Search This Blog

Showing posts sorted by date for query पुनर्जन्म. Sort by relevance Show all posts
Showing posts sorted by date for query पुनर्जन्म. Sort by relevance Show all posts

Thursday, May 19, 2022

ज्ञानवापी का पौराणिक महत्व

ज्ञानवापी का पौराणिक महत्व

सवंशावतंस श्रीमन्महामहिम विद्यामार्तण्ड निग्रहाचार्य श्रीभागवतानंद जी के लेख से संकलित

संकलनकर्ता : देवीदास विपुल


वर्तमान दिनों में ज्ञान व्यापी पर बहुत अधिक चर्चा चल रही है इस विषय में मुझे कुछ सामग्री प्राप्त हुई है जो आपके विचार हैं तुम संकलित कर रहा हूं।

निर्गुण ब्रह्म जब सगुणावतार धारण करते हैं तो 

उद्भव, स्थिति, संहार, अनुग्रह एवं निग्रहसम्बन्धी क्रियाओं को सम्पादित करने हेतु 

क्रमशः हिरण्यगर्भ, विष्णु, शिव, गणपति एवं दुर्गा की स्वारूपसंज्ञाओं से लक्षित किये जाते हैं। 

"एकैव शक्तिः परमेश्वरस्य भिन्ना चतुर्धा व्यवहार काले", ऐसी भृङ्गीरिटी संहिता की उक्ति से भी यह बात ज्ञात होती है। इसमें संहारपरक क्रिया को सम्पादित करते हुए परब्रह्म की शङ्कर अथवा शिवसंज्ञक वाच्यता होती है। भगवान् शिव इन्हीं पञ्चब्रह्म में आते हैं, जिनकी शाश्वत अधिपुरी काशी है। 

भगवान् शिव ने अपने पञ्चमुखी स्वरूप को प्रकट किया जिनके नाम हैं - सद्योजात, वामदेव, अघोर, तत्पुरुष एवं ईशान। कालान्तर में यह पांचों मुख स्वतन्त्र रूप से भी प्रतिष्ठित हुए। अग्निपुराण के ३०४थे अध्याय, श्लोक - २५-२६ में कहते हैं - 


पूर्वे तत्पुरुषः श्वेतो अघोरोऽष्टभुजोऽसितः।च तुर्बाहुमुखः पीतः सद्योजातश्च पश्चिमे॥

वामदेवः स्त्रीविलासी चतुर्वक्त्रभुजोऽरुणः।सौम्ये पञ्चास्य ईशाने ईशानः सर्वदः सितः॥ 

ये पञ्चवक्त्र रुद्र कालान्तर में पांच सिंहासनों पर विराजमान हुए। भगवान् शिव के अंश से पांच शैवाचार्यों का प्राकट्य हुआ था। श्रीमज्जगद्गुरु रेणुकाचार्य, दारुकाचार्य, एकोरोमाचार्य, पण्डिताचार्य एवं विश्वाचार्य, इन पञ्च-जगद्गुरुओं को भगवान् शिव ने अपने पांच सिंहासनों के माध्यम से शैवमत की रक्षा करने का कार्यभार प्रदान किया। इनमें प्रथम वीरसिंहासन की स्थापना कर्णाटक के रम्भापुरी में की गयी है। द्वितीय सद्धर्मसिंहासन की स्थापना पहले मध्य प्रदेश के उज्जैन में की गयी थी जिसे कालान्तर में कर्णाटक में स्थानान्तरित किया गया। तृतीय वैराग्यसिंहासन की स्थापना आन्ध्र प्रदेश के श्रीशैलम् में की गयी थी। चौथे सूर्यसिंहासन का स्थान उत्तराखण्ड के केदारनाथ में है तथा पांचवें ज्ञानसिंहासन की स्थापना उत्तर प्रदेश की काशी नगरी में हुई है। 


काशी ज्ञानसिंहासन की नगरी है। विश्वनाथ भगवान् ने स्कन्दपुराण के काशीखण्ड में स्वयं अपना जो प्रासाद मानचित्र वर्णित किया है, उसमें उन्होंने पञ्चमण्डपों का वर्णन किया है। ये मण्डप हैं - मुक्तिमण्डप, ऐश्वर्यमण्डप, निर्वाणमण्डप, शृंगारमण्डप एवं ज्ञानमण्डप। स्वनामधन्या राजमाता अहल्याबाई होलकर ने जब श्रीविश्वनाथ भगवान् के मन्दिर का पुनर्निर्माण कराया तो यह लिखवाया - "विश्वेश्वरस्य रमणीयतरं सुमन्दिरं श्रीपञ्चमण्डपयुतं सदृशञ्च वेश्म॥"


कृत्यकल्पतरुकार पौराणिक सन्दर्भ से वहां एक कुएं को वर्णित करते हैं - 

तदन्धोः पूर्वतो लिङ्गं पुण्यं विश्वेश्वराह्वयम्।विश्वेश्वरस्य पूर्वेण वृद्धकालेश्वरो हरः॥

तस्य पूर्वेण कूपस्तु तिष्ठते सुमहान् प्रिये।तस्मिन्कूपे जलं स्पृश्य पूतो भवति मानवः॥


कूप की स्थिति स्पष्ट करने के बाद यह भी बताते हैं कि उस कूप की रक्षा करने हेतु देवाधिदेव शिवजी की आज्ञा से पश्चिम दिशा में भगवान् दण्डपाणि नियुक्त हैं। साथ ही पूर्वदिशा में तारकेश्वर, उत्तर में नन्दीश्वर एवं दक्षिण में महाकाल विद्यमान् हैं।


दण्डपाणिस्तु तत्रस्थो रक्षते तज्जलं सदा ।पश्चिमं तीरमासाद्य देवदेवस्य शासनात्॥

पूर्वेण तारको देवो जलं रक्षति सर्वदा।नन्दीशश्चोत्तरेणैव महाकालस्तु दक्षिणे॥


ज्ञानमण्डप की स्थिति प्रधान शिवस्थान से पूर्व दिशा की ओर है। वहां से ज्ञानसिंहासनाधीश भगवान् शिव ज्ञान का प्रसारण करते हैं -


मत्प्रासादैन्द्रदिग्भागे ज्ञानमण्डपमस्ति यत्।ज्ञानं दिशामि सततं तत्र मां ध्यायतां सताम्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ७९, श्लोक - ७५)


आधुनिक सम्प्रदायों में स्वामीनारायण सम्प्रदाय के अर्वाचीन ग्रन्थ, सपादलक्षोत्तरश्लोकी लक्ष्मीनारायण संहिता में ज्ञानवापी का उल्लेख मिलता है। यद्यपि यह कृति सार्वभौमिक सनातन शास्त्रजगत् में मान्य नहीं है किन्तु फिर भी मैं पहले अर्वाचीन प्रमाण ही रखूंगा क्योंकि इस प्रसङ्ग की साम्यता अन्य मान्य प्राचीन शास्त्रों में मिलती है। लक्ष्मीनारायणसंहिताकार श्रीकृष्णवल्लभाचार्य जी, जो आधुनिक विश्व के अतिशिक्षित विद्वानों में परिगणित होते हैं, लिखते हैं -


कुरुक्षेत्रं हाटकेशक्षेत्रं प्रभासक्षेत्रकम्।यथोक्तविधिना कृत्वा जनः पापात् प्रमुच्यते॥

प्रथमं पुष्करारण्यं नैमिषारण्यमित्यपि।धर्मारण्यं तृतीयञ्च सर्वेष्टफलदायकम्॥

वाराणसीपुरी त्वेका द्वितीया द्वारकापुरी।तृतीयाऽवन्तिकापूश्च यथेष्टफलदायिनी॥

वृन्दावनं द्वैतवनं तथा च खाण्डवं वनम्।स्नानाद्वासात्स्वर्गमोक्षप्रदं पापविनाशकम्॥

कालग्रामः शालग्रामो नन्दिग्रामस्तृतीयकः।इन्द्रियग्रामतृष्णानां ध्वंसको मोक्षदस्तथा॥

अग्नितीर्थं शुक्लतीर्थं पितृतीर्थं तृतीयकम्।तत्र स्नानाद्भुक्तिमुक्ती लभते मानवो ध्रुवम्॥

श्रीपर्वतश्चाऽर्बुदाद्री रैवताचल इत्यपि।यात्राकर्ता स्वर्गभोक्ता पश्चान्मुक्तिप्रगो भवेत्॥

गङ्गानदी नर्मदाख्यानदी सरस्वतीनदी।स्नानाद्भुक्तिस्तथा मुक्तिस्तथेष्टं सर्वदा ददेत्॥

ज्ञानवापी च कुङ्कुमवापी रोहणवापिका।जलपानाद्भवेन्मुक्तिर्वापीत्रयं हि पावनम्॥

नारायणसर इन्द्रसरो मानसकं सरः।सरस्त्रयं भुक्तिमुक्तिप्रदं स्नानाद्भवत्यपि॥

(लक्ष्मीनारायणसंहिता, कृतयुगसन्तानखण्ड, अध्याय - ५१४, श्लोक - ०३-१२)


श्लोकों का भाव यह है कि तीन क्षेत्र (कुरुक्षेत्र, हाटकेशक्षेत्र एवं प्रभासक्षेत्र), तीन अरण्य (पुष्करारण्य, नैमिषारण्य एवं धर्मारण्य), तीन पुरी (वाराणसीपुरी, द्वारकापुरी एवं अवन्तिकापुरी), तीन वन (वृन्दावन, द्वैतवन एवं खाण्डववन), तीन ग्राम (कालग्राम/कलापग्राम, शालग्राम एवं नन्दिग्राम), तीन तीर्थ (अग्नितीर्थ, शुक्लतीर्थ एवं पितृतीर्थ), तीन पर्वत (श्रीशैल, अर्बुदाचल/माउण्ट आबू, रैवत पर्वत), तीन नदी (गङ्गा, नर्मदा एवं सरस्वती), तीन वापी (ज्ञानवापी, कुङ्कुमवापी एवं रोहणवापी), तथा तीन सरोवर (नारायण सरोवर, इन्द्रसरोवर एवं मानसरोवर) का सेवन करने वाला व्यक्ति समस्त कामनाओं का उपभोग करके मोक्ष को प्राप्त होता है।


अब सर्वमान्य शास्त्रीय प्रमाणों पर आते हैं। 


असीवरुणयोर्मध्ये पञ्चक्रोश्यां महाफलम्।अमरा मृत्युमिच्छन्ति का कथा इतरे जनाः॥

मणिकर्ण्यां ज्ञानवाप्यां विष्णुपादोदके तथा।ह्रदे पञ्चनदे स्नात्वा न मातुः स्तनपो भवेत्॥

प्रसङ्गेनापि विश्वेशं दृष्ट्वा काश्यां षडानन।मुक्तिः प्रजायते पुंसां जन्ममृत्युविवर्जिता॥

(स्कन्दपुराण, वैष्णवखण्ड, बदरिकाश्रममाहात्म्य, अध्याय - ०१, श्लोक - २९-३१)


अर्थात् - हे कार्तिकेय ! असी और वरुणा के मध्यभाग में पांच कोश के परिमाण वाले क्षेत्र का महान् फल है। यहाँ देवता भी मृत्यु पाने की कामना करते हैं, अन्य सामान्यजनों की क्या बात करें। मणिकर्णिका, ज्ञानवापी, विष्णुपादोदक (गङ्गा) और पञ्चनद सरोवर में स्नान करने के बाद व्यक्ति पुनः माता का स्तनपान नहीं करता (उसका पुनर्जन्म नहीं होता है)। संयोगवश भी काशी में लोग भगवान् विश्वेश्वर का दर्शन कर लें तो जन्म और मृत्यु से छुटकारा देने वाली मुक्ति उनमें उत्पन्न हो जाती है (उनका मोक्ष हो जाता है)।


जैसा कि भगवान् शिव स्वयं बताते हैं - 


जलक्रीडां सदा कुर्यां ज्ञानवाप्यां सहोमया।यदम्बुपानमात्रेण ज्ञानं जायेत निर्मलम्॥

तज्जलक्रीडनस्थानं मम प्रीतिकरं महत्।अमुष्मिन्राजसदने जाड्यहृज्जलपूरितम्॥

तत्प्रासादपुरोभागे मम शृङ्गारमण्डपः। श्रीपीठं तद्धि विज्ञेयं निःश्रीकश्रीसमर्पणम्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ७९, श्लोक - ६८-७०)


अर्थात् - "जिसके जल को पीने मात्र से निर्मल ज्ञान उदय हो जाता है, उस ज्ञानवापी में मैं उमा (पार्वती) के साथ सदैव जलक्रीड़ा करता हूँ। मेरी जलक्रीड़ा का वह स्थान मुझे बहुत प्रसन्नता देता है। इसी राजमहल में जड़ता का हरण करने वाला जल से भरा वह स्थान है। उसके सामने मेरा शृंगारमण्डप है, जिसे निर्धनों को धन प्रदान करने वाला श्रीपीठ समझना चाहिये।


