भक्ति और भाव की देवी: संत शिरोमणि मीरा बाई
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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प्रसिद्ध कृष्ण भक्त कवयित्री मीराबाई जोधपुर, राजस्थान के मेड़वा राजकुल की राजकुमारी थीं। विद्वानों में इनकी
जन्म-तिथि के संबंध
में मतैक्य नहीं है। कुछ विद्वान् इनका जन्म 1430 ई. मानते हैं और कुछ 1498 ई.। मीराबाई मेड़ता महाराज के छोटे भाई रतन सिंह की
एकमात्र संतान थीं।
उनका जीवन बड़े दु:ख और कष्ट में व्यतीत हुआ था। मीरा जब केवल दो वर्ष की थीं, उनकी माता की मृत्यु हो गई। इसलिए इनके दादा राव दूदा उन्हें मेड़ता ले आए और अपनी देख-रेख में उनका पालन-पोषण किया।
राव दूदा एक योद्धा होने के साथ-साथ भक्त-हृदय व्यक्ति भी थे और साधु-संतों का
आना-जाना इनके यहाँ
लगा ही रहता था। इसलिए मीरा बचपन से ही धार्मिक लोगों के सम्पर्क में आती रहीं। इसके साथ ही उन्होंने तीर-तलवार, जैसे- शस्त्र-चालन, घुड़सवारी, रथ-चालन आदि के साथ-साथ संगीत तथा आध्यात्मिक शिक्षा भी पाई।
इनका विवाह उदयपुर के महाराणा कुमार भोजराज जी के साथ हुआ था। मीराबाई के बालमन में कृष्ण
की ऐसी छवि बसी थी कि यौवन काल से लेकर मृत्यु तक उन्होंने कृष्ण को ही अपना सब कुछ माना। जोधपुर के राठौड़
रतन सिंह की इकलौती
पुत्री मीराबाई का मन बचपन से ही कृष्ण-भक्ति में रम गया था। उनका कृष्ण प्रेम बचपन की एक घटना की वजह से अपने चरम पर पहुँचा
था। बाल्यकाल में एक
दिन उनके पड़ोस में किसी धनवान व्यक्ति के यहाँ बारात आई थी। सभी स्त्रियाँ छत से खड़ी होकर बारात देख रही थीं। मीराबाई भी
बारात देखने के लिए छत
पर आ गईं। बारात को देख मीरा ने अपनी माता से पूछा कि "मेरा दूल्हा कौन है?" इस पर मीराबाई की माता ने उपहास में ही भगवान श्रीकृष्ण की
मूर्ति की तरफ़ इशारा करते हुए कह दिया कि "यही तुम्हारे
दूल्हा हैं"।
यह बात मीराबाई के बालमन में एक गाँठ की तरह समा गई और अब वे कृष्ण को ही
अपना पति
समझने लगीं। ये बचपन से ही कृष्णभक्ति में रुचि लेने लगी थीं। विवाह के थोड़े ही दिन के बाद आपके पति का
स्वर्गवास हो गया था। पति के परलोकवास के बाद इनकी भक्ति दिन- प्रति- दिन बढ़ती गई। ये मंदिरों
में जाकर
वहाँ मौजूद कृष्णभक्तों के
सामने कृष्णजी की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं।
मीराबाई का कृष्णभक्ति में नाचना और गाना राज परिवार को
अच्छा नहीं लगा। उन्होंने
कई बार मीराबाई को विष देकर मारने की कोशिश की। घर वालों के इस प्रकार के व्यवहार से परेशान होकर वह द्वारका और
वृंदावन गईं। वह जहाँ जाती थीं,
वहाँ लोगों का सम्मान
मिलता था। लोग आपको देवियों के जैसा प्यार और सम्मान देते थे।
विवाह के दस
वर्ष बाद ही मीराबाई के पति भोजराज का निधन हो गया।
सम्भवत: उनके पति की युद्धोपरांत घावों के कारण मृत्यु हो गई थी। पति की
मृत्यु के बाद ससुराल में मीराबाई पर कई अत्याचार किए गए। सन् 1527 ई. में
बाबर और सांगा के युद्ध में मीरा के पिता रत्नसिंह मारे गए और लगभग
तभी श्वसुर की मृत्यु हुई। सांगा की मृत्यु के पश्चात् भोजराज के छोटे भाई
रत्नसिंह सिंहासनासीन हुए, अतएव निश्चित है कि अपने श्वसुर के जीवनकाल में ही
मीरा विधवा हो गई थीं। सन् 1531 ई. में राणा रत्नसिंह की मृत्यु हुई और उनके सौतेले
भाई विक्रमादित्य राणा बने।
