भाग – 21 ईसाइयत का सत्य :
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास
विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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उस पतन के प्रतिक्रियास्वरूप 10वीं
शताब्दी में फ्रांस के क्लुनी (Cluny) मठ नेतृत्व में पश्चिम
यूरोप में मठवासी जीवन का अपूर्व पुनर्विकास हुआ। सैकड़ों दूसरे उपमठ क्लुनी के
मठाध्यक्ष का अनुशासन स्वीकार करते थे जिससे पोप के बाद क्लुनी का मठाध्यक्ष उस
समय ईसाई संसार का सबसे महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गया था।
11. कुंस्तुंतुनिया के नेतृत्व में
नवीं शताब्दी में बालकन की स्लाव (Slav) जातियों का धर्मपरिवर्तन हुआ और उसके बाद रूस में
भी ईसाई धर्म का विशेष विस्तार हुआ। ईसाई धर्म का सबसे बड़ा दुर्भाग्य यह है कि
यूनानी भाषा बोलनेवाले प्राच्य काथोलिकों तथा लैटिन भाषा बोलनेवाले पाश्चात्य
कॉथोलिकों का अलगाव उस युग में बढ़ने लगा। उसके कई कारण हैं। यूनानी संस्कृति
लैटिन संस्कृति से कहीं अधिक परिष्कृत थी। एक ओर प्राच्य चर्च तथा बीजैंटाइन (Byzantine)
साम्राज्य का एकीकरण हुआ था और दूसरी ओर पश्चिम में रहनेवाले पोप को
वहाँ के शासकों से सहायता मिला करती थी। राजधानी कुंस्तुंतुनिया के बिशप को पेत्रिआर्क
की उपाधि मिली थी और उनका महत्व इतना बढ़ गया कि वह समस्त प्राच्य चर्च के अध्यक्ष
माने जाते थे। इन सब कारणों से पूर्व में रोम के पोप के अधिकार की उपेक्षा होने
लगी। नवीं शताब्दी में फोतियस (Photius) ने कुछ समय तक
प्राच्य चर्चों को रोम से अलगकर दिया था और अपनी रचनाओं में रोम के विरुद्ध इतना
कटु प्रचार किया था कि, यद्यपि उसने बाद में रोम का अधिकार
पुन: स्वीकार कर लिया, फिर भी उसकी रचनाओं का कुप्रभाव नहीं
मिट सका और बाद में पेत्रिआर्क माइकल सेरुलारियस के समय में कुंस्तुंतुनिया का
चर्च रोम से अलग हो गया (1054 ई.)। इस्लाम ने काथॉलिक चर्च को यूरोप तक
सीमित कर दिया था, अब वह पश्चिम यूरोप तक ही सीमित रहा।
12. 11वीं तथा 12वीं
शताब्दियों में चर्च ने बिशपों की नियुक्ति तथा पोप के चुनाव में राजाओं के
हस्तक्षेप का तीव्र विरोध किया। पोप संत लेओं नवम ने (1041-1054) चर्च के अनुशासन में बहुत सुधार किया। 1059 ई. में
एक कानून घोषित किया गया कि भविष्य में कार्डिनल मात्र पोप का चुनाव करेंगे;
बिशपों की नियुक्ति के विषय में जर्मन सम्राट् हेनरी चतुर्थ और पोप
संत ग्रेगोरी सप्तम में जो संघर्ष हुआ, उसमें सम्राट् को
झुकना पड़ा (1077 ई.)। अगली शताब्दी में जर्मन सम्राट् तथा
कॉथोलिक चर्च में समझौता हुआ। बोर्म्स की धर्मसंधि (1123) के अनुसार बिशपों तथा मठाधीशों की नियुक्ति में शासकों का हस्तक्षेप रुक
गया। उस समय से रोमन काथोलिक चर्च का संगठन रोम में केंद्रीभूत हुआ। रोम के
