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Monday, August 19, 2019

राम नाम की प्यास

 राम नाम की प्यास


विपुल लखनवी। नवी मुंबई। 

9969680093

  कुछ समय न तेरे पास।

तुझे न राम नाम की  प्यास।।   

बहुत पछतायेगा।

अंत जब आयेगा॥ 


तू कितना मचा ले शोर।

हुई न तेरी अभी भोर।। 

बहुत पछतायेगा।।

अंत जब आयेगा॥ 


तू क्या है यह न जाने।  

न अपने को ही पहिचाने॥

हाथ क्या पायेगा।

अंत जब आयेगा॥ 


तुझे न मॉनव रूप ज्ञान।

मिथ्य माया का अभिमान।।

व्यर्थ रह जायेगा॥

अंत जब आयेगा॥ 


कर डाली  इकठ्ठा भीड़। 

सोंच ये कभी न होंगे क्षीण।।

कुछ न कर पायेगा।।

अंत जब आयेगा॥ 


बस पकड़ राम नाम डोर।

मिले तुझे वहीं चितचोर।।

ज्ञान दे जायेगा॥

अंत जब आयेगा॥ 


गई देख जवानी बीत। 

बुढापा न सकते हो जीत।।

मौत संग जायेगा।।

अंत जब आयेगा॥ 


अब तो सम्भल तू आज। 

प्रभु को करे समर्पित काज।।

सत्य सुख पायेगा।।

अंत जब आयेगा॥ 


है दास विपुल यह  बात।

सोंच न गलत तुझे आघात।।

चला यूं जायेगा।।

अंत जब आयेगा॥ 


कर माँ जगदम्बिके ध्यान। 

गुरूवर धरे यदि सम्मान।।

वो ही तर जायेगा॥

अंत जब आयेगा॥ 


कर शिवओम नित्यबोध। 

जस हो बालक एक अबोध।।

मारग  बतलायेगा॥

अंत जब आयेगा॥ 


लिखे दास विपुल सम्वाद। 

पकड ले चरण गुरू के आज॥

समझ कुछ पायेगा।।

अंत जब आयेगा॥  

पृष्ठ पर जाने हेतु लिंक दबायें: मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य  

 

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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ़ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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Friday, August 16, 2019

श्री दुर्गा नाम महात्म्य

श्री दुर्गा नाम महात्म्य

 

 ( ब्रह्मलीन परमपूज्य राष्ट्रगुरू श्री अनंतश्री स्वामी जी महराज पीताम्बरापीठ दतिया, मप्र के लेख संग्रह से साभार )

 

मनुष्य शक्तिशाली होने की महत्वाकांक्षा रखता है’ इसी सिद्धांत के अनुसार अपनी-अपनी अभिरुचि को लक्ष्य करके सभी प्रयत्न कर रहे हैं। जगत के जितने भी विचार प्रधान प्राणी  हैं, उनमें यह अभिकांक्षा स्वाभाविक रूप से दृष्टिगोचर होती है। इसी के अनुसार इस विषय के तत्वज्ञ, ऋषि, मुनि, आचार्य, गुरु आदि महापुरुषों ने भिन्न-भिन्न पथ निर्दिष्ट करके जगत को उक्त आकांक्षा की सिद्धि के लिए अग्रसर किया है। चाहे वे सारे मार्ग ‘शाक्त’ नाम से अभिहित न हो तथा उस मार्ग के अनुयायी ऐसा करने में आनाकानी करें तथापि तत्वदृष्टि से वे सभी शाक्त ही हैं, क्योंकि वे अपनी अभिलषित वस्तु ‘शक्ति’ को चाहते हैं। ‘महत्ता’ पदार्थ और शक्ति दोनों अभिनाभाव सिद्ध हैं। अर्थात इन दोनों में अटूट एवं पूर्व संबंध हैं। यद्यपि जगत के सारे मार्ग तथा मनुष्य शाक्त ही हैं तथापि हमारे इस भारतवर्ष में यह शब्द एक विशिष्ट साधना पद्धित का वाचक है और उस पद्धति के अनुसार चलने वाले साधक को ही शाक्त कहते हैं। यह सनातन मार्ग अनादि काल से हमारे देश में प्रचिलित है। गुप्त प्रकट रूप में सभी जगह इसका अस्तित्व आज भी विद्यमान है। समय के हेरफेर से इसके मूल स्वरूप में अवश्य ही विकृति हो गई है तथापि इसकी सत्ता में काई शंका नहीं हो सकती। सारे जगत के योग क्षेम की अधिष्ठात्री जगन्माता ही एक तत्व स्वरूप है। उसी की उपासना से जीव अपनी त्रुटियों को हटाकर पूर्णता लाभ कर सकता है, ऐसा सिद्धांत है। उसके अनेक नाम रूप निर्दिष्ट हैं तथापि दुर्गा नाम सर्व प्रधान और भक्तों का अति प्रिय लगता है।


    नामार्थ: दकार, उकार, रेफ, गकार और आकार इन वर्णों के योग से मंत्र स्वरूप इस ‘दुर्गा’ नाम की निष्पति होती है। इसका अर्थ इस प्रकार है-

दैत्यनाशार्थवचनो दकार: परिकीर्तित:।

उकारो विघ्ननाशस्य वाचको वेदसम्मत:।।

रेफो रोगघ्नवचनो गश्च पापध्न वाचक:। 

भय शत्रुघ्नवचनश्चाकार: परिकीर्तित।।

अर्थात-दैत्यों के नाश के अर्थ को दकार बतलाता है, उकार विघ्न का नाशक वेद सम्मत है। रकार रोग का नाशक, गकार पाप का नाशक और अकार भय का तथा शत्रु का विनाशक है। इस प्रकार ‘दुर्गा’ नाम अपने अर्थ का यथार्थ बोधक है। इसी के अनुसार देव्युपनिषद में कहा गया है-

तामग्निवर्णा तपसा ज्वलंतीं, वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् ।

       दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहे सुरान्नाशयित्र्यै ते नम:।।

अर्थ-अग्नितत्व के समानवर्ण (रंग) वाली अर्थात् लाल वर्णवाली तपसा अपने ज्ञानमय रूप से प्रदीप्त, कर्म फलार्थियों द्वारा वैरोचिनी अग्नितत्व की शक्ति, विशेष रूप से सेवनीय अथवा विरोचन द्वारा उपास्य श्री छिन्नमस्ता स्वरूप वाली श्री दुर्गा देवी की शरण को हम प्राप्त करें, जो असुरों का नाश करती है, उसे हमारा नमस्कार हो। अथवा ‘दु र गा्’ ये तीनों वर्ण अग्नि वर्ण के नाम से प्रसिद्ध हैं, दकार को अत्रिनेत्रज या अत्रीश कहते हैं। अत: बीजाभिधान के मत से यह वर्ण आग्नेय है। रेफ अग्निबीज प्रसिद्ध है। गकार की संज्ञा ‘पज्चान्तक’ है। महा प्रलयाग्नि का बोधक होने से इसकी (गकार) यह संज्ञा है। इस प्रकार (अग्निवर्णा) यह ‘दुर्गा’ नाम उक्त मन्त्र से उद्धृत होता है। नाम तथा देवता के अभेद रूप से दोनों ही पक्षों में यह मंत्र अपना स्वरूप बता रहा है। सर्वतोभावेन देवताओं के शरणभाव प्राप्त होने पर दुर्ग नामक असुर को मारने से श्री दुर्गा का नाम प्रसिद्ध हुआ है। यह सप्शती में भी कहा गया है-

तत्रैव च वधिष्यामि दुर्गमाख्यां महासुरम्।

दुर्गादेवीति विख्यातं तन्मे नाम भविष्यति।।

अविमुक्तक काशी क्षेत्र में जीवों के मरने पर भगवान शंकर इसी पावन नाम का उपदेश देकर मुक्ति प्रदान करते हैं, यह प्रसंग महाभागवत में नारद-शंकर संवाद में कहा गया है। इन उक्त प्रमाणों से दुर्गा नाम की महत्ता सार्थक रूप से अवगत होती है। इन्हीं अर्थों को लक्ष्य करके इस नाम की महिमा रुदयामल तंत्र से भगवान शिव ने बताई है, जिसमें इसके जपने की संख्या एवं महत्व बताया गया है-

दुर्गा नाम जपो यस्य किं तस्य कथयामि ते।

अहं पज्चानन: कान्ते तज्जपादेव सुव्रते।। 1।।

हे देवि! इस दुर्गा नाम की महिमा मैं क्या कहूं। इसी के जप की वजह से मैं पज्चानन कहा जाता हूं।

धनी पुत्री तथा ज्ञानी चिरंजीवी भवेद्भवी।

प्रत्यहं यो जपेद् भक्त्या शतमष्टोत्तंर शुचि।। 2।।

प्रतिदिन पवित्र होकर भक्तिपूर्वक अष्टोत्तर शत (एक सौ आठ बार जो कोई इसे जपता है वह धनी, पुत्रवान, ज्ञानी तथा चिरंजीवी होता है।)

अष्टोत्तरसहस्त्रं तु यो जपेद् भक्ति संयुक्त।

प्रत्यहं परमेशानि तस्य पुण्यफलं श्रृणु ।। 3।।

धनार्थी धनमाप्नोति ज्ञानार्थी ज्ञानमेव च।

रोगार्तो मुच्यते रोगात् बद्धो मुच्येत् बन्धनात् ।। 4।।

भीतो भयात्मुच्येत पापान्मुच्येत पातकी।

पुत्रार्थी लभते पुत्रं देवि सत्यं न संशय: ।। 5।।

हे देवि! अष्टोत्तर सहस्त्र (1008) जो कोई भक्ति से प्रतिदिन जपता है, उसके पुण्यफल को सुनो। धनार्थी धन, ज्ञानार्थी ज्ञान प्राप्त करते हैं, रोगात्र्त रोग से मुक्त होता है, कैदी बंधन से मुक्त होता है, डरा हुआ भय से, प्राणी पाप से मुक्त होता है एवं पुत्रार्थी पुत्र प्राप्त करते हैं।

