धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 11
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
नोट: यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने भाग 1 से 10 में अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया। स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया। लगभग सभी उपनिषद विभिन्न ऋषियों द्वारा अपने अनुभव के आधार पर ईश की परम सत्ता की व्याख्या करते हैं। आपने सारे उपनिषद को संक्षेप में पड लिया होगा। भारत के दस महान वैज्ञानिक ऋषियों ने किस प्रकार विज्ञान को योगदान दिया। अगस्त ऋषि ने तो 2500 साल पहले ही बिजली का अविष्कार कर लिया था। सात महान ऋषियों ने आंतरिक विज्ञान पर अपना योगदान देकर सप्त ऋषि बन गये। जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म कहा जा सकता है। गुरू परम्परा की पराकाष्ठा रखनेवाला यह धर्म विलक्षण है। आपने अब तक जैन धर्म के इतिहास को मुनियों को जाना। कालांतर में जैन धर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर में बंट गये। जिसकी कल्पना भी महावीर सवामी ने न की होगी।
भारत की पवित्र भूमि में जन्म लेकर तमाम ऋषियों ने ईशवरीय ज्ञान को पूरी दुनिया में फैलाया और जिसके कारण भारत विश्व गुरू कहलाता था। आज भी अष्टांग योग के मात्र दो अंग आसन और प्रणायाम की बदौलत विश्व के सभी देशों में यह चर्चा का विषय बन चुका है। और लगता है कि दुनिया पुन: भारत को विश्व गुरू का स्थान दे चुकी है।
आइये सनातन की संतान एक बार इस दिशा में प्रयास कर अपना योगदान दे।
अब आगे .......................................
मतभेद तथा विभाजन
मौर्य सम्राट अशोक के अभिलेखों से यह पता चलता है कि उसके समय में
मगध में जैन धर्म का प्रचार था। लगभग इसी समय मठों में बसने वाले जैन मुनियों में यह
मतभेद शुरू हुआ कि तीर्थंकरों की मूर्तियाँ कपड़े पहनाकर रखी जाएँ या नग्न अवस्था
में। इस बात पर भी मतभेद था कि जैन मुनियों को वस्त्र पहनना चाहिए या नहीं। आगे
चलकर यह मतभेद और भी बढ़ गया। ईसा की पहली सदी में आकर जैन मतावलंबी मुनि दो दलों
में बंट गए। एक दल 'श्वेताम्बर' और
दूसरा दल 'दिगम्बर' कहलाया। 'श्वेताम्बर' और 'दिगम्बर'
इन दोनों संप्रदायों में मतभेद दार्शनिक सिद्धांतों से अधिक चरित्र
को लेकर है। दिगम्बर आचरण पालन में अधिक कठोर माने जाते हैं, जबकि श्वेताम्बर कुछ उदार हैं। श्वेताम्बर संप्रदाय के मुनि श्वेत वस्त्र
धारण करते हैं, जबकि दिगम्बर मुनि निर्वस्त्र रहकर साधना
करते हैं। यह नियम केवल मुनियों पर लागू होता है। दिगम्बर संप्रदाय यह मानता है कि
मूल आगम ग्रंथ लुप्त हो चुके हैं, 'कैवल्य ज्ञान' प्राप्त होने पर सिद्ध को भोजन की आवश्यकता नहीं रहती और स्त्री शरीर से 'कैवल्य ज्ञान' संभव नहीं है; किंतु
श्वेताम्बर संप्रदाय ऐसा नहीं मानते हैं।
धर्म का प्रचार-प्रसार
ईसा की पहली शताब्दीं में कलिंग के राजा खारवेल ने जैन धर्म स्वीकार