पद्मपुराण में भी ऐसे ही देवर्षि नारदजी ने एक ब्राह्मण और राक्षसियों का संवाद वर्णित किया है। राक्षसियों ने ब्राह्मण से प्रश्न किया कि उन्होंने कौन कौन से तीर्थों में भ्रमण किया है, तब ब्राह्मण ने उत्तर दिया - 


तत्र स्नानादिकं कर्म निशाचर्यः कृतं मया।ततः काशीमहं प्राप्तो राजधानीमुमापतेः॥

नत्वा विश्वेश्वरं देवं बिन्दुमाधवमेव च।स्नातं मणिकर्णिकायां ज्ञानवाप्याञ्च भक्तितः॥

त्रिरात्रिमुषितस्तत्र प्रयागं पुनरागमम्।

(पद्मपुराण, उत्तरखण्ड, अध्याय - २०८, श्लोक - ३६-३७)


अर्थात् - "हे राक्षसियों ! मेरे द्वारा (नानातीर्थों में) स्नान किया गया, फिर मैं उमापति महादेव की राजधानी काशी में आया। वहां भगवान् विश्वेश्वर और बिन्दुमाधव को प्रणाम करके मैंने भक्तिपूर्वक मणिकर्णिका एवं ज्ञानवापी में स्नान किया। फिर वहाँ तीन रात्रि व्यतीत करके मैं पुनः प्रयागराज आ गया।" 


इससे सिद्ध होता है कि ज्ञानवापी का अस्तित्व आदिकाल से है, पूर्वकाल में भी लोग ज्ञानवापी का महत्व जानते थे और नियमित शास्त्रोक्त विधि से उसका सेवन भी करते थे। काशी की गौरीयात्रा का वर्णन भी निम्न प्रमाण से देखें - 


अतः परं प्रवक्ष्यामि गौरीयात्रामनुत्तमाम्।शुक्लपक्षे तृतीयायां या यात्रा विश्ववृद्धिदा।॥

गोप्रेक्षतीर्थे सुस्नाय मुखनिर्मालिकां व्रजेत्।ज्येष्ठावाप्यां नरः स्नात्वा ज्येष्ठागौरीं समर्चयेत्॥

सौभाग्यगौरी सम्पूज्या ज्ञानवाप्यां कृतोदकैः।ततः शृङ्गारगौरीञ्च तत्रैव च कृतोदकैः॥

स्नात्वा विशालगङ्गायां विशालाक्षीं ततो व्रजेत्।सुस्नातो ललितातीर्थे ललितामर्चयेत्ततः॥

स्नात्वा भवानीतीर्थेऽथ भवानीं परिपूजयेत्।मङ्गला च ततोऽभ्यर्च्या बिन्दुतीर्थकृतोदकैः॥

ततो गच्छेन्महालक्ष्मीं स्थिरलक्ष्मीसमृद्धये।इमां यात्रां नरः कृत्वा क्षेत्रेऽस्मिन्मुक्तिजन्मनि॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - १००, श्लोक - ६७-७२)


अर्थात् - "अब मैं विश्व की वृद्धि करने वाली अत्यन्त उत्तम गौरीयात्रा को कहने जा रहा हूँ। शुक्लपक्ष की तृतीया को मुखनिर्मालिका में जाकर ज्येष्ठावापी में स्नान करके व्यक्ति ज्येष्ठागौरी का पूजन करे। फिर ज्ञानवापी में जाकर उसके जल से सौभाग्यगौरी की पूजा करनी चाहिए। वहीं पर उसी जल से शृंगारगौरी की पूजा भी करे। विशालगङ्गा में स्नान करके विशालाक्षी के पास जाये एवं ललितातीर्थ में विधिवत् स्नान करके ललितादेवी का पूजन करे। अब भवानीतीर्थ में स्नान करके भवानी की पूजा करे। उसके बाद बिन्दुतीर्थ के जल से मङ्गला की पूजा करनी चाहिए। फिर स्थिर लक्ष्मी की वृद्धि के लिए महालक्ष्मी के पास जाये। इस यात्रा को करके व्यक्ति इस क्षेत्र में इसी जन्म में मुक्ति को प्राप्त कर जाता है।


स्कन्दपुराण में वर्णित है -


आकाशात्तारकाल्लिङ्गं ज्योतीरूपमिहागतम्।ज्ञानवाप्याः पुरोभागे तल्लिङ्गं तारकेश्वरम्॥

तारकं ज्ञानमाप्येत तल्लिङ्गस्य समर्चनात्।ज्ञानवाप्यां नरः स्नात्वा तारकेशं विलोक्य च॥

कृतसन्ध्यादिनियमः परितर्प्य पितामहान्।धृतमौनव्रतो धीमान्यावल्लिङ्गविलोकनम्॥

मुच्यते सर्वपापेभ्यः पुण्यं प्राप्नोति शाश्वतम्।प्रान्ते च तारकं ज्ञानं यस्माज्ज्ञानाद्विमुच्यते॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ६९, श्लोक - ५३-५६)


श्लोकों का भाव यह है कि आकाशमण्डल से जो तारकलक्षणक ज्योतिःस्वरूप लिङ्ग आया, वह ज्ञानवापी के सामने वाले भाग में तारकेश्वर नाम से स्थित है। इस लिङ्ग की पूजा करने से व्यक्ति को तारने वाले ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति होती है। ज्ञानवापी में स्नान, तारकेश्वर भगवान् का दर्शन, सन्ध्या आदि नियम, पूर्वजों का तर्पण करके मौनव्रत को धारण करने वाला बुद्धिमान् जब तक लिङ्ग का दर्शन करता है, उतने में सभी पापों से मुक्त होकर शाश्वत पुण्य को प्राप्त करता है। अन्त में उद्धार करने वाले ज्ञान को प्राप्त करके उसी ज्ञान से मुक्त हो जाता है।


स्कन्दपुराण में महर्षि अगस्त्य के प्रश्न करने पर, कि देवता भी जिसकी प्रशंसा करते हैं, वह ज्ञानवापी क्या है, भगवान् स्कन्द उन्हें बताते हैं कि भगवान् ईशान रुद्र के द्वारा जलाभाव की स्थिति से व्यथित होकर अपने त्रिशूल से ज्ञानवापी का निर्माण करके किये गये सहस्रधारार्चन के फलस्वरूप भगवान् (विश्वनाथ) विश्वेश्वर ने उन्हें तपस्या से सन्तुष्ट होकर वरदान मांगने को कहा था। तब ईशानदेव ने कहा कि यह क्षेत्र आपके नाम से अद्वितीय हो। तब भगवान् विश्वेश्वर ने कहा कि तीनों लोकों में यह सर्वोत्तम शिवतीर्थ होगा। यहाँ मैं स्वयं ज्ञानवापी में जल का स्वरूप धारण करके निवास करूँगा जिसके सेवन से सभी पाप, कष्ट, रोग, अज्ञान आदि का नाश हो जायेगा। साथ ही भगवान् शिव ने गया, कुरुक्षेत्र, पुष्कर आदि तीर्थों की अपेक्षा ज्ञानवापी के जल की विशिष्टता भी बतायी। सम्बन्धित प्रमाण निम्न श्लोकों में विस्तार से देखे जा सकते हैं -


अगस्त्य उवाच

स्कन्द ज्ञानोदतीर्थस्य माहात्म्यं वद साम्प्रतम्।

ज्ञानवापीं प्रशंसन्ति यतः स्वर्गौकसोऽप्यलम्॥


स्कन्द उवाच

घटोद्भव महाप्राज्ञ शृणु पापप्रणोदिनीम्।ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं कथ्यमानां मयाधुना॥

अनादिसिद्धे संसारे पुरा देवयुगे मुने।प्राप्तः कुतश्चिदीशानश्चरन्स्वैरमितस्ततः॥

न वर्षन्ति यदाभ्राणि न प्रावर्तन्त निम्नगाः।जलाभिलाषो न यदा स्नानपानादि कर्मणि॥

क्षारस्वादूदयोरेव यदासीज्जलदर्शनम्।पृथिव्यां नरसञ्चारे वर्त्तमाने क्वचित्क्वचित्॥

निर्वाणकमलाक्षेत्रं श्रीमदानन्दकाननम्।महाश्मशानं सर्वेषां बीजानां परमूषरम्॥

महाशयनसुप्तानां जन्तूनां प्रतिबोधकम्।संसारसागरावर्तपतज्जन्तुतरण्डकम्॥

यातायातातिसङ्खिन्न जन्तुविश्राममण्डपम्।अनेकजन्मगुणितकर्मसूत्रच्छिदाक्षुरम्॥

सच्चिदानन्दनिलयं परब्रह्मरसायनम्।सुखसन्तानजनकं मोक्षसाधनसिद्धिदम्॥

प्रविश्य क्षेत्रमेतत्स ईशानो जटिलस्तदा।लसत्त्रिशूलविमलरश्मिजालसमाकुलः॥

×××××××××××

अस्येशानस्य तल्लिङ्गं दृष्ट्वेच्छेत्यभवत्तदा।स्नपयामि महल्लिङ्गं कलशैः शीतलैर्जलैः॥

चखान च त्रिशूलेन दक्षिणाशोपकण्ठतः।कुण्डं प्रचण्डवेगेन रुद्रो रुद्रवपुर्धरः॥

पृथिव्यावरणाम्भांसि निष्क्रान्तानि तदा मुने।भूप्रमाणाद्दशगुणैर्यैरियं वसुधावृता॥

तैर्जलैः स्नापयाञ्चक्रे त्वत्स्पृष्टैरन्यदेहिभिः।तुषारैर्जाड्यविधुरैर्जञ्जपूकौघहारिभिः॥

सन्मनोभिरिवात्यच्छैरनच्छैर्व्योमवर्त्मवत्।ज्योत्स्नावदुज्ज्वलच्छायैः पावनैः शम्भुनामवत्.

पीयूषवत्स्वादुतरैः सुखस्पर्शैर्गवाङ्गगवत्।निष्पापधीवद्गम्भीरैस्तरलैः पापिशर्मवत्॥

विजिताब्जमहागन्धैः पाटलामोदमोदिभिः।अदृष्टपूर्वलोकानां मनोनयनहारिभिः॥

××××××××××××

सहस्रधारैः कलशैः स ईशानो घटोद्भव।सहस्रकृत्वः स्नपयामास संहृष्टमानसः॥

ततः प्रसन्नो भगवान्विश्वात्मा विश्वलोचनः।तमुवाच तदेशानं रुद्रं रुद्रवपुर्धरम्॥

तव प्रसन्नोस्मीशान कर्मणानेन सुव्रत।गुरुणानन्यपूर्वेण ममातिप्रीतिकारिणा॥

ततस्त्वं जटिलेशान वरं ब्रूहि तपोधन।अदेयं न तवास्त्यद्य महोद्यमपरायण॥


ईशान उवाच

यदि प्रसन्नो देवेश वरयोग्योस्म्यहं यदि।

तदेतदतुलं तीर्थं तव नाम्नास्तु शङ्कर॥


विश्वेश्वर उवाच

त्रिलोक्यां यानि तीर्थानि भूर्भुवःस्वःस्थितान्यपि।तेभ्योऽखिलेभ्यस्तीर्थेभ्यः शिवतीर्थमिदं परम्॥

शिवज्ञानमिति ब्रूयुः शिवशब्दार्थचिन्तकाः।तच्च ज्ञानं द्रवीभूतमिह मे महिमोदयात्॥

अतो ज्ञानोद नामैतत्तीर्थं त्रैलोक्यविश्रुतम्।अस्य दर्शनमात्रेण सर्वपापैः प्रमुच्यते॥

ज्ञानोदतीर्थसंस्पर्शादश्वमेधफलं लभेत्।स्पर्शनाचमनाभ्याञ्च राजसूयाश्वमेधयोः॥

फल्गुतीर्थे नरः स्नात्वा सन्तर्प्य च पितामहान्।यत्फलं समवाप्नोति तदत्र श्राद्धकर्मणा॥

गुरुपुष्यासिताष्टम्यां व्यतीपातो यदा भवेत्।तदात्र श्राद्धकरणाद्गयाकोटिगुणं भवेत्॥

यत्फलं समवाप्नोति पितॄन्सन्तर्प्य पुष्करे।तत्फलं कोटिगुणितं ज्ञानतीर्थे तिलोदकैः॥

सन्निहत्यां कुरुक्षेत्रे तमोग्रस्ते विवस्वति।यत्फलं पिण्डदानेन तज्ज्ञानोदे दिने दिने॥

पिण्डनिर्वपणं येषां ज्ञानतीर्थे सुतैः कृतम्।मोदन्ते शिवलोके ते यावदाभूतसम्प्लवम्॥

अष्टम्यां च चतुर्दश्यामुपवासी नरोत्तमः।प्रातः स्नात्वाथ पीताम्भस्त्वन्तर्लिङ्गगमयो भवेत्॥

एकादश्यामुपोष्यात्र प्राश्नाति चुलुकत्रयम्।हृदये तस्य जायन्ते त्रीणि लिङ्गान्यसंशयम्॥