एवं सत्य विजानीहि समर्थ: सर्व कर्मसु।

अयुतं यो जपेत् भक्त्या प्रत्यहं परमेश्वरि ।। 6।।

निग्रहापुग्रहे शक्त: स भपेद् कल्पपादप:।

तस्य क्रोधे भवेन्मृत्यु प्रसादे परिपूर्णता।। 7।।

हे परमेश्वरी! दस हजार जो प्रतिदिन जप करते हैं, वे निग्रहानुग्रह करने में समर्थ हो जाते हैं तथा दूसरे कल्पवृक्ष हो जाते हैं। उसके क्रोध में मृत्यु तथा प्रसन्नता में परिपूर्णता होती है। इसी प्रकार सभी कर्म में वह समर्थ होता है, इसे सत्य ही समझो।

मासि मासि च यो लक्षं जपं कुर्याद् वरानने।

न तस्य ग्रहपीडा स्यात् कदाचिदपि शांकरि।।

न चैश्वर्यक्षयं याति नच सर्पभयं भवेत्।

नाग्नि चौरभयं वापि न चारण्ये जले भयम्।।

पर्वतारोहणे नापि सिंह व्याघ्रभयं तथा-।

भूतप्रेतपिशाचानां भयं नापि भवेत कदचित्।।

 न च वैरिभयं कान्ते नापि दुष्टभयं भवेत्।

परलोके भवेत् स्वर्गी सत्यं वै वीरवन्दित।।

चन्द्रसूर्यसमोभूत्वा वसेत् कल्पायुतं दिवि।

वाजपेय सहस्त्रस्य यत् फलं वरानने।।

तत्फलं समवाप्नोति दुर्गा नाम जपात् प्रिये।

न दुर्गा नाम सदृशं नामास्ति जगती तले।

तस्मात् सर्व प्रयत्नेन स्मर्तव्यं साधकोत्तमै:।

यस्य स्मरण मात्रेण पलायन्ते महापद:।।

अर्थात हे देवि! प्रत्येक मास में जो लक्ष संख्या में जप करता है, उसे ग्रहपीड़ा नहीं होती, न उसका ऐश्वर्य ही नष्ट होता है, न उसे सर्प का भय होता है। अग्नि, चोर, अरण्य, जल आदि का भी भय नहीं होता, पर्वतारोहण में सिंह, व्याघ्र, भूत, प्रेत, पिचाश आदि का भय तो उसे होता ही नहीं। शत्रुभय तथा दुष्टभय नहीं होता और वह जातक स्वर्ग का भागी होता है। चन्द्र सूर्य के समान कल्प पर्यन्त वह द्यौलोक में रहता है। एक सहस्त्र वाजपेय यज्ञ करने का फल ‘दुर्गा’ नाम जप के प्रभाव से उसे मिलता है। दुर्गा नाम के सदृश इस संसार में और कोई नाम नहीं है। इसलिए प्रयत्नपूर्वक साधकों को यह नाम जपना चाहिए। इसके स्मरण मात्र से सभी आपत्तियां भाग जाती हैं। इन उक्त श्लोकों में जो अर्थ दुर्गा नाम के विषय में कहे गए हैं, वे केवल अर्थवाद या प्रशंसा ही नहीं है, प्रत्युत सर्वथा सत्य एवं अनुभवगम्य है। पुराणों में भी दुर्गा नाम के विषय में ऐसा ही कहा गया है। पद्य्म पुराण पुष्कर खंण्ड में लिखा है-

मेरुपर्वतमात्रोपि राशि: पापस्य कर्मण:।

कात्यायनीं समासद्य नश्यति क्षणमात्रत:।।

दुर्गार्चनरतो नित्यं महापातक सम्भवै:।

दोषैर्न लिप्यते वीर: पद्य्पत्रमिवाम्भसा।।

मेरु के समान पापराशि भी श्री दुर्गा भगवती के शरण में आने पर नष्ट हो जाती है। दुर्गार्चनरत पुरुष पाप से इस प्रकार निर्लिप्त रहता है जैसे जल में कमल। इस कलिकाल में नाम जप का बड़ा माहात्म्य है, अन्य साधन कठिन, दुरूह तथा सर्वसामान्य के लिए कष्टसाध्य हैं, उनमें नियामदि की कठिनता होने से सिद्ध सुलभ नहीं है। यह दुर्गा नाम सर्वथा सुलभ और महान फल इेने वाला है, इसलिए इसका स्मरण सर्वदा करना चाहिए।

भूतानि दुर्गा भुवनानि दुर्गा, स्त्रियो नरश्चापि पशुश्च दुर्गा।

यद्यद्धि दृश्यं खलु सैव दुर्गा, दुर्गास्वरूपादपरं न किंचित्।।

इस संसार के समस्त स्थानों, समस्त प्राणियों, सभी स्त्रियों, सभी प्रकार के पशु वर्गों और संपूर्ण वांग्यमय में जो कुछ भी दृष्टिगोचर होता है, वह बस दुर्गा ही है। और दुर्गा स्वरूप के सिवा कुछ भी नहीं है। 


।। ऊं शम्।।


Thursday, August 15, 2019

विवातित जीसस और संतो द्वारा उल्लेख

विवातित जीसस और संतो द्वारा उल्लेख

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "अन्वेषक"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  Vipkavi.info


आप नेट पर कोई भी आध्यात्मिक लेख पढें तो आप पायेंगे कि अंत में जीसस का लिंक दिया होगा और उनका प्रचार दिया होगा। एक सनातन हिंदू होने कारण श्रीमद्भग्वद्गीता को समझने के कारण मैं इसमें कोई बुराई नहीं समझता किंतु दुख इस बात का होता है कि आज की तारीख में कोई भी जीसस को माननेवाला उनके रास्ते पर नहीं चल रहा है। फादर तो इस लिये बन जाते हैं ताकि जिंदगी में सेक्स के दारू के मजे उड़ा सके।  दान में मिले पैसों से लोगों का धर्म परिवर्तन करवा सकें। जो चर्च जितना अधिक धर्म परिवर्तन करवाता है उसे उतना ही ऊंचा सम्मान और ओहदा मिलता है। हलांकि यह सभी धर्मों में कम ज्यादा है। किंतु यह लेख जीसस पर है अत: ईसाइत की बात ही करूंगा।


जीसस ने कभी नहीं कहा कि किसी गरीब की मजबूरी का फायदा लेकर उसे इसाई बनाओ। जीसस को मैं भी उतना ही सम्मान देता हूं जितना कोई और। कारण स्पष्ट है जीसस पर महाऋषि अमर ने और योगदा संस्थान के महाअवतार और संत श्यामाचरण लाहिड़ी परम्परा के स्वामी योगानंद ने अपने अनुभव बतायें हैं। महाऋषि अमर तो सप्तऋषि ही थे और उनके अनुभव उनके शिष्य महाऋषि कृष्णानंद ने लिखे हैं। जिनको मनसा फाउडेशन चिक्कीगुबी बंगलोर ने अभी हाल में ही छापा है। सन 2006 के आस पास।


विश्वभर में ना जाने कितने ही धर्मों और संप्रदायों को मानने वाले लोग रहते हैं। सभी की अपनी-अपनी मान्यता और अपने-अपने रिवाज हैं। लेकिन शायद ही कभी किसी ने एक बात पर गौर किया हो कि एक-दूसरे से पूरी तरह अलग ना होकर इन सबके बीच कुछ ना कुछ समानता या फिर किसी प्रकार का संबंध अवश्य होता है।


हालांकि यह बात एक बहुत बड़ा विवादित मसला है लेकिन बहुत से लोगों का मानना है कि सनातन धर्म, जो दुनिया का सबसे प्राचीन धर्म माना गया है, से ही अन्य किसी भी धर्म का उद्भव हुआ है। दूसरे शब्दों में आप ये कह सकते हैं कि सनातन धर्म एक सागर है जिससे धर्म रूपी विभिन्न नदियां निकली हैं। अब ये बात कितनी सच है या कितना फसाना, इस बात पर बहस करने से पूरी तरह बचते हुए मैं आपका ध्यान एक ऐसी रिपोर्ट पर लेकर जाना चाहती हूं जिसमें कहा गया है कि ईसा मसीह को जब सूली पर लटकाया गया था तब उनकी मृत्यु नहीं हुई थी।


इतना ही नहीं यह भी कहा गया है कि मौत के बाद जब ईसा मसीह वापस आ गए थे, जिस दिन को हम ईस्टर के तौर पर मनाते हैं, तब वह येरुसलम से सीधे भारत की ओर आए थे। भारत आकर वे कश्मीर में बसे थे और यहीं उनकी मृत्यु भी हुई थी। कश्मीर में आज भी जीसस क्राइस्ट की कब्र मौजूद है।


बहुत से लोगों के लिए यह कॉंसेप्ट नया है, शायद मेरे लिए भी। दस्तावेजों के अनुसार जीसस क्राइस्ट 33 वर्ष की उम्र तक जीवित रहे थे, 33 वर्ष की उम्र में उन्हें सूली पर लटकाया गया था। लेकिन 13 वर्ष से लेकर 29 वर्ष तक उन्होंने क्या किया, इस बात से पर्दा उठाने की कोशिश भी शुरू हुई है।
शोधकर्ताओं के अनुसार 13 वर्ष से लेकर 29 वर्ष तक जीसस क्राइस्ट भारत में रहे थे। इस दौरान उन्होंने भारत में ही रहते हुए शिक्षा ग्रहण की थी। 30 वर्ष की उम्र में वे येरुसलम गए और यहां आकर योहन्ना (जॉन) से दीक्षा ली। दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात वे स्वयं शिक्षा का प्रसार-प्रचार करने लगे। अधिकांश विद्वानों का कहना है कि इस 29वीं ईसवीं में गधे पर चढ़कर येरुसलम आए और तभी से उनकी जान लेने का षड़यंत्र रचा जाने लगा। आखिरकार 33 वर्ष की आयु में उनके विरोधियों ने उन्हें सूली पर लटका ही दिया। लेकिन क्या वाकई सूली पर लटकाए जाने के बाद यीशू की मृत्यु हो गई थी?


