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Tuesday, September 25, 2018

सत्य, असत्य सांख्य और योग: कुछ उत्तर




 सत्य, असत्य सांख्य और योग: कुछ उत्तर

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



सत्य सनातन के अमिट अनुपम अद्वितीय पर्व गुरू पूर्णिमा पर आप सबको विपुल लखनवी की अनेकों बधाई।।


सत्य वह जो समय के साथ परिवर्तित न हो। असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये। यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य।
अब अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है।

अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदानन्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है।
यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा यह अनुभूति देता है।
जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है।
कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही।
मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान योग है। यही ज्ञान है।

दूसरे ईश का अंतिम स्वरूप निराकार ही है। वह निर्गुण ही है। यह अनुभव करना। साकार तो सिर्फ आनन्द हेतु जीवन मे रस हेतु आवश्यक है। मतलब दोनो क्या है यह समझ लेना। अनुभव के लेना ही अंतिम ज्ञान है। सिद्धियां तो बाई प्रॉडक्ट है और भटकाने के लिए होती है। यह हीरे जेवरात हमे भटकाने के लिए होते है। हमे यदि स्वतः हो जाये तो इन सिद्धियों का अनुभव ले कर इनको भूल जाना चाहियें। इसमें फंसना यानी गिरना। मुक्ति में बाधा।
यह ज्ञान प्राप्त करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।

मित्र मैं साकार में क्या देखता हूँ। मूर्ति में क्या सोंचता हूँ। यह आप जान चुके है। आप धन्य है। मैं अभी तक नही जान पाया वो आप जानते है। आप महान है।
प्रभु मैं अज्ञानी मूर्ति में ही खुश। क्या करूँ अज्ञानता का सागर है मुझमे।
निराकार में क्या क्या किया या जाना यह भी आप जानते होंगे।
पर मैं साकार सगुण में ही आनन्द लेता हूँ। मुझे किंतने भी निराकार के अनुभव हो। मैं पुनः साकार में ही रहना चाहता हूँ। हा अंतिम समय मे निराकार धारण कर लूंगा। मुक्ति हेतु।
पर मैं यही जानता हूँ जो साकार से निराकार की यात्रा करता है उसी को पूर्ण व्यान मिल पाता है।

मित्र अनुभव एक अवस्था होती है। हमारे संचित संस्कार साधन में एक एक कर क्रिया के माध्यम से बाहर आते है। यह क्रिया आंतरिक या वाहीक कुछ भी हो सकती है। जब चित्त के कुछ विशिष्ट संस्कार नष्ट हो जाते है तो वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। अतः इन अनुभवों हेतु आसक्ति या विरक्ति कुछ भी नही होनी चाहिए।
कुछ लोग विशेष अनुभव हेतु अपनी ओर से कोशिश करते है जो गलत है दूसरे यह हानिकारक भी हो सकता है। जैसे 100 पेज की पुस्तक को आपको पहले पेज से ही पढ़ना पड़ेगा। यदि आप बीच का पेज खोलेंगे तो आपको कुछ समझ मे भी न आएगा। साथ ही कुछ ऐसा हुआ जिसके पहले कुछ विशेष माइंड सेट अप या बॉडी सेट अप चाहिए पर वह आप पर नही तो गलत हो सकता है।
अत जो होता है सिर्फ दृष्टा भाव से देखो। लिप्त मत हो।

शक्तिपात दीक्षा के बाद अपने ही ग्रुप में कुछ लोगो को खेचरी उड्डयन और जालंधर बन्ध स्वतः ऐसे लगते है जैसे बच्चों का खेल हो।
कुण्डलनी शक्ति जो आवश्यक होता है वही क्रिया करवा कर आगे बढ़ जाती है। 
अतः चिंता न करे।
यह क्रिया आपके पूर्व जन्म के आकाश भृमण की क्रिया है। शायद आप पक्षी थे। 

मुझे हंसी भी आती है रोना भी आता है। फेस बुक पर गुरु लोग मिल जाते है। एक गुरु के नाम के आगे खेचरी सिद्ध महायोगी लिखा हुआ था।
मतलब खेचरी इतनी तोप है यह हुई तो आप महायोगी हो गए।
योग का न अनुभव न ज्ञान पर चुकी खेचरी हो जाती है तो महायोगी हो गए।
मित्रो। मुझसे मेरे मित्र पत्रकार जो ग्रुप के सदस्य भी है। उन्होंने बोला आप कविता पुस्तक हेतु महाराष्ट्र अकादमी व अन्य जगह अप्लाई करे। मेरे मन से आवाज क्या तुम अपनी कला जो माँ सरस्वती की देन है उसकी कीमत लगवाओगे। क्या इस कला को धन से पुरस्कार से तौलोगे। मैंने मन की सुनी आवेदन नही किया।
मुझे मेरे मित्र ने जो इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक है बोले। यार m.tech हो phd कर डालो। आराम से हो जाएगी। 
मेरे मन कहा। अब phd का क्या फायदा 2 साल में रिटायर। यह सिर्फ तुम्हारा सिर्फ अहंकार ही पोषित करेगा। मैंने phd हेतु निवेदन नही किया।
आप मित्र बताये यह गलत या सही।


