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Tuesday, September 25, 2018

क्यों हो जाते हैं निराकार उपासक नास्तिक



क्यों हो जाते हैं निराकार उपासक नास्तिक
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


आप इतिहास उठाकर देखें। वैदिक काल से लेकर अब तक जो भी निराकार के उपासक हुये हैं अधिकतर या 99 प्रतिशत अनीश्वरवादी यानि नास्तिक ही हो जाते हैं। आप कपिल मुनि जो सांख्य दर्शन के जनक माने जाते हैं। सांख्य दर्शन की सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें सृष्टि की उत्पत्ति भगवान के द्वारा नहीं मानी गयी है बल्कि इसे एक विकासात्मक प्रक्रिया के रूप में समझा गया है और माना गया है कि सृष्टि अनेक अनेक अवस्थाओं से होकर गुजरने के बाद अपने वर्तमान स्वरूप को प्राप्त हुई है। कपिलाचार्य को कई अनीश्वरवादी मानते हैं पर भग्वदगीता और सत्यार्थप्रकाश जैसे ग्रंथों में इस धारणा का निषेध किया गया है।  वहीं चार्वाक दो कदम आगे आये। चार्वाक दर्शन एक भौतिकवादी नास्तिक दर्शन है। यह मात्र प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है तथा पारलौकिक सत्ताओं को यह सिद्धांत स्वीकार नहीं करता है। यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है। वेदबाह्य दर्शन मतलब वेद के विपरीत और उल्टी बात्। यह छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।

कपिल और चारवाक के बीच के विचार लेकर आये गौतम बुद्ध। जहां बौद्ध दर्शन की स्थापना हुई पर यह भी चार अलग विचारधाराओं में बंट गया। फिर इनके बाद जो हुये उनका वर्णन नहीं मिलता है। चलिये पहले कुछ इनको जान ले।

कपिल: कपिल प्राचीन भारत के एक प्रभावशाली मुनि थे। इन्हें सांख्यशास्त्र (यानि तत्व पर आधारित ज्ञान) के प्रवर्तक के रूप में जाना जाता है जिसके मान्य अर्थों के अनुसार विश्व का उद्भव विकासवादी प्रक्रिया से हुआ है। कई लोग इन्हें अनीश्वरवादी मानते हैं लेकिन गीता में इन्हें श्रेष्ठ मुनि कहा गया है। कपिल ने सर्वप्रथम विकासवाद का प्रतिपादन किया और संसार को एक क्रम के रूप में देखा। संसार को स्वाभाविक गति से उत्पन्न मानकर इन्होंने संसार के किसी अति प्राकृतिक कर्ता का निषेध किया। सुख दु:ख प्रकृति की देन है तथा पुरुष अज्ञान में बद्ध है। अज्ञान का नाश होने पर पुरुष और प्रकृति अपने-अपने स्थान पर स्थित हो जाते हैं। अज्ञानपाश के लिए ज्ञान की आवश्यकता है अत: कर्मकांड निरर्थक है। ज्ञानमार्ग का यह प्रवर्तन भारतीय संस्कृति को कपिल की देन है। यदि बुद्ध, महावीर जैसे नास्तिक दार्शनिक कपिल से प्रभावित हों तो आश्चर्य नहीं। आस्तिक दार्शनिकों में से वेदान्त, योग दर्शन और पौराणिक स्पष्ट रूप में सांख्य के त्रिगुणवाद और विकासवाद को अपनाते हैं। इस प्रकार कपिल प्रवर्तित सांख्य का प्रभाव प्राय: सभी दर्शनों पर पड़ा है। 700 वर्ष ई.पू. कपिल का काल माना जा सकता है। कपिल को आदिसिद्ध अथवा सिद्धेश कहने का अर्थ यह है कि संभवत: कपिल ने ही सर्वप्रथम ध्यान और तपस्या का मार्ग बतलाया था। उनके पहले कर्म ही एक मार्ग था और ज्ञान केवल चर्चा तक सीमित था। ज्ञान को साधना का रूप देकर कपिल ने त्याग, तपस्या एवं समाधि को भारतीय संस्कृति में पहली बार प्रतिष्ठित किया। र विचार तो इनसे पहले पातांजलि मुनि धारणा ध्यान समाधि ले कर आये थे।

