गीता भाग 1।
अर्जुन का विषाद
तत्रापश्यत्स्थितान्
पार्थः पितृनथ पितामहान्।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन् पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥२६॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
आचार्यान्मातुलान्भ्रातृन् पुत्रान्पौत्रान्सखींस्तथा॥२६॥
श्वशुरान् सुहृदश्चैव सेनयोरुभयोरपि।
इसके
बाद पृथापुत्र अर्जुन ने उन दोनों ही सेनाओं में स्थित पिता (ताऊ-चाचा), पितामह, आचार्य, मामा, भाई, पुत्र, पौत्र, मित्र, ससुर और सुहृदों को देखा॥26-27॥
Then Arjun saw his uncles, grand
father, teachers, maternal uncle, brothers, sons and grand sons, in-laws and
well-wishers in both the armies.॥26॥
तान्समीक्ष्य
स कौन्तेयः सर्वान् बन्धूनवस्थितान्॥२७॥
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्।
कृपया परयाविष्टो विषीदत्रिदमब्रवीत्।
उपस्थित
उन सभी बंधुओं को देखकर वे कुंतीपुत्र अर्जुन अत्यन्त करुणा-युक्त होकर शोक करते
हुए यह बोले -॥27-28॥
Seeing his relatives all over there, Arjuna felt
compassion and became sad. He said-॥27-28॥
अर्जुन उवाच -
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥२९॥
दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम्॥२८॥
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति।
वेपथुश्च शरीरे मे रोमहर्षश्च जायते॥२९॥
अर्जुन बोले- हे कृष्ण!
यहाँ मैं युद्ध के अभिलाषी स्वजनों
को ही देखता हूँ। मेरे अंग शिथिल हुए हो रहे हैं और मुख
सूख रहा है और मेरे शरीर में मेरा शरीर काँप रहा है और रोएं खड़े हो रहे हैं॥28-29॥
Arjun
said - O Krishna! I only see my relatives here, wishing to fight us. My body is
becoming weak, mouth dry, my body is trembling with hair erect.॥28-29॥
गाण्डीवं
स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥३०॥
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥३०॥
मेरे
हाथ से गांडीव धनुष गिर रहा है और मेरी त्वचा जल रही है। मैं खड़ा रहने में भी
असमर्थ हो रहा हूँ, मेरा मन भ्रमित-सा हो रहा है॥30॥
My bow, Gandeev is slipping from my
hand and skin is burning. I am not able to even stand erect, my mind is
swirling.॥30॥
निमित्तानि
च पश्यामि विपरीतानि केशव।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥३१॥
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे॥३१॥
हे
केशव! मैं लक्षणों को भी विपरीत ही देख रहा हूँ और युद्ध में स्वजनों को मारकर
किसी प्रकार से कल्याण भी नहीं देखता॥31॥
O Keshav! I am seeing signs of bad
omens only and do not see any gain in killing these relatives.॥31॥
न काङ्क्षे
विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥३२॥
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा॥३२॥
हे
कृष्ण! मैं न तो विजय चाहता हूँ और न राज्य तथा सुखों को ही। हे गोविंद! हमें ऐसे राज्य, भोग और जीवन से क्या लाभ है?॥32॥
O Krishna! I do not desire victory or
kingdom or sensory pleasures. O Govind! what is the use in having such kingdom,
pleasures and life?॥32॥
येषामर्थे
काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥३३॥
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च॥३३॥
हमें
जिनके लिए राज्य, भोग और सुखादि अभीष्ट हैं, वे ही सब धन और जीवन की आशा को त्यागकर युद्ध में खड़े हैं॥33॥
The same people for whom, we desire
kingdom, pleasures and happiness are here to fight with us keeping aside all
the hopes of life and money.॥33॥
आचार्याः
पितरः पुत्रास्- तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥३४॥
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा॥३४॥
आचार्यगण, पिता (ताऊ-चाचा), पुत्र और पितामह, और मामा, ससुर, पौत्र, साले तथा और भी संबंधी॥34॥
Teachers, uncles, sons, grand-father,
maternal uncles, in laws, grand-sons, brothers in law and all other relatives.॥34॥
एतान्न
हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते॥३५॥
हे
मधुसूदन! इनके द्वारा मुझे मारने पर भी अथवा तीनों लोकों के राज्य के लिए भी मैं
इन सबको नहीं मारना चाहता, फिर पृथ्वी के लिए तो बात ही क्या है?॥35॥
O killer of Madhu! Even if they try
to kill me or I am becoming the king of the three worlds on doing so, I am not
interested in killing them. Then why for this trivial kingdom of earth.॥35॥
निहत्य
धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥३६॥
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः॥३६॥
हे
जनार्दन! धृतराष्ट्र के पुत्रों को मारकर हमें क्या प्रसन्नता होगी? इन आततायियों को मारकर तो हमें पाप ही लगेगा॥36॥
O Janardan! What happiness will we
achieve by killing these sons of Dhrutarashtra? On killing these aggressors,
only sin will get attached to us.॥36॥
( आग
लगाने वाला, विष देने वाला, हाथ में शस्त्र लिए हुए,
धन
छीनने वाला, जमीन अथवा पत्नी का हरण करने वाला इन
छः कार्यों को करने वालों को आततायी
कहा गया
है।
नीति शास्त्र के अनुसार सभी आततायी वध के योग्य हैं, उनका वध बिना विचार किये किया जा सकता है और उनके वध में कोई दोष नहीं है।
नीति शास्त्र के अनुसार सभी आततायी वध के योग्य हैं, उनका वध बिना विचार किये किया जा सकता है और उनके वध में कोई दोष नहीं है।
These six are said
aggressors(aattayi) - who sets you or your belongings on fire, giver of poison,
having weapons in his hand for the purpose of killing, snatcher of money,
abductor of land or wife.
