भाग – 17 सनातन और बौद्ध : तुलनात्मक अध्ययन
मेरी सोंच / धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास
विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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वास्तव में मेरे विचार से महात्मा बुद्ध एक सिद्ध पुरूष थे जिनको अहिंसा
सिद्ध थी कि उनके औरा में हिंसक भी हिंसा त्याग देता था। परन्तु वे अपूर्ण
महाज्ञानी थे। क्योकिं उनको निराकार ब्रह्म की अनुभुतियां थी। साकार की नहीं थी।
पूर्ण वो ही होता है जो साकार से निराकार, सगुण से निर्गुण, द्वैत से अद्वैत की यात्रा करता है। क्योकि वेद तो
दोनों के अतिरिक्त भी सर्वव्यापी ब्रह्म को मान्यता देता है।
अत: बुद्ध को सनातन और वेद से अलग करना महामूर्खता ही होगी कोई सत्य नहीं।
विद्यवानों से अनुरोध है कृपया पहले अंतर्मुखी हो ब्रह्म का अनुभव करें फिर अन्य
संतों को पढकर व्याख्या करें अन्यथा आप पाप ही करेंगे क्योकि आप अपनी भडास और
पूर्वाग्रह को ही प्रचारित कर सामाजिक अपराध ही करेगें।
नव-बौद्ध तथा छदम अम्बेडकरवादी आन्दोलन :
यह बेहद दुखद है कि सनातन विरोधी जानबूझकर अपने राजनीतिक फायदे हेतु और
सनातन को कमजोर करने हेतु भारत में तथा कई देशों में नव-बौद्ध नामक एक भ्रामक
आन्दोलन चला रहे हैं। इसका प्रचार प्रसार करने वालों का निशाना पिछड़े तथा दलित
वर्ग के लोग होते हैं। इन्हें पैसे तथा दूसरे लालच देकर बौद्ध बनाया जाता है तथा इसके लिए शर्त यह
होती है कि हिन्दू धर्म ( प्राचीन सनातन या वैदिक धर्म ) तथा संस्कृति को पूर्ण
रूप से त्यागना होगा। यही नहीं इनके मन में प्राचीन भारतीय वैदिक संस्कृति के
प्रति नफरत का जहर भरा जाता है। इसके लिए हिन्दू धर्म (वैदिक) को बदनाम करने का पूरा
साहित्य तैयार किया गया है जिसमे कभी शम्भूक की झूठी कथा सुनाई जाती है तो कभी
महिषासुर की। इन सब कथाओं को सुनाने और बनाने का मकसद है वैदिक धर्म को शूद्र
विरोधी बताना। जबकि सत्य यह है कि वेदों की रचना करने वाले आज के हिसाब से तथाकथित
शूद्र ही थे। पहले जातिप्रथा थी ही नहीं। स्वार्थी यह लोग सभी राक्षसों को शूद्र
बताकर तथा भगवानो को आर्य तथा ऊँची जाति का बताकर समाज में वैमनस्य फैलाते हैं तथा
इसी आधार पर फिर दलितों से हिन्दू धर्म को छुडवा देते हैं। आश्चर्य की बात यह है
के दक्षिण भारत में यही कहानियां सुनाकर राक्षसों को द्रविड़ बताते हैं। इन्होने
महिलाओं को भी अपनी ओर आकर्षित करने तथा वैदिक संस्कृति से अलग करने के लिए
महाभारत में द्रोपदी तथा रामायण में सीता आदि की कथाओं को फेमिनिस्म का रूप देकर
इस तरह से लिखा है जिससे यह लगे कि भारतीय संस्कृति तो महिला विरोधी थी तथा इसे
त्यागकर ही मुक्ति पायी जा सकती है। इस तरह के कई झूठ तथा प्रपंच यह लोग फैला रहे हैं। वास्तव में इस तरह के आन्दोलनों के पीछे विदेशी