सांख्य में प्रकृति और पुरुष ये दो तत्व माने गए हैं। प्रकृति को सत्व, रजस्‌ और तमस्‌ इन तीन गुणों से निर्मित कहा गया है। त्रिगुण की साम्यावस्था, प्रकृति और इनके वैषम्य से सृष्टि होती है। सृष्टि में कुछ नया नहीं है, सब प्रकृति से ही उत्पन्न है। संसार प्रकृति का परिणाम मात्र है। सत्कार्यवाद और परिणामवाद के प्रवर्तक के रूप में सांख्य की प्रसिद्धि है। 

 
पुराणों तथा 'सांख्यप्रवचनसूत्र' के अनुसार पुरुषों के ऊपर एक पुरुषोत्तम भी माना गया है। यह पुरुषोत्तम या ईश्वर पुरुष को मोक्ष देता है। परंतु प्राचीनतम उपलब्ध सांख्य ग्रंथ 'सांख्यकारिका' के अनुसार ईश्वर को सांख्य में स्थान नहीं है। स्पष्टत: कपिल भी निरीश्वरवादी थे, सेश्वर सांख्य (ईश्वरवादी सांख्य) का विकास बाद में हुआ।

सांख्य में पचीस तत्व माने गए हैं। पुरुष, पुरुष की संनिधियुक्त प्रकृति से महत्‌ या बुद्धि, बुद्धि से अहंकार, अहंकार से पाँच तन्मात्राएँ अथवा सूक्ष्म भूत और मन, पाँच तन्मात्राओं से पाँच ज्ञानेंद्रियाँ, पाँच कर्मेद्रियाँ और पाँच स्थूलभूत उत्पन्न होते हैं। इनमें से प्रकृति किसी से उत्पन्न नहीं है, महत्‌ अहंकार और तन्मात्राएँ, ये सात प्रकृति से उत्पन्न हैं और दूसरे तत्वों को उत्पन्न भी करते हैं। बाकी सोलह तत्व केवल उत्पन्न हैं, किसी नए तत्व को जन्म नहीं देते। अत: ये सोलह विकार माने जाते हैं, प्रकृति अविकारी है, महत्‌ आदि सात तत्व स्वयं विकारी हैं और विकार उत्पन्न भी करते हैं।

जैन दर्शन: जैन दर्शन इस संसार को किसी भगवान द्वारा बनाया हुआ स्वीकार नहीं करता है, अपितु शाश्वत मानता है। जन्म मरण आदि जो भी होता है, उसे नियंत्रित करने वाली कोई सार्वभौमिक सत्ता नहीं है। जीव जैसे कर्म करता है, उन के परिणाम स्वरुप अच्छे या बुरे फलों को भुगतने क लिए वह मनुष्य, नरक देव, एवं तिर्यंच (जानवर) योनियों में जन्म मरण करता रहता है।

इसमें अहिंसा को सर्वोच्च स्थान दिया गया है। जैन धर्म की मान्यता अनुसार 24 तीर्थंकर समय-समय पर संसार चक्र में फसें जीवों के कल्याण के लिए उपदेश देने इस धरती पर आते है। लगभग छठी शताब्दी ई॰ पू॰ में अंतिम तीर्थंकर, भगवान महावीर के द्वारा जैन दर्शन का पुनराव्रण हुआ । इसमें वेद की प्रामाणिकता को कर्मकाण्ड की अधिकता और जड़ता के कारण मिथ्या बताया गया। जैन दर्शन के अनुसार जीव और कर्मो का यह सम्बन्ध अनादि काल से है। जब जीव इन कर्मो को अपनी आत्मा से सम्पूर्ण रूप से मुक्त कर देता हे तो वह स्वयं भगवान बन जाता है। लेकिन इसके लिए उसे सम्यक पुरुषार्थ करना पड़ता है। यह जैन धर्म की मौलिक मान्यता है।

