गुरू का महत्व और पहिचान
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
एक बार एक राजा को साधना करने की सूझी। उसने अपने
मंत्री को बुलाया और पूछा, ‘‘मैं अमुक मंत्र की साधना करना चाहता हूं। आप बताएं मैं
क्या करूं?’’ मंत्री ने जवाब दिया, ‘‘महाराज, आप अपने गुरु के पास जाएं और उनके बताए
अनुसार ही कार्य करें।’’ पर राजा जिद्दी था और उसने
किसी व्यक्ति को मंत्र का जाप करते हुए सुना और उसे याद कर अपने हिसाब से जाप करने
लगा। जब जाप करते-करते काफी अर्सा हो गया तो राजा ने एक रोज अपने मंत्री से पुन:
पूछा, ‘‘मुझे इस मंत्र का जाप करते हुए महीनों हो गए,
पर कोई लाभ नहीं हुआ।’’ मंत्री चुपचाप राजा की बात सुनता रहा और फिर
बोला, ‘‘महाराज, मैंने आपसे कहा था कि
मंत्र को विधिपूर्वक गुरु से प्राप्त करने पर ही वह लाभ देता है।’’
किंतु राजा उसकी बात से सहमत नहीं हुआ और तरह-तरह के तर्क देने लगा। मंत्री कुछ देर राजा की बातें सुनता रहा और तभी अचानक उसने पास खड़े एक सैनिक को आदेश दिया, ‘‘सैनिक, इन्हें तुरंत गिरफ्तार कर लो।’’ मंत्री की यह बात सुनकर राजा और सैनिक समेत सभी सभासद आश्चर्य में पड़ गए। किसी को मंत्री की बात का मंतव्य समझ में नहीं आया। आखिरकार मंत्री के बार-बार आदेश देने पर राजा को क्रोध आ गया और उसने सैनिकों से कहा, ‘‘मंत्री को तुरंत गिरफ्तार कर लिया जाए।’’
राजा के हुक्म की तुरंत तामील हुई और सैनिकों ने मंत्री को पकड़ लिया। यह देख मंत्री जोर-जोर से हंसने लगा। राजा ने हंसने का कारण पूछा तो मंत्री बोला, ‘‘महाराज, मैं आपको यही तो समझाने की कोशिश कर रहा हूं। जब मैंने सैनिकों से आपको गिरफ्तार करने को कहा तो उन्होंने मेरी नहीं सुनी। लेकिन जब आपने मुझे गिरफ्तार करने का आदेश दिया तो इस पर तुरंत अमल किया गया। इसी तरह गुरु द्वारा दिए गए मंत्र में उनकी अनुभूति और अधिकार की शक्ति होती है। गुरु वह व्यक्ति होता है, जो किसी ज्ञान का स्वयं प्रयोग कर उसे शिष्य को सौंपता है। यही कारण है कि गुरु का महत्व सर्वोपरि बताया गया है।’’
किसी भी क्षेत्र में मार्गदर्शन प्राप्त करने हेतु
शिक्षक का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । यही सूत्र अध्यात्म के क्षेत्र में भी
लागू होता है । ‘अध्यात्म’ सूक्ष्म-स्तरीय विषय है, अर्थात
बुद्धि की समझ से परे है । इसलिए आध्यात्मिक दृष्टि से उन्नत मार्गदर्शक अथवा गुरु
कौन हैं, यह निश्चित रूप से पहचानना असंभव होता है । किसी
शिक्षक अथवा प्रवचनकार की तुलना में गुरु पूर्णतः भिन्न होते हैं । हमारे इस विश्व
में वे आध्यात्मिक प्रतिभा से परिपूर्ण दीपस्तंभ-समान होते हैं । वे हमें सभी धर्म
तथा संस्कृतियों के मूलभूत आध्यात्मिक सिद्धान्त सिखाते हैं ।
यूं समझे कि यदि बच्चों से कहा जाए कि वे आधुनिक
विज्ञान की शिक्षा किसी शिक्षक के बिना अथवा पिछले कई दशकों में प्राप्त ज्ञान के
बिना ही ग्रहण करें तो क्या होगा ? यदि हमें जीवन में बार-बार पहिए का
शोध करना पडे, तो क्या होगा ? हमें
संपूर्ण जीवन स्वयं को शिक्षित करने में बिताना पडेगा । हम जीवन में आगे नहीं बढ
पाएंगे और हो सकता है कि किसी अनुचित मार्ग पर चल पडें ।
हमारी आध्यात्मिक यात्रा में भी मार्गदर्शक की
आवश्यकता होती है । किसी भी क्षेत्र के मार्गदर्शक को उस क्षेत्र का प्रभुत्व होना
आवश्यक है । अध्यात्म शास्त्र के अनुसार जिस व्यक्ति का अध्यात्म शास्त्र में
अधिकार (प्रभुत्व) होता है, उसे गुरु कहते
हैं । इस हेतु गुरु का होना
अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । जिसे सत्गुरू भी कहते हैं।
गुरु शब्द की व्युत्पत्ति संस्कृत भाषा से हुई है और
इसका गहन आध्यात्मिक अर्थ है । इसके दो व्यंजन (अक्षर) गु और रु के अर्थ इस प्रकार
से हैं :
गु शब्द का अर्थ है अज्ञान, जो
कि अधिकांश मनुष्यों में होता है । रु शब्द का अर्थ है, आध्यात्मिक
ज्ञान का तेज, जो आध्यात्मिक अज्ञान का नाश करता (मिटाता) है
। मतलब जो हमें अंधरे से प्रकाश की ओर ले जाये। संक्षेप में, गुरु का होना
अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, जो मानव जाति के आध्यात्मिक अज्ञान
रूपी अंःधकार को मिटाते हैं और उसे आध्यात्मिक अनुभूतियां और आध्यात्मिक ज्ञान
प्रदान करते हैं ।
एक उक्ति है कि अंधों के राज्य में देख पाने वाले को
राजा माना जाता है । आध्यात्मिक दृष्टि से दृष्टिहीन और अज्ञानी समाज में, प्रगत
छठवीं ज्ञानेंद्रिय से संपन्न गुरु ही वास्तविक अर्थों से दृष्टि युक्त हैं
। गुरु वे हैं, जो अपने मार्गदर्शक की शिक्षा के अनुसार
आध्यात्मिक पथ पर चलकर विश्व मन और विश्व बुद्धि से ज्ञान प्राप्त कर चुके हैं ।
हमारी आध्यात्मिक यात्रा में गुरु का होना अत्यंत महत्त्वपूर्ण है । आध्यात्मिक
मार्गदर्शक अथवा गुरु किसे कह सकते हैं और उनके लक्षण कौन से हैं, यह इस लेख में हम स्पष्ट करेंगे ।
जिस प्रकार किसी देश की सरकार के अंर्तगत संपूर्ण देश
का प्रशासनिक कार्य सुचारू रूप से चलने हेतु विविध विभाग होते हैं, ठीक
उसी प्रकार सर्वोच्च ईश्वरीय तत्त्व के विविध अंग होते हैं । ईश्वर के ये विविध
अंग ब्रह्मांड में विशिष्ट कार्य करते हैं ।
जिस प्रकार किसी सरकार के अंर्तगत शिक्षा विभाग होता
है, जो पूरे देश में आधुनिक विज्ञान सिखाने में सहायता करता है,
उसी प्रकार ईश्वर का वह अंग जो विश्व को आध्यात्मिक विकास तथा आध्यात्मिक
शिक्षा की ओर ले जाता है, उसे गुरु कहते हैं । इसे अदृश्य
अथवा अप्रकट (निर्गुण) गुरु (तत्त्व) अथवा ईश्वर का शिक्षा
प्रदान करने वाला तत्त्व कहते हैं । यह अप्रकट गुरु तत्त्व पूरे विश्व में
विद्यमान है तथा जीवन में और मृत्यु के पश्चात भी हमारे साथ होता है । इस अप्रकट
गुरु का महत्व यह है कि वह संपूर्ण जीवन हमारे साथ रहकर
धीरे-धीरे हमें सांसारिक जीवन से साधना पथ की ओर मोडता है ।
गुरु हमें अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार अर्थात ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार (चाहे वह हमें ज्ञात हो या ना हो) मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा (दया) जैसे गुण (कौशल) विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं । ये सभी गुण विशेष (कौशल) अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी आध्यात्मिक यात्रा में टिके रहनेकी दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं । जिनमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन है, उनके लिए गुरुतत्त्व अधिक कार्यरत होता है और उन्हें अप्रकट रूप में उनकी आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन करता है । अप्रकट गुरुतत्त्व, उन्नत जीवों के माध्यम से कार्य करता है, जिन्हें प्रकट (सगुण) गुरु अथवा देहधारी गुरु कहा जाता है । एक संस्था के अनुसार आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु बननेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ७०% होना आवश्यक है । देहधारी गुरु मनुष्य जाति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के दीप स्तंभ की भांति कार्य करते हैं और वे ईश्वर के विश्व मन और विश्व बुद्धि से पूर्णतः एकरूप होते हैं ।
