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Wednesday, August 7, 2019

अपने ऊपर तान्त्रिक प्रयोग का कैसे जाने

अपने ऊपर तान्त्रिक प्रयोग का कैसे जाने 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818  
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

अक्सर लोग सोचते हैं की किसी ने उनपर कोई जादू टोना या तांत्रिक प्रयोग कर दी है और पूछ्ते रहते  हैं। तो आईये जानते हैं। 

जय हो गूगल गुरू की। ज्ञान ही ज्ञान भरा है। मुझे तो काला जादू इत्यादि करना नहीं आता है। साथ ही मैं जानता हूं कि कोई मेरे उपर कर भी नहीं सकता है। जब तक मेरे प्रथम अशरीरी गुरूदेव मां काली या शरीरी गुरू महाराज की इच्छा नहीं होगी। किंतु लोग पूछ्ते हैं तो गूगल गुरू से संकलित कर लिख रहा हूं। मुझे इस विषय में न कुछ पूछा जाये न बात की जाये। यह लेख मात्र उनके लिये है जो अंदर से कमजोर औए असहाय या भयभीत होते हैं।


(1) नाड़ी की गति सामान्य से अधिक हो जाती है: जब भी शरीर पर किसी भी नकारात्मक ऊर्जा का हमला होता है तो हमारा शरीर उसका प्रतिरोध करता है जिसके फलस्वरूप हमारी धड़कन सामान्य से तेज हो जाती है। जितना घातक अटैक होगा, नाड़ी की गति उतनी ही ज्यादा तेज हो जाएगी।


(2) श्वास की गति बढ़ जाती है: तांत्रिक हमला होते ही सांस की गति भी बहुत तेज हो जाती है। घातक हमले की हालत में श्वास की गति इतनी अधिक हो सकती है जितनी की भागदौड़ के बाद भी नहीं होती।


(3) अचानक ही शारीरिक तथा मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करना: तांत्रिक हमले या साईकिक अटैक में नकारात्मक शक्तियां व्यक्ति के मन-मस्तिष्क को काबू में करने का प्रयास करती है जिसके चलते व्यक्ति अपनी शक्ति काम नहीं ले पाता और वह अंदर ही अंदर शारीरिक और मानसिक रूप से कमजोरी महसूस करने लगता है।


(4) रात को डरावने सपने आते हैं: तांत्रिक हमले के दौरान रात को सोते समय भयावह और डरावने सपने आने लगते हैं। कई बार ऎसा लगता है जैसे कि आप पर किसी जानवर ने हमला कर दिया या आप कहीं बहुत ऊंचाई से गिर गए हैं।


(5) पलंग के पास पानी रखने से भी पता चलता है: रात को सोते समय पलंग के पास पानी का एक गिलास रख दें और सोते समय मन में सोचे कि आपके अंदर की नकारात्मक ऊर्जा उस पानी में जा रही है। सुबह उस पानी को किसी छोटे पौधे में डाल दें। ऎसा लगातार आठ दिन तक करें। आठ दिन में वह पौधा मुरझा जाएगा। यदि हमला बहुत तेज हुआ तो पौधा 2-3 दिन में ही कुम्हला जाएगा।


(6) तकिए के नीचे नींबू रखें: फल तथा सब्जियां भी नकारात्मक ऊर्जा से अत्यधिक प्रभावित होते हैं। आप रात को सोते समय एक नींबू अपने तकिए के नीचे रख दें और अपने मन में सोचे कि आपके आस-पास कोई भी नकारात्मक ऊर्जा है तो वह इस नींबू में आ जाएं। तांत्रिक हमला होने की दशा में सुबह आप उस नींबू को मुरझा हुआ पाएंगे। उसका रंग भी काला पड़ जाएगा।


7) यदि बार बार घबराहट होने लगती है, पसीना सा आने लगता हैं, हाथ पैर शून्य से हो जाते है । डाक्टर के जांच मैं सभी रिपोर्ट नार्मल आती हैं।लेकिन अक्सर ऐसा होता रहता तो समझ लीजिये आप किसी तान्त्रिक क्रिया के शिकार हो गए है ।

