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Thursday, December 27, 2018

काशी शिव योगिराज तैलंग स्वामी



काशी शिव योगिराज तैलंग स्वामी


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं  कवि
 त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
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काशी में अनादि काल से ऋषि मुनि साधना करते हुए है। कहा जाता है आज भी ऐसे सन्त है जो यहाँ गोपनीय ढंग से रहते है जिनके बारे में सामान्य लोगों को जानकारी नहीं है। जिनके मठ, आश्रम या सम्प्रदाय है, केवल उनके जानकारी है। काशी ही वह नगरी है जहाँ महर्षि वेदव्यास आए ओर उनकी स्थापना हुई। महात्मा बुद्ध ने भी अपना सर्वप्रथम उपदेश यही सारनाथ में दिया था। शास्त्रार्थ के लिए पतंजलि आदि थे यही पर एक चांडाल ने जगदमुख शंकराचार्य को परास्त कर तत्वज्ञान का बोध कराया था। कबीर ने यही अपने उपदेशों का ताना बाना फैलाया, तुलसी दास ने यही अपने मर्मस्पर्शी गान गाए। श्री वल्लाक्तचार्य ने यहाँ आकर महाप्रभु की बैठकस्थापित की। इनमें अधिकांश लोगों के मठ आश्रम है व अनेक प्रकार के शिष्य है।


परन्तु तेंलग स्वामी ने कभी कोई मठ, मन्दिर, आश्रम स्थापित करने में रूचि नही ली। एक बार एक बड़े विद्वान ने काशी के लोगों से उनके पता ठिकाना व स्वभाव के बारे में पूछा तो उनके यह उत्तर मिला- ‘‘उनकी बात मत पूछिए। अजीब बाबा है न जात पात का विचार और न रहन सहन। जो कोई जो कुछ देता है, खा जाते है, किसी के साथ बात करना पसन्द नहीं करते। हमेशा नंगे रहते है। गर्मी में तप्त बालू पर सोते हुए मिलते है तो जाडे में गंगा में डूबे रहते है। सुनते है कि दो-दो, तीन-तीन दिन पानी से बाहर नहीं निकलते। कभी-कभी मुर्दे की तरह गंगा मैया के ऊपर तैरते पड़े रहते है। उनकी उम्र का भी कुछ अता पता नही है। कब से वो काशी में निवास कर रहे है यह भी किसी के ज्ञात नही है।’’ तेलंग स्वामी की एक ओर विशेषता थी जल्दी से किसी के शिष्य बनाना पसन्द नहीं करते थे। पंचगंगा घाट उनका प्रिय स्थान था। श्रदालु व भक्त उनके दर्शन हेतु वहाँ जाया करते थे।

आंध्र प्रदेश के विशाखापत्तनम जिले में एक गाँव है- होलिया. इस गाँव के जमींदार का नाम था- श्री नृसिंहधर. स्वभाव के उदार और प्रजा वत्सल।  कट्टरब्रह्मण होने से तीन समय गायत्री करते थे।  इनकी पत्नी विद्यावती देवी और भी धार्मिक प्रवृत्ति की थी।  व्रत उपवास और गृहदे वता शंकर की पूजा में बहुत समय देती थी।  उनके यहाँ कोई संतान नहीं थी।  इस बातको लेकर मन में कमी थी।  दोनों पति पत्नी और सब प्रकार से प्रसन्न थे।  शादी के लगभग दस वर्ष बीत जाने के बाद विद्यावती ने श्री नृसिंहसेकहा-“ आप दुसरा विवाह कर लीजिये। संतान होने से परिवार में ख़ुशी रहती है.“ श्री नृसिंह इस बात को नहीं माने।

पत्नी के कई बार दोहराने पर इतना ही बोले – सौतेली स्त्री घरमें आयेगी तो कलह होगा। पत्नी बोली- मैं बहन की तरह रख लुंगी।  इस प्रकार समय और बीतता गया। और इसी के साथ विद्यावती की मांग भी। अंत में श्री नृसिंह ने दूसरी शादी कर ली।  दूसरी पत्नी को गृहस्थी का सारा भार देती हुई विद्यावती बोली-“ आज से तुम्हें ही सब कुछ देखना है। मैं तुम्हारी सहायता करूंगी और शेष समय में पूजा करुँगी। “ कुछदिनों बाद नृसिंह के यहाँ चमत्कार हुआ। सन १६०७ ई. के प्रारम्भ में विद्यावती ने माँ बनने का गौरव प्राप्त किया।  ये एक आश्चर्यजनक घटना थी। इतने समय बाद ख़ुशी मिली थी, खूब उत्सव किया गया और किसानों का लगान भी माफ़ किया गया। शिव भगवान् की कृपा मान कर बालक का नाम माता की ओर से रखा गया- शिवराम, और पिता ने परम्परा से रखा- तैलंगधर।  कुछदिनों बाद नई पत्नी ने भी पुत्रको जन्म दिया। उसका नाम हुआ- श्री धर। पिता का स्नेह और माँ की ममता पाकर दोनों बालक बड़े होते गए।

दोनों बालक विपरीत स्वभाव के बनते गए। तैलंगधर अपने सहपाठियों से दूर न जाने किस दुनिया में खोया रहता था। उसे भीड़ और कोलाहल पसंद नहीं था। दूसरी ओर श्रीधर घर में चारों ओर दौड़ धुप और उपद्रव करता था. जयेष्ट पुत्र की स्थिति देखकर नृसिंह चिंतित होते थे।  ऐसी उम्र जहाँ बालक चंचल और उपद्रवी होते हैं वहीँ तैलंगधर शांत और अपने ही ध्यान में लीन रहता था।  बड़ा होने पर नृसिंह ने लड़के के ब्याह की सोची। इस बात की सूचना पाकर तैलंग धर बोले कि आप इस चिंता में न पड़े। मुझे ब्याह नहीं करना है. नृसिंह  यह बात सुनकर अवाक् रह गए।  वे बूढ़े होते जा रहे थे। जमींदारी का काम, परिवार की देखभाल, लगान वसूल करना आदि कौन करेगा अगर ज्येष्ठ पुत्र नहीं करेगा।  वंश रक्षा का तर्क दिया गया।  इस पर तैलंगधर बोले कि आप श्रीधर का ब्याह कर दीजिये।  


