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Wednesday, October 28, 2020

संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी! खंड 3 / brahm gyan kaya khand 3

संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी!!  खंड 3

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 

👉👉लेख में सुधार और लिंक जुडते रहेगें👈👈

प्रश्न 21. जब योग का एक वाक्य अर्थ तो इतने योग क्यों???

कहीं नाद तो कहीं सहज तो कहीं शब्द कहीं भक्ति कहीं ज्ञान कहीं कर्म??? 

👉👉लेख लिंक: अंतर्मुखी बनाम योग 👈👈

👉👉लेख लिंक: अंतर्मुखी होने की विधियां 👈👈

👉👉लेख लिंक: योग की वास्तविकता और विभिन्न गलत धारणायें 👈👈

 

 
योग का एक ही अर्थ है।

यूं समझें आपको दिल्ली जाना है। मार्ग अलग, कहीं वायु यान कहीं रेलगाडी कहीं सडक कही अपना वाहन

अब सबकी गति और समय अलग। लेकिन आप किस शहर में उसकी दिल्ली से दूरी भी समय के हिसाब से महत्वपूर्ण है।

बस यही समझें।

योग की अनुभूति हेतु आपका साधन

फिर आपकी लगन

फिर आपका मार्ग

आपकी खुद की अवस्था

आप किस परम्परा के हैं। नहीं तो आप नवधा भक्ति के मार्ग या हठयोग मार्गी हैं।

आपके मार्ग का नाम जिसके द्वारा आप अंतर्मुखी होते हैं। उस पद्दति के नाम के आगे योग लगा कर मार्ग का नाम लिख दिया जाता है। 

 

👉👉लेख लिंक  अंतर्मुखी होने की विधियां👈👈


जैसे त्राटक नेत्र मार्ग इस पर ब्रम्हाकुमारी वाले पर यह बात मूर्खतापूर्ण कि हम ही सही बाकी गलत और बहुत सी बातों का श्रुति यानि वेद उपनिषद से न मिलना। यह सिद्ध करता है कि यह अपरिपूर्ण और पूर्वाग्रहित मार्ग। जैसे यह जीवित गुरू नहीं मानते। काम को गलत मानकर पति पत्नि को भाई बहन बना देते हैं। जिस कारण मनुष्य काम के संस्कार न भोग कर उस ऊर्जा को नहीं सम्भाल पाता है और पागल हो जाता है। इस मत ने दुनिया में सबसे अधिक मस्तिष्क रोगी बना दिये।

कुण्डलनी मार्ग को चक्र को नहीं मानते जो सीधे सीधे गीताज्ञान पर प्रहार है। 

 


कान मार्ग जैसे शब्द योग राधास्वामी मत। यह शब्द देकर बाकी को गलत बताकर शिष्य को रोक देते हैं मात्र गुरूभक्ति सिखाते हैं जो बेहद आपत्तिपूर्ण है। फिर भी यह ब्रह्माकुमारी से बेहतर। 

 


नासिका मार्ग़ जैसे विपश्यना अथवा प्रेक्षाध्यान। निराकार कुछ सीमा तक चार्वाक पर यह गीतानुसार है। किंतु यह पूर्वाग्रही नहीं। 

 


मुख मार्ग जैसे मंत्र जप। यह सबसे प्रचलित मार्ग और मेरे अनुसार सबसे सरल सुगम और टिकाऊ मार्ग। पर कौन सा मन्त्र जो विभिन्न समय लेता है। समर्थ गुरू मंत्र, बीज मंत्र सिद्ध मंत्र प्रचलित मंत्र किसी विशेष प्रयोजन हेतु निर्मित मंत्र। 


 

इसमें भी रामपाल मार्गी। यह बात मूर्खतापूर्ण कि हम ही सही बाकी गलत और बहुत सी बातों का श्रुति यानि वेद उपनिषद से न मिलना। यह सिद्ध करता है कि यह अपरिपूर्ण और पूर्वाग्रहित मार्ग। यह विभिन्न मार्ग के मंत्र देकर बाकी को गलत बताकर शिष्य को रोक देते हैं मात्र अपनी भक्ति सिखाते हैं जो बेहद आपत्तिपूर्ण है। बिल्कुल ब्रह्माकुमारी की तरह शिष्य स्वतंत्र नहीं। 

 👉👉कबीर से साक्षात्कार👈👈

 

यह सारे मार्ग अंतर्मुखी करने हेतु शिष्य से प्रयास करवाते हैं। 

 

मेरे अनुसार सर्वश्रेष्ठ मार्ग शक्तिपात और क्रिया योग मार्ग। यह दोनो लुप्त मार्ग सप्तऋषियों द्वारा पुन: प्रकाश में लाये गये। 

 

 

शक्तिपात मार्ग सीधे मोक्ष यानि निर्वाण हेतु। क्रियायोग सिद्धि हेतु श्रम और प्रयास।

शक्तिपात कुण्डलनी जागरण कर अपने संस्कारों को क्षीण कर स्वचलित मार्ग वहीं क्रिया योग सत्वगुणी कर्म कर सत्वगुणी संस्कार संचित कर सिद्धियों हेतु प्रेरण मार्ग। शक्तिपात में सिद्धि मिले न मिले कोई लालसा नहीं।
वैसे सिद्धियां मारग की बडी रूकावट होती हैं।

 👉👉आखिर क्या होती है शक्तिपात योग दीक्षा👈👈

 👉👉क्या होता है शक्तिपात👈👈   

👉👉क्या है क्रिया योग 👈👈

 👉👉क्रिया योग बनाम शक्तिपात👈👈

👉👉 शक्तिपात या दैवीय शक्ति संक्रमण👈👈

👉👉क्रिया व योग या क्रिया योग  👈👈

👉👉शक्तिपात में क्रिया क्या होती है  👈👈

 

सत्गुण में सबसे अच्छी बात यह तमो और रजो को मारकर समय आने पर खुद को विलीन कर मार्ग प्रशस्त कर देता है।

इन दोनों मार्ग में कोई बंधन नहीं साकार निराकार सगुण निर्गुण का विवाद और बात नहीं। यह सभी मार्गों का ज्ञान दे देता है। इसलिये मैं इन दोनों को आज के युग के सर्वश्रेष्ठ मार्ग मानता हूं। 

 

 

बिना गुरूवालों हेतु अपने इष्ट का सतत निरन्तर और निर्बाध मंत्र जप। जो गुरू से लेकर ज्ञान तक। सिद्धियों से लेकर निरवाण तक। साकार से लेकर निराकार तक श्रुति अनुसार चलकर अपने आप पहुंचाने की क्षमता रखता है। बस अनुष्ठानिक मंत्र जप में बडे नाटक और सीमायें होती हैं। 

 

👉👉 मन्त्र जप की अवस्थायें👈👈

👉👉शाबर मंत्र और महत्व  👈👈

 

प्रश्न 22: ओशो पर क्या विचार ???  

 

ओशो एक ज्ञानी योगी थे। किंतु उनका व्यवहारिक जगत में ज्ञान देना त्रुटिपूर्ण हो गया। जिस कारण सनातन की क्षति के साथ समाज में बदचलनी को सहमति मिल गई। इस कारण मैं ओशो को ज्ञानी पापी मानता हूं रावण की तरह। 

 

👉👉 क्यों मानता हूं ओशो को पापी👈👈 

 


प्रश्न 22: क्या हर मनुष्य का एक ही मार्ग या मन्त्र नहीं हो सकता??? 

 

कदापि नहीं। क्योंकि किसी जन्म में कुछ प्राप्त करना हमारे पूर्व जन्मों की अराधनाओं साधनाओं और गुरू की शक्ति पर निर्भर करता है। अत: जैसे हर रोग की अलग दवा वैसे ही हर मानव के लिये अलग मार्ग। 

 


प्रश्न 23: फिर गीता में सिर्फ भक्ति कर्म ज्ञान और राजयोग के साथ सांख्य योग की बात की है। 

 

योग यानि वेद महावाक्य की अनुभूति। जो अलग अलग स्वाद की दिखती है पर है वहीं! जो सार वाक्य समझाता है। सार वाक्य की अनुभूति नहीं होती है यह अभ्यास के द्वारा और वेद महावाक्य की अनूभुतियों के कारण स्वप्रकाशित होता है। 

 

भक्तियोग का मार्ग नवधा है। जो द्वैत से आरम्भ होती है यह मार्ग बेहद आनन्दायक और रस पूर्ण है। प्रेमाश्रु के द्वारा हम वास्तविक रूप में विरह और प्रेम को समझ पातें हैं वहीं राम रस के कारण नशे के बारे में जान पाते हैं। फिर जब द्वैत से अद्वैत का अनुभव होता है तो ज्ञान हो जाता है। और फिर अपने आप कर्म निष्कामता को प्राप्तकर कर्मयोग समझा देते हैं। 

 

वास्तव में भक्तियोग और गृहस्थ जीवन का अनुभव की जगत और ब्रह्म का पूर्ण ज्ञान समझा सकता है।

गृहस्थ तो सन्यासी या ब्रह्मचारी क्या??? 

