धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी भाग – 12
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:
vipkavi.info , वेब चैनल: vipkavi
नोट: यूनेस्को ने 7 नवम्बर 2004 को वेदपाठ को मानवता के मौखिक एवं अमूर्त विरासत की श्रेष्ठ कृति घोषित किया है।
आपने भाग 1 से 10 में
अब तक पढा कि किस प्रकार जीवन के चार सनातन सिद्दांतों अर्थ, धर्म, काम और मोक्ष हेतु चार वेदों की
रचना हुई। जिसे समझाने हेतु उपनिषद और उप वेदों की रचना हुई। जो मनुष्य को अपनी
सोंच और भावनाओं को विकसित होने का पूर्ण अवसर देते हैं। किस प्रकार विदेशी आक्रांताओं ने वेदो को नष्ट करने का प्रयास किया।
स्वामी दयानंद सरस्वती ने वेदों की वैज्ञानिकता को समाज में बताने की चेष्टा की।। यहां तक सोहलवीं सदी में एक उपनिषद और जोडकर मुस्लिम धर्म के प्रचार
प्रसार हेतु ताना बाना बुना गया और अल्लोहोपनिषद बन डाला गया। लगभग सभी उपनिषद
विभिन्न ऋषियों द्वारा अपने अनुभव के आधार पर ईश की परम सत्ता की व्याख्या करते
हैं। आपने सारे उपनिषद को संक्षेप में पड लिया होगा। भारत के दस महान वैज्ञानिक
ऋषियों ने किस प्रकार विज्ञान को योगदान दिया। अगस्त ऋषि ने तो 2500 साल पहले ही
बिजली का अविष्कार कर लिया था। सात महान ऋषियों ने आंतरिक विज्ञान पर अपना योगदान
देकर सप्त ऋषि बन गये। जैन धर्म भारत का प्राचीनतम धर्म कहा जा सकता है। गुरू
परम्परा की पराकाष्ठा रखनेवाला यह धर्म विलक्षण है। आपने अब तक जैन धर्म के इतिहास
को मुनियों को जाना। कालांतर में जैन धर्म दिगम्बर और श्वेताम्बर में बंट गये। जिसकी
कल्पना भी महावीर सवामी ने न की होगी।
भारत की पवित्र भूमि
में जन्म लेकर तमाम ऋषियों ने ईशवरीय ज्ञान को पूरी दुनिया में फैलाया और जिसके
कारण भारत विश्व गुरू कहलाता था। आज भी अष्टांग योग के मात्र दो अंग आसन और
प्रणायाम की बदौलत विश्व के सभी देशों में यह चर्चा का विषय बन चुका है। और लगता
है कि दुनिया पुन: भारत को विश्व गुरू का स्थान दे चुकी है।
आइये सनातन की संतान एक बार इस दिशा में प्रयास कर अपना
योगदान दे।
अब आगे
.......................................
1.गजानन महाराज
(1878-1910) गजानन महाराज का जन्म कब हुआ, उनके माता-पिता कौन थे, इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं। शेगांव में 23 फरवरी 1878 में बनकट लाला और दामोदर नमक दो व्यक्तियों ने देखा। वे तभी से वहीं रहे। मान्यता के अनुसार 8 सितंबर 1910 को प्रात: 8 बजे उन्होंने शेगांव में समाधि ले ली।
(1878-1910) गजानन महाराज का जन्म कब हुआ, उनके माता-पिता कौन थे, इस बारे में किसी को कुछ भी पता नहीं। शेगांव में 23 फरवरी 1878 में बनकट लाला और दामोदर नमक दो व्यक्तियों ने देखा। वे तभी से वहीं रहे। मान्यता के अनुसार 8 सितंबर 1910 को प्रात: 8 बजे उन्होंने शेगांव में समाधि ले ली।
2. .संत नामदेव
(1267 में जन्म) गुरु विसोबा खेचर थे। गुरुग्रंथ और कबीर के भजनों में इनके नाम का उल्लेख मिलता है। ये महाराष्ट्र के पहुंचे हुए संत हैं। संत नामदेवजी का जन्म कबीर से 130 वर्ष पूर्व महाराष्ट्र के जिला सातारा के नरसी बामनी गांव में हुआ था। उन्होंने ब्रह्मविद्या को लोक सुलभ बनाकर उसका महाराष्ट्र में प्रचार किया तो संत नामदेवजी ने महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक उत्तर भारत में 'हरिनाम' की वर्षा की।
