीशु के माध्यम से इजरायल में जन्म दिया और फिर यह पूरी दुनिया में रक्तपात और धन प्रलोभन के सहारे चमत्कारों की जादूगरी से पूरी दुनिया में फैल गया। अब दुनिया के सबसे नये धर्म पर चर्चा आरम्भ है। सोंचने की बात है कि आखिर क्यों  यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।



मक्का के पास स्थित हिरा की गुफा जहां पैगम्बर मुहम्मद साहब को ईश्वर से पहला सन्देश मिला था।
मुहम्मद पैगंबर (५७०-६३२) को मक्का की पहाड़ियों में परम ज्ञान ६१० के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा। इस यात्रा को हिजरा कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है। मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और हजरत मुहम्मद साहब के संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। ६३० में हजरत मुहम्मद साहब ने अपने अनुयायियों के साथ एक संधि का उल्लंघन होने के कारण मक्का पर चढ़ाई कर दी। मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण करके इस्लाम कबूल कर लिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र स्थल घोषित कर दिया गया। ६३२ में पैगम्बर मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।

यहां  पर  ध्यान  देनेवाली  बात  है कि  कथाओं के  अनुसार वे चांद  को निहारते  थे।  भेडे  चराते और  गुफ़ा  में आराम  करते  चिंतन  करते  जो एक तरह  का ध्यान  ही  है। 
अब  आप  देखें  चांद  को निहारना और  घूरना  एक  तरह  का  त्राटक  है। देखें मेरे  ब्लाग  पर अंतर्मुखी होने की विधियां। जिनमें नेत्रों के द्वारा आदमी अंतर्मुखी होकर आत्मगुरु (सनातन के अनुसार) गाड वाइस (इसाइत), अल्लह की बोली (मुस्लिम) कहते हैं, उसको प्राप्त कर सकता है। बाद में जब मोहम्माद साहब ने अपनी पत्नी से यह कहा तो उन्होने कहा कि यह तुम पर खुदा की मेहरबानी है।


 ७५० में इस्लामी सम्राज्य।
मुहम्मद के ससुर अबु बक्र सिद्दीक़ मुसलमानों के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका खलीफा होना स्वीकार किया। सुन्नी मुसलमानों (80-90%) के अनुसार अबु बक्र सिद्दीक की खिलाफ़त के सम्बंध में कोई विवाद नहीं हुआ अपितु सभी ने उन्हे खलिफ़ा स्विकार कर लिया था, सुन्नी मान्य्ताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद साहब ने स्वयं अपने स्वर्गवास से पूर्व ही अबु बक्र सिद्दीक को अपने स्थान पर इमामत करने[ सलात (फ़ारसी में "नमाज") पढाने ] का कार्य भार देकर अबु बक्र सिद्दीक के खलिफ़ा होने का का संकेत दे दिया था सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज में ख़ुम्म सरोवर के निकट अपने साथियों को संबोधित किया था। शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को हजरत अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है।


 
हज के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों को बुला कर कहा कि मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो उमर ने कहा कि ये हिजयान कह रहे हे और नहीं देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)। 


शिया इतिहास के अनुसार जब पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो भी ये वापस न आकर सकिफा में सभा करने लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और मित्र मुहम्मद साहब (स्०) को दफ़नाने में लगे थे,   अबु बक़र मदीना में जाकर ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे। 


मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने प‍र सहमत हो गये। ध्यान रहे कि मोहम्मद साहेब एवम अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों के अनुसार अली, जो मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया। 


इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे।परन्तु शिया मुस्लिम (10-20%)के अनुसार मुहम्मद के चचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल में पूर्वी रोमन साम्राज्य और ईरानी साम्राज्य से मुसलमान फौजों की लड़ाई हूई। यह युद्ध मुहम्मद के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का हिस्सा थे। अबु बक्र के बाद उमर बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया। उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।

 
उमर बिन खत्ताब के बाद उसमान बिन अफ्फान ६४४ में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं और कि अली (मुहम्मद साहिब के चचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया। 


कुछ प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वींकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जब  तक उसमान के हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआई आयशा, जो की मुहम्मद की पत्नी थी, कर रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हूई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस जंग में अली की सेना विजय हूई। अब सीरिया के राज्यपाल मुआविया ने विद्रोह का बिगुल बजाया। मुआविया उसमान के रिश्तेदार भी थे मुआविया की सेना और अली की सेना के बीच में जंग हूई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी। मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने ६६१ में अली की हत्या कर दी।

 
शिया और सुन्नी वर्गों की नींव

अली के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग रह गया जिसका मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से प्रसिद्ध हुआ। बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद का परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये। सुन्नी पहले चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं जिसका अर्थ है सही मार्ग पे चलने वाले खलीफा।