प्रतिनिधि स्थायी रूप से सभी देशों में रहने लगे तथा चर्च का एक नया कानून संग्रह
सर्वत्र लागू होने लगा।
11वीं शताब्दी के उत्तरार्ध् में उत्तर
स्पेन के
इस्लाम-विरोधी अभियान को पर्याप्त सफलता मिली और ईसाई सेनाओं ने 1085 ई. में तोलेदो (Toledo) को मुक्त किया। पूर्व में 1071
ई. में बीजैंटाइन सम्राट् की हार हुई। इससे चिंतित हाकर पोप ने ईसाई
राजाओं से निवेदन किया कि वे एशिया माइनर तथा फिलिस्तीन को इस्लाम से मुक्त कर
दें। फलस्वरूप प्रथम क्रूसयुद्ध (क्रूसेड)
का आयोजन किया गया। 1099 ई. में येरूसलेम पर
ईसाई सेनाओं का अधिकार हुआ, जो अधिक समय तक नहीं रह सका।
13. 12वीं श्ताब्दी को पाश्चात्य चर्च
का उत्थान काल माना जा सकता है। पेरिस के
पीटर लोंबार्ड की रचना से धर्मविज्ञान (Theology) को नया उत्साह मिला तथा
स्पेन के पुरोहितों ने अरबी भाषा से अरस्तू के
ग्रंथों तथा उसको अरबी व्यख्याओं का लैटिन भाषा में अनुवाद किया, जिससे सर्वत्र दर्शनशास्त्र में
अभिरुचि जाग्रत होने लगी।
उस शताब्दी में अनेक नए धर्मसंघों की उत्पत्ति हुई
जिनमें से दो अत्यंत महत्वपूर्ण हैं। सीतौ (Citeaux) के धर्मसंघ की स्थापना 1098
ई. में हुई थी। उस सिस्तर्सियन (Cistercian) संघ
के मठ पश्चिम यूरोप के जंगलों में सर्वंत्र कृषि का प्रचार करने लगे। 12वीं शताब्दी के अंत तक इस प्रकार के 530 मठों की
स्थापना हो चुकी थ। संत बर्नाडं उस संघ के सदस्य थे, उनकी रचनाओं
के द्वारा ईसा और उनकी माता मरिया के प्रति कोमल भक्ति का सर्वत्र प्रचार हुआ।
संत नोर्बर्ट (Norbert) ने 1120 ई. में प्रेमोंस्त्राटेंशन (Premonstratensian) धर्मसंघ
का प्रवर्तन किया। उसके सदस्य उपदेश दिया करते थे तथा ईसाई जनसाधारण के लिय
पुरोहितों का कार्य भी करते थे। वह संघ भी शीघ्र ही फैल गया।
उस शताब्दी में स्कैंडिनेविया, मध्य
जर्मनी, बोहेमिया, प्रशा और पोलैंड में
जो धर्मप्रचार का कार्य संपन्न हुआ वह मुख्य रूप से इन दो धर्मसंघों के माध्यम से
ही संभव हो सका।
12वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में
सम्राट् फ्रेड्रिक बरबारोस्सा (1152-1190) ने फिर चर्च पर
अधिकार जताने का प्रयास किया किंतु पोप अलैक्जेंडर तृतीय (1159-1191) ने उनका सफलतापूर्वक विरोध किया। इसके अतिरिक्त पोप अलेक्जैंडर तृतीय ने
चर्च का संगठन भी सुदृढ़ बनाया जिससे वह दस सर्वोत्तम पोपों में गिने जाते हैं।
14. 13वीं शताब्दी के प्रारंभ में
दक्षिण फ्रांस तथा उत्तर इटली में प्रोवांस के शासकों के नेतृत्व में एलबीजेंसस
नामक संप्रदाय के प्रचार से जनता में अत्यधिक अशांति फैल गई। एलबीजेंसस भौतिक जगत्
तथा मानव शरीर को दूषित मानते थे इसलिये संततिनिरोध के उद्देश्य से विवाह का विरोध
तथा उन्मुक्त प्रेम का समर्थन करते थे। उस संप्रदाय के उन्मूलन के लिये एनक्विजिशन की स्थापना हुई थी।
उस शताब्दी में दो अत्यंत महत्वपूर्ण धर्मसंघों की स्थापना