यह उदाहरण है मन और बुद्धि का। यहाँ मन ने बुद्धि की बात मानी।
मैंने एक लेख में इन्ही का जिक्र किया है। प्राण फंस गए। न अंदर न बाहर। यह नतीजा होता है बिन समर्थ गुरू साकार गुरू के समाधि का प्रयास करना। हालाँकि यह यदा कदा होता है पर यह आपके साथ नही हो सकता है क्या।
कारण इनके चेले इनको इसी अवस्था मे नहला धुला रहे है। पर यह न आंख खोल पाते है न कुछ खा पाते है। पर है जिंदा।
मैं गलत भी हो सकता हूँ। हो सकता है यह समाधि का कोई और तरीका हो। मात्र फोटो से सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है।
स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने भी ऐसे एक साधु का जिक्र किया था।
यह बात उनको समझनी चाहिए जो एक ही की रट लगाए बैठे रहते है। 

मजा लो यह शक्ति का खेल। नशा तो बन्द कर दिया है न।
एक ज्ञान यह भी। जानना जरूरी है।
अब अंदर का मजा लो। बाहर का बन्द कर दो।
यह जगत है  इसमें रह कर ही सब करना पड़ेगा। इसको छोड़ने की सोंचना कायरता है।
मुझे भी अभी 2 साल नौकरी करनी है।
कायर मत बनो। पुरुषार्थ जगत छोड़ने में नही।
दो रोटी के कारनै , साथ झमेला यार। 
राम राम को तू भजे, कर दे बेड़ा पार।
यह हुआ दोहा। 
न बुद्ध बनो न महावीर। बनना है तो कृष्ण बनो।
कार्य कोई भी छोटा बड़ा नही होता। सब कार्य बराबर होते है । हा बाजार भाव के कारण मूल्य अलग हो सकते है।
जब किसी को किसी मन्त्र के जाप से कोई अनुभव या क्रिया होने लगती है तो वह प्रायः मात्र व्यक्ति विशेष की अनुभूति होती है। सबको नही भी हो सकती है। क्योंकि हर व्यक्ति के कर्म और प्रारब्ध अलग होते है।
दूसरे हर व्यक्ति को अनुभूतिया भी अलग हो सकती है। क्रिया के करोड़ो रूप हो सकते है।

मैं जानता हूँ कुछ मित्रो को जिनको मात्र कुछ सालों में नवार्ण मन्त्र के जाप से कुण्डलनी जागृत हो गई। देव दर्शन हो गई। काली मन्त्र के जाप से 3 साल में काली मां प्रकट हो गई। किंतने 25 साल से गायत्री कर रहे है सिर्फ कुछ अनुभूतिया हुई।
इसका यह मतलब नही की कौन मजबूत कौन कमजोर। हर मन्त्र हर नाम जप करोड़ो द्वारा सिद्ध किये जा चुके है। जितना राम या कृष्ण शक्तिशाली उतना शक्तिशाली और मन्त्र नही भी हो सकता है।
मन्त्र और नाम जप के परिणाम व्यक्ति विषेश पर ही निर्भर हैं। किसी मन्त्र या नाम जप पर नही।
सब बराबर है बस करो तो उसका नाम या मन्त्र जप।
लीन हो जाओ। करो सतत निरन्तर निर्बाध सदैव। हो जाओ समर्पित। कर लो प्रेम।
इसी में तुम्हरा कल्याण है। सब एक है अनन्त है। बस तुम मूर्ख हो जो अलग देखते हो।
जय महाकाली। जय गुरूदेव।