 
मुआविया के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससे उमय्यद ख़िलाफ़त का आरंभ हुआ। शिया इतिहास कारों के अनुसार मुआविया क बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया, उसके कृत्य से धार्मिक मुसलमान असहज स्थिति में आ गए, अब यज़ीद को आयश्यकता थी की अपनी गलत नीतिओ को ऐसे व्यक्ति से मान्यता दिला दे जिस पर सभी मुस्लमान भरोसा करते हो, इस काम के लिए यज़ीद ने हज़रत मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद की इकलौती पुत्री फातिमा के पुत्र हज़रत हुसैन से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करनी चाही परन्तु हज़रत हुसैन ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी मंजूरी देने से मना कर दिया, हज़रत हुसैन के मना करने पर यज़ीद की फौजों ने हज़रत हुसैन और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया, कई सुन्नी इतिहास कारों ने भी अपनी पुस्तकों में यज़ीद को हुसैन के क़त्ल का ज़िम्मेदार माना है परन्तु ये सभी शिया इतिहास कारों से प्रेरित थे या इनके ज्ञान का असल केन्द्र शियाओं की गडी गयी बनू उमय्या के विरुद्ध झूठी कहानियां है। 


सुन्नी मत के बड़े विध्वा्नो इमाम अहमद बिन हंब्ल, इमाम ग़ज़ाली वगैरह ने यज़ीद को क़त्ले हुसैन करने का ज़िम्मेदार नहीं माना है। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्ति हो गयी। शिया लोग १० मुहर्रम के दिन इसी का शोक मनाते हैं।

 
इस्लाम का स्वर्ण युग (७५०-१२५८)

इबन रशुद जिसने दर्शनशास्त्र में इबनरशुवाद को जन्म दिया।
उम्मयद वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बाद अब्बासी वंश ७५० में सत्ता में आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी सम्राज्य की धारणा अब समाप्त होने लगी।
अब्बासियों के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव में ज्ञान केन्द्र बनने लगी। कई विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया। मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी छाप भी छोड़ी।


 
चिकित्सा विज्ञान में शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें भारत में हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के बीच में जो फर्क है उसे समझा गया। इबने सीना (९८०-१०३७) ने चिकित्सा विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है। इसी तरह से अल हैथाम को प्रकाशिकी विज्ञान का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है। अल ख्वारिज़्मी की किताब किताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला से ही बीजगणित को उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।


 
इस्लामी दर्शनशास्त्र में प्राचीन युनानी सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हूई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरह इबन रशुद ने अरस्तू के सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे कलाम कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट गया।

 
राजनैतिक तौर पर अब्बासी सम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे। महमूद ग़ज़नी (९७१-१०३०) ने अपने आप को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया। सल्जूक तुरकों ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यह मुस्लिम कृषि क्रांति कहलाती है।

 
विभिन्न मुस्लिम सम्राज्यों की रचना और आधुनिक इस्लाम

फातिमिद वंश (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बने ममलूक वंश ने १२५० में सत्ता हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक सम्राज्य की शरण में चले गये। 


एशिया में मंगोलों ने कई सम्राज्यों पर कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया। 



मुस्लिम सम्राज्यों और इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा। अय्यूबिद वंश के सलादीन ने ११८७ में येरुशलाईम को, जो पहली सलेबी जंग (१०९६-१०९९) में इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी से उस्मानी साम्राज्य  (१२९९-१९२४) का असर बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शिया सफवी वंश(१५०१-१७२२) और भारत में दिल्ली सुल्तानों (१२०६-१५२७) और बाद में मुग़ल साम्राज्य  (१५२६-१८५७) की हुकूमत हो गयी।

 
नवीं सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसे सूफी मत कहते हैं। ग़ज़ाली (१०५८-११११) ने सूफी मत के पक्ष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ। रूमी (१२०७-१२७३) की मसनवी इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ। मोइनुद्दीन चिश्ती, बाबा फरीद, निज़ामुदीन जैसे भारतीय सूफी संत इसी कड़ी का हिस्सा थे।

 
१९२४ में तुर्की के पहले प्रथम विश्वयुद्ध में हार के बाद उस्मानी साम्राज्य समाप्त हो गया और खिलाफत का अंत हो गया। मुसल्मानों के अन्य देशों में प्रवास के कारण युरोप और अमरीका में भी इस्लाम फैल गया है। अरब दैशों में तेल के उत्पादन के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से सुधर गयी। १९वीं और २०वीं सदी में इस्लाम में कई पुनर्जागरण आंदोलन हुए। इन में से सलफ़ी और देवबन्दी मुख्य हैं। एक पश्चिम विरोधी भावना का भी विकास हुआ जिससे कुछ मुसलमान कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित होने लगे।


मुसलमानों के उपासनास्थल को मस्जिद कहते हैं। मस्जिद इस्लाम में केवल ईश्वर की प्रार्थना का ही केंद्र नहीं होता है बल्की यहाँ पर मुस्लिम समुदाय के लोग विचारों का आदान प्रदान और अध्ययन भी करते हैं। मस्जिदों में अक्सर इस्लामी वास्तुकला के कई अद्भुत उदाहरण देखने को मिलते हैं। विश्व की सबसे बड़ी मस्जिद मक्का की मस्जिद अल हराम है। मुसलमानों का पवित्र स्थल काबा इसी मस्जिद में है। मदीना की मस्जिद अल नबवी और येरुशलाईम की मस्जिद ए अक़सा भी इस्लाम में महत्वपूर्ण हैं।

