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Wednesday, March 13, 2024

 गुरु की क्या पहचान है?

आर्य टीवी से साभार

गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। कहीं मैं ठग न जाऊं। कहीं मेरा धन सम्पत्ति न छिन जाये। इत्यादि इत्यादि। बात सही है आज धर्म के नाम पर सबसे अधिक दुकानदारी और ठगी हो रही है। मंदिर, मस्जिद, चर्च के निर्माण की आड़ में लोगों के घरों का निर्माण पहले होता है। श्रद्धा से दिया गया दान ऐयाशी में प्रयोग होता है। गुरु, उस्ताद, फादर के नाम पर शोषण के समाचार आये दिन देखने को मिलते हैं।

बस यही सब देखकर और सोच कर पत्रकार डा अजय शुक्ला इस विषय पर चर्चा करने के लिए सनातन चिंतक और विचारक, पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, कवि लेखक विपुल लखनवी जो सनातन पुत्र देवदास विपुल के नाम से ब्लॉग और वेब चैनल के द्वारा सनातन के प्राचीन ज्ञान को आधुनिक विज्ञान के माध्यम से जनमानस तक पहुंचा रहे हैं, के पास पहुंच गए।


डा. अजय शुक्ला: प्रणाम सर, मैं आपको अपना गुरु बनाना चाहता हूं। आपकी बातों ने मुझे बहुत प्रभावित किया मैं इतने संतों से मिला लेकिन आप जिस तरीके से जिज्ञासाओं और समाधान को शांत कर देते हैं मैं उससे बहुत प्रभावित हूं? आप मुझे अपना शिष्य स्वीकार करें।


विपुल जी: (हंसते हुए) प्रिय अजय शुक्ला जी मैं गुरु नहीं हूं और न ही अपने को कहलाना पसंद करता हूं। क्या बिना गुरु बने काम नहीं हो सकता? क्या आज कलियुग काल में गुरु रूपी दुकान खोलना जरूरी है? क्या बिना गुरु बने सनातन की सेवा नहीं हो सकती, सामान्य जनमानस की सेवा नहीं हो सकती। जिज्ञासाओं को शांत नहीं किया जा सकता। आध्यात्मिक मार्ग के अनुभव के साथ मार्ग नहीं दिखलाया जा सकता?


डा. अजय शुक्ला: लेकिन लोग कहते हैं बिना गुरु के जीवन सफल नहीं हो सकता इस पर आपका क्या विचार है?


विपुल जी: रमन महर्षी के कोई गुरु नहीं थे अरविंद घोष के भी कोई गुरु नहीं थे। यहां तक नारद मुनि के भी गुरु नहीं थे। क्या वे जीवन में सफल नहीं हुए। देखिए गुरु केवल और केवल परमपिता परमेश्वर ही होता है और कभी-कभी किसी मानव रूपी शरीर में कुछ विशेष कृपा कर शक्ति प्रदान करता है जिससे कि वह जगत का कल्याण कर सके।


डा. अजय शुक्ला: जी यही तो मैं भी कह रहा हूं कि मैं आप में वह सब देखता हूं इसलिए आपका शिष्य बनना चाहता हूं।


विपुल जी: अजय जी गुरु शिष्य का बंधन एक बहुत बड़ा बंधन होता है गुरु बनाने में कभी जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। कलयुग में 99% दुकानदारी करने वाले गुरु मिलते हैं। गुरु बोलो तो वह प्रसन्न होते हैं। किसी भी तरीके से सामनेवाले को अपना चेला बनाना चाहते हैं। मेरे एक जानकार ने गुरु भक्ति में आकर ढाई लाख रुपए का कर्जा लेकर गुरु की मांग पूरी करी और इसके बाद भी उनका कोई फायदा नहीं हुआ। यदि आप कहे तो मैं उनका नंबर आपको दे सकता हूं। बस इसी कारण मैं यह कहता हूं पहले अपने आप को मजबूत करो अपनी स्वयं की ऊर्जा को बढ़ाओ उसके पश्चात अपने आप गुरु प्राप्त हो जाएगा।


इस कारण गुरु बनाने में जल्दबाजी नहीं करनी चाहिए। 


डा. अजय शुक्ला: तो फिर शिष्य बनने के लिए क्या करें?


विपुल जी: ईश्वर की कृपा से जो मेरे इस शरीर द्वारा निर्मित सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि निर्मित हो गई है। उसके साथ आप अपने इष्ट का मंत्र जप आरंभ करें। आपको जब सनातन का अनुभव होगा तो आपकी निष्ठा आस्था और अधिक बढ़ जाएगी। जब आपका मंत्र जप परिपक्व हो जाएगा तब यदि आवश्यकता होगी तो आपका ईष्ट आपको स्वयं आपके गुरु के पास पहुंचा देगा। मैं आपसे इसलिए कह रहा हूं क्योंकि मैं गुरु को मानता ही नहीं था सिर्फ मां दुर्गा को ही सब कुछ समझता था। समय आने पर मां ने मुझे स्वप्न और ध्यान के माध्यम से अपनी गुरु परंपरा में पहुंचा दिया और जहां पर जाकर मैंने शक्तिपात की दीक्षा प्राप्त की।


डा. अजय शुक्ला: फिर भी गुरु की पहचान क्या होती है।

विपुल जी: उपनिषद मे इस बारे मे कहा गया है कि 

निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।

गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्,

शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥ अर्थात 

जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते पर चलते हैं, जनहित और दीन दुखिओं के कल्याण की कामना का तत्व बोध करते-करातें हैं तथा निस्वार्थ भाव से अपने शिष्य के जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करतें हैं  उन्हें गुरु कहते हैं।

क्या ऐसा गुरु आपने देखा है?


मैं कहीं पढ़ा था “ सच्चे गुरु की पहचान का पहला लक्षण यह है कि गुरु किसी वेशभूषा या ढोंग के अधीन नहीं है और उसके चेहरे पर सूर्य के सामान तेज दिखता है और उसकी छठी इंद्री पूर्णत: विकसित होती है जिसके द्वारा वह भूत, वर्तमान और भविष्य को देख पाता है | 

सच्चा गुरु ज्ञान देने में प्रसन्न होता है ज्ञान को छुपाने वाला या भ्रमित करने वाला सच्चा गुरु नहीं होता। यह बात भी सभी जानते है कि संसार में जीवित रहने के लिए धन की आवश्यकता है, अकारण आवश्यकता से अधिक धन का मांगना गुरु के लालची और स्वार्थी होने का चिन्ह है।


गुरु कही भी मिल सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि गुरु किसी विशेष वेशभूषा में ही होगा, वेशभूषा का प्रयोग निजी लाभ के लिए मूर्ख बनाने या दिशाहीन करने में भी किया जा सकता है। सच्चे गुरु को वेशभूषा या दिखावे में कोई रुचि नहीं होती, न ही वह अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक होता है।

साधू की वेशभूषा भगवा रंग की होती है इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवा पहनने वाले सारे लोग साधू विचारों के होते है इनमे स्वार्थी और कपटी लोग भी हो सकते है। साधू के भगवा पहनने का अर्थ यह है कि इस व्यक्ति ने पारिवारिक सुखों का त्याग करके भगवा धारण कर लिया है और अब पारिवारिक जीवन नहीं चाहता, बाकि का जीवन सांसारिक वस्तुओं और लोगो से दूर रहेगा। प्राय: लोग आशीर्वाद पाने के लिए साधू को आवश्यकता से अधिक सुविधा उपलब्ध करा कर उनका मन भटकाते है, सुख सुविधा को देखकर सच्चे साधू का मन भी संसार की और आकर्षित होने लगता है। ऐसा करके वह लोग अपने पाप कर्म की पूँजी जमा करते है क्योंकि सुविधाओं को भोगने पर साधू अपने लक्ष्य से भटक कर दूर हो जाता है।


कहा गया है

अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।

प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।


अर्थात जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूर्ति करता है (पदैः) श्लोक के भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।

कुछ यूं समझें यानि योगी होता है।


डा. अजय शुक्ला: इस संदर्भ में वेद क्या कहते हैं?


विपुल जी: यजुर्वेद कहता है।

अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्

वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम्


अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के  उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।

भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्यान्ह  को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

मतलब वाहिक रूप में यह सब दिख जाता है।


डा. अजय शुक्ला: शिष्य में क्या गुण होने चाहिए?


विपुल जी: व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।

दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते 


(व्रतेन) दुर्व्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।

मतलब पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।


डा. अजय शुक्ला: आप यह सब संक्षेप में बताएं इतना सारा तो समझ में भी नहीं आएगा। 


विपुल जी: यह बात सत्य है। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज जो शक्तिपात के कौल गुरू थे आपने गुरु के जो लक्षण बताये है जो अधिक प्रभावी और तत्कालिक हैं। जिनमें एक आंतरिक और कुछ भौतिक लक्षण हैं। 


स्वामी जी ने लिखा है कि जब आप दो रूपये का एक घड़ा खरीदते हैं तो ठोंक बजाकर देखते हैं अत: जिसको आप अपना जीवन समर्पित करने जा रहे हैं उसको तो अवश्य ठोंक कर देखें। 


कुछ वाहिक लक्षण:

जो आडम्बर से दूर हो। जिसके वस्त्र साधारण किंतु स्वच्छ हो। जो तरह तरह की मालाओ अंगूठियों वेश भूषा से दूर हो। मूछें बार बार न ऐठें। (यह गर्व का प्रतीक हैं)। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज कहते हैं जो स्वयं ग्रह नक्षत्रों के बंधन से बंधा हो वह आपको क्या मुक्त कर पायेगा। जो अपने  नाम के आगे बडे बडे नामपट्ट न लगाता हो। (जैसे भगवान, अखंडमंडलाकार, जगतगुरु, जगतमाता इत्यादि)। 

जिसमें समत्व हो यानी न कोई बड़ा शिष्य न छोटा। 

ऐसा न हो जिसने दक्षिणा अधिक दी उसको अधिक प्रसाद। जिसने कुछ नहीं दिया सिर्फ प्रणाम किया उसे कुछ नहीं। चेहरे पर सौम्यता हो, दीनता हो, प्रेम हो पर मलीनता न हो। 

तेज हो निस्तेज न हो।

जो न अधिक बोलता हो, चपल न हो। व्यर्थ बहस में न पड़े न उलझे। 

कम खाता हो, खाने का लालची न हो। इस तरह के अनेकों गुण हों।


परंतु अंतिम जो आन्तरिक है। 

वह मनुष्य जिसके पास बैठने से आपको क्रिया होने लगे (जैसे घूर्णन, कम्पन, रोमांच, ठंड, गरमी, आवेग, कुछ वो जो अचानक हो और आप के लिये अनहोनी),  ध्यान लगने लगे, सिर भारी होने लगे, चक्कर आने लगे, नींद आने लगे। जो आपको स्वप्न में दिखाई दे। वह आपके गुरु होने लायक है। आप उससे अनुरोध कर सकते हैं। क्योंकि वह आपको कभी धोखा नहीं देगा।


डा. अजय शुक्ला: आपके अतिरिक्त अन्य कोई उदाहरण है आपके पास?


विपुल जी: जी मेरी इंजीनियरिंग कॉलेज एचबीटीआई के पास आउट मित्र श्री अंशुमन द्विवेदी को शक्तिपात परम्परा के एक सन्यासी गुरु से मिलाया, जिसको देखकर अंशुमन बोले स्वामी जी आपको तो स्वप्न में देखा है। अरे मैं स्वयम् स्वपन और ध्यान के माध्यम से अपने गुरु तक पहुंचा हूं। 


डा. अजय शुक्ला: कोई और विशेष बात?

