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Wednesday, July 25, 2018

भाग – 20 ईसाइयत का सत्य : धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी



भाग – 20 ईसाइयत का सत्य :
धर्म ग्रंथ और संतो की वैज्ञानिक कसौटी
संकलनकर्ता : सनातन पुत्र देवीदास विपुल “खोजी”

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

ईसा मसीह (यीशु) एक यहूदी थे जो इस्राइल इजराइल के गाँव बेत्लहम में जन्मे थे (४ ईसापूर्व)। ईसाई मानते हैं कि उनकी माता मारिया (मरियम) कुवांरी (वर्जिन) थीं। ईसा उनके गर्भ में परमपिता परमेश्वर की कृपा से चमत्कारिक रूप से आये थे। ईसा के बारे में यहूदी नबियों ने भविष्यवाणी की थी कि एक मसीहा (अर्थात "राजा" या तारणहार) जन्म लेगा। 

ईसाई धर्मग्रन्थ बाइबिल में दो भाग हैं। पहला भाग (पुराना नियम) और यहूदियों का धर्मग्रन्थ एक ही हैं। दूसरा भाग (नया नियम) ईसा के उपदेश, चमत्कार और उनके शिष्यों के काम से रिश्ता रखता है।
ईसाइयों के मुख्य सम्प्रदाय हैं : 

रोमन कैथोलिक रोम के पोप को सर्वोच्च धर्मगुरु मानते हैं।

 
प्रोटेस्टेंट किसी पोप को नहीं मानते है और इसके बजाय पवित्र बाइबल में पूरी श्रद्धा रखते हैं। मध्य युग में जनता के बाइबिल पढने के लिए नकल करना मना था। जिससे लोगो को ख्रिस्ती धर्म का उचित ज्ञान नहीं था। कुछ बिशप और पाद्रियोने इसे सच्चे ख्रिस्ती धर्म के अनुसार नहीं समझा और बाइबिल का अपनी अपनी भाषाओ में भाषान्तर करने लगे, जिसे पोप का विरोध था। उन बिशप और पाद्रियोने पोप से अलग होके एक नया सम्प्रदाय स्थापीत किया जिसे प्रोटेस्टेंट केह्ते है (जिन्होने पोप् का विरोध प्रोटेस्ट किया)।

 
कोपिमिईस्म विद्या नकल करने का अधिकार या लाइसेंस को विश्वास नहीं करता। 

इसकी शुरुआत हुई है बाइबल के एक वाक्यांश से:
सो तुम लोग वैसे ही मेरा अनुसरण करो जैसे मैं मसीह का अनुसरण करता हूँ।
—1 कुरिन्थियों 11:1

ऑर्थोडॉक्स रोम के पोप को नहीं मानते, पर अपने-अपने राष्ट्रीय धर्मसंघ के पैट्रिआर्क को मानते
चर्च (Church) शब्द यूनानी विशेषण का अपभ्रंश है जिसका शाब्दिक अर्थ है "प्रभु का"। वास्तव में चर्च (और गिरजा भी) दो अर्थों में प्रयुक्त है; एक तो प्रभु का भवन अर्थात् गिरजाघर तथा दूसरा, ईसाइयों का संगठन। चर्च के अतिरिक्त 'कलीसिया' शब्द भी चलता है। यह यूनानी बाइबिल के 'एक्लेसिया' शब्द का विकृत रूप है; बाइबिल में इसका अर्थ है - किसी स्थानविशेष अथवा विश्व भर के ईसाइयों का समुदाय। बाद में यह शब्द गिरजाघर के लिये भी प्रयुक्त होने लगा। यहाँ पर संस्था के अर्थ में चर्च पर विचार किया जायगा। 

