भाग – 27 इस्लाम की यात्रा
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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अंको मे आपने विश्व के सबसे पुराने सनातन धर्म को पढा। जहां से हिंदुत्व, जैन, बौद्ध धर्म भारत में
पैदा हुये। बौद्ध धर्म ने इसाइयत को यीशु के माध्यम से इजरायल में जन्म दिया और
फिर यह पूरी दुनिया में रक्तपात और धन प्रलोभन के सहारे चमत्कारों की जादूगरी से
पूरी दुनिया में फैल गया। अब दुनिया के सबसे नये धर्म पर चर्चा आरम्भ है। सोंचने
की बात है कि आखिर क्यों यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति
घोषित
किया है।
मक्का
के पास स्थित हिरा की गुफा जहां पैगम्बर मुहम्मद साहब को ईश्वर से पहला सन्देश
मिला था।
मुहम्मद पैगंबर (५७०-६३२) को मक्का की पहाड़ियों में परम
ज्ञान ६१० के आसपास प्राप्त हुआ। जब उन्होंने उपदेश देना आरंभ किया तब मक्का के
समृद्ध लोगों ने इसे अपनी सामाजिक और धार्मिक व्यवस्था पर खतरा समझा और उनका विरोध
किया। अंत में ६२२ में उन्हें अपने अनुयायियों के साथ मक्का से मदीना के लिए कूच करना पड़ा।
इस यात्रा को हिजरा कहा जाता है और यहीं से इस्लामी कैलेंडर की शुरुआत होती है।
मदीना के लोगों की ज़िंदगी आपसी लड़ाईयों से परेशान सी थी और हजरत मुहम्मद साहब के
संदेशों ने उन्हें वहाँ बहुत लोकप्रिय बना दिया। ६३० में हजरत मुहम्मद साहब ने
अपने अनुयायियों के साथ एक संधि का उल्लंघन होने के कारण मक्का पर चढ़ाई कर दी।
मक्कावासियों ने आत्मसमर्पण करके इस्लाम कबूल कर लिया। मक्का में स्थित काबा को इस्लाम का पवित्र
स्थल घोषित कर दिया गया। ६३२ में पैगम्बर मुहम्मद साहब का देहांत हो गया। पर उनकी मृत्यु
तक इस्लाम के प्रभाव से अरब के सारे कबीले एक राजनीतिक और सामाजिक सभ्यता का
हिस्सा बन गये थे। इस के बाद इस्लाम में खिलाफत का दौर शुरु हुआ।
यहां पर ध्यान देनेवाली बात है कि कथाओं के अनुसार वे चांद को निहारते थे। भेडे चराते और गुफ़ा में आराम करते चिंतन करते जो एक तरह का ध्यान ही है।
अब आप देखें चांद को
निहारना और घूरना एक
तरह का त्राटक
है। देखें मेरे ब्लाग पर अंतर्मुखी होने की विधियां। जिनमें नेत्रों के द्वारा आदमी अंतर्मुखी होकर
आत्मगुरु (सनातन के अनुसार) गाड वाइस (इसाइत), अल्लह की बोली
(मुस्लिम) कहते हैं, उसको प्राप्त कर सकता है। बाद में जब मोहम्माद साहब ने अपनी पत्नी से यह कहा तो उन्होने
कहा कि यह तुम पर खुदा की मेहरबानी है।
७५०
में इस्लामी सम्राज्य।
मुहम्मद
के ससुर अबु बक्र सिद्दीक़
मुसलमानों
के पहले खलीफा (सरदार) ६३२ में बनाये गये। कई प्रमुख मुसलमानों ने मिल के उनका
खलीफा होना स्वीकार किया। सुन्नी मुसलमानों (80-90%) के अनुसार अबु बक्र
सिद्दीक की खिलाफ़त के सम्बंध में कोई विवाद नहीं हुआ अपितु सभी ने उन्हे खलिफ़ा स्विकार
कर लिया था, सुन्नी
मान्य्ताओं के अनुसार हजरत मुहम्मद साहब ने स्वयं अपने स्वर्गवास से पूर्व ही अबु
बक्र सिद्दीक को अपने स्थान पर इमामत करने[ सलात (फ़ारसी में "नमाज")
