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Monday, July 30, 2018

भाग – 24 टेरेसा की कालिख: धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



भाग – 24 टेरेसा की कालिख:
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

भारत में बीमारों, गरीबों और अनाथों की सेवा के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वालीं मदर टेरेसा का 1997 में निधन हुआ था. 2003 में पोप जॉन पॉल द्वितीय ने उन्हें धन्य घोषित किया था जो संत बनाए जाने की प्रक्रिया का पहला चरण है.


ईसाई प्रचारक मदर टेरेसा : मदर टेरेसा को वेटिकन सितंबर 2016 में संत घोषित कर चुका है. इससे पिछले साल पोप ने उनके दूसरे चमत्कार को मान्यता दी थी. इस चमत्कार की खबर ब्राजील से आई थी. बताया जाता है कि वहां एक व्यक्ति के सिर का ट्यूमर मदर टेरेसा की कृपा से ठीक हो गया.
कैथोलिक संप्रदाय में संत उस व्यक्ति को माना जाता है जिसने एक पवित्र जीवन जिया हो और जो स्वर्ग में पहुंच गया हो. धरती पर रहने वाले लोगों के लिए संत रोल मॉडल समझे जाते हैं. माना यह भी जाता है कि अगर कोई प्रार्थनाओं में उनसे मदद मांगे तो वे ईश्वर से संवाद करके यह मदद करने में सक्षम होते हैं. ऐसे दो चमत्कारों की पु्ष्टि होने पर किसी दिवंगत व्यक्ति को संत घोषित कर दिया जाता है. बताया जाता है कि ब्राजील के इस व्यक्ति के परिजनों ने मदर टेरेसा से उसे ठीक करने की प्रार्थना की थी.
भारत की आजादी के बाद 'मदर टेरेसा' ने सेवा की आड़ में बड़े पैमाने पर गरीब लोगों को ईसाई बनाया। इस संबंध में ओशो रजनीश ने कहा था कि उन्होंने लोगों के दुखों का शोषण कर उन्हें ईसाई बनाया। मदर टेरेसा और अधिक गरीब लोग चाहती है। ताकि वह उनका धर्मांतरण कैथोलिक धर्म में कर सके। यह शुद्ध राजनीति है। सभी धर्म शोषण कर रहे है।

मदर टेरेसा का असली नाम अगनेस गोंझा बोयाजिजू था। मदर टेरेसा का जन्म 26 अगस्त, 1910 को स्कॉप्जे (अब मसेदोनिया में) में एक अल्बेनीयाई परिवार में हुआ। उनके पिता निकोला बोयाजू एक साधारण व्यवसायी थे। मदर टेरसा रोमन कैथोलिक नन थीं। मदर टेरेसा ने भारत में 'निर्मल हृदय' और 'निर्मला शिशु भवन' के नाम से आश्रम खोले जहां वे अनाथ और गरीबों को रखती थी। 1946 में गरीबों, असहायों, बीमारों और लाचारों के लिए उन्होंने अपना जीवन समर्पित कर दिया। 1948 में स्वेच्छा से उन्होंने भारतीय नागरिकता ले ली और व्यापकर रूप से ईसाई धर्म की सेवा में लग गई।

मदर टेरेसा पर भी कई तरह के आरोप लगे, और कुछ आरोपों में काफी बुरी तरह फंस भी गई। देखते हैं कौन-कौन से विवादों में घिरी रहीं मदर टेरेसा।
2015 में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत ने एक अनाथालय क उद्घाटन के समय यह आरोप लगाया। सेवा के नाम पर धर्म परिवर्तन किया गया।
 
1997 में दुनिया को अलविदा कहने वाली टेरेसा पर कुछ लोगों ने आरोप लगाया कि गरीब से गरीब की सेवा करने का दावा करने वाली मदर टेरेसा के संस्थानों में फंड का दुरुपयोग होता था।
 
इंडियन रेशनलिस्ट असोसिएशन के महासचिव सनल एडामारुकू का कहना है कि मदर टेरेसा ने करोड़ो डॉलर का फंड जुटाया था। वो पैसा गया कहाँ? उनके अनुसार जिनता पैसा इकट्ठा किया गया, उसके हिसाब से काम नहीं किया गया।
 