विद्यावती ने समझाया पर माँ तो तैलंगधर बोले- मैं अविवाहित रहना चाहता हूँ।  माँ ने भी  नृसिंह से कहा- “ चलो उसे अपने रस्ते पर चलने दो।  बचपन से देख रही हूँ कि ये अलग सा है, जब मैं पूजा करने बैठती थी तो ये भी ध्यान में बैठता था। मैं सोचती थी कि जैसे बालक करते हैं। आँख मूँदकर, कर रहा होगा लेकिन मेरी धारणा गलत निकली। एक दिन विग्रह में से तेज़ निकल कर तैलंग में समा गया। मैं डर गयी थी।  एक दिन तो खिड़की से देखा की शिवराम बाग़ में पीपल के नीचे आँखें मूँदकर बैठा है।  ध्यान में लीं, और मैं डर गयी क्योंकि एक नाग फन फैलाकर पीछे था। यह दृश्य देखकर मैं भय से चीख उठी। तुरंत गोपाल को भेजा पर गोपाल ने कोई सांप नहीं देखा। बोला कि बड़े भैया केवल आँख बंद कर के बैठे हैं।  तैलंग से पूछा तो वह चुप रहा।


मुझे तो ऐसा लगता हैकि हमारे घर में किसी संत ने जन्म लिया है। “ नृसिंह इस बात पर मन ही मन मुस्कुरा उठे औरअपनी पत्नी का भ्रम मान लिया। उन्होंने तैलंग पर नजर रखनी शुरू की।  एक दिन उन्होंने भी नाग को तैलंग के सर परफन फैलाए देखा। उनके होश उड  गए. तैलंग अचल ध्यान में लीन था। तब उन्हें भी विश्वास हो गया।  समय गुजरता गया। इस बीच नृसिंग की मृत्यु हो गयी। श्रीधर ने जमींदारी की जिम्मेदारी उठा ली थी। तैलंग अपनी दोनों माँओं की सेवा और ध्यान में रम गया। नृसिंह के निधन के दस वर्ष के बाद विद्यावती भी चल बसीं।  उनके चल बसने के बाद तैलंग पूर्ण निर्मोही हो गया। जहाँ माँ का अंतिम संस्कार हुआ था वहीँ श्मसान में रहने लगा। भस्म सर्वांग में पोतकर बस ध्यान मग्न रहता।  सौतेली माँ और भाई ने आकर बहुत समझाया पर तैलंग नहीं माना। केवल इतना बोला-“ तुम पिता की संपती और परिवार की देखभाल करो“। बड़ा आग्रह कर ने पर श्रीधर को एक कुटिया वहीँ श्मसान में बनाने और दैनिक भोजन का प्रबंध करने को कहा।   


तैलंगधर अब तक जो कर रहे थे अपनी अंतर प्रेरणा से कर रहे थे। एक अरसे बाद १६७५ ई. में एक योगीराज होलिया गाँव की श्मसान भूमि में आये और सीधे तैलंग की कुटिया में जाकरबोले-माँ द्वारा प्रदत्त नाम केवल माँ करती थी, सौतेली माँ या कोई अन्य भी नहीं करता था।  ये ऐसा किसने पुकारा, सोचकर बाहर आये।  सामने एक संत खड़े थे, अपूर्व तेज़ निकल रहा था। उनके आगे तैलंग का मस्तक अपने आप झुक गया।  उसे अपने स्वप्न में देखी कुछ घटनाएं याद आ गयी.  उन्हें लगा- कहीं ये संत उनके गुरु न हो, सोचकर पुनः प्रणाम किया। आगंतुक स्वामी का नाम भागीरथ स्वामी था।  आप पटियाला से आये थे। दक्षिण के विभिन्न तीर्थ स्थलों का दर्शन हेतु।  इतनी देरमें खाना आ गया, दोनों संतों ने प्रसाद लगाया। दोनों में बातें होने लगी। बातचीत में भागीरथ स्वामी बोले-“ कुछ दिन यहाँ विश्राम करने के बाद गिरनार होते पुष्कर जाने का विचार है।  “तैलंगधर बोले-“ महाराज आपको आपत्ति न हो तो मैं आपके साथ चलूँ।  आपसे उपदेश सुनूंगा और आपकी सेवा करूं गा।“


भागीरथ स्वामी तैलंगधर को साथ लेकर विभिन्न तीर्थों का भ्रमण करते हुए पुष्करराज पहुंचे। इस बीच उन्होंने तैलंग के अन्दर की शक्ति को पहचान लिया था। उन्हेंसमझते देर नहीं लगी कि तैलंग में सब कुछ है केवल प्रक्रिया समझानी है। अब भागीरथ स्वामी तैलंगधर को नित्य योग की क्रियाएं बताने लगे।  होलिया गाँव से पुष्कर आनेमें  6  वर्ष लगे थे।  इन दिनों तैलंगधर 77  वर्ष की उम्र पार कर चुके थे।  आखिर एक दिन वो शुभ घडी आ ही गयी जिसकी प्रतीक्षा एक अरसे से तैलंगधर कर रहेथे। भागीरथस्वामी ने कहा- “तैलंग, कल तेरे को दीक्षा दूँगा“।

पुष्कर सरोवर में स्नान करने के बाद तैलंगधर आसनपर बैठ गए। सारी क्रियायों के बाद भागीरथ स्वामी ने उन्हें बीज मंत्र दिया। इसके बाद बोले-“अब तक तुम्हे योग की प्रक्रियाएं बताता रहा। उसका अभ्यास करते रहना। अपने गुरु प्रदत्त उपाधि तुम्हें दे रहा हूँ क्योंकि परम्परा के अनुसार शिष्य को गुरु की शाखा की उपाधि ग्रहण करनी पड़ती है। आजसे तुम तैलंगधर या शिवराम के नाम से नहीं, बल्कि गजाननसरस्वती के नाम से जाने जाओगे। नामकरण के बाद भागीरथ स्वामी ने गजानन सरस्वती को अष्ट सिद्धी प्रदान करीं. अणिमा, लघिमा, महिमा, प्राप्ति, प्राकाम्य, वशित्व, इशीतृत्व, यत्रकामाव सायावित्व। बाबा इस प्रका रदीक्षा लेनेके बादगुरुदेव की सेवा करते हुए और दस वर्ष तक पुष्कर में रहे। गुरुदेव भागीरथ स्वामी ने देहत्याग कर दिया।  


