औघड परम्परा को पुनर्जीवित करनेवाले बाबा
किनाराम
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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सहज ही प्रश्न उठता है कि औघड़ कौन हैं? औघड़ शक्ति का साधक होता है। चंडी, तारा, काली यह सब शक्ति के ही रूप हैं, नाम हैं। यजुर्वेद के रुद्राध्याय में
रुद्र की कल्याण्कारी मूर्ति को शिवी की संज्ञा दी गई है, शिवा
को ही अघोरा कहा गया है। शिव और शक्ति संबंधी तंत्र ग्रंथ यह प्रतिपादित करते हैं
कि वस्तुत: यह दोनों भिन्न नहीं, एक अभिन्न तत्व हैं। रुद्र
अघोरा शक्ति से संयुक्त होने के कारण ही शिव हैं। संक्षेप में इतना जान लेना ही
हमारे लिए यहाँ पर्याप्त है। बाबा किनाराम ने इसी अघोरा शक्ति की साधना की थी। ऐसी
साधना के अनिवार्य परिणाम स्वरूप चमत्कारिक दिव्य सिद्धियाँ अनायास प्राप्त हो जाती
हैं, ऐसे साधक के लिए असंभव कुछ नहीं रह जाता। वह परमहंस पद
प्राप्त होता है। कोई भी ऐसा सिद्ध प्रदर्शन के लिए चमत्कार नहीं दिखाता, उसका ध्येय लोक कल्याण होना चाहिए। औघड़ साधक की भेद बुद्धि का नाश हो
जाता है। वह प्रचलित सांसारिक मान्यताओं से बँधकर नहीं रहता। सब कुछ का अवधूनन कर,
उपेक्षा कर ऊपर उठ जाना ही अवधूत पद प्राप्त करना है।
किनाराम बाबा उत्तर भारतीय परंपरा के संत थे, जिनका यश परवर्त्ती काल में सम्पूर्ण भारत में फैल गया। ये आध्यात्मिक संस्कार के
अत्यंत प्रबल तथा प्रकाण्ड विद्वान् थे। बचपन से ही बाबा रामनाम में खोए रहते थे। किशोरावस्था में
वैराग्य ले लिया और रामानुजी सम्प्रदाय के प्रसिद्ध महात्मा बाबा शिवराम से दीक्षा
ले ली। इसके बाद कीनाराम भ्रमण के लिए निकल पड़े। उनकी सिद्धियों ने उन्हें बहुत लोकप्रिय
बना दिया।
रामनाम उनका प्राण
मंत्र था-
अमर बीज विज्ञान को
कह्यौ समुझिकर लेहु। ॐ सो मंत्र विचारि कै रामनाम चित देहु।।
उत्तराखंड हिमालय में बहुत वर्षों तक कठोर तपस्या करने के बाद किनाराम वाराणसी के हरिश्चंद्र घाट के
श्मशान पहुँचे। वहीं प्रसिद्ध अघोरी संत कालूराम
से उनकी भेंट हुई। इससे बाबा कीनाराम के चिंतन में विद्यमान एकात्मबोध का ज्ञान
होता है। कालूराम जी बड़े प्रेम से दाह किए हुए शवों की बिखरी
पड़ी खोपड़ियों को अपने पास बुला-बुलाकर चने खिलाते थे। किनाराम को यह व्यर्थ का
खिलवाड़ लगा और उन्होंने अपनी सिद्धि शक्ति से खोपड़ियों का चलना बंद कर दिया।
कालूराम ने ध्यान लगाकर समझ लिया कि यह शक्ति केवल किनाराम में है। उन्हें देखकर
कालूराम ने कहा- भूख लगी है। मछली खिलाओ। किनाराम ने गंगा तट की ओर मुख कर कहा-
गंगिया, ला एक मछली दे जा। एक बड़ी मछली
स्वत: पानी से बाहर आ गई। थोड़ी देर बाद कालूराम ने गंगा में बहे जा रहे एक शव को किनाराम
को दिखाया। किनाराम ने वहीं से मुर्दे को पुकारा, वह बहता
