Search This Blog

Monday, April 2, 2018

गणेश की वैज्ञानिक व्याख्या



अखिर गणेश है क्या
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/


मेरे मन मे गणों पर कुछ चर्चा करने का मन हो रहा है। पहले कही कुछ पढा नही पर जो मैं सोंचता हूँ वह लिखता हूँ आप लोग कुछ कुछ गर्न्थो से भी बताये। 
                    जब प्रत्येक मनुष्य जन्म लेता है तो उसके चारों ओर कुछ विभिन्न शक्तियां जन्म जात रहती है जो उसकी मन बुध्दी को प्रेरित करती है। गुणों के हिसाब से यह मानवीय राक्षसी या दैवीय हो सकती है। जो मनुष्य को बचपन से बचाती सजाती और सताती है।  कभी कोई बालक या मनुष्य किसी दुर्घटना में साफ साफ बच जाता है या जरा सी चोट के बहाने मर जाता है। वह सब इन गणों को खेल है।काम बनते बनते बिगड़ना या बिगड़ते बिगड़ते बनना यह इन्ही गणों की वजह से होता है। यह सब एक सामान्य मनुष्य के लिये है। इन्ही के कारण मनुष्य नास्तिक या आस्तिक बनता है।

किसी भी नास्तिक का गण देव नही हो सकता। आप ज्योतिषी से चेक करवाये।
अब मनुष्य के प्रारब्ध के कारण उसका झुकाव आध्यात्म की ओर हो जाता है। प्रारब्ध वह होता है जो मनुष्य कर्मफल साथ लेकर धरती पर आता है। यानी प्रारम्भय  लभ्यते स : प्रारब्ध: ।

                  अब इन्ही गणों के कारण बालक 8 वर्ष की आयु तक अपना भविषय तय कर लेता है। 8 वर्ष इस लिए क्योकि 8 वर्ष तक बच्चे की अपनी बुध्दी नही खुल पाती है। वह प्रेरित बुध्दी से काम करता है। हो सकता कुछ के लिए 7 या 6 हो। पर अधिकतम 8। अतः वाहीक वातावरण पाकर यह गण अपने को सक्रिय निष्क्रिय बनाते है। जिसके कारण बच्चे के अंदर साधु या शैतान के गुण विकसित होने लगते है। और यही गण मनुष्य में तेज वलय यानी औरा का निर्माण करते है।

             श्री गणेश इन्ही गणों के अधिपति है। जिनका शरीर मॉनव का पर मुख शक्तिशाली जानवर हाथी का। यानी मनुष्य के मस्तिष्क में जानवर की भाँति विचार भरे रहते है।
                इसी लिए सर्वप्रथम गणेश की आराधना यानी गणों को शांत करने की प्रार्थना की जाती है। यही प्रावधान है। यह शिव और शक्ति के पुत्र है जो माता पिता यानी हमारे शरीर की ही परिक्रमा कर प्रथम पूजनीय बने।

               अतः मेरे हिसाब से बच्चे को श्री गणेश की पूजा करवानी चाहिए। श्री गनेश का मन्त्र इन गणों को सही दिशा देने को मजबूर करेगा। मेरी समझ मे यही गणेश का जन्म और सूरत की व्याख्या करता है। अब आप बताये क्या सही क्या गलत।
                                                
                                                       हरि ॐ हरि 




MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी 

"संस्कृत से संस्क़ृति और संस्क़ृति से संस्कार 'क्यो है यह देव भाषा ??



"संस्कृत से संस्क़ृति और संस्क़ृति से संस्कार'

क्यो है यह देव भाषा ??


“यदि भारत को नष्ट करना है तो संस्कृत को नष्ट कर दो। भारत खुद ब खुद बेमौत मर जायेगा” । -------देवीदास विपुल
भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल संस्कृत बोलने वाले 14,135 लोग बचे हैं।

यदि यह पढकर आपके आंसू नहीं निकले तो आप भारत के हितैषी नहीं हो सकते। आपका यह लेख पढना बेकार है।




विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/




                 जैसा कि हम जानते हैं कि विश्व की समस्त भाषायों का जन्म कुल

  पांच मूल भाषाओं से हुआ है। भारत में दो मूल भाषायें संस्कृत और 

तमिल हैं। भाषा किसी भी संस्कृति का दर्पण होती है। सभ्यता - संस्क़ृति 

और संस्कार की परिचायक होती है। अत: भारतीय संस्क़ृति और दर्शन 
संस्कृत के बिना अधूरा है। वैसे विश्व में कुल 6809 भाषायें बोली जाती हैं 
जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। लगभग 200 भाषाओं को दस लाख के आसपास लोगों द्वारा बोला जाता है। आज की अन्धाधुन्ध आपाधापी में 357 भाषायें ऐसी हैं जिनको मात्र 50 लोग ही बोलते हैं। 46 ऐसी भाषायें है जिनको 5 से भी कम लोग प्रयोग करते हैं।