8 ) आपके घर मैं अचानक अधिकतर बिल्ली,सांप, उल्लू, चमगादड़, भंवरा आदि घूमते दिखने लगे ,तो समझिये घर पर तांत्रिक क्रिया हो रही है।

9 ) आपको अचानक भूख लगती लेकिन खाते वक्त मन नही करता ।

10) भोजन मैं अक्सर बाल, या कंकड़ आने लगते है ।

11 ) घर मे सुबह या शाम मन्दिर का दीपक जलाते समय विवाद होने लगे या बच्चा रोने लगे ।

12 ) घर के मन्दिर मैं अचानक आग लग जाये ।

13 ) घर के किसी सदस्य की अचानक मौत ।

14 ) घर के सदस्यों की एक के बाद एक बीमार पढ़ना ।

15 ) घर के जानवर जैसे गाय, भैंस, कुत्ता अचानक मर जाना।

16 ) शरीर पर अचानक नीले रंग के निशान बन जाना ।

17 ) घर मे अचानक गन्दी बदबू आना । यह अच्छी बात नही है। सिगरेट बीड़ी बदबू यह आना किसी अतृप्त शक्तियों का संकेत है। यह बुरी भी हो सकती है।

18 ) घर मैं ऐसा महसूस होना की कोई आसपास है ।

19 ) आपके चेहरे का रंग पीला पड़ना ये भी एक कारण हैं की जितना प्रबल तन्त्र प्रयोग होगा आपके मुह का रंग उतना ही पीला पड़ता जायेगा आप दिन प्रतिदिन अपने आपको कमज़ोर महसूस करेंगे।

20 ) आपके पहने नए कपड़े अचानक फट जाए, उस पर स्याही या अन्य कोई दाग लगने लग जाए, या जल जाए।

21 ) घर के अंदर या बाहर नीम्बू, सिंदूर, राई , हड्डी आदि सामग्री बार बार मिलने लगे।

22 ) चतुर्दशी या अमावस्या को घर के किसी भी सदस्य या आप अचानक बीमार हो जाये या चिड़चिड़ापन आने लग जाये ।

23 ) घर मैं रुकने का मन नही करे, घर मे आते ही भारीपन लगे,जब आप बाहर रहो तब ठीक लगे।।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


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स्व. सुषमा स्वराज को श्रद्धाजलि

स्व. सुषमा स्वराज को श्रद्धाजलि 

विपुल लखनवी। नवी मुंबई।




आओ हम नमन करे। सुष  मां को स्मरण करें।।

मानवहित के भाल को। काल के कपाल को।।

भारत की माटी को। प्रेमल परिपाटी को।।

जग का वंदन करे। आओ हम नमन करे।।

 

संस्कृति राही को। हिंद प्रेम निबाही को।।

गीतों के गीत को। राष्ट्र हिन्द मीत को।।

हिंदी की शान को। काव्य के मान को।।

अरि का मर्दन करे। आओ हम नमन करे।


स्नेह प्रेम मात को। स्वराज के प्रदातको।।

संसद की शांति को। आज की अशांति जो।।

राज राष्ट्र नीति को। ज्ञान की प्रणीति जो।।

दुख से क्रंदन करे। आओ हम नमन करे।


विपुल के लेख से। समय की रेत पे।।

एक रेख पानी पर। देश की बानी पर।।

स्वास के प्रवाल पर। जीवन या काल पर।।

आओ चंदन करे। आओ हम नमन करे।

 


