भाग – 23 क्या है बाइबिल में:
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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बाइबिल (अथवा बाइबल, Bible,
अर्थात "किताब") ईसाई धर्म(मसीही धर्म) की आधारशिला
है और ईसाइयों (मसीहियों) का पवित्रतम धर्मग्रन्थ है। इसके दो भाग हैं :
पूर्वविधान (ओल्ड टेस्टामैंट) और नवविधान (न्यू टेस्टामेंट)। बाइबिल
का पूर्वार्ध अर्थात् पूर्वविधान यहूदियों का भी धर्मग्रंथ है।
बाइबिल ईश्वरप्रेरित (इंस्पायर्ड) है किंतु उसे अपौरुषेय नहीं कहा जा सकता। ईश्वर
ने बाइबिल के विभिन्न लेखकों को इस प्रकार प्रेरित किया है कि वे ईश्वरकृत होते
हुए भी उनकी अपनी रचनाएँ भी कही जा सकती हैं। ईश्वर ने बोलकर उनसे बाइबिल नहीं
लिखवाई। वे अवश्य ही ईश्वर की प्रेरणा से लिखने में प्रवृत्त हुए किंतु उन्होंने
अपनी संस्कृति, शैली तथा विचारधारा की विशेषताओं
के अनुसार ही उसे लिखा है। अत: बाइबिल ईश्वरीय प्रेरणा तथा मानवीय परिश्रम दोनों
का सम्मिलित परिणाम है।
यहां पर आप देखें
सनातन में मनुष्य जब आत्म साक्षात्कार करता है तो उसका आत्म गुरू जागृत हो जाता है
जिसे अल्लह की बोली, भगवान की आवाज भी कहते
हैं। यानि बाइबिल की य्ह विचार धारायें ज्ञानी मनुष्यों ने ही लिखी हैं। यानि जिस
प्रकार कुछ पुराण भ्रमित कर अंधविश्वास फैलाते हैं वैसे ही यह भी कर सकते हैं। इस
बात को नकारा नहीं जा सकता है।
बाइबिल के बारे में
इसाइयत का विचार है कि मानव जाति तथा यहूदियों के लिए ईश्वर ने जो कुछ किया और
इसके प्रति मनुष्य की जो प्रतिक्रिया हुई उसका इतिहास और विवरण ही बाइबिल का
वण्र्य विषय है। बाइबिल गूढ़ दार्शनिक सत्यों का संकलन नहीं है बल्कि इसमें दिखलाया
गया है कि ईश्वर ने मानव जाति की मुक्ति का क्या प्रबंध किया है। वास्तव में
बाइबिल ईश्वरीय मुक्तिविधान के कार्यान्वयन का इतिहास है जो ओल्ड टेस्टामेंट में
प्रारंभ होकर ईसा के द्वारा न्यू टेस्टामेंट में संपादित हुआ है। अत: बाइबिल के
दोनों भागों में घनिष्ठ संबंध है। ओल्ड टेस्टामेंट की घटनाओं द्वारा ईसा के जीवन
की घटनाओं की पृष्ठभूमि तैयार की गई है। न्यू टेस्टामेंट में दिखलाया गया है कि
मुक्तिविधान किस प्रकार ईसा के व्यक्तित्व, चमत्कारों, शिक्षा, मरण तथा
पुनरुत्थान द्वारा संपन्न हुआ है; किस प्रकार ईसा ने चर्च की
स्थापना की और इस चर्च ने अपने प्रारंभिक विकास में ईसा के जीवन की घटनाओं को किस
दृष्टि से देखा है कि उनमें से क्या निष्कर्ष निकाला है।
यहां आप देखें इसाइयत