पढाने ] का कार्य भार देकर अबु बक्र सिद्दीक के खलिफ़ा होने का का संकेत दे दिया
था सन् ६३२ में मुहम्म्द साहब ने अपने आखिरी हज में ख़ुम्म सरोवर के निकट अपने साथियों
को संबोधित किया था। शिया विश्वास के अनुसार इस ख़िताब में उन्होंने अपने दामाद
अली को अपना वारिस बनाया था। सुन्नी इस घटना को हजरत अली (अल्०) की प्रशंसा मात्र
मानते है और विश्वास रखते हैं कि उन्होंने हज़रत अली को ख़लीफ़ा नियुक्त नहीं
किया। इसी बात को लेकर दोनो पक्षों में मतभेद शुरु होता है।
हज
के बाद मुहम्मद साहब (स्०) बीमार रहने लगे। उन्होंने सभी बड़े सहाबियों को बुला कर कहा कि
मुझे कलम दावात दे दो कि में तुमको एसा नविश्ता लिख दूँ कि तुम भटको नहीं तो उमर ने कहा कि ये हिजयान कह रहे हे और नहीं
देने दिया (देखे बुखारी, मुस्लिम)।
शिया इतिहास के अनुसार जब
पैग़म्बर साहब की मृत्यु का समाचार मिला तो भी ये वापस न आकर सकिफा में सभा करने
लगे कि अब क्या करना चाहिये। जिस समय हज़रत मुहम्मद (स्०) की मृत्यु हुई, अली और उनके कुछ और
मित्र मुहम्मद साहब (स्०)
को दफ़नाने में लगे थे, अबु बक़र मदीना में जाकर
ख़िलाफ़त के लिए विमर्श कर रहे थे।
मदीना के कई लोग (मुख्यत: बनी ओमैया, बनी असद इत्यादि
कबीले) अबु बकर को खलीफा बनाने पर सहमत हो गये। ध्यान रहे कि मोहम्मद साहेब एवम
अली के कबीले वाले यानि बनी हाशिम अली को ही खलीफा बनाना
चाहते थे। पर इस्लाम के अब तक के सबसे बड़े साम्राज्य (उस समय तक संपूर्ण अरबी
प्रायद्वीप में फैला) के वारिस के लिए मुसलमानों में एकजुटता नहीं रही। कई लोगों
के अनुसार अली, जो
मुहम्मद साहब के चचेरे भाई थे और दामाद भी (क्योंकि उन्होंने मुहम्मद साहब की
संतान फ़ातिमा से शादी की थी) ही
मुहम्मद साहब के असली वारिस थे। परन्तु अबु बक़र पहले खलीफा बनाये गये और उनके
मरने के बाद उमर को ख़लीफ़ा बनाया गया।
इससे अली (अल्०) के समर्थक लोगों
में और भी रोष फैला परन्तु अली मुसलमानों की भलाई के लिये चुप रहे।परन्तु शिया
मुस्लिम (10-20%)के अनुसार मुहम्मद के चचा जाद भाई, अली, जिन का मुसलमान बहुत आदर करते थे ने अबु
बक्र को खलीफा मानने से इन्कार कर दिया। लेकिन यह विवाद इस्लाम की तबाही को रोक्ने
के लिए वास्तव में हज़रत अली की सूझ बुझ के कारण टल गया अबु बक्र के कार्यकाल में पूर्वी रोमन साम्राज्य
और
ईरानी साम्राज्य
से
मुसलमान फौजों की लड़ाई हूई। यह युद्ध मुहम्मद के ज़माने से चली आ रही दुश्मनी का
हिस्सा थे। अबु बक्र के बाद उमर बिन खत्ताब को ६३४ में खलीफा बनाया गया।
उनके कार्यकाल में इस्लामी साम्राज्य बहुत तेज़ी से फैला और समपूर्ण ईरानी
साम्राज्य और दो तिहाई पूर्वी रोमन साम्राज्य पर मुसलमानों ने कबजा कर लिया। पूरे
साम्राज्य को विभिन्न प्रदेशों में बाट दिया गया और और हर प्रदेश का एक राज्यपाल
नियुक्त कर दिया गया जो की खलीफा का अधीन होता था।
उमर
बिन खत्ताब के बाद उसमान बिन अफ्फान
६४४
में खलीफा बने। यह भी मुहम्मद के प्रमुख साथियों में से थे। उसमान बिन अफ्फान पर
