जन्म से सभी शूद्र क्यों।
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
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तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के किष्किंधाकांड में लिखा है कि,
क्षिति जल पावक गगन समीरा। पंच रचित यह अधम सरीरा।।
यह पाँच तत्व जैसा कि ऊपर की चौपाई में लिखा है क्रमश:, क्षिति यानी कि पृथ्वी, जल यानी कि पानी, पावक यानी कि आग,
गगन यानी आकाश और समीर यानी कि हवा। कृपया विज्ञान वाले तत्वों से तुलना न करें क्योकि तब पीरियाडिक टेबिल नहीं थी। यहां तत्व का अर्थ वह अलग अलग प्राकृतिक वस्तुयें जो हमारे चारो ओर हैं।
क्षिति (पृथ्वी): मनुष्य का पुरुष का शुक्राणु स्त्री के डिम्ब से मिलकर गर्भ में विकसित एक बिस्तर पर पनपता है। यह भूमि तत्व है। जल के साथ। वास्तव में मानव शरीर में वह सब है जो इस धरा पर है। मृत्यु के बाद मृत शरीर जल कर राख बन पुन: भूमि में मिल जाता है। एक तरह से एक पुतला बना खेल किया अपनी लीला दिखाई फिर इतिहास यानि इति + ह्वास होकर इतिहास बन गया।
जल : जल तो हम पीते है निकालते हैं। हमारा शरीर 70 प्रतिशत पानी ही है। मरने के बाद यह वाष्प बन कर पुन: प्रकृति में मिल जाता है। दाह संस्कार के समय भी आपने देखा होगा कि मटके में पानी लेकर चिता की परिक्रमा करते हैं।
पावक (आग): यह वह अग्नि यानि जो हमारा भोजन पचने पर पैदा होकर कार्य करने की शक्ति देती है और अतिरिक्त ऊर्जा चर्बी बन कर शरीर में इकठ्ठा हो जाती है। यह शरीर में केमिकल बांड के रूप में एकत्र होती है जो स्टोरेज बैटरी की तरह है। ऐ एम पी (एडनिन मोनो फास्फेट, AMP) में एक बंध होता है। ऊर्जा मिलने पर यह ऐ डी पी (एडनिन डाई फास्फेट, ADP) बन जाता है जिस में दो बंध होता है। यह और उर्जा पाकर यह ऐ टी पी (एडनिन ट्राई फास्फेट, ATP) बन जाता है जिस में तीन बंध होता है। फिर यह चर्बी बना देता है। ऊरजा की आवश्यकता पडने पर यह पुन: इसी रास्ते से लौटकर ऐ एम पी (एडनिन मोनो फास्फेट, AMP) बन कर ऊर्जा प्रदान कर देता है। अब आप आग का आशय समझ गये होंगे।
समीर (हवा): सांस हेतु और अग्नि हेतु वायु चाहिये।
गगन (आकाश): यह वह तत्व है जो दिखता नहीं पर सबसे शक्तिशाली है। यहां आपकी सोंच, मन,
बुद्धि, अहंकार, प्राण, आत्मा इत्यादि रहते हैं। यह बिगडने का मतलब पागल होना। यह आकाश की भांति सर्व व्यापी है और प्रत्येक जीव में स्थित है।
आप क्रम देखें पहले भूमि तत्व का बीज जल के सहारे गर्भ में गया। फिर वह वायु तत्व के साथ मिलकर पनपता रहा।फिर उसमें शरीर के अंग बने जो बाद में मां के गर्भ से भोजन और वायु लेने लगे। फिर अंत में उसमें आकाश तत्व में स्थित प्राण समाये।
वास्तव में हम अंतर्मुखी होने में अपने आकाश तत्व की ओर चलने का प्रयास करते हैं। हमें यदि इस तत्व की मूक भाषा को ग्रहण करने का हुनर आ जाये तो हम दूसरे के मन की बात समझ सकते हैं। आप यह समझें आपका और यह जगत इसी तत्व के अधीन चल रहा है। कैसे??
आपके मन में सबसे पहले विचार आता है फिर वह मस्तिष्क में जाता है। मस्तिष्क शरीर की इंद्रियों को संकत देता है यह करो। वह इंद्री वह काम कर देती है। फिर पुन: इंद्रियों के माध्यम से यह संकेत वापिस मन तक जाता है जो संतुष्ट या असंतुष्ट होता है।
इसी आधार पर आप कोषों या स्तरों की कल्पना वैज्ञानिक तरीके से कर सकते हैं। आपने भोजन किया यह भोजन पेट की थैली में गया जिसे स्थूल रूप में अन्नमय कोष कह सकते हैं।
अब यहां भोजन पचा जिससे ऊर्जा या अग्नि उत्पन्न हुई। तो इसे कह सकते हैं अग्निमय कोष।
अब अग्नि ने क्या किया हमें उर्जा दी जिसके कारण यह शरीर जीवित रह सके। कार्य कर सके। अत: उसे कह सकते हैं प्राणमय कोष।
जब प्राण हैं तो मन भी सक्रिय। क्या करें क्या न करें मन घुमाता है। तो यह हुआ मनोमय कोष।
अब आपकी बुद्धि समझाती है क्या गलत क्या सही। तो यह हुआ बुद्धीमय कोष।
एक बात ध्यान देने योग्य है। ज्ञानी की बुद्धि मन के ऊपर होती है। अधिकतर जगतवासियों की बुद्धि मन के नीचे चली जाती है जो पतन का कारण बनती है।
अब बुद्धि के ऊपर है ज्ञान मय कोष फिर आत्ममय कोष। वैसे ज्ञान मय कोष को बुद्धीमय कोष में ही मानना चाहिये।
आत्ममय कोष के बाद आता है आनन्दमय कोष। जो मनुष्य का मूल स्वभाव है।
बौद्ध इसका उल्टा दुख:मय कोष मानते हैं। बात एक ही है आनन्द का उल्टा दु:ख।
इस चौपाई में अधम का अर्थ है बडा गूढ है। मानव शरीर के इस धरा
पर आने का मार्ग बेहद गंदा और अपवित्र माना जाना है। इसी लिये अधम कहते हैं। सृष्टि निर्माण
का भाव गुण सात्विक अत: ब्र्ह्मा और सरस्वती, कर्म रजोगुणी
पर जन्म तमोगुणी यानि गंदा। अत: अधम यानि नीच या निकृष्ट। अर्थात की संज्ञा दी जाती है।
मनु कहते हैं।
जन्मना जायते शूद्रः, संस्कारात्
भवेत् द्विजः। वेद-पाठात् भवेत् विप्रः, ब्रह्म
जानातीति ब्राह्मणः॥ जन्म से मनुष्य शुद्र, संस्कार से द्विज (ब्रह्मण), वेद के पठन-पाठन से विप्र और जो ब्रह्म को जान लेता है वो ब्राह्मण कहलाता है।
अब मन में क्या क्या समाहित है यह अगले लेख में।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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very informative
ReplyDeleteजय हो महाराज जी 🌹 अति उत्तम सर्वज्ञान आपका धन्यवाद
ReplyDeleteअतिउत्तम
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