वैज्ञानिकों की मानें तो “नहीं”। यीशू ने रविवार के दिन येरुसलम में प्रवेश किया था जिसे ‘पाम संडे’ कहा जाता है। शुक्रवार के दिन उन्हें सूली पर लटकाया गया जो ‘गुड फ्राइडे’ के नाम से मनाया जाता है। कहा जाता है अगले रविवार को एक स्त्री, मैरी मैग्डेलन, ने जीसस को अपनी ही कब्र के पास जीवित अवस्था में देखा था।  उस दिन के बाद जीसस को कभी किसी ने नहीं देखा, क्योंकि शोध में ये बात सामने आई है कि उस दिन के पश्चात जीसस पुन: भारत लौट आए थे। भारत लौटकर उन्होंने कश्मीर के बौद्ध और नाथ संप्रदाय के लोगों के साथ समय बिताया और गहन तपस्या की।  मठ में उन्होंने 13 से 29 वर्ष तक रहकर शिक्षा ग्रहण की थी, दोबारा वे उसी मठ में रहने लगे और आजीवन वहीं रहे, वहीं उनकी मृत्यु भी हुई। बहुत से लोग तो यह भी कहते हैं सन् 80 ई. में श्रीनगर में हुए प्रसिद्ध बौद्ध सम्मेलन में ईसा मसीह ने भी भाग लिया था। श्रीनगर के उत्तर दिशा में स्थित पहाड़ों पर बौद्ध विहार का एक खंडहर है, जहां सम्मेलन हुआ था।


हाल ही में एक खोजी टी.वी. चैनल द्वारा कश्मीर स्थित उनकी कब्र को भी अपने चैनल पर दिखाया था। रिपोर्ट की मानें तो श्रीनगर के पुराने शहर में 'रौजाबल' नाम से मशहूर इमारत स्थित है। पत्थर से बनी यह इमारत एक गली के नुक्कड़ पर है। कहा जा रहा है कि इस इमारत में एक मकबरा है, जिसमें जीसस क्राइस्ट का शव रखा हुआ है। वैसे आधिकारिक तौर पर तो यह मकबरा मध्यकालीन युग के मुस्लिम उपदेशक यूजा आसफ का कहा जाता है, लेकिन बहुत से लोग यह भी मानते हैं कि इस मकबरे में यूजा आसफ की नहीं जीसस क्राइस्ट की कब्र है। कश्मीर आने पर जीसस क्राइस्ट का पहला पड़ाव पहलगाम था। मान्यता तो यह भी है कि पहलगाम में ही ईसा मसीह ने अपने प्राण भी त्यागे थे। ओशो रजनीश की एक किताब 'गोल्डन चाइल्डहुड' के अनुसार यहूदी धर्म के पैंगबर (मोज़ेज) ने भी इसी स्थान पर अपनी देह छोड़ी थी। ईसा और मोजेस, दोनों की ही कब्र यहीं है।


अपनी किताब में ओशो ने लिखा था “यह बहुत अच्छा हुआ कि जीसस और मोजेज दोनों की मृत्यु भारत में ही हुई। भारत न तो ईसाई है और न ही यहूदी। परंतु जो आदमी या जो परिवार इन कब्रों की देखभाल करते हैं वह यहूदी हैं। दोनों कब्रें भी यहूदी ढंग से बनी हैं। हिंदू कब्र नहीं बनाते। मुसलमान बनाते हैं किन्तुक दूसरे ढंग की। मुसलमान की कब्र का सिर मक्काह की ओर होता है। केवल वे दोनों कब्रें ही कश्मीमर में ऐसी हैं जो मुस्लिम नियमों के अनुसार नहीं बनाई गईं।“ हालांकि ईसा मसीह की मृत्यु और मृत्यु के बाद भारत आकर उनके रहने जैसी बातें अत्याधिक विवादित मसला है। विभिन्न भाषा में, विभिन्न काल खंडों में ईसा के रहस्यमय जीवन और फिर मृत्यु के बाद के जीवन पर न जाने कितनी बातें लिखी गई हैं, कई शोध भी किए गए हैं। लेकिन किसी एक तथ्य पर मुहर लगना ना आज संभव है, ना था और ना होगा।


ये दुनिया दो तरह के लोगों के बीच बंटी हुई है। एक वो जो ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास करते हैं और दूसरे वो जो ऐसी किसी भी धारणा को मनगढ़ंत मानते हैं। जो लोग ईश्वर पर आस्था रखते हैं उनके लिए यह समस्त ब्रह्मांड सर्वोच्च सत्ता के हाथ में है, इन्हें आस्तिक कहा जाता है। वहीं दूसरी ओर वे लोग जिनके लिए ईश्वर का कोई अस्तित्व नहीं है, जिनके लिए दैवीय सत्ता कोई महत्व नहीं रखती, उनका मानना है कि ईश्वर के अस्तित्व की खोज उन लोगों ने की है जो अपनी परेशानियां खुद नहीं सुलझा सकते और हर बात पर ईश्वर से सहारा मांगते हैं या ईश्वर को दोष देते हैं। आस्तिकों  और नास्तिकों की अवधारणाओं में बहुत से मौलिक अंतर हैं, जिसकी वजह से दोनों ही किसी भी बिन्दु पर एकमत होना नहीं चाहते। इसकी वजह से हर मसला एक बहस का मुद्दा बन जाता है।


ऐसा ही एक बहस का मुद्दा है जीसस, ईशू, या ईसा मसीह के अस्तित्व से जुड़ा। हालिया एक शोध के अनुसार यह बात सामने आई है कि ईसा मसीह का जन्म कभी हुआ ही नहीं था। अर्थात जिस व्यक्ति को ईसाई धर्म के संस्थापक के रूप में देखा जाता है असल में वह कभी था ही नहीं। ईश्वर के अस्तित्व पर विश्वास ना करने वाले प्रसिद्ध नास्तिक लेखक डेविड फिट्जगेराल्ड का कहना है कि ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिला है जिसके आधार पर यह कहा जाए कि ईसा मसीह का धरती पर जन्म हुआ था। डेविडका कहना है कि जीसस क्राइस्ट कोई वास्तविक इंसान नहीं थे, बल्कि बहुत सी कहानियों, व्यक्तित्वों और घटनाओं को एक-दूसरे से जोड़कर जीसस के जन्म की कहानी गढ़ी गई है। लेखक का यह भी दावा है कि उनके द्वारा किए गए शोध में यह बात पुख्ता हुई है कि जिस काल को जीसस के जन्म से जोड़ा जाता है, उस काल से जुड़े दस्तावेजों से कहीं भी ईसा मसीह का जुड़ाव प्रदर्शित नहीं होता। जबकि यहूदी धर्म के अन्य धर्म प्रचारक और संस्थापकों का जिक्र फिर भी मिल जाता है।


डेविड फिट्जगेराल्ड की स्थापनाएं पूर्व में मार्क, मैथ्यू और ल्यूक की स्थापनाओं से अंतर रखती हैं। इन सभी लेखकों ने जीसस के होने का सबूत पेश किया था लेकिन इनसे असहमति दिखाते हुए डेविड का कहना है कि ये सभी सिद्धांत जीसस के कथित समय के बहुत बाद में लिखे गए हैं। अपनी किताब में डेविड ने लिखा है कि जीसस का स्वरूप असल में उस कुछ मूर्तिपूजा करने वाले लोगों के धर्म और अन्य कुछ कहानियों के आधार पर व्यवस्थित किया गया है। इतना ही नहीं डेविड के अनुसार जीसस के चमत्कारी जीवन से जुड़ी कहानियां या उनके द्वारा किए गए चमत्कार सिर्फ उनके आसपास के लोगों के अलावा ना किसी ने देखे और ना ही उनके जाने के करीब 100 सालों तक किसी ने सुने। इसका अर्थ स्पष्ट है कि जीसस ने ऐसा कुछ किया ही नहीं था।


ईसाई धर्म के सिद्धांत, एक साहित्यिक कहानी जैसी हैं, जिन्हें गठित भी कथित समय के बहुत बाद में किया गया है। ऐसा लगता है ईसाई पंथ, यहूदी धर्म का कोई रहस्यमय धर्म है। फिट्जगेराल्ड के अनुसार जीसस का जन्म इस धरती पर कभी नहीं हुआ था और अगर हुआ भी था तो वह कोई एक नहीं बल्कि बहुत से अलग-अलग व्यक्तित्वों से मिलकर बना एक स्वरूप है। लेखक का दावा है कि ईसाई धर्म के लाखों अनुयायी, जीसस द्वारा हुए चमत्कारों का सिर्फ दावा करते हैं जबकि ऐसा कोई भी प्रमाण नहीं है जो इन दावों को सच साबित करे। अपने दावों को पुख्ता करने के लिए डेविड का कहना है कि ऐसा माना कि तथाकथित जीसस को यहूदियों ने सूली पर लटका दिया था। लेकिन उस समय यहूदियों की यह परंपरा थी कि वह अपने बंधकों या अपराधियों को पत्थर से मारते थे। फिर जीसस को पत्थर से क्यों नहीं मारा गया?


