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Wednesday, September 16, 2020

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 29 (राम नाम की महिमा)

 आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 29

(राम नाम की महिमा) 

विपुल के बावरे दोहे।

मैं पापी कपटी जगत, पाप किए हैं अनेक।

चरण पखारू मात मैं, सुन लो विनती एक।।

साधन कुछ न कर सका, भकती कोसों दूर।

मृग समान जीवन भया, मद में चकनाचूर।।

पापनाशिनी मात है, देती कृपा अनेक।

उसमें भी न मिल सका, जनम लिए हैं अनेक।।

वृथा जीव यह खट रहा, नहीं समझ कुछ मोल।

आगे जीवन कौन सा, तोल सके तो तोल।।

हड्डी चूसता श्वान जो, रक्त स्वयं कर भोग।

यह जीवन यूं बीतता, कर्म अकर्म न योग।।

तुझे प्रभु न मिल सका, जान सका नहीं मर्म।

जगत प्रपंच करता रहा, मान इसी को धर्म।।

निंदा स्तुति सब ही भली, रहूं नहीं मैं लीन।

मैं मूरख कछु जाने न, चाकर प्रभु का हीन।।

दास विपुल है बावरा, रचे बावरी बात।

मूरख कुछ भी जाने न, जीवन की सौगात।।

Bhakt Lokeshanand Swami: हनुमानजी भगवान की भक्ति रूपी संजीवनी बूटी लेने चले, तो रावण ने कालनेमि को हनुमानजी का रास्ता रोकने भेजा। कालनेमि भेष बदलकर बैठ गया।

देखो रावण और कालनेमि तो भेष बदलते ही हैं, जामवंतजी और हनुमानजी भी बदलते हैं। पर अंतर है। रावण, कालनेमि संत हैं नहीं, बने हुए हैं। जामवंतजी, हनुमानजी संत हैं, पर अपना स्वरूप छिपा कर रखते हैं।

"किए कुवेष साधु सन्मानु। जिमि जामवंत हनुमानु॥"

कालनेमि माने समय का चक्र। समय के चक्कर में बड़े बड़े भटक गए। जो साधक धैर्यवान है, जो समय के चक्र से घबराता नहीं, दुख को प्रारब्ध का फल जानकर चलता ही चला जाता है, वही भक्ति मार्ग पर आगे बढ़ पाता है। कितने ही साधक, चलते तो बड़े जोश में हैं, पर जरा सी विपरीत परिस्थिति आते ही वापस मुड़ जाते हैं।

वे पहुँच तो पाते नहीं, अपनी पुरानी जगह पर बैठे बैठे, स्वयं कालनेमि बनकर, अपने अधकचरे अनुभवों से, अन्य चलने वालों को भटकाने का काम करने लगते हैं। ऐसे लोग ही सनातन परम्परा को नष्ट भ्रष्ट करने वाले, घोर पापी हैं। वे तो पैदा ही न हुए होते, या इस मार्ग पर न ही चलते तो ही अच्छा रहता।

हनुमानजी ने कालनेमि से दीक्षा माँगी नहीं, कालनेमि स्वयं कहता है कि मैं तुम्हें दीक्षा दूंगा। यही सब कालनेमियों की रहनी है।

हनुमानजी ने सोचा कि पहले प्यास बुझा लूं। सरोवर में गए तो मगर ने पैर जकड़ लिया। ये मगर सबके पैर जकड़ता है। भक्ति करना तो चाहते हैं "मगर"। मैं नाम तो जपता "मगर"। और यह हाथ नहीं जकड़ता, पैर जकड़ता है, माने चलने नहीं देता।

गति रुक जाए तो भगति कैसे हो? भक्ति मार्ग में गति का रुकना ही दुर्गति है। इस "मगर" से तो कोई दृढ़ संकल्प वाला साधक ही बच पाता है। हनुमानजी ने मगर पर पैर की ठोकर से प्रहार किया। मगर ने कपटमुनि कालनेमि का भेद खोल दिया।

