"संस्कृत से संस्क़ृति और संस्क़ृति से संस्कार'
क्यो है यह देव भाषा ??
क्यो है यह देव भाषा ??
“यदि भारत को नष्ट करना है तो
संस्कृत को नष्ट कर दो। भारत खुद ब खुद बेमौत मर जायेगा” । -------देवीदास विपुल
भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल संस्कृत बोलने वाले 14,135 लोग बचे हैं।
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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जैसा कि हम जानते हैं कि विश्व की समस्त भाषायों का जन्म कुल
पांच मूल भाषाओं से हुआ है। भारत में दो मूल भाषायें संस्कृत और
तमिल हैं। भाषा किसी भी संस्कृति का दर्पण होती है। सभ्यता - संस्क़ृति
और संस्कार की परिचायक होती है। अत: भारतीय संस्क़ृति और दर्शन
संस्कृत के बिना अधूरा है। वैसे विश्व में कुल 6809 भाषायें बोली जाती हैं
जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। लगभग 200 भाषाओं को दस लाख के आसपास लोगों द्वारा बोला जाता है। आज की अन्धाधुन्ध आपाधापी में 357 भाषायें ऐसी हैं जिनको मात्र 50 लोग ही बोलते हैं। 46 ऐसी भाषायें है जिनको 5 से भी कम लोग प्रयोग करते हैं।
पांच मूल भाषाओं से हुआ है। भारत में दो मूल भाषायें संस्कृत और
तमिल हैं। भाषा किसी भी संस्कृति का दर्पण होती है। सभ्यता - संस्क़ृति
और संस्कार की परिचायक होती है। अत: भारतीय संस्क़ृति और दर्शन
संस्कृत के बिना अधूरा है। वैसे विश्व में कुल 6809 भाषायें बोली जाती हैं
जिनमें से नब्बे प्रतिशत भाषाओं को बोलनेवालों की संख्या एक लाख से कम है। लगभग 200 भाषाओं को दस लाख के आसपास लोगों द्वारा बोला जाता है। आज की अन्धाधुन्ध आपाधापी में 357 भाषायें ऐसी हैं जिनको मात्र 50 लोग ही बोलते हैं। 46 ऐसी भाषायें है जिनको 5 से भी कम लोग प्रयोग करते हैं।
ऐसे ही भारत में 179 भाषायें और 544 बोलियां है। भाषा वह होती है जिसका
व्याकरण होता है। जिनका व्याकरण नहीं होता है उनको बोली कहा जाता है।
हिन्दी और अंग्रेजी के अतिरिक्त भारतीय संविधान 21 अन्य भाषाओं को मान्यता
प्रदान कर संवैधानिक भाषा मानता है अर्थात इन भाषाओं में संसद में प्रश्न किये जा
सकते हैं।
संस्कृत भाषा को देवभाषा भाषा कहा
जाता है और इसकी लिपि को देवनागरी। भारतीय दर्शन और शास्त्रों के अनुसार संस्कृत
का जन्म देवों के मुख से हुआ है जो वास्तव में एक प्रतीक ही है और बताता है कि इसका जन्म वाहिक नही अपितु आंतरिक ज्ञान से
हुआ है। जब हमारे मनीषियों ने शरीर के विभिन्न ऊर्जा केंद्रो अथवा चक्रों पर ध्यान
लगाया तो उनको जो ध्वनियां सुनाई दी उसे लिपिबद्ध्य किया गया। जिससे संस्कृत भाषा
का जन्म हुआ अत: आधुनिक विज्ञान कहता है कि कम्प्यूटर प्रोगामिंग के लिये संस्कृत
सम्पूर्ण भाषा है। यानि यह एक शुद्द गणात्मक और गणितिय व्याकरण से परिपूर्ण भाषा
है। योग दर्शन के अनुसार मनुष्य के शरीर में मुख्य रूप से सात मुख्य चक्र होते है।
चक्र, एक संस्कृत शब्द है
जिसका अर्थ 'पहिया' या 'घूमना' है। भारतीय पारंपरिक औषधि विज्ञान के अनुसार, चक्र
की अवधारणा का संबंध पहिए-से चक्कर से हैं, माना
जाता है इसका अस्तित्व आकाशीय सतह में मनुष्य का दोगुना होता है। कहते हैं कि
चक्र शक्ति केंद्र या ऊर्जा की कुंडली है।
मनुष्य की कुंडलनी शक्ति जिसे बंक नाल सहित कई नाम
दिये गये हैं। साधारण मनुष्य में यह कुंडलनी शक्ति योनी और गुदा के मध्य अपनी पूंछ
को मुख में कर डेढ चक्र करके सोई रहती हैं जो योगियों में जागकर सुषुम्ना नाडी जो
हमारी रज्जू के मध्य स्थिर होती है, में प्रवेश करती है। साधनरत होने यह
मूलाधार से उठ कर विभिन्न चक्रों को भेदकर, विभिन्न प्रकार के अनुभव कराती हुई ऊपर चढती जाती है। यही शिवलिंग के रहस्य और
उस पर लिपटी सर्पिणी की भी व्याख्या करती है।
सात सामान्य प्राथमिक चक्र इस
प्रकार बताये गए हैं:
1.