 

विपुल जी: प्राय: जो साकार सगुण अराधना करते हैं उनको आवश्यकता पड़ने पर साकार देव इष्ट बनकर समर्थ गुरु के पास स्वयं पहुंचा देते हैं। यह अनुभव तो मेरा भी है। पर जो निराकार निर्गुण साधना करते हैं उनको प्राय: मनोचिकित्सक के पास तक जाने की नौबत आ जाती है। 


अत: मित्रों आप गुरु को ढूंढना छोडकर अपनी साधना में लग जाइये। मेरा सुझाव है सगुण,साकार, आराधना और उपासना ही करे तो बेहतर है। अच्छा तो यह रहेगा आप अपने घर पर सचल मन सरल वैज्ञानिक ज्ञान विधि करने के साथ अपने इष्ट का मंत्रजप सतत, निरंतर, निर्बाध आरंभ कर दे। यह मंत्र जाप आपको गुरु से लेकर ज्ञान तक भौतिक सुखों से लेकर आध्यात्मिक स्तर की ऊंचाई तक यहां तक मोक्ष भी प्रदान कर सकता है।


डा. अजय शुक्ला: आपका बहुत-बहुत आभार। 

विपुल जी: जी आपको भी बहुत-बहुत धन्यवाद कि आप जनकल्याण की सेवा हेतु लोगों को आध्यात्मिक जानकारी बताने हेतु मेरे पास अपना समय व्यतीत करते हैं।

Thursday, May 19, 2022

ज्ञानवापी का पौराणिक महत्व

ज्ञानवापी का पौराणिक महत्व

सवंशावतंस श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद जी के लेख से संकलित

संकलनकर्ता : देवीदास विपुल


वर्तमान दिनों में ज्ञान व्यापी पर बहुत अधिक चर्चा चल रही है इस विषय में मुझे कुछ सामग्री प्राप्त हुई है जो आपके विचार हैं तुम संकलित कर रहा हूं।

निर्गुण ब्रह्म जब सगुणावतार धारण करते हैं तो 

उद्भव, स्थिति, संहार, अनुग्रह एवं निग्रहसम्बन्धी क्रियाओं को सम्पादित करने हेतु 

क्रमशः हिरण्यगर्भ, विष्णु, शिव, गणपति एवं दुर्गा की स्वारूपसंज्ञाओं से लक्षित किये जाते हैं। 

"एकैव शक्तिः परमेश्वरस्य भिन्ना चतुर्धा व्यवहार काले", ऐसी भृङ्गीरिटी संहिता की उक्ति से भी यह बात ज्ञात होती है। इसमें संहारपरक क्रिया को सम्पादित करते हुए परब्रह्म की शङ्कर अथवा शिवसंज्ञक वाच्यता होती है। भगवान् शिव इन्हीं पञ्चब्रह्म में आते हैं, जिनकी शाश्वत अधिपुरी काशी है। 

भगवान् शिव ने अपने पञ्चमुखी स्वरूप को प्रकट किया जिनके नाम हैं - सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष एवं ईशान। कालान्तर में यह पांचों मुख स्वतन्त्र रूप से भी प्रतिष्ठित हुए। अग्निपुराण के ३०४थे अध्याय, श्लोक - २५-२६ में कहते हैं - 


पूर्वे तत्पुरुषः श्वेतो अघोरोऽष्टभुजोऽसितः।च तुर्बाहुमुखः पीतः सद्योजातश्च पश्चिमे॥

वामदेवः स्त्रीविलासी चतुर्वक्त्रभुजोऽरुणः।सौम्ये पञ्चास्य ईशाने ईशानः सर्वदः सितः॥ 

ये पञ्चवक्त्र रुद्र कालान्तर में पांच सिंहासनों पर विराजमान हुए। भगवान् शिव के अंश से पांच शैवाचार्यों का प्राकट्य हुआ था। श्रीमज्जगद्गुरु रेणुकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरोमाचार्य, पण्डिताचार्य एवं विश्वाचार्य, इन पञ्च-जगद्गुरुओं को भगवान् शिव ने अपने पांच सिंहासनों के माध्यम से शैवमत की रक्षा करने का कार्यभार प्रदान किया। इनमें प्रथम वीरसिंहासन की स्थापना कर्णाटक के रम्भापुरी में की गयी है। द्वितीय सद्धर्मसिंहासन की स्थापना पहले मध्य प्रदेश के उज्जैन में की गयी थी जिसे कालान्तर में कर्णाटक में स्थानान्तरित किया गया। तृतीय वैराग्यसिंहासन की स्थापना आन्ध्र प्रदेश के श्रीशैलम् में की गयी थी। चौथे सूर्यसिंहासन का स्थान उत्तराखण्ड के केदारनाथ में है तथा पांचवें ज्ञानसिंहासन की स्थापना उत्तर प्रदेश की काशी नगरी में हुई है। 


काशी ज्ञानसिंहासन की नगरी है। विश्वनाथ भगवान् ने स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में स्वयं अपना जो प्रासाद मानचित्र वर्णित किया है, उसमें उन्होंने पञ्चमण्डपों का वर्णन किया है। ये मण्डप हैं - मुक्तिमण्डप, ऐश्वर्यमण्डप, निर्वाणमण्डप, शृंगारमण्डप एवं ज्ञानमण्डप। स्वनामधन्या राजमाता अहल्याबाई होलकर ने जब श्रीविश्वनाथ भगवान् के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया तो यह लिखवाया - "विश्वेश्वरस्य रमणीयतरं सुमन्दिरं श्रीपञ्चमण्डपयुतं सदृशञ्च वेश्म॥"


कृत्यकल्पतरुकार पौराणिक सन्दर्भ से वहां एक कुएं को वर्णित करते हैं - 

तदन्धोः पूर्वतो लिङ्गं पुण्यं विश्वेश्वराह्वयम्।विश्वेश्वरस्य पूर्वेण वृद्धकालेश्वरो हरः॥

तस्य पूर्वेण कूपस्तु तिष्ठते सुमहान् प्रिये।तस्मिन्कूपे जलं स्पृश्य पूतो भवति मानवः॥


कूप की स्थिति स्पष्ट करने के बाद यह भी बताते हैं कि उस कूप की रक्षा करने हेतु देवाधिदेव शिवजी की आज्ञा से पश्चिम दिशा में भगवान् दण्डपाणि नियुक्त हैं। साथ ही पूर्वदिशा में तारकेश्वर, उत्तर में नन्दीश्वर एवं दक्षिण में महाकाल विद्यमान् हैं।


दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा ।पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य शासनात्॥

पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा।नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे॥


ज्ञानमण्डप की स्थिति प्रधान शिवस्थान से पूर्व दिशा की ओर है। वहां से ज्ञानसिंहासनाधीश भगवान् शिव ज्ञान का प्रसारण करते हैं -


मत्प्रासादैन्द्रदिग्भागे ज्ञानमण्डपमस्ति यत्।ज्ञानं दिशामि सततं तत्र मां ध्यायतां सताम्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ७९, श्लोक - ७५)


आधुनिक सम्प्रदायों में स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अर्वाचीन ग्रन्थ, सपादलक्षोत्तरश्लोकी लक्ष्मीनारायण संहिता में ज्ञानवापी का उल्लेख मिलता है। यद्यपि यह कृति सार्वभौमिक सनातन शास्त्रजगत् में मान्य नहीं है किन्तु फिर भी मैं पहले अर्वाचीन प्रमाण ही रखूंगा क्योंकि इस प्रसङ्ग की साम्यता अन्य मान्य प्राचीन शास्त्रों में मिलती है। लक्ष्मीनारायणसंहिताकार श्रीकृष्णवल्लभाचार्य जी, जो आधुनिक विश्व के अतिशिक्षित विद्वानों में परिगणित होते हैं, लिखते हैं -


कुरुक्षेत्रं हाटकेशक्षेत्रं प्रभासक्षेत्रकम्।यथोक्तविधिना कृत्वा जनः पापात् प्रमुच्यते॥

प्रथमं पुष्करारण्यं नैमिषारण्यमित्यपि।धर्मारण्यं तृतीयञ्च सर्वेष्टफलदायकम्॥

वाराणसीपुरी त्वेका द्वितीया द्वारकापुरी।तृतीयाऽवन्तिकापूश्च यथेष्टफलदायिनी॥

वृन्दावनं द्वैतवनं तथा च खाण्डवं वनम्।स्नानाद्वासात्स्वर्गमोक्षप्रदं पापविनाशकम्॥

कालग्रामः शालग्रामो नन्दिग्रामस्तृतीयकः।इन्द्रियग्रामतृष्णानां ध्वंसको मोक्षदस्तथा॥

अग्नितीर्थं शुक्लतीर्थं पितृतीर्थं तृतीयकम्।तत्र स्नानाद्भुक्तिमुक्ती लभते मानवो ध्रुवम्॥

श्रीपर्वतश्चाऽर्बुदाद्री रैवताचल इत्यपि।यात्राकर्ता स्वर्गभोक्ता पश्चान्मुक्तिप्रगो भवेत्॥

गङ्गानदी नर्मदाख्यानदी सरस्वतीनदी।स्नानाद्भुक्तिस्तथा मुक्तिस्तथेष्टं सर्वदा ददेत्॥

ज्ञानवापी च कुङ्कुमवापी रोहणवापिका।जलपानाद्भवेन्मुक्तिर्वापीत्रयं हि पावनम्॥

नारायणसर इन्द्रसरो मानसकं सरः।सरस्त्रयं भुक्तिमुक्तिप्रदं स्नानाद्भवत्यपि॥

(लक्ष्मीनारायणसंहिता, कृतयुगसन्तानखण्ड, अध्याय - ५१४, श्लोक - ०३-१२)


श्लोकों का भाव यह है कि तीन क्षेत्र (कुरुक्षेत्र, हाटकेशक्षेत्र एवं प्रभासक्षेत्र), तीन अरण्य (पुष्करारण्य, नैमिषारण्य एवं धर्मारण्य), तीन पुरी (वाराणसीपुरी, द्वारकापुरी एवं अवन्तिकापुरी), तीन वन (वृन्दावन, द्वैतवन एवं खाण्डववन), तीन ग्राम (कालग्राम/कलापग्राम, शालग्राम एवं नन्दिग्राम), तीन तीर्थ (अग्नितीर्थ, शुक्लतीर्थ एवं पितृतीर्थ), तीन पर्वत (श्रीशैल, अर्बुदाचल/माउण्ट आबू, रैवत पर्वत), तीन नदी (गङ्गा, नर्मदा एवं सरस्वती), तीन वापी (ज्ञानवापी, कुङ्कुमवापी एवं रोहणवापी), तथा तीन सरोवर (नारायण सरोवर, इन्द्रसरोवर एवं मानसरोवर) का सेवन करने वाला व्यक्ति समस्त कामनाओं का उपभोग करके मोक्ष को प्राप्त होता है।


अब सर्वमान्य शास्त्रीय प्रमाणों पर आते हैं। 


असीवरुणयोर्मध्ये पञ्चक्रोश्यां महाफलम्।अमरा मृत्युमिच्छन्ति का कथा इतरे जनाः॥

मणिकर्ण्यां ज्ञानवाप्यां विष्णुपादोदके तथा।ह्रदे पञ्चनदे स्नात्वा न मातुः स्तनपो भवेत्॥

प्रसङ्गेनापि विश्वेशं दृष्ट्वा काश्यां षडानन।मुक्तिः प्रजायते पुंसां जन्ममृत्युविवर्जिता॥

(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, बदरिकाश्रममाहात्म्य, अध्याय - ०१, श्लोक - २९-३१)


अर्थात् - हे कार्तिकेय ! असी और वरुणा के मध्यभाग में पांच कोश के परिमाण वाले क्षेत्र का महान् फल है। यहाँ देवता भी मृत्यु पाने की कामना करते हैं, अन्य सामान्यजनों की क्या बात करें। मणिकर्णिका, ज्ञानवापी, विष्णुपादोदक (गङ्गा) और पञ्चनद सरोवर में स्नान करने के बाद व्यक्ति पुनः माता का स्तनपान नहीं करता (उसका पुनर्जन्म नहीं होता है)। संयोगवश भी काशी में लोग भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन कर लें तो जन्म और मृत्यु से छुटकारा देने वाली मुक्ति उनमें उत्पन्न हो जाती है (उनका मोक्ष हो जाता है)।


जैसा कि भगवान् शिव स्वयं बताते हैं - 


जलक्रीडां सदा कुर्यां ज्ञानवाप्यां सहोमया।यदम्बुपानमात्रेण ज्ञानं जायेत निर्मलम्॥

तज्जलक्रीडनस्थानं मम प्रीतिकरं महत्।अमुष्मिन्राजसदने जाड्यहृज्जलपूरितम्॥

तत्प्रासादपुरोभागे मम शृङ्गारमण्डपः। श्रीपीठं तद्धि विज्ञेयं निःश्रीकश्रीसमर्पणम्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ७९, श्लोक - ६८-७०)