As per policy of ethics such aggressors should be killed, they should be killed without much thought and there is no fault in doing so) .
As per policy of ethics such aggressors should be killed, they should be killed without much thought and there is no fault in doing so) .
तस्मान्नार्हा
वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥३७॥
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव॥३७॥
इसलिए हे माधव! हमारे लिए अपने ही बान्धव धृतराष्ट्र-पुत्रों को मारना उचित नहीं हैं क्योंकि अपने ही कुटुम्ब को मारकर हम कैसे सुखी होंगे?॥37॥
O Madhav!, So it is not proper for us
to kill our relatives, the sons of Dhrutarashtra. How can we please ourselves
by killing our relatives ?॥37॥
( यद्यपि नीति की दृष्टि से आततायियों को मारने में कोई दोष नहीं है परन्तु धर्म की
दृष्टि से इनकी सेना में उपस्थित पितामह और आचार्य आदि का वध करना दोषमय
है। धर्मं नीति से प्रबल है इसलिए हमें ऐसा नहीं करना चाहिए।
As per law, there is no fault in
killing these aggressors but according to Dharma, it is sinful to kill
grand-father Bheeshma, teacher Drona, etc who are present in their army. As
religion is far superior than law, we should not do these killings.)
यद्यप्येते
न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥३९॥
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम्॥३८॥
कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम्।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन॥३९॥
यद्यपि
लोभ से भ्रष्ट-चित्त हुए ये लोग कुल के नाश से उत्पन्न दोष को और मित्रों से विरोध करने में पाप को नहीं देखते हैं, तो भी हे जनार्दन! कुल के
नाश से
उत्पन्न दोष को जानने वाले हम लोगों को इस पाप से बचने के लिए प्रयत्न क्यों नहीं करना चाहिए?॥38-39॥
Though, due to their increased greed
they they do not see the demerit in destroying the their dynasty and fighting
with their friends, but O Janardan! we, who know the sin in destruction of
dynasty should try to avoid committing such a sin.॥38-39॥
कुलक्षये
प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नम-धर्मोऽभिभवत्युत॥४०॥
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नम-धर्मोऽभिभवत्युत॥४०॥
कुल के
नाश से सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते हैं और धर्म का नाश हो जाने पर सम्पूर्ण कुल में अधर्म बढ़ जाता है॥40॥
When dynasties are destroyed, their
traditional righteousness and just rituals also get destroyed. And due to the
downfall of righteousness, injustice tends to grow.॥40॥
अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति
कुलस्त्रियः।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥४१॥
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः॥४१॥
हे
कृष्ण! अधर्म के अधिक बढ़ जाने से कुल की स्त्रियाँ दूषित हो जाती हैं और हे वार्ष्णेय! स्त्रियों के दूषित हो जाने पर वर्णसंकर उत्पन्न होता है॥41॥
O Krishna! When injustice grows,
women of the clan lose their sanctity. O Varshneya! And when women lose their
sanctity, kids with a mixture of the castes take birth.॥41॥
संकरो
नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥४२॥
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः॥४२॥
वह वर्णसंकर कुलघातियों को और कुल को नरक में ले जाने के लिए ही होता है। पिण्ड और जल-दान की क्रिया (अर्थात् श्राद्ध और तर्पण) से वंचित
उनके पितर भी अधोगति को प्राप्त होते हैं॥42॥
Such mixed-caste kid leads the
dynasties and their destroyers to hell. Even their ancestors fall from their
place due to discontinuities in the rituals performed for them. ॥42॥
दोषैरेतैः
कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥४३॥
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः॥४३॥
वर्ण-संकरता के कारण होने वाले इन दोषों से कुलघातियों के सनातन कुल-धर्म और जाति-धर्म
नष्ट हो जाते हैं॥43॥
Defects of mixed-caste causes these
destroyer of dynasties to lose their traditional righteousness of dynasty and
caste. ॥43॥
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां
जनार्दन।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥४४॥
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम॥४४॥