मूलाधार चक्र : बेस या रूट चक्र (मेरूदंड की
अंतिम हड्डी *कोक्सीक्स*) भूमि प्रधान चक्र (जहां कुंडलनी शक्ति सोई रहती है)। य्ह स्थान गुदा और योनि के बीच में एक कंद के रूप में होता है। यहां वं, शं;
षं; सं;
लं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है।
लं बीच में होता है। अत: ॐ लं लम्बोदराय नम: जाप कर इसको उद्देलित किया जा सकता है। जहां मां काली का वास है जो मां दुर्गा का रूप है और कुंडलनी शक्ति है। देखें
दुर्गा सप्तशती की आरती (मूलाधार निवासनी यह पर सिद्दी प्रदे) और सिद्धी कुंजिका स्रोत्र जहां विभिन्न बीज मंत्र दिय हैं। अं कं
चं टं तं यं वं शं हं, ठां, ठी ठूं इत्यादि बीज वर्ण।
2.
स्वाधिष्ठान चक्र : यह चक्र नाभि के नीचे योनी के कुछ ऊपर होता है। त्रिक चक्र
(अंडाशय/पुरःस्थ ग्रंथि), जल तत्व की प्रधानता। बं,
भं, मं,
थं, रं,
लं, वं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। हां बम बम महादेव बोला जा सकता है। क्योकि बं बीच में होता है। इस मंत्र को सिद्ध करने से आप जल पर नियंत्रण कर सकते हैं।
3. मणिपूर,
सौर
स्नायुजाल चक्र (नाभि क्षेत्र)। जहां डं, ढं,
णं, तं,
दं, धं,
नं, पं,
यं, फं,
रं वर्णों की अनाहत
ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां अग्नि तत्व रं माध्य में है। अत: ॐ रं रामाय नम: या रं रमाय नम: जाप किया जा सकता है। यहां तक वाहिक अग्नि का बीज मंत्र ॐ रं वहिर्चैतन्याय नम: है । जो करने से आप अग्नि पर काबू कर सकते हैं।
4.
अनाहत यानी ह्रदय चक्र (ह्रदय क्षेत्र)।
अन आहत यानी बिना चोट की आवाज। वायु तत्व जहां कं, खं,
ग, घं,
ड़ं, चं,
छं, जं,
झं, त्रं,
टं, ठं,
यं वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है। यहां यम है। अतं इसका मंत्र ॐ यं यामाय नम: हो सकता है। इसको सिद्ध करने पर आप निराहार जी सकते हैं।
5.
विशुद् /
कंठ
चक्र (कंठ और गर्दन क्षेत्र)। यहां हं है यानि आकाश तत्व अब यहां तक हमारे शरीर के पांचो तत्व पूरे हो गये। क्योकि इसके आगे की यात्रा शरीर के बाह्र और भीतर दोनो तर्फ है। जहां अ, आ,
इ, ई,
उ, ऊ,
ऋ, ज्ञ,
लृ; ए,
ऐ, ओ,
अं; अः ह वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है।यहां पर ॐ हं हनुमंतये नम: मंत्र जप किया जा सकता है। यह आपको आकाशिय शक्तियां देता है।
6.