सभी ईसाई प्राय: इस बात से सहमत हैं कि ईसा ने केवल एक ही चर्च की स्थापना की थी, किंतु अनेक कारणों से ईसाइयों की एकता अक्षुण्ण नहीं रह सकी। फलस्वरूप आजकल उनके बहुत से चर्च अथवा संगठन वर्तमान हैं जो एक दूसरे से पूर्णतया स्वतंत्र हैं। उनका वर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है :
1. रोमन काथलिक चर्च - इसका संगठन सबसे सुदृढ़ है एवं विश्व भर के अधिकांश ईसाई इसके सदस्य हैं।
2. प्राच्य चर्च - पूर्व यूरोप के प्राय: सभी ईसाई जो शताब्दियों पहले रोम से अलग हो गए हैं, अधिकांश आर्थोदोक्स (Orthodox) कहलाते हैं।
3. प्रोटेस्टैंट धर्म - यह 16वीं शताब्दी में प्रारंभ हुआ था।
4. ऐंग्लिकन समुदाय - यद्यपि प्रारंभ ही से ऐंग्लिकन चर्च पर प्रोटेस्टैंट धर्म का प्रभाव पड़ा, फिर भी अधिकांश ऐंग्लिकन ईसाई अपने को प्रोटेस्टैंट नहीं मानते।


ईसाई धर्म की प्रारंभिक शताब्दियों में चर्च की परिभाषा तथा उसके स्वरूप के विषय में अपेक्षाकृत कम चिंतन किया गया है। बाइबिल में ईसा की जीवनी तथा शिक्षा का जो वर्णन है उससे स्पष्ट है कि प्रारंभ ही से ईसाइयों का विश्वास था कि ईस ने समस्त मानव जाति के लिये मुक्ति के साधनों को सुलभ कर दिया और इस उद्देश्य से पृथ्वी पर "ईश्वर का राज्य" स्थापित किया। "ईश्वर का राज्य" उन लोगों का समुदाय है जो ईसा के ईश्वरत्व पर विश्वास कर उनकी शिक्षा ग्रहण करते हैं। बाइबिल में उस समुदाय को "ईश्वर को प्रजा" कहा गया है। उसके संगठन तथा शासन के लिये ईसा ने 12 शिष्यों को चुनकर उन्हें विशेष शिक्षण तथा अधिकार दिए और आदेश दिया कि वे दुनिया भर में जाकर उनकी शिक्षा का प्रचार करें तथा विश्वास करनेवालों को बपतिस्मा संस्कार (दीक्षा स्नान) करके चर्च में सम्मिलित कर लें। इस प्रकार बाइबिल में ईसा के अनुयायियों के समुदाय को चर्च (कलीसिया), "ईश्वर का राज्य" तथा "ईश्वर की प्रजा" कहा गया है। इन पदों से ऐसा प्रतीत हो सकता है कि प्रारंभ में चर्च के वास्तविक रूप को बाहरी संगठन तक सीमित माना गया है, किंतु ऐसी बात नहीं है। ईसा ने अपनी शिक्षा में इसपर बल दिया है कि उनमें तथा उनके सच्चे अनुयायियों में अदृश्य एवं रहस्यात्मक एकता है। उन्होंने अपने शिष्यों से कहा- "मैं द्राक्षा लता हूँ और तुम डालियाँ हो।" इससे स्पष्ट हो जाता है कि चर्च का सबसे महत्वपूर्ण तत्व आध्यात्मिक ही है। संत पौलुस ने चर्च के इस आध्यात्मिक तथा रहस्यात्मक पक्ष पर बहुत बल दिया है। ईसा तथा उनके सच्चे अनुयायियों का आध्यात्मिक संबंध और ईसा के सभी अनुयायियों की रहस्यमय एकता को स्पष्ट करने के लिये उन्होंने अपने पत्रों में बारंबार चर्च को "ईसा का आध्यात्मिक शरीर" कहा है (दे. बाइबिल का उत्तरार्ध)। अत: प्रारंभ ही से चर्च के बाहरी संगठन तथा उसके आध्यात्मिक स्वरूप, दोनां का ध्यान रखा गया है।