ताकतों का हाथ है जो नहीं चाहते कि भारत तरक्की करे तथा उनके स्तर पर आकर खड़ा हो
जाए अतः वह एन.जी.ओ., शिक्षा तथा
मीडिया के माध्यम से समाज को तोड़ने के लिए इस तरह के आन्दोलनों को हवा दे रहे हैं।
इसी तरह के कई अलगाववादी आन्दोलन सीरिया, लीबिया, मिस्त्र, इराक, आदि में भी चले थे जिनका नतीजा यह देश अब तक भुगत रहे
हैं। महाशक्ति सोवियत रूस भी अलगाववादी आन्दोलनों से ही टुकड़े टुकड़े हो गया था | भारत में भी नव-बौद्ध के नाम से दलित वर्ग को अपने ही
समाज के खिलाफ भ्रामक साहित्य बाँट कर भड़काया जा रहा है। इसकी कई वेबसाइट तथा फेसबुक पेज
आदि इन्टरनेट पर भरे पढ़े हैं |
शेल्डन पोलक तथा भ्रामक साहित्य:
महामोर्र्ख अनुभवहीन शेल्डन पोलक पश्चिम में भारतीय दर्शन के यानि इंडोलोजी
के बहुत बड़े विद्वान माने जाते हैं। यह बात कितनी हास्यापद है कि आर्ट विषय को
पढनेवाला विज्ञान की किताब लिखे। महान भारत पर एक तुच्छ विदेशी लिखे। इन्होने कई
किताबे और लेख भारतीय संस्कृति और ग्रंथों के विषय में लिखे हैं। भारत के विषय में
कई जगह पर इनके व्याख्यान इत्यादि भी होते हैं। इन्हें दुनिया भर में भारतीय
विषयों का बहुत बड़ा जानकार विज्ञापित किया है। अफसोस की बात यह है कि इन्होने ही
वह भ्रामक साहित्य लिखा है, जिसे कई अलगाववादी आज भारत में प्रयोग करते हैं तथा
इन्होने अपने पश्चिम के नजरिये से भारत को देखने के प्रयास में कई तरह के तथ्यों
को तोड़ मरोड़ कर पेश किया हैं। पश्चिम में बड़े पद पर होने के कारण बहुत कम लोग इनके
लेखन पर सवाल उठा पाते हैं, इसका इन्हें भरपूर फायदा मिला है। इन्होने कई ऐसी
बाते भारतीय साहित्य के विषय में लिख दी हैं जिनसे समाज में विघटन की स्थिति पैदा
होने लगी है तथा हीन भावना पैदा हो रही है। इन्ही में से कुछ तर्कों का विश्लेषण एक शोधपत्र में
किया गया है इसके कुछ तर्कों के उदाहरण निम्नलिखित हैं यह कहते हैं कि :
- बुद्ध ने वैदिक धर्म से परेशान होकर अलग धर्म बनाया था। (जबकि बुद्ध के दोनों गुरू सनातनी थे)।
- जाती प्रथा से तंग आकर बुद्ध ने वैदिक धर्म छोड़ा था तथा उनकी पूरी लडाई वर्ण व्यवस्था के खिलाफ थी। (एक राजा के पुत्र को यह समस्या कैसे हो सकती है) ।
- संस्कृत भाषा पर सिर्फ ब्राह्मणों का कब्ज़ा था | अतः बुद्ध ने पाली में साहित्य लिखा। (उस समय देश में कुछ हिस्सों मे पाली और कुछ में संस्कृत भाषा थी)। बाद में विदेशियों (हुण-कुषाण) के आने से और बौद्ध धर्म के आने के बाद लेखन की शुरुआत हुई। (जैन धर्म ग्रंथ सब पाली में ही हैं)।
- संस्कृत तथा वैदिक धर्म में पहले सिर्फ कर्मकांड थे इसमें ज्ञान वर्धक चीजे जैसे काव्य, नाटक आदि बौद्धों के संस्कृत जानने के बाद में जुड़ी। कालीदास का साहित्य तो बौद्ध से पुराना है, जो नाटकों से भरा है)।
- रामायण बुद्ध के बाद “दशरथ जातक” से देख कर लिखी गयी।( रामायण संस्कृत में बुद्ध के जन्म के पूर्व वाल्मीकि ने लिखी)।