यमराज तो हमारे साथ रहते हैं

 यमराज तो हमारे साथ रहते हैं

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
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जब हम साधन पर जब बैठते है तो गुरू शक्ति अपना कार्य करती है और परा पश्यंती तक नही हो पाती है। अतः जब क्रिया न हो यानी गुरू शक्ति शांत हो तब अपने ध्यान से परा  पश्यंती में ही पहुँच सकते है। नही तो नही। यह हो पाता है बस में। क्योकि बस में आसन होता नही अतः गुरू शक्ति की क्रिया नही हो पाती है। उस समय ध्यान लगाकर परा पश्यंती में तुंरन्त पहुँच कर मन्त्र को घुमाकर अपने तालु के द्वार पर दस्तक दे सकते है। जब मैंने यह प्रयास किया तो पुनः उस अवस्था मे यानी फंसने की अवस्था मे न पहुचा पर मुझे सोने के सींग वाले भैंसे के दर्शन हुए। दुबारा फिर वही। तिबारा साक्षात बड़े सींग वाले भैंसे और उस पर धुंधली आकृति। अच्छा यह सब एक महलनुमा भवन जिसमे तमाम सुंदर नक्काशी सोने चांदी के खम्भे और चित्र लगे थे।

मैं विस्मित हुआ। अचानक आत्मगुरु बोले यह यम का भवन है। यमराज। तुम जहाँ आये थे वह स्थान तालु के नीचे होता है। जहां से प्राण यानी आत्मा गर्भ में बच्चे में प्रवेश करती है। फिर उस छिद्र पर खाल चढ़ जाती है। आप नवजात को देखे तो उसके तालु पर हड्डी नहे सिर्फ खाल होती है। अतः योगी मृत्यु के समय वहाँ प्राण चेतना ले जाकर वही से निकलते है। जहाँ उनका स्वागत होता है।

मतलब मनुष्य के प्राण की रक्षा यम द्वारा की जाती है। इसीलिए सनातन में मृतक की कपाल क्रिया करते है ताकि यम की नगरी नष्ट हो जाये

बाप रे बाप। मनुष्य का शरीर कितना रहस्यमयी है। क्या क्या है यहाँ पर

अब आप ज्ञानियों की राय जाननी है। यह शायद पहली बार कोई लिख रहा होगा। अतः मेरे मन का भरम भी हो सकता है। पर मैं व्याख्या से सन्तुष्ट हूँ।

जय माँ काली। तेरी शक्ति निराली।


मुझे खुद आश्चर्य होता है। जिस को समझने के लिए लोग बाग इतना समय लगाते है। माँ काली कुछ पलों में आकर सब लीला दिखा जाती है। जैसे सहस्त्रसार तक मैंने कभी सपने में न सोंचा था। वहाँ भी दृष्टा भाव से खड़ा कर दिया। पलो में। ब्रह्मांड की उत्तपत्ति समझाया दी क्षणों में।

प्रभु की लीला प्रभु जाने। हम तो बस गधे से अधिक कुछ नही।

प्रकाश तो ऐसा लगता है कभी कभी कान के पीछे से कोई आगे टार्च मारता हो एकदम सफेद प्रकाश की। कभी कभार तो इतना तीव्र सफेद प्रकॉश जो असहनीय होकर आंख तक खुल जाती है। यह प्रकाश ऊपर ने नीचे आता हुआ कभी कभार दिखा है।

वैसे यह विचार मैंने न कभी सुने और न सोंचे।

पहली बार लगा कि यम शरीर मे है।

सर जी मैं वहाँ पलो में पहुच जाता हूँ। जबकि लोग कहते है समय लगता है। मुझे तो किसी अनुभव में कोई समय नही लगा।???

