भाग – 28 इस्लाम: हजरत मोहम्मद साहब
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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पिछले अंको मे आपने विश्व के सबसे पुराने सनातन धर्म को पढा। जहां से
हिंदुत्व, जैन, बौद्ध धर्म भारत में पैदा हुये। बौद्ध धर्म ने
इसाइयत को यीशु के माध्यम से इजरायल में जन्म दिया और फिर यह पूरी दुनिया में
रक्तपात और धन प्रलोभन के सहारे चमत्कारों की जादूगरी से पूरी दुनिया में फैल गया।
इस अंक से दुनिया के सबसे नये धर्म के संस्थापक ह्जरत मोहम्म्द साहब पर चर्चा
आरम्भ करते है। सोंचने की बात है कि आखिर क्यों
यूनेस्को ने
7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
हजरत मुहम्मद
हजरत मुहम्मद साहब का जन्म 970 में मक्काह में
हुआ। आपके परिवार का मक्का के एक बड़े धार्मिक स्थल पर प्रभुत्व था। उस समय अरब
में यहूदी, ईसाई धर्म और बहुत सारे समूह जो मूर्तिपूजक थे क़बीलों
के रूप में थे। मक्का में काबे में इस समय लोग साल के एक दिन जमा होते थे और सामूहिक
पूजन होता था। आपने ख़ादीजा नाम की एक विधवा व्यापारी के लिए काम करना आरंभ किया।
बाद में उन्होंने उन्हीं से शादी भी कर ली। सन् ६१३ में आपने लोगों को ये बताना
आरंभ किया कि उन्हें परमेश्वर से यह संदेश आया है कि ईश्वर एक है और वो इन्सानों
को सच्चाई तथा ईमानदारी की राह पर चलने को कहता है। उन्होंने मूर्तिपूजा का भी
विरोध किया। पर मक्का के लोगों को ये बात पसन्द नहीं आई।
मदीने का सफ़र
मुहम्मद साहब को सन् 922 में मक्का छोड़कर जाना पड़ा।
मुस्लमान इस घटना को हिजरा कहते हैं और यहां से इस्लामी कैलेंडर हिजरी आरंभ होता
है। अगले कुछ दिनों में मदीना में उनके कई अनुयायी बने तब उन्होंने मक्का वापसी की
और मक्का के शासकों को युद्ध में हरा दिया। इसके बाद कई लोग उनके अनुयायी हो गए और
उनके समर्थकों को मुसलमान कहा इस दौरान उन्हें कई विरोधों तथा लड़ाईयाँ लड़नी
पड़ी। सबसे पहले तो अपने ही कुल के चचेरे भाईयों के साथ बद्र की लड़ाई हुई - जिसमें 313 लोगों की सेना ने करीब 900 लोगों के आक्रमण को परास्त किया। इसके बाद अरब प्रायद्वीप के कई हिस्सों
में जाकर विरोधियों से युद्ध हुए। उस समय मक्का तथा मदीना में यहूदी व कुछ ईसाई भी
रहते थे। पर उस समय उनको एक अलग धर्म को रूप में न देख कर ईश्वर की एकसत्ता के
समर्थक माना जाता था।
मक्का वापसी
हजरत मुहम्मद मक्काह वापस हुवे। लोगों को ऐसा लग रहा था कि बड़ा युद्ध होगा, लैकिन कोई
युद्ध नहीं हुआ , लोग शांतिपूर्वक ही रहे, और मुहम्मद साहब और उन्के अनुयाई मक्काह में प्रवेश किया। इस तरह मक्काह
बिना किसी युद्ध के स्वाधीन होगया। मुहम्मद साहब की मक्का वापसी इस्लाम के इतिहास
में एक महत्वपूर्ण घटना थी जिससे एक सम्प्रदाय के रूप में न रह कर यह बाद में एक धर्म
बन गया।
सन् 932 में आपकी वफात हो गयी। उस समय तक सम्पूर्ण अरब प्रायद्वीप इस्लाम के सूत्र
में बंध चुका था।
खिलाफत
सन् 932 में जब पैगम्बर मुहम्मद की मृत्यु हुई मुस्लिमों के खंडित होने का भय उत्पन्न
हो गया। कोई भी व्यक्ति इस्लाम का वैध उत्तराधिकारी नहीं था। यही उत्तराधिकारी
इतने बड़े साम्राज्य का भी स्वामी होता। इससे पहले अरब लोग बैजेंटाइन या फारसी
सेनाओं में लड़ाको के रूप में लड़ते रहे थे पर खुद कभी इतने बड़े साम्राज्य के