अर्थात् - "जिसके जल को पीने मात्र से निर्मल ज्ञान उदय हो जाता है, उस ज्ञानवापी में मैं उमा (पार्वती) के साथ सदैव जलक्रीड़ा करता हूँ। मेरी जलक्रीड़ा का वह स्थान मुझे बहुत प्रसन्नता देता है। इसी राजमहल में जड़ता का हरण करने वाला जल से भरा वह स्थान है। उसके सामने मेरा शृंगारमण्डप है, जिसे निर्धनों को धन प्रदान करने वाला श्रीपीठ समझना चाहिये।


पद्मपुराण में भी ऐसे ही देवर्षि नारदजी ने एक ब्राह्मण और राक्षसियों का संवाद वर्णित किया है। राक्षसियों ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि उन्होंने कौन कौन से तीर्थों में भ्रमण किया है, तब ब्राह्मण ने उत्तर दिया - 


तत्र स्नानादिकं कर्म निशाचर्यः कृतं मया।ततः काशीमहं प्राप्तो राजधानीमुमापतेः॥

नत्वा विश्वेश्वरं देवं बिन्दुमाधवमेव च।स्नातं मणिकर्णिकायां ज्ञानवाप्याञ्च भक्तितः॥

त्रिरात्रिमुषितस्तत्र प्रयागं पुनरागमम्।

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - २०८, श्लोक - ३६-३७)


अर्थात् - "हे राक्षसियों ! मेरे द्वारा (नानातीर्थों में) स्नान किया गया, फिर मैं उमापति महादेव की राजधानी काशी में आया। वहां भगवान् विश्वेश्वर और बिन्दुमाधव को प्रणाम करके मैंने भक्तिपूर्वक मणिकर्णिका एवं ज्ञानवापी में स्नान किया। फिर वहाँ तीन रात्रि व्यतीत करके मैं पुनः प्रयागराज आ गया।" 


इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानवापी का अस्तित्व आदिकाल से है, पूर्वकाल में भी लोग ज्ञानवापी का महत्व जानते थे और नियमित शास्त्रोक्त विधि से उसका सेवन भी करते थे। काशी की गौरीयात्रा का वर्णन भी निम्न प्रमाण से देखें - 


अतः परं प्रवक्ष्यामि गौरीयात्रामनुत्तमाम्।शुक्लपक्षे तृतीयायां या यात्रा विश्ववृद्धिदा।॥

गोप्रेक्षतीर्थे सुस्नाय मुखनिर्मालिकां व्रजेत्।ज्येष्ठावाप्यां नरः स्नात्वा ज्येष्ठागौरीं समर्चयेत्॥

सौभाग्यगौरी सम्पूज्या ज्ञानवाप्यां कृतोदकैः।ततः शृङ्गारगौरीञ्च तत्रैव च कृतोदकैः॥

स्नात्वा विशालगङ्गायां विशालाक्षीं ततो व्रजेत्।सुस्नातो ललितातीर्थे ललितामर्चयेत्ततः॥

स्नात्वा भवानीतीर्थेऽथ भवानीं परिपूजयेत्।मङ्गला च ततोऽभ्यर्च्या बिन्दुतीर्थकृतोदकैः॥

ततो गच्छेन्महालक्ष्मीं स्थिरलक्ष्मीसमृद्धये।इमां यात्रां नरः कृत्वा क्षेत्रेऽस्मिन्मुक्तिजन्मनि॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - १००, श्लोक - ६७-७२)


अर्थात् - "अब मैं विश्व की वृद्धि करने वाली अत्यन्त उत्तम गौरीयात्रा को कहने जा रहा हूँ। शुक्लपक्ष की तृतीया को मुखनिर्मालिका में जाकर ज्येष्ठावापी में स्नान करके व्यक्ति ज्येष्ठागौरी का पूजन करे। फिर ज्ञानवापी में जाकर उसके जल से सौभाग्यगौरी की पूजा करनी चाहिए। वहीं पर उसी जल से शृंगारगौरी की पूजा भी करे। विशालगङ्गा में स्नान करके विशालाक्षी के पास जाये एवं ललितातीर्थ में विधिवत् स्नान करके ललितादेवी का पूजन करे। अब भवानीतीर्थ में स्नान करके भवानी की पूजा करे। उसके बाद बिन्दुतीर्थ के जल से मङ्गला की पूजा करनी चाहिए। फिर स्थिर लक्ष्मी की वृद्धि के लिए महालक्ष्मी के पास जाये। इस यात्रा को करके व्यक्ति इस क्षेत्र में इसी जन्म में मुक्ति को प्राप्त कर जाता है।


स्कन्दपुराण में वर्णित है -


आकाशात्तारकाल्लिङ्गं ज्योतीरूपमिहागतम्।ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिङ्गं तारकेश्वरम्॥

तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिङ्गस्य समर्चनात्।ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च॥

कृतसन्ध्यादिनियमः परितर्प्य पितामहान्।धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिङ्गविलोकनम्॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम्।प्रान्ते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ६९, श्लोक - ५३-५६)


श्लोकों का भाव यह है कि आकाशमण्डल से जो तारकलक्षणक ज्योतिःस्वरूप लिङ्ग आया, वह ज्ञानवापी के सामने वाले भाग में तारकेश्वर नाम से स्थित है। इस लिङ्ग की पूजा करने से व्यक्ति को तारने वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानवापी में स्नान, तारकेश्वर भगवान् का दर्शन, सन्ध्या आदि नियम, पूर्वजों का तर्पण करके मौनव्रत को धारण करने वाला बुद्धिमान् जब तक लिङ्ग का दर्शन करता है, उतने में सभी पापों से मुक्त होकर शाश्वत पुण्य को प्राप्त करता है। अन्त में उद्धार करने वाले ज्ञान को प्राप्त करके उसी ज्ञान से मुक्त हो जाता है।


स्कन्दपुराण में महर्षि अगस्त्य के प्रश्न करने पर, कि देवता भी जिसकी प्रशंसा करते हैं, वह ज्ञानवापी क्या है, भगवान् स्कन्द उन्हें बताते हैं कि भगवान् ईशान रुद्र के द्वारा जलाभाव की स्थिति से व्यथित होकर अपने त्रिशूल से ज्ञानवापी का निर्माण करके किये गये सहस्रधारार्चन के फलस्वरूप भगवान् (विश्वनाथ) विश्वेश्वर ने उन्हें तपस्या से सन्तुष्ट होकर वरदान मांगने को कहा था। तब ईशानदेव ने कहा कि यह क्षेत्र आपके नाम से अद्वितीय हो। तब भगवान् विश्वेश्वर ने कहा कि तीनों लोकों में यह सर्वोत्तम शिवतीर्थ होगा। यहाँ मैं स्वयं ज्ञानवापी में जल का स्वरूप धारण करके निवास करूँगा जिसके सेवन से सभी पाप, कष्ट, रोग, अज्ञान आदि का नाश हो जायेगा। साथ ही भगवान् शिव ने गया, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थों की अपेक्षा ज्ञानवापी के जल की विशिष्टता भी बतायी। सम्बन्धित प्रमाण निम्न श्लोकों में विस्तार से देखे जा सकते हैं -


अगस्त्य उवाच

स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्।

ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥


स्कन्द उवाच

घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम्।ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना॥

अनादिसिद्धे संसारे पुरा देवयुगे मुने।प्राप्तः कुतश्चिदीशानश्चरन्स्वैरमितस्ततः॥

न वर्षन्ति यदाभ्राणि न प्रावर्तन्त निम्नगाः।जलाभिलाषो न यदा स्नानपानादि कर्मणि॥

क्षारस्वादूदयोरेव यदासीज्जलदर्शनम्।पृथिव्यां नरसञ्चारे वर्त्तमाने क्वचित्क्वचित्॥

निर्वाणकमलाक्षेत्रं श्रीमदानन्दकाननम्।महाश्मशानं सर्वेषां बीजानां परमूषरम्॥

महाशयनसुप्तानां जन्तूनां प्रतिबोधकम्।संसारसागरावर्तपतज्जन्तुतरण्डकम्॥

यातायातातिसङ्खिन्न जन्तुविश्राममण्डपम्।अनेकजन्मगुणितकर्मसूत्रच्छिदाक्षुरम्॥

सच्चिदानन्दनिलयं परब्रह्मरसायनम्।सुखसन्तानजनकं मोक्षसाधनसिद्धिदम्॥

प्रविश्य क्षेत्रमेतत्स ईशानो जटिलस्तदा।लसत्त्रिशूलविमलरश्मिजालसमाकुलः॥

×××××××××××

अस्येशानस्य तल्लिङ्गं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा।स्नपयामि महल्लिङ्गं कलशैः शीतलैर्जलैः॥

चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकण्ठतः।कुण्डं प्रचण्डवेगेन रुद्रो रुद्रवपुर्धरः॥

पृथिव्यावरणाम्भांसि निष्क्रान्तानि तदा मुने।भूप्रमाणाद्दशगुणैर्यैरियं वसुधावृता॥

तैर्जलैः स्नापयाञ्चक्रे त्वत्स्पृष्टैरन्यदेहिभिः।तुषारैर्जाड्यविधुरैर्जञ्जपूकौघहारिभिः॥

सन्मनोभिरिवात्यच्छैरनच्छैर्व्योमवर्त्मवत्।ज्योत्स्नावदुज्ज्वलच्छायैः पावनैः शम्भुनामवत्.

पीयूषवत्स्वादुतरैः सुखस्पर्शैर्गवाङ्गगवत्।निष्पापधीवद्गम्भीरैस्तरलैः पापिशर्मवत्॥

विजिताब्जमहागन्धैः पाटलामोदमोदिभिः।अदृष्टपूर्वलोकानां मनोनयनहारिभिः॥

××××××××××××

सहस्रधारैः कलशैः स ईशानो घटोद्भव।सहस्रकृत्वः स्नपयामास संहृष्टमानसः॥

ततः प्रसन्नो भगवान्विश्वात्मा विश्वलोचनः।तमुवाच तदेशानं रुद्रं रुद्रवपुर्धरम्॥

तव प्रसन्नोस्मीशान कर्मणानेन सुव्रत।गुरुणानन्यपूर्वेण ममातिप्रीतिकारिणा॥

ततस्त्वं जटिलेशान वरं ब्रूहि तपोधन।अदेयं न तवास्त्यद्य महोद्यमपरायण॥


ईशान उवाच

यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि।

तदेतदतुलं तीर्थं तव नाम्नास्तु शङ्कर॥


विश्वेश्वर उवाच

त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवःस्वःस्थितान्यपि।तेभ्योऽखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम्॥

शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः।तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात्॥

अतो ज्ञानोद नामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत्।स्पर्शनाचमनाभ्याञ्च राजसूयाश्वमेधयोः॥

फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा सन्तर्प्य च पितामहान्।यत्फलं समवाप्नोति तदत्र श्राद्धकर्मणा॥

गुरुपुष्यासिताष्टम्यां व्यतीपातो यदा भवेत्।तदात्र श्राद्धकरणाद्गयाकोटिगुणं भवेत्॥

यत्फलं समवाप्नोति पितॄन्सन्तर्प्य पुष्करे।तत्फलं कोटिगुणितं ज्ञानतीर्थे तिलोदकैः॥

सन्निहत्यां कुरुक्षेत्रे तमोग्रस्ते विवस्वति।यत्फलं पिण्डदानेन तज्ज्ञानोदे दिने दिने॥

पिण्डनिर्वपणं येषां ज्ञानतीर्थे सुतैः कृतम्।मोदन्ते शिवलोके ते यावदाभूतसम्प्लवम्॥

अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः।प्रातः स्नात्वाथ पीताम्भस्त्वन्तर्लिङ्गगमयो भवेत्॥

एकादश्यामुपोष्यात्र प्राश्नाति चुलुकत्रयम्।हृदये तस्य जायन्ते त्रीणि लिङ्गान्यसंशयम्॥

ईशानतीर्थे यः स्नात्वा विशेषात्सोमवासरे।सन्तर्प्य देवर्षि पितॄन्दत्त्वा दानं स्वशक्तितः॥

ततः समर्च्य श्रीलिङ्गं महासम्भारविस्तरैः।अत्रापि दत्त्वा नानार्थान्कृतकृत्योभवेन्नरः॥

उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काललोपजम्।क्षणेन तदपाकृत्य ज्ञानवाञ्जायते द्विजः॥

शिवतीर्थमिदं प्रोक्तं ज्ञानतीर्थमिदं शुभम्।तारकाख्यमिदं तीर्थं मोक्षतीर्थमिदं ध्रुवम्॥

स्मरणादपि पापौघो ज्ञानोदस्य क्षयेद्ध्रुवम्।दर्शनात्स्पर्शनात्स्नानात्पानाद्धर्मादिसम्भवः॥डाकिनीशाकिनीभूतप्रेतवेतालराक्षसाः।ग्रहाः कूष्माण्डझोटिङ्गाः कालकर्णी शिशुग्रहाः

ज्वरापस्मारविस्फोटद्वितीयकचतुर्थकाः।

सर्वे प्रशममायान्ति शिवतीर्थजलेक्षणात्॥

ज्ञानोदतीर्थपानीयैर्लिङ्गं यः स्नापयेत्सुधीः।

सर्वतीर्थोदकैस्तेन ध्रुवं संस्नापितं भवेत्॥

ज्ञानरूपोहमेवात्र द्रवमूर्तिं विधाय च।

जाड्यविध्वंसनं कुर्यां कुर्यां ज्ञानोपदेशनम्॥

इति दत्त्वा वराञ्छम्भुस्तत्रैवान्तरधीयत।

कृतकृत्यमिवात्मानं सोप्यमंस्तत्रिशूलभृत्॥

ईशानो जटिलो रुद्रस्तत्प्राश्य परमोदकम्।

अवाप्तवान्परं ज्ञानं येन निर्वृतिमाप्तवान्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ३३, श्लोक - ०१-५२ के मध्य से)


भगवान् ईशान रुद्र, महादेव के पांचवें वक्त्रांश हैं। वे पांचवें सिंहासन के अधिपति भी हैं। अतः ज्ञानसिंहासनसीन भगवान् ईशान ने काशी में ज्ञानमण्डप के समीप ज्ञानवापी का निर्माण करके अज्ञान को दूर करने की कृपा की है, ऐसा परम्परा से ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त कलावती का उपाख्यान भी द्रष्टव्य है। पण्डित हरिस्वामी और उनकी पत्नी प्रियंवदा की पुत्री सुशीला का अपहरण करने की चेष्टा एक विद्याधर ने की थी जिसके बाद एक राक्षस से हुए युद्ध में उसका प्राणान्त हो गया। कालान्तर में वह कन्या कर्णाटक की राजकुमारी बनी और बाद में जब काशी आयी तो भगवान् विश्वेश्वर के दक्षिणभाग में स्थित दण्डनायक के द्वारा रक्षित ज्ञानवापी के जल का सेवन करने से उसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ और फिर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके वह मुक्त हो गयी। भगवान् स्कन्द बताते हैं कि यह कोई कल्पना नहीं, अपितु हमारे देश का प्राचीन इतिहास है। यह प्रसङ्ग बहुत बड़ा है अतः आवश्यक श्लोकों का दर्शन कराया जाता है - 


स्कन्द उवाच

कलशोद्भव चित्रार्थमितिहासं पुरातनम्।

ज्ञानवाप्यां हि यद्वृत्तं तदाख्यामि निशामय॥

×××××××××

कलावती चित्रपटीं पश्यन्तीत्थं मुहुर्मुहुः।ज्ञानवापीं ददर्शाथ श्रीविश्वेश्वरदक्षिणे॥

यदम्बु सततं रक्षेद्दुर्वृत्ताद्दण्डनायकः।सम्भ्रमो विभ्रमश्चासौ दत्त्वा भ्रान्तिं गरीयसीम्॥

योऽष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते।तस्यैषाम्बुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका॥

नेत्रयोरतिथीकृत्य ज्ञानवापी कलावती।कदम्बकुसुमाकारां बभार क्षणतस्तनुम्॥

×××××××××××××

कलावत्युवाच

एतस्माज्जन्मनः पूर्वमहं ब्राह्मणकन्यका॥उपविश्वेश्वरं काश्यां ज्ञानवाप्यां रमे मुदा।

जनको मे हरिस्वामी जनयित्री प्रियंवदा॥

×××××××××××××

कर्णाटनृपतेः कन्या बभूवाहं कलावती।इति ज्ञानं ममोद्भूतं ज्ञानवापीक्षणात्क्षणात्।

इति तस्या वचः श्रुत्वा सापि बुद्धिशरीरिणी॥ताश्च तत्परिचारिण्यः प्रहृष्टास्यास्तदाऽभवन्।

प्रोचुस्तां प्रणिपत्याथ पुण्यशीलां कलावतीम्॥अहो कथं हि सा लभ्या यत्प्रभावोयमीदृशः।

धिग्जन्म तेषां मर्त्येऽस्मिन्यैर्नैक्षि ज्ञानवापिका॥

×××××××××××

तदा प्रभृति लोकेऽत्र ज्ञानवापी विशिष्यते।सर्वेभ्यस्तीर्थर्मुख्येभ्यः प्रत्यक्षज्ञानदा मुने॥

सर्वज्ञानमयी चैषा सर्वलिङ्गमयी शुभा।साक्षाच्छिवमयी मूर्तिर्ज्ञानकृज्ज्ञानवापिका॥

सन्ति तीर्थान्यनेकानि सद्यः शुचिकराण्यपि।परन्तु ज्ञानवाप्या हि कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं यः श्रोष्यति समाहितः।न तस्य ज्ञानविभ्रंशो मरणे जायते क्वचित्॥

महाख्यानमिदं पुण्यं महापातकनाशनम्।महादेवस्य गौर्याश्च महाप्रीतिविवर्धनम्॥

पठित्वा पाठयित्वा वा श्रुत्वा वा श्रद्धयान्वितः।ज्ञानवाप्याः शुभाख्यानं शिवलोके महीयते॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ३४ एवं ३५ से उद्धृत)


भगवान् नारायण के ज्ञानावतार वेदव्यासजी के काल में भी ज्ञानवापी यथावत् थी। उसके समक्ष भगवान् की प्रसन्नता के लिये वेदव्यास जी ने भजन, कीर्तन, नृत्य आदि भी किया है। वेदव्यासजी ने स्वयं उसका वर्णन स्कन्दपुराण में किया है -


व्यासो विश्वेशभवनं समायातः सुहृष्टवत्।ज्ञानवापीपुरोभागे महाभागवतैः सह॥

विराजमानसत्कण्ठस्तुलसीवरदामभिः।स्वयं तालधरो जातः स्वयं जातः सुनर्तकः॥

वेणुवादनतत्त्वज्ञः स्वयं श्रुतिधरोऽभवत्।नृत्यं परिसमाप्येत्थं व्यासः सत्यवतीसुतः॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ९५)


ज्ञानवापी शब्द और उसका वर्णन सनातन धर्म के ग्रन्थों में ही मिलता है। यह सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी देख कर समझ सकता है कि मन्दिर का विध्वंस करके ऊपर से मस्ज़िद का आवरण चढ़ा दिया गया है। सनातन धर्म से इतर मतों की किताबों में ज्ञानवापी शब्द या उसका वर्णन है ही नहीं। कितनी हास्यास्पद बात है कि लोग दावा करते हैं कि मूर्तिभञ्जक विचारधारा के आक्रान्ताओं ने पहले सनातनी वास्तुशैली में निर्माण प्रारम्भ किया और उसके बाद गुम्बद लगा कर उसका नाम संस्कृत में ज्ञानवापी रख दिया, जिस शब्द का कोई सम्बन्ध उनके मज़हब से है ही नहीं। ज्ञानं महेश्वरादिच्छेत् ... ज्ञानसिंहासन की नगरी काशी में भगवान् विश्वनाथ के ज्ञानमण्डप के पास विश्व को ज्ञान को प्रदान करने के लिये ज्ञानवापी की उपयोगिता शास्त्रज्ञों व इतिहासकारों से छिपी हुई नहीं है। फिर भी कोई भय, लोभ, हठ या अज्ञान से सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है तो इसमें सत्य का कोई दोष नहीं है - नोलूकः सूर्यमीक्षते॥



Tuesday, December 29, 2020

ईश प्राणीधान क्या होता है???

ईश प्राणीधान क्या होता है???

 

पतंजलि महाराज ने अष्टांग योग के नियम के अंतर्गत चौथा उपांग ईश प्राणिधान बताया है। इस क्लिप में इस पर चर्चा की गई है वैसे मैंने इस पर विस्तृत लेख भी लिखा है आप लोग मेरे ब्लॉग पर देख सकते। freedhyan.blogspot.com

 

 

you tube link:  

 https://www.youtube.com/watch?v=sK2KnU61xLQ

 


 

विश्व साहित्य की इस विषय पर पहली रचना | रोक सको तो अपने आंसू रोककर दिखा देना

विश्व साहित्य की इस विषय पर पहली रचना 

बालिका की पीड़ा कविता में। 

रोक सको तो अपने आंसू रोककर दिखा देना

हर अविभावक को देखना चाहिए। यह दावा, सीखोगे।

 

यह कविता अपनी तरह की पहली कविता है पूरे विश्व के साहित्य में जो परिवारों को जोड़ रही है। स्वर्गीय गोपालदास नीरज भी रोये थे। चिंतन कर अपने बुजुर्गों को साथ रख लेना। वीडियो को लाइक करें शेयर करें सब्सक्राइब करें अधिक से अधिक लोगों को यह कविता पहुंचाएं जिससे हमारे भारत का भविष्य उज्जवल निकले। आज के अभिभावक अपने बुजुर्गों को अपने साथ रखना सीख ले। सनातन के सच्चे सैनिक बनें।

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 https://www.youtube.com/watch?v=6vTtL5_dETg

 


 

क्या आपके पास दैविय गुण हैं। चेक करे।

 

कल्याण हेतु: कल्याण से कल्याण।। 

गीता प्रेस गोरखपुर की कल्याण। क्या आपके पास दैविय गुण हैं। चेक करे।

  

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गीता ज्ञान सबके लिए। छात्रों की मेमोरी कैसे बढ़े गीता से।

गीता ज्ञान सबके लिए। 

छात्रों की मेमोरी कैसे बढ़े गीता से।

 

गीता एक सिद्ध पुस्तक है छात्रों के लिए बहुत लाभदायक है क्योंकि इसके अंदर अपनी मेमोरी बुद्धि प्रज्ञा बढ़ाने का गुप्त साधन छुपा है। वीडियो को लाइक करें शेयर करें सब्सक्राइब करें कमेंट बॉक्स में प्रश्न पूछे और सनातन के सच्चे सिपाही बनें।

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Tuesday, December 22, 2020

योगी की पहिचान क्या???

 

योगी की पहिचान क्या???


हमको कैसे मालूम होगा कि हम जिस से बात कर रहे हैं वह योगी है इसके लिए पहचान बताई है वीडियो को लाइक करें सब्सक्राइब करें शेयर करें और कमेंट कर और प्रश्न पूछे सनातन के सिपाही बनें। और अधिक जानने के लिए मेरे ब्लॉग पर लेख पढ़ें।






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Friday, December 18, 2020

25 दिसंबर को गीता जयंती कैसे मनाएं। कृपया क्लिप देखें।

 

 25 दिसंबर को गीता जयंती कैसे मनाएं। 

कृपया क्लिप देखें।


मित्रों 25 दिसंबर को शुक्रवार है आप लोग किस प्रकार से सहयोग कर भारत में जन जन तकविश्व में भी इस तरीके से डंका बजा सकते हैं इस संबंध में इस क्लिप में बताया गया है कृपया जरूर देखें।


यू ट्यूब लिंक

https://youtu.be/uG18WHMk-2A

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विश्वशांति कैसे आ सकती है????

 

विश्वशांति कैसे आ सकती है????

 

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कौन सा मंत्र करें???

 कौन सा मंत्र करें???

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Wednesday, December 16, 2020

भक्तियोग, ज्ञानयोग से कर्मयोग तक। मोक्ष को प्राप्त करने में सहयोगी।

भक्तियोग, ज्ञानयोग से कर्मयोग तक। मोक्ष को प्राप्त करने में सहयोगी।


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Tuesday, December 15, 2020

योग हेतु दूसरा चरण। कौन सी विधि से अन्तर्मुखी हों???