कितनी अधिक अंधविश्वासी और चमत्कारों को मान्यता देती है। पर दूसरों के चमत्कार और
अंधविश्वास का मजाक बनाती है। तमाम अवैज्ञानिक बे सिर पैर की बातों को सही ठहराती
है।
आगे कहा गया है कि बाइबिल
में प्रसंगवश लौकिक ज्ञान विज्ञान संबंधी बातें भी आ गई हैं; उनपर तात्कालिक धारणाओं की पूरी छाप है क्योंकि बाइबिल
उनके विषय में शायद ही कोई निर्देश देना चाहती है। मानव जाति के इतिहास की ईश्वरीय
व्याख्या प्रस्तुत करना और धर्म एवं मुक्ति को समझना, यही
बाइबिल का प्रधान उद्देश्य है, बाइबिल की तत्संबंधी शिक्षा
में कोई भ्रांति नहीं हो सकती। उसमें अनेक स्थलों पर मनुष्यों के पापाचरण का भी
वर्णन मिलता है। ऐसा आचरण अनुकरणीय आदर्श के रूप में नहीं प्रस्तुत हुआ है किंतु
उसके द्वारा स्पष्ट हो जाता है कि मनुष्य कितने कलुषित हैं और उनको ईश्वर की
मुक्ति की कितनी आवश्यकता है।
इसमें प्राचीन यहूदी
धर्म और यहूदी लोगों की गाथाएँ, पौराणिक कहानियाँ, मिथक (ख़ास तौर पर सृष्टि) आदि का
वर्णन है। इसकी मूलभाषा इब्रानी और अरामी थी।
ये ईसा मसीह के बाद की है, जिसे ईसा के शिष्यों ने लिखा था। इसमें ईसा (यीशु) की जीवनी, उपदेश और शिष्यों के कार्य लिखे गये हैं। इसकी मूलभाषा कुछ अरामी और अधिकतर बोलचाल की प्राचीन
ग्रीक थी। इसमें ख़ास तौर पर चार शुभसंदेश (सुसमाचार)
हैं जो ईसा की जीवनी का उनके चार शिष्यों के नाम से किसी और के द्वारा वर्णन है :
मत्ती, लूका, युहन्ना और
मरकुस।
यहूदी बाइबिल
यहूदी धर्म की धर्मपुस्तक भी
बाइबिल (इब्रानी : तनख़) ही
है, पर उसमें सिर्फ़ पुराना नियम शामिल है।
विषयसूची
बाइबिल कुल मिलाकर 66 ग्रंथों का संकलन है - पूर्वविधान में 39 तथा नवविधान में 27 ग्रंथ हैं।
पूर्वविधान की
सामग्री
(1) ऐतिहासिक ग्रंथ
पेंतातुख, जोसुए अथवा यहोशू, न्यायाधीश,
रूथ, सामुएल, राजा,
पुरावृत्त (पैरालियोमेनोन), एज्रा (एस्ट्रास),
नेहेमिया, एस्तर, तोबियास,
यूदिथ, मकाबी।
(2) शिक्षाप्रधान ग्रंथ -
इययोव, भजनसंहिता, नीतिवचन, उपदेशक (एल्केसिआस्तेस) श्रेष्ठगीत, प्रज्ञा,
एल्केसियास्तिकस अथना सिराह।
(3) नबियों के ग्रंथ :
यशयाह, जेरेमिया, विलापगीत,
बारूह, ऐजेकिएल, अथवा
यहेजकेल, दानिएल और बारह गौण नबी अर्थात् ओसेआ अथवा होशे,
जोएल, योएल आमोस, ओबद्याह,
योना, मिकेयाह, नाहूम,
हाबाकुक, सोफ़ोनिया, हग्गै,
जाकारिआ, मलाकी
नवविधान की सामग्री
नवविधान के प्रथम
पाँच ग्रंथ ऐतिहासिक हैं अर्थात् चारों सुसमाचार (गास्पैल) तथा ऐक्ट्स आव दि
एपोसल्स (ईसा) के पट्ट शिष्यों के कार्य। अंतिम ग्रंथ एपोकालिप्स (प्रकाशना)
