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Tuesday, April 10, 2018

गुरु की क्या पहचान है?


                       गुरु की क्या पहचान है?
                            
 
विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

 
                   गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुशय के दिमाग में रहता है। कहीं मैं ठग न जाऊं । कहीं मेरा धन समपत्ति न छिन जाये। इत्यादि इत्यादि। बात सही है आज धर्म के नाम पर सबसे अधिक दुकानदारी और ठगी हो रही है। मंदिर, मस्जिद, चर्च के निर्माण की आड में लोगों के घरों का निर्माण पहले होता है। श्रद्दा से दिया गया दान दारु और ऐयाशी में प्रयोग होता है। गुरु, उस्ताद, फादर के नाम पर शोषण के समाचार आये दिन देखने को मिलते हैं। अत: मैंने भी गूगल गुरु की शरण में खोजना आरम्भ किया। पर कहीं पर सही उत्तर न मिला। बडी बडी धार्मिक दुकान और स्वयम घोषित भगवान ओशो भी सिर्फ गुमा फिरा मूर्ख बनाने का प्रयास करते दिखाई दिये। 

चलिये कुछ जो मिला वह बताता हूं। बाद में अपने गुरु महाराज की वाणी बताऊंगा।
उपनिषदों मे इस बारे मे कहा गया है कि :

  
निवर्तयत्यन्यजनं प्रमादतः, स्वयं च निष्पापपथे प्रवर्तते ।
गुणाति तत्त्वं हितमिच्छुरंगिनाम्,शिवार्थिनां यः स गुरु र्निगद्यते ॥

 
        जो दूसरों को प्रमाद करने से रोकते हैं, स्वयं निष्पाप रास्ते पर चलते हैं, जनहित और दीन दुखिओं के कल्याण की कामना का तत्व बोध करते-करातें हैं तथा निस्वार्थ भाव से अपने शिष्य के जीवन को कल्याण पथ पर अग्रसर करतें हैं  उन्हें गुरु कहते हैं|
पर यहां भी तत्कालिक पहचान नहीं। 
कहीं लिखा है “कलयुग गुरुओ से भरा पड़ा है परन्तु सही मार्ग दिखाने वाले गुरुओं की कमी है, ऐसे में साधारण व्यक्ति के लिए गुरु का चयन करना अति कठिन है”  
परंतु जो कुछ प्रभावित करता है “ सच्चे गुरु की पहचान का पहला लक्षण यह है कि गुरु किसी वेशभूषा या ढोंग के अधीन नहीं है और उसके चेहरे पर सूर्य के सामान तेज दिखता है और उसकी छठी इंद्री पूर्णत: विकसित होती है जिसके द्वारा वह भूत, वर्तमान और भविष्य को देख पाता है
सच्चा गुरु ज्ञान देने में प्रसन्न होता है ज्ञान को छुपाने वाला या भ्रमित करने वाला सच्चा गुरु नहीं होता | यह बात भी सभी जानते है कि संसार में जीवित रहने के लिए धन की आवश्यकता है, अकारण आवश्यकता से अधिक धन का मांगना गुरु के लालची और स्वार्थी होने का चिन्ह है। 
गुरु कही भी मिल सकता है, यह आवश्यक नहीं है कि गुरु किसी विशेष वेशभूषा में ही होगा, वेशभूषा का प्रयोग निजी लाभ के लिए मूर्ख बनाने या दिशाहीन करने में भी किया जा सकता है सच्चे गुरु को वेशभूषा या दिखावे में कोई रुचि नहीं होती, ना ही वह अपनी प्रशंसा सुनने का इच्छुक होता है
साधू की वेशभूषा भगवा रंग की होती है इसका अर्थ यह नहीं है कि भगवा पहनने वाले सारे लोग साधू विचारों के होते है इनमे स्वार्थी और कपटी लोग भी हो सकते है | साधू के भगवा पहनने का अर्थ यह है कि इस व्यक्ति ने पारिवारिक सुखों का त्याग करके भगवा धारण कर लिया है और अब पारिवारिक जीवन नहीं चाहता, बाकि का जीवन सांसारिक वस्तुओं और लोगो से दूर रहेगा | प्राय: लोग आशीर्वाद पाने के लिए साधू को आवश्यकता से अधिक सुविधा उपलब्ध करा कर उनका मन भटकाते है, सुख सुविधा को देखकर सच्चे साधू का मन भी संसार की और आकर्षित होने लगता हैऐसा करके वह लोग अपने पाप कर्म की पूँजी जमा करते है क्योंकि सुविधाओं को भोगने पर साधू अपने लक्ष्य से भटक कर निराकार से दूर हो जाता है |
कहीं कहा गया है। 

सन्धिछेदः- अर्द्ध ऋचैः उक्थानाम् रूपम् पदैः आप्नोति निविदः।
प्रणवैः शस्त्राणाम् रूपम् पयसा सोमः आप्यते।