गुरु हमें अपने आध्यात्मिक स्तर के अनुसार अर्थात ज्ञान ग्रहण करने की हमारी क्षमता के अनुसार (चाहे वह हमें ज्ञात हो या ना हो) मार्गदर्शन करते हैं और हममें लगन, समर्पण भाव, जिज्ञासा, दृढता, अनुकंपा (दया) जैसे गुण (कौशल) विकसित करने में जीवन भर सहायता करते हैं । ये सभी गुण विशेष (कौशल) अच्छा साधक बनने के लिए और हमारी आध्यात्मिक यात्रा में टिके रहनेकी दृष्टि से मूलभूत और महत्त्वपूर्ण हैं । जिनमें आध्यात्मिक उन्नति की तीव्र लगन है, उनके लिए गुरुतत्त्व अधिक कार्यरत होता है और उन्हें अप्रकट रूप में उनकी आवश्यकतानुसार मार्गदर्शन करता है । अप्रकट गुरुतत्त्व, उन्नत जीवों के माध्यम से कार्य करता है, जिन्हें प्रकट (सगुण) गुरु अथवा देहधारी गुरु कहा जाता है । एक संस्था के अनुसार आध्यात्मिक मार्गदर्शक अथवा गुरु बननेके लिए व्यक्ति का न्यूनतम आध्यात्मिक स्तर ७०% होना आवश्यक है । देहधारी गुरु मनुष्य जाति के लिए आध्यात्मिक ज्ञान के दीप स्तंभ की भांति कार्य करते हैं और वे ईश्वर के विश्व मन और विश्व बुद्धि से पूर्णतः एकरूप होते हैं ।
अध्यापक (शिक्षक) / प्राध्यापक और गुरु में अंतर :
शिक्षक वह जो एक निश्चित समय-सीमा के लिए पढाते हैं। शब्दों के माध्यमसे पढाते
हैं। विद्यार्थी के व्यक्तिगत जीवन से कोई लेना-देना नहीं। कुछ ही विषय पढाते हैं।
गुरू वह जो दिन भर २४ घण्टे ज्ञान देते हैं। शब्दों
से तथा शब्दों के परे(शब्दातीत) ज्ञान देते हैं। शिष्य के जीवन के प्रत्येक क्षण
का ध्यान रखते हैं। अध्यात्म शास्त्र का ज्ञान देते हैं जिसमें सभी विषय समाहित
हैं।
प्रवचनकार और गुरु में अंतर : प्रवचनकार प्राय:
नियोजित, बनावटी, बुद्धि द्वारा उत्पन्न होना,
प्रसिद्ध संतों के संदेश
तथा धार्मिक पोथियों पर निर्भर रहते हैं, ऊपरी स्तर पर ही
प्रभाव होता है, इस कारण श्रोता शीघ्र ऊब जाते हैं। अन्यों
के मन में आई शंकाओं का समाधान नहीं मिलता। अधिकतर अहं होता है ।
वहीं गुरु में सहज, प्राकृतिक, आत्मा से उदय होना (अर्थात स्वयं में
स्थित ईश्वर से उदित होना), ईश्वर के अप्रकट गुरु तत्त्व से
प्राप्त ज्ञान के आधार पर, सभी पवित्र ग्रंथों का संदर,
ईश्वर के चैतन्य से भरी हुई वाणी, श्रोता की
इच्छा होती है कि वह घंटों तक यह वाणी सुनता रहे, प्रश्न
पूछे बिना ही शंकाओं का समाधान उत्तर द्वारा करना, अहं नहीं
रहता।
वर्तमान युग के अधिकांश प्रवचनकारों का आध्यात्मिक
स्तर ३०% होने के कारण वे जिन धर्म ग्रंथों का संदर्भ देते हैं, वे न
तो उनका भावार्थ समझ पाते हैं और न ही उसमें जो लिखा होता है उसकी उन्हें अनुभूति
होती है । अतः उनके द्वारा दर्शकों को / श्रोताओं को भटकाने की संभावना अधिक होती
है ।
गुरु और संत में क्या अंतर है ?
प्रत्येक गुरु संत होते ही हैं; परंतु
प्रत्येक संत का गुरु होना आवश्यक नहीं है । केवल कुछ संतों में ही गुरु बनने की
पात्रता होती है।
जिस व्यक्ति का आध्यात्मिक स्तर ७०% अथवा उससे अधिक
है, उन्हे संत कहते हैं । संत समाज के लोगों में साधना करने की
रूचि निर्माण कर उन्हे साधना पथ पर चलने के लिए मार्गदर्शन करते हैं।गुरु साधकों
के मोक्ष प्राप्ति तक के मार्गदर्शन का संपूर्ण दायित्व लेते हैं तथा वह प्राप्त
भी करवा देते हैं । ७०% आध्यात्मिक स्तर से न्यून स्तर के व्यक्ति को संत नहीं समझा जाता।
संत और गुरु में क्या
समानताएं होती हैं?