कहलाता है। इसमें सुसमाचार लेखक संत योहन प्रतीकात्मक शैली में चर्च के भविष्य तथा
मुक्तिविधान की परिणति का चित्र अंकित करते हैं। नवविधान के शेष 21 ग्रंथ शिक्षा प्रधान हैं, अर्थात्
संत पाल के 14 पत्र, संतपीटर के दो
पत्र, सुसमाचार लेखक संत योहन के तीन पत्र, संत याकूब और संत जूद का एक एक पत्र। संत पाल के पत्र या तो किसी स्थानविशेष
के निवासियों के लिए लिखे गए हैं (कोरिंथियों तथा थेस्सालुनीकियों के नाम दो दो पत्र;
रोमियों, एफिसियों, फिलिपियों
और कुलिसियों के नाम एक एक पत्र) या किसी व्यक्तिविशेष को (तिमोथी के नाम दो और
तितुस तथा फिलेमोन के नाम एक एक पत्र)। इब्रानियों के नाम जो पत्र बाइबिल में
सम्मिलित हैं, इनकी प्रामाणिकता के विषय में संदेह नहीं है किंतु
संत पाल के विचारों से प्रभावित होते हुए भी इनका लेखक कोई दूसरा ही होगा।
बाइविल के प्रामाणिक
ग्रंथों की उपर्युक्त सूची में से पूर्वविधान के कुछ ग्रंथ इब्रानी बाइबिल में
सम्मिलित नहीं थे, अर्थात् तोबियास, यूदिथ, मकाबी, प्रज्ञा सिराह
और दानिएल एवं एस्तेर के कुछ अंश। यहूदी और बहुत से प्रोटेस्टैंट संप्रदाय इन
ग्रंथों को अप्रमाणित मानकर अपनी बाइबिल में स्थान नहीं देते।
भाषा और रचनाकाल
प्राय: समस्त
पूर्वविधान की मूल भाषा इब्रानी है। अनेक ग्रंथ यूनानी भाषा में तथा थोड़े से अंश
अरामेयिक (इब्रानी बोलचाल) में लिखे गए हैं। समस्त नवविधान की भाषा कोइने नामक
यूनानी बोलचाल है।
बाइबिल का रचनाकाल 1400 ई.पू. से सन् 100 ई. तक माना जाता
है। इसके बहुसंख्यक लेखकों में से मूसा सबसे प्राचीन हैं, उन्होंने
लगभग 1400 ई.पू. में पूर्वविधान का कुछ अंश लिखा था।
पूर्वविधान की अधिकांश रचनाएँ 900 ई.पू. और 100 ई.पू. के बीच की है। समस्त नवविधान 50 वर्ष की अवधि
में लिखा गया है अर्थात् सन् 50 ई. से सन् 100 ई. तक।
बाइबिल में जो ग्रंथ
सम्मिलित किए गए हैं वे एक ही शैली में नहीं, अनेक शैलियों में लिखे गए हैं - इसमें लोककथाएँ, काव्य
और भजन, उपदेश और नीतिकथाएँ आदि अनेक प्रकार के साहित्यिक
रूप पाए जाते हैं। अध्ययन तथा व्याख्यान करते समय प्रत्येक अंश की अपनी शैली का
ध्यान रखना अत्यंत आवश्यक है।
अनुवाद
शताब्दियों से बाइबिल
के अनुवाद का कार्य चला आ रहा है। इसराएली लोग इब्रानी बाइबिल क्रा छायानुवाद
अरामेयिक बोलचाल में किया करते थे। सिकंदरिया के यहूदियों ने दूसरी शताब्दी ई.पू.
में इब्रानी बाइबिल का यूनानी अनुवाद किया था जो सेप्टुआर्जिट (सप्तति) के नाम से
विख्यात है। लगभग सन् 400 ई.