(1267 में जन्म) गुरु विसोबा खेचर थे। गुरुग्रंथ और कबीर के भजनों में इनके नाम का उल्लेख मिलता है। ये महाराष्ट्र के पहुंचे हुए संत हैं। संत नामदेवजी का जन्म कबीर से 130 वर्ष पूर्व महाराष्ट्र के जिला सातारा के नरसी बामनी गांव में हुआ था। उन्होंने ब्रह्मविद्या को लोक सुलभ बनाकर उसका महाराष्ट्र में प्रचार किया तो संत नामदेवजी ने महाराष्ट्र से लेकर पंजाब तक उत्तर भारत में 'हरिनाम' की वर्षा की।
4.संत ज्ञानेश्वर
सन् (1275 से 1296 ई.) : संत ज्ञानेश्वर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। ज्ञानेश्वर ने भगवद् गीता के ऊपर मराठी भाषा में एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक 10,000 पद्यों का ग्रंथ लिखा है। महाराष्ट्र की भूमि पर नाथ संप्रदाय, दत्त संप्रदाय, महानुभव संप्रदाय, समर्थ संप्रदाय आदि कई पंथ-संप्रदायों का उदय एवं विस्तार हुआ। किन्तु भागवत भक्ति संप्रदाय यानी संत ज्ञानेश्वर जी प्रणीत "वारकरी भक्ति संप्रदाय" इस भूमि पर उदित हुआ सबसे विशाल संप्रदाय रहा है।
सन् (1275 से 1296 ई.) : संत ज्ञानेश्वर का जन्म महाराष्ट्र के अहमदनगर जिले में पैठण के पास आपेगांव में भाद्रपद के कृष्ण पक्ष की अष्टमी को हुआ था। ज्ञानेश्वर ने भगवद् गीता के ऊपर मराठी भाषा में एक 'ज्ञानेश्वरी' नामक 10,000 पद्यों का ग्रंथ लिखा है। महाराष्ट्र की भूमि पर नाथ संप्रदाय, दत्त संप्रदाय, महानुभव संप्रदाय, समर्थ संप्रदाय आदि कई पंथ-संप्रदायों का उदय एवं विस्तार हुआ। किन्तु भागवत भक्ति संप्रदाय यानी संत ज्ञानेश्वर जी प्रणीत "वारकरी भक्ति संप्रदाय" इस भूमि पर उदित हुआ सबसे विशाल संप्रदाय रहा है।
5.संत एकनाथ
(1533 ई.-1599 ई.) : महाराष्ट्र के संतों में नामदेव के पश्चात दूसरा नाम एकनाथ का ही आता है। इनका जन्म पैठण में हुआ था। ये वर्ण से ब्राह्मण जाति के थे। इन्होंने जाति प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई तथा अनुपम साहस के कारण कष्ट भी सहे। इनकी प्रसिद्धि भागवत पुराण के मराठी कविता में अनुवाद के कारण हुई। दार्शनिक दृष्टि से ये अद्वैतवादी थे।
(1533 ई.-1599 ई.) : महाराष्ट्र के संतों में नामदेव के पश्चात दूसरा नाम एकनाथ का ही आता है। इनका जन्म पैठण में हुआ था। ये वर्ण से ब्राह्मण जाति के थे। इन्होंने जाति प्रथा के विरुद्ध आवाज उठाई तथा अनुपम साहस के कारण कष्ट भी सहे। इनकी प्रसिद्धि भागवत पुराण के मराठी कविता में अनुवाद के कारण हुई। दार्शनिक दृष्टि से ये अद्वैतवादी थे।
6.संत तुकाराम
(1577-1650) महाराष्ट्र के प्रमुख संतों और भक्ति आंदोलन के कवियों में एक तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले के अंतर्गत 'देहू' नामक ग्राम में शक संवत् 1520 को अर्थात सन् 1598 में हुआ था। इनके पिता का नाम 'बोल्होबा' और माता का नाम 'कनकाई' था। तुकाराम ने फाल्गुन माह की कृष्ण द्वादशी शाक संवत 1571 को देह विसर्जन किया। इनके जन्म के समय पर मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका जन्म समय 1577, 1602, 1607, 1608, 1618 एवं 1639 में और 1650 में उनका देहांत होने को मानते हैं। ज्यादातर विद्वान 1577 में उनका जन्म और 1650 में उनकी मृत्यु होने की बात करते हैं।