कालनेमि बोला- आओ! अब दीक्षा ले लो। हनुमानजी कहते हैं- दीक्षा बाद में देना, पहले दक्षिणा तो ले लें। अपनी पूंछ में कालनेमि का सिर लपेटा, और उठाकर भूमि पर पटका। काल के चक्र की बाधा समाप्त हुई।

यों अगर-मगर और समय चक्र की बाधा को पार कर हनुमानजी अपने लक्ष्य, संजीवनी बूटी की ओर बढ़ चले।

अब विडियो देखें- सच्चे साधक को कौन ठगे

https://youtu.be/YwgJusqfk6o

+91 96374 62211: *अवश्य देखें ...*

🌸 नामजप सत्संग : *श्राद्ध विधि करने का उद्देश्य*

🔸 मृत व्यक्ति के वस्त्रों का क्या करना चाहिए ?

🔸 श्राद्ध विधि करने का उद्देश्य

🔸दर्शकों के अभिप्राय

Youtube Link :

🔅https://youtu.be/hIMtao95uTg

🔅https://youtu.be/ZyGr7oitusA

*हिन्दू धर्म की महानता समझानेवाले और भक्तिभाव बढानेवाले ऑनलाइन सत्संग*

पंडित हरिओम दिक्षित ज्योतिषाचार्य  🇭🇺किरावली आगरा भारत, कब होगा पूर्णिमा-अमावस्या श्राद्ध, जानें हर बात

इन दिनों में पिंडदान, तर्पण, हवन और अन्न दान मुख्य होते हैं.

हर साल पितृपक्ष पर पूर्वजों के लिए श्राद्ध कर्म किया जाता है. इन दिनों में पिंडदान, तर्पण, हवन और अन्न दान मुख्य होते हैं. ये सप्ताह पितरों को समर्पित होते हैं.

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🖌️🖌️ऐसी मान्यता है कि जो लोग पितृ पक्ष में पूर्वजों का तर्पण नहीं कराते, उन्हें पितृदोष लगता है.,, पितरों की शांति के लिए श्राद्ध किया जाता है श्राद्ध इस साल पितृपक्ष पर 19 साल बाद बन रहा है विशेष संयोग,🏸🏸🏸🏸🏸🏸

,, पितृपक्ष में इस साल भी बहुत सारी भ्रांतियां हैं कुछ विद्वान इसको मंगलवार से प्रारंभ करेंगे लेकिन कुछ ज्योतिषी लोग इसको बुधवार से प्रारंभ करेंगे पंडित हरिओम दिक्षित ज्योतिषाचार्य, के अनुसार  एवं शास्त्रों के अनुसार  के अनुसार मंगलवार 1 सितंबर से ही पितृपक्ष प्रारंभ होगा

इस साल पितृपक्ष 1 सितंबर से शुरू हो रहे हैं. अंतिम श्राद्ध यानी अमावस्या श्राद्ध 17 सितंबर को होगा.

+91 96374 62211: *अवश्य देखें ...*

🌸 भावसत्संग : *भक्ति के अधीन भगवान*

🔸भक्त गौरदास बाबा की फूल सेवा

🔸मालिन सुखिया को कैसे दिए कान्हा ने दर्शन

🔸गणपतिपुले मंदिर के मानस दर्शन

Youtube Link :

🔅https://youtu.be/1Nza68NIRSI

🔅https://youtu.be/mjE7FXHiz10

*आज 'पितृपक्ष'पर विशेष ऑनलाइन प्रवचन !*

1. श्राद्ध क्यों आवश्यक है ?

2. श्राद्ध में ब्राह्मणों को दिया भोजन पितरों तक कैसे पहुंचता है ?

3. कौवा पिंड को छूने के संदर्भ में क्या शास्त्र है ?

4. श्राद्ध किसने और कहा करना चाहिए ?

5. श्राद्ध करने से क्या लाभ होते है ?

🌸 धर्मसंवाद : *स्वामी विवेकानंदजी को अपेक्षित भारतीय शिक्षा (भाग 4)*

🔸स्वामी विवेकानंदजी ने भारतीय शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी के इनके विषय में क्या मार्गदर्शन किया ?