जैन दर्शन के प्रमुख ग्रन्थ प्राकृत (मागधी) भाषा में लिखे गये हैं। बाद में कुछ जैन विद्धानों ने संस्कृत में भी ग्रन्थ लिखे। उनमें १०० ई॰ के आसपास आचार्य उमास्वामी द्वारा रचित तत्त्वार्थ सूत्र बड़ा महत्वपूर्ण है। वह पहला ग्रन्थ है जिसमें संस्कृत भाषा के माध्यम से जैन सिद्धान्तों के सभी अंगों का पूर्ण रूप से वर्णन किया गया है। इसके पश्चात् अनेक जैन विद्वानों ने संस्कृत में व्याकरण, दर्शन, काव्य, नाटक आदि की रचना की। संक्षेप में इनके सिद्धान्त इस प्रकार हैं-

बौद्ध दर्शन: बौद्ध दर्शन से अभिप्राय उस दर्शन से है जो भगवान बुद्ध के निर्वाण के बाद बौद्ध धर्म के विभिन्न सम्प्रदायों द्वारा विकसित किया गया और बाद में पूरे एशिया में उसका प्रसार हुआ। 'दुःख से मुक्ति' बौद्ध धर्म का सदा से मुख्य ध्येय रहा है। कर्म, ध्यान एवं प्रज्ञा इसके साधन रहे हैं। बुद्ध के उपदेश तीन पिटकों में संकलित हैं। ये सुत्त पिटक, विनय पिटक और अभिधम्म पिटक कहलाते हैं। ये पिटक बौद्ध धर्म के आगम हैं। जैन संप्रदाय वेदांत के समान ध्यानवादी है।

बुद्ध द्वारा सर्वप्रथम सारनाथ में दिये गये उपदेशों में से चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं :- ‘दुःखसमुदायनिरोधमार्गाश्चत्वारआर्यबुद्धस्याभिमतानि तत्त्वानि।’ अर्थात् -
1. दुःख- संसार दुखमय है। 2. दुःखसमुदाय दर्शन- दुख उत्पन्न होने का कारण है (तृष्णा) 3. दुःखनिरोध- दुख का निवारण संभव है 4. दुःखनिरोधमार्ग- दुख निवारक मार्ग (आष्टांगिक मार्ग)

बुद्ध के अनुयायियों में मतभेद के कारण कई संप्रदाय बन गए।
वैभाषिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थ प्रत्यक्षवाद : ये अर्थ को ज्ञान से युक्त अर्थात् प्रत्यक्षगम्य मानते हैं।
सौत्रान्तिक सम्प्रदाय (बाह्यार्थानुमेयवाद): ये बाह्यार्थ को अनुमेय मानते हैं। यद्यपि बाह्यजगत की सत्ता दोनों स्वीकार करते हैं, किन्तु दृष्टि के भेद से एक के लिए चित्त निरपेक्ष तथा दूसरे के लिए चित्त सापेक्ष अर्थात् अनुमेय सत्ता है। सौत्रान्तिक मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी है।
योगाचार सम्प्रदाय (विज्ञानवाद): इनके अनुसार बुद्धि ही आकार के साथ है अर्थात् बुद्धि में ही बाह्यार्थ चले आते हैं। चित्त अर्थात् आलयविज्ञान में अनन्त विज्ञानों का उदय होता रहता है। क्षणभंगिनी चित्त सन्तति की सत्ता से सभी वस्तुओं का ज्ञान होता है। वस्तुतः ये बाह्य सत्ता का सर्वथा निराकरण करते हैं। इनके यहाँ माध्यमिक मत के समान सत्ता दो प्रकार की मानी गई है-
अ) पारमार्थिक ब) व्यावहारिक।
व्यावहारिक में पुनश्च परिकल्पित और परतन्त्र दो रूप ग्राह्य हैं। यहाँ चित्त की ही प्रवृत्ति तथा निवृत्ति (निरोध, मुक्ति) होती है। सभी वस्तुऐं चित्त का ही विकल्प है। इसे ही आलयविज्ञान कहते हैं। यह आलयविज्ञान क्षणिक विज्ञानों की सन्तति मात्र है।
माध्यमिक सम्प्रदाय (शून्यवाद) : यहाँ बाह्य एवम् अन्तः दोनों सत्ताओं का शून्य मेंं विलयन हुआ है, जो कि अनिर्वचनीय है। ये केवल ज्ञान को ही अपने में स्थित मानते हैं और दो प्रकार का सत्य स्वीकार करते हैं-

