सत्संग और हम
सनातनपुत्र देवीदास विपुल
"खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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मैंने संस्कृत में सुभाषितानि में पढा था “सत: संगति सत्संगति कथ्यते”। यानि सत्य की संगति को सत्संगति कहते हैं। अब यहां पर सत्य क्या है। सत्संग दो शब्दों सत् और संग से मिलकर बना है। सत् का अर्थ सत्य है और संग का अर्थ जहां एक से अधिक लोग परस्पर मिलकर बैठे व सत्य ज्ञान से युक्त विचारों को सुनें। इस प्रकार से सत्य विचार व सत्य चर्चा जहां हो वहां उपस्थित होना व उस चर्चा को सुन कर अपने विवेक से उसे जानना, समझना और उसकी परीक्षा कर सत्य को ग्रहण करना सत्संग कहलाता है।
आगे कहते हैं। सतां सज्जनानां संगतिः। सज्जनों का संगति (साथ) सत्संगति कहा जाता है । अब सज्जन क्या है। एक अर्थ हैं सत्पुरुष यहां पर सज्जन का अर्थ सत्पुरूष से है। यानि सत्य के मार्ग पर चलनेवाला सद्जन जो संस्कृत व्याकरण के कारण सज्जन बन गया।
सज्जनानां संगत्या ह्रदयं विचारं च पवित्रम् भवति। सज्जनों के संगति से ह्रदय का विचार पवित्र होता है । ह्रदय का विचार पवित्र होने से क्या होता है।
अनया जनः स्वार्थभावं परित्यज्य लोककल्याणकामः भवति। इससे लोग स्वार्थ भाव त्यागकर जनकल्याणकारी कार्य करते है। यानि राष्ट्र का समाज का भला होता है।
दूरीकरोति कुमतिं विमलीकरोति चेतश्र्चिरंतनमधं चुलुकीकरोति।
भूतेषु किं च करुणां बहुलीकरोति संगः सतां किमु न मंगलमातनोति॥
कुमति को दूर करता है,
चित्त को निर्मल बनाता है। लंबे समय के पाप को अंजलि
में समा जाय ऐसा बनाता है,
करुणा का विस्तार करता है;
सत्संग मानव को कौन सा मंगल नहीं देता?
आजकल किसी धार्मिक कथा आदि में जाने को ही सत्संग मान लिया जाता है। सत्संग का वास्तविक अर्थ क्या है, इस पर कम लोग ही ध्यान देते हैं। यदि सत् शब्द पर और गहराई से विचार करें तो यह शब्द तीन सत्ताओं के लिए प्रयोग में लाया जाता है। एक है ईश्वर, दूसरा जीवात्मा और तीसरा प्रकृति। इन तीनों की चर्चा करना और इनके सत्यस्वरूप का ज्ञान प्राप्त करना भी सत्-संग कहलाता है। ईश्वर की चर्चा करते हैं तो हमें ज्ञात होना चाहिये कि ईश्वर किसे कहते हैं, उसका स्वरूप कैसा है, उसके गुण, कर्म व स्वभाव किस प्रकार के हैं, उसको जानना क्यों आवश्यक है, उसका ज्ञान प्राप्त करने पर हमें क्या लाभ होता है, उसकी प्राप्ति किस प्रकार की जा सकती है, उसको क्या किसी ने कभी प्राप्त किया है और यदि हम उसे प्राप्त कर लें तो हमें क्या क्या लाभ होंगे? ऐसे अनेक प्रश्न हैं जिनका ज्ञान सत्यस्वरूप ईश्वर को जानने व उससे लाभ उठाने के लिए आवश्यक है।
आजकल जो धार्मिक कथायें आदि होती हैं उन्हें सही अर्थों में सत्संग इसलिये नही कहा जा सकता क्योंकि वहां ईश्वर व जीवात्मा आदि का सत्य ज्ञान मिलने के स्थान पर अज्ञान, अविद्या, कुरीतियां, मिथ्याज्ञान, कुपरम्परायें आदि भी बताई जाती हैं।
वक्ता को और श्रोताओं को क्योंकि धर्म की पुस्तकें वेद व धर्मशास्त्र का ज्ञान नहीं होता इसलिए वह चालाक व चतुर तथाकथित धर्माचार्यों के जाल में फंस जाते हैं। यह लोग तो श्रोताओं व भक्तों से धन लेकर सुखी व भोग का जीवन व्यतीत करते हैं जबकि इनके अनुयायी अभावों से युक्त दुःखी जीवन व्यतीत करते हैं और उनका आध्यात्मिक विकास भी देखने को नहीं मिलता। अतः सत्संग के यथार्थ स्वरूप को समझ कर उसके अनुरूप ही हमें व्यवहार व उपासना आदि कार्य करने चाहियें। आप देखें कथावाचक अपने को संत बनाकर दुकान चला लेते हैं। यहां त्क खुद भय्यू जी की तरह आत्म हत्या तक कर लेते हैं।
मेरे विचार से सत्संग को हम दो प्रकार में विभाजित कर सकते हैं।
1.