ईशानतीर्थे यः स्नात्वा विशेषात्सोमवासरे।सन्तर्प्य देवर्षि पितॄन्दत्त्वा दानं स्वशक्तितः॥

ततः समर्च्य श्रीलिङ्गं महासम्भारविस्तरैः।अत्रापि दत्त्वा नानार्थान्कृतकृत्योभवेन्नरः॥

उपास्य संध्यां ज्ञानोदे यत्पापं काललोपजम्।क्षणेन तदपाकृत्य ज्ञानवाञ्जायते द्विजः॥

शिवतीर्थमिदं प्रोक्तं ज्ञानतीर्थमिदं शुभम्।तारकाख्यमिदं तीर्थं मोक्षतीर्थमिदं ध्रुवम्॥

स्मरणादपि पापौघो ज्ञानोदस्य क्षयेद्ध्रुवम्।दर्शनात्स्पर्शनात्स्नानात्पानाद्धर्मादिसम्भवः॥डाकिनीशाकिनीभूतप्रेतवेतालराक्षसाः।ग्रहाः कूष्माण्डझोटिङ्गाः कालकर्णी शिशुग्रहाः

ज्वरापस्मारविस्फोटद्वितीयकचतुर्थकाः।

सर्वे प्रशममायान्ति शिवतीर्थजलेक्षणात्॥

ज्ञानोदतीर्थपानीयैर्लिङ्गं यः स्नापयेत्सुधीः।

सर्वतीर्थोदकैस्तेन ध्रुवं संस्नापितं भवेत्॥

ज्ञानरूपोहमेवात्र द्रवमूर्तिं विधाय च।

जाड्यविध्वंसनं कुर्यां कुर्यां ज्ञानोपदेशनम्॥

इति दत्त्वा वराञ्छम्भुस्तत्रैवान्तरधीयत।

कृतकृत्यमिवात्मानं सोप्यमंस्तत्रिशूलभृत्॥

ईशानो जटिलो रुद्रस्तत्प्राश्य परमोदकम्।

अवाप्तवान्परं ज्ञानं येन निर्वृतिमाप्तवान्॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ३३, श्लोक - ०१-५२ के मध्य से)


भगवान् ईशान रुद्र, महादेव के पांचवें वक्त्रांश हैं। वे पांचवें सिंहासन के अधिपति भी हैं। अतः ज्ञानसिंहासनसीन भगवान् ईशान ने काशी में ज्ञानमण्डप के समीप ज्ञानवापी का निर्माण करके अज्ञान को दूर करने की कृपा की है, ऐसा परम्परा से ज्ञात होता है। इसके अतिरिक्त कलावती का उपाख्यान भी द्रष्टव्य है। पण्डित हरिस्वामी और उनकी पत्नी प्रियंवदा की पुत्री सुशीला का अपहरण करने की चेष्टा एक विद्याधर ने की थी जिसके बाद एक राक्षस से हुए युद्ध में उसका प्राणान्त हो गया। कालान्तर में वह कन्या कर्णाटक की राजकुमारी बनी और बाद में जब काशी आयी तो भगवान् विश्वेश्वर के दक्षिणभाग में स्थित दण्डनायक के द्वारा रक्षित ज्ञानवापी के जल का सेवन करने से उसे अपने पूर्वजन्म का ज्ञान हुआ और फिर तत्त्वज्ञान को प्राप्त करके वह मुक्त हो गयी। भगवान् स्कन्द बताते हैं कि यह कोई कल्पना नहीं, अपितु हमारे देश का प्राचीन इतिहास है। यह प्रसङ्ग बहुत बड़ा है अतः आवश्यक श्लोकों का दर्शन कराया जाता है - 


स्कन्द उवाच

कलशोद्भव चित्रार्थमितिहासं पुरातनम्।

ज्ञानवाप्यां हि यद्वृत्तं तदाख्यामि निशामय॥

×××××××××

कलावती चित्रपटीं पश्यन्तीत्थं मुहुर्मुहुः।ज्ञानवापीं ददर्शाथ श्रीविश्वेश्वरदक्षिणे॥

यदम्बु सततं रक्षेद्दुर्वृत्ताद्दण्डनायकः।सम्भ्रमो विभ्रमश्चासौ दत्त्वा भ्रान्तिं गरीयसीम्॥

योऽष्टमूर्तिर्महादेवः पुराणे परिपठ्यते।तस्यैषाम्बुमयी मूर्तिर्ज्ञानदा ज्ञानवापिका॥

नेत्रयोरतिथीकृत्य ज्ञानवापी कलावती।कदम्बकुसुमाकारां बभार क्षणतस्तनुम्॥

×××××××××××××

कलावत्युवाच

एतस्माज्जन्मनः पूर्वमहं ब्राह्मणकन्यका॥उपविश्वेश्वरं काश्यां ज्ञानवाप्यां रमे मुदा।

जनको मे हरिस्वामी जनयित्री प्रियंवदा॥

×××××××××××××

कर्णाटनृपतेः कन्या बभूवाहं कलावती।इति ज्ञानं ममोद्भूतं ज्ञानवापीक्षणात्क्षणात्।

इति तस्या वचः श्रुत्वा सापि बुद्धिशरीरिणी॥ताश्च तत्परिचारिण्यः प्रहृष्टास्यास्तदाऽभवन्।

प्रोचुस्तां प्रणिपत्याथ पुण्यशीलां कलावतीम्॥अहो कथं हि सा लभ्या यत्प्रभावोयमीदृशः।

धिग्जन्म तेषां मर्त्येऽस्मिन्यैर्नैक्षि ज्ञानवापिका॥

×××××××××××

तदा प्रभृति लोकेऽत्र ज्ञानवापी विशिष्यते।सर्वेभ्यस्तीर्थर्मुख्येभ्यः प्रत्यक्षज्ञानदा मुने॥

सर्वज्ञानमयी चैषा सर्वलिङ्गमयी शुभा।साक्षाच्छिवमयी मूर्तिर्ज्ञानकृज्ज्ञानवापिका॥

सन्ति तीर्थान्यनेकानि सद्यः शुचिकराण्यपि।परन्तु ज्ञानवाप्या हि कलां नार्हन्ति षोडशीम्॥

ज्ञानवाप्याः समुत्पत्तिं यः श्रोष्यति समाहितः।न तस्य ज्ञानविभ्रंशो मरणे जायते क्वचित्॥

महाख्यानमिदं पुण्यं महापातकनाशनम्।महादेवस्य गौर्याश्च महाप्रीतिविवर्धनम्॥

पठित्वा पाठयित्वा वा श्रुत्वा वा श्रद्धयान्वितः।ज्ञानवाप्याः शुभाख्यानं शिवलोके महीयते॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ३४ एवं ३५ से उद्धृत)


भगवान् नारायण के ज्ञानावतार वेदव्यासजी के काल में भी ज्ञानवापी यथावत् थी। उसके समक्ष भगवान् की प्रसन्नता के लिये वेदव्यास जी ने भजन, कीर्तन, नृत्य आदि भी किया है। वेदव्यासजी ने स्वयं उसका वर्णन स्कन्दपुराण में किया है -


व्यासो विश्वेशभवनं समायातः सुहृष्टवत्।ज्ञानवापीपुरोभागे महाभागवतैः सह॥

विराजमानसत्कण्ठस्तुलसीवरदामभिः।स्वयं तालधरो जातः स्वयं जातः सुनर्तकः॥

वेणुवादनतत्त्वज्ञः स्वयं श्रुतिधरोऽभवत्।नृत्यं परिसमाप्येत्थं व्यासः सत्यवतीसुतः॥

(स्कन्दपुराण, काशीखण्ड, अध्याय - ९५)


ज्ञानवापी शब्द और उसका वर्णन सनातन धर्म के ग्रन्थों में ही मिलता है। यह सामान्य बुद्धि का व्यक्ति भी देख कर समझ सकता है कि मन्दिर का विध्वंस करके ऊपर से मस्ज़िद का आवरण चढ़ा दिया गया है। सनातन धर्म से इतर मतों की किताबों में ज्ञानवापी शब्द या उसका वर्णन है ही नहीं। कितनी हास्यास्पद बात है कि लोग दावा करते हैं कि मूर्तिभञ्जक विचारधारा के आक्रान्ताओं ने पहले सनातनी वास्तुशैली में निर्माण प्रारम्भ किया और उसके बाद गुम्बद लगा कर उसका नाम संस्कृत में ज्ञानवापी रख दिया, जिस शब्द का कोई सम्बन्ध उनके मज़हब से है ही नहीं। ज्ञानं महेश्वरादिच्छेत् ... ज्ञानसिंहासन की नगरी काशी में भगवान् विश्वनाथ के ज्ञानमण्डप के पास विश्व को ज्ञान को प्रदान करने के लिये ज्ञानवापी की उपयोगिता शास्त्रज्ञों व इतिहासकारों से छिपी हुई नहीं है। फिर भी कोई भय, लोभ, हठ या अज्ञान से सत्य को स्वीकार नहीं करना चाहता है तो इसमें सत्य का कोई दोष नहीं है - नोलूकः सूर्यमीक्षते॥



Friday, November 6, 2020

संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी! खंड 6 / brahm gyan kaya khand 6

संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी! खंड 6

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"



28. प्रश्न है जब हर एक चीज़ पहले से ही नियत है कि वही होना है जो लिखा है तब हमारी मुक्ति किस तरह सुनिश्चित हो सकती है यदि पहले से ही मुक्ति लिखी है तो अपने आप ही उक्त कर्म भी होंगे ही यदि मुक्ति नही लिखी है तो हम चाहते हुए भी कर्म नही कर सकते है अतः इसमे प्रकाश डालने की कृपा करें?? 



कर्म मानव से बंधे हुए हैं ! और उन्ही कर्मो का शुभ अशुभ फल इंसान को भुगतने होते है ! यदि आप सद्कर्मो को अपनाते है तो मुक्ति होनी ही है ! दुर्गुण अपनाते हैं तो मुक्ति तो होती है लेकिन कठिनाई से ! क्योंकि जीवन चक्र कभी रुकता नही है , मरकर पुनर्जन्म लेना यही प्रकृति का नियम है ! लेकिन मन चंचल होता है वह किसी के भी वशीभूत नही है ! इसलिए व्यक्ति चाहकर भी सद्गुणों से दूर हो जाता है !


मनुष्य जब जन्म लेता है तो अपने साथ दो चीजें लेकर आता है पहला प्रारब्ध दूसरा भाग्य। प्रारंभ लभ्यते स:  प्रारब्ध।
मनुष्य अधिक से अधिक 8 वर्ष की आयु तक जो कुछ भी करता है वह अपने प्रारब्ध के अनुसार भोगता है।
उसमें कोई कर्म फल नहीं पैदा होता क्योंकि उसकी अपनी बुद्धि नहीं होती है वह प्रेरित बुद्धि होती है।
दूसरा होता है भाग्य जो मनुष्य स्वयं बना सकता है आप जिस तरीके का बीज बोयेंगे उसी तरीके का पेड़ पैदा होगा।


सृष्टि में ब्रह्म ने एक कंप्यूटर प्रोग्रामिंग कर रखी है जैसा आप कर्म करेंगे वैसे ही फल आपको उपस्थित होकर भोगने पड़ेंगे और यदि आप इस जन्म में उसको नहीं हो पाए तो अगले जन्म में वह प्रारब्ध बनकर उपस्थित होंगे।
इसी कारण कहते हैं कि सब विधना के हाथ। क्योंकि यदि आप गलत काम करके आए हैं तो दंड तो आपको निश्चित है उसी बात यदि आप पुण्य कर्म साधनाएं करके आए हैं उसका फल भी निश्चित है।


इसका कारण यह है मानव का शरीर एक भोग योनि के साथ कर्म करता है और कर्म फल भोगता है कर्म करने की शक्ति सिर्फ और सिर्फ मानव योनि में है।
इसी कारण मुक्ति भी केवल मानव के जन्म से ही संभव है।


29.क्या ये सही है कि हमारी मौत का कारण विधाता पहले ही लिख देता है ??
यह बहुत ही सामान्य किंतु गहन प्रश्न है क्योंकि इसके विषय में कहीं पर भी स्पष्ट नहीं लिखा है।



मेरे अनुसार यदि मनुष्य पूर्व जन्म के प्रारब्ध के अनुसार ही कर्म करता रहता है तो वह एक निश्चित अवधि में अपने सारे कर्म फल भोग कर देह को त्याग कर सकता है और एक गणितीय गणना के अनुसार वह कितने दिनों में संस्कार विहीन होगा और उसके पश्चात निर्वाण प्राप्त करेगा।



लेकिन होता क्या है मनुष्य अपने कर्म जब 8 वर्ष के बाद आरंभ करता है तो वह फिर कर्मफल पैदा कर देते हैं और वह कर्म फल अच्छे भी हो सकते हैं बुरे भी हो सकते हैं जिस कारण उसकी आयु में बढ़ोतरी या घटोतरी हो सकती है।
कभी-कभी दुर्घटनावश यदि किसी की मृत्यु हो जाती है तो भी उसको इतने वर्षों तक किसी विशेष योनि में भटकना पड़ता है।
मतलब यह हुआ आपके कर्म आप के फल को परिवर्तित करते हैं और फिर वह परिवर्तन आपकी मृत्यु को भी परिवर्तित कर सकता है।
अधिकतर देखा गया है कि जो ज्ञानी पुरुष पैदा होते हैं वह 5 साल 7 साल की आयु पर ही अपनी प्रतिभा को दिखाने लगते हैं और बहुत ही कम आयु में देह को त्याग देते हैं जैसे संत  ज्ञानेश्वर 21 वर्ष शंकराचार्य 21 वर्ष विवेकानंद 40 वर्ष कुछ ऐसे ही समझिए।
जितनी लंबी आयु मतलब उतना अधिक आपके ऊपर कर्मफल के संस्कारों का बोझ जिसको काटने के लिए आपको इस मानव देह में लंबे समय तक रहना है।




30. क्या तुरंत मुक्ति सम्भव है यदि मुक्ति सम्भव है तो हम मुक्त हुए या नही इसको किस भांति बताया जा सकता है?? 



