भारत में मरती हुई विश्व की महानतम भाषा:
संस्कृत भाषा
“यदि भारत को नष्ट करना है तो
संस्कृत को नष्ट कर दो। भारत खुद ब खुद बेमौत मर जायेगा” । -------देवीदास विपुल
भारत की 2001 की जनगणना के अनुसार भारत में कुल संस्कृत बोलने वाले 14,135 लोग बचे हैं।
यदि यह पढकर आपके आंसू नहीं निकले तो आप भारत के
हितैषी नहीं हो सकते। आपका यह लेख पढना बेकार है।
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
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जिस प्रकार देवता अमर हैं उसी प्रकार सँस्कृत
भाषा भी अपने विशाल-साहित्य, लोक हित की भावना ,विभिन्न प्रयासों तथा उपसर्गो के
द्वारा नवीन-नवीन शब्दों के निर्माण की क्षमता आदि के द्वारा अमर है। पर देश की
स्वतंत्रता के बाद जिस प्रकार इसे नष्ट भ्रष्ट करने का कुचक्र चला था उससे तो लगने
लगा था आज आधुनिक दानव इसको नष्ट ही कर देंगे।
आधुनिक विद्वानों के अनुसार संस्कृत भाषा का अखंड प्रवाह
पाँच सहस्र वर्षों से बहता चला आ रहा है। भारत में यह आर्यभाषा का
सर्वाधिक महत्वशाली, व्यापक और संपन्न स्वरूप है। इसके माध्यम
से भारत की उत्कृष्टतम मनीषा, प्रतिभा, अमूल्य चिंतन, मनन, विवेक,
रचनात्मक, सर्जना और वैचारिक प्रज्ञा का
अभिव्यंजन हुआ है। आज भी सभी क्षेत्रों में इस भाषा के द्वारा ग्रंथनिर्माण की
क्षीण धारा अविच्छिन्न रूप से वह रही है।
आज भी यह भाषा, अत्यंत सीमित क्षेत्र में ही सही, बोली जाती है।
इसमें व्याख्यान होते हैं और भारत के विभिन्न प्रादेशिक भाषाभाषी पंडितजन इसका
परस्पर वार्तालाप में प्रयोग करते हैं। हिंदुओं के सांस्कारिक कार्यों में आज भी
यह प्रयुक्त होती है। इसी कारण ग्रीक और लैटिन आदि प्राचीन मृत भाषाओं (डेड
लैंग्वेजेज़) से संस्कृत की स्थिति भिन्न है। यह मृतभाषा नहीं, जीवित भाषा है।
भारत
में संस्कृत भाषा का प्रयोग बंद होना एक अचंभे की बात है, कुछ लोग कहते हैं कि संस्कृत के कठिन होने के कारण इसे हटा दिया गया।
परन्तु दुनिया की सबसे कठिन भाषा तो चीनी है, फिर उन्होंने
चीनी भाषा का प्रयोग बंद क्यों नहीं कर दिया। संस्कृत का हमारे समाज से लुप्त हो
कर हिन्दी एवं अन्य भाषाओं में बदलना बड़ा ही अज़ीब है। ऐसा लगता है कि हिंदी एवं
अन्य भाषाऐं संस्कृत को तोड़ मरोड़ कर बनी है, किसी ने
संस्कृत भाषा को ख़तम करने का प्रयास किया था तो विभिन्न जगह उससे विभिन्न भाषाओं
का निर्माण हुआ। और ऐसा करने की एक ही वजह हो सकती है, क्योंकि
हमारे सारे वेद एवं प्राचीन ग्रन्थ जो कि ज्ञान एवं रहस्य से परिपूर्ण हैं वो सब
संस्कृत में हैं।
जिन्होंने भी संस्कृत भाषा को नष्ट करने का प्रयास किया वो ये नहीं चाहते थे कि हर कोई संस्कृत में लिखे वेदों एबं पुराणों का ज्ञान अर्जित कर सके एवं रहस्यों को उजागर कर सके। क्योकिं हमारे सारे मूलग्रंथ तो विदेशों में पडे हैं।
जिन्होंने भी संस्कृत भाषा को नष्ट करने का प्रयास किया वो ये नहीं चाहते थे कि हर कोई संस्कृत में लिखे वेदों एबं पुराणों का ज्ञान अर्जित कर सके एवं रहस्यों को उजागर कर सके। क्योकिं हमारे सारे मूलग्रंथ तो विदेशों में पडे हैं।