 

हमारे सनातन के लगभग हर ऋषि की गृहस्थी थी। वह तो बाद में सनातन के प्रचार और रक्षा हेतु सन्यास और ब्रह्मचारी धर्म ध्वजा वाहक बने। 

 

आप देखें आदि शंकर को मंडन मिश्रा की पत्नि से शास्त्रार्थ जीतने के लिये परकाया प्रवेश सिद्धि द्वारा एक राजा के शरीर में चार माह तक रहकर काम शास्त्र को सीखना पडा। जो आजीवन ब्रह्मचारी नहीं जान पाता मतलब अपूर्ण ज्ञान। वहीं सन्यासी को बेहद कठिन बंधनों में रहकर जीवन व्यवतीत करना पडता है। साथ ही यदि कभी काम संस्कार उदित हुये तो फिसलने का डर। 

 

कुछ इसी प्रकार मात्र निराकार के द्वारा योग अनुभव अधूरा क्योकिं उसको साकार मार्ग का ज्ञान नहीं। 

 

मात्र  द्वैत से अद्वैत या साकार से निराकार का मार्ग ही अनुभव पूर्ण ज्ञान दे सकता है। जो शक्तिपात और क्रियायोग में मिलते हैं और भक्ति मार्ग से सहज प्राप्त हो सकते हैं। 

 

 

प्रश्न 24: फिर अष्टांग योग क्या है???

अगले अंक की प्रतीक्षा !!

👉👉संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी!!  खंड 2👈👈

👉👉संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी! खंड 3👈👈

👉👉संक्षिप्त अष्टखंडी ब्रह्मज्ञान प्रश्नोत्तरी!! खंड 4👈👈

 

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जय गुरूदेव जय महाकाली। महिमा तेरी परम निराली॥

 
मां जग्दम्बे के नव रूप, दश विद्या, पूजन, स्तुति, भजन सहित पूर्ण साहित्य व अन्य की पूरी जानकारी हेतु नीचें दिये लिंक पर जाकर सब कुछ एक बार पढ ले।
 
मां दुर्गा के नवरूप व दशविद्या व गायत्री में भेद (पहलीबार व्याख्या) 
जय गुरुदेव जय महाकाली।

 

 

 


जय गुरूदेव। जय मां काली॥



Friday, August 9, 2019

चक्र की स्थिति और चर्चा

चक्र की स्थिति और चर्चा 

 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet

सर चक्र की स्थिति का कैसे पता करे कौनसा चक्र जाग्रत है ??

पीठ पर उस जगह पर गड्डेनुमा पड़ जाते है।

आपके ध्यान में कौन सा रंग प्रमुखता से है। आपकी क्रिया किस तरह की है।

जैसे शरीर उड़ना, हल्का लगना, आकार बड़ा होना लगना, इत्यादि क्रियाये।

मणिपुर चक्र जागरण के क्या लक्षण है और सहस्र  के क्या    लक्षण है किताबी ज्ञान    नहीं चलेगा

आपको पता है तो बताये।

तब फिर आप कैसे पता करेगे कि किताबी है या अनुभव??

आप जानकर भी क्या फायदा ले पाएंगे। क्या यह किताबी प्रश्न नही है।

आप बताने का कष्ट करें आपके अनुभव क्या है। जिसके आधार पर बात की जा सके।

वाह फिर अपने अनुभव लिखे।

मित्रो धर्मांतरण एक बेहद गम्भीर मुद्दा है। इसके लिए बंगलोर सहित दक्षिण भारत मे पानी की तरह पैसा बहाया जा रहा है। उनकी स्टाइल और मार्केटिंग से कोई अछूता नही बच सकता। बच्चों के लिए महंगी कॉमिक्स बुक्स निशुल्क भेंट होती है  मेरे पास एक सैंपल है। जिसमे शुरू में कहानियां है हैं आगे जाते जाते यीशु से सब मिलता है तक खत्म होती है। यहाँ तक सिन यानी पाप क्या है उसमे लिखा है प्रभु यीशु को न मानना और उनकी बात न मानना पाप है।

ये कॉमिक्स हिंदी इंग्लिश और कन्नड़ सहित हर भाषाओं में बांटी जा रही है। मतलब एक पूरा बड़ा तंत्र काम कर रहा है।

मेरी बेटी पर ईसाई बनने और दामाद पर मुस्लिम बनने का प्रयास किया जा रहा है। महीने में औसतन 3 लोग सम्पर्क करते है।

पता नही धर्म क्या है यह जानते भी है। एक किताब के सहारे  और पैसे के बल पर यह अपनी संख्या भी बढाकर क्या प्राप्त कर लेंगे। विश्व के सभी लोग ईसाई या मुस्लिम हो जाये तो उससे क्या हो जाएगा। कितनी सभ्यता संस्कृति नष्ट हो जाएगी। अब  इन मूर्खो को कौन समझाए।

यह अनुभव जनित लेख है जो पुस्तको में न मिलेगा।

साधु साधु लेख हेतु।

       जब कोई भी मावन से कुंडली की शक्ति जागृत होती है तो उनका शरीर बिलकुल हलका सा फूल जैसा हरदिन रहता है. उनका शरीर स्फूर्तिमय रहता है और उनका शरीर बिलकुल निरोगी अवस्था मे आ जाते है. उनको किसीभी प्रकार का कोई टेन्शन मुक्त बिलकुल फ्रि  अवस्था मे उनकी मगज रहता है उनको शरीर मे किसीभी प्रकार का थकान का अनुभव कभी नहीं होता ये सभी प्रकार से उनका शरीर जरा-व्याधि से मुक्त होकर निरोगी होता है.

            कोईभी मानव कि कुंडली की शक्ति का जागरण से उनको खुद वो आत्मज्ञानी अवश्य बन जाता है. सत्य क्यां है, असत्य क्यां है वो बात का उनको ज्ञान अवश्य आ जाते है वो खुद आत्मज्ञानी बन जाता है. उनके पुरे शरीर का विज्ञान यै प्रकृति का विज्ञान ये सृष्टि सर्जन का विज्ञान ये सातेय तत्वो का विज्ञान ये सभी विज्ञान का उनको ज्ञान अवश्य होता है. ईसिमे कोई शक नही है ये पुरी सृष्टि का सर्जन का वो ज्ञानी बन जाता है उनका शरीर शक्तिमय बनता है.

          लेकिन जो मानवो बात करते है कि कुंडली जागरण होने के बाद वो मावन सभी प्रकार का काम करते है कोई काम ऐसा नही होता जो कुंडली जागरण वाला नही कर शकता. ये सभी सुनी सूनाई बात है ये सभी गलत बात है अगर ऐसा होता तो महाभारत का युद्ध कभी नही होता, राम रावण का युद्ध कभी नही होता. ये जो अभी वर्तमान मे भारत -पाकिस्तान की तंगदिली युद्ध की है वो कभी नही होती और आतंकवादी यो भी नही होता ये सब अज्ञानी लोगो ने कुंडली के बारे मे अपना खुदका नाम का प्रभाव डाल ने के लिए ये सभी बाते करते गये है. वो सत्य नहीं है, ईसिलिए जो मानव को कहता हु़्ं की शास्त्रो को पठन मत करो. शास्त्रो की बातो पर विश्वास मत करो वो एक कविओ का लिखा हुवा कीव्यो है. शास्त्रो मे कही भी असलियत नहीं है....

         कुंडली की जागरण से मानव खुद कल्याण कारी बन जाता है. उनका सामान्य छोटा -मोटा काम अवश्य होता है वो दुसरे का चहेरा का पढन करने लगता है और सेवको का सामान्य जो काम होता है वो अवश्य करते है. लेकिन जो कुंडली नी के बारे मे मानवो मे एक बहुत बडी अफवा है वो बिलकुल गलत है. जो अफवा होती है वो एक हवा की लहेर की तरह अफवा ही होती है.......