उनके विरोधियों ने ये आरोप लगाने शुरु किये कि वो पक्षपात से नियुक्तियाँ करते हैं
और कि अली (मुहम्मद साहिब के चचा जाद भाई) ही खलीफा होने के सही हकदार हैं। तभी
मिस्र में विद्रोह की भावना जागने लगी और वहाँ से १००० लोगों का एक सशस्त्र समूह
इस्लामी साम्राज्य की राजधानी मदीना आ गया। उस समय तक सभी खलीफा आम लोगों की तरह
ही रहते थे। इस लिये यह समूह ६५६ में उसमान की हत्या करने में सफल हो गया।
कुछ
प्रमुख मुसलमानों ने अब अली को खलीफा स्वींकार कर लिया लेकिन कुछ प्रमुख मुसलमानों
का दल अली के खिलाफ भी हो गया। इन मुसलमानों का मानना था की जब तक उसमान के
हत्यारों को सज़ा नहीँ मिलती अली का खलीफा बनना सही नहीं है। यह इस्लाम का पहला
गृहयुद्ध था। शुरु में इस दल के एक हिस्से की अगुआई आयशा, जो की मुहम्मद की
पत्नी थी, कर
रही थीं। अली और आश्या की सेनाओं के बीच में जंग हूई जिसे जंग-ए-जमल कहते हैं। इस
जंग में अली की सेना विजय हूई। अब सीरिया के राज्यपाल मुआविया ने विद्रोह का बिगुल
बजाया। मुआविया उसमान के रिश्तेदार भी थे मुआविया की सेना और अली की सेना के बीच
में जंग हूई पर कोई परिणाम नहीं निकला। अली ने साम्राज्य में फैली अशांति पर काबू
पाने के लिये राजधानी मदीना से कूफा में (जो अभी ईराक़ में है) पहले ही बदल दी थी।
मुआविया की सेनाऐं अब पूरे इस्लामी साम्राज्य में फैल गयीं और जल्द ही कूफा के
प्रदेश के सिवाये सारे साम्राज्य पर मुआविया का कब्जा हो गया। तभी एक कट्टरपंथी ने
६६१ में अली की हत्या कर दी।
शिया
और सुन्नी वर्गों की नींव
अली
के बाद हालांकि मुआविया खलीफा बन गये लेकिन मुसलमानों का एक वर्ग रह गया जिसका
मानना था कि मुसलमानों का खलीफा मुहम्मद के परिवार का ही हो सकता है। उनका मानना
था कि यह खलीफा (जिसे वह ईमाम भी कहते थे) स्वयँ भगवान के द्वारा आध्यात्मिक
मार्गदर्शन पाता है। इनके अनुसार अली पहले ईमाम थे। यह वर्ग शिया वर्ग के नाम से
प्रसिद्ध हुआ। बाकी मुसलमान, जो की यह नहीं मानते हैं कि मुहम्मद का
परिवारजन ही खलीफा हो सकता है, सुन्नी कहलाये। सुन्नी पहले
चारों खलीफाओं को राशिदून खलीफा कहते हैं जिसका अर्थ है सही मार्ग पे चलने वाले
खलीफा।
मुआविया
के खलीफा बनने के बाद खिलाफत वंशानुगत हो गयी। इससे उमय्यद ख़िलाफ़त
का
आरंभ हुआ। शिया इतिहास कारों के अनुसार मुआविया क बेटे यज़ीद ने खिलाफत प्राप्त
करते ही इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करना शुरू कर दिया, उसके कृत्य से धार्मिक
मुसलमान असहज स्थिति में आ गए, अब यज़ीद को आयश्यकता थी की अपनी गलत
नीतिओ को ऐसे व्यक्ति से मान्यता दिला दे जिस पर सभी मुस्लमान भरोसा करते हो, इस काम के लिए यज़ीद
ने हज़रत मुहम्मद के नवासे, हज़रत अली अलैहिस सलाम और हज़रत मुहम्मद
की इकलौती पुत्री फातिमा के पुत्र हज़रत हुसैन से अपनी खिलाफत पर मंजूरी करनी चाही
परन्तु हज़रत हुसैन ने उसके इस्लाम की नीतिओ के विरुद्ध कार्य करने के कारण अपनी