- बुद्ध से पहले वैदिक धर्म सामाजिक बंधनो पर आधारित था। इसके साहित्य में सिर्फ यज्ञ करवाना आदि था। (ध्रुव प्रह्लाद की कथायें तो केवल भक्तिमार्ग बतलाती हैं। नाम जप की महिमा गातीं है, कही यज्ञ का उल्लेख नहीं। मूर्ख लोग यज्ञ हेतु गीता पढें)।
पहले तर्क पर आनंद कुमारस्वामी अपनी पुस्तक “हिंदूइस्म एंड बुद्धिज़्म” में लिखते हैं कि :
“जो ऊपरी तौर पर किताबी ज्ञान के आधार पर बौद्ध सिद्धांत को पढता है | वह यह बोल सकता है कि ब्राह्मणवाद और बौद्धवाद दो अलग
अलग धर्म हैं मगर जिसने बुद्ध सिद्धांत तथा हिन्दू धर्म का गहन अध्ययन किया है वो
कभी यह नहीं बोल सकता कि यह दोनों अलग अलग हैं। बुद्ध का अधिकतर ज्ञान तथा प्रवचन
ब्राह्मणों तथा उनके छात्रों ने ही सुना था। मगर यह कभी भी “जाति” के विरुद्ध या
सामाजिक सुधार के लिए या आन्दोलन के रूप में नहीं था। यह वैदिक धर्म के विरुद्ध
नहीं था बल्कि असल में यह वैदिक धर्म के ही खो रहे मूल्यों को पुनःस्थापित करने का
एक प्रयास था।”
दूसरे तर्क पर राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत” में लिखते हैं कि –
“बुद्ध धर्म वर्ण/ जाति के खिलाफ एक आन्दोलन था, ऐसा कुछ भी बुद्ध के असली पौराणिक साहित्य में नहीं
मिलता बल्कि बुद्ध ने दुःख को दूर करने के लिए जो ४ आर्य सत्य तथा ८ आर्य अष्टांग
मार्ग दिए हैं , उनमे कहीं भी जाती प्रथा या वर्ण
व्यवस्था की चर्चा नहीं है | भारत के इतिहास में भी ऐसी कोई चर्चा नहीं है कि किसी
जाति ने बुद्ध धर्म को अपनाकर अपना वर्ण या जाति छोड़ दी हो। ना ही ऐसा कुछ कही है के बुद्ध ने
जाति/वर्ण छोड़ने का कहा है, ना ही ब्राह्मण जाति के त्याग की बात कहीं मिलती हैं।
ऐसा कुछ भी न तो भारत के प्राचीन साहित्य और इतिहास में है तथा न ही किसी चीनी
यात्री ने किसी सामाजिक/ जातिगत आधारित आन्दोलन के विषय में ऐंसा कुछ लिखा है।
तीसरे तर्क के विषय में राजीव मल्होत्रा अपनी पुस्तक “द बैटल फॉर संस्कृत”
लिखते हैं के –
“बुद्ध से २००० साल पहले “इंडस सरस्वती सिविलाइज़ेशन” थी, जिनकी लिपि भी थी, तथा कई सारा साहित्य इनके समय में लिखा गया है | अतः यह बात बिलकुल निरर्थक है कि बौद्ध धर्म के आने
के बाद भारत में लेखन की शुरुआत हुई।
इसमें एक तथ्यपूर्ण बाद यह भी है के यदि “पाली भाषा का इतिहास पढ़ा जाए तो
पता चलता है यह बुद्ध के काफी बाद में विकसित हुई है। अतः बुद्ध के प्रवचन पाली
में नहीं थे। बल्कि बाद में लोगों ने उन्हें पाली में लिखा है। कई लोगों का मत यह
भी है के बुद्ध के काफी प्रवचन संस्कृत में ही थे |
चौथा तर्क जिसमे पोलक कहते हैं – “संस्कृत तथा वैदिक धर्म में पहले सिर्फ
कर्मकांड थे इसमें अन्य ज्ञान वर्धक चीजे जैसे काव्य, नाटक आदि बौद्धों के संस्कृत को अपनाने और उदार बनाने
के बाद में जुड़े”। यह बात भी तथ्यहीन दिखाई पढ़ती है
क्योंकि वेदों में प्राचीन समय से काव्य का जिक्र होता आया है। इसके कुछ उदाहरण हैं –