                 ऐसे ही भारत में 179 भाषायें और 544 बोलियां है। भाषा वह होती है जिसका व्याकरण होता है। जिनका व्याकरण नहीं होता है उनको बोली कहा जाता है।
हिन्दी और अंग्रेजी के अतिरिक्त भारतीय संविधान 21 अन्य भाषाओं को मान्यता प्रदान कर संवैधानिक भाषा मानता है अर्थात इन भाषाओं में संसद में प्रश्न किये जा सकते हैं।

                संस्कृत भाषा को देवभाषा भाषा कहा जाता है और इसकी लिपि को देवनागरी। भारतीय दर्शन और शास्त्रों के अनुसार संस्कृत का जन्म देवों के मुख से हुआ है जो वास्तव में एक प्रतीक ही है और बताता है  कि इसका जन्म वाहिक नही अपितु आंतरिक ज्ञान से हुआ है। जब हमारे मनीषियों ने शरीर के विभिन्न ऊर्जा केंद्रो अथवा चक्रों प ध्यान लगाया तो उनको जो ध्वनियां सुनाई दी उसे लिपिबद्ध्य किया गया। जिससे संस्कृत भाषा का जन्म हुआ अत: आधुनिक विज्ञान कहता है कि कम्प्यूटर प्रोगामिंग के लिये संस्कृत सम्पूर्ण भाषा है। यानि यह एक शुद्द गणात्मक और गणितिय व्याकरण से परिपूर्ण भाषा है। योग दर्शन के अनुसार मनुष्य के शरीर में मुख्य रूप से सात मुख्य  चक्र होते है। 

                चक्र, एक संस्कृत शब्द है जिसका अर्थ 'पहिया' या 'घूमना' है। भारतीय पारंपरिक औषधि विज्ञान के अनुसार, चक्र की अवधारणा का संबंध पहिए-से चक्कर से हैं, माना जाता है इसका अस्तित्व आकाशीय सतह में मनुष्य का दोगुना होता है। कहते हैं कि चक्र शक्ति केंद्र या ऊर्जा की कुंडली है। मनुष्य की कुंडलनी शक्ति जिसे बंक नाल सहित कई नाम दिये गये हैं। साधारण मनुष्य में यह कुंडलनी शक्ति योनी और गुदा के मध्य अपनी पूंछ को मुख में कर डेढ चक्र करके सोई रहती हैं जो योगियों में जागकर सुषुम्ना नाडी जो हमारी रज्जू के मध्य स्थिर होती है, में प्रवेश करती है। साधनरत होने यह मूलाधार से उठ कर विभिन्न चक्रों को भेदकर, विभिन्न प्रकार के अनुभव कराती हुई ऊपर चढती जाती है। यही शिवलिंग के रहस्य और उस पर लिपटी सर्पिणी की भी व्याख्या करती है।
सात सामान्य प्राथमिक चक्र इस प्रकार बताये गए हैं:
1.   मूलाधार चक्र :  बेस या रूट चक्र (मेरूदंड की अंतिम हड्डी *कोक्सीक्स*) भूमि प्रधान चक्र (जहां कुंडलनी शक्ति सोई रहती है)।  य्ह स्थान गुदा और योनि के बीच में एक कंद के रूप में होता है। यहां वं, शं; षं; सं; लं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। लं बीच में होता है। अत: ॐ लं लम्बोदराय नम:  जाप कर इसको उद्देलित किया जा सकता है। जहां मां काली का वास है जो मां दुर्गा का रूप है और कुंडलनी शक्ति है। देखें दुर्गा सप्तशती की आरती (मूलाधार निवासनी यह पर सिद्दी प्रदे) और सिद्धी कुंजिका स्रोत्र जहां विभिन्न बीज मंत्र दिय हैं। अं कं चं टं तं यं वं शं हं, ठां, ठी ठूं इत्यादि बीज वर्ण। 
                                                                   
2.   स्वाधिष्ठान चक्र : यह चक्र नाभि के नीचे योनी के कुछ ऊपर होता है। त्रिक चक्र (अंडाशय/पुरःस्थ ग्रंथि), जल तत्व की प्रधानता। बं, भं, मं, थं, रं, लं, वं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। हां बम बम महादेव बोला जा सकता  है। क्योकि बं बीच में होता है। इस मंत्र को सिद्ध  करने  से  आप  जल  पर नियंत्रण  कर सकते  हैं।



      3. मणिपूर, सौर स्नायुजाल चक्र (नाभि क्षेत्र)। जहां डं, ढं, णं, तं, दं, धं, नं, पं, यं, फं, रं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां अग्नि तत्व रं माध्य में है। अत: ॐ रं रामाय नम: या रं रमाय नम: जाप किया जा सकता है। यहां  तक  वाहिक  अग्नि  का  बीज  मंत्र  ॐ  रं  वहिर्चैतन्याय नम: है । जो   करने  से आप  अग्नि  पर काबू कर  सकते  हैं।





      4.   अनाहत यानी ह्रदय चक्र (ह्रदय क्षेत्र)। अन आहत यानी बिना चोट की आवाज। वायु तत्व जहां कं, खं, , घं, ड़ं, चं, छं, जं, झं, त्रं, टं, ठं, यं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां यम है। अतं इसका मंत्र ॐ यं यामाय नम: हो सकता है। इसको सिद्ध करने पर आप निराहार जी सकते हैं।