            कुंडली जागरण वाले मानव उनके सेवको का जो छोटा छोटा काम करते है वो कुंडली शक्ति से नहीं होता वो सभी काम संकल्प शक्ति से होता है. ईसि के लिए संकल्प साधना करनी पडती है और संकल्प साधना के साथ त्राटक की भी साधना करनी पडती है. तभी छोटा छोटा काम होता है. कुंडली शक्ति से ये काम कभी नही हो शकता ये मेरा खुद का अनुभव है. यहां तक का मेरा अनुभव है जो मेने आपको सत्य राह के लिए बताया है. कोइभी प्रकार की अंधश्रध्धा रुपी गलत फेमी मे कोई मानव फसे नही ईसिलिए मेने मेरा अनुभव को शब्दोंमे अंकित किया है ये अनुभव को अंकित करने मे मेरा कोई दुसरा स्वार्थ नही है.

           कुंडली की शक्ति से मानव की मानसिकता मे कभी भी बदलाव नही ला शकते ईसिके लिए आत्मबळ-मनोबळ और संकल्प बळ ये तीनो द्रढ और मजबूत साधना के मारफत करना पडता है तभी ये छोटा छोटा काम होता है लेकिन संत कभी ये काम करने वाले बातो मे कभी नही पडेगा क्युं की ये प्रकृति सर्जन कर्मो के आधिन रखा गया है. ईसिलिए प्रकृति कू खिलाफ कभी कोई संत नही जायेगा ऐसे काम के लिए सभी को ना ही बोल देते हैं और संत कभी ये कामो करते नही.

         कुंडली की जागरण मे सातेय तत्वो ही काम करते है लेकिन मानव को सिधि-सरल-सादी भाषा मे समज मे आ जावे ईसिलिए तत्वो की बात ज्यादा किया नही है...........


       ----गगनगीरीजी महाराज


कुंडली की शक्ति क्यां चीज है और कुंडली की शक्ति ये शरीर मे किस तरीके से जागृत होती है ये शरीर का विज्ञान मे आपको बता रहा हुं. मेरा जहा तक का अनुभव है वो मे आपको बता रहा हुं लेकिन जो भी बताउंगा ये बिलकुल सत्य निर्विवाद-सनातन ही है. आध्यात्मिक क्षेत्र मे अनुभव जो होता है वो सभी मानव को एक ही प्रकार का अनुभव होता है ईसिलिए ये बात गलत नही है अगर किसीको गलत लगे तो एक नवलकथा समज कर फेंक देना.

ये मानव शरीर मशीन के मारफत से योगक्रिया का सहारा लेकर जब मानव ध्यान लगता है और प्राणायाम का माध्यम से जब मानव अपनी श्वास लेने की और श्वास छोड़ ने की लंबाई एक मिनट तक पहोचते है तभी ये शरीर मे बिलकुल शून्यवकाश का सर्जन होता है. पुरा शरीर जडत्व अवस्था मे आ जाते है ईसी समय मस्तक मे शून्यवकाश हो जाता है .


{शून्यवकाश का प्रकृति का नियम ऐसा है की जहां भी शून्यवकाश होता है वहां चारो तरफ से वायुं का शून्यवकाश परफ आकर्षण लगता है और एक विनाशक वंटोळ के रुप मे परिवर्तन हो जाता है ये शून्यवकाश का नियम है }


जब शरीर मे शून्यवकाश होता है तो उनकी तरफ वो चारो तरफ़ से वायुं का खेंचाण करेगे लेकिन शरीर मे शून्यवकाश की परिस्थिति के हिसाब से वहां वायुं होता नही और मस्तक मे कही चारो तरफ़ से वायुं आवन जावन कर शके ऐसी भी द्वार कही नही है. ईसिलिए मेरुदंड जो है वो मस्तक से जुडा हुवा है और मेरुंदंड का दुसरा छेडा जो है वो विर्य की कोथळी के साथ जूडा हुवा है और विर्य की कोथळी जो है वो ईन्द्रीयो से जुडी हुई है. मस्तक मे जो शून्यवकाश की गति मेरुंदंड मे से खिचेंगी और मेरुंदंड सिधा विर्य की कोथळी मे से आकर्षण करेगी जब वहां आकर्षण होता है तो उसी स्थान पर बहुत प्रमाण मे गरमी पेदा हो जाती है वो गरमी प्राणायाम के माध्यम से ही होती है ईसिलिए वो गरमी के हिसाब से विर्य मे गरमी पेदा होती हैं और उसी मे एक बाष्पीभवन की क्रिया होती है जो बाष्पीभवन से सफेद वराळ वायुं के रुप मे उठकर वो वायुं राउन्ड मे घुमाव लेते लेते मेरुंदंड मेसे उपर मस्तक की ओर चढने लगेगे ओर जब वो मस्तक मे वायुं एकठा होता है वहां एक प्रकार का दबाव पेदा हो जाता है और पुरे मस्तक मे ये वायुं फैल जाता है. जो वायुं का अनुभव ठंडी लहेर जैसा होने लगता है. और वो भी ठंडी लहेर जैसा जो अनुभव होने लगता है वो ही चेतना के रुप मे प्रगट हो जाता है और पुरे मस्तक मे से शरीर मे चेतना फैल जाती है और पुरा शरीर स्फूर्तिमय -आनंदमय का अनुभव करने लगता है पुरा शरीर एक हलका सा फूल जैसा बन गया है ऐसा मानव को अनुभव होता है वो जो चेतना पुरे शरीर मे फैलती है वो चेतना को प्राणायाम जारी रखने के बाद पुरी चेतना शरीर मे से फिर उपर मस्तक की ओर चढने लगती है और मस्तक मे जब पुरी चेतना एकठी हो जाती है तब दस मे द्वार पे दबाण आ जाते है और वहां दबाण आने से एक बहुत बड़ा प्रकाश ललाट पर दिखाई देता है वो प्रकाश सुर्य से भी बहुत गुना तेज उसी मे होता है जो चेतना एकठी होती है वो ही उर्जा के रुप मे प्रकाश मे परिवर्तन हो जाता है येही क्रिया को कुंडली की शक्ति के नाम से जाना जाता है. ईसिमे शरीर का ही बहुत गहरा विज्ञान काम करता है. अब वो कुंडली की शक्ति क्यां काम करती है और कौन से तरीके से काम करती है ये मे आप को तीसरे भाग मे बताउंगा.

ये जो विर्य का ओजस मे रुपांतरण होकर उध्वगमन होता है ईसिमे ही सातेय तत्वो काम करते है और वो ही उध्वगमन जो होता है ईसिमे ही कुंडली के नाम से जाना जाता है. जो गोळ गोळ वायुं घुमता है ईसिलिए उनका नाम कुंडली नी रखा है ये गोळ गोळ घूमने का शरीर में अनुभव होता है.


------गगनगीरीजी महाराज


कुंडली की शक्ति को अलग- अलग नाम से सब जानते है मात्र लेकिन कुंडली की शक्ति क्यां चीज है उनको कुंडली क्युं कहा गया है वो कुंडली की शक्ति जागृत होने के बाद क्या काम करती है और कुंडली की शक्ति का अनुभव कैसे किया जाता है और जो शास्त्रो मे पुस्तकों में जो कुंडली की शक्ति की बात किया है वो कितनी सत्यता के आधार पर है सभी ने सुनी-सुनाई-पढाई बात पर ज्यादा भार दे दिया है किसीने अनुभव किया नही है और जिसने कुंडली की शक्ति का अनुभव किया है उसीने कहा बकवास नहि किया वो तो अपने भक्तिमय जीवन मे ही मशगुल हो गये हैं. कुंडली की शक्ति के बारे मे आजकल बहुत ही लेक्चर दिया जाता है कही कही तो कुंडली की शक्ति को जागृत करने का क्लासिस फी लेकर चलाते है और कहि तो अनपढ कविओ ने कुंडली की शक्ति जागृत होने के बारे मे बहुत कुछ लिख दिया है. कंई लोगो ने तो कुंडली की शक्ति को सर्पिणी की नाम से भी उल्लेख किया है. कुंडली की शक्ति के बारे मे जो भी कुछ मानव ने सूना है पढा है, पढा है, लिखा है, ईसिमे 20% ही सत्यता के आधार मुजे मिला है. बाकी सभी ने अपना नाम रखने के लिये 70 टका मिलावट कर कर बहुत बड़ी बडी बाते करदिया है. वो लेकिन कोइभी मानव जब ये कुंडली की शक्ति का अनुभव करते है तब उनको मालुम होता है. की असली सत्यबात क्यां है. असली अनुभव क्यां है, सही मे कुंडली की शक्ति की कीतनी ताकात है और उनसे कौन सा कौन सा काम मानव करवा शकते है ,जबतक मानव को अपने शरीर का विज्ञान का ज्ञान और अनुभव नही होता तबतक मानव सुनी सुनाई -पढी-लीखी बातो पर ही विश्वास करने लगता है क्युं की उसीके बारे मे उनको सिर्फ ईतना ही ज्ञान होता है कि सब लोग ये बात करते आये हैं बस वो ईतना ही जानता है और ये ही बात पर मानव विश्वास करने लगता है अनुभव करने के बाद कोईभी बात पर विश्वास करना चाहिए ये कुंडली की शक्ति के बारे मे सही क्यां है वो मे दुसरा भाग मे बताउंगा.....