ऋक्संहिता यानी ऋग्वेद की परिभाषा में संस्कृत का
आद्यतम उपलब्ध रूप कहा जा सकता है। यह भी माना जाता है कि ऋक्संहिता के प्रथम और
दशम मंडलों की भाषा प्राचीनतर है। कुछ विद्वान् प्राचीन वैदिक भाषा को
परवर्ती पाणिनीय (लौकिक) संस्कृत से भिन्न मानते हैं। पर यह पक्ष भ्रमपूर्ण है।
वैदिक भाषा अभ्रांत रूप से संस्कृत भाषा का आद्य उपलब्ध रूप है। पाणिनि ने जिस संस्कृत
भाषा का व्याकरण लिखा है उसके दो अंश हैं -
(1) जिसे अष्टाध्यायी में
"छंदप्" कहा गया है, और
(2) भाषा (जिसे लोकभाषा या लौकिक भाषा के रूप में माना जाता
है)।
आचार्य पतंजलि के
"व्याकरण महाभाष्य" नामक प्रसिद्ध शब्दानुशासन के आरंभ में भी वैदिक भाषा
और लौकिक भाषा के शब्दों का उल्लेख हुआ है। "संस्कृत नाम दैंवी वागन्वाख्याता
महर्षिभि:" वाक्य में जिसे देवभाषा या 'संस्कृत'
कहा गया है वह संभवत: यास्क, पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि के समय तक
"छंदोभाषा" (वैदिक भाषा) एवं "लोकभाषा" के दो नामों, स्तरों व रूपों में व्यक्त थी।
बहुत से विद्वानों का मत है कि भाषा के लिए "संस्कृत" शब्द का
प्रयोग सर्वप्रथ वाल्मीकि रामायण के सुंदरकांड (30 सर्ग) में हनुमन् द्वारा विशेषणरूप में
(संस्कृता वाक्) किया गया है।
भारतीय परंपरा की किंवदंती के अनुसार संस्कृत भाषा पहले अव्याकृत थी, अर्थात उसकी प्रकृति एवं प्रत्ययादि का विश्लिष्ट विवेचन
नहीं हुआ था। देवों द्वारा प्रार्थना करने पर देवराज इंद्र ने प्रकृति, प्रत्यय आदि के विश्लेषण विवेचन का उपायात्मक विधान प्रस्तुत किया। इसी
"संस्कार" विधान के कारण भारत की प्राचीनतम आर्यभाषा का नाम
"संस्कृत" पड़ा। ऋक्संहिताकालीन "साधुभाषा"
तथा 'ब्राह्मण', 'आरण्यक' और 'दशोपनिषद्' नामक ग्रंथों
की साहित्यिक "वैदिक भाषा" का अनंतर विकसित स्वरूप ही "लौकिक
संस्कृत" या "पाणिनीय संस्कृत" कहलाया। इसी
भाषा को "संस्कृत","संस्कृत भाषा" या
"साहित्यिक संस्कृत" नामों से जाना जाता है।
विकास की दृष्टि से "संस्कृत" का अर्थ है - संस् (सांस् या
श्वासों) से बनी (कृत्)। आध्यात्म एवं सम्प्रक-विकास की दृष्टि से
"संस्कृत" का अर्थ है - स्वयं से कृत्
या जो आरम्भिक लोगों को स्वयं ध्यान लगाने एवं परसपर सम्प्रक से आ गई। कुछ लोग संस्कृत
को एक संस्कार (सांसों का कार्य) भी मानते हैं।
देश-काल की दृष्टि
से संस्कृत के सभी स्वरुपों का मूलाधार पूर्वतर काल में उदीच्य, मध्यदेशीय एवं आर्यावर्तीय विभाषाएं हैं। पाणिनिसूत्रों में
"विभाषा" या "उदीचाम्" शब्दों से इन विभाषाओं का उल्लेख किया
गया है। इनके अतिरिक्त कुछ क्षेत्रों में "प्राच्य" आदि बोलियाँ भी बोली
जाती थीं। किन्तु पाणिनि ने नियमित व्याकरण के द्वारा भाषा को एक परिष्कृत एवं सर्वग्य
प्रयोग में आने योग्य रूप प्रदान् किया। धीरे-धीरे पाणिनिसंमत भाषा का प्रयोगरूप
और विकास प्राय: स्थायी हो गया। पतंजलि के समय तक आर्यावर्त (आर्यनिवास)
के शिष्ट जनों में संस्कृत प्राय: बोलचाल की भाषा बन गई। "गादर्शात्प्रत्यक्कालकवनाद्दक्षिणेन हिमवंतमुत्तरेण वारियात्रमेतस्मिन्नार्यावर्तें