वहीं दूसरी ओर एक अन्य शोध और कुछ ऐतिहासिक प्रमाण हाथ लगने के बाद भूवैज्ञानिक डॉ. आर्ये शिमरॉन का कहना है कि जीसस का ना सिर्फ अस्तित्व मौजूद था बल्कि वे विवाहित होने के साथ-साथ एक बच्चे के पिता भी थे। आर्ये के अनुसार उन्होंने जेरूसेलम में जीसस के उस मकबरे को खोजा है जिसमें उनकी पत्नी मैरी और भाई जेम्स को दफनाया गया था। बहुत से रसायन परीक्षणों को करने के बाद आइरिश भूवैज्ञानिक ने अपनी खोज में चूना पत्थर के उस बक्से की खोज की है जिसमें जीसस, उनकी पत्नी और उनके भाई की अस्थियां रखी गई थीं। आर्ये शिमरॉन के अनुसार जीसस को नौ अन्य लोगों के साथ दफनाया गया था जिनमें उनके भाई, उनकी पत्नी और उनका बेटा जुडा शामिल था। शिमरॉन की इस खोज ने वर्षों से चली आ रहे उस विवाद को फिर से हवा दे दी है, जो तलपायत मकबरे के मिलने बाद शुरू हुई थी। यह मकबरा वर्ष 1980 में सर्वप्रथम खोजा गया था।


शरीर से मांस के गलने के बाद अस्थियों को एक बक्से में बंद कर दिया जाता है, जिसे ओशरी कहा जाता है। इस मकबरे से मिले ओशरी के ऊपर लिखा था, ‘जीसस, सन ऑफ गॉड’ अर्थात ईश्वर का बेटा। उसके अलावा अन्य नामों में मारिया, मैरी, जोसफ, योस, मैथ्यू और सबसे विवादित, जॉन, जिसे जीसस का पुत्र कहा जा रहा है। बहुत से लोग यह भी कह रहे हैं कि उस समय, जोसफ, मैरी, मैथ्यू आदि जैसे नाम बहुत कॉमन थे। लगभग 8 प्रतिशत ईसाई आबादी इन्हीं नामों से जानी जाती थी इसलिए पुख्ता तौर पर यह कहना कि यह वाकई ईसा मसीह और उनके परिवार के ही अवशेष हैं, जल्दबाजी है। तब से लेकर अब तक ओशरी एक विवाद का विषय ही बनी हुई है कि क्या वाकई इसमें ईसा मसीह के अवशेष हैं या नहीं। क्योंकि ऐसा बहुत कम ही होता है जब कथित ईसा मसीह के परिवार के सदस्यों के नाम किसी अन्य परिवार के सदस्य के भी हों।


खैर जो भी हो, धर्म, ईश्वर और उसका अस्तित्व ये पूर्णत: व्यक्ति की आस्था के ही मसले हैं। अगर आस्था है तो पत्थर भी भगवान है और अगर नहीं तो बड़े से बड़ा चमत्कार भी इत्तेफाक सा लगता है।


ये दुनिया बहुत रहस्यमयी है. कब, कैसे और क्या हो जाए इस रहस्य से ना तो कभी पर्दा उठ पाया है और जहां तक उम्मीद है कभी उठेगा भी नहीं. क्योंकि आए दिन हमारे सामने कोई ना कोई ऐसा रहस्य उठ खड़ा होता है जिसे देखने और जानने के बाद यह लगता है कि शायद इस रहस्यमयी दुनिया की रहस्यमयी दास्तां का कोई अंत नहीं है.


ताजा मामला जीसस क्राइस्ट से जुड़ा है, जिनकी पत्नी का उल्लेख कागज के एक बहुत पुराने टुकड़े के जरिए सामने आया है. प्राचीन काल से जुड़े इस पत्र की लिखाई को जब विशेषज्ञों द्वारा समझा गया तो जो तथ्य सामने आया वो काफी हैरान करने वाला था क्योंकि इस टुकड़े पर स्पष्ट रूप से लिखा है कि जीसस क्राइस्ट की एक पत्नी भी थीं. पूरी तरह से क्षतिग्रस्त कागज के इस टुकड़े की लिखाई को जब ट्रांसलेट किया गया तो इसका अर्थ ‘जीसस सैड टू देम…माइ वाइफ’ अर्थात ‘जीसस ने उन्हें कहा….मेरी पत्नी…’ इस पंक्ति के साथ जीसस ने ‘मैरी’, बहुत हद तक संभव है मैरी मैगडेलन का भी जिक्र किया है. गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ के तौर पर प्रचारित कागज के इस टुकड़े की खोज वर्ष 2012 में हॉर्वर्ड यूनिवर्सिटी से जुड़े केरन किंग ने की थी. जैसे-जैसे गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ को लोकप्रियता मिलने लगी, वैसे-वैसे इसकी सच्चाई और प्रमाणिकता की भी खोज शुरू हो गई.


परंतु अफसोस, जांच जैसे-जैसे आगे बढ़ती जा रही है वैसे-वैसे ये बात सामने आ रही है कि जीसस की पत्नी की खबर से जुड़ा यह टुकड़ा नकली है. केरन किंग को यह टुकड़ा कहां से मिला और किसने उन्हें यह दिया, वह इस बात को शेयर नहीं करना चाहते और ना ही इस ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ के इस टुकड़े के असली मालिक का नाम बताना चाहते हैं. जिस समय इस टुकड़े की खोज की गई थी उस समय केरन किंग ने इसे दूसरी शताब्दी में ग्रीक लोगों द्वारा लिखे गए गॉस्पेल की कॉपी कहा था जिसे चौथी शताब्दी में प्राप्त किया गया था. अब जबकि कार्बनडेटिंग तकनीक के जरिए इस टुकड़े की उम्र का पता लगाया गया तो यह सामने आया कि यह आठवीं या नौवीं शताब्दी का है.


हार्वर्ड थियोलॉजिकल रिव्यू द्वारा लिखी गई रिपोर्ट में यह कहा गया कि गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ को हैंस-उलरिश लाकांप द्वारा वर्ष 1999 में खरीदा गया था. स्पष्ट तौर पर कोई नहीं जानता कि ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ कहां से आया और कौन इसे केरन किंग को देकर गया. जीसस की पत्नी की बात जहां तक है प्राचीन काल में बहुत से लोग यह मानते थे कि जीसस और मैरी मैगडेलन ने विवाह किया था, परंतु यह विवाह कभी उजागर नहीं हुआ. हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के स्कॉलर्स इस टुकड़े की प्रमाणिकता की जांच नहीं कर पा रहे हैं. वह ना इसे सच मान पा रहे हैं और ना ही इसे झुठला पा रहे हैं. बहुत समय से जीसस की पत्नी से जुड़ी यह खबर चर्चा का विषय बनी हुई है और हॉर्वर्ड विश्वविद्यालय के प्रोफेसर इस बात को लेकर अपनी पीठ भी थपथपा रहे थे. लेकिन अब जब ‘गॉस्पेल ऑफ जीसस वाइफ’ की सच्चाई सबके सामने आने लगी है तो हॉर्वर्ड स्कॉलर खुद को ठगा हुआ महसूस कर रहे हैं.


जिसस क्राईस्ट यानी ईसा मसीह के बारे में कहा जाता है कि यहूदियों को ईसा की बढ़ती लोकप्रियता से तकलीफ होने लगी। उन्हें लगने लगा कि ईसा उनसे सत्ता न छीन लें। इसलिए साजिश के तहत इन्हें सूली पर चढ़ा दिया गया। सूली पर चढ़ाए जाने के बाद यह माना गया कि ईसा की मौत हो गई है। लेकिन असलियत यह है कि ईसा सूली पर चढ़ाए जाने के बाद भी जीवित रह गए थे। यह कहना है रूसी स्कालर 'निकोलाई नोटोविच' का। इन्होंने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि सूली पर चढ़ाए जाने के जिसस मरे नहीं थे। सूली पर चढ़ाए जाने के तीन दिन बाद यह अपने परिवार और मां मैरी के साथ तिब्बत के रास्ते भारत आ गए। भारत में श्रीनगर के पुराने इलाके को इन्होंने अपना ठिकाना बनाया। 80 साल की उम्र में जिसस क्राइस्ट की मृत्यु हुई। माना जाता है कि क्राइस्ट का मकबरा श्री नगर के रोजबाल बिल्डिंग में आज भी है।


इतिहासकार सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस भारत में कई बार आए थे। अपनी पहली यात्रा में इन्होंने तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित रह गए। बाईबल में भी इस बात का उल्लेख है कि ईसा मसीह सूली पर लटकाए जाने के तीन दिन बाद अपने समर्थकों के बीच आए थे। लुईस जेकोलियत ने 1869 ई. में अपनी एक पुस्तक 'द बाईबिल इन इंडिया' में लिखा है कि जीसस क्रिस्ट और भगवान श्री कृष्ण एक थे। लुईस जेकोलियत फ्रांस के एक साहित्यकार और वकील थे। इन्होंने अपनी पुस्तक में कृष्ण और क्राईस्ट का तुलना प्रस्तुत की है। इन्होंने अपनी पुस्तक में यह भी कहा है कि क्राईस्ट शब्द कृष्ण का ही रूपांतरण है। क्राइस्ट के अनुयायी क्रिश्चियन कहलाये।


जीसस शब्द के विषय में लुईस ने कहा है कि क्राईस्ट को 'जीसस' नाम भी उनके अनुयायियों ने दिया है इसका संस्कृति में अर्थ होता है 'मूल तत्व'। भगवान श्री कृष्ण को गीता एवं धार्मिक ग्रंथों में इस रूप में ही व्यक्त किया गया है। जीसस क्राइस्ट के विषय में यह भी उल्लेख मिलता है कि इन्होंने अपने जीवन का एक बड़ा हिस्सा भारत में बिताया। निकोलस नातोविच नामक एक रूसी युद्घ संवाददाता ने अपनी पुस्तक 'द अननोन लाईफ ऑफ जीसस क्राइस्ट' में लिखा है कि जीसस ने अपने जीवन का 18 वर्ष भारत में बिताया। जीसस प्राचीन व्यापारिक मार्ग सिल्क रूट से भारत आये थे। इन्होंने तिब्बत और कश्मीर के मोनेस्ट्री में काफी समय बिताया और बौद्घ एवं भारतीय धर्म ग्रंथों एवं आध्यात्मिक विषयों का अध्ययन किया।


अपनी भारत यात्रा के दौरान जीसस ने उड़ीसा के जगन्नाथ मंदिर की भी यात्रा की थी एवं यहां रहकर इन्होंने अध्ययन किया था। माना जाता है कि भारत में जब बौद्घ धर्म एवं ब्राह्मणों के बीच संघर्ष छिड़ा तब जीसस भारत छोड़कर वापस चले गये। भारत से वापसी के समय जीसस पर्सिया यानी वर्तमान ईरान गये। यहां इन्होंने जरथुस्ट्र के अनुयायियों को उपदेश दिया। जीसस के विषय में यह भी मान्यता है कि जीसस जीवन के अंतिम समय में पुनः भारत आये थे। सादिक ने अपनी ऐतिहासिक कृति 'इकमाल-उद्-दीन' में उल्लेख किया है कि जीसस ने अपनी पहली यात्रा में तांत्रिक साधना एवं योग का अभ्यास किया। इसी के बल पर सूली पर लटकाये जाने के बावजूद जीसस जीवित हो गये। इसके बाद ईसा फिर कभी यहूदी राज्य में नज़र नहीं आये। यह अपने योग बल से भारत आ गये और 'युज-आशफ' नाम से कश्मीर में रहे। यहीं पर ईसा ने देह का त्याग किया।