· संत और गुरु, दोनों
का आध्यात्मिक स्तर ७०% से अधिक होता है ।
· इन दोनों में मानव
जाति के प्रति आध्यात्मिक प्रेम (प्रीति), अर्थात निरपेक्ष प्रेम होता है ।
· इन दोनों का अहंकार
अत्यल्प होता है । अर्थात वे अपने अस्तित्व को पंचज्ञानेंद्रिय, मन
तथा बुद्धि तक ही सीमित न कर (देहबुद्धि) आत्मा तक अर्थात भीतर के ईश्वर तक (आत्म
बुद्धि) व्याप्त करते हैं ।
संत और गुरु की गुण
विशेषताओं में (लक्षणों में) क्या अंतर होता है इसको एक शोध संस्था ने यूं वर्णित
किया है।
अन्यों के प्रति
प्रेम भाव और सेवा का भाव संत में 30% सत्गुरू में 60 होता है। वहीं त्याग संत में
70 % तो गुरू में 90 होता है। लेखन की कला संत में 2 % तो गुरू में 10 % से अधिक
होती है। वहीं लेखन में गुण वत्ता और स्वभाव संत में कुछ कम पर गुरू में अधिक होता
है। प्रकट शक्ति संत में 20 % तो गुरू में 5 % से कम रहती है। अर्थात वह गुप्त
रहता है। संत द्वारा आध्यात्मिक उन्नति शीघ्र तो गुरू द्वारा अतिशीघ्र होती है।
1. दूसरों से प्रेम करने
का अर्थ है, दूसरों पर बिना किसी अपेक्षा के प्रेम करना (निरपेक्ष
प्रेम)। यह प्रेम अपेक्षा युक्त सांसारिक प्रेम से भिन्न
होता है, । १००% का अर्थ है, बिना किसी
शर्त के, भेदभाव विहिन, सर्वव्यापी ईश्वरीय
प्रेम, जो ईश्वर द्वारा निर्मित सभी विषय वस्तुओं को,
उदाहरण के लिए निर्जीव वस्तुओं से लेकर चींटी जैसे छोटे से
प्राणिमात्र से लेकर सबसे बडे प्राणिमात्र मनुष्य तक को व्याप्त करता है ।
2. सेवा का अर्थ है, सत
की सेवा (सत्सेवा) अथवा अध्यात्म शास्त्र की सेवा,
जो पूरे विश्व को नियंत्रित करते हैं और सभी धर्मों के मूलभूत अंग हैं
। यहां पर १००% का अर्थ है, उनके १००% समय का तथा शारीरिक,
मानसिक, बौद्धिक, आर्थिक,
सामाजिक क्षमताओं का सत्सेवा के लिए त्याग करना ।
3. त्याग का अर्थ है कि
समय, देह, मन और संपत्ति का (धन का)
उन्होंने ईश्वर की सेवा हेतु कितना त्याग किया है ।
4. अध्यात्म शास्त्र का
(अंतिम सत्य का) ज्ञान प्रदान करने वाले अथवा प्रसार करने वाले ग्रंथों का लेखन
करना ।
5. संतो एवं गुरुओं
द्वारा किया लेखन क्रमशः आध्यात्मिक अनुभूतियों संबंधी तथा आध्यात्मिक मार्गदर्शन
संबंधी होता है ।
6. ईश्वर का कार्य
मात्र उनके अस्तित्व से होता है । उन्हें कुछ प्रयास करने की आवश्यकता नहीं होती, इसलिए
उनकी शक्ति प्रकट स्वरूप में नहीं होती । शक्ति का स्वरूप अप्रकट होता है, जैसे कि शांति, आनंद इ. । किंतु संत और गुरु (स्थूल)
देहधारी होने से वे प्रकट शक्ति का कुछ मात्रा में उपयोग करते हैं ।
7. अहं का सरल अर्थ है
कि, अपने आपको ईश्वरसे
भिन्न समझना एवं अनुभव करना ।
गुरु ईश्वर के अप्रकट रूप से अधिक एकरूप होते हैं, इसलिए उन्हें प्रकट शक्ति के
प्रयोग की विशेष आवश्यकता नहीं होती । गुरु की तुलना में संतों में अहं की मात्रा
अधिक होने से संत गुरु की तुलना में प्रकट शक्ति का अधिक मात्रा में उपयोग करते
हैं । परंतु अतिंद्रिय शक्तियों का प्रयोग कर ऐसा ही कार्य करने वालों की तुलना
में यह अत्यल्प होता है । उदा. जब कोई व्यक्ति उसकी व्याधि से किसी संत के