सनल एडामारुकू ने ही आरोप लगाया कि जिन घरों में बीमार और जरूरतमंदो को रखा जाता था, उनके लिए पूरा बंदोबस्त नहीं थे। टीबी, एड्स जैसी बीमारी वाले मरीजों के साथ बेड शेयर करना पड़ता था, दवाइयां पुरानी थीं और गंदगी में रहना पड़ता था।
कई लोगों के अनुसार मदर टेरेसा ने जनसंख्या का खुलकर विरोध किया। मगर कुछ अर्थशास्त्रियों की नजर में जनसंख्या का होना इसलिए जरूरी था क्योंकि वहां युवाओं की संख्या और देश की औसत आयु काफी कम थी।
 
मदर टेरेसा को पश्चिम से भी भारी डोनेशन मिलता था। मगर कई लोगों ने आरोप लगाया कि इन दानदाताओं में अपराधी, गुनाहगार और तानाशाह भी शामिल हैं, जो मदर टेरेसा की आड़ में अपने गिरेबान को साफ रखना चाहते थे।
 
भारतीय मूल के ब्रिटिश लेखक अनूप चैटर्जी ने आरोप लगाया कि एक पत्रकरा मदर टेरेसा के घरो की हालात नाजी जर्मनी जैसे थे। चैटर्जी ने उनके शिविरों कोमौत और पीड़ा का पंथ’ करार दिया।
 एक डॉक्युमेंट्री में चैटर्जी ने कहा कि मदर टेरेसा का असली मकसद गरीबों के हालात का फायदा उठा कर रोमन केथोलिक धर्म का प्रचार करना था।
 
1994 में ब्रिटिश जर्नल ने आरोप लगाया कि मदर टेरेसा के विचार बेहद कट्टर थे। अबॉर्शन, गर्भनिरोध और तलाक को लेकर उनकी धारणाएं पूरी तरह कट्टर थी। चैटर्जी ने 2003 में मदर टेरेसा पर आलोचनात्मक किताब भी लिखी।
उनका मानना था कि पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है जो मानवता के लिए सूली चढ़े थे. लेकिन जब वे खुद बीमार होती थीं तो इलाज करवाने देश-विदेश के महंगे अस्पतालों में चली जाती थीं


 
लेकिन इन्हीं मदर टेरेसा के जीवन की एक समानांतर कथा भी रही है. एक तरफ वे कइयों के लिए प्रेरणास्रोत रहीं तो दूसरी तरफ उनके काम और विचारों पर काफी विवाद भी रहा. कुछ समय पहले राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के मुखिया मोहन भागवत का उनके बारे में दिया गया बयान भी विवाद का विषय बन गया था. राजस्थान के भरतपुर में एक कार्यक्रम के दौरान भागवत का कहना था, ‘मदर टेरेसा की सेवा अच्छी रही होगी, पर इसमें एक उद्देश्य हुआ करता था कि जिसकी सेवा की जा रही है उसको ईसाई बनाया जाए.’ इसके बाद अलग-अलग हलकों से इस बयान की आलोचना हुई. जो कहा गया उसका लब्बोलुआब यह है कि मानवता के प्रति अपने काम के लिए नोबेल पुरस्कार पाने वाली मदर टेरेसा के बारे में भागवत ऐसा कैसे बोल सकते हैं?

बहुत से लोग मानते हैं कि मदर टेरेसा उस सहज सामाजिक प्रक्रिया का हिस्सा हो गई हैं जिसके तहत असाधारण हस्तियों को मिथक में तब्दील करके उन्हें सवालों से परे कर दिया जाता है. वरना वक्त में पीछे लौटें तो हम पाते हैं कि करुणा की पर्याय कही जाने वाली यह शख्सियत भी कम कठोर आलोचनाओं का शिकार नहीं रही है.