मतलब सब सही है या भरम।

मैं कही और तो नही जाता। क्योकि मैं तो मन्त्र को परा पश्यंती में जाता हूँ। मन्त्र से साथ ध्यान को शरीर के किसी भी हिस्से में ले जा सकता हूँ। इसका नतीजा यह होता है सर कनपटी से भारी हो जाता है। प्रायः मैं मन्त्र सर में चक्कर कर घुमाता भी हूँ।

जैसे कितना ही सुंदर सुडौल मोती हो, पर भीतर छिद्र हो जाए तो बंधन को प्राप्त होता है। वैसे ही धनहीन पुरूष को शील, पवित्रता, सहनशीलता, चतुराई, मधुरता और कुल भी शोभित नहीं कर पाते। बुद्धि भी नष्ट हुई सी रहती है। शास्त्र कुशल मनुष्य भी धन से रहित रह जाने पर हास्य का ही पात्र हो जाता है।

अकेला, घरहीन, करपात्री, दिगम्बर होकर, सिंह और हाथियों से सेवित, जनहीन और काँटों से भरे वन में, घास की शैय्या और वल्कल वस्त्र धारण करना उत्तम है, पर पुरूष का निर्धन होकर अपने बंधुओं के बीच जाना ठीक नहीं।

अब नियम यह है कि धन सत्कर्म से प्राप्त होता है, सत्कर्म एक ही है, भगवान के नाम का जप।

"जिमि सरिता सागर महुं जाहीं। यद्यपि ताहि कामना नाहीं।।

तिमि सुख सम्पति बिनहिं बोलाएँ। धर्मशील पाहिं जाईं सुभाएँ।।"

कहना न होगा की दिनरात व्यर्थ ही धन का चिंतन करने से धन प्राप्त नहीं होता। तो जिनके जीवन में भगवान के नाम का जप नहीं है वे कामना से ही सही, नामजप करना प्रारंभ करें।

 

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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प्रेम से उपजा जहाँ यह

प्रेम से उपजा जहाँ यह


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
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पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।

प्रेम से सब सृष्टि निर्मित। प्रेम पग पग पर मिले।।

प्रेम की परिभाषा इतनी। न तनिक मुझको मिले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।


प्रेम न हो गर जहाँ में। सृष्टि यह मिट जाएगी।।

दानवी असुर संग में। यह धरा मिट जाएगी।।

आंख खोलो और देखो। प्रेम से ही सब मिले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।


प्रेम बिन गर सोंचते हो। तुम ख़ुदा पा जाओगे।।

मिट जाओगे इस जहाँ से। पर नही कुछ पाओगे।।

प्रेम कर लो सृष्टि से तुम। प्रेम से अल्लाह मिले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।


चाहे कितनी पूजा कर लो। अता कर कितनी नमाज़ें।।

चाहे कितनी ऊंची कर लो। बाग की अपनी आजाने।।

पर तुझे न मिल सकेगा। चाहे कुछ भी कर ढले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह। प्रेम से ही यह चले।।


चाहे कोई मानव हो या। जीव हो गर भी पराया।।

एक प्रभु सबमें छुपा है। नही कोई है जीव जाया।।

प्रेम करना सीख पगले। प्रेम से खुद को मिले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह।  प्रेम से ही यह चले।।


प्रेम करना श्रेष्ठ सबसे। कह रहा कविवर विपुल।।

प्रेम से कुछ भी न ऊंचा। प्रेम चलकर बनता कुल।।

प्रेम की वाणी लिखी है। प्रेम से वाणी खिले।।

प्रेम से उपजा जहाँ यह।  प्रेम से ही यह चले।।

                                      

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Tuesday, August 6, 2019

“श्रीरुद्राष्टकम्” हिंदी काव्य

“श्रीरुद्राष्टकम्”   हिंदी काव्य

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


तुलसीकृत इस स्तुति को काव्यांतर करने हेतु कुछ शब्दो को जोड़ा भी गया है।

॥ श्रीरुद्राष्टकम् ॥ 


नमामीशमीशान निर्वाणरूपं विभुं व्यापकं ब्रह्मवेदस्वरूपम् । 
निजं निर्गुणं निर्विकल्पं निरीहं चिदाकाशमाकाशवासं भजेऽहम् ॥ १॥