आशीर्वाद के कारण मुक्त हो जाता है, तब प्रकट शक्ति २०% होती
है; किंतु इसी प्रसंग में जो व्यक्ति संत नहीं है, किंतु अतिंद्रिय (हिलींग) शक्ति से मुक्त करता है, तब
यही मात्रा ५०% तक हो सकती है । ईश्वर की प्रकट शक्ति ०% होने के कारण, किसी के द्वारा प्रकट शक्ति का उपयोग करना ईश्वर से एकरूप होने के अनुपात
से संबंधित है । अतः जितनी प्रकट शक्ति अधिक, उतने ही हम ईश्वर
से दूर होते हैं । प्रकट शक्ति के लक्षण हैं – तेजस्वी और चमकीली आंखें, हाथों की तेज गतिविधियां इत्यादि।
8. निर्धारित कार्य करने
के लिए आवश्यक प्रकट शक्ति संत और गुरु को ईश्वर से मिलती है । कभी-कभी संत उनके
भक्तों की सांसारिक समस्याएं सुलझाते हैं, जिसमें अधिक शक्ति की आवश्यकता होती
है । गुरु शिष्य का ध्यान आध्यात्मिक विकास में केंद्रित करते हैं, जिससे शिष्य उसके जीवन में आध्यात्मिक कारणों से आने वाली समस्याआें पर
मात करने के लिए आत्म निर्भर हो जाता है । परिणामतः गुरु अत्यल्प आध्यात्मिक शक्ति
का व्यय करते हैं ।
9. संत एवं गुरु का
आध्यात्मिक स्तर न्यूनतम ७०% होता है । ७०% आध्यात्मिक स्तर पार करने के उपरांत
गुरु में संत की तुलना में आध्यात्मिक विकास की गति अधिक होती है । वे सद्गुरु का
स्तर (८०%) और परात्पर गुरु का स्तर, इसी
स्तर के संतों की तुलना में शीघ्रता से प्राप्त करते हैं । यह इसलिए कि वे निरंतर
अपने निर्धारित कार्य में, अर्थात शिष्य की आध्यात्मिक
प्रगति करवाने में व्यस्त रहते हैं; जब कि संत भी उनके
भक्तों की सहायता करते हैं; किंतु सांसारिक विषयों में ।
देहधारी गुरु का
महत्त्व : जब सघन मंत्र जप या कोई साकार अन्य साधना करते हैं। तब एक अवस्था ऐसी आ
जाती है कि जगत की अव्यक्त शक्ति उस मंत्र के साकार रूप दर्शन दे देती है। यह सब
आपकी बंद आखों के सामने आपके शरीर में घटित होता है। मतलब मंत्र जप करते हुये अचानक किसी दिन देहाभान समाप्त होने
के साथ आंखों के सामने तीव्र भगवा प्रकाश तेजोमयी पर शांत दिखने लगता है और आपके
मंत्रो के देव आकृति लेकर प्रकट होकर आपसे मानसिक वार्तालाप करते हैं। इस अवस्था
में यदि कोई देव आपको स्पर्श कर दो आपकी
शक्तिपात दीक्षा हो जाती है आपको ग्रंथों में वर्णित क्रिया होने लगती है।
यह आपकी अदेह दीक्षा हुई। कभी कभी यह स्वप्न में भी हो जाती है। इस अदेहधारी गुरू से
दीक्षा लेने के बाद भी देहधारी गुरू की आवश्यकता पडती है क्योंकि अदेहधारी गुरू की
कुछ सीमायें होती हैं।
आध्यात्मिक मार्गदर्शक देहधारी होने से शिष्य को
मानसिक स्तर पर अनेक लाभ होते हैं ।
· ईश्वर एवं देवताएं
अपना अस्तित्व और क्षमता प्रकट नहीं करते; किंतु गुरु (तत्त्व) अपने आपको
देहधारी गुरु के माध्यम से प्रकट करता है । इस माध्यम
से अध्यात्म शास्त्र के विद्यार्थी को (शिष्य के) उसकी अध्यात्म (साधना) यात्रा
में उसकी ओर ध्यान देने के लिए देहधारी मार्गदर्शक मिलते हैं ।
· देहधारी गुरु अप्रकट
गुरु की भांति सर्व ज्ञानी होते हैं और उन्हें अपने शिष्य के बारे में संपूर्ण
ज्ञान होता है । विद्यार्थी में लगन है अथवा नहीं और वह चूकें कहां करता है, इसका
