भाग – 15 सनातन और बौद्ध : तुलनात्मक अध्ययन
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास
विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi “bullet"
इसमें कोई दो राय नहीं दुनिया के सारे धर्म, सिद्वात और मान्यतायें सनातन से ही पैदा हुई हैं। इस
पर लिखनेवाले इसको किसी एक सम्प्रदाय या धर्म से जोडते है मेरी समझ में वे अज्ञानी
ही हैं। सनातन एक मानवीय धर्म है जो मानव के जीवन के साथ आरम्भ होने से लेकर उसके
मरने तक और मरने के बाद तक की व्याख्या करता है। वेद जिसकी वाणी बने। उपनिषद जिसका
सार बनें। श्रीमद्भग्वदगीता जिसका संक्षिप्त वर्णन बना। पुराण काफी हद तक भ्रमित
करने वाले बने, जिन्होने अंधविश्वासी बनाया और
सनातन का पतन भी आरम्भ किया। हिन्दू शब्द तो बहुत बाद में आया। उसके पहले गुरू
शिष्य परम्परा का सर्वश्रेष्ठ उदाहरण जैन दर्शन आया। साथ ही हिंदू जो सनातन की एक
विचारधारा थी उसमें जातिवाद का जहर घोलकर पतन को और तीव्र कर दिया गया।
चलिये कुछ विचार किया जाये कि बौद्व धर्म सनातन की ही एक शाखा है और बुद्व
ने ऐसा कुछ नहीं कहा जो सनातन के विपरीत है या वेद के विपरीत है या श्रीमद्भग्वदगीता ने नही कहा है।
पर चर्चा के पहले एक बात समझनी होगी कि चार्वाक जो ईश्वर को नहीं मानते थे उनको भी
हिंदुत्व की धारा ने एक ऋषि यानी एक खोजी ही कहा। अब उनके तर्क कितने गलत या सही
यह तो व्यक्तिगत अनुभव की ही बात है।
मुझे तो यह लगता है कि बौद्ध दर्शन पर जिन्होने लिखा प्राय: वे अनुभवहीन पर
प्रसिद्ध साहित्यकार ही रहे हैं। अधिकतर ने पूर्वाग्रहित होकर और राजनीति से
प्रेरित होकर सतही शब्दों पर जाकर लेख और व्याख्यायें लिख डालीं हैं।
हिन्दू दर्शन जो सनातन की एक प्राचीन शाखा है और बौद्ध धर्म से बहुत प्राचीन धर्म हैं। यहां आप हिंदू शब्द पर न
जाये बल्कि वो जो सनातन की एक धारा के साथ चल रहे और बाद में हिंदू कहलाये। दोनों
ही भारतभूमि से उपजे हैं। महात्मा बुद्ध के दोनो गुरू सनातनी थे।
अब बुद्ध का बीज क्या था सनातन और श्रीमद्भग्वदगीता। तो बुद्ध कहां से अलग हो गये।
आम का पौधा आम ही देगा भले ही वो किसी भी आकार या स्वाद का हो।
आलारकलाम सिद्धार्थ के प्रथम गुरू थे। राजगीर के रूद्रकरामपुत्त दूसरे गुरू
थे। आप नाम ही देखें रूद्र यानी शिव, राम पुत्त। यह वो गुरू थे जिन्होने गौतम को विपश्यना
यानि जैन का प्रेक्षा ध्यान और श्रीमद्भग्वदगीता मे अर्जुन को ध्यान की बताई गई
श्वासोश्वास विधि। श्रीमद्भग्वदगीता (अध्याय 4, श्लोक 11 का अर्थ : हे अर्जुन जो भक्त मुझे जिस
प्रकार भजता है मैं भी उनको उसी प्रकार भजता हूं। क्यों कि सभी मनुष्य सब प्रकार
से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं” । इसको आप सोंचे तो पायेगें बुद्ध ने क्या
नया कहा और किया।
श्रीमद्भग्वदगीता (अध्याय 4 श्लोक 29,30 का अर्थ: दूसरे कितने ही योगीजन अपानवायु को हवन करते
हैं। वैसे ही अन्य योगीजन प्राणवायु में अपानवायु का हवन करते हैं। तथा अन्य कितने
ही नियमित आहार करनेवाले प्राणायामपरायण पुरुष प्राण और अपान की गति को रोककर
प्राणों को प्राणों में ही हवन किया करते हैं। ये सभी साधक यज्ञों द्वारा पापों का
नाश कर देनेवाले और यज्ञों को जाननेवाले हैं”। अब जरा बतायें लामा कौन सा नया
अभ्यास करते हैं जो इन के द्वारा न होता हो??