आर्यानिवासे..... (व्याकरण महाभाष्य, 6.3.109)" उल्लेख के अनुसार शीघ्र ही संस्कृत समग्र भारत के द्विजातिवर्ग और
विद्वत्समाज की सांस्कृतिक, विचाराकार एवं विचारादान्प्रदान्
की भाषा बन गई।
संस्कृत (संस्कृतम्) भारतीय उपमहाद्वीप की एक शास्त्रीय भाषा है। इसे देववाणी अथवा सुरभारती भी कहा जाता
है। यह विश्व की सबसे पुरानी उल्लेखित भाषा है। संस्कृत एक हिंद-आर्य भाषा हैं जो
हिंद-यूरोपीय भाषा परिवार का एक शाखा हैं।
आधुनिक भारतीय भाषाएँ जैसे, हिंदी, मराठी, सिन्धी, पंजाबी, नेपाली, आदि इसी से उत्पन्न
हुई हैं। इन सभी भाषाओं में यूरोपीय बंजारों की रोमानी भाषा भी शामिल है।
संस्कृत में हिन्दू धर्म से संबंधित लगभग सभी
धर्मग्रंथ लिखे गये हैं।
बौद्ध मत (विशेषकर महायान)
तथा जैन मत के भी कई
महत्त्वपूर्ण ग्रंथ संस्कृत में लिखे गये हैं। आज भी हिंदू धर्म के अधिकतर यज्ञ और पूजा संस्कृत में ही होती
हैं।
(१) संस्कृत, विश्व की सबसे पुरानी पुस्तक (वेद) की भाषा है। इसलिये इसे विश्व
की प्रथम भाषा मानने में कहीं किसी संशय की संभावना नहीं है।
(२) इसकी सुस्पष्ट व्याकरण और वर्णमाला की वैज्ञानिकता के
कारण सर्वश्रेष्ठता भी स्वयं सिद्ध है।
(३) सर्वाधिक महत्वपूर्ण साहित्य की धनी होने से इसकी महत्ता भी
निर्विवाद है।
(४) इसे देवभाषा कहा जाता है।
(५) संस्कृत केवल स्वविकसित भाषा नहीं बल्कि संस्कारित भाषा भी है,
अतः इसका नाम संस्कृत है। केवल संस्कृत ही एकमात्र भाषा है जिसका
नामकरण उसके बोलने वालों के नाम पर नहीं किया गया है। संस्कृत को संस्कारित
करने वाले भी कोई साधारण भाषाविद् नहीं बल्कि महर्षि पाणिनि, महर्षि
कात्यायन और योगशास्त्र के प्रणेता महर्षि पतंजलि हैं।
इन तीनों महर्षियों ने बड़ी ही कुशलता से योग की क्रियाओं को भाषा में समाविष्ट
किया है। यही इस भाषा का रहस्य है।
(६) शब्द-रूप - विश्व की सभी भाषाओं में एक
शब्द का एक या कुछ ही रूप होते हैं, जबकि संस्कृत में
प्रत्येक शब्द के 27 रूप होते हैं।
(७) द्विवचन - सभी भाषाओं में एकवचन और
बहुवचन होते हैं जबकि संस्कृत में द्विवचन अतिरिक्त होता है।
(८) सन्धि - संस्कृत भाषा की सबसे महत्वपूर्ण
विशेषता है सन्धि। संस्कृत
में जब दो अक्षर निकट आते हैं तो वहाँ सन्धि होने से स्वरूप और उच्चारण बदल जाता
है।
(९) इसे कम्प्यूटर और कृत्रिम बुद्धि के लिये सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
(१०) शोध से ऐसा पाया गया है कि संस्कृत पढ़ने से स्मरण शक्ति बढ़ती
है।
(११) संस्कृत वाक्यों में शब्दों को किसी भी क्रम में रखा जा सकता है। इससे
अर्थ का अनर्थ होने की बहुत कम या कोई भी सम्भावना नहीं होती। ऐसा इसलिये होता है
क्योंकि सभी शब्द विभक्ति और वचन के अनुसार होते हैं और क्रम बदलने पर भी सही अर्थ
सुरक्षित रहता है। जैसे - अहं गृहं गच्छामि या गच्छामि गृहं अहम् दोनो
ही ठीक हैं।
(१२) संस्कृत विश्व की सर्वाधिक 'पूर्ण'
(perfect) एवं तर्कसम्मत भाषा है।
(१३) संस्कृत ही एक मात्र साधन हैं जो क्रमश: अंगुलियों एवं जीभ को लचीला