किया। ईसा की आरंभिक सदियों में उत्तर में मथुरा और दक्षिण में मैसूर जैन धर्म के बहुत
बड़े केंद्र थे। पाँचवीं से बारहवीं शताब्दीं तक दक्षिण के गंग, कदम्ब, चालुक्य और राष्ट्रकूटराजवंशों ने जैन धर्म
के प्रचार-प्रसार में बहुत सहयोग एवं सहायता प्रदान की। इन राजाओं के यहाँ अनेक
जैन कवियों को आश्रय एवं सहायता प्राप्त थी। ग्याहरवीं सदी के आस-पास चालुक्य वंश
के राजा सिद्धराज और उनके पुत्र कुमारपाल ने जैन धर्म को राजधर्म बना दिया तथा गुजरात
में उसका व्यापक प्रचार-प्रसार किया। हिन्दी के प्रचलन से पूर्व अपभ्रंश भाषा का
प्रयोग होता था। अपभ्रंश भाषा के कवि, लेखक एवं विद्वान हेमचन्द्र
इसी समय के थे। हेमचन्द्रराजा कुमारपाल के दरबार में ही थे। सामान्यत: जैन
मतावलंबी शांतिप्रिय स्वभाव के होते थे। इसी कारण मुग़ल काल में इन पर अधिक
अत्याचार नहीं हुए। उस समय के साहित्य एवं अन्य विवरणों से प्राप्त जानकारियों के
अनुसार अकबर ने जैन अनुयाइयों की थोड़ी बहुत मदद भी की थी। किंतु धीरे-धीरे
जैनियों के मठ टूटने एवं बिखरने लगे। जैन धर्म मूलत: भारतीय धर्म है। भारत के
अतिरिक्त पूर्वी अफ़्रीका में भी जैन धर्म के अनुयायी मिलते हैं।
जैन अनुश्रुति
मथुरा में विभिन्न कालों में अनेक जैन मूर्तियाँ मिली हैं, जो जैन संग्रहालय मथुरा में संग्रहीत हैं। अवैदिक धर्मों में जैन धर्म
सबसे प्राचीन है, प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव माने जाते
हैं। जैन धर्म के अनुसार भी ऋषभदेव का मथुरा से संबंध था। जैन धर्म की प्रचलित
अनुश्रुति के अनुसार नाभिराय के पुत्र भगवान ऋषभदेव के आदेश से इन्द्र ने 52
देशों की रचना की थी। शूरसेन देश और उसकी राजधानी मथुरा भी उन देशों
में थी। जैन `हरिवंश पुराण' में
प्राचीन भारत के जिन 18 महाराज्यों का उल्लेख हुआ है,
उनमें शूरसेन और उसकी राजधानी मथुरा का नाम भी है। जैन मान्यता के
अनुसार प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव के सौ पुत्र हुए थे।
तत्वार्थ सूत्र -दिगंबर और श्वेताम्बर परम्परा में अंतर
तत्वार्थ सूत्र में दिगंबर परम्परा के
अनुसार ; पहिले अध्याय से लेकर
दसवे अध्याय तक क्रमश:३३,५३,३९,४२, ४२,२७,३९,२६,४७,९ कुल ३५७ सूत्र और श्वेताम्बर परम्परा के
अनुसार क्रमश: ३५,५२,१८,५३,४४,२६,३४,२६,४९,७ कुल ३४४ सूत्र है !
प्रथम अध्यायःपांच स्थलों पर मुख्यत:मौलिक अंतर दृष्टिगोचर होता है!
१- प्रथम स्थल पर मतिज्ञान के चार भेदो के प्रतिपादक सूत्र है!
यहां दिगंबर परम्परा 'अवाय' और
श्वेताम्बर परम्परा -'अपाय' पाठ
स्वीकार करती है!प्र ज्ञा चक्षु पं० सुख लाल जी
श्वेताम्बर परम्परा मान्य तत्वार्थ सूत्र का विवेचन करते हुए भी मुख्य रूप से 'अवाय ' पाठ को स्वीकार करते है!
२-द्वितीय स्थल पर मतिज्ञान के विषयभूत १२ पदार्थों के प्रतिपादक सूत्र में परम्परा में क्षिप्र के बाद 'अनि
सृतानुक्त' पाठ को और श्वेतांबर परम्परा 'अनिश्रितासंदिग्ध' पाठ को स्वीकार करती है!
यहां पाठ भेद
के कारण अर्थ भेद स्पष्ट है!