मंजूरी देने से मना कर दिया, हज़रत हुसैन के मना करने पर यज़ीद की
फौजों ने हज़रत हुसैन और उनके ७२ साथियो पर पानी बंद कर दिया और बड़ी ही बेदर्दी
के साथ उनका क़त्ल करके उनके घर वालो को बंधक बना लिया, कई सुन्नी इतिहास
कारों ने भी अपनी पुस्तकों में यज़ीद को हुसैन के क़त्ल का ज़िम्मेदार माना है
परन्तु ये सभी शिया इतिहास कारों से प्रेरित थे या इनके ज्ञान का असल केन्द्र
शियाओं की गडी गयी बनू उमय्या के विरुद्ध झूठी कहानियां है।
सुन्नी मत के बड़े
विध्वा्नो इमाम अहमद बिन हंब्ल, इमाम ग़ज़ाली वगैरह ने यज़ीद को क़त्ले
हुसैन करने का ज़िम्मेदार नहीं माना है। इस जंग में हुसैन को शहादत प्राप्ति हो
गयी। शिया लोग १० मुहर्रम के दिन इसी का शोक
मनाते हैं।
इस्लाम
का स्वर्ण युग (७५०-१२५८)
इबन
रशुद जिसने दर्शनशास्त्र में इबनरशुवाद को जन्म दिया।
उम्मयद
वंश ७० साल तक सत्ता में रहा और इस दौरान उत्तरी अफ्रीका, दक्षिण यूरोप, सिन्ध और मध्य एशिया
के कई हिस्सों पर उनका कब्ज़ा हो गया। उम्मयद वंश के बाद अब्बासी वंश ७५० में सत्ता में
आया। शिया और अजमी मुसलमानों ने (वह मुसलमान जो कि अरब नहीं थे) अब्बासियों को
उम्मयद वंश के खिलाफ विद्रोह करने में बहुत सहायता की। उम्मयद वंश की एक शाखा
दक्षिण स्पेन और कुछ और क्षेत्रों पर सिमट कर रह गयी। केवल एक इस्लामी सम्राज्य की
धारणा अब समाप्त होने लगी।
अब्बासियों
के राज में इस्लाम का स्वर्ण युग शुरु हुआ। अब्बासी खलीफा ज्ञान को बहुत महत्त्व
देते थे। मुस्लिम दुनिया बहुत तेज़ी से विशव में ज्ञान केन्द्र बनने लगी। कई
विद्वानों ने प्राचीन युनान, भारत, चीन और फ़ारसी
सभय्ताओं की साहित्य, दर्शनशास्र, विज्ञान, गणित इत्यादी से
संबंधित पुस्तकों का अध्ययन किया और उनका अरबी में अनुवाद किया। विशेषज्ञों का
मानना है कि इस के कारण बहुत बड़ा ज्ञानकोश इतिहास के पन्नों में खोने से रह गया।
मुस्लिम विद्वानों ने सिर्फ अनुवाद ही नहीं किया। उन्होंने इन सभी विषयों में अपनी
छाप भी छोड़ी।
चिकित्सा विज्ञान
में
शरीर रचना और रोगों से संबंधित कई नई खोजें भारत में हूईं जैसे कि खसरा और चेचक के
बीच में जो फर्क है उसे समझा गया। इबने सीना (९८०-१०३७) ने चिकित्सा
विज्ञान से संबंधित कई पुस्तकें लिखीं जो कि आगे जा कर आधुनिक चिकित्सा विज्ञान का
आधार बनीं। इस लिये इबने सीना को आधुनिक चिकित्सा का पिता भी कहा जाता है। इसी तरह
से अल हैथाम को प्रकाशिकी विज्ञान
का पिता और अबु मूसा जबीर को रसायन शास्त्र का पिता भी कहा जाता है। अल
ख्वारिज़्मी की किताब किताब-अल-जबर-वल-मुक़ाबला से ही बीजगणित को
उसका अंग्रेजी नाम मिला। अल ख्वारिज़्मी को बीजगणित की पिता कहा जाता है।
इस्लामी
दर्शनशास्त्र में प्राचीन युनानी
सभय्ता के दर्शनशास्र को इस्लामी रंग से विकसित किया गया। इबने सीना ने
नवप्लेटोवाद, अरस्तुवाद
और इस्लामी धर्मशास्त्र को जोड़ कर सिद्धांतों की एक नई प्रणाली की रचना की। इससे
दर्शनशास्र में एक नई लहर पैदा हूई जिसे इबनसीनावाद कहते हैं। इसी तरह इबन रशुद ने अरस्तू के