गुरुदेव के ब्रह्मलीन होने के बाद आप तीर्थयात्रा को निकल पड़े। इस समय आपकी उम ८८वर्ष की थी। सन 1665 ई. मेंआप पुष्कर से चलकर विभिन्न तीर्थस्थलों की यात्रा करते हुएरामेश्वरम आये।  यहाँ देश के भिन्न भिन्न भागों से महात्मा लोग आये हुए थे। मेले में होलिया गाँव के निवासी भी आये। उनसे अचानक मुलाक़ात हो गई। तैलंग को संन्यासी रूप में देखकर सभी चकित रह गए। सभी ने आग्रह किया की श्मसान की कुटिया में चलकर रहे।  सौतेली माँ का देहावसान हो चूका था।  श्रीधर भी बूढ़े हो चले थे। गजानंदसरस्वती ने कहा-“ मैं गुरुदेव की आज्ञा से तीर्थयात्रा पर निकला हूँ।  मेरे लिए गाँव जाना संभव नहीं है.“ इतना कहकर गजानन सरस्वती आगे बढ़ गए।

तैलंग स्वामी को वैराग्य की प्रवृत्ति बचपन से ही थी। माँ की मृत्यु के बाद उसकी चिता के स्थान पर ही लगभग 20 वर्ष तक साधना करते रहे। माँ की मृत्यु के बाद तैलंग स्वामी घूमने निकल गये। सबसे पहले वह पटियाला पहुंचे और भगीरथ स्वामी से सन्न्यास की दीक्षा ली। फिर नेपाल, तिब्बत, गंगोत्री, यमुनोत्री, प्रयाग, रामेश्वरम, उज्जैन आदि की यात्रा करते हुए अंत में काशी पहुँचे और वहीं रह गए। काशी में पंचगंगा घाट पर आज भी तैलंग स्वामी का मठ है। यहाँ पर स्वामी जी कृष्ण की जिस मूर्ति की पूजा करते थे उसके ललाट पर शिवलिंग और सिर पर श्रीयंत्र बना हुआ है। मठ के मंडप में लगभग 25 फुट नीचे एक गुफा है जहाँ बैठकर वे साधना किया करते थे। कहा जाता है कि वे धूप और शीत की परवाह किए बिना बहुधा मणिकर्णिका घाट पर पड़े रहते थे। जब भीड़ जुड़ने लगती तो किसी निर्जन स्थान पर चले जाते।


उनका कहना था कि योगी बिना प्राणवायु के भी जीवित रहने की शक्ति प्राप्त कर सकता है। तैलंग स्वामी एक सिद्ध योगी थे, चमत्कारों से भली प्रकार विदित होता है। उनमें हर तरह की बड़ी-बड़ी शक्तियाँ थीं, पर उन्होंने उनके द्वारा सिवाय लोगों के उपकार के अपकार कभी नहीं किया और अपने साथ शत्रु भाव रखने वालों को भी कभी किसी प्रकार की हानि नहीं पहुँचाई। इससे यह भी प्रकट होता है कि वे केवल योगी ही न थे वरन् एक सच्चे सन्त और साधु भी थे। अपनी मृत्यु का समय आने पर उन्होंने अपने सब शिष्यों और भक्तों को एक दिन पहले ही उसकी सूचना दे दी थी। उसके अनुसार संवत् 1944 (सन 1887) की पौष सुदी 11 के दिन संध्या के समय उन्होंने योगासन पर बैठ कर चित्त को एकाग्र करके देह त्याग किया। ऐसा कहा जाता है कि उस समय उनकी आयु 280 वर्ष की थी।


एक बार स्वामी जी एक आश्रम में बैठे हुए थे। श्रद्वालुओं की भीड़ लगी थी। स्वामी जी के दर्शन हेतु दो बंगाली बाबू आए। स्वामी जी को प्रणाम कर वहीं खड़े हो गए। स्वामी जी ने इन्हें वापिस जाने का इशारा किया। एक बंगाली बाबू तो वहाँ से चले गए दूसरे अड़कर वहीं बैठ गए। स्वामी जी लोगों की भीड़ पसन्द नहीं करते थे। एक ग्वाला स्वामी जी के इशारे  से लोगों के बाहर धकेलता था। स्वामी जी ने ग्वाले को इशारा किया। ग्वाले ने आदेश पाते ही उस व्यक्ति के धक्का देते हुए कहा- ‘‘जल्दी बाहर निकलो। बाबा का दर्शन करने आए थे, वह हो गया। अब यहाँ बेकार भीड़ लगाने की जरूरत नही है।’’ उस व्यक्ति ने ग्वाले को धक्का देते हुए कहा- ‘‘मैं कही जाऊँगा। जाना है तो तुम जाओ। इस प्रकार दोनों आपस में झगडने लगे। यह दृश्य देखकर स्वामी जी ने उक्त बाबू व अपने एक सेवादार  मंगलदास के अपने निकट बुलाया। मंगलदास के दीवार पर लिखे संस्कृत के श्लोक का मतलब समझाने के कहा।

मंगलदास बोलने लगे- ‘‘तुम बाहर 18 रूपये का खरीदा नया जूता खोलकर मुझे देखने आए हो। अगर कोई उसे युवा ले गया तो तुम्हें यहाँ से नंगे पैर वापिस जाना पड़ेगा। यही बात तुम सोच रहे हो। अब तो तुम साधु के संग के लिए आसक्त हो अथवा अपने जूते के लिए। तुम्हें चिता करने के जरूरत नहीं है। अभी जूता सुरक्षित है शीघ्र वापिस जाकर पहन लो।’’ वहाँ जितने लोग मौजूद थे यह सुनकर सभी अवाक रह गए। बाहर आने पर लोगो ने उनसे पूछा कि क्या वो वास्तव में जूते के बारे में सोच रहे थे। उक्त व्यक्ति ने कहा- ‘‘हाँ महाशय! वास्तव में अपने जूते के बारे में चिन्ता कर रहा था।’’