अहंकार यानि मेरा वास्तविक स्वरूप आकार। वह क्या है जो गीता में बताया है। यह योग के द्वारा जब योग घटित होकर अनुभव देता है तब ज्ञात होता है।
अहंकार यानि घमंड जो वाहीक ज्ञान के कारण अज्ञानता के कारण होता है।
अंतर्मुखी होने के बाद जब हमे अपनी आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव होता है। वेदांत उसे योग कहता है । यह क्षणिक होता है पर ज्ञान और अनुभव के पिटारे दे जाता है।
फिर धीरे धीरे हम निष्काम कर्म की ओर स्वतः अग्रसर होते है तो हमे कर्म योग का अनुभव होता है। जिसके लक्षण गीता में बताये जो समत्व, स्थिर बुद्धि और स्थित प्रज्ञ हो जाता है। स्थित प्रज्ञ वह जिसका मन बुद्धि अहंकार मुझमे ही लीन हो। यानी जो आत्मस्वरूप में लीन हो जाये। इसी को आगे बढाते हुए तुलसीदास ने कहा। जिसमे संतोष आ जाये। यानि जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिए। यहाँ निष्क्रिय नही बल्कि कर्म करो पर फल की चिंता छोड़ दो।
जब मैं ही ब्रह्म हूँ इसकी अनुभूति होती है। मेरी आत्मा ही परमात्मा है। इसका अनुभव होता है। तो घटित होता है ज्ञान योग।
यह सारी अवस्थाये अनुभव अनूभूति की है। किताबे बेकार।
पातञ्जलि ने यही कहा। जब हम कर्म करते है तब हमारे मन मे कोई भाव न उतपन्न होने से हमारी चित्त में कोई वृत्ति उतपन्न नही होती । वह ही योग है।

जी प्रारम्भ योग कुछ क्षणों के लिए ही होता है। किंतु यह सब कुछ दे जाता है। पर अपने कर्मो के द्वारा यह हमारे में परिलक्षित होना चाहिए। यह होने के बाद ज्ञान मिलता है पर यदि मनुष्य सही मार्ग से भटक जाए तो वह ज्ञान सहित पतन की ओर भी अग्रसर हो सकता है।
अतः मनुष्य को खान पान संगत और पंगत पर ध्यान देना चाहिए।
ज्ञान ग्रंथी खुलने पर ज्ञान को प्रचारित करने का तूफान आता है। क्योंकि आत्म गुरू जागृत हो जाता है।

वास्तव में यह परीक्षा होती है। योग के बाद शक्ति आ जाती है किसी को भी क्रिया करवाने की किसी की भी कुण्डलनी खोलने की। अतः मनुष्य बिना गुरू आदेश के या परम्परा के गुरू बनना चाहता है। जो धीरे धीरे शक्ति ह्वास होने से नीचे गिरता है।
बड़ी कठिन है राह पनघट की।
ध्यान प्रयास सतत करते रहने से मनुष्य बचा रहता है।
तब यह पुरावृति समय समय पर घटित होने लगती है। धीरे धीरे इसकी अवधि स्वतः बढ़ेगी। हम सिर्फ सत्मार्ग की ओर अपनी शक्ति बचाते हुए चले।
यदि गुरू बन गए तो पतन निश्चित।
जो ईश्वर से मांगता है वह सबसे बड़ा भिखारी। स्वामी विविकानन्द
मित्र योग के अनुभव की अवस्था कुछ पलों की ही होती है।
अहम ब्रह्मासमी। सोअह्म। शिविहम योग यह सब कुछ पलों के ही अनुभव होते है। परन्तु सब दे जाते है। 
मेरी बात शिव और कृष्ण भी न काट सकते। यदि यह हमेशा है तो लोगो के भरम।
अब क्या बोलूं इसके आगे।

कृष्ण और युधिष्ठिर का किस्सा सर्वविदित है।
इस दशा की समयाविधि कुछ पलों से कुछ मिनट तक ही होती है।
हा नशा आनन्द लगातार रह सकता है। एक अवश्था के बाद जरा सा ध्यान किया चाय पीते पीते ही सही। सर टुन्न और नशा और आनन्द चालू।
नशा लगातार रह सकता है। पर यह योग की अवस्था नही।
समाधि स्वयं लग जाती है। अब यह कौन सी यह बताना मुश्किल।
प्रकाश इत्यादि मात्र क्रियाये और बेहद आरंभिक स्तर की अनुभूति।
यह सब कर्मो में दिखना चाहिए। किसी ने पुरुस्कार दिया। खुश दुनिया को बताते फिरे। यह योगी के लक्षण नही।
कुछ करने का मन नही होता। मतलब आलस्य वाला नही। मतलब किसी प्रकार की घटना से कोई प्रभाव नही। किसी ने गाली दी चलेगा। कोई अंतर नही। किसी ने सम्मान दिया कोई फर्क नही। 
धन डूब गया। चलेगा। मिल गया चलेगा। किसी से मोह नही। कोई अपना नही सिर्फ कर्तव्य का बोध। 
यह योगी के लक्षण है।
जिसे गीता ने समझाया है।