सिद्धांतों को इस्लामी सिद्धांतों से जोड़ कर इबनरशुवाद को जन्म दिया। द्वंद्ववाद
की मदद से इस्लामी धर्मशास्त्र का अध्ययन करने की कला को विकसित किया गया। इसे कलाम कहते हैं। मुहम्मद साहब के उद्धरण, गतिविधियां इत्यादि के
मतलब खोजना और उनसे कानून बनाना स्वयँ एक विषय बन गया। सुन्नी इस्लाम में इससे
विद्वानों के बीच मतभेद हुआ और सुन्नी इस्लाम कानूनी मामलों में ४ हिस्सों में बट
गया।
राजनैतिक
तौर पर अब्बासी सम्राज्य धीरे धीरे कमज़ोर पड़ता गया। अफ्रीका में कई मुस्लिम
प्रदेशों ने ८५० तक अपने आप को लगभग स्वतंत्र कर लिया। ईरान में भी यही हाल हो
गया। सिर्फ कहने को यह प्रदेश अब्बासियों के अधीन थे। महमूद ग़ज़नी (९७१-१०३०) ने अपने आप
को तो सुल्तान भी घोषित कर दिया। सल्जूक
तुरकों ने अब्बासियों की सेना शक्ति नष्ट करने में अहम
भूमिका निभाई। उन्होंने मध्य एशिया और ईरान के कई प्रदेशों पर राज किया। हालांकि
यह सभी राज्य आपस में युद्ध भी करते थे पर एक ही इस्लामी संस्कृति होने के कारण आम
लोगों में बुनियादी संपर्क अभी भी नहीं टूटा था। इस का कृषिविज्ञान पर बहुत असर
पड़ा। कई फसलों को नई जगह ले जाकर बोया गया। यह मुस्लिम कृषि क्रांति कहलाती है।
विभिन्न
मुस्लिम सम्राज्यों की रचना और आधुनिक इस्लाम
फातिमिद
वंश (९०९-११७१) जो कि शिया था ने उत्तरी अफ्रीका के कुछ
हिस्सों पर कब्ज़ा कर के अपनी स्वतंत्र खिलाफत की स्थापना की। (हालांकि इस खिलाफत
को अधिकतम मुसल्मान आज अवैध मानते हैं।) मिस्र में गुलाम सैनिकों से बने ममलूक वंश ने १२५० में सत्ता
हासिल कर ली। मंगोलों ने जब १२५८ में अब्बासियों को बग़दाद में हरा दिया तब
अब्बासी खलीफा एक नाम निहाद हस्ती की तरह मिस्र के ममलूक सम्राज्य की शरण में चले
गये।
एशिया में मंगोलों ने कई सम्राज्यों पर
कब्ज़ा कर लिया और बोद्ध धर्म छोड़ कर इस्लाम कबूल कर लिया।
मुस्लिम सम्राज्यों और
इसाईयों के बीच में भी अब टकराव बढ़ने लगा। अय्यूबिद
वंश के सलादीन ने ११८७ में येरुशलाईम
को, जो
पहली सलेबी जंग (१०९६-१०९९) में
इसाईयों के पास आ गया था, वापस जीत लिया। १३वीं और १४वीं सदी से उस्मानी साम्राज्य (१२९९-१९२४) का असर
बढ़ने लगा। उसने दक्षिणी और पूर्वी यूरोप के कई प्रदेशों को और उत्तरी अफ्रीका को
अपना अधीन कर लिया। खिलाफत अब वैध रूप से उस्मानी वंश की होने लगी। ईरान में शिया सफवी वंश(१५०१-१७२२) और भारत
में दिल्ली सुल्तानों
(१२०६-१५२७)
और बाद में मुग़ल साम्राज्य (१५२६-१८५७) की हुकूमत
हो गयी।
नवीं
सदी से ही इस्लाम में अब एक धार्मिक रहस्यवाद की भावना का विकास होने लगा था जिसे सूफी मत कहते हैं। ग़ज़ाली (१०५८-११११) ने सूफी मत
के पक्ष में और दर्शनशास्त्र की निरर्थकता के बारे में कुछ ऐसे तर्क दिये थे कि
दर्शनशास्त्र का ज़ोर कम होने लगा। सूफी काव्यात्मकता की प्रणाली का अब जन्म हुआ। रूमी (१२०७-१२७३) की मसनवी
इस का प्रमुख उदाहरण है। सूफियों के कारण कई मुसलमान धर्म की ओर वापस आकर्षित होने