हुआ किनारे आ लगा और उठकर खड़ा हो गया। बाबा किनाराम ने उसे घर वापिस भेज दिया पर
उसकी माँ ने उसे बाबा की चरण सेवा के लिए ही छोड़ दिया।
इन सब के बाद, कहते हैं, कालूराम जी ने अपने स्वरूप को दर्शन दिया
और किनाराम को साथ, क्रीम कुंड ले गए जहाँ उन्हें बताया कि इस स्थल को ही
गिरनार समझो। समस्त तीर्थों का फल यहाँ मिल जाएगा। किनाराम तबसे मुख्यत: उसी स्थान
पर रहने लगे। कालूराम ने जब कीनाराम
को साधना-क्षेत्र की बड़ी उच्च स्थिति में पाया। फिर भी उन्होंने कीनाराम की कई
तरह से परीक्षाएं लीं। उन्होंने कीनाराम को अपनी सिद्धियों का सुपात्र पाकर,
सभी सिद्धियां उन्हें दे दीं। कीनाराम के पास पहले से ही काफी
सिद्धियां थीं। उन्होंने पूर्व सिद्धियों का अहं त्याग कर कालूराम की दी सिद्धियां
ग्रहण कीं।
अपने प्रथम गुरु वैष्णव शिवाराम जी के नाप
पर उन्होंने चार मठ स्थापित किए तथा दूसरे गुरु, औघड़ बाबा कालूराम की स्मृति में कींकुड, रामगढ़,
देवल तथा हरिहरपुर (जौनपुर) में चार औघड़ गद्दियाँ कायम कीं। इन
प्रमुख स्थानों के अतिरिक्त तकिया भी कितनी ही हैं।
उन्होंने कहा
“कीना
कीना सब कहैं कालू कहै न कोय। कालू कीना एक भए राम कर सो होय”।।
कीनाराम कहते थे कि
अत्यंत अगाध और अगम निर्वाण पद की प्राप्ति गुरु की कृपा के बिना संभव नहीं है।
कीनाराम का मानना था कि ‘ॐ’ मंत्र की सिद्धि रामनाम में ही प्रतिष्ठित है।
उन्होंने यह भी कहा कि सत्य पुरुष ‘सत्य नाम’ में स्थित है।
वह कहते थे कि सर्वत्र
व्याप्त चिदानंद सुखधाम आत्माराम की ही वंदना करनी चाहिए।
व्यापक
व्याप्य प्रकाश महांस चिदानन्द सुखधाम। बहिरंतर जहं-तंह प्रगट बन्दौ आत्माराम।।
बाबा कीनाराम की वाणी पर कबीर का बहुत प्रभाव था। वह भी खरी बात कहते
थे। उनका कहना था- ‘मैं देवालय और देवता, पूजा और पुजारी हूं, मैंने ही वृन्दावन
में कृष्ण रूप में गोपी और ग्वालों के साथ नृत्य किया था। मैंने ही हनुमान के रूप
में राम का हित कार्य किया।’
किनाराम का जन्म वाराणसी के चंदोली तहसील के ग्राम रामगढ़ में एक कुलीन रघुवंशी क्षत्रिय परिवार में विक्रम संवत 1758 के लगभग हुआ था।
किनाराम की द्विरागमन के पूर्व ही पत्नी का देहान्त हो गया। उसके कुछ दिन बाद उदास होकर किनाराम घर
से निकल गये और गाज़ीपुर ज़िले के कारो नामक गाँव के संयोजी
वैष्णव महात्मा शिवादास कायस्थ की
सेवा टहल में रहने लगे और कुछ दिनों के बाद उन्हीं के शिष्य हो गये। कुछ वर्ष
गुरुसेवा करके उन्होंने गिरनार पर्वत की यात्रा की। वहाँ पर
किनाराम ने भगवान दत्तात्रेय का दर्शन किया और उनसे
अवधूत वृत्ति की शिक्षा लेकर उनकी आज्ञा से काशी लौटे। 6-7वीं
शताब्दी से सुसुप्तावस्था में पड़ी, अघोर परम्परा को बाबा
कीनाराम जी ने पुनर्जागृत किया
बचपन से ही आध्यात्मिक संस्कार अत्यंत