“अथर्व वेद में काव्य के विषय में लिखा गया है कि काव्य वो है जो कभी पुराना
नही होता , जो कभी खत्म नही होता , उसके कई अर्थ निकाले जा सकते हैं | कोई इसे कविता कह सकता है तो कोई बाहरी रहस्यों से
जोड़ सकता है |”
इसी तरह प्रसिद्द जर्मन शब्दकोष “वाटरबच(१८५५-१८७५)” में इक्यावन (51) बार सिर्फ वेदों के सन्दर्भ में “काव्य” शब्द का
प्रयोग है | इसमें स्तुति, कला , प्रेरणा इत्यादि के काव्यों का वर्णन है। राजशेखर ने भी नवी शताब्दी में “काव्यमीमांसा” में काव्य का वर्णन किया है। इसी तरह के. कृष्णामूर्ति ने
“भंडारकर ओरिएण्टल शोध संस्थान” के वॉल्यूम ७२/७३, नं १/४ , अमृतमहोत्सव (१९१७-९२), पृष्ठ संख्या ७१-७७ में छपे उनके लेख “पोएटिक आर्टिस्ट्री इन वैदिक लिटरेचर” में यह जिक्र
किया है कि किस तरह वेदों में अपार श्रद्धा होते हुए भारत में इन्हें काव्यों की
तरह भी लिया गया है।
ऐसे ही यजुर्वेद (३०.६) में नायक, नृत्य तथा संगीत का वर्णन है और ऋग्वेद में ‘नृत्यु’ शब्द का प्रयोग किय गया है , जिसका अर्थ है महिला नर्तकी। इस तरह के कई उदाहरण
वैदिक साहित्य में भरे पढ़े हैं जिन्हें ना सिर्फ भारतीय बल्कि कई पश्चिमी
विद्वानों ने भी कई जगह उल्लेखित किया है। अतः पोलक का चौथा तर्क जो यह कहता है के बुद्ध के
आगमन के पूर्व संस्कृत तथा वैदिक संस्कृति में कर्मकांड के सिवा कुछ नहीं था यह
उचित नहीं लगता।
पांचवा तर्क जिसमें पोलक एवं उनके अनुयायी यह कहते हैं के रामायण
ब्राह्मणों द्वारा बुद्ध के बाद जातक की कथा को पढ़कर गढ़ी गयी है तथा जातक कथाएं
भारत में पहला लिखित साहित्य है। इस तर्क को कई जगह पर कई विद्वानों ने चुनौती दी है।
उन्ही के कुछ उदाहरण यहाँ प्रस्तुत हैं –
पश्चिमी विद्वान रोबर्ट गोल्डमेन जो खुद पोलक के साथी रहे हैं, वह मानते हैं के जातक कथाओं में वाल्मीकि रामायण से
सन्दर्भ लिया गया है क्योंकि जातक वाल्मीकि रामायण के काफी बाद लिखी गयी है।
गोल्डमेन यह भी कहते हैं के पोलक ने उनके तर्क – “रामायण जातक के बाद लिखी गयी है”
को
“दशरथ जातक”
का प्रयोग करके लिखा है, इसका सन्दर्भ उन्होंने वेबर के उन्नीसवी शताब्दी के “दशरथ जातक” पर किये
गये विश्लेषण से उठाया है तथा वेबर का यह विश्लेषण तथा निष्कर्ष अब पश्चिम में
नकारा जा चुका है तथा गलत सबित हो चुका है। अतः पोलक का भी यह कहना कि रामायण को
ब्राह्मणों ने जातक से उठाया और वैदिक धर्म को पुनः स्थापित करने के लिए प्रयोग
किया यह गलत प्रतीत होता है।
छठे तर्क में पोलक कहता है कि वैदिक धर्म बुद्ध से पहले सिर्फ यज्ञ आदि पर
आधारित था तथा इसके साहित्य में सामाजिक रूडीवादिता के सिवा कुछ नहीं था। यह तथ्य
भी एकदम बचकाना सा मालूम पढता है, क्योंकि वैदिक धर्म के साहित्य में ना सिर्फ यज्ञ
बल्कि इतिहास, नाट्य – शास्त्र, योग, तंत्र, कला, संगीत आदि बहुत कुछ प्रमाणिक रूप से है तथा ऐसी कई और