काम को बढ़ा-चढ़ाकर बताया गया
अरूप चटर्जी की चर्चित किताब मदर टेरेसा : द फाइनल वरडिक्ट मदर टेरेसा के काम पर कई सवाल उठाती है. पेशे से डॉक्टर और कुछ समय मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी में काम कर चुके चटर्जी का दावा है कि मदर ने गरीबों के लिए किए गए अपने काम को बढ़ा-चढ़ाकर दिखाया. कोलकाता में ही पैदा हुए चटर्जी अब इंग्लैंड में रहते हैं. उनके मुताबिक मदर टेरेसा अक्सर कहती रहीं कि वे कलकत्ता की सड़कों और गलियों से बीमारों को उठाती थीं. लेकिन असल में उन्होंने या उनकी सहयोगी ननों ने कभी ऐसा नहीं किया. लोग जब उन्हें बताते थे कि फलां जगह कोई बीमार पड़ा है तो उनसे कहा जाता था कि 102 नंबर पर फोन कर लो.

 
चटर्जी के मुताबिक संस्था के पास कई एंबुलेंसें थीं लेकिन उनका मुख्य काम था ननों को प्रार्थना के लिए एक जगह से दूसरी जगह ले जाना. चटर्जी ने संस्था के इस दावे पर भी सवाल उठाया कि वह कोलकाता में रोज हजारों लोगों को खाना खिलाती है. चटर्जी की किताब के मुताबिक संस्था के दो या तीन किचन रोज ज्यादा से ज्यादा 300 लोगों को ही खाना देते हैं, वह भी सिर्फ मुख्य रूप से उन गरीब ईसाइयों को जिनके पास संगठन द्वारा जारी किया गया फूड कार्ड होता है.

 
जीवन से ज्यादा मृत्युदान के मिशन
अपने एक लेख में वरिष्ठ साहित्यकार विष्णु नागर लिखते हैं, ‘यह कहना कि मदर टेरेसा सड़क पर पड़े, मौत से जूझ रहे सभी गरीबों की मसीहा थीं, गलत है. उन्होंने गरीबों-बीमारों के लिए 100 देशों में 517 चैरिटी मिशन जरूर स्थापित किए थे मगर ऐसे कई मिशनों का दौरा करने के बाद डॉक्टरों ने पाया कि ये दरअसल जीवनदान देने से ज्यादा मृत्युदान देने के मिशन हैं. इन मिशनों में से ज्यादातर में साफ-सफाई तक का ठीक इंतजाम नहीं था, वहां बीमार का जीना और स्वस्थ होना मुश्किल था, वहां अच्छी देख-रेख नहीं होती थी, भोजन तथा दर्द निवारक औषधियां तक वहां नहीं होती थीं.’

ब्रिटेन की प्रसिद्ध मेडिकल पत्रिका लैंसेट के सम्पादक डॉ रॉबिन फॉक्स ने भी 1991 में एक बार मदर के कोलकाता स्थित केंद्रों का दौरा किया था. फॉक्स ने पाया कि वहां साधारण दर्दनिवारक दवाइयां तक नहीं थीं. उनके मुताबिक इन केंद्रों में बहुत से मरीज ऐसे भी थे जिनकी बीमारी ठीक हो सकती थी. लेकिन वहां सबको इसी तरह से देखा जाता था कि ये सब कुछ दिनों के मेहमान हैं और इनकी बस सेवा की जाए. एक टीवी कार्यक्रम के दौरान अरूप चटर्जी का भी कहना था कि संस्था के केंद्रों में मरीजों की हालत बहुत खराब होती थी. वे रिश्तेदारों से नहीं मिल सकते थे, न ही कहीं घूम या टहल सकते थे. वे बस पटरों पर पड़े, पीड़ा सहते हुए अपनी मौत का इंतजार करते रहते थे.


पीड़ा से प्यार, ईसाइयत का प्रसार
अरूप चटर्जी के मुताबिक मदर टेरेसा की संस्था मिशनरीज ऑफ चैरिटी के केंद्रों में गरीबों का जानबूझकर ठीक से इलाज नहीं किया जाता था. मदर टेरेसा पीड़ा को अच्छा मानती थीं. उनका मानना था कि पीड़ा आपको जीसस के करीब लाती है जो मानवता के लिए सूली चढ़े थे. लेकिन जब वे खुद बीमार होती थीं तो इलाज करवाने देश-विदेश के महंगे अस्पतालों में चली जाती थीं. अपनी किताब में चटर्जी ने यह तक कहा है कि मदर टेरेसा बीमार बच्चों की मदद करती थीं, लेकिन तभी जब उनके मां-बाप एक फॉर्म भरने के लिए तैयार हो जाते थे जिसमें लिखा होता था कि वे बच्चों से अपना दावा छोड़कर उन्हें मदर की संस्था को सौंपते हैं.