में संत जेरोम ने समस्त बाइबिल की लैटिन
अनुवाद प्रस्तुत किया था जो वुलगाता (प्रचलित पाठ) कहलाता है और शताब्दियों तक
बाइबिल का सर्वाधिक प्रचलित रूप रहा है। आधुनिक काल में इब्रानी तथा यूनानी मूल के
आधार पर सहस्त्र से भी अधिक भाषाओं में बाइबिल का अनुवाद हुआ है। पूर्वविधान का
सर्वोत्तम प्रामाणिक इब्रानी पाठ किट्टल द्वारा (सन् 1937 ई.)
तथा यूनानी पाठ राल्फस द्वारा (1914 ई.) प्रस्तुत किया गया
है। नव विधान के अनेक उत्तम प्रामाणिक यूनानी पाठ मिलते हैं, जैसे टिशनडार्फ, वेस्टकोट होर्ट, नेस्टले, वोगेल्स, मेर्क और
सोटर के संस्करण।
यूनानी बाइबिल की
प्राचीन हस्तलिपियों का विवरण इस प्रकार है -
(1) वाटिकानुस (चौथी श.ई.;
रोम मे सुरक्षित);
(2) सिनाइटिकुस (चौथी श.ई.;
ब्रिटिश म्युजियम);
(3) एलेक्सैंड्रिकुस
(पाँचवीं श.ई.; ब्रिटिश म्युजियम);
(4) एफ्राएम (पाँचवीं श.ई.;
पेरिस का लूग्र म्यूजियम)।
बिल्कुल सनातन की तरह
पहले वेद आये फिर उनकी व्याख्या हेतु उपनिषद आये फिर उअनको समझाने हेतु विभिन्न
पुराण आये।
भारत में ईसाई
प्रचारक सेंट थॉमस:
माना जाता है कि भारत में ईसाई धर्म की शुरुआत केरल के तटीय नगर क्रांगानोर में हुई जहां, किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देता है।
माना जाता है कि भारत में ईसाई धर्म की शुरुआत केरल के तटीय नगर क्रांगानोर में हुई जहां, किंवदंतियों के मुताबिक, ईसा के बारह प्रमुख शिष्यों में से एक सेंट थॉमस ईस्वी सन 52 में पहुंचे थे। कहते हैं कि उन्होंने उस काल में सर्वप्रथम कुछ ब्राह्मणों को ईसाई बनाया था। इसके बाद उन्होंने आदिवासियों को धर्मान्तरित किया था। दक्षिण भारत में सीरियाई ईसाई चर्च सेंट थॉमस के आगमन का संकेत देता है।
ईसाई प्रचारक सेंट
फ्रांसिस :
इसके बाद सन् 1542 में सेंट फ्रांसिस जेवियर के आगमन के साथ भारत में रोमन
कैथोलिक धर्म की स्थापना हुई जिन्होंने भारत के गरीब हिन्दू और आदिवासी इलाकों
में जाकर लोगों को ईसाई धर्म की शिक्षा देकर ईसाई बनाने का कार्य शुरू किया।
मुस्लिम काल में ईसाई
प्रचार :
16वीं सदी में पुर्तगालियों
के साथ आए रोमन कैथोलिक धर्म प्रचारकों के माध्यम से उनका सम्पर्क पोप के कैथोलिक
चर्च से हुआ। परन्तु भारत के कुछ इसाईयों ने पोप की सत्ता को अस्वीकृत करके 'जेकोबाइट' चर्च की स्थापना की। केरल में कैथोलिक
चर्च से संबंधित तीन शाखाएठ दिखाई देती हैं। सीरियन मलाबारी, सीरियन मालाकारी और लैटिन- रोमन कैथोलिक चर्च की लैटिन शाखा के भी दो वर्ग
दिखाई पड़ते हैं- गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन
समूह, जो पश्चिमी विचारों से प्रभावित था, तथा तमिल समूह जो अपनी प्राचीन भाषा-संस्कृति से जुड़ा रहा। काका
बेपतिस्टा, फादर स्टीफेंस (ख्रीस्ट पुराण के रचयिता),
फादर दी नोबिली आदि दक्षिण भारत के प्रमुख ईसाई धर्म प्रचारक थे।
उत्तर भारत में अकबर
के दरबार में सर्व धर्म सभा में विचार-विमर्श हेतु जेसुइट फादर उपस्थित थे।
उन्होंने आगरा में एक चर्च भी स्थापित किया था। भारत में प्रोटेस्टेंट धर्म का
आगमन 1706 में हुआ। बी.