 

 

अंतर्मुखी होने में कौन सी विधि हमको उचित रहेगी यह जानना हमको बहुत आवश्यक है। योग हेतु दो प्रकार की विधियां होती है जिसमें षष्टांग, सप्तांग और अष्टांग विधियां होती हैं। दूसरी उपासना विधि होती है जिसमें नवधा भक्ति आती है। यह नवधा भक्ति हमें मार्ग में प्रेमाश्रु और राम रस के कारण आनंद देती है और इसका मार्ग बहुत ही अधिक रस भरा होता है।

वैसे आप मेरे ब्लाग पर जाकर तमाम जानकारियां जो आपको शायद कहीं न मिलें अथवा अनुत्तरित हों वह मिल जायेगीं।
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Monday, December 14, 2020

योग की ओर पहला चरण। अंतर्मुखी कैसे हो???

योग की ओर पहला चरण। अंतर्मुखी कैसे हो???

योग की ओर बढ़ने के लिए सबसे पहले आपको अंतर्मुखी होना होगा। इसके लिए हठयोग में अष्टांग योग या सप्तांग योग या षष्टांग योग है। उपासना में नवधा भक्ति है।

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Sunday, December 13, 2020

गुरू की पहचान क्या है।

गुरू की पहचान क्या

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जानें योग के सही अर्थ। पेट फुलाना पिचकाना या छलांग मारना योग नहीं।

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Saturday, December 12, 2020

ओम् की वास्तविक ध्वनि और निराकार ओम् दर्शन कैसा???

ओम् की वास्तविक ध्वनि और निराकार ओम् दर्शन कैसा???


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Tuesday, November 17, 2020

सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति (गुजराती अनुवाद: योगेश कवीश्वर आर्यावत)

सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति



विश्व बंधुत्व भारत की ही देन

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"



हिन्दी मे पढ़ने हेतु सिर्फ भारत ही दे सकता है विश्व शांति  लिंक👈👈


सनातन ही सर्व श्रेष्ठ मार्ग है कुछ उत्तर👈👈


 સનાતન ધર્મ કહે છે કે મનુષ્ય એક સરખી રીતે શ્વાસ લે છે, એક સરખી રીતે સુખ અને દુઃખની સંવેદનાઓ વ્યક્ત કરે છે, જેનાથી એ રાગ અને દ્વેષને જગાડીને સુખ તથા દુઃખની અનુભૂતિ કરે છે. તેમાં તે હિંદુ છે, મુસ્લિમ છે, ખ્રિસ્તી છે કે પંચાનુગામિ છે એ બાબતથી કોઈ જ ફર્ક નથી પડતો. કારણ કે શ્વાસ અને માનવીય સંવેદનારો આ તમામ પ્રકારના સંપ્રદાયોથી પરે છે. કોઈ પણ શ્વાસ ન તો હિંદૂ છે, ન મુસ્લિમ છે, ન ઈસાઈ કે તેનો અન્ય કોઈ પંથ અથવા સંપ્રદાય સાથે પણ કોઈ જ સંબંધ નથી.



               
મનુષ્ય કોઈ પણ સંપ્રદાય સાથે સંબંધ ધરાવતો હોય પણ જાે તેનામાં વિકારો જાગશે તો તે દુઃખી થવાનો જ છે. કદરતના આ નિયમો તમામ મનુષ્યોને સમાન રીતે લાગુ પડે છે. એક સદ્દગૃહસ્થ જે રીતે પોતાની પત્ની અને સંતાનોને જાેડાયેલા રાખે છે એ જ રીતે પરિવારના અન્ય લોકો, કુટુંબના અન્ય લોકો, શરીરના સગાસબંધીઓ, બંધુ બાંધવો વગેરેને જાેડીને તેની સાથે પણ પોતાનો સ્નેહસંબંધ બનાવેલો રાખે છે. જાે વ્યક્તિ પોતે ધનવાન અને સુખીસપન્ન હોય તો તે પોતાનાથી આર્થિક રીતે નબળી સ્થિતિ ધરાવનારા કે નિર્ધન બાંધવો સાથે પણ એવો જ સ્નેહનો સંબંધ બનાવી રાખે તે આવશ્યક છે. તેમના પ્રત્યે પણ સહાનુભૂતિ અને સહયોગની ભાવના રાખે. કોઈ વ્યક્તિ નિર્ધન હોવામાત્રથી તેને ધુત્કારો નહીં, તેમનું સમ્માન કરો.  સંકટમાં પડેલા બંધુબાંધવોની યથાશક્તિ મદદ પણ કરો. આ પ્રકારે તેમને સાથે જાેડી રાખવાનું કામ કરીએ.



                સમય ક્યારેય એક સરખો રહેતો નથી. જ્યારે સમય પલટાય છે ત્યારે આ જ દુઃખીયારા બાંધવો સુખીસંપન્ન પણ બની શકે છે. સંકટના સમયમાં વ્યક્તિએ તેને જે મદદ કરી હતી તેને એ ક્યારેય નહીં ભૂલે. આ રીતે બાંધવોને જાેડી રાખવા ઉત્તમ અને મંગલ છે. ઊંચ અને નીચના ભેદભાવને ભૂલાવીને પોતાના તમામ દેશવાસીઓને પણ પોતાના જાતિબંધુ માનીએ અને બધાને જાેડી રાખવાનું કામ કરીએ.



       
        એટલું જ નહીં પણ બંધુત્વની ભાવનાને વધારેને વધારે વિકસિત કરીને સમગ્ર વિશ્વની માનવસૃષ્ટિને વિશ્વબંધુત્વની ભવનાથી જાેડી રાખીને એ કાર્યમાં આપણે યથાશક્તિ સહાયભૂત થઈ શકીએ છીએ. આખરે મનુષ્ય તો મનુષ્ય છે. ભગવાન બુદ્ધએ મનુષ્યોની એક જ જાતિ માની હતી. આગળ જતા આપણે અહીં પણ એક પ્રસિદ્ધ સંતે આ જ વાતને દોહરાવતા કહ્યું છે કે 'માનુસ કી જાત સબ એક કર જાનિયે.' કોઈપણ રંગ-રુપ, કોઈપણ બોલી કે ભાષા,કોઈપણ વેશભૂષા,  કોઈપણ વર્ણ કે ગોત્ર, કોઈ પણ દેશ કે પ્રદેશના વ્યક્તિ હોય પણ તે છે તો મનુષ્ય જ અને આપણે તમામ એક જ જાતિના પ્રાણીઓ છીએ. સમગ્ર મનુષ્ય જાતિને જાેડવામાં, સંગઠિત કરવામાં ખરેખર ઉત્તમ મંગલ જ સમાયેલું છે અને આ જ ભારતીય સંસ્કૃતિ છે.



 
              ઉપનિષદનું વાક્ય છે ઃ 'સંગચ્છધ્વં સંવદધ્વં સંવો મનાસિ જાનતામ'. અર્થાત એક સાથે ચાલીએ, એક જેવું બોલીએ અને આપણાં સૌના મન એક જેવા બની જાય. આ ભાવના પ્રાચીનકાળથી ચાલી આવે છે એટલે જ અહીં રાજા અને રંક, ધનવાન અને સંત એક સાથે બેસીને ભોજન કરે છે. અહીંના તત્વચિંતકોએ કોઈપણ પ્રકારના ભેદભાવ વગર માનવામાત્ર અથવા પ્રાણીમાત્રના કલ્યાણની કામના કરી છે.



સર્વે ભવન્તુ સુખિનઃ સર્વે સન્તુ નિરામયાઃ
સર્વે ભદ્રાણી પશ્યન્તુ, મા કશ્વિદ દુઃખભાગ્ભવેત.



                અર્થાત સંસારમાં સૌ સુખી રહે, સૌ ભદ્ર જૂએ અને સંસારમાં કોઈપણ દુઃખી ન હો. વસુંધૈવ કુટુંબકમ અ ેએક વ્યાપક માનમૂલ્ય છે. વ્યક્તિથી લઈને વિશ્વ સુધી એ ભાવના વ્યાપ્ત છે. વ્યક્તિ, પરિવાર, સમાજ, રાષ્ટ્ર, અર્નાષ્ટ્ર - સમગ્ર વિશ્વનો તેના પરિઘમાં સમાવેશ થઈ જાય છે.



                સંયુક્ત રાષ્ટ્ર સંઘે મહાત્મા ગાંધીજીના આદર્શો અને વિચારોને વિશ્વ વ્યાપી માન્યતા આપી છે. વિશેષતઃ તેમણે અહિંસા પર ભાર મૂક્યો છે જે સનાતન, બૌદ્ધ કે જૈન કે જે ભારતીય સનાતનના ઘટકો જ છે તેની ભાવના છે. અહિંસાની નીતિ દ્વારા વિશ્વભરમાં શાંતિનો સંદેશ આપીને વિશ્વશાંતિને પ્રોત્સાહન આપવા માટે મહાત્મા ગાંધીજીના યોગદાનને ધ્યાને લઈને જ સંયુક્ત રાષ્ટ્ર સંઘે ર ઓક્ટોબરના દિવસને અંતરરાષ્ટ્રીય અહિંસા દિવસ તરીકે વિશ્વભરમાં મનાવવાનો વર્ષ ર૦૦૭માં નિર્ણય લીધો હતો. સાંપ્રત વિશ્વ વ્યવસ્થામાં અહિંસાની આવશ્યક્તા અને સાર્થકતો માનીને સંયુક્ત રાષ્ટ્રસંઘ મહાસભામાં ભારત દ્વારા રાખવામાં આવેલા આ પ્રસ્તાવને મતદાન કર્યા વગર જ સર્વસંમતિથી પારિત કરવામાં આવ્યો હતો. મહાસભાના ૧૯૧ સદસ્ય દેશો સહિત કુલ ૧૪૦થી પણ વધું દેશોએ ભારતના આ પ્રસ્તાવને આવકાર્યો હતો. આ પ્રસ્તાવને મોટી સંખ્યામાં વિશ્વના દેશો દ્વારા સમર્થન મળ્યું તે દર્શાવે છે કે આજે પણ વિશ્વમાં ગાંધીજીના નીતિમૂલ્યો વિશ્વને આકર્ષે છે અને વિશ્વમાં આજે પણ તેમનું એટલું જ સમ્માન છે.



     
          રાષ્ટ્રપતિની ચૂંટણી દરમિયાન અમેરિકામાં વસેલા ભારતીય સમુદાયના એક સમાચારપત્ર ઈન્ડિયા એબ્રોડમાં પ્રકાશિત એક લેખ અનુસાર નોબલ શાંતિ પુરસ્કાર વિજેતા અને અમેરિકાના તત્કાલિન રાષ્ટ્રપતિ બરાક ઓબામાએ કહ્યું કે મેં મારા પૂરા જીવનમાં મહાત્મા ગાંધીને એક એવા પ્રેરણા સ્ત્રોતના રુપમાં જાેયા છે કે જેમની પાસે સામાન્ય લોકો પાસેથી પણ અસાધારણ કામ કરાવવાની અદ્દભૂત નેતૃત્વ પ્રતિભા હતી. ઓગષ્ટ ર૦૧૦માં વોશિંગ્ટન યુવા આફ્રિકન નેતાઓની બેઠકને સંબોધિત કરતા બરાક ઓબામાએ મહાત્મા ગાંધીજીને પોતાના પ્રેરણા સ્ત્રોત બતાવીને સંબોધન કરતા કહ્યું કે મહાદ્વિપમાં જે બદલાવો આપ ઈચ્છો છો તેના માટે આપ મહાત્મા ગાંધીજીનું અનુસરણ કરો. ઓબામાએ કહ્યં કે, મહાત્મા ગાંધીજીએ કહેલું કે, આપ જે બદલાવ વિશ્વમાં જાેવા માગો છો તેની શરુઆત આપે પોતાનાથી કરવી જાેઈએ.