---गगनगीरीजी महाराज

Vipul Sen: जैसे मुझे लगता है। शक्ति दो प्रकार की। एक वाह्यय मार्ग से बढ़ती है। जो बिना गुरु के भी यदि शक्ति मन्त्र किया जाए वो भी शक्ति मन्त्र तो जागृत होकर ऊपर उठकर अहम ब्रह्मासमी की अनुभूतिया इत्यादि देती है। इसी के साथ कुण्डलनी भी जग जाती है।

वाहीक शक्ति को ब्रम्ह शक्ति जो सर्व व्यापी है यही आंतरिक रूप लेकर कुण्डलनी कहलाती है।

जिस प्रकार पानी के टब में गुब्बारे में पानी भरकर बांध कर छोड़ दो। अब पानी तो अंदर बाहर दोनो है पर एक दूसरे का सम्पर्क नही। अब यदि ऊपर से गुब्बारे में छेद कर दो नीचे का बंधन भी खोल दो और दाब के साथ पानी डालो तो गुब्बारे केआकर वैसा ही बना रहेगा पर पानी नीचे से आकर ऊपर निकल कर टब के पानी मे मिल जाएगा।

कुछ ऐसा ही हमारी शक्ति और वाहीक शक्ति का खेल है। हमारी कुण्डलनी जागकर जब ऊपर जाकर सहस्त्रसार में मिलती है तो शरीर का चक्कर पूरा होता है। उसी के साथ वाहीक शक्ति भी बढ़ने लगती है।योगी ऊपर के छिद्र से अपने प्राण त्याग कर उस ब्रह्म शक्ति में लीन हो जाता है जो निर्वाण है का एक पद है।

यदि मनुष्य निराकार प्राप्त होकर प्राण त्यागेगा तो उसे निर्वाण या मोक्ष मिलेगा। यदि साकार होकर प्राण त्यागेगा तो परमपद या उसी देव के लोक में जागेगा।

जिसकी शक्ति जागृत हो गई उसके लिए स्वर्ग तो निश्चित हो ही गया।

कुंडलनी को सर्पिणी इसी लिए कहते है क्योंकि यह सर्प की तरह कुंडली मारकर अपनी काल्पनिक  पूछ को मुख में लेकर शांतरूप में मूलाधार के कन्द में सोती रहती है। कुण्डलनी जागृत होने पर आत्म गुरु या अल्लह की बोली या गाड वाइस भी जग जाती है। जो तमाम गुत्थियों को सुलझा देती है।

पर योग का खुमार उतरने के बाद कुछ समय बाद मन गुरु भी जग जाता है जिसे शैतान की बोली डेविल्स वाइस कहते है। प्रायः मनुष्य इसी मनगुरु की बात को आत्म गुरु मॉनकर कर्म करने लगता है और फिर वह भटक जाता है।

इसके लिए स्वामी शिवोम तीर्थ जी महाराज ने कहा है कि जब तक कोई बात स्पष्ट न सुनाई दे या दिखाई दे। इसको मन की चालबाजियां ही मानो।

एक बात और केवल हठ योग मार्ग या पातञ्जलि योग अष्टांग योग मार्ग से ही कुण्डलनी जागृत नही होती है। इसके जागरण का सबसे आसान मार्ग है प्रभु भक्ति यानी मन्त्र जप नाम जप। सतत सहज निरन्तर। ये सब दे देता है। पर भक्ति को इसन सब को जानने की आवश्यकता ही नही। उसे सब सहज मिल जाता है। सूर तुलसी मीरा की कुण्डलनी क्या नही जागृत हुई होगी। पर उनको सिर्फ प्रभु स्मरण से ही मतलब। और सही बात भी जो आनन्द प्रभु भक्ति में है वह किसी जागरण इत्यादि में नहीं।

वास्तव में कबीरदास ने योग शास्त्र को पुनर्स्थापित किया था। उन्होंने साकार से यात्रा आरम्भ कर निराकार का ज्ञान प्राप्त किया और निराकार में स्थिर हो गए। जीज समय भक्ति योग चरम पर था। लोग हठ योग या अष्टांग को भूलने लगे। तब कबीर दास ने इन मार्गो को पुनर्जीवित कर इनकी स्थापना की।

फिर कवि होना सौभाग्य है  मनुष्य होना भाग्य। कवि शब्दो को ढूढते हुए अपनी आत्मा के नजदीक पहुंचने लगता है। अतः कवि का योगी होना औरो की तुलना में सरल और सहज होता है।

यह सब आपकी सोंच और कर्म के फलित लोक है।

यदि स्वतः कुण्डलनी जागरण या देव दर्शन होती है। तो यह तब ही होता है जब आपके पाप कर्म नष्ट हो गए हो।

आप सारे लेंन देंन बन्धनो से मुक्त हो चुके हो।

वही गुरु प्रददत कुण्डलनी साधन से आपके संस्कार नष्ट होते है।

क्रिया द्वारा।

यानी दूसरे से लेन देंन नही पर अपने कर्मफल तो भोगने की क्रिया आरम्भ।

यह तो सभी ने कहा। कुण्डलनी पर कबीर ने बहुत लिखा है।

जैसे

काहे नलिनी तू कुम्हालानी, तेरे नाल सरोवर पानी।


अष्ट कमल का चरखा बनाया, पांच तत्व की पूनी।

नौ दस माह बुनन में लागे।

मूरख मैली कीन्ही। चदरिया भीनी रे भीनी।

जब क्रिया होना बंद हो जाये। मन निर्विकार हो जाये।


धज्जियाँ का मतलब कुछ भोले भाले लोगो को मूर्ख बना लिया। आम जनता को कुछ पता नही उनको बरगला लिया। अंधो में काने राजा बनकर।

सनातन ने जो दिया वह तुम नही समझ सकते। ओशो जैसे पापियों को तथा सभी धर्मों को समझने की ताकत दी।

आपको क्या लगता है कोई सामान्य व्यक्ति बिना सनातन अनुभव के किसी सन्त को परख सकता है व्याख्या कर सकता है। मित्र पूवाग्रह से बाहर निकलो। तुम नही समझ सकते कि ओशो ने भी ऐसा क्यो किया था। मेरे पास व्याख्या भी है प्रमाण भी है।

मानो मत किसी को जानो। अनुभव करो तब समझ मे आयेगा। सत्य क्या है।

आपको क्या लगता है। जीवन के 58 वर्ष बीतने के बाद एक वैज्ञानिक को इंजीनियर को क्या पड़ी है जो ओशो की मीमांसा करे। कोई भी विराट कारण होगा। एक कवि अपनी शोहरत और दौलत को दांव पर लगाकर सनातन के द्वारा धर्मो को परखे और सन्तो को जाने। कोई तो ठोस करण  होगा। इस विज्ञान के परे।

सत्य है पर एक बात तय है बिना प्रणायाम के आप सूक्ष्म शरीर की यात्रा नही कर सकते। नासिका का खुला होना। नासिका नली का अवरूद्ध होना मौत को दावत दी सकता है।

गुरु प्रददत साधन आसन पर बैठ कर शक्ति और गुरु को प्रणाम कर। आप क्रिया योग से मन्त्र जप करे। केवल एक हफ्ता बहुत है। बस क्रिया एक बार में 22 बार से अधिक न करे।

सर्व प्रथम गणेश को प्रणाम। फिर इष्ट को। फिर शक्ति को। फिर गुरु नमन ।करे।

तो क्या क्रिया का होना पाप पुण्य पर निर्भर करता है सरजी?

नही संस्कारो पर।

संस्कार क्या होते हैं सर जी?