श्रीमद्भग्वदगीता (अध्याय 6 श्लोक 12 ,13 का अर्थ) : उस आसन पर बैठकर चित्त और इंद्रियों की
क्रियायों को वश में रखते हुये मन को एकाग्र करके अंत:करण की शुद्धि के लिये योग
का अभ्यास करें। काया, सिर और गले
को समान एवं अचल धारण और स्थिर होकर, अपनी नासिका के अग्रभाग पर दृष्टि जमाकर, अन्य दिशाओं को न देखता हुआ”। यह नासिका त्राटक और
श्वास पर ध्यान क्या है विपश्यना। अब कौन सी बात गीता से अलग कही है। आप
श्रीमद्भग्वदगीता को पढें तो पायेगें महात्मा बुद्ध किसी भी जगह गीता से अलग नहीं
हैं न कर्म में न वचन में और न दिनचर्या में।
कुछ हिन्दू धर्म के वैष्णव संप्रदाय में गौतम बुद्ध को दसवाँ अवतार माना गया है हालाँकि बौद्ध धर्म इस मत को स्वीकार
नहीं करता। मैं भी नहीं मानता कि वे विष्णु के अवतार थे। यह तर्क जबर्दस्ती का
दिया हुआ है ताकि यह सिद्ध करें कि बुद्ध हिंदू थे। अरे भाई वे सनातन से अलग ही
किधर थे बाद में वे हिंदू ही थे। यह शब्द तो बौद्ध धर्म के बाद विदेशियों ने दिया।
महात्मा बुद्ध तो वेदों के एक उपनिषद के एक खंड जिसे श्रीमद्भग्वदगीता कहते है उसी से
व्याख्यादित हो जाते हैं। वेदों को तो छोड दो। वेद तो अनंत हैं।
हलांकि एक बिना अनुभव के विदेशी लेखक ओल्डेनबर्ग का मानना है कि बुद्ध से
ठीक पहले दार्शनिक चिंतन निरंकुश सा हो गया था। सिद्धांतों पर होने वाला वाद-विवाद
अराजकता की ओर लिए जा रहा था। बुद्ध के उपदेशों में ठोस तथ्यों की ओर लौटने का
निररंतर प्रयास रहा है। उन्होंने वेदों, जानवर बलि और ईश्वर को नकार दिया। भुरिदत जातक कथा
में ईश्वर, वेदों और जानवर बलि की आलोचना
मिलती है। यह काम तो कितनों ने किया। राजा राम मोहन राय, स्वामी दया नन्द सरस्वती यहां तक 12 वी सदी में संत
ज्ञानेश्वर, नाम देव, तुकाराम, मीरा, तुलसी, नानक, कबीर और भी सैकडों। वेद-उपनिषद तो बलि की बात ही नहीं करते है।
हां तंत्र पुराणों में वाममार्गी यह किया करते थे और हैं।
बौद्धधर्म भारतीय विचारधारा के सर्वाधिक विकसित रूपों में से एक है और
हिन्दुमत (सनातन धर्म) से साम्यता रखता है। हिन्दुमत के दस लक्षणों यथा दया, क्षमा अपरिग्रह आदि तो बौद्धमत से मिलते-जुलते है।
यदि हिन्दुमत में मूर्ति पूजा का प्रचलन है तो बौद्ध मन्दिर भी मूर्तियों से भरे
पड़े हैं। प्रसिद्ध अंग्रेज यात्री डाॅ. डी.एल. स्नेलगोव ने अपनी पुस्तक ‘द
बुद्धिस्ट हिमालय’ में लिखा है, ‘‘मैं सतलुज घाटी लाँघकर भारत आया था’’, उन दिनों कश्मीर से सतलुज तक का मार्ग एक ही था। यही वह समय था जब
कश्मीर भारतीय तंत्र का केंद्र रहा है, अतः बौद्ध मतावलम्बियों द्वारा भारतीय तंत्र को
अपनाया जाना कोई आश्चर्यजनक बात नहीं। यही तंत्र विज्ञान आज लामा के रूप में जाना
जाता हैं।
दोनों ही धर्म भारतीय हैं। दोनों ही अतिप्राचीन धर्म हैं। दोनों धर्मों के
९०% से अधिक अनुयायी एशिया में रहते हैं। समान मूलभूत शब्दावली - कर्म, धर्म, बुद्ध आदि। समान प्रतीकवाद ओंकार मुद्रा, धर्मचक्र, तिलक, स्वस्तिक तथा सौवस्तिक आदि समान कर्मकाण्ड - गायत्री
मंत्र, योग, ध्यान, समाधि, चक्र, अग्निहोत्र कुण्डलिनी आदि। अब बताओ क्या अंतर है।
हां कुछ बातें अलग दिखती है और कुछ मूर्खों को जो अनुभव हीन महालेखक हैं
उन्होने लिखी। पर वे अलग नहीं। श्रीमद्भग्वदगीता से ही उनको शांत किया जा सकता है।