जीगेनबाल्ग ने तमिलनाडु के ट्रंकबार में तथा विलियम केरी ने कलकत्ता के निकट
सेरामपुर में लूथरन चर्च स्थापित किया।
भारत में जब अंग्रेजों
का शासन प्रारंभ हुआ तब ईसाई धर्म का व्यापक प्रचार प्रसार हुआ। अंग्रेजों के काल
में दक्षिण भारत के अलावा पश्चिम बंगाल और पूर्वोत्तर में ईसाई धर्म के लाखों
प्रचारकों ने इस धर्म को फैलाया। उस दौरान शासन की ओर से ईसाई बनने पर लोगों को कई
तरह की रियायत मिल जाती थी। बहुतों को बड़े पद पर बैठा दिया जाता था साथ ही
ग्रामिण क्षेत्रों में लोगों को जमींदार बना दिया जाता था। अंग्रेजों के काल में
कॉन्वेंट स्कूल और चर्च के माध्यम से ईसाई संस्कृति और धर्म का व्यापक प्रचार और
प्रसार हुआ।
प्रचारक तेजी से कर रहे
हैं भारत का धर्मान्तरण :
भारत में वर्तमान में
प्रत्येक राज्य में बड़े पैमाने पर ईसाई धर्मप्रचारक मौजूद है जो मूलत: ग्रामीण और
आदिवासी क्षेत्रों में सक्रिय हैं। अरुणालच प्रदेश में वर्ष 1971 में ईसाई समुदाय की संख्या 1 प्रतिशत
थी जो वर्ष 2011 में बढ़कर 30 प्रतिशत
हो गई है। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि भारतीय राज्यों में ईसाई प्रचारक किस
तरह से सक्रिय हैं। इसी तरह नगालैंड में ईसाई जनसंख्या 93
प्रतिशत, मिजोरम में 90 प्रतिशत,
मणिपुर में 41 प्रतिशत और मेघालय में 70
प्रतिशत हो गई है। चंगाई सभा और धन के बल पर भारत में ईसाई धर्म
तेजी से फैल रहा है।
भारत सरकार ने 2015 में छह धर्मों-हिंदू, मुस्लिम,
सिख, ईसाई, बौद्ध और जैन
के जनसंख्या के आंकड़े जारी किए थे। इन आंकड़ों के अनुसार वर्ष 2011 में भारत की कुल आबादी 121.09 करोड़ है। जारी जनगणना
के आंकड़ों के मुताबिक देश में ईसाइयों की आबादी 2.78 करोड़
है। जो देश की कुल आबादी का 2.3% है। ईसाइयों की जनसंख्या
वृद्धि दर 15.5% रही, जबकि सिखों की
8.4%, बौद्धों की 6.1% और जैनियों की 5.4%
है। देश में ईसाई की जनसंख्या हिंदू और मुस्लिम के बाद सबसे अधिक
है।
भारत में 96.63 करोड़ हिंदू हैं, जो कुल आबादी
का 79.8% है। मुस्लिम 17.22 करोड़ है
जो कुल आबादी का 14.23% है। दूसरे अल्पसंख्यकों में ईसाई
समुदाय है। एक दशक में देश की आबादी 17.7% बढ़ी है। आंकड़ों
के मुताबिक देश की आबादी 2001 से 2011 के
बीच 17.7% बढ़ी। मुस्लिमों की 24.6%, हिंदुओं
की आबादी 16.8%, ईसाइयों की 15.5%, सिखों
की 8.4%, बौद्धों की 6.1% तथा जैनियों
की 5.4% आबादी बढ़ी है।