(1577-1650) महाराष्ट्र के प्रमुख संतों और भक्ति आंदोलन के कवियों में एक तुकाराम का जन्म महाराष्ट्र राज्य के पुणे जिले के अंतर्गत 'देहू' नामक ग्राम में शक संवत् 1520 को अर्थात सन् 1598 में हुआ था। इनके पिता का नाम 'बोल्होबा' और माता का नाम 'कनकाई' था। तुकाराम ने फाल्गुन माह की कृष्ण द्वादशी शाक संवत 1571 को देह विसर्जन किया। इनके जन्म के समय पर मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका जन्म समय 1577, 1602, 1607, 1608, 1618 एवं 1639 में और 1650 में उनका देहांत होने को मानते हैं। ज्यादातर विद्वान 1577 में उनका जन्म और 1650 में उनकी मृत्यु होने की बात करते हैं।
7.समर्थ रामदास
(1608-1681) : समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। उनके पिता का नाम सूर्याजी पंत और माता का नाम राणुबाई था। वे राम और हनुमान के भक्त और वीर शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने शक संवत 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।
(1608-1681) : समर्थ रामदास का जन्म महाराष्ट्र के औरंगाबाद ज़िले के जांब नामक स्थान पर शके 1530 में हुआ। इनका नाम ‘नारायण सूर्याजीपंत कुलकर्णी’ था। उनके पिता का नाम सूर्याजी पंत और माता का नाम राणुबाई था। वे राम और हनुमान के भक्त और वीर शिवाजी के गुरु थे। उन्होंने शक संवत 1603 में 73 वर्ष की अवस्था में महाराष्ट्र में सज्जनगढ़ नामक स्थान पर समाधि ली।
8.भक्त पुंडलिक
6वीं सदी में संत पुंडलिक हुए जो माता-पिता के परम भक्त थे। उनके इष्टदेव श्रीकृष्ण थे। उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन श्रीकृष्ण रुकमणी के साथ प्रकट हो गए। तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।' पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा और कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन: पैर दबाने में लीन हो गए। भगवान ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गए।
6वीं सदी में संत पुंडलिक हुए जो माता-पिता के परम भक्त थे। उनके इष्टदेव श्रीकृष्ण थे। उनकी इस भक्ति से प्रसन्न होकर एक दिन श्रीकृष्ण रुकमणी के साथ प्रकट हो गए। तब प्रभु ने उन्हें स्नेह से पुकार कर कहा, 'पुंडलिक, हम तुम्हारा आतिथ्य ग्रहण करने आए हैं।' पुंडलिक ने जब उस तरफ देखा और कहा कि मेरे पिताजी शयन कर रहे हैं, इसलिए आप इस ईंट पर खड़े होकर प्रतीक्षा कीजिए और वे पुन: पैर दबाने में लीन हो गए। भगवान ने अपने भक्त की आज्ञा का पालन किया और कमर पर दोनों हाथ धरकर और पैरों को जोड़कर ईंटों पर खड़े हो गए।
ईंट पर खड़े होने के कारण श्री विट्ठल के विग्रह रूप में भगवान की
लोकप्रियता हो चली। यही स्थान पुंडलिकपुर या अपभ्रंश रूप में पंढरपुर कहलाया, जो महाराष्ट्र का सबसे प्रसिद्ध तीर्थ है। पुंडलिक को वारकरी संप्रदाय का
ऐतिहासिक संस्थापक भी माना जाता है, जो भगवान विट्ठल की पूजा
करते हैं।
9.संत गोरोबा
