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Sunday, June 24, 2018

आध्यात्म में नीरसता कुछ उत्तर



आध्यात्म में नीरसता
कुछ उत्तर
खोजी देवीदास विपुल



विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
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वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
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आध्यात्म में एक अवस्था के बाद नीरसता सी महसूस होती है। धीरे धीरे इसका समय बढ़ता जाता है। जब जगत में मन नही लगता, कोई इच्छा न को, कोई कामना न हो तो अक्सर यह ख्याल आता है कि मैं जिंदा क्यो हूँ। क्या मुझको देह त्याग देना चाहिए।जब मुझे जगत से न कुछ लेना है न कुछ देना है तो मैं जीवित क्यो हूँ।

शिवा जी महाराज के गुरु समर्थ गुरू रामदास महाराज को जब 12 साल में 12 करोड़ रामनाम जप करने के पश्चात राम के दर्शन और ब्रह्म की अनुभूति हुई। तो उन्होंने नदी में यही सब सोंचकर छलांग लगा दी। पर डूबने के पूर्व उनको राम ने बचा लिया और बोला तुम्हारा जन्म सनातन की रक्षा हेतु हुआ है। इसके बाद वह शिवाजी के गुरू बने और सनातन की रक्षा हेतु शिवा को प्रेरित किया।

यदि तुम्हारा यह हाल है तो अपने गुरू महाराज से ब्रह्मचारी दीक्षा हेतु प्रार्थना करो। पर तुम्हे तब घर द्वार नौकरी सब छोड़नी पड़ेगी। सन्यास जीवन बहुत कठिन होता है। अतः गहन विचार करो। ग्रहस्थ्य जीवन के साथ ईश प्राप्ति कर अपने सारे कर्मफल सुखपूर्वक भोगकर मुक्त हो।

जगत कल्याण हेतु एक तरीका यह भी है कि तुम नौकरी के साथ जगत में नाटक करते हुए रहो। शिक्षक हो जो एक अति सुंदर पेशा है। छात्रों का भविष्य और चरित्र निर्माण करो। अपने वहाँ किसी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की शाखा से जुडो। वहाँ तुमको जन सेवा के राष्ट्र सेवा के अनिको मार्ग मिलेंगे। तब तुम वास्तविक जीवन जी सकोगे।

किसी प्रकार के विशेष अनुभवों के पीछे भागोगे तो दुखी रहोगे। मन मे भक्ति के भाव हमेशा नही रहते इसके लिए भक्तो की कथाएँ पढो। विभिन्न उपनिषद और वेदों का अध्ययन करो। यदि सँस्कृत नही आती तो उसमें कोर्स कर डालो। बिना सँस्कृत ज्ञान के आध्यात्मिक जीवन अधूरा है।

अपने मन्त्र जप को निरन्तर करते रहो। यह तुमको निराकार तक भी पहुचा देगा। जहाँ तुम्हारा ज्ञान पूर्ण हो जाएगा। तुम खुद अपनी अंतर्दृष्टि से सृष्टि का निर्माण और विनाश देख सकोगे।

यह बात मन से निकाल दो कि मैं तुमसे नाराज हूँ या कोई प्रसन्न है। मुझमे कोई विशेष बात मत देखो। अपने गुरू के प्रति निष्ठा रखो। व्यर्थ के प्रश्नों से बचो। तुम्हारा आत्मगुरू जागृत है। जो तुमको उत्तर दे देता है तब तुम क्यो अपनी मूर्खता प्रदर्शित करते हो। समय के पूर्व कुछ घटित नही होता। अतः समय को भूल जाओ। तुम्हारा आध्यात्मिक भविष्य उज्ज्वल है। अतः परेशान और भृमित मत हो।