1994 में मदर टेरेसा पर बनी एक चर्चित डॉक्यूमेंटरी हैल्स एंजल में भी कुछ ऐसे ही आरोप लगाए गए. ब्रिटेन के चैनल फोर पर दिखाई गई इस फिल्म की स्क्रिप्ट क्रिस्टोफर हिचेंस द्वारा लिखी गई थी. 1995 में हिचेंस ने एक किताब भी लिखी. द मिशनरी पोजीशन : मदर टेरेसा इन थ्योरी एंड प्रैक्टिस नाम की इस किताब में हिचेंस का कहना था कि मीडिया ने मदर टेरेसा का मिथक गढ़ दिया है जबकि सच्चाई इसके उलट है. लेख का सार यह था कि गरीबों की मदद करने से ज्यादा दिलचस्पी मदर टेरेसा की इसमें थी कि उनकी पीड़ा का इस्तेमाल करके रोमन कैथलिक चर्च के कट्टरपंथी सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार किया जाए. इस किताब की खूब तारीफें हुईं तो आलोचनाएं भी. एक पाठक ने कहा कि अगर कहीं नर्क है तो हिचेंस अपनी इसी किताब के लिए उसमें जाएंगे.

 
80 के दशक में ब्रिटेन के चर्चित अखबार ब्रिटेन में छपे एक लेख में चर्चित नारीवादी और पत्रकार जर्मेन ग्रीअर ने भी कुछ ऐसी बातें कहीं थीं. ग्रीअर ने मदर टेरेसा को एक धार्मिक साम्राज्यवादी कहा था जिसने सेवा को मजबूर गरीबों में ईसाई धर्म फैलाने का जरिया बनाया.

 
परोपकार के लिए भ्रष्टाचार का पैसा और वह भी पूरा खर्च नहीं
चटर्जी की किताब में यह भी कहा गया है कि मदर टेरेसा को गरीबों की मदद करने के लिए अकूत पैसा मिला लेकिन, उसका एक बड़ा हिस्सा उन्होंने खर्च ही नहीं किया. चटर्जी ने इस पर भी सवाल उठाया कि मदर टेरेसा ऐसे लोगों से भी फंडिंग लेती थीं जिनकी आय के स्रोत संदिग्ध थे. इनमें भ्रष्ट तानाशाह और बेईमान कारोबारी भी शामिल थे. जैसे उन्होंने चार्ल्स कीटिंग से भी पैसा लिया जिन्होंने अमेरिका में अपने घोटाले से खूब कुख्याति पाई थी.



आपातकाल की तारीफ, गर्भपात की आलोचना
इससे पहले 1975 में भी मदर टेरेसा का एक बयान विवादों में रहा था. इंदिरा गांधी द्वारा लगाए गए आपातकाल पर उनका कहना था कि इससे लोग खुश हैं क्योंकि नौकरियां बढ़ी हैं और हड़तालें कम हुई हैं. गर्भनिरोधक उपायों और गर्भपात पर भी मदर टेरेसा के रुख ने आलोचनाएं बटोरीं. उनका मानना था कि संयम गर्भनिरोधक उपाय अपनाने से बेहतर है और गर्भपात तो सबसे बड़ी बुराई है जो हत्या के बराबर है. परिवार नियोजन और नारीवाद के पैरोकारों ने इस पर उनकी खूब आलोचना की थी.


आखिरी सांसें गिन रहे लोगों को बपतिस्मा
आखिर सांसें गिन रहे लोगों को बपतिस्मा देने के लिए भी मदर टेरेसा की खासी आलोचना हुई. बपतिस्मा यानी पवित्र जल छिड़ककर ईसाई धर्म में दीक्षा देने का कर्मकांड. आरोप लगे कि न तो उनका संगठन लोगों को यह बताता है कि इसका मतलब क्या है और न ही वह इसका ख्याल करता है कि उस व्यक्ति की धार्मिक आस्था क्या है. इस बारे में 1992 में अमेरिका के कैलीफोर्निया में एक भाषण के दौरान मदर टेरेसा का कहना था, ‘हम उस आदमी से पूछते हैं, क्या तुम वह आशीर्वाद चाहते हो जिससे तुम्हारे पाप क्षमा हो जाएं औऱ तुम्हें भगवान मिल जाए? किसी ने कभी मना नहीं किया.’