अध्यात्म में मनुष्य की पहली पहचान है कि वह कितना अधिक धैर्य धारण कर सकता है।
क्षेत्र में कोई भी कार्य तुरंत नहीं होता है।


हां यदि पुण्य कर्म बहुत अधिक है तो कोई अवतारी पुरुष आशीर्वाद से आपका काम बना दिया लेकिन इसमें भी उसका तप  और उसका सत्य नष्ट होता है।


मेरा तो मानना है कि आप भटके बिल्कुल नहीं यदि आपके गुरु नहीं है तो आप किसी गुरु घंटाल के चक्कर में ना पड़े आप अपने इष्ट का सतत निरंतर निर्बाध मंत्र जप करते रहे श्रद्धा के साथ करते रहे एक ना एक दिन यह मंत्र जब आपको गुरु से लेकर ज्ञान तक भौतिक सुखों से लेकर मोक्ष तक स्वयं ले जाने की क्षमता रखता है।


31. मैं चाहता हु तुरंत वाला आप बताइए कैसे होगा कि बस मैं मान लू की मैं मुक्त हु ओर हो गया अब क्या क्या परिवर्तन होने चाहिए मेरे में या क्या स्थिति होनी चाहिए?? 



देखिए पतंजलि महाराज ने जो वाहिक अंग बताए हैं वे सभी आध्यात्मिक मार्ग हेतु एक से जैसे यम दूसरा नियम।
नियम में आप अपने प्रति क्या व्यवहार करते हैं उसमें एक शब्द आता है स्वाध्याय।
स्वाध्याय के द्वारा आप अपने अंदर आने वाले परिवर्तनों को देख सकते हैं निरीक्षण कर सकते है और उसके अनुसार क्या सुधार करना है यह आप जान सकते इसके अलावा क्या आपके अंदर यम और नियम के जो पांच उप अंग हैं वह धीरे-धीरे प्रविष्ट हो गए कि नहीं यदि यह सब बदलाव आ रहे हैं तो आप सही मार्ग पर जा रहे हैं।
यदि आपके अंदर धीरे-धीरे समत्व का भाव आ रहा है यदि आपके अंदर स्थिरबुद्धि आ रही है आप स्थितप्रज्ञ हो रहे हैं तो निश्चित रूप से आप उन्नति कर रहे हैं।
यदि आपके अंदर निष्काम कर्म की भावना आ रही है और आप अपने कार्य को कुशलतापूर्वक निभा रहे हैं तो निश्चित रूप से आप सही मार्ग पर हैं।


32. आप वैज्ञानिक हैं कृपया मुझे बताइये की आजादी के समय हमारे देश की औसत आयु मात्र 32 वर्ष थी जो आज बढ़ कर 69 वर्ष हो गई है। तो क्या पहले के लोग खराब थे और अब अच्छे हो गए हैं। अमेरिका वगैरा में 87-88 वरष है। तो क्या उनके कर्म बेहतर हैं?? 


यह बिल्कुल सही बात है कारण पहले अकाल मौत बहुत होती थी अभी विज्ञान के द्वारा हमने अपनी भौतिक आयु को बढ़ा लिया है लेकिन मानसिक रूप से हम बहुत अधिक बीमार हो चुके हैं।

हमारे वहां यजुर्वेद भी आयुर्वेद की उत्पत्ति करता है मतलब मनुष्य अपनी आयु को भी बढ़ा सकता है भौतिक रूप से भी और आध्यात्मिक रूप से भी।


।। येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्मः । ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।।

अर्थ : जिसके पास विद्या, तप, ज्ञान, शील, गुण और धर्म में से कुछ नहीं वह मनुष्य ऐसा जीवन व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग।



यहां पर दो चीजें आती है सार्थक और निरर्थक।


33. यदि मान लेते है कि 40 की आयु में मृत्यु होने का तय है व इस बात को नही जानते है तो क्या इंतज़ार करना चाहिए भैया 55 की उम्र तक का बताइए

अगले अंक की प्रतीक्षा !!


👉👉संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी!!  खंड 2👈👈

👉👉संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी!! खंड 4👈👈

जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥



मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
 
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या) 
जय गुरुदेव जय महाकाली।

आप चाहें तो ब्लाग को सबक्राइब / फालो कर दें। जिससे आपको जब कभी लेख डालूं तो सूचना मिलती रहे।

 

Monday, September 2, 2019

क्यों होता है पुनर्जन्म

क्यों होता है पुनर्जन्म

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,



हिन्दु धर्म में पुनर्जन्म को सत्य माना गया है। हिन्दु धर्म के अनुसार आत्मा कैसे जन्म लेती है इसके बारे में भी स्पष्ट तरीके से बताया गया है। हिन्दु धर्म में कौन-सी आत्मा भटकती है और फिर कब जन्म लेती है इसके बारे में भी विस्तार से बताया गया है। यह भी कि कौन-सी आत्मा कुछ काल तक पितृलोक, स्वर्गलोक, नरक लोग आदि लोकों में रहकर पुन:कब धरती पर लौटेगी। शास्त्रों के अनुसार आत्मा तब पुनर्जन्म लेती है।

-जब कभी-भी किसी की धोके से मृत्यु की जाती है या दुश्मनी के लिए किसी मारा जाता है तो आत्मा बदला लेने के लिए पुनर्जन्म लेती है।

- कभी-कभी किसी व्यक्ति द्वारा अत्यधिक पुण्य कर्म किए जाते हैं और उसकी मृत्यु हो जाती है, तब उन पुण्य कर्मों का फल भोगने के लिए आत्मा पुन: जन्म लेती है।

- अपूर्ण साधना को पूर्ण करने के लिए।

-जब किसी की अकाल मृत्यु हो जाती है तो आत्मा पुनर्जन्म लेती है।

- भगवान किसी विशेष कार्य के लिए महात्माओं और दिव्य पुरुषों की आत्माओं को पुन: जन्म लेने की आज्ञा देते हैं।

- बदला चुकाने के लिए।

- संसार में किए गए पुण्य कर्म के प्रभाव से व्यक्ति की आत्मा स्वर्ग में सुख भोगती है और जब तक पुण्य कर्मों का प्रभाव रहता है, वह आत्मा दैवीय सुख प्राप्त करती है। जब पुण्य कर्मों का प्रभाव खत्म हो जाता है।


मृत्यु के बाद आत्मा कब शरीर धारण करता है, इसका ठीक-ठीक ज्ञान तो परमेश्वर को है। वैसे इस विषय में कुछ महापुरूषों को सीद्ध होकर स्थूल शरीर त्याग कर सूक्ष्म या कारन शरीर में रहते है जैसे स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज, महाअवतार बाबा, लाहिडी महाशय या महऋषि अमर जैसे बिरले जो ईश से सायुज्यता ही प्राप्त कर लेतए हैं। किंतु वे बोल्ते नहीं सब ईश को समर्पित कर देते हैं।

वैसे कुछ ज्ञान हमें शास्त्रों से प्राप्त होता है वैसा यहाँ लिखते हैं। बृहदारण्यक-उपनिषद् में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद् ने कहा-


तद्यथा तृणजलायुका तृणस्यान्तं गत्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्यात्मानम् उपसँहरत्येवमेवायमात्मेदं शरीरं निहत्याऽविद्यां गमयित्वाऽन्यमाक्रममाक्रम्य्  आत्मानमुपसंहरति।। – बृ. ४.४.३

जैसे तृण जलायुका (सुंडी=कोई कीड़ा विशेष) तिनके के अन्त पर पहुँच कर, दूसरे तिनके को सहारे के लिए पकड़ लेती है अथवा पकड़ कर अपने आपको खींच लेती है, इसी प्रकार यह आत्मा इस शरीररूपी तिनके को परे फेंक कर अविद्या को दूर कर, दूसरे शरीर रूपी तिनके का सहारा लेकर अपने आपको खींच लेता है।


यहाँ उपनिषद् संकेत कर रहा है कि मृत्यु के बाद दूसरा शरीर प्राप्त होने में इतना ही समय लगता है, जितना कि एक कीड़ा एक तिनके से दूसरे तिनके पर जाता है अर्थात् दूसरा शरीर प्राप्त होने में कुछ ही क्षण लगते हैं, कुछ ही क्षणों में आत्मा दूसरे शरीर में प्रवेश कर जाता है।


आत्मा कितने दिनों में दूसरा शरीर धारण कर लेता है, यहाँ शास्त्र दिनों की बात नहीं कर रहा कुछ क्षण की ही बात कह रहा है।

मृत्यु के विषय में उपनिषद् ने कुछ विस्तार से बताया है।
स यत्रायमात्माऽबल्यं न्येत्यसंमोहमिव न्येत्यथैनमेते प्राणा अभिसमायन्ति स एतास्तेजोमात्राः समभ्याददानो हृदयमेवान्ववक्रामति स यत्रैष चाक्षुषः पुरुषः पराङ् पर्यावर्ततेऽथारूपज्ञो भवति।। – बृ. उ.४.४.१


अर्थात् जब मनुष्य अन्त समय में निर्बलता से मूर्छित-सा हो जाता है, तब आत्मा की चेतना शक्ति जो समस्त बाहर और भीतर की इन्द्रियों में फैली हुई रहती है, उसे सिकोड़ती हुई हृदय में पहुँचती है, जहाँ वह उसकी समस्त शक्ति इकट्ठी हो जाती है। इन शक्तियों के सिकोड़ लेने का इन्द्रियों पर क्या प्रभाव पड़ता है, इसका वर्णन करते हैं कि जब आँख से वह चेतनामय शक्ति जिसे यहाँ पर चाक्षुष पुरुष कहा है, वह निकल जाती तब आँखें ज्योति रहित हो जाती है और मनुष्य उस मृत्यु समय किसी को देखने अथवा पहचानने में अयोग्य हो जाता है।



एकीभवति न पश्यतीत्याहुरेकी भवति, न जिघ्रतीत्याहुरेकी भवति, न रसयत इत्याहुरेकी भवति, न वदतीत्याहुरेकी भवति, न शृणोतीत्याहुरेकी भवति, न मनुत इत्याहुरेकी भवति, न स्पृशतीत्याहुरेकी भवति, न विजानातीत्याहुस्तस्य हैतस्य हृदयस्याग्रं प्रद्योतते तेन प्रद्योतेनैष आत्मा निष्क्रामति चक्षुष्टो वा मूर्ध्नो वाऽन्येभ्यो वा शरीरदेशेभ्यस्तमुत्क्रामन्तं प्राणोऽनूत्क्रामति प्राणमनूत्क्रामन्तं सर्वे प्राणा अनूत्क्रामन्ति सविज्ञानो भवति, सविज्ञानमेवान्ववक्रामति तं विद्याकर्मणी समन्वारभेते पूर्वप्रज्ञा च।। – बृ.उ. ४.४.२



अर्थात् जब वह चेतनामय शक्ति आँख, नाक,जिह्वा, वाणी, श्रोत्र, मन और त्वचा आदि से निकलकर आत्मा में समाविष्ट हो जाती है, तो ऐसे मरने वाले व्यक्ति के पास बैठे हुए लोग कहते हैं कि अब वह यह नहीं देखता, नहीं सूँघता इत्यादि।


इस प्रकार इन समस्त शक्तियों को लेकर यह जीव हृदय में पहुँचता है और जब हृदय को छोड़ना चाहता है तो आत्मा की ज्योति से हृदय का अग्रभाग प्रकाशित हो उठता है। तब हृदय से भी उस ज्योति चेतना की शक्ति को लेकर, उसके साथ हृदय से निकल जाता है। हृदय से निकलकर वह जीवन शरीर के किस भाग में से निकला करता है, इस सम्बन्ध में कहते है कि वह आँख, मूर्धा अथवा शरीर के अन्य भागों-कान, नाक और मुँह आदि किसी एक स्थान से निकला करता है।