साल 2001 से 2011 के बीच कुल आबादी में
हिंदुओं की हिस्सेदारी 0.7%, सिखों की आबादी 0.2% और बौद्धों की 0.1% घटी है जबकि मुस्लिमों की
हिस्सेदारी में 0.8% वृद्धि दर्ज की गई है। ईसाइयों और
जैनियों की कुल जनसंख्या में हिस्सेदारी में कोई खास बढ़ोत्तरी नहीं दर्ज की गई।
ऑक्सफोर्ड से नास्तिक रिचर्ड डॉकिंस और प्रसिद्ध
आनुवांशिकी विज्ञानी फ्रांसिस कोलिंस ने टाइम पत्रिका के प्रदर्शित लेख में ईश्वर बनाम विज्ञान
विषय पर वाद-विवाद किया। मुद्दा यह था कि क्या विज्ञान और ईश्वर में आस्था सुसंगत
है।
द गॉड डेल्युज़न के लेखक, डॉकिंस यह तर्क देते हैं कि विज्ञान की नई खोजों के कारण ईश्वर में आस्था
अप्रासंगिक हो रही है। मानव आनुवांशिक ब्लूप्रिंट बनाने में 2400 वैज्ञानिकों का नेतृत्व करने वाले एक ईसाई, कोलिंस,
इसे दूसरी तरह से देखते हैं और यह बताते हैं कि ईश्वर और विज्ञान
दोनों में विश्वास करना पूर्ण रूप से तर्कसंगत है।
हालाँकि बाइबिल स्पष्ट रूप से बताती है कि ईश्वर
ने ब्रह्मांड का निर्माण किया परंतु यह इस बारे में कुछ भी नहीं बताती कि उसने यह
कैसे किया। तथापि ईश्वर के न्यायसंगत और व्यक्तिगत होने के इसके संदेश ने कोपेरनिकस, गैलीलियो, न्यूटन, पास्कल और
फैराडे जैसे वैज्ञानिकों को गहराई से प्रभावित किया। उन्हें यह विश्वास था कि
संसार की रचना ज्ञानवान ईश्वर द्वारा की गई है जिसके द्वारा उनमें वैज्ञानिक
अवलोकन और प्रयोग में आत्मविश्वास पैदा हुआ।
ध्यान देनेवाली बात है वेद पहले ही बोल चुका है
कि ब्रम्हांड की उतपत्ति ॐ नाद से हुई जो अभी तक हो रही है। यहां तक सूर्य से भी ॐ
की ध्वनि तक रिकार्ड की गई है। तो बाइबिल ने कौन सी नई बात की।
यीशु के प्रत्यक्षदर्शी हमें बताते हैं कि वे
प्रकृति के नियमों पर निरंतर अपनी रचनात्मक शक्ति का प्रदर्शन किया करते थे।
नवविधान हमें बताता है कि यीशु मनुष्य बनने से पहले, अनंतकाल से ही अपने परमपिता के साथ स्वर्ग में विद्यमान थे। यहूदियों के
लेखक समेत धर्मदूत यूहन्ना और पौलुस यीशु का वर्णन रचयिता के रूप में करते हैं।
पौलुस कुलुस्सियों को कहते हैं। “वह अदृश्य परमेश्वर का दृश्य रूप है। वह सारी सृष्टि का सिरमौर है।
क्योंकि जो कुछ स्वर्ग में है और धरती पर है उसी की शक्ति से उत्पन्न हुआ है। कुछ
भी चाहे दृश्यमान हो चाहे अदृश्य, चाहे सिंहासन हो चाहे
राज्य, चाहे कोई शासक हो चाहे अधिकारी, सबकुछ उसी के द्वारा रचा गया है और उसी के लिए रचा गया है। सबसे पहले उसी