बनाते हैं। इसके अध्ययन करने वाले छात्रों को गणित, विज्ञान एवं अन्य भाषाएँ ग्रहण करने में सहायता मिलती है।
(१४) संस्कृत भाषा में साहित्य की रचना कम से कम छह हजार वर्षों से निरन्तर
होती आ रही है। इसके कई लाख ग्रन्थों के पठन-पाठन और चिन्तन में भारतवर्ष के
हजारों पुश्त तक के करोड़ों सर्वोत्तम मस्तिष्क दिन-रात लगे रहे हैं और आज भी लगे
हुए हैं। पता नहीं कि संसार के किसी देश में इतने काल तक, इतनी
दूरी तक व्याप्त, इतने उत्तम मस्तिष्क में विचरण करने वाली
कोई भाषा है या नहीं। शायद नहीं है। दीर्घ कालखण्ड के बाद भी असंख्य प्राकृतिक तथा
मानवीय आपदाओं (वैदेशिक आक्रमणों) को झेलते हुए आज भी ३ करोड़ से अधिक
संस्कृत पाण्डुलिपियाँ विद्यमान हैं। यह संख्या ग्रीक और लैटिन की पाण्डुलिपियों
की सम्मिलित संख्या से भी १०० गुना अधिक है। निःसंदेह ही यह सम्पदा छापाखाने के आविष्कार के पहले किसी भी संस्कृति द्वारा सृजित सबसे बड़ी सांस्कृतिक
विरासत है।
(१५) संस्कृत केवल एक मात्र भाषा नहीं है अपितु संस्कृत एक विचार है। संस्कृत
एक संस्कृति है एक संस्कार है संस्कृत में विश्व का कल्याण है, शांति है, सहयोग है, वसुधैव
कुटुम्बकम् की भावना है।
भारत और विश्व के लिए संस्कृत का महत्त्व
संस्कृत कई भारतीय भाषाओं की जननी है। इनकी अधिकांश
शब्दावली या तो संस्कृत से ली गयी है या संस्कृत से प्रभावित है। पूरे भारत में
संस्कृत के अध्ययन-अध्यापन से भारतीय भाषाओं में अधिकाधिक एकरूपता आयेगी जिससे
भारतीय एकता बलवती होगी। यदि इच्छा-शक्ति हो तो संस्कृत को हिब्रू की
भाँति पुनः प्रचलित भाषा भी बनाया जा सकता है।
हिन्दू, बौद्ध, जैन आदि धर्मों के प्राचीन धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं।
हिन्दुओं के सभी पूजा-पाठ और धार्मिक संस्कार की भाषा
संस्कृत ही है।
हिन्दुओं, बौद्धों और जैनों के नाम भी संस्कृत पर आधारित होते हैं। भारतीय भाषाओं की तकनीकी शब्दावली भी संस्कृत से ही व्युत्पन्न की जाती है।
भारतीय संविधान की धारा 343, धारा 348 (2) तथा
351 का सारांश यह है कि देवनागरी लिपि में लिखी और मूलत:
संस्कृत से अपनी पारिभाषिक शब्दावली को लेने वाली हिन्दी राजभाषा है।
संस्कृत, भारत को एकता के सूत्र में बाँधती है।
संस्कृत का प्राचीन साहित्य अत्यन्त प्राचीन, विशाल और विविधतापूर्ण है। इसमें अध्यात्म, दर्शन,
ज्ञान-विज्ञान और साहित्य का खजाना है। इसके अध्ययन से
ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में प्रगति को बढ़ावा मिलेगा।
संस्कृत को कम्प्यूटर के लिये (कृत्रिम बुद्धि के लिये) सबसे उपयुक्त भाषा माना जाता है।
संस्कृत का अन्य भाषाओं पर प्रभाव
संस्कृत भाषा के शब्द मूलत रूप से सभी आधुनिक भारतीय
भाषाओं में हैं। सभी भारतीय भाषाओं में एकता की रक्षा संस्कृत के माध्यम से ही हो
सकती है। मलयालम, कन्नड और तेलुगु आदि
दक्षिणात्य भाषाएं संस्कृत से बहुत प्रभावित हैं।
संस्कृत भाषा के कुछ आधुनिक उपयोग:
भारत में संस्कृत बोलनेवाले