इस प्रकार शरीर से निकलने वाले जीव के साथ प्राण और समस्त इन्द्रियाँ भी निकल जाया करती हैं। जीव मरते समय ‘सविज्ञान’ हो जाता है अर्थात् जीवन का सारा खेल इसके सामने आ जाता है। इस प्रकार निकलने वाले जीव के साथ उसका उपार्जित ज्ञान, उसके किये कर्म और पिछले जन्मों के संस्कार, वासना और स्मृति जाया करती है।



इस प्रकार से उपनिषद् ने मृत्यु का वर्णन किया है। अर्थात् जिस शरीर में जीव रह रहा था उस शरीर से पृथक् होना मृत्यु है। उस मृत्यु समय में जीव के साथ उसका सूक्ष्म शरीर भी रहता, सूक्ष्म शरीर भी निकलता है।


इसका उत्तर है जिन-जिन योनियों के कर्म जीव के साथ होते हैं उन-उन योनियों में जीव जाता है। यह वैदिक सिद्धान्त है, यही सिद्धान्त युक्ति तर्क से भी सिद्ध है। इस वेद, शास्त्र, युक्ति, तर्क से सिद्ध सिद्धान्त को भारत में एक सम्प्रदाय रूप में उभर रहा समूह, जो दिखने में हिन्दू किन्तु आदतों से ईसाई, वेदशास्त्र, इतिहास का घोर शत्रु ब्रह्माकुमारी नाम का संगठन है। वह इस शास्त्र प्रतिपादित सिद्धान्त को न मान यह कहता है कि मनुष्य की आत्मा सदा मनुष्य का ही जन्म लेता है, इसी प्रकार अन्य का आत्मा अन्य शरीर में जन्म लेता है। ये ब्रह्माकुमारी समूह यह कहते हुए पूरे कर्म फल सिद्धान्त को ताक पर रख देता है। यह भूल जाता है कि जिसने घोर पाप कर्म किये हैं वह इन पाप कर्मों का फल इस मनुष्य शरीर में भोग ही नहीं सकता, इन पाप कर्मों को भोगने के लिए जीव को अन्य शरीरों में जाना पड़ता है। वेद कहता है- असूर्या नाम ते लोका अन्धेन तमसावृताः। ताँऽस्ते प्रेत्यापि गच्छन्ति ये के चात्महनो जनाः।। – यजु. ४०.३



इस मन्त्र का भाव यही है कि जो आत्मघाती=घोर पाप कर्म करने वाले जन है वे मरकर घोर अन्धकार युक्त=दुःखयुक्त तिर्यक योनियों को प्राप्त होते हैं। ऐसे-ऐसे वेद के अनेकों मन्त्र हैं जो इस प्रकार के कर्मफल को दर्शाते हैं। किन्तु इन ब्रह्माकुमारी वालों को वेद शास्त्र से कोई लेना-देना नहीं है। ये तो अपनी निराधार काल्पनिक वाग्जाल व भौतिक ऐश्वर्य के द्वारा भोले लोगों को अपने जाल में फँसा अपनी संख्या बढ़ाने में लगे हैं।



एक और पहलू यह है कि यदि मृत्यु के समय आपके दिमाग में कोई विचार है तो वह आपके अगले जन्म की प्रकृति का हिस्सा बन जाता है। इसलिए हमें किसी की मृत्यु की प्रक्रिया के समय शांति और खुशहाली का माहौल बनाना चाहिए क्योंकि मरने वाले के दिमाग और भावनाओं में जो भी चीज प्रधान होती है, वह उनके भावी जन्मों की विशेषता बन जाती है।


इसी वजह से इस संस्कृति में हमेशा से यह कहा गया है कि आपको अपने परिवार के बीच नहीं मरना चाहिए। लोग अपनी मृत्यु के समय वन चले जाते थे, जिसे वानप्रस्थ कहा गया है। राजा धृतराष्ट्र, उनकी रानी गांधारी और कुंती भी कुरुक्षेत्र युद्ध के बाद वन चले गए थे। उनके साथ सहायक के रूप में सिर्फ संजय थे। वे सब बूढ़े हो चुके थे इसलिए वे महल में रहने की बजाय मरने के लिए वन चले गए। हालांकि धृतराष्ट्र नेत्रहीन और कई रूपों में मूर्ख थे, मगर फिर भी उनमें इतनी जागरूकता थी, जो आजकल दुनिया में देखने को नहीं मिलती। कुंती ने अपने जीवन में बहुत मुश्किलें झेली थीं। अब उसके बच्चे राजा बन चुके थे, तो वह अब महलों में आनंद से रह सकती थी, मगर उसने भी वन में जाकर शरीर छोडऩे का फैसला किया।

वे वन में चले गए और वहां एक दुर्गम पहाड़ी के ऊपर चढऩे लगे। एक जगह जंगल में आग लगी हुई थी। वे लोग बूढ़े थे, इसलिए न तो भाग सकते थे, न ही जंगल की आग से बच सकते थे, तो उन्होंने खुद को अग्नि को समर्पित करने का फैसला किया। धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, 'तुमने अब तक मेरी बहुत सेवा की, मगर तुम्हारी आयु अभी कम है, तुम वापस लौट जाओ। हम तीनों खुद को अग्नि को समर्पित कर देंगे।’ संजय ने उन्हें छोड़कर जाने से इनकार कर दिया और चारो जंगल की आग में जल गए।


जब आप परिवार के बीच मरते हैं, तो आप जुड़ाव की भावना को मन में लेकर मरेंगे जो भविष्य में आपके लिए खुशहाली नहीं लाएगी। आपको पता ही होगा कि हमारे देश में आज भी लोग मरने के लिए काशी जाते हैं, क्योंकि वह एक पवित्र जगह है। वे शिव की कृपा की छाया में मरना चाहते हैं। वे नहीं चाहते कि उनकी मृत्यु के समय उनका परिवार अपनी भावनाएं उनके सामने प्रदर्शित करे।

मृत्यु एकमात्र ऐसी चीज है, जो जीवन में निश्चित है। अगर आपने अपना जीवन अच्छी तरह जिया है, तो मृत्यु कोई बुरी चीज नहीं है। यदि आपने हर पल हिचक, भय, नफरत, और गुस्से के बीच जीवन बिताया है, तो इसका मतलब है कि आपने कभी जीवन नहीं जिया। मृत्यु के समय, अगर आप जीना चाहते हैं तो यह कोई अच्छी बात नहीं है। आखिर, मृत्यु है क्या? आप शरीर को छोड़ रहे हैं। यह शरीर एक ऋण है जो आपने धरती मां से लिया है।



मान लीजिए, आपने बैंक से एक करोड़ रुपये का ऋण लिया और अगले पचास सालों में आपने इस एक करोड़ को दस अरब बना लिया, तब यदि आपका बैंकर ऋण वापस मांगेगा तो आप खुशी-खुशी ब्याज सहित उसका ऋण चुका देंगे। उसे दावत और उपहार देंगे। मगर मान लीजिए आपने वे एक करोड़ रुपये उड़ा दिए और सब कुछ गंवा दिया तो बैंकर के आने पर आप आतंकित हो जाएंगे। आप छिपने की कोशिश करेंगे। बहुत सी चालें चलने की कोशिश करेंगे। इसी तरह धरती मां ने आपको यह ऋण दिया। यदि आपने इसे एक आनंदमय जीवन में बदल दिया, अगर आपने वाकई उसका पूरा इस्तेमाल किया और अपने अंदर पूरे मिठास के साथ जीवन जिया, तो जब धरती मां कहती है कि ऋण चुकाने का समय हो गया तो आप खुशी-खुशी उसे चुका देंगे। और उसका कोई ब्याज नहीं होता। जो खुशी-खुशी ऋण चुकाता है, उसके लिए जीवन समाप्त हो जाता है क्योंकि जब आप आनंदित होते हैं, तो आपके अंदर कुदरती तौर पर जागरूकता आती है। जब आप जागरूक होते हैं, तो आप मुक्ति के रास्ते पर होते हैं।



अगर आप फिर से जन्म लेना चाहते हैं तो निश्चित रूप से आखिरी पल की विशेषता आपके अगले जन्मों में शामिल होगी। लेकिन यदि आप परम तत्व में विलीन होना चाहते हैं, यदि आप उसमें समा जाना चाहते हैं, तो आपका पुनर्जन्म नहीं होगा। लोग कहते हैं, 'नकारात्मक शब्दों का इस्तेमाल मत कीजिए, इससे हमें डर लगता है। क्या हम विलीन होकर शून्य हो जाएंगे?’ तो हम यह कह सकते हैं, 'जब आप मुक्ति पा लेते हैं, तो आप सब कुछ हो जाते हैं, हर चीज में शामिल हो जाते हैं।’ जब शिव की बात आती है, तो हम शून्यता की बात करते हैं। लेकिन चूंकि लीला का संबंध कृष्ण से है, तो हम आपके साथ खुशनुमा बातें करना चाहते हैं। आप सब कुछ बन जाएंगे। आप ईश्वर बन जाएंगे। क्या यह सुनने में बेहतर लगता है?



यदि आप यह महसूस करते हो कि मेरा अस्तित्व है तो खुद से कभी यह सवाल भी पूछा होगा कि मरने के बाद व्यक्ति या आत्मा को कब मिलता है दूसरा जन्म या दूसरा शरीर? वेद और पुराणों में इस संबंध में भिन्न-भिन्न उल्लेख मिलता है। वेदों के तत्वज्ञान को उपनिषद या वेदांत कहते हैं और गीता उपनिषदों का सारतत्व है।


उपनिषद कहते हैं कि अधिकतर मौकों पर तत्क्षण ही दूसरा शरीर मिल जाता है फिर वह शरीर मनुष्य का हो या अन्य किसी प्राणी का। पुराणों के अनुसार मरने के 3 दिन में व्यक्ति दूसरा शरीर धारण कर लेता है इसीलिए तीजा मनाते हैं। कुछ आत्माएं 10 और कुछ 13 दिन में दूसरा शरीर धारण कर लेती हैं इसीलिए 10वां और 13वां मनाते हैं। कुछ सवा माह में अर्थात लगभग 37 से 40 दिनों में।


यदि वह प्रेत या पितर योनि में चला गया हो, तो यह सोचकर 1 वर्ष बाद उसकी बरसी मनाते हैं। अंत में उसे 3 वर्ष बाद गया में छोड़कर आ जाते हैं। वह इसलिए कि यदि तू प्रेत या पितर योनि में है तो अब गया में ही रहना, वहीं से तेरी मुक्ति होगी।

पंचकोष, तीन प्रमुख शरीर और चेतना के चार स्तर :

पहले खुद की स्थिति को समझेंगे तो स्वत: ही खुद की स्‍थिति का ज्ञान होने लगेगा। यह आत्मा पंचकोष में रहती है और 4 तरह के स्तरों या प्रभावों में जीती है।

पंचकोष : 1. जड़, 2. प्राण, 3. मन, 4. बुद्धि और 5. आनंद।


आपको अपने शरीर की स्थिति का ज्ञान है? इसे जड़ जगत का हिस्सा माना जाता है अर्थात जो दिखाई दे रहा है, ठोस है। ...आपके भीतर जो श्वास और प्रश्वास प्रवाहित हो रही है इसे रोक देने से यह शरीर नहीं चल सकता। इसे ही प्राण कहते हैं। शरीर और प्राण के ऊपर मन है। पांचों इन्द्रियों से आपको जो दिखाई, सुनाई दे रहा या महसूस हो रहा है उसका प्रभाव मन पर पड़ता है और मन से आप सुखी या दुखी होते हैं। मन से आप सोचते हैं और समझते हैं। मन है ऐसा आप महसूस कर सकते हैं, लेकिन बुद्धि है ऐसा बहुत कम ही लोग महसूस करते हैं और जब व्यक्ति की चेतना इन सभी से ऊपर उठ जाती है तो वह आनंदमय कोष में स्थित हो जाती है।

चेतना के 4 स्तर : 1. जाग्रत, 2. स्वप्न, 3. सुषुप्ति और 4. तुरीय।

छांदोग्य उपनिषद के अनुसार व्यक्ति के होश के 4 स्तर हैं। पहले 3 प्राकृतिक रूप से प्राप्त हैं- जाग्रत, स्वप्न और सुषुप्ति। चौथा स्तर प्रयासों से प्राप्त होता है जिसे तुरीय अवस्था कहते हैं। आप इन 3 के अलावा किसी अन्य तरह के अनुभव को नहीं जानते। इसी में जीते और मरते हैं। इन स्तरों की स्थिति से आपकी गति तय होती है।

 


सिद्ध संत कहते हैं कि मरने के उपरांत नया जन्म मिलने से पूर्व जीवधारी को कुछ समय सूक्ष्म शरीरों में रहना पड़ता है। उनमें से जो अशांत होते हैं, उन्हें प्रेत और जो निर्मल होते हैं उन्हें पितर प्रकृति का निस्पृह उदारचेता, सहज सेवा, सहायता में रुचि लेते हुए देखा गया है।
उनका  मानना है कि मरणोपरांत की थकान दूर करने के उपरांत संचित संस्कारों के अनुरूप उन्हें धारण करने के लिए उपयुक्त वातावरण तलाशना पड़ता है, इसके लिए प्रतीक्षा करनी पड़ती है। वह समय भी सूक्ष्म शरीर में रहते हुए ही व्यतीत करना पड़ता है। ऐसी आत्माएं अपने मित्रों, शत्रुओं, परिवारीजनों एवं परिचितों के मध्य ही अपने अस्तित्व का परिचय देती रहती हैं। प्रेतों की अशांति संबद्ध लोगों को भी हैरान करती हैं।