का अस्तित्व था, उसी की शक्ति से सब वस्तुएं बनी रहती हैं।”
कुलुस्सियों 1:15-17 जे.बी. फिलिप्स
भारत के लगभग तमाम संतों ने अनेकों चमत्कार किये।
यदि ईशु ने इक्का दुक्का कर दिये तो कौन सा महान कार्य हो गया। भारत के हर गली में
आज भी ऐसे सन्त मिल जायेगें।
जब पौलुस कहते हैं कि “शून्य से जीवन का आरंभ
उनके [यीशु] माध्यम से हुआ,” तो वह एक ऐसा बयान
दे रहे थे जिसका उस समय कोई वैज्ञानिक समर्थन नहीं था। यह महाबकवास वाक्य है जब
ईशु अभी पैदा हुये तो उनसे सृष्टि कहां से पैदा हुई।
भारत में ईसाई धर्म का प्रचार ईसा मसीह के प्रमुख
शिष्यों में से एक संत टामस ने प्रथम शताब्दी में चेन्नई में आकर किया था। भारत के
कुछ इसाईयों ने पोप की सत्ता को मानने से इंकार किया और 'जेकोबाइट'
चर्च की स्थापना की। भारत के केरल राज्य में कैथोलिक चर्च की तीन
शाखाएँ है:
* सीरियन मलाबारी।
* सीरियन मालाकारी और।
* लैटिन। भारत में रोमन कैथोलिक चर्च की लैटिन शाखा के भी दो शाखाएँ हैं: ।
* गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह: यह समूह पश्चिमी सभ्यता एवं विचारों से प्रभावित था।।
* तमिल समूह शुरुआत से ही अपनी प्राचीन भाषा व संस्कृति से जुड़ा हुआ है।
* सीरियन मालाकारी और।
* लैटिन। भारत में रोमन कैथोलिक चर्च की लैटिन शाखा के भी दो शाखाएँ हैं: ।
* गोवा, मंगलोर, महाराष्ट्रियन समूह: यह समूह पश्चिमी सभ्यता एवं विचारों से प्रभावित था।।
* तमिल समूह शुरुआत से ही अपनी प्राचीन भाषा व संस्कृति से जुड़ा हुआ है।
ईसाई प्रचारक मदर
टेरेसा : मदर टेरेसा को वेटिकन सितंबर 2016 में संत घोषित कर चुका है. इससे पिछले साल पोप ने उनके दूसरे चमत्कार को
मान्यता दी थी. इस चमत्कार की खबर ब्राजील से आई थी. बताया जाता है कि वहां एक
व्यक्ति के सिर का ट्यूमर मदर टेरेसा की कृपा से ठीक हो गया.
कैथोलिक संप्रदाय में
संत उस व्यक्ति को माना जाता है जिसने एक पवित्र जीवन जिया हो और जो स्वर्ग में पहुंच
गया हो. धरती पर रहने वाले लोगों के लिए संत रोल मॉडल समझे जाते हैं. माना यह भी
जाता है कि अगर कोई प्रार्थनाओं में उनसे मदद मांगे तो वे ईश्वर से संवाद करके यह
मदद करने में सक्षम होते हैं. ऐसे दो चमत्कारों की पु्ष्टि होने पर किसी दिवंगत
व्यक्ति को संत घोषित कर दिया जाता है. बताया जाता है कि ब्राजील के इस व्यक्ति के
परिजनों ने मदर टेरेसा से उसे ठीक करने की प्रार्थना की थी.