चरैवेति चरैवति। सिर्फ चलते रहो। चलते रहो। निर्बाध अनन्त से अनन्त की ओर। एक नदी की भांति। बस दृष्टा भाव रखो। विश्वास रखो अपने पर। प्रभु पर। तुम न कुछ लेकर आये और न जाओगे। एक मुसाफिर हो जीवन यात्रा की गाड़ी के। यह तुम समझ चुके हो पर बीच बीच मे भटक कर किसी अन्य स्टेशन पर बीच मे उतरने की चेष्टा कर भूल करते हो।
मैं समझता हूँ तुम्हारे पिछले अनेको प्रश्नों के उत्तर आज तुम्हे सही मार्गदर्शन के साथ मिल गए होंगे। आगे हरि इच्छा। 

मनुष्य बड़ा नही होत है। समय होत बलवान।।
और अधिक कर गुजरने की तमन्ना है। अपने कस्बे में प्रवचन की व्यवस्था करो। जहाँ लोगो की आध्यात्मिक जिज्ञासा के साथ अन्य योग सम्बन्धी चर्चा हेतु मैं स्वयं उपस्थित हो जाऊंगा। साथ मे अंशुमन द्विवेदी भी रहेगे। हो सकता है साथ मे अरुण दद्दा और तुषार मुखर्जी भी आ जाये और तुमको समाज सेवा की एक दिशा मिल जाये।

यह अनुभव करना आसान नही होता है। यह मात्र भक्ति योग या मार्ग से सहज प्राप्त होता है। जब मनुष्य परम् प्रेमा भक्ति में डूबकर ब्रह्म मैं हूँ यह अनुभव करता है और यह अनुभव लम्बा चलता है। भक्ति विभक्त न होकर गहन होती जाती है। गर्व की गुरू बनने की नाम या दाम की लालसा नही होती है तब प्रभु यह अनुभव करवाते है। 

अतः आपकी बात दूर की बात है। पास की नही। 
दूसरे ज्ञान योग का अनुभव जो बिना भक्ति के हो वह अनिल जैसी अवस्था ला देता है। आप दोनों एक ही स्तर पर है पर अनुभव अलग होने के कारण भाषा अलग है।

निश्चित संख्या और प्रतिदिन जाप हेतु माला ठीक है। पर उंगली पर भी कर सकते हैI। यू टाइमपास हेतु करते रहो।
वैसे मेरा मानना है यदि माला सिद्द हो जाये तो यह एक शक्ति का हथियार और बचाव हेतु कवच भी बन जाती है। वहीं ईश भक्त को कामना से क्या अत: मंत्र जप बिना माला सतत निरंतर सघन करते रहो। यह तुमको गुरू से लेकर ज्ञान तक स्वत: पहुंचा देगा।
सवाल यह है हम बहुत कुछ मानते है। पर मानना सत्य नही भी हो सकता है। प्रश्न यह है कि हम जाने कैसे। क्योकि जानना ही श्रेष्ठ है। एक बार हम जान ले तो मानना तो अपने आप हो जाएगा।
जानने हेतु हमे प्रयत्न करना पड़ता है।
सही दिशा में किया गया प्रयत्न ही हमे सही गन्तव्य तक ले जाता है।
जहाँ पहुचकर हम जान लेते है। हम क्या है। यही ज्ञान हमे बन्धनों से मुक्त करता है।
जानने के मार्गो में सबसे सहज सुंदर टिकाऊ और सस्ता मार्ग है नाम जप और समर्पण।
नाम जप से मरा शब्द भी डाकू रत्नाकर को बाल्मीकि ऋषि बना गया।
अतः शब्दो के भंवर में पुस्तकीय ज्ञान के महासागर में मत उतराओ। यहाँ डूबकर कुछ न मिलेगा।
भक्ति के और प्रभु स्मरण यानी नाम जप के सागर में बार बार गोते लगाओ। यही कल्याण का श्रेष्ठ मार्ग है।
दुनिया मे जो दिख रहा है वह खजाना नही है, वह तो कागज के टुकडे और खनकते सिक्के है, सच्चा खजाना तो हमारे अंदर है, जो बहुत बेशकीमती है, इस खजाने को हर कोई पाना चाहता है लेकिन मिलता उन्ही को है जो अन्तर्मन होकर खोजने का प्रयास करते है। जिनको यह खजाना प्राप्त हो जाता है उनको न बंगला न गाडी न किसी तरह का ऐश्वर्य चाहिये होता है, वरन् दुनिया के सभी तथाकथित ऐशवर्यवान उनके इसी धनी रूप के दर्शन के ललायित होते है, दूर दूर से आते है। जय बाबा महाकाल जय हिन्द जय माँ नर्मदे जय सत्य सनातन।