क्या जो पाप या पुण्य किया जाता है उनका चित्त पर गहरा असर पड़ना संस्कार कहलाते हैं?

जी।

धन्यवाद विपुल सर

*वैदिक हिलींग उपचार*

*ध्यान प्रक्रिया*

रात के समय या फिर ब्रम्हमुहूर्त में जब बाताबरण शान्त हो तब एक आसान पे बैठ जाएं या फिर सीधे लेट जाएं (सवासन) । अपने शरीर को पूरा हल्का छोड़ दें और ढीला कर दें । इस दौरान हल्का भोजन करें ज्यादा भारी भोजन करने के बाद ये क्रिया करने से उल्टी आ सकती है ।

अब अपनी स्वास की गति पे ध्यान करें कि स्वांस कैसे अंदर जा रही है और फिर बाहर निकल रही है । इस दौरान महसूस करें कि अपने नाक के जरिये स्वांस अंदर जा कर फेडों तक पहुंच रही है और फिर फेपडों से होकर नाक के माध्यम से बाहर निकल रही है ।


ध्यान रखें कोई भी मंत्र का जाप नही करना है इस दौरान । शिर्फ़ स्वांस की गति पे ध्यान केंद्रित करे  और सब कुछ भुल जाएं कोई चिंता नही कोई तनाब नही ।


इस दौरान आप महसूश करोगे की स्वांस की गति धीमी हो रही है और लंबा चल रहा है यानी कि गहरा स्वांस लेना और छोड़ना अपने आप होगा बिना किसी दवाब के । ये अपने आप होगा शारीरिक प्रक्रिया ।


अब इसी के ऊपर ध्यान करते रहें धीरे धीरे आपको अपने दिल की धड़कन सुनाई देगी अपने कानों में । इसको सुनते रहें 5 से 10 मिनट तक । जब साफ साफ सुनाई देने लगे तो एक धड़कन के साथ ये महशुस करें कि दिल से *नमः शिवाय* की धुन निकल रही है *होठों से नही* मुँह होठ जुबान सब कुछ अपने जगह शांत होगा कोई हलचल नही होगी ये सब में ।


हर धड़कन के साथ *नमः शिवाय* की आवाज़ निकलेगी । समय के साथ आपको दिल की धड़कन की जगह शिर्फ़ और शिर्फ़ यही सुनाई देगा ।


इस बात पे गौर करें कि ये नमः शिवाय की धुन अपनी दिल की आवाज़ है ।


यही है ध्यान और समाधि । इसके दौरान नींद भी लग सकती है तो कोई दिक्कत नही, सोजाएं । ये क्रिया ज्यादातर रात में bed पर करना सही रहता है ।


जब आप लोग ये क्रिया करोगे तो एक हफ्ते के अंदर बहत कुछ बदलाब होने लगेगा । काफी सारे सपने आने शुरू हो जाएंगे । और इसके साथ आप एक साधक की श्रेणी से उठ कर ये योगी के श्रेणी में प्रवेश कर जायेगें ।


योगीक जीवन का सफ़र शुरू हो जाएगा । अपने अंदर शिव तत्व घटित होने लगेगा और दिन भर एक अद्भुत ऊर्जा की महसूश होगी ।


जैसे जैसे अभ्यास बढ़ती जाएगी फिर अपने अंदर की चक्रों का दर्शन भी होना चालू हो जाएगा । और इसके साथ अपने अंदर शिव का निराकार स्वरूप ( एक काफी ऊर्जा बान ज्योति  के दर्शन भी होंगे ये आपकी आत्मा है या फिर आत्म ज्योति कहें ) ये सारी उन्ही की कृपा है बाबा नीलकंठ चन्द्रचूड़ की महिमा है ।


ये क्रिया ज्यादा मात्रा में करने से साधक को ये महसूश होगा जैसे कि वो हर पल एक नशे में हो और ये नशा उसके चेहरे से साफ झलकेगी । यही है शिव तत्व की नशा और शिव की नशा । लेकिन ध्यान रखें जितना जितना आप शिव की और अग्रसर होते जाएंगे

उतना ही वैराग्य की भावना अघोर की में बहते जाएंगे वैराग्य क्या है अघोर क्या है इसका आभास आप महसूस करेंगे

शिव ॐ

भाई कुछ भी मत लिखो। ध्यान है यह समाधि नही। यह विशपश्यना या श्वासोश्वास विधि है लेट कर। कृपया अधकचरा ज्ञान न दे।

योग पर लिखा लेख पढ़ने का कष्ट करें।

मित्रो ग्रुप फिर बहक रहा है। मेरा एक निवेदन और ग्रुप का नियम है।

1. यथासम्भव अपने अनुभव पर आधारित बात चीत करे।

2 कट पेस्ट बिल्कुल न करे।

3 किसी धर्म विशेष पर व्यंग्य न करे।

4 लम्बे लेखों का url पोस्ट कर दे। लम्बे लेख शायद ही कोई पढ़ता होगा।

5 जब तक मालूम न हो किसी अनुभव का निष्कर्ष न निकाले।

ये ध्यान करने की एक विधि है। इसे समाधि नही कहा जा सकता।

यह पोस्ट करना मजबूरी है।

 सही बात है। मन्दिरो में पैसो की लूट और अनाप शनाप चढ़ावा देखकर लोगो की श्रद्धा कम हो जाती है।

अब आप देखे mmstm जैसी पद्दति जिसमे कोई पैसा खर्च नही। कही जाना नही। सिर्फ घर पर करो। इसके शक्ति का अनुभव होता है। पर लोग वह भी नही करना चाहते।

बस बटन दबाया समाधि योग और ईश मिल जाये।

कुछ करनी कुछ कर्मगत कुछ पूर्व जन्म के पाप।


क्या पोस्ट करने की इतनी चाहत है कि दूसरे का माल अपने नाम से डालोगे। बेहतर है हेडिंग लिखकर लिंक दे दिया करो।

नही दूसरे का माल अपने नाम से डालने की जरूरत नही है और न ही पोस्ट डालने इतनी अधिक चाहत। मुझे ये किसी दूसरे ग्रुप मे मिला था और मैने पढ़ा और मुझे अच्छा लगा इसलिए यहाँ पर भी दे दिया।

नेट से नही लिया , नही तो लिंक ही दे देता सरजी

क्या है यदि कट पेस्ट की अनुमति दी तो किन किन को रोक पायेगे। सभी अपनी भड़ास निकालेंगे। अतः यह रुकावट आवश्यक है। दूसरे ग्रुप में पोस्ट करे।

सर ये सल्लेखना समाधी (जैन धर्म)  क्या होती है

यही मै भी जानना चाहता हू।


जैन मुनि तरुण सागर अपने गुरू की अनुमति से सल्लेखना समाधि ले रहे हैं।

जो संथारा नही सीधे सीधे चिर समाधि हो।

सभी से विनम्र निवेदन है कि भगवान श्री कृष्ण के बारे में उल्टे सीधे मेसेज और कोई भी गलत फोटो पोस्ट कर के भगवान का अपमान न करे l

अगर किसी का ऐसा मेसेज आये तो भेजने- वालेसे अपना विरोध भी जताये और उसको फोरवर्ड भी ना करे।

ये बात सभी ग्रुप में डाले और भगवान का सम्मान करें !!