दिवंगत होने के बाद भी विवाद जारी रहे
मदर टेरेसा के 1997 में दिवंगत होने के बाद भी उन पर विवाद होते रहे. जिस कथितचमत्कार’ के कारण 2003 में वेटिकन ने उन्हें धन्य घोषित किया उसे तर्कवादियों ने सिरे से ख़ारिज कर दिया था. कहा गया था कि पेट के ट्यूमर से जूझ रही पश्चिम बंगाल की एक महिला मोनिका बेसरा ने एक दिन अपने लॉकेट में मदर टेरेसा की तस्वीर देखी और उनका ट्यूमर पूरी तरह से ठीक हो गया. लेकिन कई रिपोर्टों के मुताबिक जिन डॉक्टरों ने मोनिका बेसरा नाम की इस महिला का इलाज किया उनका कहना है कि मदर टेरेसा की मृत्यु के कई साल बाद भी मोनिका दर्द सहती रही. हालांकि वेटिकन के धर्मगुरूओं ने इस कथित चमत्कार को मान्यता दे दी थी.

कई लोग हैं जो मानते हैं कि मदर टेरेसा को संत बनाने के पीछे वेटिकन की मजबूरी भी है. चर्चों में लोगों का आना लगातार कम हो रहा है और ईसाई धर्म और इसके केंद्र वेटिकन में लोगों का विश्वास लौटाने के लिए ऐसा कदम उठाना जरूरी था.


क्या विज्ञान और ईसाई धर्म सुसंगत है।

कुछ मूर्खतापूर्ण बातें:
एक खेत में एक साथ विभिन्न फसलें न उगाएँ। (लवेटिकस 19:19)
एक से अधिक सूत से बना कपड़ा मत पहनिए। (लवेटिकस 19:19)
सिर के बाल न काटें और न दाढ़ी बनाएँ। (लवेटिकस 19:27)
जो व्यक्ति अपने माता-पिता को कोसता है या उनके विरुद्ध है, हत्या के योग्य है। (लवेटिकस 20:9)
जो पुरुष अपनी पत्नी को धोखा देता है या इसके उलट जो पत्नी अपने पति को धोखा देती है, मारे जाने योग्य है। (लवेटिकस 20:10)
अगर एक व्यक्ति दूसरे से झूठ बोलता है तो दोनों को मार डालना चाहिए। (लवेटिकस 20:13)
अगर कोई पुरुष या स्त्री किसी जानवर के साथ यौन संबंध स्थापित करते हैं तो उस व्यक्ति और जानवर दोनों को मार डालना चाहिए। (लवेटिकस 20:15-16)
अगर कोई पुरुष रजस्वला स्त्री के साथ यौन संबंध स्थापित करता है तो दोनों को समाज से बहिष्कृत कर देना चाहिए। (लवेटिकस 20:18)
मनोरोगी (अतींद्रिय), जादूगर और चुड़ैल पत्थर मार-मारकर हत्या करने योग्य हैं। (लवेटिकस 20:27)
अगर किसी पुजारी या पुरोहित की लड़की वेश्यावृत्ति करती है तो उसे खूँटे से बांधकर आग लगा देनी चाहिए। (लवेटिकस 21:9)
जिनकी नाक चपटी है, या जो अंधे या लूले हैं, वे ईश्वर के पूजास्थल में प्रवेश नहीं कर सकते। (लवेटिकस 21:17-18)
जो ईश्वर को कोसता है या ईशनिन्दा करता है, उसकी सामुदायिक रूप से पत्थर मार-मारकर हत्या कर दी जाए। (लवेटिकस 21:14-16)
कोई भी व्यक्ति, जो ईश्वर के विरुद्ध सपना देखता है या जो उसके विरुद्ध भविष्यवाणी करता है या जो तुम्हें ईश्वर से विमुख करने की कोशिश करता है, उसकी हत्या कर दी जाए। (डूटरानमी 13:5)
कोई भी अगर तुम्हें किसी दूसरे ईश्वर की पूजा करने की सलाह देता है तो, चाहे वह तुम्हारे परिवार का सदस्य ही क्यों न हो, उसकी हत्या कर दो। (डूटरानमी 13:6-10)
अगर किसी दूसरे ईश्वर की पूजा करने वाला कोई शहर आपको दिखाई दे तो उस शहर को तहस-नहस कर दो और वहाँ रहने वाले सभी लोगों की हत्या कर दो, यहाँ तक कि जानवरों को भी ज़िंदा मत छोड़ो। (डूटरानमी 13:12-16)
भिन्न (अन्य) धर्म मानने वाले हर व्यक्ति का कत्ल कर दो। (डूटरानमी 17:2-7)
औरतों को पुरुषों के और पुरुषों को औरतों के वस्त्र पहनने की अनुमति नहीं दी गई है। (डूटरानमी 22:5)