लौकिक प्रेम की अल्प समय में ही इतिश्री होने पर मीरा
ने परलौकिक प्रेम को अपनाया और कृष्ण भक्त हो गई। वे सत्संग,
साधु-संत-दर्शन और
कृष्ण-कीर्तन के आध्यात्मिक प्रवाह में
पड़कर संसार को निस्सार समझने लगीं। उन्हें राणा विक्रमादित्य और मंत्री विजयवर्गीय ने
अत्यधिक कष्ट दिए। राणा ने अपनी बहन ऊदाबाई को भी मीरा को समझाने के लिए भेजा,
पर कोई फल न हुआ।
वे कुल मर्यादा को छोड़कर भक्त जीवन
अपनाए रहीं। मीरा को स्त्री होने के कारण, चित्तौड़ के राजवंश की कुलवधू होने के कारण तथा अकाल
में विधवा हो जाने के कारण अपने समाज तथा वातावरण से जितना विरोध
सहना पड़ा उतना कदाचित ही किसी अन्य भक्त को सहना पड़ा हो। उन्होंने अपने
काव्य में इस पारिवारिक संघर्ष के आत्मचरित-मूलक उल्लेख कई स्थानों पर किए
हैं।
वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण
भक्तों के सामने कृष्णजी की मूर्ति के
आगे नाचती रहती थीं। मीरा के लिए आनन्द का माहौल तो तब बना,
जब उनके कहने पर राजा महल में ही कृष्ण
का एक मंदिर बनवा देते हैं। महल में मंदिर बन जाने से भक्ति
का ऐसा वातावरण बनता है कि वहाँ साधु-संतों का आना-जाना शुरू हो जाता है।
मीराबाई के देवर राणा विक्रमजीत सिंह को यह सब बुरा लगता है। ऊधा जी भी
मीराबाई को समझाते हैं, लेकिन मीरा दीन-दुनिया भूल कर भगवान श्रीकृष्ण में
रमती जाती हैं और वैराग्य धारण कर जोगिया बन जाती हैं।
भोजराज के निधन के बाद सिंहासन पर बैठने वाले
विक्रमजीत सिंह को मीराबाई का साधु-संतों
के साथ उठना-बैठना पसन्द नहीं था।
मीराबाई को मारने के कम से कम दो प्रयासों का चित्रण उनकी कविताओं में हुआ है। एक बार
फूलों की टोकरी में एक विषेला साँप भेजा गया, लेकिन टोकरी खोलने पर उन्हें कृष्ण की मूर्ति मिली।
एक अन्य अवसर पर उन्हें विष का प्याला दिया गया,
लेकिन उसे पीकर भी मीराबाई को कोई
हानि नहीं पहुँची।
सन् 1533 ई. के आसपास मीरा को 'राव बीरमदेव' ने मेड़ता बुला लिया लेकिन यहाँ भी उनका स्वछंद व्यवहार स्वीकार नहीं किया
गया। अब वे तीर्थयात्रा पर निकल पड़ीं और अंतत:
द्वारिका में बस गईं। वे मंदिरों में जाकर वहाँ मौजूद कृष्ण
भक्तों के सामने कृष्ण की मूर्ति के आगे नाचती रहती थीं। सन् 1543 ई. के पश्चात् मीरा द्वारिका
में रणछोड़ की मूर्ति के सन्मुख
नृत्य-कीर्तन करने लगीं।
मीरा के चित्तौड़ त्याग के पश्चात् सन्
1534 ई. में गुजरात के सुल्तान बहादुरशाह
ने चित्तौड़ पर अधिकार कर लिया। विक्रमादित्य मारे गए तथा तेरह सहस्र महिलाओं ने
जौहर किया। सन् 1538 ई. में जोधपुर के राव मालदेव ने
बीरमदेव से मेड़ता छीन लिया। वे भागकर अजमेर चले गए और मीरा ब्रज की तीर्थ यात्रा पर चल पड़ीं। सन् 1539 ई. में मीरा वृंदावन में रूप गोस्वामी से मिलीं। वे कुछ काल
तक वहां रहकर सन् 1546 ई. के पूर्व ही कभी द्वारिका चली गईं। उन्हें निर्गुण पंथी संतों
और योगियों के सत्संग से ईश्वर भक्ति, संसार की अनित्यता तथा विरक्ति का
अनुभव हुआ था। तत्कालीन समाज में मीराबाई को एक विद्रोहिणी माना गया। उनके धार्मिक
क्रिया-कलाप राजपूत राजकुमारी और विधवा
के लिए स्थापित नियमों के अनुकूल नहीं थे। वह अपना अधिकांश समय कृष्ण को समर्पित
मंदिर में और भारत भर से आये साधुओं व
तीर्थ यात्रियों से मिलने तथा भक्ति पदों की रचना करने में व्यतीत करती थीं।
इसी दौरान उन्होंने तुलसीदास को पत्र लिखा था :-