३-तीसरे स्थल पर 'द्विविधोऽवधिः'
सूत्र को श्वेताम्बर परम्परा सूत्र मानती
है जबकि सर्वार्थसिद्धि (दिगंबर परम्परा )
'भवप्रत्ययोऽवधिर्देवनारकाणाम्' सूत्र की
उत्थानिका का अंश स्वीकारती है !
४-चौथे स्थल पर अवधिज्ञान के द्वितीय भेद
के प्रतिपादक सूत्र में दिगम्बर
परम्परा 'क्षयोपशमनिमित्त:' और
श्वेताम्बर परम्परा "यथोक्तनिमित्त:" पाठ को
स्वीकारती है!
५- पांचवा स्थल सात नयों के प्रतिपादक सूत्र में दिगंबर परम्परा सातो
नयों को मूल मान कर उनका समान रूप से उल्लेख करती है,किन्तु श्वेताम्बर परम्परा मूल नय पांच मानती है तथा नैगमनय व शब्दनय के क्रमश: दो व तीन भेदों का स्वतंत्र सूत्रों से उल्लेख करती है!
साधारणत: दोनों परम्परा में मूल नय
सात ही माने गए है तथा आगम साहित्य में भी सात का ही उल्लेख है!किन्तु जहाँ पर नामादि निक्षेपों में से कौन नय किस निक्षेप को स्वीकार करता है,इसका विचार किया जाता है वहां बहुदा नैगमादि पांच नयों का उल्लेख किया
जाता है (ध.पु १२ वेदनाप्रतय्यविधान अधिकार)!सम्भवत: इस प्रकार की परिपाटी को देखते हुए आचार्य उमास्वाति जी ने ५ मूल नय मान लिए हो तो इसमें आश्चर्य नही है!
दुसरे अध्याय में ९ स्थलों पर अंतर -
१-प्रथम स्थल में पारिणामिक भावों के प्रतिपादक सूत्र में श्वेताम्बर
परम्परा पारिणामिक भाव के तीन नाम गिनाने के बाद 'आदि'
पद स्वीकारती है जबकि दिगंबर परम्परा इसे नही स्वीकारती !यहां जीव का स्वतत्व क्या है बतलाते हुए
पारिणामिक भावों का उल्लेख किया है !दिगंबर परम्परा अन्य
द्रव्य साधारण पारिणामिक भावों की यहां मुख्य रूप से गणना नही करती किन्तु
श्वेताम्बर परम्परा करती है इसलिए यहाँ वे आदि पद देते
है !
२- दूसरा स्थल स्थावरकायिक जीवों के भेदों के प्रतिपादक सूत्र में आगमिक परिपाटी के अनुसार दोनों परम्परा स्थावरजीव के
५ भेद स्वीकारते है;तदानुसार
दिगम्बर परम्परा इनके ५ भेद स्वीकार करती है किन्तु श्वेताम्बर
परम्परा अग्निकायिक और वायुकायिक जीवों
की त्रस गति स्वीकारती है और उनका उल्लेख त्रस जीवो के साथ करती है!इसलिए
कई सूत्रों की रचना में अंतर आया है!
३-तीसरा स्थल 'उपयोग:स्पर्शादिषु '
सूत्र को श्वेताम्बर परम्परा में स्वतंत्र सूत्र मन गया है जबकि दिगंबर परम्परा इसे सूत्र रूप नही मानती,उनके
अनुसार उपयोग के विषय का अलग से प्रतिपादन करना वांछनीय नही है क्योकि प्रत्येक
ज्ञान का विषय अध्याय १ में दिखा आये है!
४-चौथा स्थल 'एकसमयाऽविग्रहा' सूत्र को दिगंबर परम्परा
में गति का प्रकरण होने के कारण इसी रूप में स्वीकारती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा,एक समय को विशेष्य मानकर यहां पुल्लिंग एक वचनान्त का प्रयोग करती है!
५-पांचवा स्थल जन्म के प्रतिपादक सूत्र
में दिगंबर परम्परा 'पोत 'पद और
श्वेताम्बर 'पोतज' पद को मानती
हैं !