हे मोक्ष रूप, हे सर्वव्याप्त, हे ब्रह्म सदा तेरा वंदन।
हे वेद स्वरूप,  ईशान प्रभु, सबके स्वामी शिव का वंदन॥ 
हे निजस्वरूप, गुण भेद रहित, तुमको सदा हम नमन करते। 
जो इच्छारहित चेतना और चिद आकाश निवास भजन करते॥ 

निराकारमोंकारमूलं तुरीयं गिरा ज्ञान गोतीतमीशं गिरीशम् । 
करालं महाकाल कालं कृपालं गुणागार संसारपारं नतोऽहम् ॥ २॥

जो निराकार है ओमकार,  है गुणातीत तुरीय रहता। 
उस वाक् ज्ञान इंद्री से परे,  ईशो के ईश नमन करते॥
गिरि ईश बना है महाकाल है महाकृपाल नमन करते।
है गुणनिधान भव सागर तरे नतमस्तक सभी भजन करते॥

तुषाराद्रि संकाश गौरं गभीरं मनोभूत कोटिप्रभा श्री शरीरम् । 
स्फुरन्मौलि कल्लोलिनी चारु गङ्गा लसद्भालबालेन्दु कण्ठे भुजङ्गा ॥ ३॥

हिमराज समान गम्भीर सदा, आकाश समान विशाल धरा।
हरमन  स्वामी करोड़ो प्रात: सम ज्योति रूप नमन करते॥
जिनके सिर गंगा जटा भटक है चंद्र सदा ही नमन करते॥
शोभित हो बाल चंद्र सदा धर कंठ सदा हम भजन करते॥

चलत्कुण्डलं भ्रू सुनेत्रं विशालं प्रसन्नाननं नीलकण्ठं दयालम् । 
मृगाधीशचर्माम्बरं मुण्डमालं प्रियं शंकरं सर्वनाथं भजामि ॥ ४॥

जिनके कर्ण कुण्डल नेत्र विशाल शोभित धनु समान भृकुटी।
जो प्रसन्नसदा हर्षित रहते,  नीलकण्ठ  दयालु नमन करते॥
सिंह चर्म वस्त्र मुण्डमाल गले उस दीन दयाल नमन करते।
सबके प्यारे जग के स्वामी प्रभु शंकर का हम भजन करते॥

प्रचण्डं प्रकृष्टं प्रगल्भं परेशं अखण्डं अजं भानुकोटिप्रकाशम् । 
त्रयः शूल निर्मूलनं शूलपाणिं भजेऽहं भवानीपतिं भावगम्यम् ॥ ५॥


जिन महातेज  प्रचंड सदा है परमेश्वर उसको भजते।
सदा अजन्मा अखंड सदा कोटि सूर्य प्रकाश नमन करते।
त्रिशूलधारी सब ताप हरे त्रै शूल निवारण जो करते।
भक्तभाव वश भवानीपति उनका सदा हम भजन करते॥

कलातीत कल्याण कल्पान्तकारी सदा सज्जनानन्ददाता पुरारी । 
चिदानन्द संदोह मोहापहारी प्रसीद प्रसीद प्रभो मन्मथारी ॥ ६॥


कल्याण स्वरूप प्रलयकर्ता जो रहे सदा कलाओं से परे।
जो सदा सज्जन आनन्द देते अरि त्रिपुर का दमन जो करे॥


सत् चित्त आनंद संदेह हरे जो भक्त ह्रदय सब मोह हरते॥
मन को अब मथ डालो प्रभु हो जाओ प्रसन्न हम भजन करते॥  

 

न यावत् उमानाथ पादारविन्दं भजन्तीह लोके परे वा नराणाम् । 
न तावत् सुखं शान्ति सन्तापनाशं प्रसीद प्रभो सर्वभूताधिवासम् ॥ ७॥


जब तक भक्त भवानीपति श्री शंकर चरण को न भजते।
तब तक भक्त इस लोक नहीं परलोक कभी सुख न वरते॥
न ही कष्ट हमारे कटते हैं न शांति हमें कुछ मिलती है।
हे सुखदाता ह्रदयनिवासी तेरा सदा ही भजन करते॥