 
अ) सांवृत्तिक सत्य :- अविद्याजनित व्यावहारिक सत्ता। ब) पारमार्थिक सत्य :- प्रज्ञाजनित सत्य
बौद्धों के इन चारों सम्प्रदायों में से प्रथम दो का सम्बन्ध हीनयान से तथा अन्तिम दोनों का सम्बन्ध महायान से है। हीनयानी सम्प्रदाय यथार्थवादी तथा सर्वास्तिवादी है, जबकि महायानी सम्प्रदायों में से योगाचारी विचार को ही परम तत्त्व तथा परम रूप में स्वीकार करते हैं। माध्यमिक दर्शन एक निषेधात्मक एवं विवेचनात्मक पद्धति है। यही कारण है कि माध्यमिक शून्यवाद को 'सर्ववैनाशिकवाद' के नाम से भी जाना जाता है।

 
हीनयान तथा महायान की अन्यान्य अनेक शाखाएँ हैं, जो कि प्रख्यात नहीं हैं:
हीनयान यानि निम्न वर्ग(गरीबी) अथवा 'स्थविरवाद' रूढिवादी बौद्ध परम्परा है हीनयान एक व्‍यक्त वादी धर्म था इसका शाब्दिक अर्थ है निम्‍न मार्ग। यह मार्ग केवल भिुक्षुओं के ही संभव था। हीनयान संप्रदाय के लोग परिवर्तन अथवा सुधार के विरोधी थे। यह बौद्ध धर्म के प्राचीन आदर्शों का ज्‍यों त्‍यों बनाए रखना चाहते थे। हीनयान संप्रदाय के सभी ग्रंथ पाली भाषा मे लिखे गए हैं। हीनयान बुद्धजी की पूजा भगवान के रूप मे न करके बुद्धजी को केवल महापुरुष मानते थे। हीनयान की साधना अत्‍यंत कठोर थी तथा वे भिक्षुु जीवन के हिमायती थे। हीनयान संप्रदाय श्रीलंका, बर्मा, जावा आदि देशों मे फैला हुआ है। बाद मे यह संप्रदाय दो भागों मे विभाजित हो गया- वैभाष्क एवं सौत्रान्तिक। वैभाष्क मत इसका प्रचार भी लंका में है। यह मत बाह्य वस्तुओं की सत्ता तथा स्वलक्षणों के रूप में उनका प्रत्यक्ष मानता है। अत: उसे बाह्य प्रत्यक्षवाद अथवा "सर्वास्तित्ववाद" कहते हैं।
सौत्रान्तिक मत बाह्यार्थ को अनुमेय मानते हैं। यद्यपि बाह्यजगत की सत्ता दोनों स्वीकार करते हैं, किन्तु दृष्टि के भेद से एक के लिए चित्त निरपेक्ष तथा दूसरे के लिए चित्त सापेक्ष अर्थात् अनुमेय सत्ता है। सौत्रान्तिक मत में सत्ता की स्थिति बाह्य से अन्तर्मुखी है। इस की उत्‍पत्ति कश्‍मीर मे हुई थी तथा सौतांत्रिक तंत्र मंत्र से संबंधित था। सौतांत्रिक संप्रदाय का सिद्धांत मंजूश्रीमूलकल्‍प एवं गुहा सामाज नामक ग्रंथ मे मिलता है।

महायान मतलब उच्च वर्ग महायान, वर्तमान काल में बौद्ध धर्म की दो प्रमुख शाखाओं में से एक है। दूसरी शाखा का नाम थेरवाद है। महायान बुद्ध धर्म भारत से आरम्भ होकर उत्तर की ओर बहुत से अन्य एशियाई देशों में फैल गया, जैसे कि चीन, जापान, कोरिया, ताइवान, तिब्बत, भूटान, मंगोलिया और सिंगापुर। महायान सम्प्रदाय कि आगे और उपशाखाएँ हैं, जैसे ज़ेन/चान, पवित्र भूमि, तियानताई, निचिरेन, शिन्गोन, तेन्दाई और तिब्बती बौद्ध धर्म[1]