Dear Vipul
I have query -
As you pointed that Sanskrit has ' Beej Mantra' oe seed words.
If I am not good at Sanskit, due to which I commit errors in reciting the Mantra, which may mean anything different that it intends, than is it not better to recitr its hindi equivalent or Tikka(meaning as may be explained by some knowledgeable man).
I have no hesitation to say that I had sanskrit language during my studies of class 5th & 6th but due to long illness I could hardly learn & retain it.

मात्र अनुष्ठानिक जप करने में शुध्दि पर बहुत ध्यान देना पड़ता है। दूसरे जानबूझकर अशुद्धि उचित नही।
अनजाने में हुई अशुध्दि क्षम्य है क्योंकि आपके मस्तिष्क में तो सही विचार है। प्रभु प्रेम के भूखे होते है। दिखावे के नही।
आप हिंदी का टीका पढेंगे तो वह मन्त्र नही हुआ। मन्त्र केवल कुछ शब्दों का जो अर्थ युक्त होते है और प्रार्थना लिए हुए होते है । वह होता है । 

फिर आप कैसे जानते है कि आप गलती कर रहे है। इसके मतलब आप जानते है। प्रयास करे।
हा गीता, माँ का पाठ सँस्कृत में मजा नही आता क्योकि समझ नही पाते तो उसको हिंदी में ही पढ़ सकते है। मैं भी हिंदी पढ़ता था और हूँ।
तुम पुर्व जन्म के उच्च साधक हो। तुमको अनुभव हो चुके है। पर तुम्हे अपने कर्मफल भी भोगने है। जिसके कारण तुम भृमित रहते हो। दूसरे तुमको मोबाइल्मीनिया है जो उचित नही। हफ्ते में कुछ दिन मोबाइल से दूर रहने का प्रयास करो।
सत्य वचन। कलियुग का कारण ब्राम्हणत्व का डगमगाना ही है। इसकी वास्तविक परिभाषा को भूलकर वाहीक रूप में जाने से पुण्य का क्षय होता है। तब पाप बढ़ जाता है और कलियुग चरम पर पहुच जाता है।
वर्ण यदि अपने कर्म के हिसाब से बने और कर्म करे तो समाज सुखी रहे। पर कर्म से नही जन्म से वर्ण बनते है जो गलत है।

मैं तो महाराष्ट्र के महादलित साहित्यकार डॉ रोहिदास वाघमारे के घर पर उनके साथ उनकी पत्नी के हाथ का बना भोजन कर चुका हूँ। वह भी 1994 में। उस समय वे जे जे अस्पताल अलब्स कामा में थे।
आज यदि हमें सनातन को बचाना है। हिंदुत्व की रक्षा करनी है। तो हमे वास्तविक रूप में छुआछूत से निकलकर अपने को मात्र हिन्दू बोलना होगा। वरना वह दिन भी आएगा जब जिस तरह पाकिस्तान से दलित मिट गया तो हिंदुत्व भी मिटा गया। इसी तरह देश से हिन्दू मिट जाएगा।
जो मूर्ख दलित इस मुगालते में वे बचे रहेंगे। तो यह भूल जाओ। चलती तलवार सिर्फ कुछ मुस्लिम को छोड़ती है । इस बात का तो इतिहास गवाह है।


Mmst का निर्माण आस्तिक नास्तिक अहंवादी ईसाई मुस्लिम किसी भी व्यक्ति के लिए है। बस वह पागल न हो। राम का नाम अपना नाम जेसस का नाम अल्लहरहीम कुछ भी बोलो और mmst करो तुमको खुदा गाड़ भगवान की अनभूति का अनुभव होगा होगा और होगा
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"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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