*जय श्री कृष्ण*

MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/


इस ब्लाग पर प्रकाशित साम्रगी अधिकतर इंटरनेट के विभिन्न स्रोतों से साझा किये गये हैं। अथवा मेरे ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” से लिये गये हैं। जो सिर्फ़ सामाजिक बदलाव के चिन्तन हेतु ही हैं। कुलेखन साम्रगी लेखक के निजी अनुभव और विचार हैं। अतः किसी की व्यक्तिगत/धार्मिक भावना को आहत करना, विद्वेष फ़ैलाना हमारा उद्देश्य नहीं है। इसलिये किसी भी पाठक को कोई साम्रगी आपत्तिजनक लगे तो कृपया उसी लेख पर टिप्पणी करें। आपत्ति उचित होने पर साम्रगी सुधार/हटा दिया जायेगा।

Tuesday, September 25, 2018

सत्य, असत्य सांख्य और योग: कुछ उत्तर




 सत्य, असत्य सांख्य और योग: कुछ उत्तर

सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



सत्य सनातन के अमिट अनुपम अद्वितीय पर्व गुरू पूर्णिमा पर आप सबको विपुल लखनवी की अनेकों बधाई।।


सत्य वह जो समय के साथ परिवर्तित न हो। असत्य वो जो परिवर्तित हो जाये। यह शरीर असत्य पर आत्मा सत्य।
अब अपनी आत्मा को पहचानना शब्दो मे नही अनुभूति कर जिसे आत्म साक्षात्कार कहते है।

अब आत्मा ही परमात्मा है। यानि योग की अनुभूति। वेदानन्त महावाक्य है आत्मा में परमात्मा की सायुज्यता का अनुभव ही योग है।
यह योग हमे परमसत्ता का अंश है आत्मा यह अनुभूति देता है।
जब अहम्ब्रह्मास्मि की अनुभूति होती है तो हमे अद्वैत का अनुभव होता है।
कुल मिलाकर यह अनुभव कर लेना कि मैं उस परमसत्ता का अंश हूँ। उससे अलग नही। यह शरीर यह आत्मा अलग है। सुख दुख शरीर भोग रहा है मैं नही।
मैं उस परमसत्ता के अनुसार ही चल रहा हूँ। वो ही सब करता है। मैं कुछ नही। यह अनुभूतिया हमे ज्ञान देती है। यही ज्ञान योग है। यही ज्ञान है।

दूसरे ईश का अंतिम स्वरूप निराकार ही है। वह निर्गुण ही है। यह अनुभव करना। साकार तो सिर्फ आनन्द हेतु जीवन मे रस हेतु आवश्यक है। मतलब दोनो क्या है यह समझ लेना। अनुभव के लेना ही अंतिम ज्ञान है। सिद्धियां तो बाई प्रॉडक्ट है और भटकाने के लिए होती है। यह हीरे जेवरात हमे भटकाने के लिए होते है। हमे यदि स्वतः हो जाये तो इन सिद्धियों का अनुभव ले कर इनको भूल जाना चाहियें। इसमें फंसना यानी गिरना। मुक्ति में बाधा।
यह ज्ञान प्राप्त करनेवाला मोक्ष का अधिकारी हो जाता है।

मित्र मैं साकार में क्या देखता हूँ। मूर्ति में क्या सोंचता हूँ। यह आप जान चुके है। आप धन्य है। मैं अभी तक नही जान पाया वो आप जानते है। आप महान है।
प्रभु मैं अज्ञानी मूर्ति में ही खुश। क्या करूँ अज्ञानता का सागर है मुझमे।
निराकार में क्या क्या किया या जाना यह भी आप जानते होंगे।
पर मैं साकार सगुण में ही आनन्द लेता हूँ। मुझे किंतने भी निराकार के अनुभव हो। मैं पुनः साकार में ही रहना चाहता हूँ। हा अंतिम समय मे निराकार धारण कर लूंगा। मुक्ति हेतु।
पर मैं यही जानता हूँ जो साकार से निराकार की यात्रा करता है उसी को पूर्ण व्यान मिल पाता है।

मित्र अनुभव एक अवस्था होती है। हमारे संचित संस्कार साधन में एक एक कर क्रिया के माध्यम से बाहर आते है। यह क्रिया आंतरिक या वाहीक कुछ भी हो सकती है। जब चित्त के कुछ विशिष्ट संस्कार नष्ट हो जाते है तो वह अनुभव भी समाप्त हो जाता है। अतः इन अनुभवों हेतु आसक्ति या विरक्ति कुछ भी नही होनी चाहिए।
कुछ लोग विशेष अनुभव हेतु अपनी ओर से कोशिश करते है जो गलत है दूसरे यह हानिकारक भी हो सकता है। जैसे 100 पेज की पुस्तक को आपको पहले पेज से ही पढ़ना पड़ेगा। यदि आप बीच का पेज खोलेंगे तो आपको कुछ समझ मे भी न आएगा। साथ ही कुछ ऐसा हुआ जिसके पहले कुछ विशेष माइंड सेट अप या बॉडी सेट अप चाहिए पर वह आप पर नही तो गलत हो सकता है।
अत जो होता है सिर्फ दृष्टा भाव से देखो। लिप्त मत हो।

शक्तिपात दीक्षा के बाद अपने ही ग्रुप में कुछ लोगो को खेचरी उड्डयन और जालंधर बन्ध स्वतः ऐसे लगते है जैसे बच्चों का खेल हो।
कुण्डलनी शक्ति जो आवश्यक होता है वही क्रिया करवा कर आगे बढ़ जाती है। 
अतः चिंता न करे।
यह क्रिया आपके पूर्व जन्म के आकाश भृमण की क्रिया है। शायद आप पक्षी थे। 

मुझे हंसी भी आती है रोना भी आता है। फेस बुक पर गुरु लोग मिल जाते है। एक गुरु के नाम के आगे खेचरी सिद्ध महायोगी लिखा हुआ था।
मतलब खेचरी इतनी तोप है यह हुई तो आप महायोगी हो गए।
योग का न अनुभव न ज्ञान पर चुकी खेचरी हो जाती है तो महायोगी हो गए।
मित्रो। मुझसे मेरे मित्र पत्रकार जो ग्रुप के सदस्य भी है। उन्होंने बोला आप कविता पुस्तक हेतु महाराष्ट्र अकादमी व अन्य जगह अप्लाई करे। मेरे मन से आवाज क्या तुम अपनी कला जो माँ सरस्वती की देन है उसकी कीमत लगवाओगे। क्या इस कला को धन से पुरस्कार से तौलोगे। मैंने मन की सुनी आवेदन नही किया।
मुझे मेरे मित्र ने जो इंजीनियरिंग कॉलेज के निदेशक है बोले। यार m.tech हो phd कर डालो। आराम से हो जाएगी। 
मेरे मन कहा। अब phd का क्या फायदा 2 साल में रिटायर। यह सिर्फ तुम्हारा सिर्फ अहंकार ही पोषित करेगा। मैंने phd हेतु निवेदन नही किया।
आप मित्र बताये यह गलत या सही।


यह उदाहरण है मन और बुद्धि का। यहाँ मन ने बुद्धि की बात मानी।
मैंने एक लेख में इन्ही का जिक्र किया है। प्राण फंस गए। न अंदर न बाहर। यह नतीजा होता है बिन समर्थ गुरू साकार गुरू के समाधि का प्रयास करना। हालाँकि यह यदा कदा होता है पर यह आपके साथ नही हो सकता है क्या।
कारण इनके चेले इनको इसी अवस्था मे नहला धुला रहे है। पर यह न आंख खोल पाते है न कुछ खा पाते है। पर है जिंदा।
मैं गलत भी हो सकता हूँ। हो सकता है यह समाधि का कोई और तरीका हो। मात्र फोटो से सिर्फ कयास ही लगाया जा सकता है।
स्वामी विष्णुतीर्थ जी महाराज ने भी ऐसे एक साधु का जिक्र किया था।
यह बात उनको समझनी चाहिए जो एक ही की रट लगाए बैठे रहते है। 

मजा लो यह शक्ति का खेल। नशा तो बन्द कर दिया है न।
एक ज्ञान यह भी। जानना जरूरी है।
अब अंदर का मजा लो। बाहर का बन्द कर दो।
यह जगत है  इसमें रह कर ही सब करना पड़ेगा। इसको छोड़ने की सोंचना कायरता है।
मुझे भी अभी 2 साल नौकरी करनी है।
कायर मत बनो। पुरुषार्थ जगत छोड़ने में नही।
दो रोटी के कारनै , साथ झमेला यार। 
राम राम को तू भजे, कर दे बेड़ा पार।
यह हुआ दोहा। 
न बुद्ध बनो न महावीर। बनना है तो कृष्ण बनो।
कार्य कोई भी छोटा बड़ा नही होता। सब कार्य बराबर होते है । हा बाजार भाव के कारण मूल्य अलग हो सकते है।
जब किसी को किसी मन्त्र के जाप से कोई अनुभव या क्रिया होने लगती है तो वह प्रायः मात्र व्यक्ति विशेष की अनुभूति होती है। सबको नही भी हो सकती है। क्योंकि हर व्यक्ति के कर्म और प्रारब्ध अलग होते है।
दूसरे हर व्यक्ति को अनुभूतिया भी अलग हो सकती है। क्रिया के करोड़ो रूप हो सकते है।