६-छट्टे स्थल में 'तेजसमपि ' सूत्र को दिगम्बर परम्परा
मानती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा नही मानती!यहां निमित्तज सभी शरीरों के उत्पत्ति
के कारणों का विचार सूत्र में किया है फिर भी श्वेेताम्बर परम्परा इसे सूत्र रूप नही मानती तथा इसे तत्वार्थ भाष्य का अंग मान लेती है!
७-सत्त्व स्थल आहारक शरीर के प्रतिपादक सूत्र है इसमें दिगंबर परम्परा
के 'प्रमत्तसंयतस्यैव:' पाठ के स्थान
में श्वेताम्बर परम्परा 'चतुर्दशपूर्वधरस्यैव' पाठ स्वीकार करती है !
८-आठवा स्थल 'शेषस्त्रिवेदा:'सूत्र को दिगम्बर परम्परा स्वतंत्र सूत्र
मानती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसे परिशेष
न्याय का आश्रय लेकर सूत्र
नही मानती !
९-नौवे स्थल पर अनपवर्त्य आयु वाले का प्रतिपादक सूत्र में,दिगंबर परम्परा के 'चरमोत्तमदेह'
पाठ के स्थान में श्वेताम्बर परम्परा 'चरमदेहोत्तमपुरुष' पाठ स्वीकार करती है!
तीसरे अध्ययन में तीन स्थलों पर अंतर है -
१-प्रथम स्थल पहिला सूत्र दिगम्बर परम्परा में 'अधोऽधः' के अनन्तर श्वेताम्बर परम्परा में 'पृथुतरा:' पाठ स्वीकारती है !
२-दूसरा स्थल दूसरे सूत्र 'नारका:'पद को श्वेताम्बर परम्परा स्वीकार न कर 'तासु नारका:'स्वतंत्र सूत्र मानती है!यहां
द्वित्यादि सूत्रों में नारकों कीअवस्था का स्थिति का
चित्रण किया गया है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा के
अनुसार वह सब नरकों-आवासस्थानों की अवस्था का चित्रण हो जाता है !
३-तीसरा स्थल ग्यारवे सूत्र से आगे २१सूत्रों को दिगंबर परम्परा सूत्र रूप स्वीकृत करती है किन्तु श्वेताम्ब- र परम्परा अस्वीकृति करती है!ये २१ सूत्र लोक के जम्बूद्वीप में स्थित पर्वत,सरिताओं आदि के रंग तथा अन्य भौगालिक विवरणों
सन्दर्भ मे है!
चतुर्थ अध्याय में अनेक स्थलों पर अंतर है-
१-प्रथम मतभेद,दुसरे सूत्र को दिगम्बर
परम्परा "आदितस्त्रिषु पीतान्तलेश्या:"रूप
में मानती है किन्तु श्वेता- म्बर परम्परा में "तृतीय:पीतलेश्य:" रूप
में स्वीकारती है!श्वेाताम्बर साहित्य में ज्योतिषियों के एक पीत लेश्या कही है इसीलिए यह सूत्र विषयक मतभेद हुआ
है था स्वेताम्बर परम्परा ने ७ वे नंबर का;"पीतान्त
लेश्या:"स्वतंत्र सूत्र माना है !
२-दूसरा स्थल शेष कल्पों में प्रवीचार का प्रतिपादक सूत्र है !इसमें श्वेाताम्बर परम्परा 'द्वयोर्द्वयो:'पद को अधिक रूप से स्वीकार करती है!इस काररण
उन्हें आनतादि चार कल्पो को दो मानकर चलना पड़ता है !
३-तीसरा स्थल कल्पों के प्रतिपादक सूत्र है जिसमे दिगम्बर परम्परा
में १६ और श्वेताम्बर
परम्परा १२ कल्प का उल्लेख है!
४-चौथा स्थल लौकान्तिक देवों की भेद का
प्रतिपादक सूत्र है -दिगंबर परम्परा ८ और श्वेताम्बर
परम्परा ९ प्रकार के स्वीकारती है !इसके बावजूद भी
तत्वार्थ भाष्य में वे ८ प्रकार के ही रह जाते है !