हे
जनार्दन! और ऐसा हम सुनते आये हैं कि नष्ट कुल-धर्म वाले मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है॥44॥
O Janardan!, We have heard that those
who destroy the righteousness of their dynasty live in hell for indefinitely
long time.॥44॥
अहो बत
महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम्।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥४५॥
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः॥४५॥
अरे
बड़े दुर्भाग्य की बात है कि हम लोग
राज्य
और सुख के लोभ से स्वजनों को मारने रूपी महान पाप करने को भी उद्यत हैं॥45॥
Alas! We are ready to commit a great
sin by killing our own people for the greed of kingdom and pleasure.॥45॥
यदि
मामप्रतीकारम-शस्त्रं शस्त्रपाणयः।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्-तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥४६॥
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्-तन्मे क्षेमतरं भवेत्॥४६॥
यदि मुझ
सामना न करने वाले और शस्त्ररहित को शस्त्र लिए हुए धृतराष्ट्र के पुत्र रण में मार डालें तो वह मेरे लिए अधिक कल्याण कारी
होगा॥46॥
Even if the armed sons of
Dhrutarashtra kill me, who is not willing to fight and unarmed, it would be
better for my well-being.॥46॥
संजय उवाच -
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४७॥
एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत्।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः॥४७॥
संजय
बोले - इस प्रकार कहकर, रणभूमि में शोक से उद्विग्न मन वाले
अर्जुन, बाण सहित धनुष को त्याग कर रथ के पिछले
भाग में बैठ गए॥47॥
Sanjay said - After saying this, a
visibly dejected Arjuna gave up his bows along with arrows and sat at the back
of his chariot.॥47॥
आत्मज्ञानी गुरु अपने समक्ष बैठे हुए श्रद्धावान और योग्य शिष्य को उसकी मानसिक शांति के लिए ब्रह्म प्राप्ति रूप उपनिषत् का उपदेश करते हैं। यहाँ साक्षात् वासुदेव श्रीकृष्ण स्वयं गुरु हैं और श्रीअर्जुन उनके शिष्य। कपिध्वज अर्जुन की उत्कृष्ट योग्यता के कारण स्वयं भगवान ही उनको यह उपदेश दे रहे हैं। श्रीहनुमान्
बल, बुद्धि, भक्ति इत्यादि सद्गुणों में सबसे
वरिष्ठ माने गए हैं, उनको अपनी ध्वजा में धारण करने वाले श्रीअर्जुन को साधकों में श्रेष्ठ समझना चाहिए। गीता के उपदेशक,
उपदेश
सुनने वाले, विषय, परिस्थिति आदि सभी विशिष्ट हैं इसलिए इसको समस्त
उपनिषदों में श्रेष्ठ और उनका
सार-स्वरुप
माना गया है।
Enlightened guru preach their
disciple, who sits in front of him and is reverent and worthy, for his
mental peace. This instruction lets him attain realization of Ultimate and is
called Upanishat. Here Lord Sri Krishna himself as a guru is directly instructing
his disciple Sri Arjun. Due to exemplary excellence of Arjun, with
Sri Hanuman on his flag, Lord Sri Krishna is imparting this knowledge directly
to him. Sri Hanuman is considered the best in all the good qualities like
power, intelligence, devotion and what not. So, Arjun who has him on top of his
chariot is also considered the best among seekers. In Gita, instructor,
disciple, content, situation, etc. everything is distinguished so it is
considered the best among Upanishads and their essence.
ॐ तत्सदिति
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
श्रीमद्भगवद्गीतासूपनिषत्सु ब्रह्मविद्यायां योगशास्त्रे
श्रीकृष्णार्जुनसंवादेऽर्जुनविषादयोगो नाम प्रथमोऽध्यायः॥१॥
ॐ तत् सत् ! इस प्रकार ब्रह्मविद्या का योग करवाने वाले शास्त्र, श्रीमद्भगवद्गीता रूपी उपनिषत् में श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद रूपी अर्जुन विषाद योग नाम वाला प्रथम अध्याय सम्पूर्ण हुआ॥
Om That is Truth! This completes the
first chapter of Srimadbhagwad Gita, an Upanishat to unify one with Lord. First
chapter depicts conversation between Sri Krishna and Arjun, and is named as
"Disappointment of Arjun.
गीता के प्रथम अध्याय में यह
प्रश्न स्व व्याखित हैं। अत: किसी भी प्रकार की व्याख्या की आवश्यकता नही है।
(गूगल से साभार)
ब्लाग
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की
वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास
विपुल खोजी
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