पितर वे होते हैं जिनका जीवन सज्जनता के सतोगुणी वातावरण में बीता है। वे स्वभावत: सेवा व सहायता में रुचि लेते हैं। उनकी सीमित शक्ति अपनों-परायों को यथासंभव सहायता पहुंचाती रहती है, इसके लिए विशेष अनुरोध नहीं करना पड़ता। जरूरतमंदों की सहायता करना उनका सहज स्वभाव होता है। कितनी ही घटनाएं ऐसी सामने आती रहती हैं जिनमें दैवी शक्ति ने कठिन समय में भारी सहायता की और संकटग्रस्तों की चमत्कारी सहायता करके उन्हें उबारा।
 
बृहदारण्यक उपनिषद में मृत्यु व अन्य शरीर धारण करने का वर्णन मिलता है। वर्तमान शरीर को छोड़कर अन्य शरीर प्राप्ति में कितना समय लगता है, इस विषय में उपनिषद कहते हैं कि कभी-कभी तो बहुत ही कम समय लगता है जिसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती।


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

 

 

Monday, August 26, 2019

आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा

आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



कई हजार साल पहले, अष्टावक्र नाम के एक महान गुरु हुए। वह धरती के महानतम ऋषियों में से एक थे जिन्होंने उस समय एक विशाल आध्यात्मिक आंदोलन चलाया था। ‘अष्टावक्र’ का मतलब है ‘वह इंसान जिसके शरीर में आठ अलग-अलग तरह की विकृतियां हो’। ये विकृतियां उनके पिता के श्राप के कारण उन्हें मिली थीं। मैं पूरी कथा न लिखूंगा आप नेट पर पढ लें। अष्टावक्र ने राजा जनक से कहा था “राजन जितना पैर घोडे की एक रकाब पर एक पैर रखकर दूसरा पैर दूसरे रकाब पर रखने में लगता है। ब्रह्म ज्ञान प्राप्त करनें में सिर्फ इतना ही समय लगता है”। बाद में उन्होने राजा जनक को शक्तिपात दीक्षा दी थी। पर दक्षिणा पहले ही मांग ली। जनक के बोलने पर अष्टावक्र ने कहा “राजन ब्रह्म ज्ञान होने के बाद तुम मुझमें और अपने में भेद न कर पाओगे तो कौन किसको देगा और कौन किससे लेगा। अत: तुम फिर दक्षिणा न दे पाओगे”।


शक्तिपात एक ऐसी आध्यात्मिक प्रक्रिया है जिसके माध्यम से सद्गुरु अपनी शक्ति को शिष्य में संचरित करता है ताकि उसकी सुप्त आध्यात्मिक शक्तियों का जागरण हो जाए अथवा उसकी बुद्धि अतीन्द्रिय विषय को समझ सके। गुरु कृपा शक्तिपात गुरु कृपा पर निर्भर करती है। सद्गुरु सर्वतत्त्व वेत्ता और अध्यात्म विद्या के जानने वाले होते हैं। ‘मालिनी विजय’ में भी कहा है- स गुरुमंत्समः प्रोक्तो मंत्रवीर्य प्रकाशकः। अर्थात् वही गुरु मेरे समान कहा गया है जो तंत्रों के वीर्य का प्रकाश करने वाला हो। सिद्धि प्राप्त करने के लिए शक्तिपात आवश्यक माना गया है जिसके लिए गुरु ही एकमात्र साधन है। शक्तिपात के न होने से सिद्धि की प्राप्ति नहीं हो सकती।



आप यह जानें कि जब इस परम्परा को आगे बढाने हेतु, आज से लगभग 150 वर्ष पूर्व स्वामी गंगाधर तीर्थ जी महाराज ने अपने एक मात्र शिष्य स्वामी नरायणदेव तीर्थ जी महाराज को शक्तिपात किया तो उन्होने बताया कि उस समय मात्र चार ही ऋषि पूरे विश्व में हैं जो शक्तिपात कर सकते हैं। आज यह संख्या अधिक से अधिक पचास के लगभग ही होगी। अब आप इसका महत्व समझ लें। 

 

 
यहां तक इसकी गुरू आरती की कुछ पंक्तियों से भी स्पष्ट होता है।
दृष्टिपात संकल्प मात्र से जगती कुण्डलनी।

षट् चक्रों को वेध उर्ध्व गति प्राणों की होती।

ब्रह्म ज्ञान कर प्राप्त छूट भव बंधन से जावे।

 

 

बात सही भी है मेरे वाट्सप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” के माध्यम से जिन किसी को भी शक्तिपात दीक्षा हुई है वे आश्चर्य चकित एवं अचम्भित हैं। स्वत: क्रिया रूप में किसी का आसन उठ गया यह अनुभुति हुई तो किसी का सूक्ष्म शरीर बाहर निकल कर अंतरिक्ष में घूमने लगा तो किसी को अन्य भाषायें स्वत: निकलने लगीं। किसी को देव दर्शन सहित अनेकों विचित्र करनेवाले अनुभव होने लगे।
मैंने शक्तिपात पर व स्वत: क्रिया पर कई लेख ब्लाग पर दिये हैं। जो आप पाठक देख सकते हैं।

 

सच्चे आध्यात्मिक गुरु अपने शिष्य को जो दैवी शक्ति संक्रमण (Transmission ) करते है, उसके अलग अलग विशिष्ट प्रकार हैं, जिसे ‘शक्तिपात’ या ‘दैवी शक्ति का संक्रमण’ कहते हैं । ऐसे शक्तिपात करने का सामर्थ्य रखनेवाला सद्गुरु ‘सत्य का ज्ञान’ एवं ‘परमात्मा से एकरूप’ होने का ज्ञान, सुयोग्य शिष्य को बिना किसी कष्ट के क्षण मात्र में दे सकता हैं । इतना ही नहीं, वह अपने शिष्य को अपने जैसा बना सकता है । ’स्वीयं साम्यं विधत्ते ।‘ ऐसी घोषणा श्री आद्य शंकराचार्य ने अपने ‘वेदान्त केसरी’ इस महान ग्रंथ के पहले ही श्लोक में की हैं। महाराष्ट्र के महान संत श्री तुकाराम महाराज ने अपने एक भक्तिगीत में इन्हीं विचारोंकी पुनरावृत्ती की है । उन्होंने कहा है – “आपुल्या सारिखे करिती तात्काळ, नाही काळ वेळ तयां लागीं ” ऐसे सद्गुरु का वर्णन करने के लिए पारस की उपमा भी कम पडती है, एवं वह सीमा से परे हैं। ‘भावार्थदीपिका’ इस भगवत् गीतापर टीका में संत शिरोमणी श्री. ज्ञानेश्वर महाराज अपने शब्दों में कहते हैं–    “सच्चे गुरु की महानता इतनी है कि जिस व्यक्ति पर उसकी दृष्टी पडती है, एवं जिसके मस्तक पर वह अपने कमल हस्त रखता है वह व्यक्ति कितना भी निकृष्ट एवं दुर्जन भी हो उसे तत्काल परमेश्वर का दर्जा प्राप्त होता है ।जिस किसी को भी ऐसे सद्गुरु कि कृपा पाने का सौभाग्य मिलता है वह सारे दु:खों से मुक्त होता है और उसे आत्मज्ञान की प्राप्ति होती है । गुरु “मंत्र” देते हैं और शिष्य तत्काल उसे स्वीकार करता है और उसी क्षण उसे मंत्र का प्रत्यक्ष अनुभव भी मिलता है । श्री. ज्ञानेश्वर महाराज ने बताया है की श्रीकृष्ण ने अपने परम भक्त अर्जुन पर दिव्य शक्ति संक्रमित कर उसे अपने जैसा बनाया ।


‘ब्रह्म की प्राप्ति केवल शास्त्र पढनेसे कभी नहीं होती, उसे केवल सद्गुरु कृपासे ही प्राप्त किया जा सकता है।‘श्री समर्थ रामदास स्वामी ऊँचे स्वर से घोषणा करते है,”सद्गुरु के बिना सच्चा ज्ञान प्राप्त होना असंभव है ।“ शास्त्र भी उससे सहमत हैं । केवल शब्द एवं बुद्धि एवं उपनिषद या उसपर चर्चायें सुनकर तीक्ष्ण आत्मज्ञान हो ही नहीं सकता ।” वह सिर्फ़ सद्गुरु के कृपा प्रसाद से ही मिल सकता हैं । श्री. शंकराचार्य ने एक सुंदर काव्य में श्री गुरु के अमृतमय दृष्टिकटाक्षसे शक्तिका वर्णन किया है– जिसकी तुलना अवर्णनीय हैं।

तद् ब्रह्मैवाहमस्मीत्यनुभव उदितो यस्य कस्यापि चेद्वै ।
पुंस: श्रीसद्गुरुणामतुलितकरुणापूर्णपीयूषदृष्ट्या ।
जीवन्मुक्त: स एव भ्रमविधुरमना निर्गते नाद्युपधौ ।  
नित्यानन्दैकधाम प्रविशति परमं नष्टसंदेहवृत्ति: ॥



“मै ब्रह्म हूँ” इसकी प्राप्ति सद्गुरु की अतुलनीय कृपादृष्टिसे जिसे प्राप्त होती है वह शरीर में रहकर भी मन से सारे संशय एवं मोह से मुक्त हो जाता हैं । और वह चिरंतन आनंद के प्रांगण में प्रवेश करता हैं।  

    
इस प्रकार से वेद, पुराण, तंत्र, मंत्र  और सर्व काल के संतोंने शक्तिसंक्रमण मार्ग के स्वानुभव लिख रखे हैं । योगवाशिष्ठ में वशिष्ठ ऋषीने स्वत: श्री. रामचंद्र पर किये गये शक्तिपात के सत्य का वर्णन किया हैं, जिस वजहसे सविकल्प समाधी या पूर्णब्रह्म स्थिती तक उसे ले जाना संभव हुआ। इस विषय में स्वयं विश्वामित्रने वशिष्ठ से ऐसा कहा है – “महात्मा ब्रह्मपुत्र वशिष्ठमुनी आप सचमुच श्रेष्ठ हैं एवं आपने अपना महत्त्व क्षणभर में शक्ति- संक्रमण कर सिद्ध कर दिया । ” योगवाशिष्ठ में शिष्यों में शक्तिसंक्रमण करने के इस प्रकार की पद्धती का वर्णन इस प्रकार किया है ।


‘दर्शनात्स्पर्शनाच्छब्दात्कृपया शिष्यदेहके ।‘ (सद्गुरु के कृपायुक्त दृष्टि, कटाक्षसे, स्पर्शसे एवं प्रेमभरे शब्द से शक्तिसंक्रमण होता हैं। ) ‘स्कंद पुराण’ के ‘सूतसंहिता’ में शक्तिसंक्रमण की पद्धतिकी विस्तृत जानकारी दी गयी हैं। तंत्र ग्रंथ में भी शक्तिसंक्रमण से कुण्डलिनी जागृत होने की विस्तृत जानकारी है| शक्ति संक्रमण द्वारा शिष्यों में सुप्त शक्ति जागृत करने के बारे में सभी ग्रंथों में नाथसंप्रदाय के ग्रंथ ज्यादा प्रसिद्ध हैं । यह ग्रंथ अध्यात्मज्ञान एवं योगशास्त्र प्राचीन हैं । आजकल इस दैवी शक्ति को संक्रामित करनेवाले सद्गुरु बहुतही कम रह गये है । पर वे बिल्कुल नहीं हैं ऐसा भी नहीं। इस प्रकार के कुछ महात्मा संसार में गुप्त रूप से शक्ति का संचार करते हैं, और जब उनकी भेंट लायक शिष्यसे होती है, उस वक्त वे अपनी शक्ति शिष्य में संक्रामित करते हैं ।


 शक्तिपात होने पर शिष्य में जो बाहरी और आन्तरिक लक्षण (विशेषताऐं) उत्पन्न हो जाते हैं उनका विवरण शास्त्रों में इस प्रकार दिया गया है। वे सब कुण्डलनी जागरण के बाद ही होते हैं। 


''देहपात: तथा कम्प:-परमानन्द हर्षणे। स्वेदो, रोमांच इत्येत-शक्तिपातस्य लक्षणम्'' । ''प्रहर्ष: स्वरनेत्रांग विक्रिया कम्पनं तथा स्तोम: शरीरपातश्च भ्रमणं चोदगतिस्तथा। अदर्शनं च देहस्य........निग्रहानुग्रहे शक्ति:''। ''शिष्यस्य देहे विप्रेन्द्रा-धरिण्यां पतते सति प्रसाद: शंकरस्तस्य-द्विजा संजात एव हि''॥