एक व्यक्ति उमा चरण स्वामी जी के पास अक्सर आया करते थे व उनसे दीक्षा लेने की इच्छा रखते थे। स्वामी जी उन्हें अक्सर बल देते थे। एक बार वे स्वामी जी के पास बैठकर अपने आवेग के रोक नही सके व जोर-जोर से रोने लगे। स्वामी जी ने उन्हें शान्त बैठने की आज्ञा दी व कल सुबह आने को कहा। इससे उन्हें आशा बंधी कि कल दीक्षा मिल सकती है। वह अगले दिन प्रातः गंगास्नान करके बड़े उत्साह के साथ स्वामी जी के पास आए व उनका चरण रज लेकर उनके पास बैठ गए। उनके एक पत्थर का टुकडा, एक लोटा पानी व गेरू देकर घिसने का ईशारा किया। उमाचरण दोपहर तक गेरू घिरते रहे। दोपहर  को स्वामी जी ने भोजन के लिए भेज दिया। जब लौटकर आए तो पुनः गेरू घिरने के आदेश हुआ। सांयकल एक ब्रहमचारी वहाँ आए व गेरू से आश्रम की दीवार पर श्लोक लिख दिए। इस प्रकार 15 दिन तक यही क्रम चलता रहा। इससे उनके हाथ की हालत बिगड गयी व हाथ से भोजन करना भी कठिन हो गया। जब 28 दिन गेरू घिसने पर उनका हाथ बेकार हो गया तो वे बाबा के चरणो पर माथ टेककर रोने लगे।

अब उनको दूसरा काम सौंप दिया गया। हिन्दी के श्लोके का बंगाली में अनुवाद कराया गया। धीरे-धीरे करके स्वामी जी व उमाचरण में अध्ययन के विषम में ज्ञान प्रश्नोतरी चलने लगी। उमाचरण प्रसन्न थे कि अक्सर मौन रहने वाले स्वामी जी उनसे बातें करने लगें हैं।  उमाचरण ने कहा- ‘‘जब आपकी मुझपर इतनी कृपा हुई है तब मेरा उद्धार कर दीजिए।’’ स्वामी जी बोले ‘‘यह अत्यन्त कठिन समस्या है। अब तक तुम आजाद पक्षी की तरह उड़ रहे हो। दीक्षा लेने पर बंधनों में फंस जाओगे। इस वक्त जाओ। रात को आना तब बातचीत की जायगी।’’

शाम के समय आने पर बाबा उन्हें साथ लेकर छोटी कोठरी में आये। यहाँ बैठने के साथ बोले- ‘‘तुम मुझसे योग-शिक्षा लेने को सोच रहे हो। लेकिन तुम योग-शिक्षा के लिए अनाधिकारी हो। इससे अच्छा है कि उपासना-मार्ग अपनाओ। इसी माघ महीने की तृतीया तिथि, पुष्य नक्षत्र में चन्द्रग्रहण होगा। ग्रहण तक तुम्हें प्रतीक्षा करनी पड़ेगी। क्योंकि बिना शुद्ध देह हुए दीक्षा नहीं दी जायगी। इसी चन्द्रग्रहण के दिन तुम्हारा शरीर शुद्ध कर दूँगा इसके बाद कुछ सामानों के नाम लिखवाने के बाद बोले- ‘‘गंगा स्नान करने के बाद एक आसन पर बैठकर जप करना पड़ेगा।’’

इसके बाद एक मंत्र उन्होंने लिखवाया और कहा कि जप समाप्त होने के बाद सारी सामग्री किसी सत् ब्राह्मण को दान में देना। उमाचरण को यह मालूम था कि ग्रहण के समय सत् ब्राह्मण दान नहीं लेते। जब उन्होने यह समस्या स्वामीजी के सामने रखी तब बाबा ने हँसते हुए कहा- ‘‘उन सामग्रियों का नाम लेकर जो ब्राह्मण तुमसे दान मांगेगा, उसे दे देना। इससे काम सिद्ध हो जायेगा।’’ आसानी से काम सिद्ध हो जाने पर उमाचरण की उत्कण्ठा समाप्त हो गयी। अब वे माघ तृतीया की प्रतीक्षा करने लगे। ग्रहण के दिन सारी क्रिया करने के बाद ज्योंही वे आसन से उठे त्योंही एक ब्राह्मण आया और उन सामग्रियों का नाम लेकर दान मांगा।

सारी सामग्री लेकर वह व्यक्ति भीड़ में गायब हो गया। दूसरे दिन उमाचरण नित्य की भांति बाबा के पास आकर बोले- ‘‘बाबा, आपकी आज्ञा के अनुसार सारा कार्य समाप्त हो गया।’’
‘‘अब तुम्हारा शरीर भी शुद्ध हो गया। तुम्हें दीक्षा दे दूँगा।’’ इसी दिन तीसरे पहर कुछ संन्यासी स्वामीजी के पास बैठे किसी विषय पर विचार-विमर्श करते रहे। बाबा के पास अक्सर ऐसे संत आते रहते हैं। अपनी समस्या का समाधान कराते हैं। सन्तों के जाने के बाद अचानक तेज बारिश होने लगी। यह देखकर उमाचरण ने घर जाने की आज्ञा मांगी। बाबा ने कहा- ‘‘अभी नहीं, बैठे रहो।’’

बाहर वर्षा का वेग बढ़ता गया। मकानों से गिरनेवाली जलाधार से गलियाँ भरने लगी। बिजली के कड़कने और मेघों का गर्जन निरन्तर जारी रहा। दो घंटे गुजर गये, पर पानी रुकने का नाम नहीं ले रहा था। इस बीच आज्ञा प्राप्त न होने पर उमाचरण ने सोचा- शायद आज बाबा आश्रम में ही रखेंगे? इतना सोचना था कि बाबा ने कहा- ‘‘अब तुम जा सकते हो।’’ इस आदेश को सुनकर उमाचरण बाबू व्याकुल हो उठे। बाहर वर्षा में कोई कमी नहीं हुई थी। वेग से पानी गिरने और बहने की आवाजें सुनाई दे रही थीं। ऐसे भयंकर मौसम में कैसे घर तक जायेंगे? बाबा की ओर करुणा दृष्टि से देखते हुए उमाचरण ने कहा- ‘‘जरा पानी का वेग कम हो जाय तब-’’ बात पूरी भी नहीं हुई थी कि बाबा ने कहा- ‘‘नहीं, तुरन्त रवाना हो जाओ देर मत करो।’’
     
इस आदेश की अवहेलना करने का साहस उन्हें नहीं हुआ। सहन पार करने के बाद मंगलदास से मुलाकात हुई। उसे अपनी मुसीबत कहने की गरज से उमाचरण ने कहा- ‘‘बाहर घना अंधकार है। पानी रुक भी नहीं रहा है। ऐसे भयंकर मौसम में बाबा का आदेश हुआ कि तुरन्त घर चले जाओ। अब आप ही बताइये घर कैसे जाऊँ?’’ मंगलदास ने कहा- ‘‘घबराने की कोई बात नहीं है, बंगाली बाबू। आप बाबा का नाम लेकर रवाना हो जाइये। इस आदेश के पीछे कोई रहस्य है, वर्ना वे ऐसा न कहते।’’