 
प्रोटेस्टैंट धर्म के कारण चर्च में फूट पड़ी तो धर्माचार्य चर्च के स्वरूप पर अधिक चिंतन करने लगे। प्रोटेस्टैंट विद्वान् चर्च के अदृश्य स्वरूप पर और प्रतिक्रियास्वरूप काथलिक धर्मपंडित चर्च के बाहरी संगठन, उसकी दृश्य सदस्यता आदि पर अधिक बल देने लगे। इस विवाद में उन्होंने चर्च के चार बाहरी लक्षणों का अपेक्षाकृत अधिक महत्व दिया है। ईसा का सच्चा चर्च (1) काथलिक है (अर्थात् विश्वजनीन, यह युगयुगांतर तक सब मनुष्यों के लिये खुला रहता है); (2) एक है, प्रेम के बंधन में एक होकर उसके सभी सदस्य एक से धर्मसिद्धांतों पर विश्वास करते हैं। एक संस्कार, एक सी पूजनपद्धति और एक ही परमाधिकारी का शासन स्वीकार करते हैं; (3) पवित्र है (वह सबों के लिये मुक्ति के साधन सुलभ कर देता है और उसके बहुत से सदस्य पवित्र जीवन बिताते हैं); (4) एपोज़ेल्स है (वह ईसा के मुख्य शिष्य एपोज़ल्स के समय से चला आ रहा है, उस प्रारंभिक चर्च से उसका अटूट संबंध है और उस संबंध पर उसका अधिकार आधारित है।)


 
चर्च के दृश्य संगठन में कुछ ऐसे लोग भी सम्मिलित हो सकते हैं जो पाखंडी हैं, जिनका ईसा के साथ कोई आध्यात्मिक संबंध नहीं है, जो ईसा के आध्यात्मिक शरीर के अंग नहीं हैं। ईश्वर ही जानता है कि कौन चर्च का सच्चा सदस्य है और इस कारण यह माना जा सकता है कि वास्तविक चर्च अदृश्य ही है। फिर भी उस अदृश्य वास्तविक चर्च की पूर्ण सदस्यता की अनिवार्य शर्त बाहरी संस्कार ही हैं, अत: अदृश्य चर्च से अलग नहीं किया जा सकता है। आजकल प्राय: सभी प्रोटेटैंस्ट भी इस बात को मानते हैं। मुक्ति के लिये चर्च की पूर्ण सदस्यता अपेक्षित होते हुए भी अनिवार्य नहीं है। ईश्वर सभी लोगों की मुक्ति चाहता है और सब मनुष्यों के अंत:करण में सत्प्रेरणा उत्पन्न करता है। जो ईश्वर की प्रेरणा पर चलते हैं वे अनजाने ही अदृश्य रूप से चर्च के अपूर्ण सदस्य बन जाते हैं और ईसा द्वारा प्रदत्त मुक्ति प्राप्त कर सकते हैं।


 
द्वितीय महायुद्ध  के पश्चात् ईसाई संसार में चर्च की एकता के आंदोलन को अधिक महत्व दिया जाने लगा। फलस्वरूप खंडन-मंडन को छोड़कर बाइबिल में विद्यमान तत्वों के आधार पर चर्च के वास्तविक रूप को निर्धारित करने के प्रयास में इसपर अपेक्षाकृत अधिक बल दिया जाने लगा कि चर्च ईसा का आध्यात्मिक शरीर है। ईसा उसका शीर्ष है और सच्चे ईसाई उस शरीर के अंग हैं।


 
रोमन साम्राज्य में प्रसार (30 - 313 ई.)

 1. ईसा की मृत्यु के बाद उनके शिष्य यहूदियों तथा गैर यहूदियों में ईसाई धर्म का प्रचार करने लगे। प्रथम मिशनरियों में से सबसे सफल थे संत पौलुस; उनकी यात्राओं का वर्णन तथा उनके पत्र बाईबिल के उत्तरार्ध में सुरक्षित हैं। उस समय अंतिओक (Antioch) रोमन साम्राज्य का तीसरा शहर था, ईस का उत्तराधिकारी संत पेत्रुस यहीं चले आए और उस केंद्र से संत पौलुस ने एशिया माइनर, मासेदोनिया तथा यूनान में ईसाई धर्म का प्रचार किया। बाद में राजधानी रोम ईसाई धर्म का प्रधान केंद्र बना। वहीं संत पेत्रुस (67 ई.) और संत पौलुस शहीद हो गए। बाइबिल का उत्तरार्ध प्रथम शताब्दी ई. के उत्तरार्ध में लिखा गया।