जैसे
ईश्वर : गौतम बुद्ध ने ब्रह्म को कभी इश्वर नहीं माना। ब्रह्मा की आलोचना खुद्दुका
निकाय के भुरिदत जातक कथा में कुछ इस तरह मिलती है:
"यदि वह ब्रह्मा सब लोगों का "ईश्वर" है और
सब प्राणियों का स्वामी हैं, तो उसने लोक में यह माया, झूठ, दोष और मद क्यों पैदा किये हैं? यदि वह ब्रह्मा सब लोगों का "ईश्वर" है और
सब प्राणियों का स्वामी है, तो हे अरिट्ठ! वह स्वयं अधार्मिक है, क्योंकि उसने 'धर्म' के रहते अधर्म उत्पन्न किया।"
इसका उत्तर कुछ यूं दिया जा सकता है। सृष्टि के निर्माण को विनाश को जो
शक्ति संचालित करती हैं उसे ब्रह्म कहते
हैं। सृष्टि में अपनी प्रजाति को बढाने की प्राकृतिक प्रवृत्ति होती है। यही
प्रवृत्ति मानव में भी आई। निर्माण हेतु कुछ भावना पैदा करना आवश्यक होता है।
क्योकिं जब तक भावना न होगी तब तक निर्माण न होगा। इसी भावना से पेट भरने के बाद
काम की उतपत्ति हुई। जिसे रजोगुण कहते हैं। यद्यपि जन्म को सत्वगुण कहते हैं पर
इसकी क्रिया को रजो गुण। इस गुण में निरन्तर डूबना तमोगुण को जन्म देता है। जिसके
कारण अन्य तमाम बुराई स्वत: फैल जाती हैं। इस कारण माया, झूठ, दोष और मद पैदा हुये। ब्रह्म हमें कर्म करने की शक्ति
आत्मा के माध्यम से देता है पर क्या करें यह वह नहीं हमारी बुद्धि तय करती है। फल
वो ब्रह्म हमें दे देता है। यही बात श्रीमद्भग्वदगीता में कही गई है। हे अर्जुन
तुम्हारा कर्म पर अधिकार है फल पर नहीं।
रहा सवाल साकार निराकार का। तो हे अर्जुन मुझे जो जिस रूप में भजता है मैं
उसी रूप में उसे प्राप्त होता हूं। यानी आपकी सोंच। मानो तो गंगा मां हूं। न मानो
तो बहता पानी। भाई पिता आपके जन्मदाता, मानो तो पूज्यनीय न मानो तो बूढे, बेकार, खबीस। वो ही ब्रह्म है। जैसे भजो वैसे मिलेगा।
और महाबोधि जातक में बुद्ध कुछ इस तरह कहते है:
"यदि ईश्वर ही सारे लोक की जिविका की व्यवस्था करता है, यदि उसी की इच्छा के अनुसार मनुष्य को ऐश्वर्य मिलता
है! , उस पर विपत्ति आती है, वह भला-बुरा करता हैं, यदि आदमी केवल ईश्वर की आज्ञा मानने वाला है, तो ईश्वर ही दोषी ठहरता है।"
यहां पर भी पहलेवाली बात। शक्ति मेरी यानी ब्रह्म की। करनी तेरी। तुझको
परमाणु शक्ति दी। चाहे तो विनाश कर या जन उपयोग लगा। तेरी मर्जी शक्ति मेरी। हां
फल तो मैं दूंगा। विनाश या निर्माण।
आत्मा : बुद्ध ने आत्मा को भी नकार दिया है और कहा है कि एक
जीव पांच स्कन्धो से मिल कर बना है अथवा आत्मा नाम की कोई चीज़ नहीं है।
यह बात गलत है विज्ञान भी आत्मा यानि vital force को सिद्ध कर चुका है। शायद लोगों
ने यह गलत व्याख्या की है क्योकिं जो अंतरमुखी हो और वो आत्मा को न माने। यह
असम्भव है।
वेद: बुद्ध ने वेदों को भी साफ़ तौर से नकार दिया है। इसका
उल्ल्लेख हमे तेविज्ज सुत्त और भुरिदत्त जातक कथा में मिलता है। बुद्ध, अरिट्ठ को सम्भोधित करते हुए कहते है :
"हे अरिट्ठ ! वेदाध्ययन धैयेवान् पुरुषों का दुर्भाग्य है और
मूर्खो का सौमाग्य है। यह (वेदत्रय) मृगमरीचिका के समान हैं। सत्यासत्य का विवेक न
करने से मूर्ख इन्हें सत्य मान लेते हैं। ये मायावी (वेद) प्रज्ञावान को घोखा नहीं
दे सकते ॥ मित्र-द्रोही और जीवनाशक (-भ्रूण-हत्यारे ?) को वेद नहीं बचा सकते। द्वेषी, अनार्यकर्मी आदमी को अग्नि-परिचर्या भी नहीं बचा