ज्ञान उन्हें विश्व मन एवं विश्व बुद्धि के माध्यम से होता है । विद्यार्थी द्वारा
गुरु की इस क्षमता से अवगत होने के परिणाम स्वरूप, विद्यार्थी
अधिकतर कुकृत्य करने से स्वयं को बचा पाता है ।
· गुरु शिष्य में
न्यूनता की भावना निर्माण नहीं होने देते कि वह गुरु की तुलना में कनिष्ठ है ।
पात्र शिष्य में वे न्यूनता की भावना को हटा देते हैं और उसे गुरु (तत्त्व) का
सर्वव्यापित्व प्रदान करते हैं ।
· गुरु धर्म के परे
होते हैं और संपूर्ण मानव जाति की ओर समान दृष्टि से देखते हैं । संस्कृति, राष्ट्रीयता
अथवा लिंग के आधार पर वे भेद नहीं करते । जिसमें आध्यात्मिक उन्नति की लगन है,
ऐसे शिष्य (विद्यार्थी) की से प्रतीक्षा में रहते हैं ।
· गुरु किसी को
धर्मांतरण करनेके लिए नहीं कहते । सभी धर्मों के मूल में विद्यमान वैश्विक
सिद्धांतों को समझ पाने के लिए वे शिष्य की आध्यात्मिक प्रगति करवाते हैं ।
· शिष्य / साधक किसी भी
मार्ग अथवा धर्म के अनुसार मार्गक्रमण करें, अंत में सभी मार्ग गुरुकृपायोग में
विलीन हो जाते हैं।
गुरु का कार्य संकल्प की आध्यात्मिक शक्ति के
माध्यम से होता है । ईश्वर द्वारा प्रदत्त शक्ति से वे पात्र शिष्य की उन्नति
मात्र शिष्य की उन्नति हो इस विचार के माध्यम से करवाते हैं । अध्यात्म शास्त्र का
साधक / शिष्य देहधारी गुरु की कृपा के और मार्गदर्शन के बिना ७०% आध्यात्मिक स्तर
पर नहीं पहुंच पाता । इसका कारण यह है कि आध्यात्मिक उन्नति के आरम्भ के चरणों में, हमारी
उन्नति केवल साधना के मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर हो सकती है । किंतु विशिष्ट
चरण के उपरांत आध्यात्मिक ज्ञान इतना सूक्ष्म होता जाता है कि कोई भी उसकी छठवीं ज्ञानेंद्रिय
के माध्यम से अनिष्ट शक्तियों (भूत, प्रेत, पिशाच इ.) द्वारा दिग्भ्रमित हो सकता है । इसलिए सभी को संत बनने तक की
आध्यात्मिक प्रगति के मार्ग पर अचूकता से मार्गक्रमण करने के लिए अति उन्नत
देहधारी गुरु की आवश्यकता होती है ।
· संत का स्तर प्राप्त
करने पर भी सभी को गुरुकृपा का स्रोत सदैव बनाए रखने के लिए अपनी आध्यात्मिक साधना
जारी रखनी पडती है ।
· संपूर्ण आत्म ज्ञान
होने तक वे शिष्य की उन्नति करते रहते हैं । छठवीं ज्ञानेंद्रिय (अतिंद्रिय ग्रहण
क्षमता) द्वारा जो लोग माध्यम बनकर सूक्ष्म देहों से (आत्माएं) सूक्ष्म-स्तरीय ज्ञान
प्राप्त करते हैं, उसके यह विपरीत है । जब कोई केवल माध्यम होकर कार्य करता
है, तब उसकी आध्यात्मिक उन्नति नहीं होती ।
· गुरु और शिष्य के
संबंध पवित्र (विशुद्ध) होते हैं और गुरु को शिष्य के प्रति निरपेक्ष और बिना शर्त
प्रेम होता है ।
· सर्वज्ञानी होने से
शिष्य स्थूल रूप से पास में न होने पर भी गुरु का शिष्य की ओर निरंतर ध्यान रहता
है ।
· तीव्र प्रारब्ध पर
मात करना केवल गुरुकृपा से ही संभव होता है ।
· गुरु शिष्य को साधना
के छः मूलभूत सिद्धांतों के आधार पर उसके आध्यात्मिक स्तर और क्षमता के अनुसार मार्गदर्शन
करते हैं । वे शिष्य को कभी उसकी क्षमता से अधिक नहीं सीखाते ।
· गुरु सदैव सकारात्मक
दृष्टिकोण रखकर ही सीखाते हैं । उदा. शिष्य की आध्यात्मिक परिपक्वता के अनुसार