 
सन् 100 ई. तक भूमध्यसागर के सभी निकटवर्ती देशों और नगरों में, विशेषकर एशिया माइनर तथा उत्तर अफ्रीका में ईसाई समुदाय विद्यमान थे। तीसरी शताब्दी के अंत तक ईसाई धर्म विशाल रोमन साम्राज्य के सभी नगरों में फैल गया था; इसी समय फारस तथा दक्षिण रूस में भी बहुत से लोग ईसाई बन गए। इस सफलता के कई कारण हैं। एक तो उस समय लोगों में प्रबल धर्मजिज्ञासा थी, दूसरे ईसाई धर्म प्रत्येक मानव का महत्व सिखलाता था, चाहे वह दास अथवा स्त्री ही क्यों न हो। इसके अतिरिक्त ईसाइयों में जो भातृभाव था उससे लोग प्रभावित हुए बिना नहीं रह सके।

 
2. प्रथम तीन शताब्दियों के इतिहास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि समय पर शासकों द्वारा ईसाइयों पर अत्याचार किया गया और वे बड़ी संख्या में अपना धर्म छोड़ देने की अपेक्षा सानंद यंत्रणा एवं मृत्यु स्वीकार करते थे। यद्यपि रोमन शासक प्रारंभ ही से उस नए धर्म को संदेह की दृष्टि से देख्ते थे और उसके अनुयायियों को सताते थे, फिर भी केवल तीसरी शताब्दी में ईसई धर्म को पूर्ण रूप से मिटाने का ध्यापक प्रयत्न किया गया था, विशेष रूप से देसियस, डाइयोक्लीशन (Diocletian), मस्किमिनियन और गालेरियस के शासनकाल में (तीसरी के उत्तरार्ध तथा चतुर्थ शताब्दी के प्रारंभ में)।

 
3. संगठन इस प्रकार था : हर शहर में स्थानीय गिरजे का परमाधिकारी धर्माध्यक्ष (बिशप) कहलाता था, उनके शासन में पुरोहित (याजक) और उपपुरोहित (उपयाजक या डीकन) धर्म कार्यो में लगे रहते थे। रोम, सिकंदरिय, अंतिओक (और बाद में कुछ और महत्वपूर्ण शहरों) में बिशपों को पेत्रिआर्क (Patriarch) की उपाधि दी जाती थी किंतु सर्वत्र रोम के बिशप का विशेष अधिकार माना जाता था।


 
4. प्रारंभिक ईसाई साहित्य प्रधानतया यूनानी भाषा में लिखा गया है। ओरिजेन और संत इरेनेयस विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। इरेनेयस (130-202 ई.) ने तत्कालीन भ्रामक धारणाओं का विरोध करते हुए रोमन चर्च की शिक्षा को सच्ची ईसाई शिक्षा की कसौटी घोषित किया। उन्होंने अधिकतर ईसाई गूढ़ज्ञानवाद (Gnosticism) का खंडन किया। गूढ़ज्ञानवाद ईसा के पूर्व ही से चला आ रहा था किंतु बाद में इसमें ईसाई तत्वें का समावेश किया गया था। उस वाद का मूलभूत सिद्धांत है कि समस्त भौतिक जगत् और मानवशरीर भी दूषित है। किसी न किसी रूप में यह सिद्धांत शताब्दियों तक जीवित रहा।


 
उत्तरी अफ्रीका के निवासी तेरतुलियन (Tertullian 160-220 ई.) लैटिन भाषा के प्रथम विख्यात ईसाई लेखक हैं। दूसरी शताब्दी के अंत तक एदेस्सा के आसपास सिरियक भाषा में ईसाई साहित्य की रचना प्रारंभ हो गई थी।