आज्ञा,
ललाट
या ध्यान या तृतीय नेत्र । जहां स्त्रियां बिन्दी लगाती
हैं। जहां हं, क्षं,
ॐ वर्णों की अनाहत ध्वनि
गूंजायमान रहती है। यहां ॐ बीच में हैं। अत: ॐ का जाप लाभकारी होता है।
7. सहस्रार, शीर्ष चक्र (सिर का शिखर; एक नवजात शिशु के सिर का 'मुलायम स्थान (तालू)। जहां दल के वर्णों की अनाहत ध्वनि गूंजायमान रहती है।
मानव शरीर की रचना ही इस पूर्ण
सृष्टि में अद्भुत मानी गई है क्योंकि इसी योनी में मन द्वारा धारण किया गया
सृष्टि कल्याण का संकल्प पूर्ण हो पाता है| मानव शरीर में सात चक्रों का समावेश
होता है| इन
चक्रों द्वारा मानव शरीर ५६ प्रकार की ध्वनियों का उच्चारण कर पाता है|
संस्कृत भाषा की व्याकरण को पाणिनि व्याकरण द्वारा समझा जा सकता है। माना यह जाता है कि महेश्वर के डमरू से यह 14 सूत्र निकले थे।
वैसे पाणिनि का संस्कृत व्याकरण चार भागों में है।
·
माहेश्वर सूत्र - स्वर शास्त्र
·
अष्टाध्यायी या सूत्रपाठ - शब्द विश्लेषण
·
धातुपाठ - धातुमूल (क्रिया के मूल रूप)
·
गणपाठ
पतञ्जलि ने पाणिनि के अष्टाध्यायी पर अपनी टिप्पणी
लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया गया। महा+भाष्य यानि समीक्षा,
टिप्पणी, विवेचना, आलोचना।
लिखी जिसे महाभाष्य का नाम दिया गया। महा+भाष्य यानि समीक्षा,
टिप्पणी, विवेचना, आलोचना।
पाणिनि के सूत्रों की
शैली अत्यंत संक्षिप्त है। वे सूत्रयुग में ही हुए थे। श्रौत सूत्र, धर्म सूत्र, गृहस्थसूत्र, प्रातिशाख्य सूत्र भी इसी शैली में है किंतु पाणिनि के सूत्रों में जो निखार
है वह अन्यत्र नहीं है। इसीलिये पाणिनि के सूत्रों को प्रतिष्णात सूत्र कहा गया
है। पाणिनि ने वर्ण या वर्णमाला को 14 प्रत्याहार सूत्रों
में बाँटा और उन्हें विशेष क्रम देकर 42 प्रत्याहार सूत्र
बनाए। पाणिनि की सबसे बड़ी विशेषता यही है जिससे वे थोड़े स्थान में अधिक सामग्री
भर सके। यदि अष्टाध्यायी के अक्षरों को गिना जाय तो उसके 3995 सूत्र एक सहस्र श्लोक के बराबर होते हैं। पाणिनि ने संक्षिप्त ग्रंथरचना की और
भी कई युक्तियाँ निकालीं जैसे अधिकार और अनुवृत्ति अर्थात् सूत्र के एक या कई
शब्दों को आगे के सूत्रों में ले जाना जिससे उन्हें दोहराना न पड़े। अर्थ करने की
कुछ परिभाषाएँ भी उन्होंने बनाई। एक बड़ी विचित्र युक्ति उन्होंने असिद्ध सूत्रों
की निकाली। अर्थात् बाद का सूत्र अपने से पहले के सूत्र के कार्य को ओझल कर दे।
पाणिनि का यह असिद्ध नियम उनकी ऐसी तंत्र युक्ति थी जो संसार के अन्य किसी ग्रंथ
में नही पाई जाती।
अब आप समझ गये होंगे कि संस्कृत
क्यों देव भाषा कही गई हैं। शरीर के चक्रों मे अनाहत ध्वनियों को जब आकृतिक रूप
यानि लिपिबद्ध किया गया तो संस्कृत भाषा का जन्म हुआ। यानि यह भाषा सदैव आपके भीतर
समाहित रहती है। वह बात अलग है कि इसको कोई बिरला ही जान पाता है। और उनकी संख्या
नगण्य है शून्य नहीं। इन चक्रों के विभिन्न रंग भी हैं जो इन्द्र धनुषी है और जिनको आधुनिक विज्ञान
प्राकृतिक रंग (VIBGYOR) कहता है। यह रंग इसी
क्रम से चक्रों में विद्यमान रहता है।
संस्कृति का
सन्धि विच्छेद (सं + अस् + कृत) करने पर हम जान सकते है कि सं यानि साथ संग और सदैव,
अस् यानि हमारे और कृति यानि कार्य शैली और कर्म। अर्थात जो कर्म और कार्यशैली
आपको परिलक्षित कर समाजिक निर्माण करे वह संस्कृति। यहां पर एक बात स्पष्ट है कि “सर्वे भवंतु