जब इस अवस्था मे अपने कर्म कुशलता से किया जाए तो पातंनजली की बात। हमारे चित्त में वृत्ति नही आएगी।


गुरू महाराज के अनुसार यदि कर्म भी क्रिया रूप में हो तो संस्कार संचित नही होते।
महाराज जी का यह वाक्य ही बड़े बड़े ज्ञानी समझ नही पायेगे।
अब अपने अनुभव से क्रिया और कर्म समझो। तो कुछ समझ पाओगे।


एक बात समझ लो इतने भार के साथ वर्षो बाद सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर सिर्फ और सिर्फ महाराज जी की वाणी पर अमल कर के ही चढ़ पाया था।
पहाड़ी पर चढ़ना एक क्रिया कर्म था। अतः कोई थकान भी नही आई।
यदि किसी कर्म को क्रिया रूप में लेलो तो वह कर्म सहज हो जाता है। और संस्कार संचित नही होते।
सँ लिप्तता के बिना कर्म कैसे होगा। पर फल क्रिया के कारण  पैदा नही होगा।
एक बात और यदि पापी भी प्रभु का नाम जपता है तो तर जाता है। प्रभु स्मरण और भक्ति तुमको सब दे देती है गुरू से ज्ञान तक। ध्यान से समाधि तक। शून्य से अनन्त तक सारे ज्ञान सारे अनुभव। अतः यदि भला चाहते हो तो न चाहते हुए भी जो देव अच्छा लगे। उसका सतत निरन्तर निर्बाध मन्त्र जप और नाम जप। उसका ध्यान करते रहो करते रहो।


कुछ उदाहरण है वेदों से। जब यह सब कर्म से  ब्राह्मण बन गए। अर्थात ब्रह्म का वरण कर लिए। 
(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। 

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। 

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)

(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(6) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने


(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना


(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ


(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे


(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया


विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया


(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुये और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया

 कट पेस्ट पर बेहद दुर्लभ।
सांख्यदर्शन के कुछ स्मरणीय अंश

* सांख्यदर्शन के प्रवर्तक - देवहूति और कर्द्दम के पुत्र महर्षि कपिल ।
* सांख्य शब्द का अर्थ - समुपसर्गात् "ख्या" ( प्रकाशने) धातुः , 'अङ्ग' प्रत्यये 'टाप्' प्रत्यये च संख्याशब्दस्य निष्पत्ति:। ततः 'तस्येदम्' इत्यनेन ' अण्' प्रत्यये सांख्यम् इति पदस्य निष्पत्ति:।

* सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ - षष्टीतन्त्रम् , तत्त्वसमास , सांख्यप्रवचनसूत्र , सांख्यषडाध्यायी।

* कपिलमुनि के शिष्यों के नाम क्रमशः - आसुरी, पंचशिख, ईश्वरकृष्ण , भार्गव , उल्लूक , वाल्मीकि , हारीत , वार्षगण्य , वशिष्ठ , गर्ग।

* ईश्वरकृष्ण के द्वारा आर्या छन्द में सांख्यकारिका की गई।

* सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्वों का विचार है।
वे तत्त्व है - पुरुष, प्रकृति, महत्( बुद्धि) , अहङ्कार, पञ्चतन्मात्राएँ ( रूप , रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द) , मन, पञ्चज्ञानेन्द्रिया( चक्षु , रसना, घ्राण, त्वक, श्रोत्र) पञ्चकर्मेन्द्रिया ( वाक् , पाणि , पाद , पायु, उपस्थ) पञ्चमहाभूत ( पृथ्वी , आप , तेज , वायु, आकाश ) 

* इन पच्चीस तत्त्वों को चार भागों में विभाजित किया गया है।
1 . केवलप्रकृति - (प्रकृति अथवा प्रधान) 2. प्रकृतिविकृति - ( महद् , अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ ) 
3. केवलविकृति - ( पञ्चकर्मेन्द्रिया, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, मन, पञ्चमहाभूत ) 4. न प्रकृति न विकृति - ( पुरुष) 

सांख्यदर्शनानुसार दुःख तीन प्रकार के होते हैं।
1. आदिदैविक। 2. आदिभौतिक । 3 . आध्यात्मिक । ( शारीरिक , मानसिक) 

* सत्कार्यवाद - सत एव सज्जायते इति।
सत्कार्यवाद के पांच प्रमाण - 
1. असदकरणात्। 2. उपादानग्रहणात्। 3. शक्तस्य शक्यकरणात्। 4. सर्वसम्भवाभावात्।
5. कारणभावात्।