 
5. डाइयोक्लीशन के पदत्याग के बाद उत्तराधिकारी के लिये जो गृहयुद्ध हुआ उसमें कोंस्तांतीन विजयी हुआ और उसने 313 ई. में मिलान की राजाज्ञा (Edict of Milan) निकालकर सभी धर्मो को स्वतंत्रता प्रदान कर दी। उस समय आरियस के मत के कारण ईसाई संसार में अशांति फैलने लगी थी। उसे दूर करने के उद्देश्य से कोंस्तांतीन ने कॉथलिक चर्च की प्रथम विश्वसभा का आयोजन किया; नीकिया (315 ई.) की इस सभा ने ऑरियस के मत के विरोध में घोषित किया कि ईसा वास्तविक अर्थ में ईश्वर हैं। कोंस्तांतीन के उत्तराधिकारियों ने आरियस के अनुयायियों का पक्ष लिया, फलस्वरूप लगभग 50 वर्ष तक पूर्वी काथलिक चर्च में इतनी अव्यवस्था रही कि वहाँ का चर्च उस कुप्रभाव से कभी मुक्त नहीं हो पाया। उस शताब्दी के अंत में प्रथम वास्तविक ईसाई सम्राट् थेओदोसियस (Theodosius) ने ईसाई धर्म को राजधर्म के रूप में घोषित किया; उन्होंने ऑरियस के अनुयायियों का नियंत्रण भी किया और उस उद्देश्य से कुंस्तुंतुनिआ (381 ई.) में काथलिक चर्च की द्वितीय विश्वसभा का आयोजन किया।


 
पाँचवीं शताब्दी में और दो बार विश्वसभा बुलाई गई। कुंस्तुंतुनिआ का बिशप नेस्तोरियस एक नए सिद्धांत का प्रचार करने लगा जिसके अनुसार ईसा में ईश्वरीय और मानवीय दो व्यक्ति विद्यमान थे। एफेसस (431 ई.) की विश्वसभा ने नेस्तोरियस को पदच्युत किया और उसके अनुयायियों को चर्च से बहिष्कृत घोषित किया, इसके फलस्वरूप फारस का चर्च अलग हो गया। बाद में युतिकेस ने मोनोफिजितिज्म (एकस्वभाववाद) का प्रवर्तन किया जिसके अनुसार ईसा में एक ही व्यक्ति और एक ही स्वभाव है। इस मत के विरोध में कालसेदोन (451 ई.) की विश्वसभा ने ईसा में ईश्वरत्व तथा मनुष्यत्व दोनों को वास्तविक माना है। सीरिया, आरमीनिया और मिस्त्र के बिशपों ने कालसेदोन के निर्णय को अस्वीकार किया और उन देशों के ईसाई समुदाय भी काथलिक चर्च से अलग हो गए (आजकल भी एथियोपिया के ईसाई और दक्षिण भारत के जैकोबाइट मोनोफीसाइट हैं)। बाद में इस्लाम ने सीरिया और मिस्त्र को साम्राज्य से छीन लिया और वहाँ के अधिकांश लोग उस नए धर्म से सम्मिलित हुए।



 
6. इस युग के प्रारंभ में ईसाई सहित्य का अपूर्व विकास हुआ। यूनानी भाषा के लेखकों में अथानासियस (295-273 ई.), संत बासिल (321-379 ई.) और उनके भाई निस्सा के संत ग्रेगोरी (335-395 ई.), नाजिअंसस के संत ग्रेगोरी (330-390), कुंस्तुंतुनिया के बिशप संत योहन क्रिसोस्तेमस (347-404) और सिकंदरिया के संत सीरिलस (380-444) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


 
6. इस युग के प्रारंभ में ईसाई सहित्य का अपूर्व विकास हुआ। यूनानी भाषा के लेखकों में अथानासियस (295-273 ई.), संत बासिल (321-379 ई.) और उनके भाई निस्सा के संत ग्रेगोरी (335-395 ई.), नाजिअंसस के संत ग्रेगोरी (330-390), कुंस्तुंतुनिया के बिशप संत योहन क्रिसोस्तेमस (347-404) और सिकंदरिया के संत सीरिलस (380-444) विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।


 
पश्चिम में लैटिन भाषा के मुख्य ईसाई लेखक इस प्रकार हैं : मिलान के बिशप संत अंब्रोसियस (340-399 ई.), संत अगस्तिन (354-430 ई.) और सत जेरोम (347-420)। संत जेरोम ने समस्त बाइबिल का लैटिन भाषा में अनुवाद किया और उनका अनुवाद आज तक रोमन चर्च की पूजापद्धति में प्रयुक्त है।