मैं जानता हूँ कुछ मित्रो को जिनको मात्र कुछ सालों में नवार्ण मन्त्र के जाप से कुण्डलनी जागृत हो गई। देव दर्शन हो गई। काली मन्त्र के जाप से 3 साल में काली मां प्रकट हो गई। किंतने 25 साल से गायत्री कर रहे है सिर्फ कुछ अनुभूतिया हुई।
इसका यह मतलब नही की कौन मजबूत कौन कमजोर। हर मन्त्र हर नाम जप करोड़ो द्वारा सिद्ध किये जा चुके है। जितना राम या कृष्ण शक्तिशाली उतना शक्तिशाली और मन्त्र नही भी हो सकता है।
मन्त्र और नाम जप के परिणाम व्यक्ति विषेश पर ही निर्भर हैं। किसी मन्त्र या नाम जप पर नही।
सब बराबर है बस करो तो उसका नाम या मन्त्र जप।
लीन हो जाओ। करो सतत निरन्तर निर्बाध सदैव। हो जाओ समर्पित। कर लो प्रेम।
इसी में तुम्हरा कल्याण है। सब एक है अनन्त है। बस तुम मूर्ख हो जो अलग देखते हो।
जय महाकाली। जय गुरूदेव।

अहंकार यानि मेरा वास्तविक स्वरूप आकार। वह क्या है जो गीता में बताया है। यह योग के द्वारा जब योग घटित होकर अनुभव देता है तब ज्ञात होता है।
अहंकार यानि घमंड जो वाहीक ज्ञान के कारण अज्ञानता के कारण होता है।
अंतर्मुखी होने के बाद जब हमे अपनी आत्मा में परमात्मा की एकात्मकता का अनुभव होता है। वेदांत उसे योग कहता है । यह क्षणिक होता है पर ज्ञान और अनुभव के पिटारे दे जाता है।
फिर धीरे धीरे हम निष्काम कर्म की ओर स्वतः अग्रसर होते है तो हमे कर्म योग का अनुभव होता है। जिसके लक्षण गीता में बताये जो समत्व, स्थिर बुद्धि और स्थित प्रज्ञ हो जाता है। स्थित प्रज्ञ वह जिसका मन बुद्धि अहंकार मुझमे ही लीन हो। यानी जो आत्मस्वरूप में लीन हो जाये। इसी को आगे बढाते हुए तुलसीदास ने कहा। जिसमे संतोष आ जाये। यानि जाही विधि राखे राम ताहि विधि रहिए। यहाँ निष्क्रिय नही बल्कि कर्म करो पर फल की चिंता छोड़ दो।
जब मैं ही ब्रह्म हूँ इसकी अनुभूति होती है। मेरी आत्मा ही परमात्मा है। इसका अनुभव होता है। तो घटित होता है ज्ञान योग।
यह सारी अवस्थाये अनुभव अनूभूति की है। किताबे बेकार।
पातञ्जलि ने यही कहा। जब हम कर्म करते है तब हमारे मन मे कोई भाव न उतपन्न होने से हमारी चित्त में कोई वृत्ति उतपन्न नही होती । वह ही योग है।

जी प्रारम्भ योग कुछ क्षणों के लिए ही होता है। किंतु यह सब कुछ दे जाता है। पर अपने कर्मो के द्वारा यह हमारे में परिलक्षित होना चाहिए। यह होने के बाद ज्ञान मिलता है पर यदि मनुष्य सही मार्ग से भटक जाए तो वह ज्ञान सहित पतन की ओर भी अग्रसर हो सकता है।
अतः मनुष्य को खान पान संगत और पंगत पर ध्यान देना चाहिए।
ज्ञान ग्रंथी खुलने पर ज्ञान को प्रचारित करने का तूफान आता है। क्योंकि आत्म गुरू जागृत हो जाता है।

वास्तव में यह परीक्षा होती है। योग के बाद शक्ति आ जाती है किसी को भी क्रिया करवाने की किसी की भी कुण्डलनी खोलने की। अतः मनुष्य बिना गुरू आदेश के या परम्परा के गुरू बनना चाहता है। जो धीरे धीरे शक्ति ह्वास होने से नीचे गिरता है।
बड़ी कठिन है राह पनघट की।
ध्यान प्रयास सतत करते रहने से मनुष्य बचा रहता है।
तब यह पुरावृति समय समय पर घटित होने लगती है। धीरे धीरे इसकी अवधि स्वतः बढ़ेगी। हम सिर्फ सत्मार्ग की ओर अपनी शक्ति बचाते हुए चले।
यदि गुरू बन गए तो पतन निश्चित।
जो ईश्वर से मांगता है वह सबसे बड़ा भिखारी। स्वामी विविकानन्द
मित्र योग के अनुभव की अवस्था कुछ पलों की ही होती है।
अहम ब्रह्मासमी। सोअह्म। शिविहम योग यह सब कुछ पलों के ही अनुभव होते है। परन्तु सब दे जाते है। 
मेरी बात शिव और कृष्ण भी न काट सकते। यदि यह हमेशा है तो लोगो के भरम।
अब क्या बोलूं इसके आगे।

कृष्ण और युधिष्ठिर का किस्सा सर्वविदित है।
इस दशा की समयाविधि कुछ पलों से कुछ मिनट तक ही होती है।
हा नशा आनन्द लगातार रह सकता है। एक अवश्था के बाद जरा सा ध्यान किया चाय पीते पीते ही सही। सर टुन्न और नशा और आनन्द चालू।
नशा लगातार रह सकता है। पर यह योग की अवस्था नही।
समाधि स्वयं लग जाती है। अब यह कौन सी यह बताना मुश्किल।
प्रकाश इत्यादि मात्र क्रियाये और बेहद आरंभिक स्तर की अनुभूति।
यह सब कर्मो में दिखना चाहिए। किसी ने पुरुस्कार दिया। खुश दुनिया को बताते फिरे। यह योगी के लक्षण नही।
कुछ करने का मन नही होता। मतलब आलस्य वाला नही। मतलब किसी प्रकार की घटना से कोई प्रभाव नही। किसी ने गाली दी चलेगा। कोई अंतर नही। किसी ने सम्मान दिया कोई फर्क नही। 
धन डूब गया। चलेगा। मिल गया चलेगा। किसी से मोह नही। कोई अपना नही सिर्फ कर्तव्य का बोध। 
यह योगी के लक्षण है।
जिसे गीता ने समझाया है।

जब इस अवस्था मे अपने कर्म कुशलता से किया जाए तो पातंनजली की बात। हमारे चित्त में वृत्ति नही आएगी।


गुरू महाराज के अनुसार यदि कर्म भी क्रिया रूप में हो तो संस्कार संचित नही होते।
महाराज जी का यह वाक्य ही बड़े बड़े ज्ञानी समझ नही पायेगे।
अब अपने अनुभव से क्रिया और कर्म समझो। तो कुछ समझ पाओगे।


एक बात समझ लो इतने भार के साथ वर्षो बाद सिद्धार बेट्टी पहाड़ी पर सिर्फ और सिर्फ महाराज जी की वाणी पर अमल कर के ही चढ़ पाया था।
पहाड़ी पर चढ़ना एक क्रिया कर्म था। अतः कोई थकान भी नही आई।
यदि किसी कर्म को क्रिया रूप में लेलो तो वह कर्म सहज हो जाता है। और संस्कार संचित नही होते।
सँ लिप्तता के बिना कर्म कैसे होगा। पर फल क्रिया के कारण  पैदा नही होगा।
एक बात और यदि पापी भी प्रभु का नाम जपता है तो तर जाता है। प्रभु स्मरण और भक्ति तुमको सब दे देती है गुरू से ज्ञान तक। ध्यान से समाधि तक। शून्य से अनन्त तक सारे ज्ञान सारे अनुभव। अतः यदि भला चाहते हो तो न चाहते हुए भी जो देव अच्छा लगे। उसका सतत निरन्तर निर्बाध मन्त्र जप और नाम जप। उसका ध्यान करते रहो करते रहो।


कुछ उदाहरण है वेदों से। जब यह सब कर्म से  ब्राह्मण बन गए। अर्थात ब्रह्म का वरण कर लिए। 
(1) ऐतरेय ऋषि दास अथवा अपराधी के पुत्र थे। परन्तु उच्च कोटि के ब्राह्मण बने और उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण और ऐतरेय उपनिषद की रचना की| ऋग्वेद को समझने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण अतिशय आवश्यक माना जाता है। 

(2) ऐलूष ऋषि दासी पुत्र थे। जुआरी और हीन चरित्र भी थे। परन्तु बाद में उन्होंने अध्ययन किया और ऋग्वेद पर अनुसन्धान करके अनेक अविष्कार किये। ऋषियों ने उन्हें आमंत्रित कर के आचार्य पद पर आसीन किया। (ऐतरेय ब्राह्मण २.१९)