अर्थात् शक्तिपात होने से शिष्य का देहपात (शरीर का भूमि पर गिरना) होता है। शरीर में कम्पन्न उत्पन्न होता है। अत्यधिक आनन्द प्राप्त होने से शिष्य जोर-जोर से हॅंसने लगता है। शरीर का रोमांचित होना तथा पसीना होना भी शक्तिपात का ही लक्षण है। इसके अतिरिक्त निद्रा आना, मूर्छित हो जाना तथा दिमाग का घूमना भी शक्तिपात हो जाने के ही लक्षण होते हैं। इस विषय पर प्रसिद्ध ग्रन्थ 'सूतसंहिता'' के अन्तर्गत ब्रह्मगीता में अनेकों लक्षणों का विवरण दिया गया है।



इन सभी लक्षणों में महत्वपूर्ण लक्षण है 'देहपात होना' अर्थात् शक्तिपात होते ही शिष्य का शरीर तत्क्षण भूमि पर गिर जाता है और वह निर्वाध गति से भूमि पर दीर्घकाल तक चक्कर काटता रहता है। इसका महत्व बताते हुए शास्त्र कहता है-



अर्थात् जब शिष्य का शरीर धरती पर गिरता है तो इसे भगवान शंकर की कृपा समझना चाहिए। ऐसा शिष्य श्री गुरूकृपा से कृतार्थ हो जाता है तथा उसका पुनर्जन्म नहीं होता।

''तस्य प्रसाद युक्तस्य........तम: सूर्योदयो यथा''

इस प्रकार शक्तिपात प्राप्त सत्शिष्य की समस्त-अविद्याऐं उसी प्रकार भस्म हो जाती है जैसे सूर्योदय हो जाने पर समस्त अंधकार नष्ट हो जाता है।



इस विषय पर पूज्यपाद वामनदत्तात्रेय गुलवणी महाराज (महाराष्ट्र-पुणे निवासी) शक्तिपात के पश्चात शिष्य में उत्पन्न होने वाले विभिन्न लक्षणों का विवरण अपने अद्वितीय लेख 'शक्तिपात से आत्मसाक्षात्कार' में दिया गया है।


''गुरूकृपा से जब शक्ति प्रबुद्ध हो उठती है, तब साधक को आसन, प्राणायाम, मुद्रा आदि करने की कुछ भी आवश्यकता नहीं होती। प्रबुद्ध कुण्डलिनी ऊपर ब्रह्मरन्ध्र की ओर जाने के लिए छटपटाती है। उसके उस छटपटाने में जो कुछ क्रियाऐं अपने-आप होती है वे ही आसन, मुद्रा, बन्ध और प्राणायाम है। शक्ति का मार्ग खुल जाने के बाद से सब क्रियाऐं अपने-आप होती है और उनसे चित्त को अधिकाधिक - स्थिरता प्राप्त होती है..........................जिस साधक के द्वारा जिस  क्रिया  का होना आवश्यक है, वही क्रिया उसके द्वारा होती है, अन्य नहीं। ........................... योगशास्त्र में वर्णित विधि के अनुसार इन सब-क्रियाओं का अपने-आप होना देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है। ...............इस प्रकार होने वाली यौगिक क्रियाओं से साधक को कोई कष्ट नहीं होता। किसी अनिष्ट के भय का कोई कारण नहीं रहता। प्रबुद्ध शक्ति स्वयं ही ये सब क्रियाऐं साधक से उसके प्रकृति के अनुरूप करा लिया करती है। शक्तिपात से प्रबुद्ध होने वाली शक्ति के द्वारा साधना से जो क्रियाऐं होती हैं, उनसे शरीर रोगरहित होता है, बड़े-बड़े असाध्य रोग भी भस्म हो जाते हैं। ........... परन्तु इस साधना में आरम्भ से ही सुख की अनुभूति होने लगती है। शक्ति का जागना जहॉं एक बार हुआ वहॉं फिर वह शक्ति स्वयं ही साधक को परमपद की प्राप्ति कराने तक अपना काम करती रहती है। इस बीच साधक के जितने भी जन्म बीत जायें, एक बार जागी हुई कुण्डलिनी फिर कभी सुप्त नहीं होती।''



शास्त्रों में शक्तिपात सम्पन्न (कुण्डलिनी जागरण)  साधक में पाये जाने वाले जिन विभिन्न लक्षणों का उल्लेख मिलता है। उनमें से प्रमुख है –

मूलाधार में कम्पन होना, शरीर में अत्यन्त स्फूर्ति उत्पन्न होना, स्वत: ही कुम्भक लग जाना, आखों के तारे घूमना तथा दृष्टि का भ्रूमध्य की तरफ आकर्षित होना, शराब तथा भॉंग पिये बिना ही हर समय नशे की हालत बनी रहना, आखें बन्द करते ही गर्दन तथा शरीर का चक्राकार घूमना, अनेक भाषाऐं (ज्ञात–अज्ञात) वोल सकने की क्षमता उत्पन्न होना तथा स्तोत्रादि, कीर्तन के शब्द स्वत: ही उच्चरित होने लगना, ध्यान में बैठते ही भविष्य की घटनाओं का पूर्वाभास होने लगना, कम समय में वेदों तथा उपनिषदों का सार तत्व समझ लेना, दिन, प्रात: सांय एवं रात्रि में पूजा-ध्यान का समय होते ही शरीर, मन तथा प्राण में आनन्दमय स्थिति उत्पन्न हो जाना। स्पष्ट है कि सत्गुरू से प्राप्त शक्तिपात सम्पन्न साधक शीघ्र ही मनुष्यत्व से देवत्व की तरफ अनायास ही अग्रसर होने लग जाता है।


अंत में मैं इतना ही कहूंगा जिस व्यक्ति के प्रभु भक्ति में प्रेमाश्रु न निकले उसका जीवन व्यर्थ है। क्योकिं वह व्यक्ति प्रेम और विरह को नहीं समझ सकता। जिस व्यक्ति ने आंतरिक नशा न किया जिसे रामरस या शिव का नशा कहते हैं। उसने असली नशा जाना ही नहीं। मूर्ख और पाखंडी शिव के नाम पर भांग धतूरा गांजा चढाकर आनंद की बात भक्ति की बात करते हैं। वे महा अज्ञानी और ढोग़ी हैं। कारण राम रस का जो नशा आंतरिक रूप में मिलता है वह कुछ कुछ भांग धतूरे के नशे से मिलता है। अत: मूर्ख लोग इनका वाहिक सेवन करते हैं। जो नुकसान दायक होता है।  अरे राम रस से सर्वोच्च आनन्द के साथ शारिरिक शक्ति मिलती है।

और यह सब स्वत: शक्तिपात में होने लगता है।

आनंदम। अति आनंदम्॥ सर्वत्र आनंदम्। जय गुरूदेव। जय महाकाली । जय महाकाल

शक्तिपात दीक्षा कैसे होती है जानने हेतु यह ब्लाग देख सकते हैं। 

लिंक को url डालें 

https://www.blogger.com/blogger.g?tab=wj&blogID=2306888832299223218#editor/target=post;postID=1102218825377023932;onPublishedMenu=allposts;onClosedMenu=allposts;postNum=48;src=postname

 

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

 

Wednesday, July 31, 2019

स्वास्तिक का महत्व

स्वास्तिक का महत्व

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet




स्वस्तिक अत्यन्त प्राचीन काल से भारतीय संस्कृति में मंगल-प्रतीक माना जाता रहा है। इसीलिए किसी भी शुभ कार्य को करने से पहले स्वस्तिक चिह्न अंकित करके उसका पूजन किया जाता है। स्वस्तिक शब्द सु+अस+क से बना है। 'सु' का अर्थ अच्छा, 'अस' का अर्थ 'सत्ता' या 'अस्तित्व' और 'क' का अर्थ 'कर्त्ता' या करने वाले से है। इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द का अर्थ हुआ 'अच्छा' या 'मंगल' करने वाला। 'अमरकोश' में भी 'स्वस्तिक' का अर्थ आशीर्वाद, मंगल या पुण्यकार्य करना लिखा है। अमरकोश के शब्द हैं - 'स्वस्तिक, सर्वतोऋद्ध' अर्थात् 'सभी दिशाओं में सबका कल्याण हो।' इस प्रकार 'स्वस्तिक' शब्द में किसी व्यक्ति या जाति विशेष का नहीं, अपितु सम्पूर्ण विश्व के कल्याण या 'वसुधैव कुटुम्बकम्' की भावना निहित है। 'स्वस्तिक' शब्द की निरुक्ति है - 'स्वस्तिक क्षेम कायति, इति स्वस्तिकः' अर्थात् 'कुशलक्षेम या कल्याण का प्रतीक ही स्वस्तिक है।


स्वस्तिक को 'साथिया' या 'सातिया' भी कहा जाता है। वैदिक ऋषियों ने अपने आध्यात्मिक अनुभवों के आधार पर कुछ विशेष चिह्नों की रचना की। मंगल भावों को प्रकट करने वाले और जीवन में खुशियां भरने वाले इन चिह्नों में से एक है स्वस्तिक। उह्नोंने स्वस्तिक के रहस्य को सविस्तार उजागर किया और इसके धार्मिक, ज्योतिष और वास्तु के महत्व को भी बताया। आज स्वस्तिक का प्रत्येक धर्म और संस्कृति में अलग-अलग रूप में इस्तेमाल किया जाता है।

 

यह मांगलिक चिह्न अनादि काल से सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त रहा है। अत्यन्त प्राचीन काल से ही भारतीय संस्कृति में स्वस्तिक को मंगल- प्रतीक माना जाता रहा है। विघ्नहर्ता गणेश की उपासना धन, वैभव और ऐश्वर्य की देवी लक्ष्मी के साथ भी शुभ लाभ, स्वस्तिक तथा बहीखाते की पूजा की परम्परा है। इसे भारतीय संस्कृति में विशेष स्थान प्राप्त है। इसीलिए जातक की कुण्डली बनाते समय या कोई मंगल व शुभ कार्य करते समय सर्वप्रथम स्वस्तिक को ही अंकित किया जाता है।

सिन्धु घाटी सभ्यता की खुदाई में ऐसे चिह्न व अवशेष प्राप्त हुए हैं जिससे यह प्रमाणित होता है कि कई हजार वर्ष पूर्व मानव सभ्यता अपने भवनों में इस मंगलकारी चिह्न का प्रयोग करती थी। सिन्धु घाटी से प्राप्त मुद्रा और बर्तनों में स्वस्तिक का चिह्न खुदा हुआ मिला है। उदयगिरि और खंडगिरि की गुफा में भी स्वस्तिक के चिह्न मिले हैं। ऐतिहासिक साक्ष्यों में स्वस्तिक का महत्व भरा पड़ा है। मोहन जोदड़ो, हड़प्पा संस्कृति, अशोक के शिलालेखों, रामायण, हरिवंश पुराण, महाभारत आदि में इसका अनेक बार उल्लेख मिलता है।

 

द्वितीय विश्‍वयुद्ध के समय एडोल्फ हिटलर ने उल्टे स्वस्तिक का चिह्न अपनी सेना के प्रतीक के रूप में शामिल किया था। सभी सैनिकों की वर्दी एवं टोपी पर यह उल्टा स्वस्तिक चिह्न अंकित था। उल्टा स्वस्तिक ही उसकी बर्बादी का कारण बना। संयुक्त राज्य अमेरिका की आधिकारिक सेना के नेटिव अमेरिकन की एक 45वीं मिलिट्री इन्फैंट्री डिवीजन का चिह्न एक पीले रंग का स्वस्तिक था। नाजियों की घटना के बाद इसे हटाकर उन्होंने गरूड़ का चिह्न अपनाया।

 

स्वस्तिक को भारत में ही नहीं, अपितु विश्व के अन्य कई देशों में विभिन्न स्वरूपों में मान्यता प्राप्त है। जर्मनी, यूनान, फ्रांस, रोम, मिस्र, ब्रिटेन, अमेरिका, स्कैण्डिनेविया, सिसली, स्पेन, सीरिया, तिब्बत, चीन, साइप्रस और जापान आदि देशों में भी स्वस्तिक का प्रचलन किसी न किसी रूप में मिलता है। नेपाल में 'हेरंब' के नाम से पूजित होते हैं। बर्मा में इसे 'प्रियेन्ने' के नाम से जाना जाता है। मिस्र में 'एक्टन' के नाम से स्वस्तिक की पूजा होती है।

 

प्राचीन यूरोप में सेल्ट नामक एक सभ्यता थी, जो जर्मनी से इंग्लैंड तक फैली थी। वह स्वस्तिक को सूर्यदेव का प्रतीक मानती थी। उसके अनुसार स्वस्तिक यूरोप के चारों मौसमों का भी प्रतीक था।

 