Youtube Link :

🔅https://youtu.be/5XSWMxowFsU

🔅https://youtu.be/IwZ9KQS_BcQ

Bhakt Gautam Swami R Y Rajput Noida: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=731181970772091&id=228552764368350&sfnsn=wiwspmo&extid=r8uCb3zD4SYVwZuO

Bhakt Lokeshanand Swami: "देखा सैल ना औषधि चीन्हा।

सहसा कपि उपार गिरि लीन्हा॥"

हनुमानजी पर्वत पर पहुँचे, पर बूटी पहचान में नहीं आई, तो पर्वत ही उठा लिया। भैया! हनुमानजी तो ज्ञानीनामाग्रगण्यम् हैं, वे तो परमगुरु हैं, सब जानते हैं। वे तो जानबूझकर अज्ञानी होने का अभिनय कर रहे हैं, कि हमें बात समझ में आ जाए।

अब देखो, और कोई होता तो आकर कहता कि हमने तो सब जगह देखा, पर मिली नहीं तो क्या करते? वापस आना ही पड़ा।

पर हनुमानजी विचार करते हैं कि गुरुजी ने कहा था कि इस पर्वत पर संजीवनी बूटी है, तो होगी ही। हम नहीं पहचान पा रहे हैं, तो इसका अर्थ यह नहीं कि है ही नहीं। तो पर्वत को ही गुरुजी के पास ले चलूं।

विचार करें कि पर्वत उठा लाने का अर्थ क्या है? भगवान की भक्ति ही संजीवनी बूटी है, शास्त्र ही पर्वत है। यह लीला हम सब को दिखाने के लिए है कि शास्त्र अपनी बुद्धि से समझ में नहीं आता। तुलसीदासजी स्पष्ट कहते हैं-

"अनमिल आखर अर्थ न जापू।

प्रकट प्रभाव महेश प्रतापू॥"

अपनी बुद्धि से शास्त्र पढ़ने वाले को, न तो अक्षरों का मेल ही बैठता है, न अर्थ ही स्पष्ट होता है। इसका अर्थ तो कोई इस धरती पर मनुष्य बनकर घूम रहा परमात्मा ही अपने प्रताप से बताया करता है।

शास्त्र तो दवा का गोदाम है। इसमें रखी दवा अपनी मर्जी से मत खाओ, किसी वैद्य के मार्गदर्शन में दवा लो।

ध्यान देकर समझ लें, शास्त्र का सही अर्थ समस्त भ्रमों से निवृत्त कर देता है, और यदि अर्थ ही गलत लगा लिया, जो की लगाया जा ही रहा है, तो यह और भ्रम में डाल देता है।

शास्त्र कभी भी, न तो सूर्य प्रकाश में समझा जाता है, न ही चन्द्र प्रकाश में ही समझा जाता है, न किसी अन्य प्रकाश में समझा जाता है, शास्त्र जब भी समझा जाता है किसी आत्मज्ञानी महापुरुष के ज्ञान प्रकाश में ही समझा जाता है।

अब विडियो देखें- संजीवनी बूटी मिलेगी कहाँ?

https://youtu.be/rTw6hGgAPUc

*रहस्यभेदो याच्ञा च नैष्ठुर्यं चलचित्तता ।*

*क्रोधो नि:सत्यताद्यूतमेतन्मित्रस्य दूषणम् ॥*

गुप्तवार्ता को अन्यत्र प्रकट करना, धनादिक का मांगना, क्रूरता रखना, चित्त की चंचलता, क्रोध रखना, द्यूत खेलना ये सब मित्रता के दूषणरूप है ।

Followings are the negative traits of a FRIEND;

* Disclosing the   confidential things of one another,

*Rude behaviour,

*Flickering behaviour,

*Gambling, &

*Demanding money time and again.