अनुवादः- जो सन्त (अर्द्ध ऋचैः) वेदों के अर्द्ध वाक्यों अर्थात् सांकेतिक शब्दों को पूर्ण करके (निविदः) आपूर्ति करता है (पदैः) श्लोक के भागों को अर्थात् आंशिक वाक्यों को (उक्थानम्) स्तोत्रों के (रूपम्) रूप में (आप्नोति) प्राप्त करता है अर्थात् आंशिक विवरण को पूर्ण रूप से समझता और समझाता है (शस्त्राणाम्) जैसे शस्त्रों को चलाना जानने वाला उन्हें (रूपम्) पूर्ण रूप से प्रयोग करता है एैसे पूर्ण सन्त (प्रणवैः) औंकारों अर्थात् ओम्-तत्-सत् मन्त्रों को पूर्ण रूप से समझ व समझा कर (पयसा) दूध-पानी छानता है अर्थात् पानी रहित दूध जैसा तत्व ज्ञान प्रदान करता है जिससे (सोमः) अमर पुरूष अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त करता है। वह पूर्ण सन्त वेद को जानने वाला कहा जाता है।
  
भावार्थः- तत्वदर्शी सन्त वह होता है जो वेदों के सांकेतिक शब्दों को पूर्ण विस्तार से वर्णन करता है जिससे पूर्ण परमात्मा की प्राप्ति होती है वह वेद के जानने वाला कहा जाता है।

यजुर्वेद आगे कहता है
सन्धिछेद:- अश्विभ्याम् प्रातः सवनम् इन्द्रेण ऐन्द्रम् माध्यन्दिनम्
वैश्वदैवम् सरस्वत्या तृतीयम् आप्तम् सवनम्

अनुवाद:- वह पूर्ण सन्त तीन समय की साधना बताता है। (अश्विभ्याम्) सूर्य के  उदय-अस्त से बने एक दिन के आधार से (इन्द्रेण) प्रथम श्रेष्ठता से सर्व देवों के मालिक पूर्ण परमात्मा की (प्रातः सवनम्) पूजा तो प्रातः काल करने को कहता है जो (ऐन्द्रम्) पूर्ण परमात्मा के लिए होती है। दूसरी (माध्यन्दिनम्) दिन के मध्य में करने को कहता है जो (वैश्वदैवम्) सर्व देवताओं के सत्कार के सम्बधित (सरस्वत्या) अमृतवाणी द्वारा साधना करने को कहता है तथा (तृतीयम्) तीसरी (सवनम्) पूजा शाम को (आप्तम्) प्राप्त करता है अर्थात् जो तीनों समय की साधना भिन्न-2 करने को कहता है वह जगत् का उपकारक सन्त है।
भावार्थः- जिस पूर्ण सन्त के विषय में कहा है वह दिन में 3 तीन बार (प्रातः दिन के मध्य-तथा शाम को) साधना करने को कहता है। सुबह तो पूर्ण परमात्मा की पूजा मध्यान्ह  को सर्व देवताओं को सत्कार के लिए तथा शाम को संध्या आरती आदि को अमृत वाणी के द्वारा करने को कहता है वह सर्व संसार का उपकार करने वाला होता है।

सन्धिछेदः- व्रतेन दीक्षाम् आप्नोति दीक्षया आप्नोति दक्षिणाम्।
दक्षिणा श्रद्धाम् आप्नोति श्रद्धया सत्यम् आप्यते 

अनुवादः- (व्रतेन) दुर्व्यसनों का व्रत रखने से अर्थात् भांग, शराब, मांस तथा तम्बाखु आदि के सेवन से संयम रखने वाला साधक (दीक्षाम्) पूर्ण सन्त से दीक्षा को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् वह पूर्ण सन्त का शिष्य बनता है (दीक्षया) पूर्ण सन्त दीक्षित शिष्य से (दक्षिणाम्) दान को (आप्नोति) प्राप्त होता है अर्थात् सन्त उसी से दक्षिणा लेता है जो उस से नाम ले लेता है। इसी प्रकार विधिवत् (दक्षिणा) गुरूदेव द्वारा बताए अनुसार जो दान-दक्षिणा से धर्म करता है उस से (श्रद्धाम्) श्रद्धा को (आप्नोति) प्राप्त होता है (श्रद्धया) श्रद्धा से भक्ति करने से (सत्यम्) सदा रहने वाले सुख व परमात्मा अर्थात् अविनाशी परमात्मा को (आप्यते) प्राप्त होता है।
भावार्थ:- पूर्ण सन्त उसी व्यक्ति को शिष्य बनाता है जो सदाचारी रहे। अभक्ष्य पदार्थों का सेवन व नशीली वस्तुओं का सेवन न करने का आश्वासन देता है। पूर्ण सन्त उसी से दान ग्रहण करता है जो उसका शिष्य बन जाता है फिर गुरू देव से दीक्षा प्राप्त करके फिर दान दक्षिणा करता है उस से श्रद्धा बढ़ती है। श्रद्धा से सत्य भक्ति करने से अविनाशी परमात्मा की प्राप्ति होती है अर्थात् पूर्ण मोक्ष होता है। पूर्ण संत भिक्षा व चंदा मांगता नहीं फिरेगा।