(3)  सत्यकाम जाबाल गणिका (वेश्या) के पुत्र थे परन्तु वे ब्राह्मणत्व को प्राप्त हुए। 

(4) राजा दक्ष के पुत्र पृषध शूद्र होगए थे, प्रायश्चित स्वरुप तपस्या करके उन्होंने मोक्ष प्राप्त किया। (विष्णु पुराण ४.१.१४)

(5) राजा नेदिष्ट के पुत्र नाभाग वैश्य हुए। पुनः इनके कई पुत्रों ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया। (विष्णु पुराण ४.१.१३)

(6) धृष्ट नाभाग के पुत्र थे परन्तु ब्राह्मण हुए और उनके पुत्र ने क्षत्रिय वर्ण अपनाया | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(6) आगे उन्हींके वंश में पुनः कुछ ब्राह्मण हुए | (विष्णु पुराण ४.२.२)

(7) भागवत के अनुसार राजपुत्र अग्निवेश्य ब्राह्मण हुए |

(8)  विष्णुपुराण और भागवत के अनुसार रथोतर क्षत्रिय से ब्राह्मण बने |

(9) हारित क्षत्रियपुत्र से ब्राह्मणहुए | (विष्णु पुराण ४.३.५)

(10) क्षत्रियकुल में जन्में शौनक ने ब्राह्मणत्व प्राप्त किया | (विष्णु पुराण ४.८.१) वायु, विष्णु और हरिवंश पुराण कहते हैं कि शौनक ऋषि के पुत्र कर्म भेद से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्ण के हुए| इसी प्रकार गृत्समद, गृत्समति और वीतहव्यके उदाहरण हैं |

(11) मातंग चांडालपुत्र से ब्राह्मण बने


(12) ऋषि पुलस्त्य का पौत्र रावण अपनेकर्मों से राक्षस बना


(13) राजा रघु का पुत्र प्रवृद्ध राक्षस हुआ


(14) त्रिशंकु राजा होते हुए भी कर्मों से चांडाल बन गए थे


(15) विश्वामित्र के पुत्रों ने शूद्रवर्ण अपनाया


विश्वामित्र स्वयं क्षत्रिय थे परन्तु बाद उन्होंने ब्राह्मणत्व को प्राप्त किया


(16) विदुर दासी पुत्र थे | तथापि वे ब्राह्मण हुये और उन्होंने हस्तिनापुर साम्राज्य का मंत्री पद सुशोभित किया

 कट पेस्ट पर बेहद दुर्लभ।
सांख्यदर्शन के कुछ स्मरणीय अंश

* सांख्यदर्शन के प्रवर्तक - देवहूति और कर्द्दम के पुत्र महर्षि कपिल ।
* सांख्य शब्द का अर्थ - समुपसर्गात् "ख्या" ( प्रकाशने) धातुः , 'अङ्ग' प्रत्यये 'टाप्' प्रत्यये च संख्याशब्दस्य निष्पत्ति:। ततः 'तस्येदम्' इत्यनेन ' अण्' प्रत्यये सांख्यम् इति पदस्य निष्पत्ति:।

* सांख्यदर्शन के प्रमुख ग्रन्थ - षष्टीतन्त्रम् , तत्त्वसमास , सांख्यप्रवचनसूत्र , सांख्यषडाध्यायी।

* कपिलमुनि के शिष्यों के नाम क्रमशः - आसुरी, पंचशिख, ईश्वरकृष्ण , भार्गव , उल्लूक , वाल्मीकि , हारीत , वार्षगण्य , वशिष्ठ , गर्ग।

* ईश्वरकृष्ण के द्वारा आर्या छन्द में सांख्यकारिका की गई।

* सांख्य दर्शन में पच्चीस तत्वों का विचार है।
वे तत्त्व है - पुरुष, प्रकृति, महत्( बुद्धि) , अहङ्कार, पञ्चतन्मात्राएँ ( रूप , रस, गन्ध, स्पर्श, शब्द) , मन, पञ्चज्ञानेन्द्रिया( चक्षु , रसना, घ्राण, त्वक, श्रोत्र) पञ्चकर्मेन्द्रिया ( वाक् , पाणि , पाद , पायु, उपस्थ) पञ्चमहाभूत ( पृथ्वी , आप , तेज , वायु, आकाश ) 

* इन पच्चीस तत्त्वों को चार भागों में विभाजित किया गया है।
1 . केवलप्रकृति - (प्रकृति अथवा प्रधान) 2. प्रकृतिविकृति - ( महद् , अहंकार, पञ्चतन्मात्राएँ ) 
3. केवलविकृति - ( पञ्चकर्मेन्द्रिया, पञ्चज्ञानेन्द्रियाँ, मन, पञ्चमहाभूत ) 4. न प्रकृति न विकृति - ( पुरुष) 

सांख्यदर्शनानुसार दुःख तीन प्रकार के होते हैं।
1. आदिदैविक। 2. आदिभौतिक । 3 . आध्यात्मिक । ( शारीरिक , मानसिक) 

* सत्कार्यवाद - सत एव सज्जायते इति।
सत्कार्यवाद के पांच प्रमाण - 
1. असदकरणात्। 2. उपादानग्रहणात्। 3. शक्तस्य शक्यकरणात्। 4. सर्वसम्भवाभावात्।
5. कारणभावात्।

* प्रकृति की सिद्धि के पाँच कारण।
1. कारणकार्यविभागात्। 2. अविभागाद्वैश्वरूस्य। 3. शक्तित: प्रवृत्तेश्च। 4. परिमाणात्।
5. समन्वयात्।

* सांख्यदर्शन तीन प्रमाणों को स्वीकृती देता है।
1 . प्रत्यक्ष। 2. अनुमान। 3. शब्द।

*अनुमान तीन प्रकार के होते है।
1. पूर्ववत्  2. शेषवत् 3. सामान्यतोदृष्ट।

* प्रत्ययसर्ग चार प्रकार के होते है।
1. विपर्यय। 2. अशक्ति। 3. तुष्टि। 4. सिद्धि।

* विपर्यय पाँच प्रकार के होते है।
1. तम।     2. मोह।     3. महामोह।   4. तामिस्र । 5 . अन्धतामिस्र।

* अशक्ति 28 प्रकार के होते है - 
आंध्य , बाधिर्य, अजिघ्रत्व, मूकत्व , जणत्व, कुंठित्व,

आनन्द लो कृष्ण अनुभूति का। जीवन रसमय रहेगा।
आह। आनन्द आनन्द। परमानन्द। जय महाकाली गुरुदेब। क्या नशा दिया। बस उड़ने लगे। अब आगे क्या। राम जाने।
यह नशा जो पीता है सिर्फ वोही बता सकता है। बाकी सिर्फ मुह पीटेंगे।


किसी मित्र ने पूछा था कि शिव और शक्ति का मानव रूप में आना सम्भव क्यो नही। 
देखो मित्र कृष्ण विष्णु के रूप। विष्णु इस दृश्यमान जगत के मालिक। क्योकि उनकी पत्नी कौन शक्ति कौन लक्ष्मी। लक्ष्मी की आवश्यकता पड़ती है जन्म के बाद और मृत्यु के पूर्व तक बस। यानि विष्णु मालिक जन्म के बाद मृत्यु के पूर्व। तो इस रूप में कौन आ सकता है। 

दूसरे मानव यानि आठ कला का पुतला। उसका मालिक विष्णु। इस कला में क्षमता नही कि शिव और शक्ति की कला जो आठ से अधिक उसको वहन कर सके। पर सिद्ध पुरुष 12 कला तक यानि वे शिव शक्ति से सायुज्य प्राप्त कर सकते है। पर पूरे शिव नही।
अतः श्री कृष्ण जो 16 कला के थे सिर्फ उन्हीं का रूप मानव की 8 कला तक की योनि में आ सकता है।
जय श्री कृष्ण।

एक बात और यदि आप साकार में किसी की भी पूजा करे। आपके बजरंग बली सहायक रहते है। पर कृष्ण भी साकार में स्वतः आकर आपको निराकार का अनुभव करा देते है। 
ग्रुप के एक सदस्य की माँ माता जी के सायुज्य में है। पर उनको कृष्ण दर्शनाभूति हुई। वे परेशान। मेरे पास सन्देश आया। पर इसका अर्थ है अब उन्हें शीघ्र ही निराकार की अनुभूति कृष्ण करायेगे।

जय श्री कृष्ण।


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