५-पांचवा स्थल -'औपपादिकमनुष्येभ्य:'इत्यादि सूत्र के आगे इस अध्याय में ,दोनों
परम्परा के सूत्र पाठ में पर्या प्त अंतर है;अनेक सूत्रों का
श्वेताम्बर परम्परा में समावेश है जिनका दिगंबर परम्परा में अभाव है!कुछ सूत्र ऐसे
है जिनका पाठ दोनों परम्पराओं मे अलग अलग स्वीकार किया है!इनमे अंतर १-दोनों
परम्पराओं में कल्पों की संख्या के अंतर के कारण है,२-भवनवासी
और ज्योतिष्क देवों की स्थिति के प्रतिपादन में
श्वेाताम्बर परम्परा में भिन्न रुख स्वीकारा है!लौकांतिक देवों के स्थिति का प्रतिपादक सूत्र को भी इस परम्परा ने नही स्वीकारा है !
पांचवे अध्याय में छ स्थलों पर अंतर मिलता है -
१- प्रथम स्थल में अंतर 'द्रव्याणि' और 'जीवश्च 'दो सूत्रों में है!दिगंबर परम्परा में दोनों सूत्रों को स्वतत्र रूप से
स्वीकार किया जाता है जबकि श्वेाताम्बर परम्परा इनको एक सूत्ररूप स्वीकारती है !
२-दूसरा स्थल धर्मादि द्रव्यों के प्रदेशों की संख्या के प्रतिपादक
सूत्र है! दिगंबर परम्परा में धर्म ,अधर्म ,और एक
जीव के प्रदेशो की एक साथ परिगणना करती
है किन्तु श्वेाताम्बर परम्परा जीव के प्रतिपादक सूत्र को स्वतंत्र मानकर चलती है!
३ -तीसरा स्थल 'सद्द्रव्यलक्षणम्'सूत्र को श्वेताम्बर परम्परा सूत्र रूप नही स्वीकारती
है !
४-चौथे स्थल -पुद्गलों का बंध होने पर वे
किस रूप परिणमन करते है के सदर्भ वाले सूत्र को 'सम' पद को अधिक स्वीकारती है !साधारणतया दिगम्बर और
श्वेताम्बर दोनों ही परम्पराये ''द्वियधिक' गुण वाले का अपने से हीन गुणवाले के साथ बंध
होता है'इस मत से सहमत है किन्तु सूत्र रचना में और उसके
अर्थ की संगति बिठलाने में श्वेाताम्बर परम्परा अपने इस आगमिक परिपाटी का त्याग कर देती है !
५-पांचवा स्थल काल द्रव्य का प्रतिपादक सूत्र है !श्वेेताम्बर परम्परा इस सूत्र द्वारा काल द्रव्य के अस्तित्व में मतभेद
रखती है !समस्त श्वेताम्बर आगम साहित्य में काल द्रव्य के स्थान पर 'अद्धासमय'
का उल्लेख है और इसे इसे प्रदेशात्मक
द्रव्य नही मान कर,पर्याय द्रव्य स्वीकारा है
६-छठा स्थल,परिणाम का प्रतिपादक सूत्र है -दिगंबर परम्परा में "तद्भाव:परिणाम:" ,केवल इस सूत्र को स्वीकारती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसके साथ अन्य तीन सूत्रों को भी स्वीकारती है !
छठे अध्या में १० स्थलों पर अंतर
है-
१-प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है!इसे दिगम्बर परम्परा एक किन्तु श्वेयताम्बर परम्परा दो सूत्र मानती!
२-दूसरा स्थल 'इन्द्रियकषायाव्रतकरिया: 'सूत्र को दिगंबर परम्परा स्वीकारती है जबकि श्वेताम्बर परम्परा
इसके स्थान पर 'अव्रतकषायेन्द्रियक्रिया:"पाठ
स्वीकारती है !