गुरु भक्ति गीतों का (भजनों का) गायन, नामजप, सत्सेवा
इत्यादि में से किसी भी साधना मार्ग से साधना बताते हैं । मद्यपान मत करो, इस प्रकार से आचरण मत करो आदि पद्धतियों से वे नकारात्मक मार्गदर्शन कभी
नहीं करते । इसका कारण यह है कि कोई कृत्य न करें, ऐसा
सीखाना मानसिक स्तर का होता है और इससे आध्यात्मिक प्रगति की दृष्टि से कुछ साध्य
नहीं होता । गुरु शिष्य की साधना पर ध्यान केंद्रित करते हैं । ऐसा करने से कुछ
समय के उपरांत शिष्य में अपने आप ही ऐसे हानिकर कृत्य त्यागने की क्षमता निर्माण
होती है ।
· मेघ सर्वत्र समान
वर्षा करते हैं, जब कि पानी केवल गढ्ढों में ही एकत्र होता है और खडे पर्वत
सूखे रह जाते हैं । इसी प्रकार गुरु और संत भेद नहीं करते । उनकी कृपा का वर्षाव
सभी पर एक समान ही होता है; परंतु जिनमें सीखने की और
आध्यात्मिक प्रगति करने की शुद्ध इच्छा होती है, वे गढ्ढों
समान होते हैं, जो कि कृपा और कृपा के लाभ ग्रहण करने में
सफल होते हैं ।
· गुरु सर्वज्ञानी होने
के कारण अंतर्ज्ञान से समझ पाते हैं कि शिष्य की आगामी आध्यात्मिक उन्नति के लिए
क्या आवश्यक है । वे प्रत्येक को भिन्न-भिन्न मार्गदर्शन करते हैं ।
पाखंडी अथवा
अनाधिकारी गुरु
आज के समाजमें ८०% गुरु पाखंडी अथवा अनाधिकारी होते
हैं । अर्थात उनका आध्यात्मिक स्तर ७०% से बहुत ही कम होता है और वे विश्व मन और
विश्व बुद्धि के संपर्क में नहीं होते । कुछ प्रसंगों में ऐसे व्यक्तियों में साधना
द्वारा प्राप्त किसी सिद्धि के कारण सहस्रो लोगों को आकृष्ट करने की क्षमता होती
है
१. दूसरों में हीन भावना निर्माण करने वाले और अपनी
विद्वत्ता का बडप्पन का दिखावा करने का प्रयत्न करनेवाले गुरु :
दंडवत करने के लिए आए लोगों से एक संत उनका नाम और
उनकी आयु पूछते थे । एक बार उन्होंने कहा, दोनों उत्तर चूक हैं । नाम और आयु
देह से संबंधित है । तुम आत्मा हो । आत्मा का कोई नाम नहीं है और आयु भी । तत्पश्चात
वे अध्यात्म शास्त्र के संदर्भ में बातें करते थे और पूछते थे, क्या तुम आध्यात्मिक साधना करते हो ? यदा कदाचित कोई
सकारात्मक उत्तर दे देता, तो वे पूछते थे, कौन सी साधना करते हो ? यदि कोई कहता, मेरे गुरु के द्वारा बताई साधना, तो वे कहते थे,
तुम्हारी आयु और नाम के बारे में पूछे गए सरल प्रश्न का भी उत्तर
तुम नहीं दे सके, तो तुम्हारे गुरु ने तुम्हें क्या सीखाया
है ? केवल खरे गुरु ही ऐसे प्रश्नों का उत्तर दे सकते हैं ।
मेरे पास आओ । मैं तुम्हें बताऊंगा ।
ऐसे पाखंडी गुरु से यह कहना चाहिए, असल
में आपका प्रश्न ही निरर्थक था ! आपकी देहबुद्धि अधिक होने के कारण आपने मुझे
मेरे नाम और आयु के बारे में पूछा था, इसलिए मैंने भी
देहबुद्धि रखते हुए उत्तर दिया ।
यह कैसे गुरु हैं, जो
प्रथम दर्शन में ही समझ नहीं पाते कि किसी के गुरु हैं अथवा नहीं, अथवा किसी की साधना उचित ढंग से हो रही है अथवा नहीं ?
२. संपत्ति और स्त्री के प्रति आसक्त गुरु
३. धोखे में रखना
समय तथा घडी के पट्टे के बंधन में न रहने के लिए एक
गुरु घडी का उपयोग नहीं करते थे । किंतु प्रति १५-२० मिनट में दूसरों को पूछा करते
थे, कितने बजे हैं ?