क्षणिकवाद
बौद्धों के अनुसार वस्तु का निरन्तर परिवर्तन होता रहता है और कोई भी पदार्थ एक क्षण से अधिक स्थायी नहीं रहता है। कोई भी मनुष्य किसी भी दो क्षणों में एक सा नहीं रह सकता, इसिलिये आत्मा भी क्षणिक है और यह सिद्धान्त क्षणिकवाद कहलाता है । इसके लिए बौद्ध मतानुयायी प्रायः दीपशिखा की उपमा देते हैं। जब तक दीपक जलता है, तब तक उसकी लौ एक ही शिखा प्रतीत होती है, जबकि यह शिखा अनेकों शिखाओं की एक श्रृंखला है। एक बूँद से उत्पन्न शिखा दूसरी बूंद से उत्पन्न शिखा से भिन्न है; किन्तु शिखाओं के निरन्तर प्रवाह से एकता का भान होता है। इसी प्रकार सांसारिक पदार्थ क्षणिक है, किन्तु उनमें एकता की प्रतीति होती है। इस प्रकार यह सिद्धान्त ‘नित्यवाद’ और ‘अभाववाद’ के बीच का मध्यम मार्ग है।
प्रतीत्यसमुत्पाद
प्रतीत्यसमुत्पाद’ से तात्पर्य एक वस्तु के प्राप्त होने पर दूसरी वस्तु की उत्पत्ति अथवा एक कारण के आधार पर एक कार्य की उत्पत्ति से है। प्रतीत्यसमुत्पाद सापेक्ष भी है और निरपेक्ष भी। सापेक्ष दृष्टि से वह संसार है और निरपेक्ष दृष्टि से निर्वाण। यह क्षणिकवाद की भाँति शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के मध्य का मार्ग है; इसीलिए इसे मध्यममार्ग कहा जाता है और इसको मानने वाले माध्यमिक।
इस चक्र के बारह क्रम हैं,जो एक दूसरे को उत्पन्न करने के कारण है; ये हैं-
1• अविद्या 2• संस्कार 3• विज्ञान 4• नाम-रूप 5• षडायतन 6• स्पर्श 7• वेदना 8• तृष्णा
9• उपादान 10• भव 11• जाति 12• जरा-मरण।
कुछ ऐसे

योगाचार बौद्ध दर्शन एवं मनोविज्ञान का एक प्रमुख शाखा है। यह भारतीय महायान की उपशाखा है जो चौथी शताब्दी में अस्तित्व में आई।
योगाचार्य इस बात की व्याख्या करता है कि हमारा मन किस प्रकार हमारे अनुभवों की रचना करता है। योगाचार दर्शन के अनुसार मन से बाहर संवेदना का कोई स्रोत नहीं है।
इन सब में मैंनें खोजी की निगाह से एक बात देखी जो शायद आज तक किसी ने नहीं देखी। वह यह है कि यह सब उस समय की ध्यान की सबसे अधिक प्रचलित विधि श्वासोश्वास पद्व्ति यानि विपश्यना ही करते थे और इसी के द्वारा अंतर्मुखी हुये। अब देखे उस पद्ध्ति को जिसका आधुनिक नाम विपश्यना है।



योग साधना के तीन मार्ग प्रचलित हैं – विपश्यना(स्वासोंस्वास मतलब सांस पर ध्यान) , भावातीत ध्यान ( महेश योगी, गुरू प्रदत्त मंत्र को पश्यंति में एकांत में जापना) और हठयोग ( प्राणायाम द्वारा कुम्भक, रेचक, पूरक वायु को विभिन्न चक्रों में प्रविष्ट कराना)।

विपश्यना (संस्कृत) या विपस्सना (पालि) यह गौतम बुद्ध द्वारा प्रचारित की गई एक बौद्ध योग साधना हैं। विपश्यना का अर्थ है - विशेष प्रकार से देखना (वि + पश्य + ना)।
भगवान बुद्ध ने ध्यान की 'विपश्यना-साधना' द्वारा बुद्धत्व प्राप्त किया था। 


विपश्यना का अभिप्राय है कि जो वस्तु सचमुच जैसी हो, उसे उसी प्रकार जान लेना। यह अंतर्मन की गहराइयों तक जाकर आत्म-निरीक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना है। अपने नैसर्गिक श्वास के निरीक्षण से आरंभ करके अपने ही शरीर और चित्तधारा पर पल-पल होने वाली परिवर्तनशील घटनाओं को तटस्थभाव से निरीक्षण करते हुए चित्त-विशोधन और सद्गुण-वर्धन का यह अभ्यास (धम्म ), साधक को किसी सांप्रदायिक आलंबन से बॅंधने नहीं देता। इसीलिए यह साधना सर्वग्राह्य है, बिना किसी भेदभाव के सबके लिए समानरूप से कल्याणकारिणी है।