३-तीसरा स्थल सातावेदनीय के आस्रवका प्रतिपादक सूत्र १२ है दिगंबर परम्परा में 'भूतव्रत्यनुकम्पादानसराग
संयमादियोग: क्षान्ति: शौच मिति सद्वेद्यस्य'स्वीकारती है जब
की श्वेताम्बर परम्परा 'भूतव्रत्यनुकम्पादानं सरागसंयमादियोग:' पाठ स्वीकारती है !
४-चौथा स्थल चारित्र मोह के आस्रव का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें श्वेताम्बर परम्परा 'तीव्र' पद के बाद 'आत्म'पद को अधिक
स्वीकार करती है !
५- पांचवा स्थल नरकायु के आस्रव का प्रतिपादक सूत्र है-इसमें
श्वेताम्बर परम्परा मध्य में 'च' पद
को अधिक स्वीकारती है !
६-छठा स्थल मनुष्यायु के आस्रव का
प्रतिपादक दो सूत्र है-गिगम्बर परम्परा
इन्हे दो सूत्र मानती है जबकि श्वेाताम्बर परम्परा एक ही सूत्र मानती है !इतना ही नही सूत्र १८ 'स्वाभाव मार्दवं च 'के स्थान पर "स्वभाव मार्दववार्जव'
पाठ स्वीकारती है !
७-सत्त्व स्थल देवयु के आस्रव का
प्रतिपादक सूत्र है -दिगम्बर परम्परा में' 'सम्यक्त्व च ' सूत्र का स्वंतत्र
अस्तित्व स्वीकारा है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा इसे स्वीकारते हुए हिचकिचाती है!
८-आठवा स्थल शुभ नाम कर्म के आस्रव का प्रतिपादक सूत्र है -दिगम्बर परम्परा इस सूत्र में 'तत्'' पद को अधिक स्वीकारा है!
९-नौवा स्थल तीर्थंकर प्रकृति का
प्रतिपादक सूत्र में श्वेताम्बर
परम्परा 'साधूसमाधि:' के स्थान पर
संघ साधु समाधि: पाठ स्वीकारती है !
१०-दसवां स्थल उच्च गोत्र के
आस्रव का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें दिगंबर परम्परा 'तद्विपर्ययो किन्तु श्वेताम्बर परम्परा
तद्विपर्ययौ ' पाठ स्वीकारती है!
सातवे अध्याय में ५ स्थलों पर अंतर है -
१-प्रथम स्थल में पांच व्रतों की पांच पांच भावनाओ के प्रतिपादक ५ सूत्र दिगंबर परम्परा स्वीकारती है
किन्तु श्वेताम्बर परम्परा नही स्वीकारती है !
२- दूसरा स्थल 'हिंसादिष्विहामुत्रा ' सूत्र में श्वेाताम्बर
परम्परा में अमुत्र पद के बाद 'च'पद को
अधिक स्वीकार करती है!
३-तीसरा स्थल 'मैत्री '-इत्यादि सूत्र के मध्य में दिगंबर परम्परा 'च' पद को अधिक स्वीकारती है
४-चौथा स्थल 'जगत्काय' इत्यादि सूत्र में दिगम्बर परम्परा 'वा'
पाठ को और श्वेताम्बर 'च' पाठ को स्वीकार करती है !
५-पांचवा स्थल अहिंसाणुव्रत के पांच
अतिचार का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें ' छेद ' के
स्थान पर श्वेताम्बर परम्परा में 'सविच्छेद ' पाठ है !
आठवे अध्याय में छ स्थलों पर अंतर है -
१-प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है ,इसे
श्वेताम्बर परम्परा दो सूत्र मानती है !
२- दूसरा स्थल ञनवरं के ५ भेदों का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें दिगंबर परम्परा भेदों का निरूपण करती है किन्तु
श्वेताम्बर परम्परा 'मत्यादीनाम् ' इतना ख कर छोड़ देती है !
३-तीसरा स्थल दर्शवारण के नामो का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें श्वेेताम्बर परम्परा ५ निंद्राओ के नामो के साथ
वेदनीय पद अधिक जोड़ती है !
४- चौथा स्थल मोहनीय के नामों का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें नामों के कर्मोँ के प्रतिपादन में दोनों परम्पराओं ने अलग अलग क्रम स्वीकारा है !