मंगलदास की सलाह से उमाचरण को विश्वास हो गया। वे बाबा के पास आकर उनका चरण-स्पर्श कर मूसलाधार बारिश में रवाना हो गये। बाहर गलियों में घुटने भर पानी जमा था। अंधेरा होने के कारण सामने कुछ दिखाई नहीं दे रहा था। तेज बारिश के कारण कान सुन्न पड़ गये। लेकिन इस यात्रा में उन्हें विचित्र अनुभव हुआ। वर्षा का एक बूँद जल भी उनके शरीर पर नहीं गिर रहा था। लगता था जैसे सिर के ऊपर बड़ी छतरी लगाये हुए हैं। कुछ दूर आगे बढ़ने पर एक गली से एक आदमी आगे-आगे लालटेन लेकर चलने लगा। इस भयंकर अंधेरे में रोशनी का सहारा पाकर उमाचरण आश्वस्त हो गये।

आगे-आगे चलनेवाले व्यक्ति को कई बार आवाज दी ताकि उसके साथ-साथ चलें, पर उसने सुना नहीं। उन्होंने सोचा- शायद तेज बारिश के कारण उसे मेरी आवाज सुनाई नहीं दी। वे स्वयं तेजी से आगे बढ़ने लगे ताकि उसके पास पहुँच जायँ। इधर उमाचरण तेजी से चलने लगे तो लालटेन वाले व्यक्ति की गति भी तेज हो गयी। दोनों व्यक्तियों के फासले में कोई कमी नहीं हुई।  अन्त में थकर अपनी चाल से वे चलने लगे। आश्चर्य की बात यह रही कि लालटेन वाला व्यक्ति उनके आगे-आगे उन्हीं मार्गों से चलता रहा, जिस रास्ते वे घर जाते हैं। घर के पास आते ही लालटेन वाला व्यक्ति न जाने कहाँ गायब हो गया। समझते देर नहीं लगी कि यह चमत्कार बाबा की कृपा से हुआ है। यही वजह है कि बाबा ने इस दुर्योग में जाने का आदेश दिया था।

नियमानुसार दूसरे दिन उमाचरण को बाबा के साथ गंगा-स्नान के लिए जाना पड़ा। बाबा अपने ढंग से स्नान करते हैं। कम-से-कम दो घंटे लगते हैं। कभी बहाव के उल्टी तरफ तैरते हैं, कभी शवासन लगाये भासमान रहते हैं और कभी पानी में डुबकी लगाकर न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं। जब तक बाबा पानी से बाहर नहीं निकलते तबतक उमा चरण को घाट की सीढि़यों पर बैठकर उनके आने का इन्तजार करना पड़ता है।  उस दिन बाबा जब स्नान करके ऊपर आये तब उनका शरीर उमाचरण ने रोज की तरह पोंछ दिया। बाद में आश्रम पर आ गये। आश्रम में आकर उन्होंने कहा- ‘‘आज तुम्हें दीक्षा दूँगा। शान्त होकर बैठो।’’ पहले बाबा ने कुछ क्रियाएँ बतायीं। इसके बाद कान में बीज मंत्र सुनाया। बोले- ‘‘इसी मंत्र का जाप करते रहना।’’

बंगाल के हुगली जिले में श्रीरामपुर नाम का एक गाँव है। उसमें जय गोपाल नाम का व्यक्ति निवास करता था। उसके मन में वैराग्य का उदय होने से वह घरबार की सब व्यवस्था अपने पुत्रों के सुपुर्द करके काशीधाम में चला आया। उसने पहले से ही तैलंग स्वामी का नाम सुन रखा था। काशी आने पर वह हर रोज स्वामी जी के दर्शनों के लिये आया करता था और थोड़ा फल, फूल और दूध उनके लिये ले जाता था। इस प्रकार बराबर जाते रहने से स्वामी जी की कृपा दृष्टि उस पर रहने लगी। एक दिन उसने स्वामी जी से कहा किआज न जाने क्यों मेरी छाती धड़क रही है और घबड़ाहट हो रही है। इससे मुझे शंका होती है कि कोई अशुभ घटना न हो।” स्वामी जी ने कहा कि “मैं अभी तुम्हारे घर का समाचार मंगाये देता हूँ।”


यह कह कर उन्होंने जरा देर के लिये आँखें बन्द कर लीं, और फिर जय गोपाल से कहा कि “तुम संध्या के समय भोजन करके यहाँ आना।” जब वे संध्या समय वहाँ आए तो स्वामी ने कहा कि आज प्रातः तुम्हारे बड़े पुत्र की हैजा से मृत्यु हो गई है।” यह सुन कर जय गोपाल बड़ा व्याकुल हो गया। तब स्वामी जी ने उसे संसार की असारता का उपदेश दिया जिससे उसे कुछ शाँति प्राप्त हो गई। रात्रि के समय निद्रावश सो जाने पर उसको अपना पुत्र दिखलाई पड़ा। दूसरे दिन उसने अपने घर को “अरजैंट” तार भेज कर समाचार मँगाये तो उत्तर आने पर मालूम हुआ कि स्वामी जी का कथन अक्षरशः सत्य था।

काशी में आने के बाद स्वामी जी घोर जाड़े की ऋतु में भोजन और निद्रा का त्याग करके दो-दो, तीन-तीन दिन तक गंगाजी के जल पर पड़े रहते और कठिन से कठिन गर्मी के मौसम में तपे हुये पत्थरों पर बैठे रहते। वे भिक्षा माँगने किसी के घर नहीं जाते, जो कुछ भक्त लोग आश्रम में आकर दे जाते उसी को संतोषपूर्वक ग्रहण करते। एक बार एक दुष्ट स्वभाव के मनुष्य ने उनकी परीक्षा लेने के लिये आधा सेर चूने को पानी में घोलकर दूध की तरह बना दिया और स्वामी जी के सामने रख कर विनयपूर्वक कहा “महाराज यह दूध आपके लिये लाया हूँ।” स्वामी जी ने तत्काल ही पहिचान लिया कि यह चुना है, तो भी बिना कुछ कहे बर्तन को उठा कर सबका सब पी गये। उस आदमी को भय लगा कि जब इनको मालूम होगा कि यह चूना है तो यह क्रोधित होंगे और कदाचित मुझे मार बैठेंगे। इससे वह कुछ पीछे हट कर बैठ गया। पर स्वामी जी चूना पीकर भी पूर्ण शान्त बने रहे और उन्होंने जरा सा मुँह भी नहीं बिगाड़ा यह देख कर उसे बड़ा पश्चाताप हुआ और अपने अपराध की क्षमा माँगने लगा। पर स्वामी जी ने उसकी बात पर कुछ भी ध्यान न देकर वह सब का सब चूने का पानी उल्टी करके बाहर निकाल दिया। उनकी सामर्थ्य देख कर वह दुष्ट चकित होकर बैठा रह गया।