सुखिन:” वाक्य सिर्फ और सिर्फ देव संस्कृति याने संस्कृत में हो
सकती है और कहीं नहीं। इसी लिये जहां संस्कृत नहीं वहां क्रूरता देखी जा सकती है।
आधुनिक युग में क्रूर बगदादी इसका उदाहरण है। लेकिन दुखद यह है कि भारतवर्ष के कुछ
राज्यों में राजनीतिक रूप से संस्कृत को यानि भारतीय धरोहर और आत्मा को नष्ट करने
का कुचक्र भी चल रहा है जो भारतीयता को नष्ट करने का षडयंत्र प्रतीत होता है।
संस्कार का
सन्धि विच्छेद (सं + अस् + कार) करने पर हम जान सकते है कि सं यानि साथ संग और
सदैव, अस् यानि हमारे और कार यानि आकार। मतलब आपके साथ रहने वाले कर्मों और कार्य
का आकार या आयाम हुआ संस्कार।
कुल मिलाकर यदि आप देखें तो पायें
देवभाषा संस्कृत से उच्च मानवीय संस्कृति और उस से ही पडनेवाले उच्च मानवीय
संस्कार। अब आप प्रश्न उठा सकते हैं कि फिर भारतीय इतिहास धर्म भेदभाव से क्यों
भरा है। तो इसका उत्तर है कि बुद्ध जन्म के समय प्राकृत भाषा और पाली भाषायें
जन्मी और संस्कृत का प्रचलन कम हुआ। साथ ही में सदी आरम्भ में सालार बिन जंग जो
खैबर दर्रे से प्रविष्ट हुआ और आक्रांता बन अपने साथ कबिलाई संस्कृति और भाषा
लाया। फिर आये मुगल और अंगेज जो संस्कृत यानि भारतीय संस्कृति यानि मूल संस्कारों
का दमन करने में लग गये। अत: भारतीयता की सुगन्ध मरने लगी और मनमाना व्यवहार,
दुराचार तथा अनाचार होने लगा जो काला इतिहास बन गया।
अंत में आप सुदीर्घ पाठकों से निवेदन
है कि संस्कृत को नया सिरे से जीवित होने में सहयोग दें आपके अन्दर संस्कृति और
संस्कार अपने आप आने लगेंगे। यह मेरा पूर्ण विश्वास है और साथ में दावा भी। यह पत्रिका
यह निरंतर प्रयास करेगी कि भारतीयता की आत्मा यानि संस्कृत, संस्कृति और संस्कार
कभी क्षीण न हो। मेरा तो यह मानना है कि संस्कृत के लोप होने से भारतीयता और हिंदू
दर्शन दोनों मर जायेगें। शायद इसीलिये इसको नष्ट करने का प्रयास समय समय पर होता
रहा है।
विशेष: यदि कोई इस भारतीय विरासत को अवैज्ञानिक मानता है या आधुनिक पढाई में आकर गलत समझता है तो मुझसे सम्पर्क करने का कष्ट करे। इस लेख को अनुभवों के आधार पर लिखा गया है जो कोई भी कर सकता है परन्तु दुरा ग्रह पूर्वाग्रह शठता और हठता छोडनी पडेगी।
नोट : चित्र और कुछ कथन गूगल यानी आज के भौतिक गूगल गुरू से साभार
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
सुधर्मा (हिंदी का एकमात्र संस्कृत ई दैनिक पत्र)
सम्पर्क : srsanskritacademy@gmail.com
+91-9205526860, 9013046830
लिंक: http://srsacademy.org/rightpanel.aspx?id=50#
Vipul sir...
ReplyDeleteNaman
Anuj Saxena
नमन हो बंधुवर
ReplyDeleteजगत में सोना है तब ही उसका नकली मिलता है। जिस दिन जगत सद्गगुरु विहीन हो जायेगा। उस दिन आखिरी दिन होगा। वैसे यदि आपकी साधना सच्ची और साकार है तो आपका इष्ट आपको स्वयम ही उन तक पहुचा देता है, स्वप्न और ध्यान के माध्यम से।
ReplyDeleteयदि आपको स्वत: साधना में कोई ऐसी बात जो समझ में न आये, घटित होती है तो आप मुझ्से बेहिचक व्हाट ऐप के माध्यम से 9969680093 पर सम्पर्क कर सकते है। निशुक्ल घर बैठे आपको समस्याविहीन किया जायेगा।
इस लेख को प्रभात प्रकाशन द्वारा मुद्रित और सनातन परिवार द्वारा प्रकाशित "अप्रतिम भारत" में छापा गया है। आपका आभार
ReplyDeleteअति उत्तम ज्ञानवर्षक
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