प्रबल थे। तत्कालीन रीतिनुसार बारह वर्षों की अल्प आयु में, इनकी घोर अनिच्छा रहते हुए भी, विवाह कर दिया गया किंतु दो तीन वर्षों बाद
द्विरागमन की पूर्व संध्या को इन्होंने हठपूर्वक माँ से माँगकर दूध भात खाया। उन दिनों दूध भात मृतक संस्कार के बाद अवश्य खाया जाता था। अगले
दिन सुबह ही वधू के देहांत का समाचार आ गया। सबको आश्चर्य हुआ कि इन्हें पत्नी की
मृत्यु का पूर्वाभास कैसे हो गया था। काशी में किनाराम ने बाबा कालूराम अघोरपंथी से अघोर मत का उपदेश
लिया था। वैष्णव भागवत और फिर अघोरपंथी होकर किनाराम ने उपासना
का एक नया व अद्भुत सम्मिश्रण किया। वैष्णव रीति से ये रामोपासक हुए और अघोर पंथ
की रीति से मद्य-मांसादि के सेवन में इन्हें कोई आपत्ति न हुई। किनाराम को
जाति-पाति का कोई भेदभाव न था। किनाराम का पंथ अलग ही चल पड़ा। किनाराम के शिष्य हिन्दू व मुसलमान दोनों ही हुए।
किनाराम बाबा विरक्त तो रहते ही थे, घर से भी निकल पड़े और घूमते-फिरते गाजीपुर
ज़िले के कारों ग्राम में रामानुजी महात्मा शिवाराम की सेवा में पहुँचे। कुछ समय बाद दीक्षा देने के पूर्व महात्मा
जी ने परीक्षार्थ इनसे स्नान ध्यान के सामान लेकर गंगातट पर चलने को कहा। यह
शिवाराम जी की पूजनादि की सामग्री लेकर गंगातट से कुछ दूर पहुँच कर रुक गए तथा गंगाजी को झुककर प्रणाम करने लगे। जब सिर उठाया तब देखा कि भागीरथी का जल बढ़कर इनके
चरणों तक पहुँच गया है। उन्होंने इस घटना को 'गुरु की महिमा'
माना।
किनाराम के दो गुरु थे। एक गुरू
महात्मा शिवादास तथा दूसरे बाबा कालूराम थे। इन्होंने ने अपने दोनों गुरुओं की
मर्यादा निभाने के लिए इन्होंने वैष्णव मत के चार स्थान मारुफपुर,
नयी डीह, परानापुर और महपुर में और अघोर मत के
चार स्थान रामगढ़ (बनारस), देवल (गाजीपुर), हरिहरपुर (जौनपुर) तथा कृमिकुंड (काशी) में स्थापित
किये। ये मठ अब तक चल रहे हैं। किनाराम ने भदैनी में कृमिकुंड पर स्वयं रहना आरम्भ
किया। काशी में अब भी इनकी प्रधान गद्दी कृमिकुंड पर है। किनाराम के अनुयायी सभी
जाति के लोग हैं। रामावतार की उपासना इनकी विशेषता है। ये तीर्थयात्रा आदि मानते
हैं, किनाराम को औघड़ भी कहते हैं। ये देवताओं की मूर्ति की पूजा नहीं करते। अपने
शवों को समाधि देते हैं, जलाते नहीं हैं।
पत्नी की मृत्यु के बाद शिवाराम जी ने जब
पुनर्विवाह किया तब किनाराम जी ने उन्हें छोड़ दिया। घूमते-घामते नईडीह गाँव
पहुँचे। वहाँ एक वृद्धा बहुत रो कलप रही थी। पूछने पर उसने बताया कि उसके एकमात्र पुत्र को बक़ाया लगान के बदले जमींदार के सिपाही पकड़ ले गए हैं। किनाराम जी ने वृद्धा के साथ ज़मींदार के द्वार
पर जाकर देखा कि वह लड़का धूप में बैठा रखा है। ज़मींदार से उसे मुक्त करने का
आग्रह व्यर्थ गया तब किनाराम ने ज़मींदार से कहा- 'जहाँ
लड़का बैठा है वहाँ की धरती खुदवा ले और जितना तेरा रुपया हो, वहाँ से ले ले।' हाथ दो