कबीर,
गुरू बिन माला फेरते गुरू बिन देते दान। 
गुरू बिन दोनों निष्फल है पूछो वेद पुराण।।

        एक जगह लिखा है कि सच्चे गुरु के संकेत क्या हैं।
        गुरु अपने लिए कुछ नहीं मांगता। वह अपने लिए कुछ नहीं चाहता। वह सिर्फ देता है। गुरु ने अहंकार पर विजय पा ली होती है। वह विनम्र, बच्चे की तरह भोला और पवित्र होता है। गुरु कभी खुद को गुरु नहीं मानता। वह खुद को एक दास ही मानता है। गुरु अपने ज्ञान और अनुभवों का उपयोग कमाई करने के लिए नहीं करता है।गुरु केवल विचारों से ही नहीं, बल्कि जीवन से शिक्षा देता है। गुरु ने अपनी इंद्रियों पर विजय पाई होती है।
         कुल मिलाकर गोल गोल कोई सही तरह से संतुष्ट न कर पाया। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज जो शक्तिपात के कौल गुरू थे आपने गुरु के जो लक्षण बताये है जो अधिक प्रभावी औ तत्कालिक हैं। 

        जिनमें एक आंतरिक और कुछ भौतिक लक्षण हैं। स्वामी जी ने लिखा है कि जब आप दो रूपये का एक घडा खरीदते हैं तो ठोक बजाकर देखते हैं अत: जिसको आप अपना जीवन सम्रर्पित करने जा रहे हैं उसको तो अवश्य ठोंक कर देखें। 

कुछ वाहिक लक्षण:
जो आडम्बर से दूर हो। जिसके वस्त्र साधारण किंतु स्वच्छ हो। जो तरह तरह की मालाओ अंगूठियो वेश भूषा से दूर हो। मूछें बार बार न ऐठें। (यह गर्व का प्रतीक हैं)। सद्गुरु स्वामी शिवोम् तीर्थ जी महाराज कहते हैं जो स्वयं ग्रह नक्षत्रों के बंधन से बंधा हो वह आपको क्या मुक्त कर पायेगा। जो अपने  नाम के आगे बडे बडे नाम पट्ट न लगाता हो। (जैसे भगवान, अखंडमंडलाकार, जगतगुरु, जगतमाता इत्यादि)। 
जिसमें समत्व हो यानी न कोई बडा शिष्य न छोटा। जिसने दक्षिणा अधिक दी उसको अधिक प्रसाद। जिसने कुछ नहीं दिया सिर्फ प्रणाम किया उसे कुछ नहीं। चेहरे पर सौम्यता हो, दीनता हो, प्रेम हो पर मलीनता न हो। तेज हो निस्तेज न हो।
जो न अधिक बोलता हो, चपलता न हो। व्यर्थ बहस में न पडे न उलझे। कम खाता हो, खाने का लालची न हो। इस तरह के अनेकों गुण हों।

परंतु अंतिम जो आन्तरिक है। 
वह मनुष्य जिसके पास बैठने से आपको क्रिया होने लगे (जैसे घूर्णन, कम्पन, रोमांच, ठंड, गरमी, आवेग, कुछ वो जो अचानक हो और आप के लिये अनहोनी),  ध्यान लगने लगे, सिर भारी होने लगे, चक्कर आने लगे, नींद आने लगे। वह आपके गुरु होने लायक है। जो आपको स्वप्न में दिखाई दे। मैने अपने एक मित्र श्री अंशुमन द्वेदी को शक्तिपात परम्परा के एक सन्यासी गुरु से मिलाया, जिसको देखकर अंशुमन बोले स्वामी जी आपको तो स्वप्न में देखा है। मैस्वयम स्वपन और ध्यान के माधयम से अपने गुरु तकहुचा था। 
 
प्राय: जो साकार सगुण अराधना करते हैं उनको आवश्यकता पडने पर साकार देव इष्ट बनकर सम्रर्थ गुरु के पास खुद पहुंचा देते हैं। यह अनुभव तो मेरा भी है। पर जो निराकार निर्गुण साधना करते हैं वह प्राय: मनोचिकित्सक के पास तक जाने की नौबत आ जाती है। 
अत: मित्रों आप गुरु को ढूंढना छोडकर अपनी साधना में लग जाइये। मेरा सुझाव है सगुण साकार आराधना और उपासना ही करे तो बेहतर है। 

वैसे आपके घर पर बिना गुरु के साकार, निराकार, नास्तिक, मुस्लिम और ईसाईयों की ध्यान साधना हेतु समध्यावि यानी MMSTM हेतु लिंक  परजाएं


 आप इस विधि से ध्यान करें। 

कोई किसी अनुभव में कुछ अनुभूति हो तो 9969680093 पर सम्पर्क करें। 
            ॐ हरि ॐ     

  "MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल

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