   
            નોબલ શાંતિ પુરસ્કાર વિજેતા અને ઈઝરાયલના રાષ્ટ્રપતિ શીમોન પરેજએ કહ્યું હતું કે, તેના દેશમાં મહાત્મા ગાંધીજીને પયગંબર માનવામાં આવે છે. તેમણે ભારતને સહનશિલતાનો આદર્શ બતાવ્યો. શ્રી પેરેજએ મહાત્મા ગાંધી પ્રત્યે પોતાની શ્રદ્ધા વ્યક્ત કરતા એમ પણ કહ્યું કે, અહિંસા અને સહનશક્તિની તેમની શિક્ષાને સૌએ આચરણમાં મૂકવી જાેઈએ. વિશ્વની સૌથી પ્રાચીન સંસ્કૃતિઓમાંથી એક ભારતીય સંસ્કૃતિમાંથી લોકોએ સહ-અસ્તિત્વ શીખવાની જરુર છે. બુદ્ધિમતા ક્યારેય પણ જૂની થતી નથી. ભારતના રાષ્ટ્રીય આંદોલનનું નેતૃત્વ કરવાવાળા મહાત્મા ગાંધીજી તેમના માટે માત્ર એક પ્રેરણાદાયી જ નથી પણ એક પરિવર્તનકારી છે કે જેમણે અહિંસક સહ-અસ્તિત્વનો ક્રાંતિકારી વિચાર આપ્યો.



       
        ઓક્ટોબર ર૦૦૯માં અમેરીકી કોંગ્રેસ દ્વારા પારીત એક પ્રસ્તાવમાં કહેવામાં આવ્યું હતું કે, મહાત્મા ગાંધીજીના દૂરદર્શિ નેતૃત્વના કારણે જ અમેરિકા અને ભારત વચ્ચે મૈત્રી સંબંધો પ્રગાઢ બન્યાં છે. હાઉસ ઓફ  રિપ્રેઝેન્ટેટિવ્સના ડેમોક્રેટ સદસ્ય એની ફેલેમાવેગાએ ગાંધીજી વિશે એક પ્રસ્તાવ રાખ્યો જેને સર્વસંમતિથી પારિત કરતા કહેવામાં આવ્યું કે, ગાંધીજીના સિદ્ધાંત અને વિચાર સમગ્ર વિશ્વ માટે હંમેશા પ્રાસંગિક રહેશે. આ પ્રસ્તાવ મહાત્મા ગાંધીજીની ૧૪૦મી જયંતિના અવસર પર પારિત કરવામાં આવ્યો હતો. એવીએ કહ્યં કે, ગાંધીજીના મહાન કાર્યો વિશે પહેલા પણ ઘણું બધું કહેવાઈ ગયું છે. વિશ્વના સૌથી મોટા લોકતંત્ર ભારત અને અમેરિકાની વચ્ચે આજે જે સંબંધો છે તે ગાંધીજી વગરના અમે જાેઈ શકતા નથી. એનીએ એમ પણ કહ્યું કે, એમની જિંદગી બંદુકની ગોળીથી સમાપ્ત થઈ ગઈ પણ તેમની વિરાસત ૧.પ અરબ લોકો પાસે છે, જે સ્વતંત્ર દેશોમાં રહી રહ્યાં છે. અમેરિકાનું નાગરિક અધિકાર આંદોલન પણ ગાંધીજીના વિચારોથી પ્રેરિત હોવાનું તેમણે કહ્યું હતું.



                આજે આપણે જ્યારે મહાત્મા ગાંધીજીના જીવન અને તેમની શિક્ષાઓને યાદ કરીએ છીએ ત્યારે તેમના સત્યાનુસંધન અને વિશ્વવ્યાપી દૃષ્ટિકોણની પાછળ આપણી પ્રાચીન ભારતીય સંસ્કૃતિના મૂળમંત્ર ઉદારચરિતાનામતુ વસુધૈવ કુટુંબકમ (અર્થાત પૃથ્વી એક દેશ છે અને આપણે સૌ તેના નાગરીકો છીએ)ને જાેઈ શકીએ છીએ. આ માનવીય મૂલ્યો દ્વારા જ સમગ્ર સંસાર એક નવીન વિશ્વ સભ્યતા તરફ આગળ વધી રહ્યો છે. ગાંધીજીએ ભારતીય સંસ્કૃતિના આ મહાન આદર્શને સરળ શબ્દોમાં જય જગતના નારાને અપનાવવાની પ્રેરણા પોતાના પરમ શિષ્ય વિનોબા ભાવેને આપી હતી. તેમણે આ શબ્દનો વ્યાપક રીતે પ્રયોગ કરીને આમ લોકોમાં આ વિચારનો ફેલાવો કર્યો.



     
          ગાંધીજી એક સાચા ઈશ્વર ભક્ત, સનાતન પ્રેમી અને ગીતાના મર્મજ્ઞ હતા. તે બધા જ ધર્મોની શિક્ષાઓનો એક સમાન રીતે આદર કરતા હતા. ગાંધીજીનું માનવું હતું કે બધા જ મહાન અવતર એક જ ઈશ્વરથી આવ્યાં છે, ધર્મ એક જ છે, માનવ જાતિ એક જ છે, આથી આપણે પ્રત્યેક ધર્મનો આદર કરવો જાેઈએ. બધા ધર્મો અને એ બધા ધર્મોના દૈવી શિક્ષકો એક જ પરમપિતા પરમાત્મા દ્વારા મોકલવામાં આવ્યાં હતાં. આપણે મંદિર, મસ્જિદ, ગિરિજાઘર, ગુરુદ્વારા કે કોઈપણ પૂજાસ્થળમાં પ્રાર્થના કરીએ તે એક જ ઈશ્વર સુધી પહોચે છે. ગાંધીજી નિરંતર તે યુગના પ્રશ્નોનું નિરાકરણ કરવાનો પ્રયાસ સત્યાનુસંધાન ્‌વારા કરતા રહ્યાં છે. ગાંધીજીએ તે યુગની પ્રાથમિક આવશ્યક્તાનારુપમાં ગુલામી પ્રથાને મિટાવી અને એ પછી તેમનું અનુસંધાન આ સમગ્ર સૃષ્ટિને સંગઠિત કરીને પ્રભુ સામ્રાજ્યને ધરતી પર સ્થાપિત કરવાનું મિશન હતું.



                રાષ્ટ્રપિતા મહાત્મા ગાંધી માત્ર ભારતના સ્વધિનતા આંદોલલન પિતામહ જ નથી પણ તેમણે વિશ્વના કેટલાંએ દેશોને સ્વતંત્રતાની રાહ દેખાડી છે. મહાત્મા ગાંધી ઈચ્છતા હતા કે ભારત માત્ર એશિયા અને આફ્રીકા જ નહીં પણ સમગ્ર વિશ્વની મુક્તિનું નેતૃત્વ કરે. તેમનું કહેવું હતું કે, એક દિવસ એવો આવશે કે જ્યારે શંતિની ખોજમાં વિશ્વના બધા જ દેશો ભારત તરફ ખેંચાશે અને ભારત વિશ્વશાંતિ દ્વારા પ્રકાશ ધરશે. મારો પ્રબળ વિશ્વાસ છે કે ભારત જ વિશ્વમાં શાંતિ સ્થાપિત કરશે. આ પ્રકારે વિશ્વમાં એકતા અને શાંતિની સ્થાપના માટે પ્રયાસ કરીને આપણે રાષ્ટ્રપિતા મહાત્મા ગાંધીના વિશ્વ બંધુત્વના સપનાને સાકાર કરવાની દિશામાં આગળ વધીને તેમને સાચી શ્રદ્ધાંજલી આપી શકીએ છીએ.



           
    ગાંધીજીએ આ જ્ઞાન કેવી રીતે પ્રાપ્ત કર્યં? માત્ર સનાતનના અધ્યયનથી. ઉપનિષદ કહે છે કે એકત્રિત થઈને ચાલો, એકત્રિત થઈને બોલો અને સૌના મન એક સરખા થઈ જશે - આ ભાવના પ્રાચીનકાળથી જ ચાલી આવે છે.



           
    આ મૂલ્યોને સાચા મનથી અપનાવ્યા વગર માનવતા અધૂરી છે. ધર્મ અને સંસ્કૃતિ અધૂરી છેં તથા રાષ્ટ્ર અને વિશ્વ પણ અધૂરા છે. આ મનુષ્યની, માનવ સમાજની, રાષ્ટ્રની અનિવાર્યતા છે. જાે આપણે વિશ્વને શ્રેષ્ઠ બનાવવા માગીએ છીએ તો વિશ્વબંધુત્વની ભાવનાને આત્મસાત કરવી પડશે.



                વસુધૈવ કુટુંબકમના સૂત્ર દ્વારા ભારતીય મનષિઓએ જે ઉદાર માનવતાવાદનો સૂત્રપાત કર્યો તેમાં સાર્વભૌમિક કલ્યાણની ભાવના છે. આ દેશ અને કાળથી પર અવધારણા છે અને પારસ્પરિક સદ્દભાવ, વિશ્વાસ અને એકાત્મકતા પર આ ભાવના ટકેલી છે. સ્વ અને પર વચ્ચેની ખાઈ લાંઘીને આ ભાવના સ્વથી પર સુધી વિસ્તરીને અભેદની ભાવના સ્થાપિત કરે છે.



             
  વસુંધૈવ કુટુંબકમની ભાવનાને રાષ્ટ્રવાદ વિરોધી માનવાની ભૂલ કરવામાં આવે છે. જે પ્રકારે ઉદાર માનવતાવાદનો રાષ્ટ્રવાદ સાથે કોઈ સંબંધ નથી તેમ તે પ્રકારે વસુધૈવ કુટુંબકમની ભાવનાનો પણ રાષ્ટ્રવાદ સાથે કોઈ સંબંધ નથી. વસુધૈવ કુટુંબકમની અવધારણા શાશ્વત તો છે જ અને સાથે સાથે તે ઉદાર અને વ્યાપક નૈતિક માનવીય મૂલ્યો પર આધૃત છે. તેમાં કોઈપણ પ્રકારની સંકીર્ણતા માટે કોઈ જ અવકાશ નથી. સહિષ્ણુતા એ તેની અનિવાર્ય શરત છે.



                નિશ્વિતરુપે આત્મ પ્રસાર, સ્વનો પર સુધી વિસ્તાર એ પોતાને અને વિશ્વને સુખી બનાવવાનું સાધન છે. વૈજ્ઞાનિક આવિષ્કારોના ફળસ્વરુપે સમય અને દૂરી ઓછી થઈ જવાના કારણે વસંુધૈવ કુટુંબકમની ભાવનાના પ્રસારની આવશ્યક્તા ઘણી જ વધી ગઈ છે. કોઈપણ દેશમાં ચાલતી નાની-મોટી હલચલનો પ્રભાવ આજકાલ સંસારના તમામ દેશો પર કોઈના કોઈ રીતે અવશ્ય પડે છે. ફળસ્વરુપે તમામ દેશો આજે એ અનુભવ કરવા લાગ્યાં છે કે પારસ્પરિક સહયોગ, સ્નેહ, સદ્‌ભાવ, સાંસ્કૃતિક આદાન-પ્રદાતન અને ભાઈચારા વગર તેમનું કામ ચાલવાનું નથી.



                સંયુક્ત રાષ્ટ્રસંઘની સ્થાપના, નિર્ગુટ શિખર સમ્મેલન, દક્ષેશ, જી-૧પ વગેરે વસંધૈવ કુટુંબકમના જ નામભેદ રુપાંતર છે. આ રાજનૈતીક સંગઠનોથી એ તો પ્રમાણિત થઈ જાય છે વિશ્વના મોટામાં મોટા અને નાનામાં નાના દેશો પારસ્પરિકતા અને સહઅસ્તિત્વની આવશ્યક્તાનો અનુભાવ કરે છે અને આ અવધારણાઓની વચ્ચે તેઓ વસુંધૈવ કુટુંબકમની ભવનાને જ અનુસરી રહ્યાં છે.