सामूहिक जिसमें भीड भाड हो और एक वक्ता को लोग सुनते हैं।
2.
एकांत में जैसे स्वाध्याय। इसमें आप जब अकेले हों तो अपने आत्म गुरू से प्रश्नोत्तर करें। ईश चिंतन करें, अपने कर्मो पर विचार, ग्रंन्थ, लेख अध्ययन करें इत्यादि।
व्यवहार में और कर्म से भी इसे दो प्रकार में विभाजित कर सकते हैं।
1. वाणिक और वाहिक: इसमें आप मीठी और सत्य वाणी बोलें। वाहिक रूप में आप अष्टांग योग के यम (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य
यानि चेतना को ब्रह्म के ज्ञान में स्थिर करना और सभी इन्द्रिय-जनित सुखों में संयम बरतना, अपरिग्रह।
2.
इंद्रियोगत: जिसमें आंतरिक रूप में भी सत्य के प्रति सजग रहना। आंतरिक रूप में भी आप अष्टांग योग के नियम के उपांगों जैसे शौच,
संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वर-प्रणिधान होना।
किसी भी साधक की आध्यात्मिक यात्रा में सत्संग, साधन और साधना का एक महत्त्वपूर्ण अंग है । विशेषकर आध्यात्मिक यात्रा के आरंभ में जबतक अध्यात्म हमारे जीवन का अविभाज्य अंग न बन जाए एक अनुभवी साधक के लिए
‘सत्संग’ ईश्वर एवं सहसाधकों की सेवा करने का एक सुअवसर है । इसमें साधक अपने साधना संबंधी अनुभव बांटते हैं तथा अपनी और अन्यों की साधना को प्रोत्साहित करते हैं ।
अध्यात्म शास्त्र के अनुसार संपूर्ण विश्व की निर्मिति तीन मूलभूत सूक्ष्म घटकों से हुई है – सत्व, रज और तम । सत्व वह घटक है जो आध्यात्मिक पवित्रतता और ज्ञान का सूचक है,
रज मनोभाव (वासना) और क्रियाशीलता का सूचक है,
जबकि तम अज्ञान और निष्क्रियता दर्शाता है । सभी वस्तुओं से प्रक्षेपित सूक्ष्म स्पंदन, वस्तु के प्रधान सूक्ष्म मूलभूत घटक पर निर्भर करती हैं । सत्संग से सत्व गुण बढता है वहीं र्जो और तमों गुण में धीरे धीरे कमी आने लगती है।
सत्संग में आने वाले कुछ साधकों को सुखद आश्चर्य होता है जब उन्हें सत्संग में अपने मन के अनुत्तरित प्रश्नों के उत्तर अनायास ही, बिना पूछे मिल जाते हैं। जब कोई साधक सत्संग में आनेका प्रयास करता हे तो ईश्वर उस साधक के मनमें कुछ समय से अनुत्तरित रहे प्रश्नों का समाधान कर उसकी सहायता करते हैं ।
वैसे सत्संग कार्य को कुछ अन्य प्रकार में भी बांटा जा सकता है।
1. गुरू सम सत्संग: भारतीय अध्यात्म के संदर्भ में एक
परंपरागत कार्यकलाप है जिसका अर्थ है "अच्छे और
सदाचारी साथियों के साथ रहना." सतसंग का अर्थ
है एक ज्ञानसंपन्न व्यक्ति के साथ बैठना जो साधारणत:
थोड़े में बात कहता है और बाद में प्रश्नों के उत्तर
देता है।
2.
ईश्वर के साथ सत्संग : आध्यात्मिक पथ पर अग्रसर व्यक्ति न केवल कठिन समय में अपितु अपने जीवन के प्रत्येक क्षण को ईश्वर के साथ बिताता है । वह ईश्वर को अपनी प्रत्येक त्रुटि एवं आंतरिक विचार बताता है । ऐसे साधक को कुछ कालावधि के पश्चात ऐसा अनुभव होता है कि उसे अंतरमन से उत्तर प्राप्त होने लगे हैं । जैसे-जैसे उसकी साधना बढती है, वह निरंतर ईश्वर के सान्निध्य में रहने का प्रयास करता है । ईश्वर से वार्ता उनके (ईश्वर)साथ सत्संग की भांति है और यह सत्संग सर्वोच्च स्तर का होता है ।
3.
संत,
गुरु एवं उन्नत साधकों के साथ सत्संग: तीव्र आध्यात्मिक प्रगति हेतु,
हमें निरंतर उन्नत साधकों अथवा अपने आध्यात्मिक मार्गदर्शक के सत्संग में रहना चाहिए । सत्संग से प्राप्त लाभ के अतिरिक्त,
यह हमें दोष निवारण का अवसर प्रदान करता है,
साधना में सुधार
होता है तथा साधना में आनेवाली अडचनों के निर्मूलन हेतु मार्गदर्शन प्राप्त
होता है ।
4.