मिस्र और अमेरिका में स्वस्तिक का काफी प्रचलन रहा है। इन दोनों जगहों के लोग पिरामिड को पुनर्जन्म से जोड़कर देखा करते थे। प्राचीन मिस्र में ओसिरिस को पुनर्जन्म का देवता माना जाता था और हमेशा उसे 4 हाथ वाले तारे के रूप में बताने के साथ ही पिरामिड को सूली लिखकर दर्शाते थे। इस तरह हम देखते हैं कि स्वस्तिक का प्रचलन प्राचीनकाल से ही हर देश की सभ्यताओं में प्रचलित रहा है।

 

मध्य एशिया के देशों में स्वस्तिक का निशान मांगलिक एवं सौभाग्य का सूचक माना जाता है। प्राचीन इराक (मेसोपोटेमिया) में अस्त्र-शस्त्र पर विजय प्राप्त करने हेतु स्वस्तिक चिह्न का प्रयोग किया जाता था।

 

उत्तर-पश्‍चिमी बुल्गारिया के व्रात्स  नगर के संग्रहालय में चल रही एक प्रदर्शनी में 7,000 वर्ष प्राचीन कुछ मिट्टी की कलाकृतियां रखी हुई हैं जिस पर स्वस्तिक का चिह्न बना हुआ है। व्रास्ता शहर के निकट अल्तीमीर नामक गांव के एक धार्मिक यज्ञ कुंड के खुदाई के समय ये कलाकृतियां मिली थीं।

स्वस्तिक में एक दूसरे को काटती हुई दो सीधी रेखाएँ होती हैं, जो आगे चलकर मुड़ जाती हैं। इसके बाद भी ये रेखाएँ अपने सिरों पर थोड़ी और आगे की तरफ मुड़ी होती हैं। स्वस्तिक की यह आकृति दो प्रकार की हो सकती है। प्रथम स्वस्तिक, जिसमें रेखाएँ आगे की ओर इंगित करती हुई हमारे दायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'स्वस्तिक' कहते हैं। यही शुभ चिह्न है, जो हमारी प्रगति की ओर संकेत करता है। दूसरी आकृति में रेखाएँ पीछे की ओर संकेत करती हुई हमारे बायीं ओर मुड़ती हैं। इसे 'वामावर्त स्वस्तिक' कहते हैं। भारतीय संस्कृति में इसे अशुभ माना जाता है।

ऋग्वेद की ऋचा में स्वस्तिक को सूर्य का प्रतीक माना गया है और उसकी चार भुजाओं को चार दिशाओं की उपमा दी गई है। सिद्धान्त सार ग्रन्थ में उसे विश्व ब्रह्माण्ड का प्रतीक चित्र माना गया है। उसके मध्य भाग को विष्णु की कमल नाभि और रेखाओं को ब्रह्माजी के चार मुख, चार हाथ और चार वेदों के रूप में निरूपित किया गया है। अन्य ग्रन्थों में चार युग, चार वर्ण, चार आश्रम एवं धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष के चार प्रतिफल प्राप्त करने वाली समाज व्यवस्था एवं वैयक्तिक आस्था को जीवन्त रखने वाले संकेतों को स्वस्तिक में ओत-प्रोत बताया गया है।


स्वस्ति का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल. इसी प्रकार स्वस्तिक का अर्थ होता है - कल्याण या मंगल करने वाला. स्वास्तिक एक विशेष आकृति है , जिसको किसी भी कार्य की शुरुआत के पूर्व बनाया जाता है. माना जाता है कि , यह चारों दिशाओं से शुभ और मंगल को आकर्षित करता है. चूँकि इसको कार्य की शुरुआत और मंगल कार्य में रखते हैं, अतः यह भगवान गणेश का रूप भी माना जाता है. माना जाता है कि इसके प्रयोग से सम्पन्नता, समृद्धि और एकाग्रता की प्राप्ति होती है. जिस पूजा उपासना में स्वस्तिक का प्रयोग नहीं होता, वह पूजा लम्बे समय तक अपना प्रभाव नहीं रख पाती.


वैज्ञानिक महत्व


- सही तरीके से बने हुए स्वस्तिक से ढेर सारी सकारात्मक उर्जा निकलती है


- यह उर्जा वस्तु या व्यक्ति की रक्षा , सुरक्षा करने में मददगार होती है


- स्वस्तिक की उर्जा का अगर घर , अस्पताल या दैनिक जीवन में प्रयोग किया जाय तो व्यक्ति रोगमुक्त और चिंता मुक्त रह सकता है


- गलत तरीके से प्रयोग किया गया स्वस्तिक भयंकर समस्याएँ भी दे सकता है


- स्वास्तिक की रेखाएं और कोण बिलकुल सही होने चाहिए


- भूलकर भी उलटे स्वस्तिक का निर्माण और प्रयोग न करें


- लाल और पीले रंग के स्वस्तिक ही सर्वश्रेष्ठ होते हैं


- अगर स्वस्तिक को धारण करना है तो इसके गोले के अन्दर धारण करें


- जहाँ जहाँ वास्तु दोष हो , या घर के मुख्य द्वार पर लाल रंग का स्वस्तिक बनाएं


- पूजा के स्थान, पढ़ाई के स्थान और वाहन में अपने सामने , स्वस्तिक बनाएं


- एकाग्रता के लिए , सोने या चांदी में बना हुआ स्वस्तिक , लाल धागे में धारण करें


- इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों पर छोटे छोटे स्वस्तिक लगाने से, वे जल्दी ख़राब नहीं होते


स्वास्तिक की चार रेखाएं एक घड़ी की दिशा में चलती हैं, जो संसार के सही दिशा में चलने का प्रतीक है। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार यदि स्वास्तिक के आसपास एक गोलाकार रेखा खींच दी जाए, तो यह सूर्य भगवान का चिन्ह माना जाता है। वह सूर्य देव जो समस्त संसार को अपनी ऊर्जा से रोशनी प्रदान करते हैं।


बौद्ध धर्म में स्वास्तिक को अच्छे भाग्य का प्रतीक माना गया है। यह भगवान बुद्ध के पग चिन्हों को दिखाता है, इसलिए इसे इतना पवित्र माना जाता है। यही नहीं, स्वास्तिक भगवान बुद्ध के हृदय, हथेली और पैरों में भी अंकित है।


जैन धर्म में यह सातवं जिन का प्रतीक है, जिसे सब तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ के नाम से भी जानते हैं। श्वेताम्बर जैनी स्वास्तिक को अष्ट मंगल का मुख्य प्रतीक मानते हैं।


प्राचीन फारस में स्वास्तिक की पूजा का चलन सूर्योपासना से जोड़ा गया था।  


वर्ष 1935 के दौरान जर्मनी के नाज़ियों द्वारा स्वास्तिक के निशान का इस्तेमाल किया गया था, लेकिन यह हिन्दू मान्यताओं के बिलकुल विपरीत था। यह निशान एक सफेद गोले में काले ‘क्रास’ के रूप में उपयोग में लाया गया, जिसका अर्थ उग्रवाद या फिर स्वतंत्रता से सम्बन्धित था।

ब्रितानी वायु सेना के लड़ाकू विमानों पर इस चिह्न का इस्तेमाल 1939 तक होता रहा था।


लेकिन करीब 1930 के आसपास इसकी लोकप्रियता में कुछ ठहराव आ गया था, यह वह समय था जब जर्मनी की सत्ता में नाज़ियों का उदय हुआ था। उस समय किए गए एक शोध में बेहद दिलचस्प बात निकल कर सामने आई। शोधकर्ताओं ने माना कि जर्मन भाषा और संस्कृत में कई समानताएं हैं। इतना ही नहीं, भारतीय और जर्मन दोनों के पूर्वज भी एक ही रहे होंगे और उन्होंने देवताओं जैसे वीर आर्य नस्ल की परिकल्पना की।


इसके बाद से ही स्वास्तिक चिन्ह का आर्य प्रतीक के तौर पर चलन शुरू हो गया। आर्य प्रजाति इसे अपना गौरवमय चिन्ह मानती थी। लेकिन 19वीं सदी के बाद 20वीं सदी के अंत तक इसे नफ़रत की नज़र से देखा जाने लगा। नाज़ियों द्वारा कराए गए यहूदियों के नरसंहार के बाद इस चिन्ह को भय और दमन का प्रतीक माना गया था।


युद्ध ख़त्म होने के बाद जर्मनी में इस प्रतीक चिह्न पर प्रतिबंध लगा दिया गया था और 2007 में जर्मनी ने यूरोप भर में इस पर प्रतिबंध लगवाने की नाकाम पहल की थी। माना जाता है कि स्वास्तिक के चिह्न की जड़ें यूरोप में काफी गहरी थीं।


प्राचीन ग्रीस के लोग भी इसका इस्तेमाल करते थे। पश्चिमी यूरोप में बाल्टिक से बाल्कन तक इसका इस्तेमाल देखा गया है। यूरोप के पूर्वी भाग में बसे यूक्रेन में एक नेशनल म्यूज़ियम स्थित है। इस म्यूज़ियम में कई तरह के स्वास्तिक चिह्न देखे जा सकते हैं, जो 15 हज़ार साल तक पुराने हैं।


यह सभी तथ्य हमें बताते हैं कि केवल भारत में ही नहीं बल्कि विश्व के कोने-कोने में स्वास्तिक चिन्ह ने अपनी जगह बनाई है। फिर चाहे वह सकारात्मक दृष्टि से हो या नकारात्मक रूप से। परन्तु भारत में स्वास्तिक चिन्ह को सम्मान दिया जाता है और इसका विभिन्न रूप से इस्तेमाल किया जाता है। यह जानना बेहद रोचक होगा कि केवल लाल रंग से ही स्वास्तिक क्यों बनाया जाता है?


भारतीय संस्कृति में लाल रंग का सर्वाधिक महत्व है और मांगलिक कार्यों में इसका प्रयोग सिन्दूर, रोली या कुमकुम के रूप में किया जाता है। लाल रंग शौर्य एवं विजय का प्रतीक है। लाल रंग प्रेम, रोमांच व साहस को भी दर्शाता है। धार्मिक महत्व के अलावा वैज्ञानिक दृष्टि से भी लाल रंग को सही माना जाता है।


लाल रंग व्यक्ति के शारीरिक व मानसिक स्तर को शीघ्र प्रभावित करता है। यह रंग शक्तिशाली व मौलिक है। हमारे सौर मण्डल में मौजूद ग्रहों में से एक मंगल ग्रह का रंग भी लाल है। यह एक ऐसा ग्रह है जिसे साहस, पराक्रम, बल व शक्ति के लिए जाना जाता है। यह कुछ कारण हैं जो स्वास्तिक बनाते समय केवल लाल रंग के उपयोग की ही सलाह देते हैं। 

 

मेरे विचार से योगशास्त्र के अनुसार लाल रंग मूलाधार चक्र का प्रतीक हैं। इस चक्र के अधिष्ठाता श्री गणेश और शक्ति को दुर्गा शक्ति कहते हैं। अत:  जग्दम्बे और श्री गणेश के वस्त्र भी लाल ही रखे जाते हैं।

 

स्वास्तिक बनाते समय क्या गलतियां नहीं करनी चाहिए।


स्वास्तिक का निशान कभी भी उल्टा नहीं बनाना चाहिए, जबकि बहुत से लोग यह गलती कर बैठते हैं। आपको बता दें, मंदिरों में उलटा स्वास्तिक बनाया जाता है, इसके अलावा किसी विशिष्ट मनोकामना पूर्ति के लिए भी उलटा स्वास्तिक बनता है। 

 

मेरे विचार से यदि हम कांच की शीट पर स्वास्तिक बनायें तो एक तरफ से सीधा और दूसरी तरफ से उल्टा दिखाई देगा मतलब आप किधर से देखते हैं। यह उस पर निर्भर करेगा। अत: मन्दिर में द्वार पर उल्टा बनाने से यदि आप मन्दिर के अंदर से देखेंगे तो यह सीधा दिखेगा किंतु बाहर से उल्टा। मतलब मंदिर में विराजमान मूर्ती जब देखेगी तो यह सीधा ही दिखेगा। यही बात मनोकामना और तांत्रिक यज्ञ हेतु भी खरी उतरती है। मतलब जब अनुष्ठानिक देवता देखे तो उसे यह सीधा दिखे। उसकी ओर से सीधा ही रहे।

 

 


स्वास्तिक का निशान कभी भी टेढ़ा नहीं होना चाहिए, इसे एकदम सीधा और साफ बनाया जाना चाहिए। अन्यथा जिस मनोकामना की पूर्ति के लिए आप यह निशान बना रहे हैं, वह पूर्ण नहीं हो पाएगी।


घर या किसी अन्य स्थान पर, जहां भी आपने स्वास्तिक का निशान बनाना हो, एक बात का ध्यान अवश्य रखें कि वह जगह एकदम साफ-सुथरी और पवित्र होनी चाहिए।


अगर विवाहित जीवन में आ रही परेशानियों से मुक्ति पाने हेतु आप पूजा करवा रहे हैं तो उसमें हल्दी का स्वास्तिक बनाया जाता है। अन्य किसी भी पूजा या हवन में कुमकुम या रोली से ही स्वास्तिक का निशान बनाया जाता है।

 

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।


 


 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...