हाथ गहराई तक खुदवाने पर वहाँ अशेष रुपए पड़े देखकर सब स्तंभित रह गए। लड़का तो
तुरंत बंधनमुक्त कर ही दिया गया, ज़मींदार ने बहुत बहुत
क्षमा मांगी। बुढ़िया ने वह लड़का किनाराम जी को ही सौंप दिया। बीजाराम उसका नाम
था और संभवत: किनाराम जी के शरीर त्याग पश्चात् वाराणसी के उनके मठ की गद्दी पर वही अधिष्ठित हुआ।
औघड़ों के मान्य स्थल गिरनार पर
किनाराम जी को दत्तात्रेय के स्वयं दर्शन हुए थे जो रुद्र के बाद औघड़पन के
द्वितीय प्रतिष्ठापक माने जाते हैं। ऐसी मान्यता है कि परम सिद्ध औघड़ों को भगवान
दत्तात्रेय के दर्शन गिरनार पर आज भी होते है वर्तमान काल में, किनारामी औघड़पंथी परमसिद्धों की बारहवीं पीढ़ी में, वाराणसी स्थित औघड़ बाबा भगवान राम को भी गिरनार पर्वत पर ही दत्तात्रेय
जी का प्रत्यक्ष दर्शन हुआ था।
गिरनार के बाद किनाराम जी बीजाराम के
साथ जूनागढ़ पहुँचे। वहाँ भिक्षा माँगने के अपराध
में उस समय के नवाब के आदमियों ने बीजाराम को जेल में बंद कर दिया तथा वहाँ रखी 981
चक्कियों में से, जिनमें से अधिकतर पहले से ही
बंदी साधु संत चला रहे थे, एक चक्की इनको भी चलाने को दे
दिया। किनाराम जी ने सिद्धिबल से यह जान लिया तथा दूसरे दिन स्वयं नगर में जाकर
भिक्षा माँगने लगे। वह भी कारागार पहुँचाए गए और उन्हें भी चलाने के लिए चक्की दी
गई। बाबा ने बिना हाथ लगाए चक्की से चलने को कहा किंतु यह तो उनकी लीला थी,
चक्की नहीं चली। तब उन्होंने पास ही पड़ी एक लकड़ी उठाकर चक्की पर
मारी। आश्चर्य कि सब 981 चक्कियाँ अपने आप चलने लगीं। समाचार
पाकर नवाब ने बहुत क्षमा माँगी और बाबा के आदेशानुसार यह वचन दिया कि उस दिन से जो
भी साधु महात्मा जूनागढ़ आएँगे उन्हें बाबा के नाम पर ढाई पाव आटा रोज दिया जाएगा।
नवाब की वंश परंपरा भी बाबा के आशीर्वाद से ही चली।
किनाराम बाबा ने संवत 1800 विक्रम संवत में 142 वर्ष की अवस्था में समाधि ली।
मान्यता है कि वो
स्थान , जहां (परीक्षा के मद्देनज़र) राजा हरिश्चंद्र के पुत्र
राहुल को सर्प-दंश हुआ था, यही वो स्थान जहां महान सुमेधा
ऋषी ने तपस्या की थी, उस जगह अघोर परम्परा के आधुनिक स्वरुप के
जनक , अघोराचार्य महाराज श्री बाबा कीनाराम जी ने 170 वर्ष
की आयु में समाधी ली। इस जगह को परिभाषित करते हुए अघोराचार्य महाराज श्री बाबा
कालूराम जी ने कहा था- “ये स्थान सभी तीर्थों का तीर्थ है” ।
इस स्थान की महत्ता के बारे में बींसवीं सदी के विश्व-विख्यात महान संत अघोरेश्वर
भगवान् राम जी ने बताया- कि- “ये स्थान दुर्लभ है ! यहाँ अध्यात्मिक जगत की इतनी
पुनीत आत्माएं हर पल निवास करती हैं , जो साधकों को इस
सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड में कई जगह एक साथ दर्शन दे सकती हैं , ये