*शुभोदयम्! लोकेश कुमार वर्मा (L K Verma)*

Printer Raman Mishra: इस दुनिया में किसिम किसिम के नकचढ़े होते हैं। लेकिन विशिष्ट किस्म के नकचढ़े वे होते हैं जिनके पास अपने चुने हुए क्षेत्र में महारत तो हासिल नहीं होती लेकिन अपने रखरखाव या ज्ञान से दूसरों को अपमानित करने का प्रयास वे जरूर करते हैं। यह जरूरी नहीं हैं कि किसी नकचढ़े व्यक्ति को यह एहसास भी हो कि वह नकचढ़ा या घमंडी है। लेकिन दूसरे लोग उसे फौरन ही समझ जाते हैं।

दरअसल, नकचढ़ेपन का मूल तत्व यह है कि इसका शिकार व्यक्ति दूसरे लोगों को प्रभावित करने का प्रयास करता है। वैसे हर नकचढ़ा व्यक्ति स्वभाव से बुरा नहीं होता। कुछ तो फैशन की वजह से ऐसे हो जाते हैं, और कुछ सामाजिक परिस्थितियों के कारण। इसलिए अगर थोड़ा-सा प्रयास करके किसी के नकचढ़ेपन को दूर किया जा सकता है तो इसमें कोई हर्ज नहीं है।

गौरतलब है कि १९वीं शताब्दी से पहले स्नॉब या नकचढ़ा शब्द अँगरेजी में मौजूद नहीं था। इससे मालूम होता है कि पहले लोग बहुत सादे थे और नकचढ़ा होना विशिष्ट आधुनिक बीमारी है बल्कि लोकतंत्र की बाई प्रोडक्ट। ज्यादातर अजीबो गरीब बर्ताव बदलते माहौल के कारण उत्पन्न हो रहे हैं। जो सांस्कृतिक परिवर्तन हो रहा है उसके कारण नकचढ़ों की संख्या बढ़ती जा रही है।

इसमें कोई शक नहीं है कि नकचढ़ा होना और दूसरों को अपने सामने तुच्छ समझना बुरी आदत है, लेकिन सवाल यह है कि इससे छुटकारा कैसे पाया जाए? इस संदर्भ में विशेषज्ञों के निम्न सुझाव हैं-

⚫जीवन की इस तेज रफ्तारी में हम दूसरों के प्रति दयालु होना अक्सर भूल जाते हैं। इसलिए स्नॉब होने से बचने का मुख्य तरीका यह है कि दूसरों को अपनी बराबर का समझें, और उन्हें सम्मान दें।

⚫दूसरों के साथ वैसा व्यवहार करें, जैसा कि आप चाहती हैं कि वे आपके साथ करें। इसलिए अपने आपको दूसरों के जूतों में रखकर देखने की कोशिश करें कि जब आप उनको अपमानित करती हैं तो वे कैसा महसूस करते हैं।

⚫कम्युनिकेशन में दक्षता हासिल करें, ताकि अपने इर्द-गिर्द वाले नकचढ़े बर्ताव से बच सकें।

⚫अपने विचारों और जीवन शैली में अधिक क्रिएटिव बनें। लोगों से संपर्क करना न छोड़ें।

⚫अपनी निजी स्पेस को अपनी स्नॉब स्पेस न बनाएँ और उससे बाहर निकलें।

⚫आप जो हैं उसमें विश्वास करें।

⚫आपके पास जो कुछ है या जो कुछ आपने हासिल किया है उसे अपने लिए पर्याप्त समझें। जीवन में आपकी उपलब्धियों का कोई विकल्प नहीं है।

⚫किसी का अपमान न करें। अपने से बड़े या छोटे सभी को सम्मान दें। ध्यान रहे कि जो पेड़ फलों से लदा होता है उसकी ही शाखें झुकी होती हैं और इसके बावजूद सभी उसी को उपलब्धि की नजर से देखते हैं। इसलिए स्नॉब न बनें, अपने नखरे और नकचढ़ेपन को ताक पर रखकर इंसान बनने का प्रयास करें।

Bhakt Gautam Swami R Y Rajput Noida: https://m.facebook.com/story.php?story_fbid=4320645321310640&id=430486686993209&sfnsn=wiwspmo&extid=bZ8CnZnXvV7Wu6o6

Jb Ashutosh C: When we Loose all Hopes in Life & think that this is the End,God Smiles from above & says ''Relax dear,it's just a Bend not the End.''.. Good morning