हुई थी, फ्रांसिस्की संघ तथा दोमिनिकी संघ। इटली निवासी संत
फ्रांसिस द्वारा स्थापित धर्मसंघ में निर्धनता पर विशेष बल दिया जाता था। प्रारंभ
में उस संघ के सदस्यों में एक भी पुरोहित नहीं था; फ्रांसिस्की
संन्यासी उपदेश द्वारा जनता में भक्ति तथा अन्य धार्मिक भाव उत्पन्न करते थे। इस
संघ को अपूर्व सफलता मिली। 10 वर्ष के अंदर सदस्यों की
संख्या 5000 हो गई थी और 1221 ई. में
उनकी प्रथम सामान्य सभा के अवसर पर 500 नए उम्मेदवार भरती
होने के लिये आए। संत दोमिनिक स्पेनिश थे। उन्होंने समझ लिया कि एलबीजेंसस का विरोध
करने के लिये ऐसे पुरोहितों की आवश्यकता है जो तपस्वी हैं और विद्वान् भी। अत:
उन्होंने अपने दोमिनिकी संघ में तप तथा विद्वत्ता पर विशेष ध्यान दिया। यह संघ
फ्रांसिस्कों संघ से कम लोकप्रिय रहा, फिर भी वह शीघ्र ही
समस्त यूरोप में फैल गया।
यद्यपि पोप इन्नासेंट तृतीय (1168-1215) के समय में ईसाई संसार में पोप का प्रभाव अपनी चरम सीमा तक पहुँच गया था,
फिर भी 13वीं शताब्दी में पोप और जर्मन सम्राट
का संघर्ष होता रहा। उदाहरणार्थ 1241 ई. में पोप के मरते समय
11 कार्डिनल जीवित थे; सम्राट् ने दो
को कैद में डाल दिया, दूसरे भाग गए और दो वर्ष तक चर्च का
केई परमाधिकारी नहीं रहा। अंत में फ्रांस के राजा के अनुरोध से सम्राट् ने चुनाव
होने दिया।
13वीं शताब्दी में यूरोप के
विश्वविद्ययालयों में कुछ समय तक अरस्तू के अरबी व्याख्याता अवेरोएस (1126-1198
ई.) के मत तथा स्कोलैस्टिक फिलोसोफी का द्वद्वंयुद्ध हुआ, जिसमें अंततोगत्वा संत एलबेर्ट (1193-1280), संत
बाना वेंच्यर (1221-1274 ई.) तथा संत थोमस अक्वाइनस (1225-1274
ई.) के नेतृत्व में स्कालैस्टिक फिलोसोफी की विजय हुई और अरस्तू की
ईसाई व्याख्या द्वारा ईसाई धर्मसिद्धांतों का युक्तिसंगत प्रतिपादन हुआ। उस समय
समस्त यूरोप में कला और विशेषकर वास्तुकला का विकास हुआ और विशाल भव्य गौदिक गिरजाघरों
का निर्माण प्रारंभ हुआ।
15. 13वीं शताब्दी के अंत में पश्चिम
यूरोप में चर्च का अपकर्ष प्रारंभ हुआ और प्रोटेस्टैंट विद्रोह तक उत्तरोत्तर
बढ़ता गया। उस समय से जर्मन सम्राट् के अतिरिक्त फ्रांस के राजा भी चर्च के मामलों
में अधिकाधिक हस्तक्षेप करने लगे। 1305 ई. में एक फ्रेंच पोप
का चुनाव हुआ, वह जीवन भर फ्रांस में ही रहे और उनके फ्रेंच
उत्तराधिकारी भी 1367 ई. तक अविज्ञोन (Avignon) नामक फ्रेंच नगर में निवास करते थे। उनमें से एक रोम लौटे किंतु वह एकाध
वर्ष बाद फिर फ्रांस चले गए; उनके उत्तराधिकारी ग्रेगोरी नवम
सिएना की संत कैथरीन का अनुरोध मानकर 1376 ई. में रोम लौटे।
उनकी मृत्यु के बाद एक इटालियन डर्बन षष्ठ को चुना गया, क्योंकि
जनता ने कार्डिनलों को धमकी दी थी कि ऐसा न करने पर उनकी हत्या की जाएगी। डर्बन के