जीसस पर चाहे कितने विवाद हों किंतु मैं अपने मित्रों से अनुरोध करूंगा कि आप धर्म परिवर्तन का विरोध करें किंतु जीसस जैसे संत का विरोध नहीं। मैं उनको एक अवतार ही मानता हूं। आज के ईसाई चाहे कितने पापी और भृष्ट किंतु जीसस उतने ही सच्चे और निर्दोष। आज धर्म के नाम पर दुकानदारी गलत है और पाप है।


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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Wednesday, August 14, 2019

प्रश्नों के उत्तर

 प्रश्नों के उत्तर

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

जी करे। ब्लाग के लेख पढ़ लो। अधिकतर समाधान मिल जायेंगे।

इंद्रियों के बन्द होने का अर्थ है। मन से अलग होना। यानि सिर्फ कार्य करना। उसको बुद्धि में मन मे संचित न होने देना।

जैसे किसी ने बातचीत में कुछ किस्सा बोला। यदि वह मुझसे सम्बंधित नही तो उस चितन क्यो करे।

यह कान से सुना। दिमाग मे नही गया।

किसी की सहायता को कर देना स्वतः। मन मे कुछ सोंच न आने देना।

मतलब इंद्रियों अनावश्यक सम्बन्ध मन से बन्द हो जाना।

जैसे भोजन मिला। जो मिला खाया। यह क्या सोंचे अच्छा बुरा।

भाई गणित है। जब दिमाग खाली ही नही रहेगा तो विचार कैसे आ पायेगे।

मन्त्र जप विचारों को आने रोक देता है।

बैंक बैलेंस की तरह शक्ति को संचित करता जाता है।

आवश्यकता पड़ने पर सहायक हो जाता है। हमें मालूम भी नही पड़ता।

अंत मे स्वतः विलीन होकर ध्यान में सहायक हो जाता है।

कारण यह है समय के साथ सारे मन्त्र नाम जप सब अनेको बार सिद्ध हो चुके है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post.html

शक्तिपात दीक्षा के बाद यह अस्त्र अपना जौहर  दिखा कर धीरे धीरे नष्ट हो जायेगे। बस इतना ध्यान रखो कि साधन की क्रिया में कर्म कर लो यदि आवेग हो उसको रोको मत। फिर पुनः साधन करो।

कोई भी संस्कार जिस भाव के कारण पैदा होता है। वह उसी भाव की क्रिया कर के ही बाहर निकलता है।

दीक्षा के बाद इनमे तेजी आ जाती है क्योकि एक तो जगत के क्रम और दूसरे क्रिया के संस्काररुपी कर्म। दोनो एक साथ तो अधिक महसूस होते है।

प्रभु जी, किसी धर्म या सम्प्रदाय के संतों महापुरषो पर केवल उस सम्प्रदाय या धर्म का अधिकार होता है या समस्त मानव जाति का

समस्त मानव जाति का। अब सन्त नापने के स्केल तो है नही। अतः सन्तो की भी श्रेणी बनाई जा सकती।

किंतु यह केवल सनातन और भारतीय सन्त ही समझते है।

ईसाई या मुस्लिम चूंकि संकुचन का ही पालन करते है। अतः वह वास्तविक सन्त नही धर्म प्रचारक ही होते है।

यह धारणा के कारण ही होता है। निराकार को कुछ नही। पर साकार को देव। यह धारणा के कारण।

जाकी रही भावना जैसी। प्रभु देखी तीन मूरत वैसी।।

सघन धारणा कहा है।

अब यह वह सन्त जाने। मैं क्या बताऊँ। अब बोलो कृष्ण ने पहले mmstm क्यो नही बनवाई।

अब अमर महर्षि सप्त ऋषियों के सम्पर्क में थे। क्यो थे मैं कैसे बता सकता हूँ।

ईश्वर अलग अलग कार्य हेतु अलग अलग पर विलग लोगो का चयन करता है। अब उसकी मर्जी। जो है तो है।

वे फोटो नही खिंचवाते थे। इक्का दुक्का उनके आश्रम में होंगी।

क्योकि वे आत्मज्ञानी थे। वे जानते थे ये रूप उनका नही ये तो मिथ्या आभास है। मुझे भी फोटो खिंचवाने में आनन्द नही आता। पर मित्रो की प्रसन्नता हेतु खिंचवा लेता हूँ।

वही कुछ लोग रोज फेस बुक पर नेट पर अलग अलग पोज में ज्ञान के उपदेश डालते है।

अब आप सोंचे वह किंतने बड़े ज्ञानी पर किताबी।

यदि हमारे अंदर अपने सम्मान के प्रचार की अपनी फोटो डालने की पृवृती है तो हम निवृत्त कैसे हो सकते है।

हमें सब व्यर्थ कर्मो से दूरी बनाने का प्रयास करना चाहिए।

महाराज जी कहते है। जो खुद बन्धन में बंधा हो वह तुमको कैसे मुक्त कर सकता है।

एक तो पर्यावरण प्रदूषण को बढ़ावा दे रहे हो। दूसरे आत्मश्लाघा में बंधे हो।

अपने चित्र व्यर्थ डालना आत्मश्लाघा का अज्ञानता का ही द्योतक है।


मिच्छामि दुक्कड़म।

जो मेरे पास आकर बोले मुझे ईश्वर को जानना है उसके रहस्यों को जानना है जो चिंतित हो इसके लिए ढूंढने पर भी कोई नहीं मिल रहा

सर आपके द्वारा भेजी गयीं mmstm छोटी पुस्तक का सदुपयोग में कैसे करूं।  

किसको दूं कहां ढूंढूं।

https://freedhyan.blogspot.com

https://freedhyan.blogspot.com/2018/04/blog-post_45.html?m=0

इस लिंक में जो विधि साधना की विपुल सर ने दी है वो ही पुस्तक में है समान है दोंनों

कोई अंतर नहीं

श्री कृष्ण भगवान  का प्रसाद है ये विधि जो कोई भी करेगा

उसे राह मिलेगी

उसे ईश प्राप्त होंगे

धन्यवाद

चलिए। बधाई हो। आपकी फोटो पर काम हो गया।

देखिये। आपको जो बोला है वह भी करती रहे। रोज रोज आपकी फोटो काम नही करेगी।


http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_34.html

जैसा सर्व विदित है कि बगलामुखी साधना दस महा विधायों में से एक है ।अतः उचित होगा कि उक्त साधना किसी समर्थ गुरू की रेख देख में वैदिक विधि के अन्तरगत् ही शुरू करें। दूसरा उक्त साधना का मुख्य उदेशय अपने में बसे शत्रुओ यानी काम क्रोध मद लोभ मत्सर के शीघ्र शमन हेतु करे ताकि ईश प्राप्ति की ओर मार्ग प्रष्स्त हो ,नाकि बाहरी शत्रुओं हेतु। यह अलग बात  कि उक्त साधना करने वाले के स्वयं ओर उनसे रक्षित लोगो के शत्रु भी माँ की कृपा से स्तम्भित हो जाते हैं। हाँ साधक का ध्येय सदैव जन कल्याण राष्ट कल्याण ही होना चाहिये। जैसा राष्ट गुरू, स्वामी  महाराज जी दतिया ने सन् 1962 में चीन को स्तम्भित करने हेतु किया था जिस से चीन कुछ भूभाग हठपने के बाद आज तक एक ईंच भूमि नही हथिया पाया है।यह महा षुरूषो के संकल्प से ही सम्भव है।

इस हेतु उचित होगा कि साधक दतिया मध्य प्रदेश झाँसी के पास  माता पीताम्बरा पीठ से इस साधना हेतु उचित मार्ग दर्शन प्रात कर लें।इसके अतिरिक्त् कांगडा या हरिद्वार  में बगुलामुखी पीठ या अन्य समर्थ गुरूओ से साधना के मर्म जान कर ही साधना शुरू करे।

एक ओर स्थान फैजाबाद से 22कि मी पहले मुबाकरगंज में अनादी आस्था पीठ भी है जहाँ से मार्ग दर्शन प्रात किया जा सकता है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_13.html

आदमी कैसे देखता है आंख से। मतलब क्या आंख देखती है। ठीक है।

एक व्यक्ति जिसे मृत्य बोला जाता है उसके आंख तो होती है तो वह क्यो नही देखता??

तो प्रश्न है कि कौन देखता है।

आंख के माध्यम से कौन देखता है।

मतलब देखने का कर्म कौन रहा है। आंख पर कौन देख रहा है?? आत्मा।

जब वह निकल गई शरीर एक लकड़ी का टुकड़ा। जो धू धू कर जल उठता है।

मतलब साफ कार्य करने के पीछे किसका सहयोग। आत्मा का। यह साकार शरीर उस निराकार आत्मा के सहयोग से कुछ कर पाता है। तो कारक कौन।

कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।

जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।

नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।

शरीर सिर्फ माध्यम है।

आत्मा तो शुध्द चैतन्य ही होती है

उसके ऊपर लेयर के रूप में चित्त की तरंगें होती हैं

तब ही  तो परमात्मा को कर्ता कहते है।

सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।

कर्ता

भर्ता

हर्ता

सब परमात्मा ही।

क्यो

क्योकि यह शरीर पदार्थ है  और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।

जब सब अंत ऊर्जा। तो हम तुम कहाँ।

सत्य है। लोगो को समझाने के लिए कर्ता लिखना पड़ता है।

मतलब एक बार ईश की ऊर्जा की आवृत्ति तक छू कर भी आ गए। तो सब स्पष्ट हो जाता है।

यह उच्चतम अवस्था है। बंदा बैरागी और तमाम सिख गुरुओ के साथ औरंगजेब ने क्या नही किया। पर उन्होंने अपना धर्म नही बदला।

रमन महृषि का ऑपरेशन बिना एनस्थीसिया के हुआ था।

वास्तव में जो वहाँ स्तिथ हो जाते है वे ही इस अवस्था मे पहुचते है।

आम आत्मज्ञानी। वहाँ गए कुछ पल। फिर वापिस। यही आना जाना लगा रहता है।

कलियुग में सेवा ही सबसे बड़ा कर्म माना जाता है।

प्रायः बड़े बड़े गुरुओ के ऑपरेशन एनस्थीसिया देकर ही होते थे है और रहेगे।

इस समय मातृ शक्ति की आराधना पूरे विश्व मे होती है। अतः संकल्पों के कारण इस रूप में ईश शक्ति जागृत होती है। अतः ईश की माँ के रूप में पूजा करनी चाहिए। देवी की आराधना मन्त्र नाम जप कैसे भी करना बेहतर होगा।