५-पांचवा अंतर अंतराय के नामों के प्रतिपादक सूत्र में है-दिगंबर परम्परा
पाँचों नामों का निर्देश करती है किन्तु श्वेताम्बर परम्परा 'दानादीनाम्':कह कर छोड़
दिया है !
६-छट्टा स्थल पुण्य और पाप प्रकृतियों का प्रतिपादक दो सूत्र है-यहाँ श्वेाताम्बर परम्परा ने एक तो पुण्य प्रकृति- यों में सम्यक्त्व,हास्य,रति,पुरुषवेद की परिगणना
करी है दूसरा पाप प्रकृतियों का प्रतिपादक सूत्र नही है!
नौवे अध्याय में छ स्थलों में अंतर है -
१-प्रथम स्थल दस धर्मों के प्रतिपादक सूत्र में है-दिगम्बर परम्परा ,यहाँ 'उत्तम'पद को क्षमा
आदि का विशेषण मानती है किन्तु श्वेतांबर परम्परा धर्म का विशेषण मानती है !फिर भी वह 'उत्तम'पद का पाठ 'धर्म' पद के साथ अंत में नही करके सूत्र के प्रारम्भ
में ही करते है !
२-दूसरा स्थल पांच चारित्रों का प्रतिपादक सूत्र है-इसमें दिगंबर
परम्परा 'आईटीआई' पद को अधिक
स्वीकारती है!
३-तीसरा स्थल ध्यान का प्रतिपादक सूत्र है -इसमें 'अन्तर्मुहूर्तात् ' के स्थान पर श्वेाताम्बर परम्परा' आ मुहूर्तात्'
पद स्वीकार कर उसे स्वतंत्र सूत्र मानती है !
४-चौथा स्थल आर्तध्यान का प्रतिपादक
सूत्र है-श्वेेताम्बर परम्परा ने तो मनोज्ञस्य '
और 'अमनोज्ञस्य 'के
स्थान पर बहुवचतान्त पाठ स्वीकार किया है !दूसरा 'वेदनायाश्च' सूत्र को 'विपरीतं
मनोज्ञस्य' के पहिले रखा है !
५-पांचवा धर्म ध्यान का प्रतिपादक सूत्र है-इस सूत्र में श्वेताम्बर परम्परा 'अप्रमत्तसंयतस्य'
इतना पाठ अधिक स्वीकार कर 'उपशांतक्षीणकषाययोश्च' यह सूत्र स्वतंत्र मानती है!
६-छट्टा स्थल 'एकाश्रये ' इत्यादि सूत्र है -इसमें 'सवितर्कविचारे ' के स्थान पर श्वेताम्बर
परम्परा ''सवितर्के ' पाठ स्वीकार
करती है !
दसवे अध्याय में तीन स्थलों पर अंतर है -
१-प्रथम स्थल दूसरा सूत्र है श्वेेताम्बर परम्परा इसे दो सूत्र
मानती है !
२-दूसरा स्थल तीसरा और चौथा सूत्र है -श्वेाताम्बर
परम्परा १- इन दो सूत्रों को एक सूत्र मानती है ,२-'भव्यत्वानाम् 'के
स्थान पर 'भव्यत्वाभावात् 'पाठ
स्वीकार करती है !
३-तीसरा स्थल 'पूर्वप्रयोगात् ' इत्याफी सूत्र है इस सूत्र के अंत में श्वेताम्बर परम्परा 'तद्गति:इतना ही पाठ
स्वीकार करती है तथा इसे आगे उल्लेखित दो सूत्रों को
स्वीकार नही करती !
कुल मिलाकर जैन धर्म भी समय के साथ बदलता गया और समाज की वास्विकता को अंगीकार कर भारत भू भाग में हिंसक आक्रांताओं के होते हुये भी अपना अस्तित्व बनाये रखा। वास्तव में ये धर्म गुरू शिष्य परम्परा का महान धर्म है जिस पर सनातन भी गर्व कर सकता है।
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन गूगल,
जैन साइट्स इत्यादि
से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
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