Sunday, April 1, 2018

मन्त्र जप की अवस्थायें

मन्त्र जप की अवस्थायें
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

                      मन्त्र जप की पहली अवस्था होती है वैखरी। जिसमे जापक को मुख से बोलना पड़ता है आवाज के साथ। वास्तव में यह अवस्था कई मायनों में श्रेष्ठ भी कही गई है। यद्यपि प्रारम्भिक जापक को मन एकाग्र करने हेतु यही करनी पड़ती है। किंतु विशेष अनुष्ठान हेतु इसी में मन्त्र जप करना पड़ता है। कारण वैज्ञानिक है। वैखरी में उच्चारण के कारण वायु पर हार्मोनिक पाइप प्रभाव अधिक पड़ता है। जिसके कारण हमारे शरीर के चक्रो के अतिरिक्त वायुमण्डल में भी विशेष पी तरंगे पैदा होती है। जो प्रभाव को बढ़ा देती है। अतः वैखरी जाप की महत्ता कम नही होती। दूसरी बात यह मस्तिष्क में कम्पन पैदा करती रहती है जिसके कारण नींद नही आती है। 

             दिव्तीय अवस्था जब जापक कुछ परिपक्व हो जाता है तो मध्यमा अवस्था होती है। जिसमे जापक के मुख से आवाज नही निकलती केवल होठ हिलते है। यह इसलिए होता है क्योकि जापक को मन्त्र जप का कुछ अभ्यास होने लगता है। 

                  तृतीय अवस्था मे जापक के सोंचते ही मस्तिष्क में मन मे जाप आरम्भ हो जाता है जिसे पश्यन्ति कहते है। पश्य यानी देखना मतलब सोंचा और जाप चालू। यह अवस्था मानसिक होती है। जिसमे वाहीक ध्वनि का सवाल ही नही। यह अवस्था वास्तव में ध्यान जप की होती है। 
                                                       

                वास्तव में यदि आप अनुष्ठान जप नही कर रहे है तो यह ध्यान जप ध्यान में सहायक होता है। यदि आप ध्यान करते करते सो जाते है तो निद्रा को ध्यान निद्रा या योग निद्रा की श्रेणी मिल जाती है। अतः जब हल्की नींद का प्रभाव हो तो मन शांत होता है। आप तब ध्यान में बैठे पश्यंती में जाप करे। जाप करते करते सो जाएं। मन्त्र भी छूट जाता है और कभी कभी तुरीय अवस्था मे पहुचते है। जो कुछ नए अनुभव ज्ञान दे सकती है।
                                                        

                 इसके बाद की अवस्था परा पश्यंती      मन्त्र जप की पहली अवस्था होती है वैखरी। जिसमे जापक को मुख से बोलना पड़ता है आवाज के साथ। वास्तव में यह अवस्था कई मायनों में श्रेष्ठ भी कही गई है। यद्यपि प्रारम्भिक जापक को मन एकाग्र करने हेतु यही करनी पड़ती है। किंतु विशेष अनुष्ठान हेतु इसी में मन्त्र जप करना पड़ता है। कारण वैज्ञानिक है। वैखरी में उच्चारण के कारण वायु पर हार्मोनिक पाइप प्रभाव अधिक पड़ता है। जिसके कारण हमारे शरीर के चक्रो के अतिरिक्त वायुमण्डल में भी विशेष पी तरंगे पैदा होती है। जो प्रभाव को बढ़ा देती है। अतः वैखरी जाप की महत्ता कम नही होती। दूसरी बात यह मस्तिष्क में कम्पन पैदा करती रहती है जिसके कारण नींद नही आती है। 


इसके आगे यदि आप अपनी हथिलियो में मन्त्र जप करते हुए किसी रोगी के शरीर पर हथेली रख दे। उसका कम्पन अपने से मिलकर एक कर दे। तो आप अपने मन्त्र जप से रोगी को स्वस्थ कर सकते है।  पर रोगी कितना स्वस्थ्य होगा यह आपके मन्त्र पर निर्भर होगा।
                                                         
इसके आगे भी आप मन्त्र जप बिना किसी भाव के करते रहो। तो हो सकता एक दिन आप देहभान खो बैठो और आप को अचानक आपका इष्ट सामने दिखाई दे जाए। आपकी कुण्डलनी स्वतः जग जाए और आपका जीवन बदल जाये।
जय गुरुदेव। जय माँ शक्ति।

जब आप सोंचते ही शरीर के किसी भी अंग से जाप कर सकते है। इस अवस्था मे आप किसी चक्र पर ध्यान केंद्रित कर जाप के साथ चक्र को कम्पन तरंग भी भेज सकते है। समूचे शरीर को एक साथ मन्त्र के साथ या श्वास के साथ संकुचित और फैलते हुए महसूस कर सकते है। अपने ब्रह्म संरंध्र यानी तालु के नीचे ऊपर नीचे होता हुआ भी महसूस कर सकते है।
यह अवस्था मन्त्र जप की अंतिम अवस्था है।

                                                        

                                                         

              

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...