महापुरूष सत्यनारायण गोयंका जी ने इसे आज के युग में प्रचारित किया। उनके अनुसार
विपश्यना अंधश्रद्धा पर आधारित कर्मकांड नहीं है।
यह साधना बौद्धिक मनोरंजन अथवा दार्शनिक वाद-विवाद के लिए नहीं है।
यह छुटी मनाने के लिए अथवा सामाजिक आदानप्रदान के लिए नहीं है।
यह रोजमर्रा के जीवन के ताणतणाव से पलायन की साधना नहीं है।
आत्मनिरिक्षण द्वारा आत्मशुद्धि की साधना आसान नहीं है—शिविरार्थियों को गंभीर अभ्यास करना पड़ता है। अपने प्रयत्नों से स्वयं अनुभव द्वारा साधक अपनी प्रज्ञा जगाता है, कोई अन्य व्यक्ति उसके लिए यह काम नहीं कर सकता। शिविर की अनुशासन-संहिता साधना का ही अंग है।

साधना में एकांत अभ्यास की निरंतरता बनाए रखना नितांत आवश्यक है। यह कोई परंपरा का अंधानुकरण अथवा कोई अंधश्रद्धा नहीं है। इसके पीछे अनेक साधकों के अनुभवों का वैज्ञानिक आधार है। नियमावली का पालन साधना में बहुत लाभप्रद होगा।
अनुशासन-संहिता का पालन निष्ठा एवं गंभीरतापूर्वक करना अनिवार्य है।
शील साधना की नींव है। शील के आधार पर ही समाधि—मन की एकाग्रता—का अभ्यास किया जा सकता है एवं प्रज्ञा के अभ्यास से विकारों का निर्मूलन के परिणाम-स्वरूप चित्त-शुद्धि होती है।

सभी शिविरार्थियों को शिविर के दौरान पांच शीलों का पालन करना अनिवार्य है:
  जीव-हत्या से विरत रहेंगे।   चोरी से विरत रहेंगे।   अब्रह्मचर्य (मैथुन) से विरत रहेंगे।   असत्य-भाषण से विरत रहेंगे।   नशे के सेवन से विरत रहेंगे।
पुराने साधक, अर्थात ऐसे साधक जिन्होंने आचार्य गोयन्काजी या उनके सहायक आचार्यों के साथ पहले दस-दिवसीय शिविर पूरा कर लिया है, अष्टशील का पालन करते हैं।

वे दोपहर-बाद (विकाल) भोजन से विरत रहेंगे। शृंगार-प्रसाधन एवं मनोरंजन से विरत रहेंगे।
ऊंची आरामदेह विलासी शय्या के प्रयोग से विरत रहेंगे। (सत्यनारायण गोयन्का)

प्रेक्षा ध्यान की उत्पत्ति जैन धर्म से हुई थी। जिसको जैन महामुनि महाप्रज्ञ जी ने योगासन प्रणायाम के साथ जोडकर विपश्यना को नया रूप दिया। जैन परम्परा में प्रेक्षा ध्यान को बहुत महत्त्व दिया जाता है।
प्रेक्षा का अर्थ होता है – गहराई में उतर कर देखना या किसी वस्तु के अंदर खो जाना। इसलिए प्रेक्षा ध्यान का उद्देश्य होता है – स्वयं की गहराई में जाकर स्वयं को खोजना और परमात्मा को प्राप्त करना।
प्रेक्षा ध्यान की सहायता से अभ्यासकर्ता अपने मन को अपने सूक्ष्म मन से जोड़ने की साधना करता है। यानि अपनी चेतना को जागृत करता हैं और अपनी चेतना को जागृत करना ही प्रेक्षा ध्यान है। अपने मन के भावो को साक्षी बनकर देखना ही प्रेक्षा ध्यान है। विपस्सना ध्यान और प्रेक्षा ध्यान लगभग एक जैसे ही होते है। दोनों ध्यान विधियों का लक्ष्य स्वयं की गहराई में जाना होता है। लेकिन दोनों ध्यान अलग धर्म  से होने के कारण दोनों का अपना अलग – अलग महत्व है। प्रेक्षा ध्यान को जैन धर्म  में अभिनव भी कहा जाता है।