उन्नत साधक के सत्संग में रहने पर हमें प्रत्येक समय अपने अनुभव को
लिखना चाहिए । उदाहरणार्थ, क्या नामजप की मात्रा अथवा गुणवत्ता बढी है,
बिना विवेचना के ही किसी शंका का समाधान हुआ, शारीरिक व्याधि, जैसे पीठ की वेदना बिना उपचार के न्यून अथवा बंद हुई,
वार्ता के पश्चात व्यक्तिगत
अनुभव कैसे रहे – अच्छे,
बुरे अथवा अपरिवर्तित,
क्योंकि साथना का उद्देश्य
है परमानन्द की अनुभुति, सत्संग से आनंद की अनुभूति में वृद्धि होनी चाहिए। यदि ऐसा नहीं हो रहा हो,
तो
हमें विश्लेषण करना चाहिए कि हमसे क्या चूक हो रही है तथा इसकी
पुनरावृत्ति ना हो इस पर ध्यान देना होगा । इसके विपरीत,
यदि अच्छी अनुभूति
हुई हो, तो क्या सही किया उसका विवेचन करें और भविष्य में उसी पर ध्यान केंद्रित करें।
5.
सह-साधकों के साथ सत्संग: इसे स्थूल (शारीरिक) स्तर पर,
दूरभाष अथवा जालस्थल के माध्यम से किया जा सकता
है । जैसे मेरा व्हाट्स अप ग्रुप “आत्म अवलोकन और योग” कभी कभी साधक अपने अनुभवों से या कुण्डलनी जागरण से डर जाता है तब
शंकाओं का समाधान किया जाता है और उन्हे मार्ग दिखाया जाता है। पूरे विश्व भर में अपने साधक इस ग्रुप में इन सत्संगों में आध्यात्मिक विषय की चर्चा तथा साधना से
संबंधित प्रश्न करते हैं।
सह-साधकों के साथ व्यक्तिगत स्तर अथवा दूरभाष पर आध्यात्मिक चर्चा भी एक प्रकार का सत्संग है।
ये सत्संग चर्चा किए गए विषयों के अनुसार वर्गीकृत किए जा सकते हैं:
क.
सूचनात्मक सत्संग – अध्यात्म संबंधी सूचनाएं बताई जाती हैं एवं उस पर चर्चा की जाती है।
ख.
मार्गदर्शक सत्संग – इन सत्संगों में व्यष्टि साधना एवं प्रसार संबंधी मार्गदर्शन किए जाते हैं ।
ग.भाव सत्संग
– सहभागी साधकों के भाव में वृद्धि हेतु किया जानेवाला सत्संग ।
6.
संतों द्वारा लिखित धर्मग्रंथ वाचन
: यह एक ऐसा सत्संग है, जहां साधक पुस्तकों में अंकित शब्दों के माध्यम से चैतन्य ग्रहण करता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि उस ग्रंथ का लेखक एक संत अथवा एक उच्च कोटि की जीवात्मा हैं, जिनका संकल्प उसके शब्दों से कार्यरत होता है।
7. सत्संग के अन्य प्रकार : जैसे आध्यात्मिक प्रवचन में सम्मिलित होना, धार्मिक स्थलों जैसे, और संतों के आश्रम इत्यादि के दर्शन,तीर्थ स्थलों में रहना,भक्ति गीतों का श्रवण अथवा गायन।
गायत्री परिवार की पुस्तक से एक भजन है।
सत्संग वो गंगा है, इसमें जो नहाते हैं।
पापी से पापी भी, पावन हो जाते हैं॥
पापी से पापी भी, पावन हो जाते हैं॥
ऋषियों ने मुनियों ने, इसकी महिमा गाई।
सत्संग से ही जीवन है,यह बात है समझाई।
यही वेद बताते हैं, यही ग्रन्थ बताते हैं॥
यही वेद बताते हैं, यही ग्रन्थ बताते हैं॥
प्रभु नाम के मोती है, सत्संग के सागर में।
फल ही फल मिलते हैं, इस सुख के सरोवर में।
सत्संग में जो आते हैं, डुबकियाँ लगाते हैं॥
फल ही फल मिलते हैं, इस सुख के सरोवर में।
सत्संग में जो आते हैं, डुबकियाँ लगाते हैं॥
इस तीरथ से बढ़कर,
कोई तीरथ धाम नहीं।
दुःख क्लेश का भक्तों, इसमें कोई काम नहीं।
आते हैं सत्संग जो, जीवन को सजाते हैं॥
दुःख क्लेश का भक्तों, इसमें कोई काम नहीं।
आते हैं सत्संग जो, जीवन को सजाते हैं॥
जय गुरूदेव महाकाली।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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आपका सत्संग हमे मिला उसके लिए धन्यवाद्
ReplyDeleteआभार है मित्र
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