चुनाव के बाद कार्डिनल रोम से भाग गए और उन्होंने चार महीने बाद एक नए पोप को चुन
लिया जो अविज्ञोन में निवास करने लगे। अब पश्चिम यूरोप में दो पोप थे, एक राम में और एक अविज्ञोन में जिससे समस्त काथलिक संसर 40 वर्ष तक दो भागों में विभक्त रहा। उस समस्या का हल करने के प्रयास में 1409
ई. में एक तीसरे पोप का भी चुनाव हुआ किंतु 1417 ई. में सबों ने नवनिर्वाचित मारतीन पंचम को सच्चे पोप के रूप में स्वीकार
किया और इस तरह पाश्चात्य विच्छेद (Western schism) का अंत
हुआ।
इतने में अंग्रेज वोक्लिफ (Wycliffe) सिखलाने लगा कि चर्च का
संगठन (पोप, पुरोहित (प्रिस्ट)), उसके संस्कार आदि
यह सब मनुष्य का आविष्कार है; ईसाइयों के लिय बाइबिल ही
पर्याप्त है। यह मत बोहेमिया तक फैल गया जहाँ जॉन हुस (Hus) उसका
प्रचारक और शहीद भी बन गया (1415 ई.)। लूथर पर उन सिद्धांतों का प्रभाव स्पष्ट है।
चर्च के अपकर्ष का मुख्य कारण 15वीं
शताब्दी उत्तरार्ध के नितांत अयोग्य पोप ही हैं। यूरोप में उस समय सर्वत्र प्राचीन
यूनानी तथा लैटिन साहित्य की अपूर्व लोकप्रियता के साथ-साथ एक नवीन सांस्कृतिक
आंदोलन प्रांरभ हुआ जिसे रिनेसाँ अथवा नवजागरण कहा गया है। बीजैंटाइन साम्राज्य का
अंत निकट देखकर बहुत से यूनानी विद्वान् पश्चिम में आकर बसने लगे। उनकी संख्या और
बढ़ गई जब 1453 ई. में कुस्तुंतुनिया इस्लाम
के अधिकार में आया। उन यूनानी विद्वानों से नवजागरण आंदोलन को और प्रोत्साहन मिला।
रोम के पोप उस आंदोलन के संरक्षक बन गए और उन्होंने रोम को नवजागरण का एक मुख्य केंद्र बना लिया। नैतिकता
और धर्म की उपेक्षा होने लगी और 15वीं शताब्दी के अंत तक रोम
का दरबार व्यभिचारव्याप्त रहा। इसके अतिरिक्त पोपों के चुनाव में राजनीति के
हस्तक्षेप तथा इटली के
अभिजात वर्ग की प्रतियोगिता ने भी रोम के प्रति ईसाई संसार की श्रद्धा को बहुत ही
घटा दिया। असंतोष का एक और कारण यह था कि समस्त चर्च की संस्थाओं पर उनकी संपत्ति
के अनुसार कर लगाया जाता था और रोम के प्रतिनिधि सर्वत्र घूमकर यह रुपया वसूल करते
थे।
16. लूथर ने 1517 ई. में काथलिक चर्च की बुराइयों के विरुद्ध आवज उठाई किंतु वह शीघ्र ही
कुछ परंपरागत ईसाई धर्मसिद्धांतों का भी विरोध करने लगा। इस प्रकार एक नए संप्रदाय
की उत्पत्ति हुई। लूथर को जर्मन शासकों का संरक्षण मिला और जर्मनी के अतिरिक्त
स्कैंडिनेविया के समस्त ईसाई उनके संप्रदाय में सम्मिलित हुए। बाद में कालविन ने
लूथर के सिद्धांतों का विकसित करते हुए एक दूसरे प्रोटेस्टैंट संप्रदाय का
प्रवर्तन किया जो स्विट्जरलैंड, स्काटलैंड, हालैंड तथा फ्रांस के
कुछ भागों में फैल गया। अंत में हेनरी अष्टम ने भी इंग्लैड को रोम के अधिकार से
अलग कर दिया जिससे ऐंग्लिकन चर्च प्रारंभ हुआ।
17. प्रोटेस्टैंट विद्रोह के
प्रतिक्रिया स्वरूप कैथलिक चर्च में "काउंटर
रिफॉर्मेशन" (प्रतिसुधारांदोलन) का प्रवर्तन हुआ। 16वीं