मालिक नहीं बने थे। इसी समय ख़िलाफ़त की संस्था का गठन हुआ जो इस बात का निर्णय
करता कि इस्लाम का उत्तराधिकारी कौन है। मुहम्म्द साहब के दोस्त अबू बकर को
मुहम्मद का उत्तराधिकारी घोषित किया गया।
उमय्यद
चौथे ख़लीफ़ा अली मुहम्मद साहब के फ़रीक (चचेरे भाई) थे और उन्होंने मुहम्मद
साहब की बेटी फ़ातिमा से शादी की थी। पर इसके बावजूद उनके खिलाफ़त के समय तीसरे
खलीफा उस्मान के समर्थकों
ने उनके खिलाफत तो चुनौती दी और अरब साम्राज्य में गृहयुद्ध छिड़ गया। सन् 961
में अली की हत्या कर दी गई और उस्मान के एक निकट के रिश्तेदार
मुआविया ने अपने आप को खलीफा घोषित कर दिया। इसी समय से उमेय्यद वंश का आरंभ हुआ।
इसका नाम उस परिवार पर पड़ा जिसने मक्का के इस्लाम के समक्ष समर्पण से पहले
मुहम्म्द साहब के साथ लड़ाई में प्रमुख भूमिका निभाई थी।
जल्द ही अरब साम्राज्य ने बैजेंटाइन साम्राज्य और सासानी साम्राज्य का रूप ले लिया। खिलाफ़त पिता से बेटे को हस्तांतरित होने लगी। राजधानी दमिश्क बनाई
गई। उमयदों ने अरबों को साम्राज्य में बहुत ही तरज़ीह दी पर अरबों ने ही उनकी
आलोचना की। अरबों का कहना था कि उम्मयदों ने इस्लाम को बहुत ही सांसारिक बना दिया
है और उनमें इस्लाम के मूल में की गई बातें कम होती जा रही हैं। इन मुस्लिमों ने
मिलकर अली को इस्लाम का सही खलीफा समझा। उन्हें लगा कि अली ही इस्लाम का वास्तविक
उत्तराधिकारी हो सकते थे।
बगदाद में अब्बासियों की सत्ता तेरहवीं सदी तक रही। पर ईरान और उसके आसपास
के क्षेत्रों में अबु इस्लाम के प्रति बहुत श्रद्धा भाव था और अब्बासियों के खिलाफ
रोष। उनकी नजर में अबू इस्लाम का सच्चा पुजारी था और अली तथा हुसैन इस्लाम के
सच्चे उत्ताधिकारी। इस विश्वास को मानने वालों को शिया कहा गया। अली शिया का अर्थ
होता है अली की टोली वाले। इन लोगों की नज़र में इन लोगों (अली, हुसैन या अबू)
ने सच का रास्ता अपनाया और इनको शासकों ने बहुत सताया। अबू इस्लाम को इस्लाम के
लिए सही खलीफा को खोजकर भी फाँसी की तख़्ती को गले लगाना पड़ा। उसके साथ भी वही हुआ
जो अली या इमाम हुसैन के साथ हुआ। अतः इस विचार वाले शिया कई सालों तक अब्बासिद शासन
में रहे जो सुन्नी थे। इनको समय समय पर प्रताड़ित भी किया गया। बाद में पंद्रहवीं
सदी में साफावी शासन आने के बाद शिया लोगों को इस प्रताड़ना से मुक्ति मिली।
विस्तार: अफ्रीका और यूरोप
मिस्र में इस्लाम का प्रचार
तो उम्मयदों के समय ही हो गया था। अरबों ने स्पेन में सन् 710 में पहली बार साम्राज्य विस्तार की योजना बनाई। धीरे-धीरे उनके साम्राज्य
में स्पेन के उत्तरी भाग भी आ गए। दसवीं सदी के अन्त तक यह अब्बासी खिलाफत का अंग
बन गया था। इसी समय तक सिन्ध भी अरबों के नियंत्रण
में आ गया था। सन् 1095 में पोप अर्बान द्वितीय ने धर्मयुद्दों
की पृष्टभूमि तैयार की। ईसाईयों ने स्पेन तथा पूर्वी क्षेत्रों में मुस्लिमों का
मुकाबला किया। येरूसेलम सहित कई धर्मस्थलों को मुस्लिमों के प्रभुत्व से छुड़ा
लिया गया। पर कुछ दिनों के भीतर ही उन्हें प्रभुसत्ता से बाहर निकाल दिया गया।
आधुनिक अफ़गानिस्तान के इलाके में (जो उस समय अब्बासी सासन का अंग था) गजनी
का महमूद शक्तिशाली हो रहा था। इस समय तक इस्लाम का बहुत प्रचार भारतीय उपमहाद्वीप