४. प्रसिद्धी की लालसा
जिन्हें गुरु बनने की इच्छा होती है और कुछ सीमा तक
जिनकी आध्यात्मिक प्रगति हुई है, ऐसे कुछ लोग दूसरों को किसी न किसी
प्रकार की साधना बताते रहते हैं । लगभग सभी उदाहरणों में वे जैसा बोलते हैं,
वैसा आचरण उनका नहीं होता है । परिणाम स्वरूप यह देखा गया है कि जो
साधक उनके बताए अनुसार साधना करने लगते हैं, उनकी प्रगति
होने लगती है और तथाकथित गुरु वैसे के वैसे ही रह जाते हैं ।
५. शिष्यों को अपने पर निर्भर करना
कुछ गुरुओं को भय लगता है कि यदि वे पूरा आध्यात्मिक
ज्ञान अपने शिष्यों को दे डालेंगे, तो उनका महत्त्व अल्प होगा । इसलिए
वे शिष्यों को पूरा ज्ञान नहीं देते ।
बस अंत में यही कहूंगा कि गुरू हेतु जल्दबाजी
न करें। धीर्ज रखें। अपनी साधना और ईष्ट पर मंत्र जप पर विश्वास रखें। वैसे ऊपर दिये
लक्षणों के अतिरिक्त कुछ बातें जो गुरू पहिचान में सहायक होती हैं। गुरू को खूब ठोंक
बजाकर देखें।
कुछ वाहिक लक्षण:
जो आडम्बर से दूर हो।
जिसके वस्त्र साधारण किंतु स्वच्छ हो। जो तरह तरह की मालाओ अंगूठियो वेश भूषा से
दूर हो। मूछें बार बार न ऐठें। (यह गर्व का प्रतीक हैं)। सद्गुरु स्वामी शिवोम्
तीर्थ जी महाराज कहते हैं जो स्वयं ग्रह नक्षत्रों के बंधन से बंधा हो वह आपको
क्या मुक्त कर पायेगा। जो अपने नाम के आगे बडे बडे नाम पट्ट न
लगाता हो। (जैसे भगवान, अखंडमंडलाकार, जगतगुरु,
जगतमाता इत्यादि)।
जिसमें समत्व हो यानी
न कोई बडा शिष्य न छोटा। जिसने दक्षिणा अधिक दी उसको अधिक प्रसाद। जिसने कुछ नहीं
दिया सिर्फ प्रणाम किया उसे कुछ नहीं। चेहरे पर सौम्यता हो, दीनता
हो, प्रेम हो पर मलीनता न हो। तेज हो निस्तेज न हो।
जो न अधिक बोलता हो, चपलता
न हो। व्यर्थ बहस में न पडे न उलझे। कम खाता हो, खाने का
लालची न हो। इस तरह के अनेकों गुण हों।
परंतु अंतिम जो
आन्तरिक है।
वह मनुष्य जिसके पास
बैठने से आपको क्रिया होने लगे (जैसे घूर्णन, कम्पन, रोमांच,
ठंड, गरमी, आवेग,
कुछ वो जो अचानक हो और आप के लिये अनहोनी), ध्यान लगने लगे, सिर भारी होने लगे, चक्कर आने लगे, नींद आने लगे। वह आपके गुरु होने
लायक है। जो आपको स्वप्न में दिखाई दे। मैने अपने एक मित्र श्री अंशुमन द्वेदी को
शक्तिपात परम्परा के एक सन्यासी गुरु से मिलाया, जिसको देखकर
अंशुमन बोले स्वामी जी आपको तो स्वप्न में देखा है। मैं स्वयम स्वपन और ध्यान के
माधयम से अपने गुरु तक पहुचा था।
प्राय: जो साकार सगुण
अराधना करते हैं उनको आवश्यकता पडने पर साकार देव इष्ट बनकर समर्थ गुरु के पास खुद
पहुंचा देते हैं। यह अनुभव तो मेरा भी है। पर जो निराकार निर्गुण साधना करते हैं
वह प्राय: मनोचिकित्सक के पास तक जाने की नौबत आ जाती है।
अत: मित्रों आप गुरु
को ढूंढना छोडकर अपनी साधना में लग जाइये। मेरा सुझाव है सगुण साकार आराधना और
उपासना ही करे तो बेहतर है।
वैसे आपके घर पर बिना गुरु के साकार, निराकार, नास्तिक, मुस्लिम और ईसाईयों की ध्यान साधना हेतु समध्यावि यानी MMSTM हेतु लिंक :
http://freedhyan.blogspot.in पर
जायें। आप इस विधि से ध्यान करें।
Bahut hi sundar
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