न जानामि योगं जपं नैव पूजां नतोऽहं सदा सर्वदा शम्भु तुभ्यम् । 
जरा जन्म दुःखौघ तातप्यमानं प्रभो पाहि आपन्नमामीश शम्भो ॥ ८॥


नही जप का कोई ज्ञान हमें नही योग पता न पूजन क्या।
हे शिव शम्भु दीनहीन विपुल तुझको सदा ही नमन करते॥
हम दु:ख से पीड़ित वृद्ध हुये हैं काम क्रोध सदा जलते।
हे प्रभु विपुल रक्षा करना हम मूर्ख सदा तुझको भजते॥

रुद्राष्टकमिदं प्रोक्तं विप्रेण हरतोषये । 
ये पठन्ति नरा भक्त्या तेषां शम्भुः प्रसीदति ॥

 प्रभुदास विपुल शिवोमगुरो नित्यबोधानंदनं सर्वदा।
मातृकालिके गंसहायकं नम: देवाधिदेव॥


यह रूद्राष्टक छंद सदा निज भक्ति भाव जो गायेगा।
है तुलसीदास का वास्ता प्रभु मनवांछित वो पायेगा॥

प्रभुदास विपुल शिवोम् गुरू नित्यबोधानंद सदा रहते।
माता काली सहाय गणेश देवाधिदेव नमन करते॥ 

 

॥ इति श्रीगोस्वामितुलसीदासकृतं दास विपुल काव्यानुवादकम् श्रीरुद्राष्टकं सम्पूर्णम् ॥



 
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Monday, August 5, 2019

यह छप्पन इंची सीना है। काव्य

यह छप्पन इंची सीना है। काव्य


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
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यह छप्पन इंची सीना है।

दुश्मन को छूटे पसीना है॥

छोटा मोटा हीरा नहीं है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


जो बोला वह कर के दिया।

देश की खातिर वो है जिया॥

सर्वस्य अपना देश को देकर।

देशप्रेम हेतु जीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


राष्ट्र द्रोही की खैर नहीं अब।

देश विरोधी हार गये सब॥

एक वैरागी एक संन्यासी।

गरल देश का पीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


कितने नेता आये गये।

देश को लूटा खाये गये॥

बने गुलाम विदेशी के।

तलवे धोकर पीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


परिवारों को पूजा किये।

देश को लंगड़ा लूला किये।

कुत्तों को सब मार भगाया।

मोदी का यह पसीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


कलम विपुल की बोली है।

यह जयकारा डोली है॥

जुग जुग जियो मोदी राजा।

बरसों तुमको जीना है॥


यह छप्पन इंची सीना है।

यह बेशकीमती नगीना है॥


निर्वाण षट्कम नहीं निर्वाण सप्तकम् (काव्यात्मक)

   निर्वाण षट्कम नहीं निर्वाण सप्तकम् (काव्यात्मक)


सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

आदिशंकराचार्य लिखित  इस स्तुति को काव्यांतर करने हेतु कुछ शब्दो को जोड़ा भी गया है। 



मनोबुद्ध्यहंकार चित्तानि नाहं न च श्रोत्रजिह्वे न च घ्राणनेत्रे
न च व्योम भूमिर्नतेजो न वायुः चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥१॥

                                      न तो मन या बुद्धि ही हूं मैं। 

                                      अहंकार चित्त कदापि नहीं हूं॥  


                                      न मैं कर्ण हूं नही मैं जिव्हा। 

                                      नाक या नेत्र कदापि नहीं हूं॥


                                      न तो मैं हूं आकाश, धरती।

                                      अग्नि या वायु कदापि नहीं हूं॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

न च प्राणसंज्ञो न वै पञ्चवायुः न वा सप्तधातुः न वा पञ्चकोशः ।
न वाक्पाणिपादं न चोपस्थपायु चिदानन्दरूपः शिवोऽहम् शिवोऽहम् ॥२॥