सकती।"
इस बात हे दो कारण हो सकते हैं। पहला बुद्ध ने पाली भाषा में सृजन किया और
वेद संस्कृत में लिखे गये। जिनको महात्मा बुद्ध पढ नही पाये। उस समय के अंध
विश्वास और पुराण पंथी के भ्रमित विद्धवानो को देख कर धारणा बना ली। दूसरे सामाजिक
पोंगापंथियों और छूआछूत ने उनको उद्देलित किया।
हिन्दू धर्म जहा चार चार वर्ण में भेद बताता है तो वही बुद्ध ने सभी वर्णों
(ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र) को समान माना। अस्सलायान सुत्त इस बात की पुष्टि करता
है कि सभी वर्ण सामान है। बुद्ध का वर्ण व्यवस्था के खिलाफ एक प्रसिद्ध वचन हमें वसल सुत्त में कुछ
इस प्रकार मिलता है :
"कोई जन्म से नीच नहीं होता और न ही कोई जन्म से
ब्राह्मण होता है। कर्म से ही कोई नीच होता है और कर्म से ही कोई ब्राह्मण होता
है।"
इसका उत्तर तो सनातन में जन्में जानकार भक्तों ने तो सदियों से समय समय पर
दिया है। यह गलत है। भगवद्गीता और उपनिषद ब्राह्मण की परिभाषा देते हुये कहते हैं जिसने ब्रह्म का वरण किया है वह ब्राह्मण है।
ब्राह्मण का शब्द दो
शब्दों से बना है। ब्रह्म+रमण। इसके दो अर्थ होते हैं, ब्रह्मा देश अर्थात वर्तमान वर्मा देशवासी ,द्वितीय ब्रह्म में रमण करने वाला।यदि ऋग्वेद के अनुसार ब्रह्म अर्थात ईश्वर को रमण करने वाला ब्राहमण होता है। ।
ब्राह्मण का निर्धारण माता-पिता की जाती के आधार पर ही होने लगा है। स्कन्दपुराण में षोडशोपचार पूजन के अंतर्गत अष्टम
उपचार में ब्रह्मा द्वारा नारद को यज्ञोपवीत के आध्यात्मिक अर्थ में बताया गया है,
जन्मना जायते शूद्रः संस्कारात् द्विज उच्यते।
शापानुग्रहसामर्थ्यं तथा क्रोधः प्रसन्नता।
अतः आध्यात्मिक दृष्टि से यज्ञोपवीत के बिना जन्म से ब्राह्मण भी शुद्र ही
होता है।
यस्क मुनि की निरुक्त के अनुसार - ब्रह्म जानाति ब्राह्मण: -- ब्राह्मण वह है जो ब्रह्म (अंतिम सत्य, ईश्वर या परम ज्ञान) को जानता है। अतः ब्राह्मण का अर्थ है - "ईश्वर का
ज्ञाता"। सन:' शब्द के भी तप, वेद विद्या अदि अर्थ है | निरंतारार्थक अनन्य में भी 'सना' शब्द का पाठ है | 'आढ्य' का अर्थ होता है धनी | फलतः जो तप, वेद, और विद्या के द्वारा निरंतर पूर्ण है, उसे ही "सनाढ्य" कहते है - 'सनेन तपसा वेदेन च सना निरंतरमाढ्य: पूर्ण सनाढ्य:'
उपर्युक्त रीति से 'सनाढ्य' शब्द में ब्राह्मणत्व के सभी
प्रकार अनुगत होने पर जो सनाढ्य है वे
ब्राह्मण है और जो ब्राह्मण है वे सनाढ्य है | यह निर्विवाद सिद्ध है | अर्थात ऐसा कौन ब्राह्मण होगा, जो 'सनाढ्य' नहीं होना चाहेगा | भारतीय संस्कृति की महान धाराओं के निर्माण में
सनाढ्यो का अप्रतिभ योगदान रहा है | वे अपने सुखो की उपेक्षा कर दीपबत्ती की तरह तिलतिल कर जल कर समाज के लिए मिटते रहे है |
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM
समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो
तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40
मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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: https://freedhyan.blogspot.com/
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