स्वस्ति श्री तुलसी कुलभूषण दूषन- हरन गोसाई।
बारहिं बार प्रनाम करहूँ अब हरहूँ सोक- समुदाई।।
घर के स्वजन हमारे जेते सबन्ह उपाधि बढ़ाई।
साधु- सग अरु भजन करत माहिं देत कलेस महाई।।
मेरे माता- पिता के समहौ, हरिभक्तन्ह सुखदाई।
हमको कहा उचित करिबो है, सो लिखिए समझाई।।
मीराबाई के पत्र का जबाव तुलसी दास ने इस प्रकार दिया:-
जाके प्रिय न राम बैदेही।
सो नर तजिए कोटि बैरी सम जद्यपि परम सनेहा।।
नाते सबै राम के मनियत सुह्मद सुसंख्य जहाँ लौ।
अंजन कहा आँखि जो फूटे, बहुतक कहो कहां लौ।।
सन् 1546 ई. में
चित्तौड़ से कतिपय
ब्राह्मण उन्हें बुलाने के लिए द्वारिका भेजे गए। कहते हैं कि
मीरा रणछोड़ से आज्ञा लेने गईं और उन्हीं में अंतर्धान हो गईं। सन् 1554 ई. में मीरा के नाम
से चित्तौड़ के मंदिर में गिरिधरलाल की
मूर्ति स्थापित हुई। यह मीरा का स्मारक और उनके इष्टदेव का मंदिर दोनों था। गुजरात
में मीरा की पर्याप्त प्रसिद्धि हुई।
हित हरिवंश तथा हरिराम व्यास जैसे
वैष्णव भी उनके प्रति श्रद्धा भाव व्यक्त करने लगे।
एक ऐसी मान्यता है कि मीराबाई के मन में
श्रीकृष्ण के प्रति जो प्रेम की भावना थी,
वह जन्म-जन्मांतर का प्रेम था।
मान्यतानुसार मीरा पूर्व जन्म में वृंदावन (मथुरा) की एक गोपिका थीं। उन दिनों वह
राधा की प्रमुख सहेलियों में से एक हुआ करती थीं और मन ही
मन भगवान कृष्ण को प्रेम करती थीं। इनका
विवाह एक गोप से कर दिया गया था। विवाह के बाद भी गोपिका का
कृष्ण प्रेम समाप्त नहीं हुआ। सास को जब इस बात का पता चला तो उन्हें घर
में बंद कर दिया। कृष्ण से मिलने की तड़प में गोपिका ने अपने प्राण
त्याग दिए। बाद के समय में जोधपुर के पास मेड़ता गाँव में 1504
ई. में राठौर रतन सिंह के घर गोपिका ने
मीरा के रूप में जन्म लिया। मीराबाई ने अपने एक अन्य दोहे
में जन्म-जन्मांतर के प्रेम का भी उल्लेख किया है-
"आकुल व्याकुल फिरूं रैन दिन, विरह कलेजा खाय॥
दिवस न भूख नींद नहिं रैना, मुख के कथन न आवे बैना॥
कहा करूं कुछ कहत न आवै, मिल कर तपत बुझाय॥
क्यों तरसाओ अतंरजामी, आय मिलो किरपा कर स्वामी।
मीरा दासी जनम जनम की, परी तुम्हारे पाय॥"
मीराबाई के मन में श्रीकृष्ण के प्रति प्रेम की
उत्पत्ति से संबंधित एक अन्य कथा भी मिलती है। इस कथानुसार,
एक बार एक
साधु मीरा के घर पधारे। उस समय मीरा की उम्र लगभग 5-6
साल थी। साधु को मीरा की
माँ
ने भोजन परोसा। साधु ने अपनी झोली से
श्रीकृष्ण की मूर्ति निकाली और पहले उसे भोग लगाया। मीरा माँ के साथ खड़ी होकर इस दृश्य
को देख रही थीं। जब मीरा की नज़र श्रीकृष्ण की मूर्ति पर गयी तो उन्हें
अपने पूर्व जन्म की सभी बातें याद आ गयीं। इसके बाद से ही मीरा कृष्ण के
प्रेम में मग्न हो गयीं।
एक प्रचलित कथा के अनुसार मीराबाई
वृंदावन में भक्त शिरोमणी जीव गोस्वामी के दर्शन के लिये गईं।
गोस्वामी जी सच्चे साधु होने के कारण स्त्रियों को देखना भी अनुचित समझते थे।
उन्होंने मीराबाई से मिलने से मना कर दिया और अन्दर से ही कहला भेजा कि-
"हम स्त्रियों से नहीं मिलते"। इस पर मीराबाई का उत्तर बडा मार्मिक था।
उन्होंने कहा कि "वृंदावन में श्रीकृष्ण ही एक पुरुष हैं,
यहाँ आकर जाना कि उनका एक और
प्रतिद्वन्द्वी पैदा हो गया है"। मीराबाई का ऐसा मधुर और मार्मिक उत्तर सुन
कर जीव गोस्वामी नंगे पैर बाहर निकल आए और बडे प्रेम से उनसे मिले।