Bhakt Komal: श्री योग वशिष्ठ

मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण

अध्याय 6

विश्वामित्र जी का उपदेश

ब) राजा जनक का उपदेश


इस पर राजा जनक ने कहा - मुने! इस ब्रह्माण्ड में एक अखंड चिन्मय परम पुरुष परमात्मा के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं है। आपने अपने विवेक से इसे जाना है तथा अपने पिता से भी इसको सुना है। इससे बढ़कर दूसरा कोई जानने योग्य तत्त्व नहीं है। जो प्राप्त करने योग्य वस्तु है उसे आपने पा लिया है। आपका चित्त पूर्णकाम हो गया है। आप बाह्य विषय की ओर दृष्टिपात नहीं करते, अतः मुक्त हैं। अभी कुछ पाना या जानना शेष रह गया है, इस भ्रम को त्याग दीजिए।

राजा जनक के येे वचन सुनकर शुकदेव जी के शोक, भय और श्रम सभी नष्ट हो गए। वे सर्वथा संशयरहित हो गए। तदंतर वे मेरुपर्वत पर समाधि लगाने के लिए चले गए। वहां दस हजार वर्षों तक  निर्विकल्प समाधि में स्थित रहे तथा प्रारब्ध क्षीण हो जाने पर परमात्मा में लीन हो गए।

स) विश्वामित्र जी का वशिष्ठ जी से अनुरोध (सर्ग २)

विश्वामित्र जी श्री राम को यह कथा सुनाकर मुनि वशिष्ठ जी से कहने लगे कि श्री राम ने ज्ञातव्य वस्तु को जान लिया है। इसलिए सारे भोग समूह उन्हें रुचिकर नहीं ज्ञात हो रहे हैं। भोगों के चिंतन से ही अज्ञान जनित बन्धन दृढ़ होता है और भोग वासना के शान्त हो जाने पर संसार बंधन क्षीण हो जाता है। भोग वासना के क्षय को ही मोक्ष कहते हैं और विषयों में होने वाली दृढ़ वासना को ही बन्धन बताते हैं। जिसकी दृष्टि राग आदि दोषों से रहित है वही तत्वज्ञ है और वही विद्वान है। जब तक जानने योग्य वस्तु का ज्ञान नहीं होता तब तक मनुष्य के हृदय में विषयों की ओर से वैराग्य नहीं होता। जब श्री राम सद्गुरु के मुख से यह सुन लेंगे कि ' यही परमार्थ वस्तु है ' तब इनके चित्त को अवश्य विश्राम प्राप्त होगा। इसके चित्त के विश्राम के लिए समस्त इक्ष्वाकुवंशीय के शिक्षक और कुलगुरू वशिष्ठ जी यहां युक्ति का प्रतिपादन करें। महात्मन! वही ज्ञान, वही शास्त्रार्थ और पांडित्य सार्थक एवं प्रशंसित है, जिसका वैराग्य युक्त उत्तम शिष्य के लिए उपदेश दिया जाता है। जिसमें वैराग्य नहीं है तथा जो शिष्य भाव से रहित है, उसे जो कुछ भी उपदेश दिया जाता है, वह कुत्ते के चमड़े से बने हुए कुप्पे में रखे हुए गाय के दूध की भांति अपवित्रता को प्राप्त हो जाता है।

गाढ़ीनंदन विश्वामित्र के ऐसा कहने पर ब्रह्माजी के पुत्र महातेजस्वी वशिष्ठ मुनि ने, जो ब्रह्माजी के समान ही ज्ञान विज्ञान से सम्पन्न थे।

वशिष्ठ जी बोले - मुने! आप जिस कार्य के लिए मुझे आज्ञा दे रहे हैं उसे मैं बिना विघ्न बाधा के आरंभ कर रहा हूं। शक्तिशाली हो कर भी संतों की आज्ञा का उल्लंघन करने में कौन समर्थ हो सकता है? पूर्व काल में निषद पर्वत पर पूजनीय पद्मयोनी ब्रह्माजी ने संसार रूपी भ्रम को दूर करने के लिए जिस ज्ञान का उपदेश किया था, वह अविकल रूप से मुझे याद है।

क्रमशः

Printer Raman Mishra: *आज़ाद के अंतिम संस्कार से जुड़ी कहानी*

पं. शिव विनायक मिश्र के पोते सतीश मिश्र के मुताबिक आजाद के अंतिम संस्कार में कमला नेहरू आईं थीं और उनको पता था कि पं. शिव विनायक मिश्र आजाद के करीबी हैं इसलिए उनको भी बुलवाया गया. इलाहाबाद में रसूलाबाद घाट पर अंतिम संस्कार किया गया.