शताब्दी के महान पोपों के नेतृत्व में चर्च के शासन में अध्यात्म को फिर
प्राथमिकता मिल गई; बहुत से नए धर्मसंघों की स्थापना हुई
जिसमें थिआटाइन तथा जेसुइट प्रमुख हैं। प्राची धर्मसंघों में, विशेषकर फ्रांसिस्की तथा कार्मेलाइट धर्मसंघ में सुधार लाया गया; बहुत से संत उत्पन्न हुए जिनमें संत तेरेसा (1515-1582 ई.) तथा संत जॉन ऑव दि क्तोस (1542-1591) अपनी
रहस्यवादी रचनाओं के कारण अमर हो गए हैं। धर्मप्रचार (मिशन) का कार्य नवीन उत्साह
से अमरीका तथा एशिया में फैलने लगा। ट्रेंट में चर्च की 19वीं
विश्वसभा का आयोजन किया गया किंतु प्रोटेस्टैंटों ने इसमें भाग लेने से इनकार कर
दिया। इस विश्वसभा को कई बार स्थगित कर दिया गया जिससे वह 1545 ई. में प्रारंभ होकर केवल 1563 ई. में समाप्त हो गई।
पुराहितों के शिक्षण तथा चर्च के संगठन के नए नियमों के अतिरिक्त प्रोटेस्टैंट
संप्रदाय के विरोध में परंपरागत कॉथलिक धर्मसिद्धांतों का सूत्रीकरण भी हुआ। उस
समय से पश्चिम यूरोप के ईसाई संसार में एकता लाने की आशा बहुत क्षीण हो गई।
परवर्ती शताब्दियों में समस्त पश्चिम यूरोप में
नास्तिकता तथा अविश्वास व्यापक रूप से फैल गया। फ्रेंच क्रांति के
फलस्वरूप चर्च की अधिकांश जायदाद जब्त हुई और चर्च तथा सरकार का गहरा संबंध सर्वदा
के लिये टूट गया। 1870 ई. में इटालियन क्रांति ने पेपल स्टेट्स पर भी अधिकार कर लिया,
इस कारण जो समस्या उत्पनन हुई वह 1929 ई. में
हल हो गई।
18. 20वीं शताब्दी के प्रारंभ में ईसाई
एकता का आंदोलन (एकूमेनिकल मूवमेंट) प्रारंभ हुआ। उस समय तक प्रोटेस्टैंट धर्म
बहुत से संप्रदायें में विभक्त हो गया था और इस कारण धर्मप्रचार के कर्य में
कठिनाई का अनुभव हुआ। 1910 में एडिनबर्ग में
प्रथम वर्ल्ड मिशनरी कॉनफरेंस का अधिवेशन हुआ। इस आंदोलन के फलस्वरूप वर्ल्ड कौंसिल ऑव चर्चेंज का
संगठन हुआ। सभी मुख्य प्रोटेस्टैंट संप्रदाय तथा प्राच्य ओर्थोदोक्स चर्च उस
संस्था के सदस्य हैं और र्कांथलिक ऑबजर्वर (पर्यवेक्षक) उसकी सभाओं में उपस्थित
रहते हैं। उसी प्रकार 1962 ई. में रोम में कॉथलिक चर्च की जो
21वीं विश्वसभा प्रारंभ हुई उसके लिये मुख्य प्रोटेंस्टैंट
संप्रदायों ने तथा प्राच्य आथदोक्स चर्च ने अपने लिये मुख्य प्रोटेस्टैंट
संप्रदायों ने तथा प्राच्य आथदोक्स चर्च ने अपने प्रतिनिधि भेजे।
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल,
बौद्ध, ईसाई साइट्स,
वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस
समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से
लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10
साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के
लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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