🙏🙏🙏🙏🙏

Friday, November 13, 2020

भजन ही भजन राम के। नए अनूठे।

 

भजन ही भजन 
प्रेम से है ईश और जगत    🙏🙏   भला किस द्वार जाऊं मैं     🙏🙏   मैया तू जग की आधार    🙏🙏      
   🙏🙏   जगदम्बे का ध्यान      🙏🙏    मैया कैसे तुम्हें हम लुभायें 🙏🙏   मैय्या तू जग पालनहार   🙏🙏
       🙏🙏   मां तेरी जय हो जय हो जय हो  🙏🙏    दीपावली राम नाम की   🙏🙏   दीवाली कैसे हो सकती     🙏🙏  रामलला अब घरै बिराजे     🙏🙏   एक दिया राम नाम का    🙏🙏   राम ही राम     🙏🙏  
 सोंचो हर रोज दीवाली ही है   🙏🙏   क्या हैं उपनिषद(काव्य)    🙏🙏   सबसे सुंदर राम ही राम   🙏🙏 
 🙏🙏  मत बनाओ प्रभु को पत्थर   🙏🙏  मीरा कहो या राधा मतलब तो एक है  🙏🙏   जय श्री राम 🙏🙏 
🙏🙏   सुमिरन तेरा     🙏🙏   भस्म करो मेरे अहम् को    🙏🙏   हे दुख भंजन रासबिहारी     🙏🙏
🙏🙏   मीरा हरि का दर्शन पाया   🙏🙏   मन में राम टटोले जा    🙏🙏   राम नाम की प्यास      
🙏🙏  जय कन्हैयालाल की 🙏🙏  जय हो कन्हैया। जय नन्दलाल   🙏🙏  प्रेम से है ईश और जगत   🙏🙏 🙏    
🙏🙏  हौले से सब चुक गया   🙏🙏  बाती का यह तेल कैसे धीरे से चुक जा रहा   🙏🙏   
🙏🙏    मैं सदा जलता रहा    🙏🙏   भला किस द्वार जाऊं मैं   🙏🙏   मुझको पार लगाओगे      🙏🙏    
      एक लम्बा पद : साधो! ले लो राम का साथ     🙏🙏     एक पद : राम नाम सुखदाई साधु  🙏🙏    
 मौन में वो कौन   🙏🙏    चेन से चैन नहीं     🙏🙏    विपुल लखनवी का उलट पद  
🙏

Tuesday, November 10, 2020

लोकों की वैज्ञानिक व्याख्या (कही नहीं मिलेगी)

लोकों की वैज्ञानिक व्याख्या (कही नहीं मिलेगी) 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी


लोक एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ होता है 'संसार'। जैन ग्रन्थ और हिन्दू साहित्य में इसका प्रयोग होता है। जैन ब्रह्माण्ड विज्ञान के अनुसार इस ब्रह्माण्ड में तीन लोक है।
लोक मनुष्य समाज का वह वर्ग है जो आभिजात्य संस्कार, शास्त्रीयता और पांडित्य की चेतना अथवा अहंकार से शून्य है और जो एक परंपरा के प्रवाह में जीवित रहता है।
लोक शब्द सस्कृत धातु लोक् से जन्मा है जिसका मतलब होता है नज़र डालना, देखना अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान प्राप्त करना । इससे बने संस्कृत के लोकः का अर्थ हुआ दुनिया , संसार। मूल धातु लोक् में समाहित अर्थों पर गौर करें तो साफ है कि नज़र डालने ,देखने अथवा प्रत्यक्ष ज्ञान करने पर क्या हासिल होता है ? जाहिर है सामने दुनिया ही नज़र आती है। यही है लोक् का मूल भाव। लोक् से जुड़े भावों का अर्थविस्तार लोकः में अद्भुत रहा । पृथ्वी पर निवास करने वाले सभी प्राणियों मे सिर्फ मनुष्यों के समूह को ही लोग कहा गया जिसकी व्युत्पत्ति लोकः से ही हुई है। लोकः का अर्थ मानव समूह, मनुष्य जाति, समुदाय, समूह, समिति, प्रजा, राष्ट्र के व्यक्ति आदि है।
आलोक भी लोक से ही बना है, फिर उसी से बना है अवलोकन आदि|  अँगरेज़ी का लुक भी| भोजपुरी में दिखने को लौकना कहते हैं|  वाक्य प्रयोग--लौक नहीं रहा है क्या, यानी दिख नहीं रहा है|  क्या. लोक और लौक में ज्यादा अंतर नहीं है, भाषाशास्त्रीय दृष्टिकोण तो आप बताएं| |  
भागवत पुराण के अनुसार धरती पर ही सात पातालों का वर्णन पुराणों में मिलता है। ये सात पाताल है- अतल, वितल, सुतल, तलातल, महातल, रसातल और पाताल। इनमें से प्रत्येक की लंबाई चौड़ाई दस-दस हजार योजन की बताई गई है। ये भूमि के बिल भी एक प्रकार के स्वर्ग ही हैं।
 
इनमें स्वर्ग से भी अधिक विषयभोग, ऐश्वर्य, आनंद, सन्तान सुख और धन संपत्ति है। यहां वैभवपूर्ण भवन, उद्यान और क्रीड़ा स्थलों में दैत्य, दानव और नाग तरह-तरह की मायामयी क्रीड़ाएं करते हुए निवास करते हैं। वे सब गृहस्थधर्म का पालन करने वाले हैं।
 
उनके स्त्री, पुत्र, बंधु और बांधव सेववकलोक उनसे बड़ा प्रेम रखते हैं और सदा प्रसन्नचित्त रहते हैं। उनके भोगों में बाधा डालने की इंद्रादि में भी सामर्थ्य नहीं है। वहां बुढ़ापा नहीं होता। वे सदा जवान और सुंदर बने रहते हैं।
अतल में मयदानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानवें प्रकार की माया रची है। उसके वितल लोक में भगवान हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों के सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि वृद्धि के लिए भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के प्रभाव से वहां हाट की नाम की एक सुंदर नदी बहती है।
वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशश्वी पवित्रकीर्ति विरोचन के पुत्र बलि रहते हैं। वामन रूप में भगवान ने जिनसे तीनों लोक छीन लिए थे।
आगे पढ़ें, कौन रहता है तलातल, महातल और रसातल में...

सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहां त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। मयदानव विषयों का परम गुरु है। उसके नीचे महातल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का 'क्रोधवश' नामक एक समुदाय रहता है।
उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं। उनके नीचे रसातल में पणि नामके दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से सदा विरोध रहता है।
रसातल के नीचे पाताल है। वहां शंड्‍ड, कुलिक, महाशंड्ड, श्वेत, धनन्जय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अक्षतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान है।
उनमें किसी के पांच किसी के सात, किसी के दस, किसी के सौ और किसी के हजार सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियां अपने प्रकाश से पाताललोक का सारा अंधकार नष्टकर देती हैं।
पाताल लोक पुराणों में वर्णित एक लोक माना जाता रहा है कई लोग इसे नकारते हैं तो कई लोग इसे मानते भी हैं। पाताल लोक को समुद्र के नीचे का लोक भी कहा जाता है । 
इस भू-भाग को प्राचीनकाल में प्रमुख रूप से 3 भागों में बांटा गया था- इंद्रलोक, पृथ्वी लोक और पाताल लोक। इंद्रलोक हिमालय और उसके आसपास का क्षेत्र तथा आसमान तक, पृथ्वी लोक अर्थात जहां भी जल, जंगल और समतल भूमि रहने लायक है और पाताल लोक अर्थात रेगिस्तान और समुद्र के किनारे के अलावा समुद्र के अंदर के लोक।
पाताल लोक भी 7 प्रकार के बताए गए हैं। जब हम यह कहते हैं कि भगवान विष्णु ने राजा बलि को पाताल लोक का राजा बना दिया था तो किस पाताल का? यह जानना भी जरूरी है। 7 पातालों में से एक पाताल का नाम पाताल ही है।
हिन्दू धर्म में पाताल लोक की स्थिति पृथ्वी के नीचे बताई गई है। नीचे से अर्थ समुद्र में या समुद्र के किनारे। पाताल लोक में नाग, दैत्य, दानव और यक्ष रहते हैं। राजा बालि को भगवान विष्णु ने पाताल के सुतल लोक का राजा बनाया है और वह तब तक राज करेगा, जब तक कि कलियुग का अंत नहीं हो जाता।
राज करने के लिए किसी स्थूल शरीर की जरूरत नहीं होती, सूक्ष्म शरीर से भी काम किया जा सकता है। पुराणों के अनुसार राजा बलि अभी भी जीवित हैं और साल में एक बार पृथ्वी पर आते हैं। प्रारंभिक काल में केरल के महाबलीपुरम में उनका निवास स्थान था।
त्रैलोक्य
हिन्दू इतिहास ग्रंथ पुराणों में त्रैलोक्य का वर्णन मिलता है। ये 3 लोक हैं- 1. कृतक त्रैलोक्य, 2. महर्लोक, 3. अकृतक त्रैलोक्य। कृतक और अकृतक लोक के बीच महर्लोक स्थित है। कृतक त्रैलोक्य जब नष्ट हो जाता है, तब वह भस्म रूप में महर्लोक में स्थित हो जाता है। अकृतक त्रैलोक्य अर्थात ब्रह्म लोकादि, जो कभी नष्ट नहीं होते।
विस्तृत वर्गीकरण के मुताबिक तो 14 लोक हैं- 7 तो पृथ्वी से शुरू करते हुए ऊपर और 7 नीचे। ये हैं- भूर्लोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक, महर्लोक, जनलोक, तपोलोक और ब्रह्मलोक। इसी तरह नीचे वाले लोक हैं- अतल, वितल, सतल, रसातल, तलातल , महातल और पाताल।
कृतक त्रैलोक्य-
कृतक त्रैलोक्य जिसे त्रिभुवन भी कहते हैं, पुराणों के अनुसार यह लोक नश्वर है। गीता के अनुसार यह परिवर्तनशील है। इसकी एक निश्‍चित आयु है। इस कृतक ‍त्रैलोक्य के 3 प्रकार है- भूलोक, भुवर्लोक, स्वर्लोक (स्वर्ग)।
भूलोक:
जितनी दूर तक सूर्य, चंद्रमा आदि का प्रकाश जाता है, वह पृथ्वी लोक कहलाता है। हमारी पृथ्वी सहित और भी कई पृथ्वियां हैं। इसे भूलोक भी कहते हैं।
भुवर्लोक:
पृथ्वी और सूर्य के बीच के स्थान को भुवर्लोक कहते हैं। इसमें सभी ग्रह-नक्षत्रों का मंडल है।
स्वर्लोक:
सूर्य और ध्रुव के बीच जो 14 लाख योजन का अंतर है, उसे स्वर्लोक या स्वर्गलोक कहते हैं। इसी के बीच में सप्तर्षि का मंडल है।
अब जानिए भूलोक की स्थिति : पुराणों के अनुसार भूलोक को कई भागों में विभक्त किया गया है। इसमें भी इंद्रलोक, पृथ्‍वी और पाताल की स्थिति का वर्णन किया गया है। हमारी इस धरती को भूलोक कहते हैं। पुराणों में संपूर्ण भूलोक को 7 द्वीपों में बांटा गया है- जम्बू, प्लक्ष, शाल्मली, कुश, क्रौंच, शाक एवं पुष्कर। जम्बूद्वीप सभी के बीचोबीच है। सभी द्वीपों में पाताल की स्थिति का वर्णन मिलता है।
माता पार्वती और पाताल लोक रहस्य
हिन्दू धर्मग्रंथों में पाताल लोक से संबंधित असंख्य घटनाओं का वर्णन मिलता है। कहते हैं कि एक बार माता पार्वती के कान की बाली (मणि) यहां गिर गई थी और पानी में खो गई। खूब खोज-खबर की गई, लेकिन मणि नहीं मिली। बाद में पता चला कि वह मणि पाताल लोक में शेषनाग के पास पहुंच गई है। जब शेषनाग को इसकी जानकारी हुई तो उसने पाताल लोक से ही जोरदार फुफकार मारी और धरती के अंदर से गरम जल फूट पड़ा। गरम जल के साथ ही मणि भी निकल पड़ी।
राजा बलि
पुराणों में पाताल लोक के बारे में सबसे लोकप्रिय प्रसंग भगवान विष्णु के अवतार वामन और राजा बलि का माना जाता है। बलि ही पाताल लोक के राजा माने जाते थे।
अहिरावण
रामायण में भी अहिरावण द्वारा राम-लक्ष्मण का हरण कर पाताल लोक ले जाने पर श्री हनुमान के वहां जाकर अहिरावण का वध करने का प्रसंग आता है। इसके अलावा भी ब्रह्मांड के 3 लोकों में पाताल लोक का भी धार्मिक महत्व बताया गया है।
पाताल में जाने के रास्ते :
आपने धरती पर ऐसे कई स्थानों को देखा या उनके बारे में सुना होगा जिनके नाम के आगे पाताल लगा हुआ है, जैसे पातालकोट, पातालपानी, पातालद्वार, पाताल भैरवी, पाताल दुर्ग, देवलोक पाताल भुवनेश्वर आदि। नर्मदा नदी को भी पाताल नदी कहा जाता है। नदी के भीतर भी ऐसे कई स्थान होते हैं, जहां से पाताल लोक जाया जा सकता है। समुद्र में भी ऐसे कई रास्ते हैं, जहां से पाताल लोक पहुंचा जा सकता है। धरती के 75 प्रतिशत भाग पर तो जल ही है। पाताल लोक कोई कल्पना नहीं। पुराणों में इसका विस्तार से वर्णन मिलता है।
कहते हैं कि ऐसी कई गुफाएं हैं, जहां से पाताल लोक जाया जा सकता है। ऐसी गुफाओं का एक सिरा तो दिखता है लेकिन दूसरा कहां खत्म होता है, इसका किसी को पता नहीं। कहते हैं कि जोधपुर के पास भी ऐसी गुफाएं हैं जिनके बारे में कहा जाता है कि इनका दूसरा सिरा आज तक किसी ने नहीं खोजा। इसके अलावा पिथौरागढ़ में भी हैं पाताल भुवनेश्वर गुफाएं। यहां पर अंधेरी गुफा में देवी-देवताओं की सैकड़ों मूर्तियों के साथ ही एक ऐसा खंभा है, जो लगातार बढ़ रहा है। बंगाल की खाड़ी के आसपास नागलोक होने का जिक्र है। यहां नाग संप्रदाय भी रहता था।
प्राचीनकाल में समुद्र के तटवर्ती इलाके और रेगिस्तानी क्षेत्र को पाताल कहा जाता था। इतिहासकार मानते हैं कि वैदिक काल में धरती के तटवर्ती इलाके और खाड़ी देश को पाताल में माना जाता था। राजा बलि को जिस पाताल लोक का राजा बनाया गया था उसे आजकल सऊदी अरब का क्षेत्र कहा जाता है। माना जाता है कि मक्का क्षे‍त्र का राजा बलि ही था और उसी ने शुक्राचार्य के साथ रहकर मक्का मंदिर बनाया था। हालांकि यह शोध का विषय है।
अमृतपान
माना जाता है कि जब देवताओं ने दैत्यों का नाश कर अमृतपान किया था तब उन्होंने अमृत पीकर उसका अवशिष्ट भाग पाताल में ही रख दिया था अत: तभी से वहां जल का आहार करने वाली असुर अग्नि सदा उद्दीप्त रहती है। वह अग्नि अपने देवताओं से नियंत्रित रहती है और वह अग्नि अपने स्थान के आस-पास नहीं फैलती।
इसी कारण धरती के अंदर अग्नि है अर्थात अमृतमय सोम (जल) की हानि और वृद्धि निरंतर दिखाई पड़ती है। सूर्य की किरणों से मृतप्राय पाताल निवासी चन्द्रमा की अमृतमयी किरणों से पुन: जी उठते हैं।
7 प्रकार के लोक
पुराणों के अनुसार भू-लोक यानी पृथ्वी के नीचे 7 प्रकार के लोक हैं जिनमें पाताल लोक अंतिम है। पाताल लोक को नागलोक का मध्य भाग बताया गया है। पाताल लोकों की संख्या 7 बताई गई है।
विष्णु पुराण के अनुसार पूरे भू-मंडल का क्षेत्रफल 50 करोड़ योजन है। इसकी ऊंचाई 70 सहस्र योजन है। इसके नीचे ही 7 लोक हैं जिनमें क्रम अनुसार पाताल नगर अंतिम है। 7 पाताल लोकों के नाम इस प्रकार हैं- 1. अतल, 2. वितल, 3. सुतल, 4. रसातल, 5. तलातल, 6. महातल और 7. पाताल।
7 प्रकार के पाताल में जो अंतिम पाताल है वहां की भूमियां शुक्ल, कृष्ण, अरुण और पीत वर्ण की तथा शर्करामयी (कंकरीली), शैली (पथरीली) और सुवर्णमयी हैं। वहां दैत्य, दानव, यक्ष और बड़े-बड़े नागों और मत्स्य कन्याओं की जातियां वास करती हैं। वहां अरुणनयन हिमालय के समान एक ही पर्वत है। कुछ इसी प्रकार की भूमि रेगिस्तान की भी रहती है।
1. अतल :
अतल में मय दानव का पुत्र असुर बल रहता है। उसने छियानवे प्रकार की माया रची है।
2. वितल :
उसके वितल लोक में भगवान हाटकेश्वर नामक महादेवजी अपने पार्षद भूतगणों सहित रहते हैं। वे प्रजापति की सृष्टि वृद्धि के लिए भवानी के साथ विहार करते रहते हैं। उन दोनों के प्रभाव से वहां हाट की नाम की एक सुंदर नदी बहती है।
3. सुतल :
वितल के नीचे सुतल लोक है। उसमें महायशश्वी पवित्रकीर्ति विरोचन के पुत्र बलि रहते हैं। वामन रूप में भगवान ने जिनसे तीनों लोक छीन लिए थे।
4. तलातल :
सुतल लोक से नीचे तलातल है। वहां त्रिपुराधिपति दानवराज मय रहता है। मयदानव विषयों का परम गुरु है।
5. महातल :
उसके नीचे महातल में कश्यप की पत्नी कद्रू से उत्पन्न हुए अनेक सिरों वाले सर्पों का ‘क्रोधवश’ नामक एक समुदाय रहता है। उनमें कहुक, तक्षक, कालिया और सुषेण आदि प्रधान नाग हैं। उनके बड़े-बड़े फन हैं।
6. रसातल :
उनके नीचे रसातल में पणि नाम के दैत्य और दानव रहते हैं। ये निवातकवच, कालेय और हिरण्यपुरवासी भी कहलाते हैं। इनका देवताओं से सदा विरोध रहता है।
7. पाताल :
रसातल के नीचे पाताल है। वहां शंड्‍ड, कुलिक, महाशंड्ड, श्वेत, धनंजय, धृतराष्ट्र, शंखचूड़, कम्बल, अक्षतर और देवदत्त आदि बड़े क्रोधी और बड़े-बड़े फनों वाले नाग रहते हैं। इनमें वासुकि प्रधान है। उनमें किसी के 5, किसी के 7, किसी के 10, किसी के 100 और किसी के 1000 सिर हैं। उनके फनों की दमकती हुई मणियां अपने प्रकाश से पाताल लोक का सारा अंधकार नष्ट कर देती हैं।.