एक दिन पृथ्वीगिरि नाम के साधु का शिष्य इन से मिलने को आया। उस समय स्वामी जी के पास बहुत से व्यक्ति बैठे हुये थे। थोड़ी देर में ये दोनों, लोगों के देखते-देखते अदृश्य हो गये। लगभग आध घंटे बाद स्वामी जी तो अपने स्थान पर फिर दिखाई देने लगे, पर पृथ्वीगिरि का शिष्य वहाँ दिखलाई न पड़ा।

सन् 1788  में किसी रियासत के राजा दशाश्वमेध घाट पर स्नान के लिये आये। रानी और उनकी सेविकाओं के लिये घाट तक पर्दा की व्यवस्था हुई। जब स्नान कर राजा और रानी वापस आने लगे तो पर्दा से घिरे अपने मार्ग में एक नंगे आदमी को देखकर राजा बौखला गया। उसने सैनिकों से कहा-‘इसे गिरफ्तार कर कोठी में ले आओ’। तैलङ्ग स्वामी की गिरफ्तारी सुनकर काशी का जनसमूह उमड़ पड़ा। भीड़ देखकर राजा ने कहा-‘इस आदमी को कोठी से बाहर कर दो। यह फिर कोठी में न घुसने पाये।’ उसी रात राजा जोर की चीख मारकर चारपायी से नीचे लुढ़क गया। उसके मुख से झाग निकलने लगा। उसने स्वप्न में शंकर जी को देखा और उनकी आज्ञा सुनी-‘तैलङ्ग स्वामी से जाकर माँफी माँगो।’ राजा स्वामी जी के पास पहुँच कर उनके पैरों पर गिर पड़ा और रोने लगा। स्वामी जी ने उसे क्षमा कर दिया।


सन् 1810  ई. में स्वामी जी दशाश्वमेध छोड़कर पञ्चगंगा घाट पर आ गये। स्वामी रामकृष्ण परमहंस से जब उनकी यहाँ भेंट हुई तो दोनों सन्त ऐसे लिपट गये जैसे राम और भरत। यह दिगम्बर साधु थे तैलंग स्वामी। वही तैलंग स्वामी जिन्होंने रामकृष्ण परमहंस को देखते ही दोनों हाथ उठा कर उन्हें गले लगा लिया था और रामकृष्ण परमहंस को तैलंग स्वामी में ही साक्षात विश्वनाथ महादेवके दर्शन वहीं सड़क पर ही हो गये। हुआ यह कि रामकृष्ण परमहंस अपने शिष्यों के साथ काशी आये। मन था कि भोलेनाथ के दर्शन और उपासना करेंगे। स्नान करके शिष्यों के साथ विश्वनाथ गली में जैसे ही घुसे, एक महाकाय नंग-धडंक काला-कलूटा आदमी अचानक ही उनके सामने आ गया| कुछ क्षण एकदूसरे को निहारने के बाद दोनों ही एकदूसरे के गले लग गये। शिष्य हैरत में। कुछ देर दोनों ही बेसुध रोते हुए लिपटे रहे| फिर वहीं सड़क पर ही बातचीत हुई। बस वहीं से रामकृष्ण परमहंस वापस लौट लिये।  शिष्यों ने पूछा- महाराज, विश्वनाथ जी के दर्शन नहीं करेंगे| परमहंस ने जवाबदिया- वो तो हो गया। खुद विश्वनाथ भगवान ही तो मेरे गले लिपटे थे। परमहंस जी ने शिष्यों से कहा-एक पूर्ण कालीभक्त के जितने लक्षण होते हैं मैंने तैलङ्गस्वामी के शरीर में उन सब लक्षणों को देखा है।  पिछले ३०० वर्षों में ऐसा कोई महात्मा नहीं हुआ।


एक बार परमहंस योगानंद के मामा ने उन्हें बनारस के घात पर भक्तों की भीड़ में बैठा देखा। वे किसी प्रकार मार्ग बनाकर स्वामी जी के निकट पहुँच गए और भक्ति पूर्वक उनका चरण स्पर्श किया। उन्हें यह देखकर महान आश्चर्य हुआ की स्वामी जी का चरण स्पर्श करने मात्र से वे अत्यंत कष्ट दायक रोग से मुक्ति पा गए।


स्वामी जी की कृपा से बहुत लोग रोगों एवं कष्टों से मुक्ति पाते थे। अम्बालिका नामक एक महिला स्वामी जी को साक्षात विश्वनाथ बाबा समझकर फल -फूल अर्पित करती थी। उसकी एक ही बेटी थी शंकरी |माँ की भक्ति देखकर वह भी बाबा के प्रति असीम श्रद्धा रखती थी। इन्ही दिनों काशी में चेचक फैला व शंकरी भी इस रोग की चपेट में आकर मौत की ओर बढने लगी। शंकरी की आवाज बंद हो चुकी थी । माँ ने सोचा अब यह नहीं बचेगी तथा अपनी बेटी के सिरहाने बैठकर रोने लगी। कुछ समय पश्चात शंकरी बोली माँ तुम क्यों रो रही हो ? बेटी की आवाज सुनकर माँ चौंकी व आंसू पोछते हुए बोली – तेरी दयनीय स्थिति से मुझे बड़ा कष्ट हो रहा है। पता नहीं क्यों स्वामी जी भी कृपा नहीं कर रहे हैं। कितने ही लोगों पर उन्होंने कृपा की है पर में बड़ी ही अभागिन हूँ। लड़की ने चकित भाव से कहा – नहीं माँ स्वामी जी तुम्हारे पास ही खड़े हैं देखो।