अब आप पहले गीता का वाक्य देखें देखे इस पद्द्ति में
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः।।4.11।।
जो भक्त मुझे जिस प्रकार से भजते हैं, मैं भी उनको उसी प्रकार से भजता हूँ। हे अर्जुन! ऐसे सभी मनुष्य सब प्रकार से मेरे ही मार्ग का अनुसरण करते हैं॥11
आत्मौपम्येन सर्वत्र समं पश्यति योऽर्जुन। सुखं वा यदि वा दुःखं सः योगी परमो मतः।।6.32।।
।।6.32।। हे अर्जुन जो पुरुष अपने समान सर्वत्र सम देखता है चाहे वह सुख हो या दुख वह परम योगी माना गया है।।
समं कायशिरोग्रीवं धारयन्नचलं स्थिरः। सम्प्रेक्ष्य नासिकाग्रं स्वं दिशश्चानवलोकयन्॥६-१३॥
शरीर, सिर और गले को सीधा और स्थिर रखते हुए, अपनी नासिका के अग्रभाग को देखते हुए और अन्य दिशाओं को न देखते हुए॥13
प्रशान्तात्मा विगतभी- र्ब्रह्मचारिव्रते स्थितः। मनः संयम्य मच्चित्तो युक्त आसीत मत्परः॥६-१४॥
शांत मन वाला, भयरहित, ब्रह्मचारी के व्रत में स्थित, मन को संयम में रखते हुए योगी मुझ में चित्त वाला होकर स्थित रहे॥14
युञ्जन्नेवं सदात्मानं योगी नियतमानसः। शान्तिं निर्वाणपरमां मत्संस्थामधिगच्छति॥६-१५॥
नियंत्रित मन वाला योगी इस प्रकार मन को निरंतर मुझ में लगाता हुआ परम आनंद रूपी शान्ति को प्राप्त होता है॥15
गीता जी के अध्याय नं. 9 के श्लोक नं. 25 में कहा है कि
यान्ति, देवव्रताः, देवान्, पितऋन्, यान्ति, पितव्रताः। 
भूतानि, यान्ति, भूतेज्याः, मद्याजिनः, अपि, माम्। 
देवताओं को पूजने वाले देवताओं को प्राप्त होते हैं पितरों को पूजने वाले पितरों को प्राप्त होते हैं भूतों को पूजने वाले भूतों को प्राप्त होते हैं और मतानुसार पूजन करने वाले भक्त मुझसे ही लाभान्वित होते हैं। 

अब आप देखें गीता में साफ साफ लिखा है हे अर्जुन मुझे जो जिस रूप में भजता है मैं उसको उसी रूप में प्राप्त होता हूं। मतलब मुझे मूर्ति मानो तो साकार रूप में न मानो तो निराकार रूप में और और तो और ईश्वर नहीं हैं तो उस रूप में भी मैं ही बिना अस्तित्व के हूं। कुछ भी सोंचों कुछ भी जानो वह मैं ही हूं। मतलब जो अनीश्वरवादी हैं वो भी मुझे न होने को ही मानते हैं।

यहां मै पूर्ण होशोहवास के साथ दावा करता हूं कि ईश्वर है है और है। आपको चुनौती है कि आप “सचल मन वैज्ञानिक ध्यान की विधियों” में से अपनी मनपसंद विधि के साथ अपने घर पर करें। आपको ईश की शक्ति की अनुभूति होगी होगी और होगी। यह प्रयोग 200 से अधिक लोग जिनमें नास्तिक भी हैं। कर चुके है और इस समय भक्त बने बैठे हैं। आप चाहे तो इन लोगों के सम्पर्क भी मैं दे सकता हूं। लिंक नीचे दिया है:

अब आप देखें इन यह सब महापुरूष सांस पर ध्यान देकर अंतर्मुखी हुये। अंतर्मुखी होने की अन्य विधियां भी हैं। कृपया लिंक देखें:

मतलब निराकार वायु पर ध्यान तो गीता के अनुसार ईश निराकार ही रहेगा और निराकारी ही अनुभव करायेगा यानि जैसे ईश्वर है ही नहीं। अब जब ईश की सत्ता को देख ही नहीं रहे हैं कुछ और समझ में आ रहा है तो वह ईश को नहीं मानेगा। अब होता क्या है भेडचाल आगे वाले ने ईश के अस्तित्व को नकार दिया तो उसको माननेवाले भी वोही धारणा लेअकर आगे चलेगे। पांतनजलि महाराज इसी धारणा की बात करते हैं जो धारणा बनाओगे उसी का ध्यान करो तो उसी प्रकार की समाधि लगेगी और उसी सोंच के अनुसार अनुभव और तुम्हारी बुद्धि को विकसित करेगी। आप पायेगें मैंनें अपने ब्लाग पर संदर्भ के साथ सिद्ध किया है कि बुद्ध ने सनातन के पातांजलि के अष्टांग योग कपिल के सांख्य योग के दर्शन के अधिकतर सिद्दांत लेकर ही सिध्दांत बनाये हैं। मतलब उन्होने इन महापुरूषों को पढकर वैसी धारणा धारण कर समाधि ली तो वो ही पाया। बस अंतर इतना किया कि आरम्भ और सिद्धांत सुख के आनन्द के न सोंच कर दु:ख से आरम्भ किया। मतलब यह ग्लास पानी से आधा भरा नहीं है बल्कि आधा खाली है वाली सोंच के साथ आरम्भ किया। जो सनातन के विपरीत है। सनातन कहता है मानव का मूल स्वभाव आनंद हैं। बुद्ध दु:ख बताते हैं। सनातन कहता है अपने अंदर आनन्द खोजो। बुद्ध कहते है दु:ख का सागर है उनसे निजात पाओ। मतलब विज्ञान की भाषा में प्रारम्भिक खोजक विश्लेषण और अंतिम घटना विश्लेषण। जबकि दोनो का उद्देश्य है संरक्षा को बढाना पर तरीका अलग।

पर मैं अपनी खोज विष्लेषण और अनुभव अनुभुतियों के आधार पर कहता हूं कि मनुष्य यदि गुरू विहीन है तो उसको निराकार की पद्दतियों द्वारा अंतर्मुखी होने का प्रयास बिल्कुल नहीं करना चाहिये। उसको सिर्फ और सिर्फ साकार का ही मार्ग अपनाना चाहिये। कारण यह है कि यध्यपि यह कुछ लोगों के साथ ही होता है पर होता है। क्योकि कुछ लोग ही मन लगाकर अंतर्मुखी होने का प्रयास करते हैं। अत: कुछ के साथ ही होने की सम्भावना होती है। वह यह है कि यदि स्वत: कुडलनी जागरण हो गया तो लेने के देने पड सकते हैं। इस अवस्था में साकार के उपासक को बचाने हेतु ब्रह्म को इष्ट रूप में आना ही पडता है। पर निराकार तो कुछ मानता ही नहीं तो उसको किस रूप में जाकर सहायता की जाये। क्योकिं सहायता एक कर्म है और कर्म हेतु कुछ साकार तो चाहिये ही न।

अंत में इतना ही कहूंगा कि ईश सर्वव्यापी सर्वाकार सर्वगुण सभी भावों और सोंच में बसता है। यह तुम्हारी पद्द्ति और लगन पर है कि तुम किस रूप में उसे प्राप्त करते हो। भाइ कलियुग में मंत्र जप नाम जप सबसे सस्ता सुंदर टिकाऊ मार्ग है जो कहीं भी किसी भी अवस्था में किया जा सकता है और जो तुमको गुरू से ईश तक, साकार से निराकार तक, द्वैत से अद्वैत तक, वियोग से योग तक, काम से निष्काम तक, अज्ञान से ज्ञान तक स्वत: ले जाने में समर्थ है। बस अभी से जुट जाओ। अपने कुल इष्ट या जो अच्छा लगे उस नाम या मंत्र के जाप में सतत, निरन्तर, निर्बाध, अगिनत लग जाओ। यह ही कल्याणकारी है। बाकी सब बंधनकारी।

जय महाकाली गुरूदेव। जय महाकाल।    

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