 
                                     न ही प्राण  रूप मेरा कोई है।

                                     नहीं  पंच प्रकार की कोई वायु।


                                     न सात धातु मिश्रण ही समझो।

                                     न पंचकोष शरीर ही जानो॥ 


                                     न मैं हूं वाणी न हाथ न पैर।

                                     न  उत्‍सर्जन इन्द्री मुझको मानो॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

  न मे द्वेषरागौ न मे लोभ मोहौ मदो नैव मे नैव मात्सर्यभावः।
न धर्मो न चार्थो न कामो न मोक्षः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥३॥

                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।


                                     न मैं द्वेष न रागों में बसता।

                                     न लोभ कोई मुझे है डसता॥


                                     न मैं मद न ईर्ष्या वरे हूं।

                                     मैं धर्म काम मोक्ष परे हूं॥ 

 

                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

 

पुण्यं न पापं न सौख्यं न दुःखम् न मंत्रो न तीर्थ न वेदा न यज्ञाः।
अहं भोजनं   नैव   भोज्यं न  भोक्ता चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥४॥

                                     न पुण्य का कोई लेखा जोखा।

                                     न पापों की गठरी मैं हूं कोई॥


                                     न मैं सुख अथवा न मैं दुख हूं।

                                     न मंत्र,  तीर्थ,  ज्ञान  या यज्ञ हूं॥


                                     न मैं भोगने की वस्‍तु कोई।

                                     न भोग अनुभव न कोई भोक्ता॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

न मे मृत्युशंका न मे जातिभेदः पिता नैव मे नैव माता न जन्म।
न बन्धुर्न मित्रं गुरुर्नैव शिष्यः चिदानंदरूपः शिवोऽहं शिवोऽहम् ॥५॥

                                     न मृत्यु का कोई भय है मुझको।

                                     न जाति न भेद भाव है कोई॥


                                     न मेरे मात न कोई पिता है।

                                     कोई न भाई न कोई सखा है॥


                                     न गुरू कोई दिखता जगत में।

                                     न शिष्य कोई जग में है दीखे॥ 


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                     आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

अहं निर्विकल्पो निराकाररूपः विभुर्व्याप्य सर्वत्र  सर्वेन्द्रियाणाम्।
सदा मे समत्वं न मुक्तिर्न बन्धः चिदानंदरूपः  शिवोऽहं शिवोऽहम्॥६॥


                                     न कोई जग में विकल्प है मेरा

                                     मैं हूं निराकार न रूप कोई।


                                     मैं सर्वव्यापी चैतन्य रूप हूं।

                                     सब इंद्रियों में मैं हूं उपस्थित॥


                                     समत्व का भाव सदा साथ मेरे।

                                     न कोई बंधन न मुक्त है स्थित॥


                                     मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

                                    आदि अनादि अनंत शिवा मैं।

 

       ॥  इति श्रीमच्छशंराचार्य विरचित दास विपुल काव्यानुवादम् 
श्री निर्वाण षट्कम्  सम्पूर्णम् ॥

 यह श्लोक मैंनें जोड़ने का प्रयास किया है। संस्कृत के ज्ञानीजन विचार बतायें।

न यञो न अग्निर्न काष्ठ न समिधा। नच सूर्य तेजो न दीप्त न ताप:॥
अहं न क्षुधा न जलं पिपाषा। चिदानन्द रूप: शिवोहं शिवोहम॥

न मैं यज्ञ हूं न हूं मैं अग्नि।

लकड़ी या समिधा कदापि नहीं हूं॥

नहीं सूर्य तेज से निर्मित बना हूं।

न ज्वाला न ताप से हूं मैं जन्मा।

न मैं हूं भूख न भूख से जन्मा।

न प्यास हूं मैं और जल भी नहीं हूं॥

मैं हूं चित्त का आनन्द रूप।

आदि अनादि अनंत शिवा मैं॥



                                 






MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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