वैज्ञानिक व्याख्या : 
यह सब जो आपको मैंने अभी बताया यह सब आपको पुराणों से और नेट पर इधर उधर से मिल जाएगा लेकिन इसकी वैज्ञानिक व्याख्या कैसे करें???? 
इस विषय पर चर्चा करते हैं।
यह तो सिद्ध हो चुका है की सृष्टि का निर्माण निराकार सगुण ऊर्जा से हुआ है और ऊर्जा ही सर्वव्यापी है विज्ञान के द्वारा जहां पर कुछ अशरीरी उपस्थिति का एहसास होता है वहां पर ऊर्जा संबंधी यंत्र कम ऊर्जा या अधिक ऊर्जा का सिग्नल देने लगते हैं।
और यह भी सही है कि जैसा कि मनुष्य का शरीर पांच तत्वों को मिलाकर बना है जब भूमि और जल तत्व निकल जाता है तब मनुष्य की मृत्यु कही जाती है और तब उसके साथ में आकाश वायु और अग्नि तत्व रहते हैं कभी-कभी शांत लोगों का अग्नि तत्व  भी नष्ट हो जाता है केवल वायु तत्व और आकाश तत्व ही रहती है यानी केवल ऊर्जा का रूप रहता है अब ऊर्जा का रूप कैसे रहता है यह तो आपने पढ़ा है यह फोटोन के बंडल के रूप में रहता है और फ़ोटान  की ऊर्जा  को हम एच न्यू के द्वारा व्यक्त करते हैं जहां पर एच h  प्लैंक स्थिराक है और न्यू บ फ्रीक्वेंसी है यानी hა उरजा  है।
मनुष्य जब पांचों तत्वों में रहता है यानी जीवित रहता है विज्ञान के हिसाब से तो वह अपने अंदर ध्यान के माध्यम से किस ऊर्जा के स्तर पर चला जाता है|  अब आप देखिए अगर आप कभी गलत काम करते हैं या दौड़ते हैं या कोई बुरा सपना देखते हैं तो आप हाफने लगते हैं क्यों आप की धड़कन बढ़ जाती है सांस तेज चलने लगती है क्यों आपके शरीर को अधिक ऑक्सीजन की अवश्यकता  लगती है क्यों?? 
क्योंकि यह सब ऊर्जा ही है ऊर्जा के बिना जगत  चल नहीं सकता और सृष्टि का निर्माण हो नहीं सकता तो मनुष्य अपने विचारों के द्वारा अपने भूमि और जल तत्व के अतिरिक्त जो तत्व है उनको ऊर्जा का क्या स्तर दे देता है और शरीर त्याग के समय किस स्तर पर उसने शरीर त्यागा तो यह जो ऊर्जा निकलती है जिसे आत्मा कहते हैं यह जिस स्तर पर निकलती है तो वह अपने स्तर के अन्य ऊर्जा के बंडल में मिल जाती है मिलने लगती है यही लोक की व्याख्या कर देते है|  लोक का तात्पर्य ऊर्जा के विभिन्न स्तर आप धरती पर है इसके शरीर से ऊपर के लोगों में जहां पर आप आनंद की अनुभूति में रहते हैं विभिन्न सुख भोंगते हैं और आपकी उर्जा को विभिन्न प्रकार की शक्तियां मिल जाती है वह 7 लोक और जो बुरे लोग दुर्गुण लोग बाकी लोग शरीर त्यागते हैं तो उनकी ऊर्जा का स्तर अलग हो जाता है और वह शरीर में जो मनुष्य बनने के लिए जो ऊर्जा चाहिए उस से नीचे की ओर चले जाते हैं वह भी सात लोक।
और फिर जब वह जन्म लेते हैं तो प्रत्येक जीव के जन्म लेने के लिए जो उसके अंदर पांचों तत्वों का मिश्रण कैसा होगा यह भी निर्भर करता है ऊर्जा के स्तर के द्वारा जैसे ऊर्जा का एक संतुलित स्तर है वह जो भी हो मुझे नहीं पता तब वह जो भाव में और कारण शरीर में जो ऊर्जा है वह मानव योनि ले लेगी और यदि वह ऊर्जा असंतुलित हुई गडबड़ हुई तो वह अन्य जीव में चली जाएगी और उस जीव की योनि में जन्म ले लेगी|| 

तो कहने का तात्पर्य है कि आप ऊर्जा के किस आयाम में अपना शरीर त्याग देते हैं और किस आयाम में रहते हैं जैसे आपने देखा होगा कछुआ जो है उसकी आयु बहुत अधिक होती है क्यों बहुत धीरे सांस लेता है योगी लोग बताते हैं यदि आप अपनी सास को नियंत्रित करना सीख ले तो आप अपनी आयु बहुत लंबी कर सकती है मतलब कम ऊर्जा में रहना अधिक ऊर्जा में रहना शरीर कब निर्माण हुआ को दी गई ऊर्जा| 
ऊर्जा कुंडलनी शक्ति के रूप में जग गई ऊर्जा और बढ़ गई क्योंकि उर्जा भी आपको मिल गई यानी आप ऊपर  चले गए तो आप इस शरीर में जो आप आए हैं इससे ऊपर की ओर चले जाएंगे लेकिन अगर आप कर्म गलत कर रहे हैं पापी व्यक्ति हैं तो आप मौत के समय आपकी कुंडलनी  तो सोई हुई है वह शक्ति बेकार चली गई अब आप की शक्ति जो है उसमें काम करना है यानी आप मानव शरीर के लिए जो चाहिए थी उसे नीचे चले गए|
सीधा मतलब आप किसी और योनि मे चले गए| 


जय गुरुदेव जय महाकाली



जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥



मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
 
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या) 
जय गुरुदेव जय महाकाली।

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 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...