अंतिम संस्कार में क्रांतिकारियों के बड़े नेता शचिंद्रनाथ सान्याल की पत्नी प्रतिभा सान्याल भी पहुंचीं. उन्होंने जोरदार भाषण दिया और कहा - ‘‘जब खुदीराम बोस को फांसी पर लटकाया गया था तो हम बंगाल की माताएं बोस की राख लेकर गई थीं और अपने बच्चों को हमने उसका ताबीज बनाकर दिया ताकि वो भी क्रांतिकारी बनें.’’ ऐसा कहना था कि भीड़ टूट पड़ी और एक चुटकी राख के लिए भगदड़ मच गई.

बाद में शिव विनायक मिश्र बची हुई अस्थियां लेकर बनारस आए. सरदार भगत सिंह के छोटे भाई कुलतार सिंह 1974 में कांग्रेस के टिकट से सहारनपुर से एमएलए चुने गए थे. सूबे के सीएम नारायण दत्त तिवारी ने उन्हें खाद्य रसद और पेंशन राज्यमंत्री बनाया. 1976 में कुलतार सिंह ने बनारस जाकर पं शिवविनायक मिश्रा के घर से आजाद के अस्थि कलश को हासिल किया. कई शहरों में प्रोग्राम हुए, फिर उन्हें लखनऊ संग्रहालय में रख दिया.

साभार

Printer Raman Mishra: अशांत चित्त बेहद खतरनाक होता है। चित्त को शांत करने का सिर्फ एक ही उपाय है और वह है ध्यान। ध्यान करने से जहां आपका मन शांत होगा, वहीं आपको शांति भी प्राप्त होगी। मन यदि अशांत है तो सारी पूजा-पाठ और कर्मकांड पाखंड है। मन का निष्क्रिय होना ही ध्यान है और कामनाओं का त्याग ही संयम है।

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मन बेहद चंचल होता है। मन का पेट बुरे विचारों, बुरी आदतों से भरता है। जब तक इसे निष्क्रिय नहीं करेंगे तब तक ध्यान में मन नहीं लगाया जा सकता है। उन्होंने कहा कि यदि मन खराब है और आप पूजा कर रहे हैं तो पूजा आपका शरीर कर रहा है लेकिन मन में कुछ और चल रहा है तो ऐसी पूजा किसी पाखण्ड से कम नहीं है।

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पं. विजय शंकर मेहता

K Ashwani K Panday Ahemdabad: दुनिया में अग़र कुछ सबसे अधिक दुर्लभ है तो वह है ध्यान को केन्द्रित करना।

इसी पर तुलसीदासजी ने अपने रामचरितमानस में लिखा---------

*जन्म जन्म मुनि जतनु कराहीं।*

*अंत राम कहि आवत नाहीं।।*

Jb Rajeev Sharma: Sadhana

Swami Niranjanananda Saraswati

Sadhana also lends to an interesting understanding of the human mind. There is an old swami in the ashram who likes to talk, particularly on subjects that require high understanding, such as atma, paramatma, and all similar ideas.

   One day it was raining hard and we were discussing what the scriptures say about self-relization and God-realization, whether God and the self are the same or not the same, and so on. He was saying to me, "Am I, as a human being, part and parcel of that God gene, and if not, why is my gene different? " He was going on and on about self-image and how  one can visualize oneself to be pure, luminous, peaceful, benevolent, compassionate, kind and loving. I said, "Yes, these are good ideas, but I can give you an experience that you will not find even in the shastras, the scriptures. Are you ready for it? " He said, " Yes, I am ready. "

   I said, " It is raining today. You stand in the rain with your head held high and your arms wide open, and you will have a very special revelation about yourself. A very special revelation which is not revealed in any of the shastras. "

    He said, " Wow! That is where guru comes in handy, they tell us about things that are not written down anywhere. " He ran outside, but there were many people around, so he went to the Garuda-Vishnu building which is more secluded, raced to the top of terrace, closed the terrace doors, took off his upper cloth and shirt, and stood in the rain with his head held heaven wards and arms open. He was like that for about fifteen minutes, then he dressed himself and came back.