माँ ने चारो ओर देखा पर कहीं कुछ दिखाई नहीं दिया। उसने सोचा लड़की का मष्तिष्क फिर गया है। वह बोली -कहाँ हैं स्वामी जी ? माँ की बातें सुनकर शंकरी ने माँ का हाथ पकड़कर स्वामी जी के चरणों में लगा दिया। तब उन्हें तैलंग स्वामी के साक्षात दर्शन हुए व स्वामी जी ने आश्वासन दिया -घबराओ नहीं बेटी शंकरी शीघ्र स्वस्त्थ हो जायेगी। कुछ दिनों पश्चात शंकरी पूर्ण रूप से ठीक हो गई। इस घटना ने माँ बेटी के जीवन में बहुत बड़ा परिवर्तन ला दिया। शंकरी ने बड़ी होकर साधना की उच्चावस्था को प्राप्त किया।


परमहंस योगानंद शंकरी माई के विषय में अपनी प्रिय पुस्तक में लिखते हैं -इस ब्रह्मचारिणी का जन्म १८२६ में हुआ था। वे ४० वर्षों तक बदरीनाथ ,केदारनाथ ,पशुपतिनाथ ,अमरनाथ के पास हिमालय की अनेक गुफाओं में रही। अब उनकी उम्र सौ वर्ष से अधिक है परन्तु दिखने में वृद्ध नहीं लगती। उनके केश पूर्णतः काले हैं, दांत चमकदार हैं और उनमे गजब की चुस्ती फुर्ती है। वे कुम्भ जैसे धार्मिक मेलों में शामिल होने के लिए कभी -कभी एकांतवास से बाहर आती हैं। यह तपस्विनी महिला प्रायः लाहिड़ी महाशय के पास भी आया करती थी चूंकि उनका काल भी इनके जीवन काल में बनारस में था। कुम्भ मेला हरिद्वार सन १९३८ में इनका आगमन हुआ। इस समय इनकी आयु ११२ वर्ष थी। यह महिला लाहिड़ी महाशय और उनके गुरु ,बाबा जी से भी वार्तालाप कर चुकी थी और गुरु बाबा द्वारा आध्यात्मिक उपदेशों की कृपा भी हुई थी। अर्थात इनके जीवन में तीन से अधिक महानताम विभूतियों की कृपा हुई। तैलंग स्वामी, लाहिड़ी महाशय और पूज्य उनके गुरुदेव बाबाजी।


सन् १८८० में एक बार काशीनरेश के पास उज्जैन नरेश आये। काशी नरेश ने उनसे स्वामी जी की चर्चा की। दर्शन के लिये दोनों राजा रामनगर से बजरा से चलकर बिन्दुमाधव के धरहरा के पास आकर रुके। काशीनरेश ने मल्लाहों को नाव किनारे लगाने को कहा और देखा कि तैलङ्ग स्वामी उड़ कर बजरे पर आ बैठे। स्वामी जी ने उज्जैननरेश से कहा-‘कहिये राजन्! मुझसे क्या पूछना चाहते हैं?’ उज्जैन नरेश ने अनेक प्रश्न किये। स्वामी जी ने सब प्रश्नों का सन्तोषप्रद उत्तर दिया। स्वामी जी जानते थे कि राजाओं की ज्ञान पिपासा श्मशान वैराग्य की तरह क्षणिक होती है। सहसा स्वामी जी ने काशीनरेश के हाथ से तलवार ले ली और उसे उलट पुलट कर देखने के बाद गंगा जी में फेंक दिया। इस पर दोनों राजा कुपित हो गये। काशीनरेश ने स्वामी जी से कहा–‘जब तक तलवार नहीं मिलती आप यहीं बैठे रहिये।’


काशीनरेश स्वामी जी को बन्दी बनाकर रामनगर ले जाना चाहते थे। स्वामी जी ने गंगा जी में हाथ डाला और एक जैसी दो तलवारें निकालकर राजा से कहा-‘इनमें से जो तुम्हारी है वह ले लो।’ दोनों राजा लज्जित और किंकर्त्तव्यविमूढ़ हो गये।स्वामी जी ने उनकी तलवार उनके हाथ में देते हुए कहा कि जब तुम अपनी वस्तु पहचान नहीं सकते तब यह कैसे कहते हो कि यह तुम्हारी है। इतना कह कर वे नदी में कूद गये। राजा ने शाम तक प्रतीक्षा की कि तैलङ्ग स्वामी ऊपर आयें तो उनसे क्षमा मांगे। अन्त में हार कर नदी के माध्यम से क्षमा माँगी और प्रणाम कर रामनगर चले गये।


काशी में ही तैलङ्ग स्वामी की भेंट योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी जी से हुई। स्वामी भास्करानन्द भी तैलङ्ग स्वामी के समकालीन तथा उच्चकोटि के साधक थे। स्वामी विद्यानन्द जी तैलङ्ग स्वामी को सचल शिव कहा करते थे। बंगाल के महासन्त अन्नदा ठाकुर भी तैलङ्ग स्वामी के समान थे। तैलङ्ग स्वामी ने अपने काशी निवास के समय ही सोनारपुरा में रहने वाले श्री रामकमल चटर्जी के एकमात्र पुत्र के असाध्य रोग को दूर किया था। एक बार स्वामी जी शिवाला की ओर गये तो क्रीं कुण्ड पर बाबा कीनाराम से उनकी भेंट हो गयी। यह सन् १८७० की घटना है। दोनों सन्त वहाँ शराब पीने लगे। कीनाराम जी ने स्वामी जी को खूब शराब पिलायी। जब तैलङ्ग स्वामी जाने लगे तो कीनाराम ने उनके पीछे अपने एक शिष्य को लगा दिया ताकि यदि स्वामी जी कहीं लड़खड़ायें तो वह उन्हें सँभाल ले। शिष्य ने बाहर निकल कर देखा तो स्वामी जी का कहीं पता नहीं था। लोगों से पूछने पर पता चला कि स्वामी जी गंगाजी की ओर अस्सी घाट पर गये हैं। शिष्य ने घाट पर जाकर देखा तो स्वामी जी बीच धारा में पद्मासन लगा कर बैठे हैं।


विजयकृष्ण गोस्वामी भी तैलङ्ग स्वामी के कृपापात्र एवं शिष्य जैसे थे। स्वामी जी के शिष्यों की संख्या २० के आस-पास थी। अधिकतर शिष्य बंगाली थे। सबसे प्रमुख शिष्य थे-उमाचरण मुखोपाध्याय। स्वामी जी ने कड़ी परीक्षा के बाद उन्हें शिष्य बनाया था। स्वामी जी की कृपा से उमाचरण जी को काली का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था। इसके अतिरिक्त स्वामी जी ने उन्हें अन्य बहुत सारे चमत्कार दिखाये थे।