इस जन्म में भी मनुष्य किसी न किसी बहाने अपने पूर्व साथियों से मिल जाता है।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/1.html

प्रभु के मार्ग में बनिया बुद्धि नहीं चलती। लाभ हानि नही देखते।दोनों का महत्व है।

साधना एकान्तता का परिचायक है। अंदर की ओर ले जाती है।

सत्संग वाहीक वातावरण से होनेवाले दुष्प्रभावों से दूर रखता है।

अतः दोनो आवश्यक है।

क्योकि संगति ही  सत्मार्ग या कुमार्ग पर ले जाती है। हमे दिखाती है।

साधना मार्ग पर बढ़ने का इंजन है। और सत्संग मार्ग।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_17.html

नवरात्रि आ रही है। शक्ति आराधना हेतु इन मन्त्रो को किया जा सकता है।

उठकर जप पर बैठ जाया करो।

मित्रो यदि नींद नही आती है  तो समय का सदुपयोग करे। हाथ पैर धोकर अपने बिस्तर पर ही आसन लगाकर मन्त्र जप साधन साधना जो भी मन करे। आरम्भ कर दे। कुछ समय बाद स्वतः नीद आ जायेगी।

पर याद रहे मोबाइल न देखे। यह नींद को ध्यान को बहुत भटकाती है।

यार अपना तो कोई समय ही नही। जब मूड बना तो समय बना।

देखो रात्रि भोजन 7.30 तक खा लो। 9 बजे सोने के पहले ध्यान में बैठ जाओ। जब नींद आ जाये। ध्यान करते करते ही सो जाओ। रात को यदि नींद खुल जाए तो फिर बैठ जाओ।

कोई बात नही जब भी सोओ।

ये ही बात मैं समझाने का प्रयास करता हूँ। निराकार ही वास्तविक रूप। इसका अनुभव होने के बाद साकार निराकार का भेद स्पष्ट होता है।

सारे जीव सब कुछ मात्र क्षणिक ही प्रतीत होते है। वास्तव में यह ही ब्रह्म ज्ञान का अंतिम ज्ञान है। जगत मिथ्या ब्रह्म सत्य।

परन्तु इस स्थिति के लोग किंतने। लगभग शून्य।

बीच की स्थिति के कुछ अधिक तो वे निराकार का ढोल पीटते है।

दूसरो सुख से सुख नही मिलता उसी बात दूसरो के ज्ञान से तुमको मुक्ति कैसे मिलेगी।

नही दुनिया मे किंतने लोग बिना अनुभव के निराकार चिल्लाते है चूंकि कही पढा गुरु जी ने बोला। अब पूछो तो गुरु जी को उनके गुरु ने बोला। यही साकार का।

अब देखो अनीश्वरवादी निराकार उपासक बुध्द ने चूंकि ईश्वर नही यह माना और उस अवस्था मे अपनी प्रारंभिक शिक्षा यानि दुःख को याद किया। उनको दुःख का एहसास हुआ। तो लिखा दुःख है। और उनकी शिक्षा का आरम्भ जीवन दुःखों से भरा है। इससे कैसे निजासत पाए। यहाँ से आरम्भ हुई।

अब उनके चेले भी यही माला जपते है।

परन्तु सनातन साकार से यहाँ पहुंचनेवाले आनन्दमय हो जाते है सुख दुख से ऊपर आनन्दमय कोष की बात करते है।

तो वे समझाते है यहाँ तक कैसे पहुँचो।

तो कुछ यह माला जपते है।

लक्ष्य एक पर धारणाएं अलग एक दाएं हाथ चलो । दूसरा बाएं हाथ चलो।

पर अंत एक।

यही फर्क हो जाता है। ज्ञानियों के व्याख्यानों में।

वसिष्ठ के उपदेश की बात एक है। पर हर बुद्धि वाला उसको अपने तरीके बताएगा और समझेगा।

और यदि रामपाल होगा तो अंत मे कबीर डाल कर व्याख्या कर देगा।

ओशो उस आनन्द को सेक्स से जोड़ देगा।

पर बोलना इस लिए आवश्यक हो गया। क्योकि सदस्य अपनी अपनी सोंच को लेकर लिखना चालू करेगे। तो व्यर्थ का विवाद खड़ा हो सकता है।

अतः भाई सब सही। क्योकि सबका स्तर और सोंच अलग अलग।

यह पोस्ट उस समय की लगती है जब शक्तिपात के बाद राम जी ध्यान समाधि में ब्रह्मांड की उतपति देखी तो वसिष्ठ से प्रश किये। तब वसिष्ठ ने उत्तर दिए।

यह मैं समझता हूँ। बाकी मैंने पढ़ी नही है।

पर प्रश्न से मुझे प्रसन्नता हुई कि यही प्रश्न है जो मैने अनुभव कर ब्रह्मांड उत्तपत्ति में लिखा। तो फिर क्या मेरा अनुभव सही था। क्योकि राम जी भी यही जिज्ञासा कर रहे है।

जय श्री राम।

भूताकाश यह दृश्य जगत।

चिदाकाश जहाँ हमारी आत्मा मन बुद्धि अहंकार सोंच इत्यादि की दुनिया है। यह सब ऊर्जा के ही विभिन्न आयाम और रूप है।

मित्र गुरु है कहाँ अधिकतर दुकानदार। बिना परम्परा के गुरु। बाकी अधकचरे।

सृष्टि उत्तपत्ति के बाद जब मानव की उत्तपत्ति हुई तब मानव ज्ञान हेतु रुद्र ने ही निराकार दुर्गा की इच्छा से शिव का रूप लिया और स्वयं पहली शिष्या के रूप में पार्वती का रूप धारण किया यह सब साकार ही थे।

फिर शिव ने अन्य ऋषियों को ज्ञान देकर गुरु नियुक्त किया।

कुछ हद तक कह सकते है। देखो ऊर्जा क्या hn. h प्लैंक कॉन्स्टेनट। nआवृति।

जब हम कर्म करते है तो हमारे चित्त में तरंग के रूप में एक अलग ऊर्जा के रूप में आत्मिक ऊर्जा जो शुद्ध है और जीवित है। ईश का अंश है। उस ऊर्जा के साथ चित्त रूपी अन्य तरंगिक ऊर्जा मिल जाती है। जब तक यह मिश्रित ऊर्जा ईश की शुद्ध ऊर्जा की आवृत्ति के बराबर नही होती। मुक्ति नही मिलती। मोक्ष नही मिलता।

नही कर्ता आत्मा ही है। इसी को जानना और अनुभव करना ज्ञान है।

तब ही ही तो परमात्मा को कर्ता कहते है।

सूक्ष्म बुद्धि से समझो तो।

कर्ता

भर्ता

हर्ता

सब परमात्मा ही।

क्यो

क्योकि यह शरीर पदार्थ है  और आइंस्टाइन के अनुसार पदार्थ भी ऊर्जा से बनता है।

सर मैं आपको गलत नही कह रहा हूँ। बस अपना अनुभव लिखा। पढा बहुत कम।

मतलब

निराकार कृष्ण सुप्त ऊर्जा

महामाया का पर्दा

इसका कम्पन

जागृत ऊर्जा बनी निराकार दुर्गा

ब्रह्म बने

रुद्र बने

विष्णु बने

शिव बने

गायत्री निर्माण

वेद ज्ञान

मन्त्र बने आराधना बनी

विभिन शक्तियां अलग अलग दिखी

देव बने

साकार हुए ये सब

मानव की कहानी आरम्भ।

http://freedhyan.blogspot.com/2018/09/blog-post_21.html

मेरे पास कुछ ऐसे लोग व्हाट्सएप ग्रुप और व्यक्तिगत भी आते है जो यू ट्यूब को देखकर चक्र साधना, कुण्डलनी जागरण, या क्रिया योग या अन्य कुछ आरंभ करते है। कुछ दिनों बाद अधिकतर लोग आज्ञा चक्र या कनपटी पर तीव्र दर्द, कमर में दर्द, अत्याधिक पसीना, खुजली, दाने इत्यादि की शिकायत करते है। कोई कोई तो अनुभव से भयभीत होकर सलाह मागने लगता है।


परमपिता परमेश्वर की कृपा से इस संसार में हर जीव की उत्पत्ति बीज के द्वारा ही होती है चाहे वह पेड़-पौधे हो, कीडे – मकोडे, जानवर या फिर मनुष्य योनी। चित्त में भी कर्मफल बीज के रूप संचित होते हैं। यानी बीज को जीवन की उत्पत्ति का कारक माना गया है।बीज मंत्र भी कुछ इस तरह ही कार्य करते है। हिन्दू धरम में सभी देवी-देवताओं के सम्पूर्ण मन्त्रों के प्रतिनिधित्व करने वाले शब्द को बीज मंत्र कहा गया है।


वस्तुतः बीजमंत्रों के अक्षर उनकी गूढ़ शक्तियों के संकेत होते हैं। इनमें से प्रत्येक की स्वतंत्र एवं दिव्य शक्ति होती है। और यह समग्र शक्ति मिलकर समवेत रूप में किसी एक देवता के स्वरूप का संकेत देती है। जैसे बरगद के बीज को बोने और सींचने के बाद वह वट वृक्ष के रूप में प्रकट हो जाता है, उसी प्रकार बीजमंत्र भी जप एवं अनुष्ठान के बाद अपने देवता का साक्षात्कार करा देता है।


अब आप कुछ समझे होंगे। वास्तव में ध्यान चाहे वह कोई भी विधि हो। त्राटक, विपश्यना, शब्द, नाद, स्पर्श योग या मन्त्र जप या और कुछ। इनके द्वारा हमारी ऊर्जा बढ़ती है। आप जानते है शक्ति मतलब ऊर्जा। अब होता यह है  यदि हमारे शरीर को इस प्रकार की ऊर्जा सहने की आदत नही होती तो हमको रोग या शारीरिक कष्ट हो सकते है।