( 1267 से 1317) : संत गोरा कुम्हार को संत गोरोबा भी कहा जाता है। महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले के अंतर्गत धाराशिव नामक गांव है। इस गांव का मूल नाम त्रयीदशा है परंतु वर्तमान में इसका नाम तेरेढोकी है। यही पर संत गोरा कुम्हार का जन्म हुआ। वे निष्ठावान वारकरी संत थे। उनकी गुरु परंपरा श्री ज्ञानदेव और नामदेव की तरह ही नाथपंथीय थी।
( 1267 से 1317) : संत गोरा कुम्हार को संत गोरोबा भी कहा जाता है। महाराष्ट्र के उस्मानाबाद जिले के अंतर्गत धाराशिव नामक गांव है। इस गांव का मूल नाम त्रयीदशा है परंतु वर्तमान में इसका नाम तेरेढोकी है। यही पर संत गोरा कुम्हार का जन्म हुआ। वे निष्ठावान वारकरी संत थे। उनकी गुरु परंपरा श्री ज्ञानदेव और नामदेव की तरह ही नाथपंथीय थी।
10.संत जानाबाई
जनाबाईका जन्म महाराष्ट्रके मराठवाडा प्रदेशमें परभणी मंडलके गांव गंगाखेडमें दमा और उनकी पत्नी करुंड नाम के के विठ्ठलभक्त के घरमें हुआ। उनके पिताने पत्नीके निधनके उपरांत जनाबाई को पंढरपुरके विठ्ठलभक्त दामाशेटी के हाथों में सौंप दिया और स्वयं भी संसार से विदा ली। इस प्रकार 6-7 वर्ष की आयु में ही जनाबाई अनाथ होकर दामाशेटी के घर में रहने लगीं। उनके घर में आने के उपरांत दामाशेटीको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, वही प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज थे। आजीवन जनाबाई ने उन्हीं की सेवा की। संत नामदेव महाराजके सत्संगसे ही जनाबाईको भी विठ्ठल भक्तिकी आस लगी। श्रीसंत ज्ञानदेव-विसोबा खेचर-संत नामदेव-संत जनाबाई यह उनकी गुरुपरंपरा है। जनाबाई के नाम पर लगभग 350 'अभंग' सकल संत गाथा में मुद्रित है। इसके अलावा भी उनके कई ग्रंथ हैं।
जनाबाईका जन्म महाराष्ट्रके मराठवाडा प्रदेशमें परभणी मंडलके गांव गंगाखेडमें दमा और उनकी पत्नी करुंड नाम के के विठ्ठलभक्त के घरमें हुआ। उनके पिताने पत्नीके निधनके उपरांत जनाबाई को पंढरपुरके विठ्ठलभक्त दामाशेटी के हाथों में सौंप दिया और स्वयं भी संसार से विदा ली। इस प्रकार 6-7 वर्ष की आयु में ही जनाबाई अनाथ होकर दामाशेटी के घर में रहने लगीं। उनके घर में आने के उपरांत दामाशेटीको पुत्ररत्न प्राप्त हुआ, वही प्रसिद्ध संत नामदेव महाराज थे। आजीवन जनाबाई ने उन्हीं की सेवा की। संत नामदेव महाराजके सत्संगसे ही जनाबाईको भी विठ्ठल भक्तिकी आस लगी। श्रीसंत ज्ञानदेव-विसोबा खेचर-संत नामदेव-संत जनाबाई यह उनकी गुरुपरंपरा है। जनाबाई के नाम पर लगभग 350 'अभंग' सकल संत गाथा में मुद्रित है। इसके अलावा भी उनके कई ग्रंथ हैं।
11.संत कन्होपात्रा
महिला संत कन्होपात्र एक कवियत्री थीं। इनका जन्म 14वीं सदी के मध्य में मंगल वेद में हुआ था। यह हिंदू धर्म के वरकारि संप्रदाय द्वारा सम्मानित थी। उनका देहांत पंढरपुर के विठोबा मंदिर में हुआ।
महिला संत कन्होपात्र एक कवियत्री थीं। इनका जन्म 14वीं सदी के मध्य में मंगल वेद में हुआ था। यह हिंदू धर्म के वरकारि संप्रदाय द्वारा सम्मानित थी। उनका देहांत पंढरपुर के विठोबा मंदिर में हुआ।
12.संत सेन महाराज
संत शिरोमणि सेन महाराज का जन्म विक्रम संवत 1557 में वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी), दिन रविवार को वृत योग तुला लग्न पूर्व भाद्रपक्ष को चन्दन्यायी के घर में हुआ। बचपन में इनका नाम नंदा रखा गया। संत सेना महाराज का जन्म मध्यप्रदेश के बांधवगड़ में हुआ, लेकिन वे महाराष्ट्र की संत परंपरा से आते हैं। वे पंढरपुर के एक महान वारकरी संत थे।