 
7. ईसाई धर्म के प्रारंभ से ही कुछ लोग आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लेते थे, वे बहुधा निर्जन स्थानों में रहकर एकांतवासी होते थे किंतु धीरे-धीरे उनके पड़ोस में उनके शिष्य भी उनके निर्देश के अनुसार साधना करने लगे। इसका परिणाम यह हुआ कि एक ही स्थान में रहनेवाले साधकों ने एक ही अधिकारी का शासन स्वीकार कर लिया। इस प्रकार के प्रथम मठ की स्थापना लगभग 320 ई. में संत पाकोमियस द्वारा मिस्त्र में हुई थी। इसके अनुकरण पर फिलिस्तीन, सीरिया और एशिया माइनर में बड़ी संख्या में पुरुषों और स्त्रियों के मठों की स्थापना हुई थी और पाँचवीं शताब्दी में सिकंदरिया, आंतिओक, कुंस्तुंतनिया आदि शहरों में भी ऐसे मठ स्थापित हो चुके थे। उनमें प्राय: संत बासिल की नियमावली स्वीकृत थी।


 
पश्चिम में संत मारतिन ने पहले पहल 360 ई. में फ्रांस के दक्षिण में एक मठ स्थापित किया गया और उसी केंद्र से फ्रांस के सभी देहातों में ईसाई धर्म का प्रचार हुआ क्योंकि उस समय तक केवल इटली तथा उत्तर अफ्रीका का देहात ईसाई बन गया था। संत पैत्रिक (392-461 ई.) पहले फ्रांस में मठवासी थे, उन्होंने अपने शिष्यों के साथ आयरलैंड को ईसाई धर्म में मिला लिया और बाद में वहाँ के संन्यासियों ने बड़ी संख्या में पश्चिम यूरोप के देशों (विशेषकर दक्षिण जर्मनी, स्विट्जरलैंड, दक्षिण बेलजियम) में ईसाई धर्म का प्रचार किया। संत बेनेदिक्त (480-547) ने भी एक धर्मसंघ की स्थापना की और मठवासी जीवन के लिये एक नियमावली लिखी जिसे यूरोप के प्राय: सभी मठों ने स्वीकार कर लिया। बेनेदिक्ताइन संघ के संन्यासी ईसा की छठी शताब्दी में इंग्लैंड भेजे गए (जहाँ बर्बर जातियों के आगमन से कम ईसाई रह गए थे)। उन्होंने वहाँ की जातियों को ईसाई धर्म में मिला लिया और अपने संघ के मठ भी स्थापित किए। संत बीड (672-735 ई.) एक अंग्रेज बेनेदिक्ताइन थे जिन्होंने इंग्लैंड का सर्वप्रथम इतिहास लिखा। एक समकालीन अंग्रेज बेनेदिक्ताइन संत बोनिफास (675-755) ने पहले हालैंड में धर्मप्रचार किया और बाद में जर्मनी के अधिकांश भाग को ईसाई धर्म में मिलाया। पश्चिम में ईसाई धर्म के इस प्रचार का श्रेय मुख्य रूप से मठवासियों को ही है।


 
8. पाँचवीं शताब्दी से पश्चिम रोमन साम्राज्य तथा उत्तर अफ्रीका में बर्बर जातियों का आगमन प्रारंभ हुआ था ओर उस शताब्दी के अंत में इटली के बाहर सर्वत्र उन बर्बर राजाओं का शासन स्थापित हो चुका था। उनमें से एक भी काथलिक नहीं था। 496 ई. में फ्रैंक (Frank) जाति के राजा क्लोविस ने ईसाई धर्म स्वीकार किया। छठी शताब्दी के अंत में काथलिक फ्रैंक जाति ने समस्त वर्तमान फ्रांस देश पर अधिकार कर लिया। पुर्तगाल की सुएवी (Suevi) जाति भी छठी शताब्दी के मध्य काथलिक धर्म में सम्मिलित हो गई और स्पेन के विजीगोथ (Visigoth) 589 ई. में ऑरियस का मत त्याग कर काथलिक बन गए। अगली शताब्दी में स्पेन के सबसे महत्वपूर्ण् ऐतिहासिक व्यक्ति संत इसीदोर (Isidore) हैं जो 36 वर्ष तक (600-636 ई.) सेविल के बिशप थे।