आप जानते है ऊर्जा मतलब hn h is plank constant n is frequency. इस कारण विभिन्न विधियों और मन्त्रो के अलग अलग ऊर्जा के आयाम अलग आवृत्तियों के कारण हो जाते है।

उदाहरण आपने किसी विशेष चक्र पर उसके बीज मंत्र से ध्यान किया। उस ऊर्जायित आयाम के कारण चक्र के बीज मंत्र उद्देलित हो गए। अब चक्र की एक विशिष्ट ऊर्जा निकली। उस चक्र के ऊपर नीचे का चक्र तो जागृत नही तो यह ऊर्जा कहा से निकलेगी। रास्ता न मिलने पर यह रोग पैदा कर सकता है जो असाध्य भी हो सकता है।


यदि आपके चक्र कुण्डलनी जागरण के पश्चात मूलाधार को भेदकर धीरे धीरे ऊपर के चक्रो में आते है तो यह ऊर्जा नीचे के चक्रो से निकल जाती है और शरीर मे रोग नही होता।

अब यदि बिना कुण्डलनी जगे चक्रो के बीज मंत्र उर्जित हो गए तो भगवान मालिक।


वही समर्थ गुरु अपनी ऊर्जा से शिष्य की अधिक ऊर्जा को नियंत्रित कर सकता है।

अब मान लीजिए आपने त्राटक किया वह भी बिंदु या रंग और जो निराकार है। तो आपके आज्ञा चक्र की ऊर्जा बढ़ी। यदि वह बाहर नही निकल पाई तो वह आपके मस्तिष्क के न्यूरॉन्स को प्रभावित कर सकती है। ये न्यूरॉन्स बहुत कोमल और याददाश्त को गुत्थियों में संग्रहित करते है। इस कारण आपका मस्तिष्क संतुलन बिगड़ सकता है। आप जिद्दी या कुछ हद तक पागल भी हो सकते है।

इस सबका एक ही उपचार है कि प्रणायाम के द्वारा अपनी अतिरिक्त ऊर्जा को श्वास से बाहर निकाले और आसनों द्वारा शरीर मजबूत करे।

यदि यह नही कर सकते हो किसी साकार मन्त्र का जप करे। यह जाप सुनार के हथौड़े की चोट कर आपके शरीर और चक्रो को कम्पन देकर उन्हें ऊर्जा सहने लायक बनाता है।


समस्या वहाँ अधिक आती है जो निराकार विधियों से ध्यान करता है। क्योंकि निराकार आकार रहित होता है तो आपकी ऊर्जा जो ब्रह्म शक्ति का रुप है वह आपको किस रूप में किस प्रकार सहायता करेगी।


वही साकार मन्त्र जप और विधियाँ उस ब्रह्म शक्ति को उस मन्त्र के सगुण रूप में आने को विवश हो जाती है। सहायता करने के अतिरिक्त वह उस साकार और मन्त्र संकल्पना का रूप धारण कर दर्शन देकर अतिरिक्त ऊर्जा को शारीरिक ऊर्जा में समाहित कर देती है।

आप देखे माउंट आबू में मस्तिष्क रोगी अधिकतर पाए है। जो नही वह किसी हद तक झक्की हो जाते है। कारण वहाँ जो है वह कुण्डलनी शक्ति मानते नहीं। गुरु मानते नही। लाल प्रकाश जो मूलाधार का रंग है उस प्रकाश पर निराकार त्राटक करवाते है। पति पत्नी के बीच सम्बन्ध से जो ऊर्जा निकलती है उसे रोककर दोनो को भाई बहन बना देते है। तो ऊर्जा किधर जाए।


लिखने को हर विधि पर हैं पर संक्षेप में आप कोई भी विधि यदि साकार सगुण करते है तो खतरा कम। दूसरे सबसे सरल सहज आसान है मन्त्र जप। नाम जप। आपको जो इष्ट अच्छा लगे उसका मन्त्र जप करे। सघन सतत निरन्तर। यह साकार मन्त्र आपको आपके गुरू से लेकर निराकार तक की यात्राओं के अतिरिक्त ब्रह्म ज्ञान भी दे जाएगा। बस अपने इष्ट को समर्पित होने का प्रयास करो।

जय महाकाली। जय गुरुदेव।


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

साधक का भोजन और भोग

 साधक का भोजन और भोग 

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

 

इसके आगे मैं यह जोडना चाहता हूं। सँस्कृत के विद्वान बताये। क्या शंकराचार्य के आत्म षट्कम में यह जोड़ा जा सकता है।

न यञो न अग्निर्न काष्ठ समिधा,

नच सूर्य तेजो ना दीप्त न देवा।

नच क्षुधा ना जलं पिपाषा

चिदानन्द रूप: शिवोहं शिवोहम।

*1. सुबह उठ कर कैसा पानी पीना चाहिए*?


    उत्तर -     हल्का गर्म


*2.  पानी पीने का क्या तरीका होता है*?


    उत्तर -    सिप सिप करके व नीचे बैठ कर


*3. खाना कितनी बार चबाना चाहिए*?


     उत्तर. -    32 बार


*4.  पेट भर कर खाना कब खाना चाहिए*?


     उत्तर. -     सुबह


*5.  सुबह का नाश्ता कब तक खा लेना चाहिए*?


     उत्तर. -    सूरज निकलने के ढाई घण्टे तक


*6.  सुबह खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?

    

     उत्तर. -     जूस


*7.  दोपहर को खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?


    उत्तर. -     लस्सी / छाछ


*8.  रात को खाने के साथ क्या पीना चाहिए*?


    उत्तर. -     दूध


*9.  खट्टे फल किस समय नही खाने चाहिए*?


    उत्तर. -     रात को


*10. आईसक्रीम कब खानी चाहिए*?


       उत्तर. -      कभी नही


*11. फ्रिज़ से निकाली हुई चीज कितनी देर बाद*

      *खानी चाहिए*?


      उत्तर. -    1 घण्टे बाद


*12. क्या कोल्ड ड्रिंक पीना चाहिए*?


       उत्तर. -      नहीं


*13.  बना हुआ खाना कितनी देर बाद तक खा*

      *लेना चाहिए*?


      उत्तर. -     40 मिनट


*14.  रात को कितना खाना खाना चाहिए*?


       उत्तर. -    न के बराबर


*15.  रात का खाना किस समय कर लेना चाहिए*?


      उत्तर. -     सूरज छिपने से पहले


*16. पानी खाना खाने से कितने समय पहले*

     *पी सकते हैं*?


      उत्तर. -     48 मिनट


*17.  क्या रात को लस्सी पी सकते हैं*?


     उत्तर. -     नहीं 


*18.  सुबह नाश्ते के बाद क्या करना चाहिए*?


       उत्तर. -     काम


*19. दोपहर को खाना खाने के बाद क्या करना*

       *चाहिए*?


       उत्तर. -     आराम


*20. रात को खाना खाने के बाद क्या करना*

     *चाहिए*?


      उत्तर. -    500 कदम चलना चाहिए


*21. खाना खाने के बाद हमेशा क्या करना चाहिए*?


      उत्तर. -     वज्रासन


*22. खाना खाने के बाद वज्रासन कितनी देर*

      *करना चाहिए.*?

    

      उत्तर. -     5 -10 मिनट


*23.  सुबह उठ कर आखों मे क्या डालना चाहिए*?


      उत्तर. -    ठंडा पानी।


*24.  रात को किस समय तक सो जाना चाहिए*?


      उत्तर. -     9 - 10 बजे तक


*25. तीन जहर के नाम बताओ*?


      उत्तर.-    चीनी , मैदा , सफेद नमक


*26. दोपहर को सब्जी मे क्या डाल कर खाना*

      *चाहिए*?


      उत्तर. -     अजवायन


*27.  क्या रात को सलाद खानी चाहिए*?


      उत्तर. -     नहीं


*28. खाना हमेशा कैसे खाना चाहिए*?


      उत्तर. -     नीचे बैठकर व खूब चबाकर


*29. चाय कब पीनी चाहिए*?


      उत्तर. -     कभी नहीं


*30. दूध मे क्या डाल कर पीना चाहिए*?


      उत्तर. -    हल्दी


*31.  दूध में हल्दी डालकर क्यों पीनी चाहिए*?


      उत्तर. -    कैंसर ना हो इसलिए


*32. कौन सी चिकित्सा पद्धति ठीक है*?


      उत्तर. -   आयुर्वेद


*33. सोने के बर्तन का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -   अक्टूबर से मार्च (सर्दियों में)


*34. ताम्बे के बर्तन का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -    जून से सितम्बर(वर्षा ऋतु)


*35. मिट्टी के घड़े का पानी कब पीना चाहिए*?


      उत्तर. -  मार्च से जून (गर्मियों में)


*36. सुबह का पानी कितना पीना चाहिए*?


      उत्तर. -  कम से कम 2 - 3 गिलास।


*37. सुबह कब उठना चाहिए*?


       उत्तर. -  सूरज निकलने से डेढ़ घण्टा पहले।


*38.इस मैसेज को कितने ग्रुप में भेजना चाहिए ।*

        उत्तर . सभी ग्रुपो में!

*39.क्या पुण्य के कार्य में देर* *करनी चाहिए।*

उत्तर. नहीं।

यदि आप किसी तालाब के किनारे बैठे हों । वहीँ आसपास कोई बगुला मछलियों को पकड़ कर खा रहा हो ।

अगर भूखे बगुले को उड़ाया तो पाप लगेगा उससे उसका भोजन छिनने का ।

यदि उसे भोजन करने दिया तो आपकी आँखों के सामने किसी की जान जा रही है और आप देख रहे हैं ये पाप लगेगा ।

अगर आप वहाँ से पलायन किये तो भी कर्तव्य विमुख होने का पाप लगेगा ।


ऐसी परिस्तिथि में आपका क्या कर्तव्य बनेगा ?