संत शिरोमणि सेन महाराज का जन्म विक्रम संवत 1557 में वैशाख कृष्ण-12 (द्वादशी), दिन रविवार को वृत योग तुला लग्न पूर्व भाद्रपक्ष को चन्दन्यायी के घर में हुआ। बचपन में इनका नाम नंदा रखा गया। संत सेना महाराज का जन्म मध्यप्रदेश के बांधवगड़ में हुआ, लेकिन वे महाराष्ट्र की संत परंपरा से आते हैं। वे पंढरपुर के एक महान वारकरी संत थे।
13.संत चोखामेळा (1300-1400)
महाराष्ट्र के संत शिरोमणि चोखामेला ने कई अभंग लिखे हैं। संत नामदेव को उनका गुरु कहा जाता है। चोखामेला का जन्म महाराष्ट्र के गरीब परिवार में जन्म हुआ। उनका जन्म मेहुनाराजा नामक गावं में हुआ, जो महाराष्ट्र के बुलढाना जिले की दियोलगावं राजा तहसील में आता है। चोखामेला बचपन से ही विठोबा के भक्त थे।
महाराष्ट्र के संत शिरोमणि चोखामेला ने कई अभंग लिखे हैं। संत नामदेव को उनका गुरु कहा जाता है। चोखामेला का जन्म महाराष्ट्र के गरीब परिवार में जन्म हुआ। उनका जन्म मेहुनाराजा नामक गावं में हुआ, जो महाराष्ट्र के बुलढाना जिले की दियोलगावं राजा तहसील में आता है। चोखामेला बचपन से ही विठोबा के भक्त थे।
14.संत भानुदास महाराज
ये भी विठोबा का भक्त और वारंकरी संप्रदाय के संत थे। भानुदास के परपोता थे एकनाथजी। वे भगवान की भक्ति ही करते रहते थे जिसके चलते घर में आर्थिक संकट था। उनको सबने पैसा इकट्ठा करके उनका कपड़े का धंधा करने को कहा। वे कपड़ा बेचते थे तो कहते थे कि इतने में खरीदा और इतने में बेचूंगा। बाकी लोग बेइमानी से कपड़ा बेचते थे। कई दिनों तक भानुदास का धंधा नहीं चला लेकिन भानुदास के सत्य बोलने को लोगों ने समझा और उनकी जीत हुई। ऐसे में दूसरे व्यापारी भानुदास से जलने लगे।
एक दिन एक हाट के दौरान वे धर्मशाला में ठहरे थे वहां उनके साथ अन्य व्यापारी भी ठहरे थे। रात को भानुदास को कीर्तन की आवाज सुनाई दी, तो उन्होंने अन्य व्यापारियों से कहा आप भी कीर्तन सुनने चले। सभी ने मना कर दिया। भानुदास के जाने के बाद व्यापारियों ने उनकी कपड़े की गठरी फेंक दी और बहार खड़ा उनके घोड़े को खोलकर चाबुक चलाकर दूर भगा दिया। उधर वे कीर्तन में मगन थे इधर धर्मशाला में रात को डकैती पड़ गई। डकैत व्यापारियों को लूटने के बाद घोड़े भी ले गए। भानुदास रात को दो बजे कीर्तन से वापस आए तो पता चला कि व्यापारियों के पैसे तो गई साथ ही उनकी पिटाई भी हुई। तब भानुदास ने अपना घोड़ा ढूंढा तो एक युवक ने बताया कि वहां है आपका घोड़ा। युवक ने यह भी बताया कि आपकी कपड़े की गठरी व्यापारियों ने यहां फेंकी थी वे भी ले ले। भानुदास ने पूछा तुम कौन हो। युवक ने कहा जो जैसा मानता है वैसा रहता हूं। भानु ने फिर पूछा तुम हां रहते हो, तो उन्होंने कहा सर्वत्र रहता हूं। तुम्हारा नाम कया तो युवक ने कहा कोई भी रख दें। मा बाप कौन तो कहा कि कोई भी बन जाओ। तुम क्या करते हो, भक्तों की सेवा करता हूं। तब भानुदास ने कहा तुम्हारी बात समझ में नहीं आती तो उसने कहा मैं सारी समझ के पार हूं।...और ऐसा कहते हूं युवक गायब हो गया।... बस इस घटना के बाद भानुदास का जीवन बदल गया।