को आधुनिक सभ्यता के महामूर्ख पोंगा पंडित बोलते है जबकि दुनिया में कई ताकतवर देश इस
पर शोध कर अपने को और शक्तिशाली बनाने में लगे हैं।
नासा के वैज्ञानिक रिंक ब्रिग्स ने वर्ष 1985 में भारत के लगभग एक हजार
संस्कृत के विद्वानो को नासा में नौकरी देने का प्रस्ताव किया था। संस्कृत के
गंन्थो के अतिरिक्त इस भाषा में कम शब्दों में संदेश भेजे जा सकते हैं। इनके इनकार करने पर नासा ने संस्कृत पर शोध हेतु अपनी नई पीढी को
संस्कृत पढाना आरम्भ कर दिया। अब शीघ्र ही संस्कृत भाषा कम्प्यूटर हेतु आ जायेगी।
फोर्ब्स पत्रिका ने वर्ष 1987 में संस्कृत को कम्प्यूटर हेतु शत प्रतिशत
परफेक्ट भाषा कहा था।
जरमन स्टेट विश्व विद्यालय के अनुसार सबसे अच्छा कैलेंडर हिंदू कैलेंडर
होता है क्योंकि यह सौर प्रणाली के भू वैज्ञानिक परिवर्तन के साथ आरम्भ होता है।
अमेरिकन हिंदू विश्व विद्यालय के अनुसार संस्कृत बोलने वाला सदैव स्वस्थ्य
रहता है।
रशियन स्टेट विश्व विद्यालय के अनुसार संस्कृत के ग्रन्थ सबसे उन्नत तकनीकी
और प्रौद्योगिकी रखते हैं।
नासा के पास 60,000 संस्कृत के ताड पत्र हैं। जिन पर शोध चल रहा है।
संयुक्त राष्त्र संघ की रिपोर्ट के अनुसार विश्व की 97 प्रतिशत भाषाये
संस्कृत से प्रभावित हैं।
नासा के अनुसार छठी और सातवी पीढी के कम्प्यूटर संस्कृत पर ही चलेगे। 2025
छ्ठी पीढी और 2034 सातवी पीढी के बाद संस्कृत भाषा क्रांति लायेगी।
फोर्ब्स पत्रिका 1985 के अनुसार अनुवाद हेतु संस्कृत सर्वश्रेष्ठ भाषा है।
संस्कृत भाषा वर्तमान में “उन्नत किर्लियन फोटोग्राफ़ी” में प्रयोग हो रही
है। यह तकनीकि सिर्फ रूस और अमेरिका के पास ही है। भारत तो कोसो दूर है।
जिनेवा में
संयुक्त राष्ट्र कार्यालय के सामने शिव के नटराज की मूर्ति लगी है। अमेरिका, रूस, स्वीडेन, जर्मनी, फ्रांस, जापान और आस्ट्रिया भरतनाट्यम और नटराज पर शोध कर रहे हैं। क्योकि नतराज का
नृत्य कास्मिक नृत्य है।
ब्रिटेन हमारे शरीर के चक्रो और श्री चक्रों के यंत्रों पर शोध कर
रहा है।
5 मार्च, 2018 की जागरण पत्रिका की रिपोर्ट
के अनुसार दुनिया की प्राचीन भाषाओं में शुमार संस्कृत के साथ जुड़े
तमाम फायदों को देश में एक बड़े
तबके द्वारा नजरअंदाज किया जा रहा हो, लेकिन अब दुनिया जरूर उन पर गौर कर रही है। उच्चारण सुधारने के लिए भी संस्कृत के अभ्यास की सलाह दी जाती है। शायद यही वजह
हैं कि हम भारतीय भले ही संस्कृत
से कुछ मुंह मोड़ रहे हों, लेकिन विदेशियों में इस भाषा को सीखने का चलन बढ़ने पर है। इससे संस्कृत वैश्विक स्तर
पर अपना प्रसार कर रही है।
पूर्वी यूरोपीय राष्ट्र यूक्रेन के युवाओं का चौदह सदस्यीय जत्था इसी सिलसिले में वाराणसी के
शिवाला में डेरा डाले हुए है।
संस्कृत सीखने आए इन युवाओं में रियल स्टेट के कारोबारी, डॉक्टर तथा शिक्षक शामिल हैं। अनुमान है कि शहर में इस समय 70 अलग-अलग देशों के 190 छात्र संस्कृत सीख रहे हैं। कुछ साल पहले तक यह आंकड़ा 40 से 50 के दायरे में होता था, लेकिन फिलहाल अमेरिका के ही 35 छात्र यहां संस्कृत की दीक्षा ले रहे हैं। इसके अलावा म्यांमार, कोरिया, श्रीलंका तथा थाईलैंड के छात्र भी यहां हैं। वाराणसी आने वाले ये विदेशी युवा