स्वम् की सूझ बूझ से ज्ञानीजन उत्तर देवें ।

मेरा उत्तर

देखो बगुला घास तो खाता नही। यदि वह श्रम कर अपना भोजन खा रहा है तो प्रकृति का विधान है। आपको कोई हक नही मछली को बचाकर बगुले को भूखा रखे। यह कर्म वह नियमानुसार कर रहा है।

जहाँ पर अपने मूल स्वभाव को बदल कर हिंसा हो वह पाप है। जैसे

मनुष्य के पंजे नाखून मांसभक्षी नही। अतः मांस भक्षण पाप है  परंतु सिंह को प्रकृति ने दूसरे को मार  कर ही खाने का आदेश दिया है तो सिंह हिंसा नही अपना कर्म कर रहा है।

स्वभाविक नही प्रकृतिक स्वभाविक

अपने आंखों के सामने हो रही मछलियों की रक्षा करनी चाहिए

पर पृकृति के विपरीत जाकर क्या हम बगुले को भूखा तो नही मार देंगे।

किसी का भोजन छीनना क्या उचित है।

चलो एक विषय मिला हिंसा अहिंसा और रक्षा। अब इस पर लेख लिखा जाएगा।

नही हमे हिंसा समझनी होगी।

प्रतीक्षा करो लेख की। अब और लोग। सूक्ष्म रूप में अनाज भी जीव है  तो क्या हम भूखे रहे।

जैसे बचपन में मुझे काली चींटी अच्छी लगती थी क्योकि वह काटती नही थी। लाल चींटी बहुत जोर से काटती थी। अतः मक्खी को मारकर काली चींटी के बिलों में सींक से घुसेड़ा करता था। मतलब चींटी को भी आलसी बनाता था।

याद आता है झींगुर भी मारता था। उनकी लंबी मूछ पकड़कर खेला करता था।

बचपन मे अनजाने में बहुत हत्याएं की। कॉकरोच को भी चप्पल से मारने का फैशन था।

है प्रभु। यह शैतान टिल्लू। अब इतना बड़ा हो गया।

अंतिम प्रभु मिलन यणि मोक्ष हेतु सत्व गुण भी सबसे बड़ी रुकावट है। पर इसमें यह अच्छाई है कि यह समय आने पर स्वयम विलीन हो जाता है।

पर फिर हिंसा शब्द क्यो बना। यह चिंतन का विषय है।

लगभग सभी इसी तल पर जीते है। अतः हिंसा अहिंसा का बहुत महत्व है।

कई विद्वानों और संतों का ऐसा मत है कि विष्णु के 24 अवतारों में मानव शरीर की रचना का रहस्य छुपा है। शास्त्रों ने मानव शरीर की रचना 24 तत्वों से जुड़ी बताई है। ये 24 तत्व ही 24 अवतारों के प्रतीक हैं।

क्या हैं ये 24 तत्व: माना जाता है कि सृष्टि का निर्माण 24 तत्वों से मिलकर हुआ है इनमें पांच ज्ञानेद्रियां(आंख,नाक, कान,जीभ,त्वचा) पांच कर्मेन्द्रियां(गुदा,लिंग,हाथ,पैर,वचन) तीन अंहकार(सत, रज, तम) पांच तन्मात्राएं (शब्द,रूप,स्पर्श,रस,गन्ध)पांच तत्व(धरती, आकाश,वायु, जल,तेज) और एक मन शमिल है इन्हीं चौबीस तत्वों से मिलकर ही पूरी सृष्टि और मनुष्य का निर्माण हुआ है।

आप ने मुझे मान सरोवर का पवित्र जल दिया। मैं उनका आभारी रहूंगा।

यह सब माँ काली की और गुरू महाराज की कृपा है कि कितनो की दया इस ग्रुप को मिल रही है।

माँ का आशीष रहेगा तो महावतार बाबा के भी दर्शन हो जायेगे।

मैं समझता हूँ कि इस जल को प्रतिदिन एक बूंद प्रसाद के रूप में ग्रहण करना चाहिए। शिव के जल को शिव को क्या भेंट करना।

मैं तो प्रसाद रूप में स्वयम ही पीना पसन्द करूंगा।

जय शिव शंकर।

जय भोले नाथ।

सही बताऊं हवन की राख। कपूर का अवशेष ईश का चढ़ावा तो मैं स्वयम प्रसाद रूप में खा  लेता हूँ।

उसको क्या दूँ जो सबको देता है। जो दाता है वह ही देता है। मैं तो भिखारी।

अपने मन को इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त करना है कर्म। इसमें हमारी बुद्धि भी सम्मिलित होती है।

अपने चित्त में संचित संस्कारो को क्रिया के माध्यम बिना बुद्धि का उपयोग किये स्वतः होने देना क्रिया।

कर्म हमारे चित्त में संस्कार संचित करता है।

क्रिया हमारे चित्त के संस्कार नष्ट करती है।

ध्यान देनेवाली बात है यदि क्रिया में बुद्धि या मन को लगाया तो यह कर्म बन जाती है।

अतः कर्म में लिपप्ता।

क्रिया में नही।

कर्म हमे गिरा सकते है।

क्रिया हमे उठाने का प्रयास करती है।

कर्म सुप्त मनुष्य का कार्य है।

क्रिया जागृत मनुष्य को ही होती है।

तुम महानात्मा दूसरो को भरम में डालोगे। खुद भरम ने नही आओगे।

एक बात समझो यदि क्रिया के प्रति झुकाव हुआ या मन मे यह भावना आई कि यह क्रिया हो तो वह कर्म बन जाती है। मतलब क्रिया द्वारा संस्कार नष्ट होने की जगह वह क्रिया का अकर्म फिर कर्म बन संस्कार संचित कर देता है।

मेरे एक मित्र है ग्रुप सदस्य है उनका आसान ऊपर उठ जाता था। वह डर कर मेरे पास आये अब ठीक है। उनकी शक्तिपात दीक्षा करवा दी अब मस्त है।

देख जाए तो यह एक सिद्धि है। अब मान लो यह साधन में हुई। पर तुमको अच्छा लगा तुमने फिर यह करने की इच्छा की तो फिर यह हो गया। अब होता क्या है इसी प्रकार अन्य सिद्धियां होती है जो संस्कार पैदा कर देती है और सिद्धिप्राप्त मनुष्य मुक्त नही हो पाता है क्योकि सिद्धि रूपी संस्कार गहरे रूप में संचित हो जाते है।

अतः मुक्ति हेतु उनको कोई योग्य शिष्य ढूढना पड़ता है जिसको सारी सिद्धि विद्या प्रदान के अपने संस्कार को नष्ट कर तब उनको मुक्ति मिले।

अतः मैं कहता हूँ मार्ग में सिद्धि इत्यादि स्वर्ण के टुकड़े है। अब बोझ तो बोझ चाहे पत्थर हो या हीरा। रास्ते मे चलने में रुकावट तो डालेगा ही।

अतः अपने संस्कारो को नष्ट होने दो स्वतः। उसमें दखल मत करो। स्वतः सिद्धियां आ सकती है आने दो कुछ अनुभव देकर चली जायेगी। जाने दो। उनके पीछे भागने से पतन होने की संभावना अधिक है उन्नति होने की कम।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

पहली बात जो आपसे बोला था। क्या आप कर रही है।

दूसरे अपने गुरूमंत्र को जाप कर कर्म करते समय निवेदन करे कि अभी मत होओ। कुछ बार बोले तो यह बन्द हो जाएगी।

यही होता निष्काम कर्म। और यही पातञ्जलि के द्वेतीय सूत्र को समझाता है। कि वह कर्म जब निष्काम होगा तो वह कर्म होते हुए भी करता को संस्कार न देगा तो वह वृत्ति को नही बनेगा।

मतलब। चित्त में वृत्ति का निरोध। यानि वृत्ति नही आई।

अपने मन को इंद्रियों के माध्यम से व्यक्त करना है कर्म। इसमें हमारी बुद्धि भी सम्मिलित होती है।

अपने चित्त में संचित संस्कारो को क्रिया के माध्यम बिना बुद्धि का उपयोग किये स्वतः होने देना क्रिया।

कर्म हमारे चित्त में संस्कार संचित करता है।

क्रिया हमारे चित्त के संस्कार नष्ट करती है।

ध्यान देनेवाली बात है यदि क्रिया में बुद्धि या मन को लगाया तो यह कर्म बन जाती है।

अतः कर्म में लिपप्ता।

क्रिया में नही।

कर्म हमे गिरा सकते है।

क्रिया हमे उठाने का प्रयास करती है।

कर्म सुप्त मनुष्य का कार्य है।

क्रिया जागृत मनुष्य को ही होती है।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।

यही होता निष्काम कर्म। और यही पातञ्जलि के द्वेतीय सूत्र को समझाता है। कि वह कर्म जब निष्काम होगा तो वह कर्म होते हुए भी करता को संस्कार न देगा तो वह वृत्ति को नही बनेगा।

मतलब। चित्त में वृत्ति का निरोध। यानि वृत्ति नही आई।

क्योकि मनुष्य की बुद्धि मन के नीचे चली जाती है अतः राह कठिन प्रतीत होती है।

यही बात है कि मनुष्य आलस्य और निष्काम कर्म में भेद नही कर पाता।

सभी इंद्रियां खुली है और कुछ करने का मन नही वह आलस्य।

जब हमारी इंद्रियां बन्द हो जाये। मन मे तरंग न हो तब यदि कुछ न करने की इच्छा वैराग्य माना जा सकता है।

अज्ञानी के लिए फल ही कर्म हेतु प्रेरित करता है।

ज्ञानी सिर्फ प्रभु आदेश और प्रकृति का नियम समझ कर बिना फल की सोंचे पूरे उत्साह से कर्म करता है।

भगवान श्री कृष्ण ने इसी लिए योग की पहिचान दी है। कर्मेशु कौशलम। मतलब जो अपने निर्धारित कर्म को बिना फल की सोचे पूरे उत्साह से करे। वो योगी के लक्षण है।

सर कलियुग है सोंच सही हो ही नही सकती। पर मन्त्रो में वह शक्ति है कि रावण को राम बना दे। कंस को कृष्ण बना दे।

अतः जो इष्ट देव अच्छा लगे। मन्त्र नाम अच्छा लगे जुट जाओ।

हा पहले mmstm कर लो। यह बेहद सहायक होता है।

क्या आपने mmstm किया।

वृत्तियों का दमन बेहद कठिन कार्य होता है। इसको गुरू प्रददत साधन और बाकी समय मन्त्र जप से किया जा सकता है। प्रणायाम भी इसमें सहायक होता है। और कोई मार्ग नही।

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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इस ब्लाग पर प्रकाशित  मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...