ये भी विठोबा का भक्त और वारंकरी संप्रदाय के संत थे। भानुदास के परपोता थे एकनाथजी। वे भगवान की भक्ति ही करते रहते थे जिसके चलते घर में आर्थिक संकट था। उनको सबने पैसा इकट्ठा करके उनका कपड़े का धंधा करने को कहा। वे कपड़ा बेचते थे तो कहते थे कि इतने में खरीदा और इतने में बेचूंगा। बाकी लोग बेइमानी से कपड़ा बेचते थे। कई दिनों तक भानुदास का धंधा नहीं चला लेकिन भानुदास के सत्य बोलने को लोगों ने समझा और उनकी जीत हुई। ऐसे में दूसरे व्यापारी भानुदास से जलने लगे।
एक दिन एक हाट के दौरान वे धर्मशाला में ठहरे थे वहां उनके साथ अन्य व्यापारी भी ठहरे थे। रात को भानुदास को कीर्तन की आवाज सुनाई दी, तो उन्होंने अन्य व्यापारियों से कहा आप भी कीर्तन सुनने चले। सभी ने मना कर दिया। भानुदास के जाने के बाद व्यापारियों ने उनकी कपड़े की गठरी फेंक दी और बहार खड़ा उनके घोड़े को खोलकर चाबुक चलाकर दूर भगा दिया। उधर वे कीर्तन में मगन थे इधर धर्मशाला में रात को डकैती पड़ गई। डकैत व्यापारियों को लूटने के बाद घोड़े भी ले गए। भानुदास रात को दो बजे कीर्तन से वापस आए तो पता चला कि व्यापारियों के पैसे तो गई साथ ही उनकी पिटाई भी हुई। तब भानुदास ने अपना घोड़ा ढूंढा तो एक युवक ने बताया कि वहां है आपका घोड़ा। युवक ने यह भी बताया कि आपकी कपड़े की गठरी व्यापारियों ने यहां फेंकी थी वे भी ले ले। भानुदास ने पूछा तुम कौन हो। युवक ने कहा जो जैसा मानता है वैसा रहता हूं। भानु ने फिर पूछा तुम हां रहते हो, तो उन्होंने कहा सर्वत्र रहता हूं। तुम्हारा नाम कया तो युवक ने कहा कोई भी रख दें। मा बाप कौन तो कहा कि कोई भी बन जाओ। तुम क्या करते हो, भक्तों की सेवा करता हूं। तब भानुदास ने कहा तुम्हारी बात समझ में नहीं आती तो उसने कहा मैं सारी समझ के पार हूं।...और ऐसा कहते हूं युवक गायब हो गया।... बस इस घटना के बाद भानुदास का जीवन बदल गया।
15.संत बहिणाबाई
संत तुकाराम की समकालीन संत बहिणाबाई का
स्थान भी मुक्ताबाई, कान्होपात्रा, जनाबाई,
वेणाबाई, आक्काबाई, मीराबाई
के समान है। बहिणाबाई का जन्म वैजपुर तालुका के देवगांव में सन् 1551 में हुआ। पति का नाम था रत्नाकर। बहिणाबाई जयराम के सत्संग सुन सुन कर
भक्त बन गई। वह अपने बछड़े को कथा में ले जाती थी, जिसके
चलते उसकी निंदा होने लगती थी। बहिणाबाई के पति को लोगों ने भड़काया तब पति ने
उसकी कुटाई कर दी। कुटाई से बेहोश हो गई। तीन दिन तक बेहोश रही तब तक बछड़े ने भी
अन्न जल ग्रहण नहीं किया। जब बहिणाबाई उठी तो उसने बछड़े को गोद में लिया और बछड़े
ने गोद में ही प्राण त्याग दिया। तुकाराम को यह पता चला तो उन्होंने बहिणाबाई को
दर्शन दिया और उनको अपना शिष्य बनाया। संत बहिणाबाई वारकरी संप्रदाय के भक्तों से
सबसे लोकप्रिय थीं।
............क्रमश:...............
(तथ्य कथन गूगल,
जैन साइट्स इत्यादि
से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है।
कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार,
निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि
कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10
वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल
बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
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