भारत की आजादी के बाद
'मदर टेरेसा' ने सेवा की आड़ में बड़े पैमाने पर गरीब लोगों को ईसाई बनाया। इस संबंध
में ओशो रजनीश ने कहा था कि उन्होंने लोगों के दुखों का शोषण कर उन्हें ईसाई
बनाया। मदर टेरेसा और अधिक गरीब लोग चाहती है। ताकि वह उनका धर्मांतरण कैथोलिक
धर्म में कर सके। यह शुद्ध राजनीति है। सभी धर्म शोषण कर रहे है।
मदर टेरेसा का असली
नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब
मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक
साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने भारत में 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु
भवन' के नाम से आश्रम खोले जहां वे अनाथ और गरीबों को रखती
थी। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948
में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली और व्यापकर रूप से
ईसाई धर्म की सेवा में लग गई।
मदर टेरेसा पर भी कई
तरह के आरोप लगे, और कुछ आरोपों में काफी
बुरी तरह फंस भी गई। देखते हैं कौन-कौन से विवादों में घिरी रहीं मदर टेरेसा।
2015 में राष्ट्रीय
स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने एक अनाथालय क उद्घाटन के समय यह आरोप लगाया।
सेवा के नाम पर धर्म परिवर्तन किया गया।
1997 में दुनिया को अलविदा
कहने वाली टेरेसा पर कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि गरीब से गरीब की सेवा करने का
दावा करने वाली मदर टेरेसा के संस्थानों में फंड का दुरुपयोग होता था।
इंडियन रेशनलिस्ट
असोसिएशन के महासचिव सनल एडामारुकू का कहना है कि मदर टेरेसा ने करोड़ो डॉलर का
फंड जुटाया था। वो पैसा गया कहाँ? उनके अनुसार जिनता पैसा इकट्ठा किया गया, उसके हिसाब
से काम नहीं किया गया।
सनल एडामारुकू ने ही
आरोप लगाया कि जिन घरों में बीमार और जरूरतमंदो को रखा जाता था, उनके लिए पूरा बंदोबस्त नहीं थे। टीबी, एड्स जैसी बीमारी वाले मरीजों के साथ बेड शेयर करना पड़ता था, दवाइयां पुरानी थीं और गंदगी में रहना पड़ता था।
कई लोगों के अनुसार
मदर टेरेसा ने जनसंख्या का खुलकर विरोध किया। मगर कुछ अर्थशास्त्रियों की नजर में
जनसंख्या का होना इसलिए जरूरी था क्योंकि वहां युवाओं की संख्या और देश की औसत आयु
काफी कम थी।
मदर टेरेसा को पश्चिम
से भी भारी डोनेशन मिलता था। मगर कई लोगों ने आरोप लगाया कि इन दानदाताओं में
अपराधी, गुनाहगार और तानाशाह भी
शामिल हैं, जो मदर टेरेसा की आड़ में अपने गिरेबान को साफ रखना
चाहते थे।
भारतीय मूल के
ब्रिटिश लेखक अनूप चैटर्जी ने आरोप लगाया कि एक पत्रकरा मदर टेरेसा के घरो की
हालात नाजी जर्मनी जैसे थे। चैटर्जी ने उनके शिविरों को ‘मौत और पीड़ा का पंथ’ करार दिया।
एक डॉक्युमेंट्री में
चैटर्जी ने कहा कि मदर टेरेसा का असली मकसद गरीबों के हालात का फायदा उठा कर रोमन
केथोलिक धर्म का प्रचार करना था।
1994 में ब्रिटिश जर्नल ने
आरोप लगाया कि मदर टेरेसा के विचार बेहद कट्टर थे। अबॉर्शन, गर्भनिरोध
और तलाक को लेकर उनकी धारणाएं पूरी तरह कट्टर थी। चैटर्जी ने 2003 में मदर टेरेसा पर आलोचनात्मक किताब भी लिखी।
उनका मानना था कि
पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है जो मानवता के लिए सूली चढ़े थे. लेकिन जब वे खुद
बीमार होती थीं तो इलाज करवाने देश-विदेश के महंगे अस्पतालों में चली जाती थीं
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :
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