सर्टिफिकेट या डिप्लोमा कोर्स के बजाय तीन साल की
डिग्री को ज्यादा तरजीह देते हैं।
वे मानते हैं कि
जो संस्कार और संस्कृति संस्कृत भाषा में है वह दुनिया की किसी अन्य भाषा में नहीं
है। शिवाला स्थित वाग्योग चेतना पीठ के प्रो. भागीरथ प्रसाद त्रिपाठी ने एक ऐसी
विधि तैयार की है जिसके जरिये बिना रटे सिर्फ 180 घंटे में कोई भी
संस्कृत भाषा सीख सकता है। वह कहते हैं कि संस्कृत सीखने से दिमाग तेज हो जाता है
और स्मरण शक्ति बढ़ती है। शायद इसी वजह से लंदन और आयरलैंड के कई स्कूलों में
संस्कृत को अनिवार्य विषय बना दिया है। संस्कृत में सबसे ज्यादा शब्द हैं। संस्कृत
शब्दकोश में 102 अरब 78 करोड़ 50
लाख शब्द हैं।
यहां
शब्दों का विपुल भंडार है। जैसे हाथी के लिए ही संस्कृत में सौ से ज्यादा शब्द
हैं। खास बात यह है कि किसी और भाषा के मुकाबले संस्कृत में सबसे कम शब्दों में
वाक्य पूरा हो जाता है। सुधर्मा संस्कृत का पहला अखबार भी था जो 1970 में शुरू हुआ था। आज भी इसका ऑनलाइन संस्करण उपलब्ध है। जर्मनी के शीर्ष
विश्वविद्यालयों में 14 में संस्कृत पढ़ाई जाती है जबकि चार
ब्रिटिश विश्वविद्यालय भी संस्कृत शिक्षा से जुड़े हैं। इसकी लोकप्रियता के बाद अब
स्विट्जरलैंड और इटली सहित तमाम देशों में भी अब संस्कृत पाठ्यक्रम शुरू होने जा
रहे हैं।
दुनिया
की तमाम शख्सियतों नें अपने शरीर पर संस्कृत में टैटू गुदवाए हैं। वाराणसी के वकील
श्यामजी उपाध्याय 38 वर्षो से संस्कृत में ही अपनी दलीलें पेश करते आ रहे
हैं। संस्कृत के लिए इस योगदान पर 2003 में श्यामजी को मानव
संसाधन विकास मंत्रलय ने उन्हें ‘संस्कृतमित्र’ नामक राष्ट्रीय पुरस्कार से सम्मानित
किया।
एक
दिलचस्प पहलू यह भी है कि संस्कृत दुनिया की इकलौती ऐसी भाषा है जिसे बोलने में
जीभ की सभी मांसपेशियों का इस्तेमाल होता है।
अमेरिकन
हिंदू यूनिवर्सिटी के मुताबिक संस्कृत में बात करने वाला मनुष्य रक्तचाप, मधुमेह, कोलेस्ट्राल आदि रोगों से बेहतर तरीके से
निपट सकता है। संस्कृत के उपयोग से तंत्रिका तंत्र भी सक्रिय रहता है। यह स्पीच
थेरेपी से लेकर स्मरणशक्ति बढ़ाने में भी मददगार होती है।
लखनऊ
की एक निशातगंज सब्जी मंडी में सभी सब्जियां संस्कृत नामों के साथ बिकती हैं। संस्कृत
को फिर से महत्ता देने के लिए बाबा साहेब डॉ. भीमराव आंबेडकर ने 1949 में इसे देश की भाषा बनाने का संविधान सभा में प्रस्ताव रखा था जो बहुत
मामूली अंतर से पास नहीं हो पाया। (जानकारियां गूगल से
साभार)
सुधर्मा (हिंदी का एकमात्र संस्कृत ई दैनिक पत्र)
सम्पर्क : srsanskritacademy@gmail.com
+91-9205526860, 9013046830
लिंक: http://srsacademy.org/rightpanel.aspx?id=50#
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई
चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
संस्कृत भाषा अमर रहे
ReplyDelete🙏🙏🙏🙏❤️❤️
ReplyDeleteउत्तम जानकारी प्रदान करने हेतु आपका आभार
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