    I asked him, "What did you experience?" He said, "Swamiji, I did as you told me. I stood in the rain with my head pointing to the sky and my arms wide open. "I said, " Then what happened? "He said, " I became wet. " I said, " Then what happened? " He said, " I felt like a fool! " I said, " That was the revelation that no shastra has spoken about. " That is the revelation about oneself that no shastra, no scripture, no guru, has ever spoken about.

   It is also the revelation that each one of you runs away from. If in your meditation you see an angel, you are happy, as you have seen something nice. If, instead, you see the devil you become disturbed and wonder, 'I am such a good person, why did I see the devil? How did the devil appear in front of me? That question will come, for you project yourself as what you are not; you hide from your own nature. Therefore hearing about and speaking about luminosity, harmony and peace is attractive to everybody, but observing the conditions that limit you and learning how to deal with them is not everybody's desire.

   The purpose of sadhana is to recognize what you are and then use that as the launching pad to improve yourself and develop a better understanding. That is the focus of sadhana, not to impose ideas like, 'Oh, when I meditate I should see light, because that is what has been said in the scriptures. ' Or, 'In one book I read that I should see a blue pearl in meditation so I must see a blue pearl. ' That is how you condition yourself to hide away from your limitations and perceive something that you are not. That is why people are not successful in sadhana.

   If you look at the yogic concepts, everything revolves around one word: self-awareness. Is that self-awareness only to be used at the time of meditation? Or should that self-awareness be part and parcel of every moment of the day and night? Is it to remain limited to the classroom environment and satsang, and beyond that there need not be any self-awareness? The purpose of sadhana is to be aware of one's limitations every moment and acquire the strength to overcome those limitations.

 ध्यान के समय मनुष्य के हृदय में वह सभी तरंगे आती हैं जो दिन में व्यस्तता के कारण नहीं आती।

राम का नाम चाहे बिना मन से लिया जाए या मन से लिया जाए कैसे  लिया जाए वह अपना कार्य करता है यह कहना कि मन इधर-उधर है यह सब बातें पूर्णतया सही नहीं है क्योंकि आरंभ में ध्यान के समय मन का भटकाव अधिकतम होता है लेकिन नाम जप के साथ और अभ्यास के साथ वह धीरे-धीरे एकाग्र होने लगता है।

सूरज की गर्मी से जलते हुए तन को मिल जाए तरुवर की छाया।

ऐसा ही सुख मेरे मन को मिला है मैं जब से शरण तेरी आया।। मेरे राम

जब मन अशांत हो तब प्रभु का नाम एक फाहे की तरीके से होता है। यही एक दवाई है मनुष्य के दर्द को कम करने की।

एक शराबी भी कबाबी भी हत्यारा भी यदि राम का नाम लेना आरंभ करता है तो एक समय के पश्चात वह भी इंसान बन जाता है।

राम का नाम कभी छुआछूत नहीं देखता कभी मन के भाव भी नहीं देखता वह दुष्ट भाव को भी नष्ट करने की क्षमता रखता है उसका नाम ले कर तो देखो।

राम के नाम का अर्थ अपने इष्ट का नाम अपने गुरू मंत्र का जाप।

इसको करते रहो जपते रहो आज नहीं तो कल यह अपना रंग दिखाएगा और गुरु से लेकर ज्ञान तक भौतिक सुखों से लेकर मोक्ष तक पहुंचाने की क्षमता रखता है करके तो देखो।

लेकिन हम बिना अनुभव के थोड़ा सा भी अनूठी होने पर विद्वान बन बैठते हैं दूसरे को गलत बताने लगते हैं कि नहीं भैया ऐसे करो वैसे करो जबकि यह सबसे बड़ी मूर्खता है प्रभु का नाम कैसे भी लो वह हमेशा दया का सागर है

 

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 30  


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