* प्रकृति की सिद्धि के पाँच कारण।
1. कारणकार्यविभागात्। 2. अविभागाद्वैश्वरूस्य। 3. शक्तित: प्रवृत्तेश्च। 4. परिमाणात्।
5. समन्वयात्।

* सांख्यदर्शन तीन प्रमाणों को स्वीकृती देता है।
1 . प्रत्यक्ष। 2. अनुमान। 3. शब्द।

*अनुमान तीन प्रकार के होते है।
1. पूर्ववत्  2. शेषवत् 3. सामान्यतोदृष्ट।

* प्रत्ययसर्ग चार प्रकार के होते है।
1. विपर्यय। 2. अशक्ति। 3. तुष्टि। 4. सिद्धि।

* विपर्यय पाँच प्रकार के होते है।
1. तम।     2. मोह।     3. महामोह।   4. तामिस्र । 5 . अन्धतामिस्र।

* अशक्ति 28 प्रकार के होते है - 
आंध्य , बाधिर्य, अजिघ्रत्व, मूकत्व , जणत्व, कुंठित्व,

आनन्द लो कृष्ण अनुभूति का। जीवन रसमय रहेगा।
आह। आनन्द आनन्द। परमानन्द। जय महाकाली गुरुदेब। क्या नशा दिया। बस उड़ने लगे। अब आगे क्या। राम जाने।
यह नशा जो पीता है सिर्फ वोही बता सकता है। बाकी सिर्फ मुह पीटेंगे।


किसी मित्र ने पूछा था कि शिव और शक्ति का मानव रूप में आना सम्भव क्यो नही। 
देखो मित्र कृष्ण विष्णु के रूप। विष्णु इस दृश्यमान जगत के मालिक। क्योकि उनकी पत्नी कौन शक्ति कौन लक्ष्मी। लक्ष्मी की आवश्यकता पड़ती है जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व तक बस। यानि विष्णु मालिक जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व। तो इस रूप में कौन आ सकता है। 

दूसरे मानव यानि आठ कला का पुतला। उसका मालिक विष्णु। इस कला में क्षमता नही कि शिव और शक्ति की कला जो आठ से अधिक उसको वहन कर सके। पर सिद्ध पुरुष 12 कला तक यानि वे शिव शक्ति से सायुज्य प्राप्त कर सकते है। पर पूरे शिव नही।
अतः श्री कृष्ण जो 16 कला के थे सिर्फ उन्हीं का रूप मानव की 8 कला तक की योनि में आ सकता है।
जय श्री कृष्ण।

एक बात और यदि आप साकार में किसी की भी पूजा करे। आपके बजरंग बली सहायक रहते है। पर कृष्ण भी साकार में स्वतः आकर आपको निराकार का अनुभव करा देते है। 
ग्रुप के एक सदस्य की माँ माता जी के सायुज्य में है। पर उनको कृष्ण दर्शनाभूति हुई। वे परेशान। मेरे पास सन्देश आया। पर इसका अर्थ है अब उन्हें शीघ्र ही निराकार की अनुभूति कृष्ण करायेगे।

जय श्री कृष्ण।


3 comments:

  1. सत्य असत्य सांख्य एवम् योग पर आप का अति सुन्दर रोचक ओर सारगभर्रित लेख पढा।वस्तुतः सांख्य एवम् योग कोई एक दूसरे से भिन्न,विसंगत और विरोधी दो शस्त्र नहों हैं अपितू अपने मूल सिधान्त और लक्ष्य में एक ही हैं। वे केवल अपनी साधन-प्रक्रिया में ओर प्रारिम्भक स्थल में भिन्न हैं।सांख्य बौधिक विवेक और हमारी सत्ता के तत्वों के विशलेषन रूप साधन से प्रारम्भ होता है और योग कर्मो को साधन मान कर प्रगति करता है;अन्त में दोनों मार्ग मिल जाते हैं और एक ही लक्ष्य पर पहुंचाते हैं।अपने पूर्ण स्वरूप में इनमें से प्रत्येक दूसरे को अन्तर्गत करता है।सांख्य शस्त्र की विवेचना हेतु आप को कोटी धन्यवाद।

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    1. सर "सांख्य योग क्या है" इस पर मेरा एक अनुभूतिगत लेख भी ब्लाग पर है। कृपया अवलोकन करें।
      धन्यवाद

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  2. धन्यवाद श्रीमान। बस सनातन की सत्यता को जगत के सामने लाना चाहता हूं।

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