में नहीं हो पाया था। ग्यारहवीं सदी के अन्त तक उनकी शक्ति को ग़ोर के शासकों ने
कमजोर कर दी थी। ग़ोर के महमूद ने सन् 1192 में तराईन के युद्ध में दिल्ली के
शासक पृथ्वीराज चौहान को हरा दिया। इस युद्ध के अप्रत्याशित परिणाम हुए। गोरी तो
वापस आ गया पर अपने दासों (ग़ुलामों) को वहाँ का शासक नियुक्त कर आया। कुतुबुद्दीन
ऐबक उसके सबसे काबिल गुलामों में से एक था जिसने एक साम्राज्य की स्थापना की जिसकी
नींव पर मुस्लिमों ने लगभग 900 सालों तक राज किया। दिल्ली सल्तनत तथा मुगल राजवंश
उसी की आधारशिला के परिणाम थे।
तीसरे खलीफा उथमान ने अपने दूतों को चीन के तांग दरबार
में भेजा था। तेरहवीं सदी के अन्त तक इस्लाम इंडोनेशिया पहुँच
चुका था। सूफियों ने कई इस्लामिक ग्रंथों का मलय भाषा में
अनुवाद किया था। पंद्रहवीं सदी तक इस्लाम फिलीपींस पहुँच
गया था।
१. हमेशा सही बात करो। (7- सूरह.33)
२. जब तुम पर कोई मुसीबत पड़े तो यक़ीन जानो के उसका बायस (कारण) तुम ख़ुद
हो। (79- सूरह. 4)
३. ज़ालिमों की नुसरत (सहायता) करने वाला कोई नहीं। (192- सूरह. 3)
४. कभी माँगने वाले को झिड़को नहीं। (10- सूरह. 3)
५. वह बात क्यों कहते हो जो कर नहीं सकते। (2- सूरह. 61)
६. कभी किसी की टोह में मत रहा करो। (14- सूरह. 49)
७. जिस चीज़ का तुमको इल्म (ज्ञान) नहीं उसके बारे में कुछ न कहो क्योंकि
कान, आँख और सब के सब क़यामत के दिन जवाब देह (उत्तरदायी) होगें। (36- सूरह. 49)
८. फ़साद (झगड़े) करते न फिरो। (56- सूरह. 7)
९. तुम उन लोगों से दूर रहो जिन्होंने दीन को खेल तमाशा बना रखा है। (69- सूरह. 7)
१०. ख़्वाहेशात नफ़सानी (आत्मइच्छाओं) की पैरवी मत करो वरना राहे ख़ुदा से
हट जाओगे। (26- सूरह. 83)
११. लग़ो (व्यर्थ) बातों से बचो। (4- सूरह. 44)
१२. मुनाफ़क़ीन (जिनका बाहरी व आंनतरिक एक न हो) की एक अलामत (चिन्ह) यह है
के जब वह नमाज़ के लिये ख़ड़े होते हैं तो बे-दिली के साथ। (142- सूरह. 3)
१३. तुम अल्लाह के बाज़ अहकामात (आज्ञाओं) पर ईमान रखते हो और बाज़ से
इन्कार कर देते हो – उसकी सज़ा दुनिया में तुम्हारी रूस्वाई है और आख़रत (परलोक) में शदीद
अज़ाब (सज़ा) हैं। (85- सूरह. 4)
१४. अपने ओमूर (कार्य) में लोगों से मशविरा करो और जब कोई बात तय कर लो तो
फिर अल्लाह पर भरोसा रखो क्योंकि अल्लाह इस बात को पसन्द करता है। (159- सूरह. 3)
१५. क़ाबिले मुबारकबाद हैं वो लोग जो ग़ौर से बाते सुनते हैं और उनमें से
अच्छी बातों को अपनातें हैं। (18- सूरह. 39)
१६. अहकामे इलाही (ईशवरीय आज्ञाओं) के नेफ़ाज़ (लागू) में किसी क़िस्म की
रू- रेआयत नहीं बर्तनी चाहिये। (2- सूरह. 24)
१७. अपनी ख़ैरात को एहसान जता कर और साएल को कबिदा ख़ातिर (रंजीदा) करके
बर्बाद न करो। (264- सूरह. 2)
१८. ग़ैरों को भी अपना राज़दार न बनाओ। (76- सूरह.3)
१९. मोमिन ख़ुदा की राह में जेहाद करता है -- काफ़िर माद्दी (दुनियावी)
ताक़तों की बहीली के लिये अपनी जान देता है -- तुम शैतान के साथियों से मुक़ाबला
करो -- और शैतान के हरबे तो यक़ीनन कमज़ोर हैं। (76- सूरह.4)
२०. सुस्ती न करो और परेशान ख़ातिर न हो -- अगर तुम मोमिन हो तो तुम्हीं
सरबलन्द रहोगे। (139- सूरह.3)
२१. किसी नाफ़रमान की बात पर बग़ैर तहक़ीक़ किये ऐतेबार न करो वरना हो सकता
है कि बाद में तुम्हें नादिम (पछतावा) होना पड़े। (6- सूरह.49)