लगे। अन्य धर्मों के कई लोगों ने भी इस्लाम कबूल कर लिया। भारत और इंडोनेशिया में
सूफियों का बहुत प्रभाव हुआ। मोइनुद्दीन चिश्ती,
बाबा फरीद, निज़ामुदीन जैसे भारतीय सूफी संत
इसी कड़ी का हिस्सा थे।
१९२४
में तुर्की के पहले प्रथम विश्वयुद्ध
में
हार के बाद उस्मानी साम्राज्य समाप्त हो गया और खिलाफत का अंत हो गया। मुसल्मानों
के अन्य देशों में प्रवास के कारण युरोप और अमरीका में भी इस्लाम फैल गया है। अरब
दैशों में तेल के उत्पादन के कारण उनकी अर्थव्यवस्था बहुत तेज़ी से सुधर गयी।
१९वीं और २०वीं सदी में इस्लाम में कई पुनर्जागरण आंदोलन हुए। इन में से सलफ़ी और देवबन्दी मुख्य हैं। एक पश्चिम
विरोधी भावना का भी विकास हुआ जिससे कुछ मुसलमान कट्टरपंथ की तरफ आकर्षित होने
लगे।
मुसलमानों
के उपासनास्थल को मस्जिद कहते हैं। मस्जिद इस्लाम में केवल ईश्वर की प्रार्थना का
ही केंद्र नहीं होता है बल्की यहाँ पर मुस्लिम समुदाय के लोग विचारों का आदान
प्रदान और अध्ययन भी करते हैं। मस्जिदों में अक्सर इस्लामी वास्तुकला
के
कई अद्भुत उदाहरण देखने को मिलते हैं। विश्व की सबसे बड़ी मस्जिद मक्का की मस्जिद
अल हराम है। मुसलमानों का पवित्र स्थल काबा इसी मस्जिद में है।
मदीना की मस्जिद अल नबवी
और
येरुशलाईम की मस्जिद ए अक़सा भी इस्लाम में महत्वपूर्ण हैं।
पारिवारिक
और सामाजिक जीवन
मुसलमानों
का पारिवारिक और सामाजिक जीवन इस्लामी कानूनों और इस्लामी प्रथाओं से प्रभावित
होता है। विवाह एक प्रकार का कानूनी और सामाजिक अनुबंध होता है जिसकी वैधता केवल
पुरुष और स्त्री की मर्ज़ी और २ गवाहों से निर्धारित होती है (शिया वर्ग में केवल
१ गवाह चाहिये होता है)। इस्लामी कानून स्त्रियों और पुरुषों को विरासत में आधा
हिस्सा देता है। स्त्रियों का हिस्सा पुरुषों की तुलना में आधा होता है।
इस्लाम
के दो महत्वपूर्ण त्यौहार ईद उल फितर और ईद-उल-अज़्हा हैं। रमज़ान का महीना
(जो कि इस्लामी कैलेण्डर का नवाँ महीना होता
है) बहुत पवित्र समझा जाता है। अपनी इस्लामी पहचान दिखाने के लिये मुसलमान अपने
बच्चों का नाम अक्सर अरबी भाषा से लेते हैं। इसी कारण वह दाढ़ी भी रखते हैं।
इस्लाम में कपड़े पहनते समय लज्जा रखने पर बहुत ज़ोर दिया गया है। इसलिये अधिकतर
स्त्रियाँ बुर्का पहनती हैं और कुछ स्त्रियाँ नकाब भी पहनती हैं।
भारत
के अजमेर शहर में सूफी संत मोइनुदीन चिश्ती की दरगाह। यहां रोज़ हज़ारों लोग
श्रद्धांजलि देने आते हैं ।
अन्य
धर्मों से इस्लाम का संपर्क समय और परिस्थ्ति से प्रभावित रहा है। यह संपर्क
मुहम्मद के समय से ही शुरु हो गया था। उस समय इस्लाम के अलावा अरब में ३ परम्पराओं
के मानने वाले थे। एक तो अरब का पुराना धर्म (जो अब लुप्त हो चुका है) था जिसकी
वैधता इस्लाम ने नहीं स्वीकार की। इसका कारण था कि वह धर्म ईश्वर की एकता को नहीं
मानता था जो कि इस्लाम के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध था। ईसाई धर्म और यहूदी धर्म को इस्लाम ने वैध तो