मीराबाई संत रविदास की महान् शिष्या तथा संत कवयित्री थीं। अधिकतर
विद्वानों ने मीराबाई को गुरु रविदास जी की शिष्या स्वीकार किया है।
"खोज फिरूं खोज वा घर को,
कोई न करत बखानी।
सतगुरु संत मिले रैदासा, दीन्ही सुरत सहदानी।।
वन पर्वत तीरथ देवालय, ढूंढा चहूं दिशि दौर।
मीरा श्री रैदास शरण बिन,
भगवान और न ठौर।।
मीरा म्हाने संत है,
मैं सन्ता री दास।
चेतन सता सेन ये,
दासत गुरु रैदास।।
मीरा सतगुरु देव की,
कर बंदना आस।
जिन चेतन आतम कह्या, धन भगवान रैदास।।
गुरु रैदास मिले मोहि पूरे, धुर से कलम भिड़ी।
सतगुरु सैन दई जब आके,
ज्याति से ज्योत मिलि।।
मेरे तो गिरीधर गोपाल दूसरा न कोय।
गुरु हमारे रैदास जी सरनन चित सोय।।"
इस प्रकार मीराबाई की वाणी से स्पष्ट है कि वह गुरु
रविदास के समकालीन संत श्रेणी में आती थीं और गुरु रविदास को ही
उन्होंने गुरु की उपाधि प्रदान की थी। अतः मीराबाई गुरु रविदास की विधिवत
शिष्या बनीं और साथ ही नाम सबद, संगीत व तंबूरा, जिसे मीराबाई बजाती थीं, गुरु रविदास से ही पाया था। इसीलिए सम्भवत: यह लगता है कि गुरु दक्षिणा के
रूप में उन्होंने राजस्थान के चित्तौड़गढ़ में 'रविदास छत्तरी' का निर्माण करवाया था। मीराबाई ने भी अपनी वाणी को रागों
में ही उच्चारित किया है, जिसमें अधिकतर शब्दों में भैरवी राग को देखा जा सकता
है।
मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की: - बरसी का मायरा - गीत गोविंद टीका - राग गोविंद - राग सोरठ के पद। इसके अलावा मीराबाई के गीतों का संकलन
"मीराबाई की पदावली' नामक ग्रन्थ में किया गया है।
मीरा की भक्ति में माधुर्य- भाव काफी हद तक पाया जाता
था। वह अपने इष्टदेव
कृष्ण की भावना प्रियतम या पति के रुप में करती थी। उनका मानना था कि इस संसार में कृष्ण के अलावा कोई पुरुष है ही नहीं।
कृष्ण के रुप की दीवानी
थी:
बसो मेरे नैनन में नंदलाल।
मोहनी मूरति, साँवरि, सुरति नैना बने विसाल।।
अधर सुधारस मुरली बाजति, उर बैजंती माल।
क्षुद्र घंटिका कटि- तट सोभित, नूपुर शब्द रसाल।
मीरा प्रभु संतन सुखदाई, भक्त बछल गोपाल।।
मीराबाई रैदास को अपना गुरु मानते हुए कहती हैं -
'गुरु मिलिया रैदास दीन्ही ज्ञान की गुटकी।'
इन्होंने अपने बहुत से पदों की रचना राजस्थानी मिश्रित
भाषा में ही है। इसके
अलावा कुछ विशुद्ध साहित्यिक ब्रजभाषा में भी लिखा है। इन्होंने जन्मजात कवियित्री न होने के बावजूद भक्ति की भावना में
कवियित्री के रुप में
प्रसिद्धि प्रदान की। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता पाई जाती है। इन्होंने अपने
पदों में श्रृंगार और शांत रस का प्रयोग विशेष रुप से किया है।
इसी लिये शक्तिपात के सदसमर्थ गुरू स्वामी शिवओम तीर्थ जी महाराज ने अपने
अनेक भजन मीरा को समर्पित किये।
मीरा बनाओ मुझको, चाहे जो बनाओ जी।
हूं दर पे
तेरे आई, प्रेमी बनाओ जी।।
(शब्द और कथन गूगल से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह
आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस
पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको
प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता
है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के
लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" देवीदास विपुल
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