 
9. संत ग्रेगोरी 590 ई. में रोम के बिशप (पोप) चुने गए। उनके शासनकाल में इटली पर लोंबार्द जाति का आक्रमण हुआ। सम्राट् उनका विरोध करने में असमर्थ था और संत ग्रेगारी ने लोंबार्द नेताओं से भेंट कर रोम की रक्षा की। वास्तव में वह उस समय रोम के वास्तविक शासक थे। उन्हीं को कॉथलिक चर्च के राज्य (पेपल स्टेट्स) का संस्थापक माना जा सकता है। संत ग्रेगोरी के जीवनकाल में हजरत मुहम्मद का जन्म हुआ था; उनके अनुयायी 695 ई. में उत्तर अफ्रीका तथा 711 ई. में स्पेन पर अधिकार कर लिया। यद्यपि पूर्व में कुंस्तुंतुनिया का अवरोध (717 ई.) असफल हुआ तथा पश्चिम में फ्रैक जाति के चार्ल्स मारतेल ने मुसलमान सेनाओं को फ्रांस के दक्षिण में (Poitiers; 732 ई.) हरा दिया था, तथापि उस समय से लेकर 900 वर्ष तक ईसाई तथा मुसलमान सेनाओं का संघर्ष चलता रहा।


 
चार्ल्स मारतेल का पुत्र पेपीन फ्रैंक जाति का राजा बन गया। कुछ समय बाद इटली पर लोंबार्द जाति का नया आक्रमण हुआ। सम्राट् को असमर्थ देखकर पोप ने पेपीन की सहायता माँगी और उसने अपनी फ्रैंक सेना से लोंबार्द जाति को हराकर इटली का मध्य भाग पोप के अधिकार में दे दिया। उस दिन से काथोलिक चर्च का राज्य विधिवत् प्रारंभ हुआ और 1870 ई. तक बना रहा।


 
10. पेपीन के पुत्र चार्लमेन (Charlemagne) ने अपने दीर्घ राज्यकाल (768-814 ई.) में यूरोप की राजनीतिक, धार्मिक तथा सांस्कृतिक एकता के लिये सफल प्रयास किया। उन्होंने स्पेन में इस्लाम का विरोध किया तथा उत्तर में सैक्सन (Saxon) जातियों को हराकर उनको ईसाई बनने के लिये बाध्य किया। उनके जीवनकाल में सर्वत्र शिक्षा का प्रचार तथा धार्मिक उन्नति हुई। किंतु उनकी मृत्यु के बाद उनके साम्राज्य का विघटन हुआ और समस्त यूरोप में अशांति फैल गई। इसका कुप्रभाव चर्च के संगठन पर भी पड़ा। उस युग को पश्चिम के अध्यात्मिक पतन का युग कहा गया है। साधारण पुरोहितों में अनुशासनहीनता बढ़ गई और उसमें से बहुतों ने विवाह किया यद्यपि पाँचवीं शताब्दी से पुरोहितों के अविवाहित रहने का नियम चला आ रहा था। बिशप तथा मठाध्यक्ष सामंत भी थे और उनके चुनाव में बहुधा घूसखोरी का हाथ रहा करता था। पोप अब राजा भी थे तथा पेपल स्टेट्स के शासन के लिये बहुत से पुरोहित राजनीतिक मात्र ही रह गए थे। पोपों के चुनाव में रोमन सामंतों की प्रतियोगिता भी होने लगी तथा राजनीतिक प्रतिद्वंद्वियों द्वारा बहुत से पोपों की हत्या भी कर दी गई थी। इस कारण 886 ई. से 1043 ई. तक 37 पोप हो गए।
............क्रमश:...............

(तथ्य कथन इंडिया साइट्स, गूगल, बौद्ध, ईसाई  साइट्स, वेब दुनिया इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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