न्यू टेस्टामेंट (नए नियम) से:
गुलामों को अपने मालिकों के सामने पूर्ण समर्पण कर देना चाहिए और उनका आज्ञाकारी होना चाहिए। (इफिज्यंस 6:5)
औरतों को अपने पति के सामने पूर्ण समर्पण करना चाहिए। (1 पीटर 3:1 और 3:5)
औरतों को अपने बालों में चोटी नहीं करनी चाहिए और न तो कोई आभूषण पहनना चाहिए, न ही कोई आकर्षक वस्त्र। (इस संदर्भ में, मैं इन शब्दों के अर्थ में किसी भी तरह के मेकअप और बालों को रंगना भी शामिल मानता हूँ।-1पीटर 3:3; 1 टिमती 2:9)
औरतों को सामान्य रूप से समर्पित और चुप (शांत) रहना चाहिए और कभी भी न तो शिक्षा देनी चाहिए और न पुरुषों पर किसी भी प्रकार का अधिकार जताना चाहिए। उन्हें खामोश रहना चाहिए। (1 टिमती 2:12)
किसी भी पूजास्थल में महिलाओं को सिर ढँककर रखना चाहिए। (1 करेंथीयंस 11:4-7)
ईसाई और इसलाम धर्म में हिंसा
यीशु और मुहम्मद में भिन्नता
क्या सभी धर्म करीब करीब एक समान हैं? बहुत लोग ऐसा ही समझते है। पहली नजर में ईसाई और इस्लाम, दोनों धर्म समान दिखते है। (मैं इन दोनों शब्दों, ईसाई और इस्लाम को इनके व्यापक अर्थ में उपयोग कर रहा हूं, अर्थात् कोई भी व्यक्ति जो अपने आपको ईसाई या मुस्लिम समझता है)। दोनों धर्मों में समान नैतिक नियम है। दोनों का लक्ष्य विश्व पर शासन करना है। लोगों का कहना है कि दोनों धर्मों के इतिहास में हिंसा भरा समय रहा है, विशेषकर लोग क्रूसेड काल की ओर संकेत करते है जो हिंसा मसीह के नाम में किये गये थे। वर्तमान समय में मुहम्मद के नाम में हो रही हिंसा सभी जानते है। हिन्दू या बौद्ध धर्मावलंबियों की तुलना में ईसाई और इस्लाम धर्मावलंबियों की संख्या अधिक है, जो इनके असली प्रतिस्पर्धी भी है। अज विश्व में ईसाइयों की संख्या २ अरब ३० करोड और इस्लाम धर्मावलंबियों की संख्या १ अरब ६ करोड है (यह संख्या भी इन शब्दों के व्यापक अर्थ में ली गयी है।)
इन २ अरब ३० करोड़ ईसाइयों में कितने लोग यीशु के सच्चे अनुयायी है


............क्रमश:...............

(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई  साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

2 comments:

  1. वास्तव में ईसाइयो द्वारा सनातन धर्म को समाप्त करने हेतु कई दुष्प्रचार, धर्म परिवर्तन आदि कार्य किये गए है और आज भी जारी है।विशेषतः ये लोग गरीब और लाचार लोगों को कई प्रोलोभन दे कर धर्म परिवर्तन कर रहे है।दु
    खद बात यह है कि हिन्दू संगडित नही है एवं विभिन पंथों में विभाजित है।
    आप के द्वारा एक आंख खोल देने जैसा लेख पूरे अध्ययन एवं तथ्यों पर आधरित है।आप को साधुवाद।

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