२२. एक दूसरे को बूरे अल्क़ाब (अपशब्द) से मत नवाज़ो। (11- सूरह.49)
२३. जो इलाही अहकामात (ईशवरीय आज्ञाओं) के मुताबिक़ अमल (कार्य) नहीं करते – वही
काफ़िर हैं वही ज़ालिम हैं – वही फ़ासिक़ हैं। (45- सूरह.5)
२४. आपस में झगड़ा न करो वरना तुम्हारी हिम्मतें पस्त हो जायेगीं और रोब व
दबदबा ख़त्म हो जाएगा। (46- सूरह.8)
२५. अगर तुम शुक्र बजा लाओगे तो हम तुम्हारी नेमतों में इज़ाफ़ा कर देंगे. (7- सूरह.14)
२६. नमाज़े शब पढ़ा करो यह तुम्हारे लिये फ़ज़ीलत है ताकि ख़ुदा तुम्हें
मक़ामे महमूद (पुनीत कक्ष) अता करे। (79- सूरह.17)
२७. हर शख़्स अपने फ़ेल (कार्य) का ज़िम्मेदार है -- और रोज़े हिसाब (क़यामत)
कोई किसी का बार (बोझ) नहीं उठायेगा। (165- सूरह.6)
२८. जो लोग हमारी राह में जेहाद (संघर्ष) करते हैं उनको हम दीनी राह ख़ुद
बताते हैं। (69- सूरह.29)
२९. तुम अपने अहद व पैमान (वचन) की हमेशा वफ़ा (पूरा) करो। (1- सूरह.5)
३०. दरगुज़र से काम लो, अच्छी बातों का हुक्म दो और
जाहिलों से किनारा कश (दूर) रहो। (199- सूरह.7)
३१. नेकियों और अच्छाईयों में एक दूसरे का हाथ बटाओ लेकिन गुनाह व सरकशी
में किसी का साथ न दो। (2- सूरह.5)
३२. ख़ुदा तुम्हें हुक्म देता है के अमानतें उनके मालिकों तक पहुँचाओ और जब
लोगों के दरमियान फ़ैसला करो तो इन्साफ़ से काम लो। (58- सूरह.4)
३३. ख़ुदा किसी भी ख़यानतकार को दोस्त नहीं रखता है। (38- सूरह.22)
३४. लोग क़ुरआन के मतालिब (मतलब का बहु) पर ग़ौर क्यों नहीं करते, क्या उनके दिलों पर ताले पड़े होते हैं। (24- सूरह.47)
३५. तुम अपने माँ, बाप और अपने भाई बहनों को अपना
ख़ैर ख़ा (अच्छाई करने वाला) न समझो अगर वह ईमान पर ग़लत बातों को तरजीह
(प्राथमिकता) देते हैं। (23- सूरह.9)
३६. अगर तुम्हें अपने अज़ीज़, अपना ख़ानदान, अपना माल व मता अपनी तेजारत (व्यवसाय) अपने पसन्दीदा मकानात -- अल्लाह और
उसके रसूल और उसकी राह में जेहाद करने से ज़्यादा अज़ीज़ (प्यारे) हैं -- तो
अल्लाह के अज़ाब का इन्तेज़ार (प्रतिक्षा) करो। (24- सूरह.9)
३७. जो लोग माल व दौलत जमा करते हैं और अल्लाह की राह (मार्ग) में सर्फ़
(ख़र्च) नहीं करते तो उन्हें दर्दनाक अज़ाब से बा-ख़बर कर दो। (34- सूरह.9)
३८. शराब, जुआ, बुत, पाँसे
नजिस और शैतानी खेल हैं अगर आख़ेरत (परलोक) की कामयाबी चाहते हो तो इन चीज़ों से
बचो। (90- सूरह.5)
३९. जो शख़्स ईमान के साथ नेक आमाल (कार्य) भी अन्जाम देगा हम उसकी दुनिया
व आख़ेरत (परलोक) दोनो सँवार देंगे। (88- सूरह.18)
४०. तो (ऐ गिरोह जिन व इन्स (जिन्नात और मनुष्य)) तुम दोने अपने परवरदिगार
(ईश्वर) की कौन कौन सी नेमत को ना मानोगे। (13- सूरह. 97)
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन
इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई साइट्स,
वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि
है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस
समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से
लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10
साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के
लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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