 
पारिवारिक और सामाजिक जीवन
मुसलमानों का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और २ गवाहों से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल १ गवाह चाहिये होता है)। इस्लामी कानून स्त्रियों और पुरुषों को विरासत में आधा हिस्सा देता है। स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों की तुलना में आधा होता है।

 
इस्लाम के दो महत्वपूर्ण त्यौहार ईद उल फितर और ईद-उल-अज़्हा हैं। रमज़ान का महीना (जो कि इस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना होता है) बहुत पवित्र समझा जाता है। अपनी इस्लामी पहचान दिखाने के लिये मुसलमान अपने बच्चों का नाम अक्सर अरबी भाषा से लेते हैं। इसी कारण वह दाढ़ी भी रखते हैं। इस्लाम में कपड़े पहनते समय लज्जा रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसलिये अधिकतर स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं और कुछ स्त्रियाँ नकाब भी पहनती हैं।
भारत के अजमेर शहर में सूफी संत मोइनुदीन चिश्ती की दरगाह। यहां रोज़ हज़ारों लोग श्रद्धांजलि देने आते हैं ।

अन्य धर्मों से इस्लाम का संपर्क समय और परिस्थ्ति से प्रभावित रहा है। यह संपर्क मुहम्मद के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में ३ परम्पराओं के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना धर्म (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी वैधता इस्लाम ने नहीं स्वीकार की। इसका कारण था कि वह धर्म ईश्वर की एकता को नहीं मानता था जो कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध था। ईसाई धर्म और यहूदी धर्म को इस्लाम ने वैध तो स्वींकार कर लिया पर इस्लाम के अनुसार इन धर्मों के अनुयायियों और पुजारियों ने इनमें बदलाव कर दिये थे। मुहम्म्द ने अपने मक्का से मदीना पहुंचने के बाद वहाँ के यहूदियों के साथ एक संधि करी जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता को स्वींकारा गया। अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक संधि हूई जिसे हुदैबा की सुलह कहते हैं।

 
मुहम्मद के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर् इस्लाम का व्यवहार निर्धारित करते आये हैं। जब राशिदून खलीफाओं ने अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामना पारसी धर्म से हुआ। उसको भी वैध स्वींकार कर लिया गया। इन सभी धर्मों के अनुयायियों को धिम्मी कहा गया। मुसलमान खलीफाओं को इन्हें एक शुल्क देना होता था जिसे जिज़्या कहते हैं। इसके बदले राज्य उन्हें हानी न पहुंचाने और सुरक्षा देने का वादा करता था। उम्मयदों के कार्यकाल में इस्लाम कबूल करने वाले को अक्सर हतोत्साहित किया जाता था। इसका कारण था कि कई लोग केवल राजनैतिक और आर्थिक लाभों के लिये ही इस्लाम कबूल करने लगे थे। इससे जिज़्या कम होने लगा था।


 
भारत में इस्लाम का आगमन तो अरब व्यापारी ७वीं सदी में ही ले आये थे। लेकिन भारत में प्रारंभिक मुस्लिम सुल्तानों का आना १०वीं सदी में ही हुआ। अब तक आधिकारिक रूप से इन सुलतानों का इस्लामी खलीफाओं से कोई संबंध नहीं था। इसलिये इन सभी ने अपनी अपनी समझ के हिसाब से हिन्दू धर्म कि ओर अपना रवैया अपनाया। शुरु में कुछ मुस्लिम सुल्तानों ने हिन्दू धर्म की कम जानकारी होने के कारण उसे पुराने अरब के बहुदेववाद के साथ जोड़ा। सूफी संतों और भक्ति आंदोलन ने इस मनमुटाव को दूर करने में बहुत अहम भूमिका निभाई।


 
अगले कुछ वर्षों में कई प्रबुद्ध लोग मुहम्मद स्० (पैगम्बर नाम से भी ज्ञात) के अनुयायी बने। उनके अनुयायियों के प्रभाव में आकर भी कई लोग मुसलमान बने। इसके बाद मुहम्मद साहब ने मक्का वापसी की और बिना युद्ध किए मक्काह फ़तह किया और मक्का के सारे विरोधियों को माफ़ कर दिया गया। इस माफ़ी की घटना के बाद मक्का के सभी लोग इस्लाम में परिवर्तित हुए। पर पयम्बर (या पैगम्बर मुहम्मद) को कई विरोधों और नकारात्मक परिस्थितियों का सामना करना पड़ा पर उन्होंने हर नकारात्मकता से सकारात्मकता को निचोड़ लिया जिसके कारण उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में जीत हासिल की।


 
उनकी वफात के बाद अरबों का साम्राज्य और जज़्बा बढ़ता ही गया। अरबों ने पहले मिस्र और उत्तरी अफ्रीका पर विजय हासिल की और फिर बैजेन्टाइन तथा फारसी साम्राज्यों को हराया। यूरोप में तो उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली पर फारस में कुछ संघर्ष करने के बाद उन्हें जीत मिलने लगी। इसके बाद पूरब की दिशा में उनका साम्राज्य फेलता गया। सन् 1200 तक वे भारत तक पहुँच गए।

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(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई  साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...