चीजों के उदाहरण वैदिक साहित्य तथा वैदिक काल के समय के मिलते हैं जो यज्ञ के
अलावा संस्कृति, सभ्यता, प्रकृति दर्शन, शास्त्र आदि पर आधारित हैं | वेदों को लिखने वालों में भी गार्गी जैसी विदुषी
महिलाएं तथा अनेको भिन्न भिन्न कुल के व्यक्तियों का हाथ रहा है | अतः यह कहना के बुद्ध से पहले यहाँ सिर्फ यज्ञ होते
थे एवं यह ब्राह्मणों के कब्जे में था | यह पुर्णतः गलत है , क्योंकि रामायण के संदर्भ में यह सिद्ध हो चूका है कि वह
बुद्ध के काल से पहले लिखी हुई है , उसे वाल्मीकि ने लिखा था जो जन्म से शुद्र वर्ण के थे
| इसी तरह के कई उदाहरण वैदिक
संस्कृति में मिलते हैं जिससे यह सिद्ध होता है कि सामाजिक रूढिवादिता का इस
सभ्यता में कोई स्थान नहीं था बल्कि सामाजिक समरसता और एकता प्रमुख रूप से इस काल
में देखी गयी है |
इस लेख का मूल उद्देश्य उस सोच को समझना है जिसके आधार पर भारतीय समाज आज
विघटन की ओर बढ़ता जा रहा है | कुछ पश्चिमी लेखको की नासमझी, अल्पज्ञान, या पक्षपाती रवैये के कारण भारत के इतिहास तथा
साहित्य को कई सालों से पश्चिम में तथा भारतीय सामाजिक विज्ञान के क्षेत्र में
उपेक्षा का सामना करना पड़ा है तथा इसी कारण आज कई नव-बौद्ध जैसे आन्दोलन देश में
खड़े हो गए हैं। कुछ आन्दोलनों के पीछे विदेशी फंडिंग भी एक कारण है। मगर बहुत सारे
जन आक्रोश तथा आन्दोलनों के पीछे भारतीयों का स्वयं का अपने विषय में ना जानना एक
बहुत बड़ा कारण नजर आता है। भारत में अंग्रेजों के राज के बाद से एक प्रथा सी चल
गयी है कि जो भी पश्चिम से आता है उसे ब्रह्म वाक्य लिया जाता है। यहाँ तक कि
स्वयं के विषय में जानने के लिए भी कई पढ़े लिखे बुद्धिजीवी भारतीय, पश्चिमी साहित्य या पश्चिमी प्रमाणपत्र की ओर देखते
हैं। जिसमे कई बार भ्रामक साहित्य या गलत इतिहास का शिकार होकर भारतीय हीन भावना
के शिकार हो जाते हैं।
कई सारे तर्कों तथा विश्लेषणों के आधार पर यह बात प्रमाणिकता से कही जा
सकती है कि बौद्ध मत कभी वैदिक धर्म से अलग नहीं रहा बल्कि यह दोनों एक ही हैं। कालांतर में कई विदेशी लेखकों ने
इसे गलत रूप में समझने के कारण इन्हें अलग अलग पंथ समझ लिया था, जो अब धीरे धीरे गलत साबित हो रहा
है। चूँकि भारत कई साल गुलाम रहा अतः भारत की ओर से इन तर्कों का खंडन पीछे कुछ
सालों में नहीं हो सका, पर अब कई लोग मुखरता से सत्य को प्रमाणित कर रहे हैं तथा दुनिया भर में
उनकी बात को सुना जा रहा है।
इस लेख के अंत में यही कहा जा सकता है कि
विचार बुद्ध के हों या वैदिक, यदि उन्हें सही तरह से समझा जाए तथा जिस देश और जिस
जगह से यह विचार उपजे हैं वहाँ के लोगों तथा साहित्य से प्रमाण निकाले जाए तो यह
दो विभिन्न धारा नहीं बल्कि एक ही प्रतीत होती हैं।
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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