स्वींकार कर लिया पर इस्लाम के अनुसार इन धर्मों के अनुयायियों और पुजारियों ने
इनमें बदलाव कर दिये थे। मुहम्म्द ने अपने मक्का से मदीना पहुंचने के बाद वहाँ के
यहूदियों के साथ एक संधि करी जिसमें यहूदियों की धार्मिक और सांस्कृतिक स्वायत्तता
को स्वींकारा गया। अरब बहुदेववादियों के साथ भी एक संधि हूई जिसे हुदैबा की सुलह
कहते हैं।
मुहम्मद
के बाद से अक्सर राजनैतिक कारण अन्य धर्मों की ओर् इस्लाम का व्यवहार निर्धारित
करते आये हैं। जब राशिदून खलीफाओं ने अरब से बाहर कदम रखा तो उनका सामना पारसी धर्म से हुआ। उसको भी वैध
स्वींकार कर लिया गया। इन सभी धर्मों के अनुयायियों को धिम्मी
कहा गया। मुसलमान खलीफाओं को इन्हें एक शुल्क देना होता था जिसे जिज़्या कहते हैं। इसके बदले
राज्य उन्हें हानी न पहुंचाने और सुरक्षा देने का वादा करता था। उम्मयदों के
कार्यकाल में इस्लाम कबूल करने वाले को अक्सर हतोत्साहित किया जाता था। इसका कारण
था कि कई लोग केवल राजनैतिक और आर्थिक लाभों के लिये ही इस्लाम कबूल करने लगे थे।
इससे जिज़्या कम होने लगा था।
भारत में इस्लाम
का
आगमन तो अरब व्यापारी ७वीं सदी में ही ले आये थे। लेकिन भारत में प्रारंभिक
मुस्लिम सुल्तानों का आना १०वीं सदी में ही हुआ। अब तक आधिकारिक रूप से इन
सुलतानों का इस्लामी खलीफाओं से कोई संबंध नहीं था। इसलिये इन सभी ने अपनी अपनी
समझ के हिसाब से हिन्दू धर्म कि ओर अपना रवैया
अपनाया। शुरु में कुछ मुस्लिम सुल्तानों ने हिन्दू धर्म की कम जानकारी होने के
कारण उसे पुराने अरब के बहुदेववाद के साथ जोड़ा। सूफी संतों और भक्ति आंदोलन ने इस
मनमुटाव को दूर करने में बहुत अहम भूमिका निभाई।
अगले
कुछ वर्षों में कई प्रबुद्ध लोग मुहम्मद स्० (पैगम्बर नाम से भी ज्ञात) के अनुयायी
बने। उनके अनुयायियों के प्रभाव में आकर भी कई लोग मुसलमान बने। इसके बाद मुहम्मद
साहब ने मक्का वापसी की और बिना युद्ध किए मक्काह फ़तह किया और मक्का के सारे
विरोधियों को माफ़ कर दिया गया। इस माफ़ी की घटना के बाद मक्का के सभी लोग इस्लाम
में परिवर्तित हुए। पर पयम्बर (या पैगम्बर मुहम्मद) को कई विरोधों और नकारात्मक
परिस्थितियों का सामना करना पड़ा पर उन्होंने हर नकारात्मकता से सकारात्मकता को
निचोड़ लिया जिसके कारण उन्होंने जीवन के हर क्षेत्र में जीत हासिल की।
उनकी
वफात के बाद अरबों का साम्राज्य और जज़्बा बढ़ता ही गया। अरबों ने पहले मिस्र और उत्तरी अफ्रीका पर
विजय हासिल की और फिर बैजेन्टाइन तथा फारसी साम्राज्यों को हराया। यूरोप में तो
उन्हें विशेष सफलता नहीं मिली पर फारस में कुछ संघर्ष करने के बाद उन्हें जीत
मिलने लगी। इसके बाद पूरब की दिशा में उनका साम्राज्य फेलता गया। सन् 1200 तक वे भारत तक पहुँच गए।
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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बकवास और मनगढ़ंत
ReplyDeleteजी यह सब लोग्गों की शोध है।
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