तैलंगस्वामी ने ईश्वर के साकार या निराकार होने पर गजब का सरल उदाहरण दिया। बंगाल के एक संत अन्नदा ठाकुर के सवाल पर तैलंगस्वामी एक पुस्तक उठाकर बोले- इस छोटे से स्थान को घेरे हुए पुस्तक को हम देख पा रहे हैं, इसलिए यह साकार है। लेकिन ईश्वर तो ब्रह्माण्ड में व्याप्त है,सो वह निराकार है। उसके लिए हमें चक्षुओं को खोलना होगा। वह ज्ञान से नहीं, अंतरबुद्धि से दिखेगा। तैलंग स्वामी का मानना था कि ईश्वर को अपने भीतर ही तलाशना चाहिए। सारे तीर्थ इसी शरीर में है। गंगा नासापुट में, यमुना मुख में, वैकुण्ठ हृदय में, वाराणसी ललाट में तो हरिद्वार नाभि में है। फिर यहां-वहां क्यों भटका जाए। जिस पुरी में प्रवेश करने पर न संकोच हो और न कुण्ठा, वही तो है वैकुण्ठ।’


काशी में त्रैलंग स्वामी एक बार श्यामाचरण लाहिड़ी का सार्वजनिक अभिनन्दन करना चाहते थे ,जिसके लिए उन्हें अपना मौन तोडना पड़ा। जब त्रिलंग स्वामी के एक शिष्य ने कहा की आप एक त्यागी सन्यासी हैं , अतः एक गृहस्थ के प्रति इतना आदर क्यों व्यक्त करना चाहते हैं? उत्तर रूप में त्रिलंग स्वामी ने कहा था मेरे बच्चे लाहिरी महाशय जगत जननी के दिव्य बालक हैं” माँ उन्हें जहाँ रख देती है, वहीं वे रहते हैं। सांसारिक मनुष्य के रूप में कर्तव्य का पालन करते हुए भी उन्होंने मनुष्य के रूप में वह पूर्ण आत्म ज्ञान प्राप्त कर लिया है जिसे प्राप्त करने के लिए मुझे सब कुछ का परित्याग कर देना पड़ा, यहाँ तक की लंगोटी का भी।


कहते हैं सन १८७० में दयानंद सरस्वती जी काशी आये थे एवं आर्य समाज की स्थापना की। त्रैलंग स्वामी जी के निकट कुछ भक्त लोग आये व उन्होंने सनातन धर्म के विरुद्ध होने वाले भाषणों के साथ अपनी अपनी व्यथा का उल्लेख किया। सारी बातें सुनने के बाद त्रैलंगस्वामी ने एक कागज़ पर कुछ लिखा व दयानंद सरस्वती जी के पास भिजवा दिया। कहा जाता है उस पत्र को पाते ही दयानंद जी काशी छोड़ अन्यत्र चले गए।


हालांकि प्राण त्यागने की तारीख उन्होंने एक महीना पहले ही तय करली थी।  समाधि लेने के पूर्व स्वामी जी ने शिष्यों को निर्देश दिया था-‘मेरे नाप का एक बाक्स बनवा लेना ताकि मैं उसमें लेट सकूँ। बाक्स में मुझे लिटा कर उसे स्क्रू से कस देना और ताला लगा देना। पञ्चगंगाघाट के किनारे अमुक स्थान में मुझे गिरा देना।’अचानक एक दिन काशी के नागरिक एक मार्मिक समाचार सुनकर स्तब्ध रह गए। त्रैलंग स्वामी जी जल समाधि लेने वाले हैं ,यह समाचार नगर में एक छोर से दुसरे छोर की ओर फ़ैल गया। जो जहा था पंचगंगा घाट की ओर आने लगा |पौष शुक्ल एकादशी के दिन सन १८८७ को पूर्ण चेतन अवस्था में स्वामी जी समाधिस्थ हो गए एवं नश्वर शरीर त्याग दिया। बाबा के शरीर को उनके बताये अनुसार बनवाये गए संदूक में रख कर उनके बताये निर्दिष्ट स्थान पर गंगा गर्भ में जल समाधि दे दी गयी। घाट किनारे खड़ी जनता अपने अश्रुओं से उन्हें भाव भीनी विदाई देती रही। आज भी पंचगंगा घाट पर स्वामी जी की भव्य मूरत व् आश्रम श्रद्धालु जनता को आकर्षित करता है एवं योग -तंत्र के अद्भुत मार्ग पर चल कर जीवन को धन्य बनाने की प्रेरणा देता है।


उनके मुख्य उपदेश निम्नलिखित हैं –
मनुष्य को चाहिये कि वह सन्तोष, जिह्वा का संयम, अनालस्य, सर्वधर्म का आदर, दरिद्र को दान, सत्संग, शास्त्रों का अध्ययन और उनके अनुसार अनुष्ठान करे। अहिंसा, आत्मचिन्तन, अनभिमान, ममता का अभाव, मधुर भाषण, आत्मसंयम, उचित गुरु का चयन, उनके उपदेश का पालन और वाक् संयम मनुष्य को आध्यात्मिक उत्कर्ष पर ले जाते है।
जिस कार्य के लिए जितना बोलना हो, उतना ही कहना।
व्यर्थ की बातें मत करना। इससे तेज क्षय होता है।
किसी धर्म से द्वेष मत करना। जिसे जिस धर्म पर विश्वास है, उसे उसी धर्म से मुक्ति मिलती है।
आहारदि से धर्म नष्ट नहीं होता, केवल मुक्ति पाने मे देर होती है।
मुसलमानों को भी मुक्ति प्राप्त होती है। व्याकुल भाव से उन्हें जो पुकारेगा, वह उन्हें प्राप्त करेगा।
जिन घटनाओं को देखकर तुम चकित हुए हो, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है।
मनुष्य अगर वास्तविक मनुष्य हो तो वह भी यह सब कार्य कर सकता है।
केवल आहार-विहार करने के लिए मनुष्य की सृष्टि नहीं हुई है।
भगवान् में जितनी शक्ति है, मनुष्य में भी वही शक्तियाँ है।
भगवान् ने मनुष्य को यह सब शक्तियाँ देकर उसे श्रेष्ठ बनाया है।
कोई भी व्यक्ति उस शक्ति का उपयोग करना नहीं जानता।
भगवान् हमेशा हमारे साथ रहते हैं। उन्हें जानने या देखने की इच्छा किसी को नहीं होती।

1 comment:

  1. Jaya Guru Dev तैलंग स्वामी ji ki Jaya

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