स्थान सृष्टि की उत्पत्ति और समापन के साथ रहा है और हमेशा रहेगा, औघड़-अघोरी का प्रकृति पर सम्पूर्ण नियंत्रण रहता है , उनके द्वारा , भावावेश में आकर कुछ भी कह देने पर
घटनाएं तत्काल घटनी शुरू हो जाती हैं ”। अलावा इसके, श्रद्धालु जनों की निगाह में- “ये स्थान सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड का कंट्रोल
रूम है , जिसकी चाभी यहाँ के पीठाधीश्वर के हाथ में रहती है
”।
अपने 170 साल के
नश्वर शरीर में रहते हुए , उन्होनें कई असहाय, दुर्बल, पीड़ित लोगों को राहत पहुंचाई, व्यापक स्तर पर समाज-सेवा (जो अघोर परम्परा का मूल-धर्म है ) की। कई मुग़ल शासक भी बाबा के आशीर्वाद के भागी बने। बाबा
कीनाराम जी अत्यंत दयालु संत रहे , पर बेहद अपमानित अवस्था
में कुपित भी हो जाते रहे। कहा जाता है कि
तत्कालीन काशी नरेश, राजा चेत सिंह, ने
बाबा का बुरी तरह अपमान कर दिया। उद्धेलित हो, बाबा ने
उन्हें श्राप दिया कि – “जाओ आज से तुम्हारे महल में कबूतर बीट करेंगें, तुम्हे महल छोड़ कर भागना पड़ेगा
और तुम पुत्र-हीन रहोगे”। उस वक़्त सदानंद
(उत्तर-प्रदेश के द्वितीय मुख्यमंत्री डा.संपूर्णानंद के पूर्वज), जो राजा के निजी सचिव थे, ने बाबा से इस कृत्य के लिए
माफी माँगी। बाबा ने कहा कि- “जाओ जब तक तुम्हारे नाम के साथ आनंद लगता रहेगा ,
तुम फलो-फूलोगे”। इतिहास
गवाह है कि ये घटनाएं घटी और सन 2000 तक काशी नरेश के यहाँ
गोद ले-ले कर राजशाही चलती रही। 11वीं गद्दी पर बाबा कीनाराम जी पुनरागमन के पश्चात, काशी
राजवंश श्राप-मुक्त हो सका। घोर-वैज्ञानिक युग में ये असाधारण आध्यात्मिक घटना थी ,
मगर बहुत काम लोगों का ध्यान इधर गया।
1770 इसवी में 170 साल की अवस्था में बाबा ने इस उद्घोष के साथ समाधि ली थी -कि- “इस पीठ की ग्यारहवीं गद्दी (11 वें पीठाधीश्वर) पर, मैं बाल-रूप में पुनः आऊंगा और तब इस स्थान सहित सम्पूर्ण जगत का जीर्णोद्धार होगा ”।
वर्तमान, 11 वें, पीठाधीश्वर 44 वर्षीय, अघोराचार्य महाराज श्री बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी के बारे में विद्वान् जनों और शोधकर्ताओं का स्पष्ट मानना है कि – 1770 में , अपनी समाधि के वक़्त बाबा कीनाराम जी ने जो उदघोष (इस पीठ की ग्यारहवीं गद्दी ,11 वें पीठाधीश्वर के तौर, पर मैं बाल-रूप में पुनः आऊंगा) किया था – वो पूरा हुआ ! गौरतलब है कि वर्तमान पीठाधीश्वर अघोराचार्य महाराज श्री बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी, मात्र 9 वर्ष के अवस्था (10 फरवरी 1978) में इस महान पीठ के पीठाधीश्वर बने। एक बालक और सर्वोच्च अध्यात्मिक गद्दी का मालिक। ये अध्यात्मिक जगत की बड़ी और आश्चर्य में डाल देने वाली उन बड़ी घटनाओं में से एक है, जिस पर ध्यान किसी-किसी का ही गया। अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी के रूप में, अघोराचार्य बाबा कीनाराम जी ने , पुनरागमन कर अपने उदघोष की पुष्टि कर दी है और सन 2000 में काशी नरेश श्राप मुक्त भी हो चुके हैं (इसकी पुष्टि भी आप , इस चरम वैज्ञानिक युग में, कर सकते हैं )। इसके अलावा इस स्थान का पूर्ण जीर्णोद्धार, आज, ज़ोरों पर है (आप जाकर इस बात की पुष्टि खुद कर सकते हैं )। साथ ही सम्पूर्ण जगत की व्यवस्था करवट , बड़ी तेज़ी से, ले रही है।
रिद्धि-सिद्धी , चमत्कार का खुलेआम प्रदर्शन करने वाले अघोरी नहीं होते और ना ही विकृति और भय के पोषक होते हैं। वर्तमान में, अघोर और दुनिया भर के अघोरी पथिकों के मुखिया अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी को देख कर आप इस बात की पुष्टि कर सकते हैं। एक आम युवक जैसे दिखने वाले, सरल-सौम्य-सहज और दया की मूर्ति अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी का दर्शन करने और अपने कष्टों का निवारण करने दुनिया हेतु भर से हर वर्ग के लोग बड़ी संख्या में आते हैं। अध्यात्मिक शक्तियों को परदे में रख अंजाम और विज्ञान को बेहद सम्मान देने वाले, अघोराचार्य बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी- मानवता का सन्देश और समाज-सेवा के अलावा किसी बात को नहीं कहते। चमत्कार की बात से ही वो चिढ़ जाते हैं ! शिक्षा, साहित्य और आयुर्वेदिक दवाओं के विस्तार के ज़रिये बाबा सिद्धार्थ गौतम राम जी , विज्ञान को सबसे उपरी पायदान पर रख कर अंध-विश्वास को किनारे कर रहे हैं। बीमार को डॉक्टर के पास जाने की सलाह देते हैं और विद्यार्थियों को नए-नए शोध और विज्ञान की नयी जानकारियाँ जुटाने के लिए प्रेरित करते हैं।
तंत्र को बहुधा , अघोर माने वालों के लिए जानना बहुत ज़रूरी है कि – तंत्र, अघोर जैसे वट-वृक्ष की एक टहनी मात्र है। अघोर (अघोरी) हमेशा दाता की भूमिका में होता है और तंत्र याचक की भूमिका में। सीधी भाषा में – अघोरी वही ,जो आदेश मात्र से विधि के विधान को बदल दे। विधि का विधान बदल देना सिवाय उपरवाले के, किसी और के बूते की बात नहीं। इसीलिए ये बखूबी कहा जा सकता है कि – स्वयंभू अघोरी तो बहुत हैं पर सच्चा अघोरी सिर्फ एक या दो हैं। बकौल विश्वनाथ प्रसाद सिंह अष्टाना (अपने जीवन के 60 साल अघोर परम्परा को समझने के लिए गुज़ारने वाले और अघोर परम्परा से जुड़ी विश्व-विख्यात किताबों के प्रसिद्द लेखक )- “अघोरी मदारी की तरह घूम-घूम तमाशा नहीं दिखाता और ना ही खुले-आम चमत्कारों को सरंक्षण देता है, पाखण्ड को लाताड़ता है और अंधविश्वास से दूरी बनाए रखने का यथा-संभव प्रयास करता है, चमत्कार के आकांक्षियों को निराश करता है, समाज की सेवा ही उसका एक-मात्र उद्देश्य होता है।
ये और बात है कि – समय-काल और परिस्थिति , सहज ही कई अविश्नीय घटनाओं के साक्षी स्वयं बन
जाते हैं, जिन्हें आम-जन अदभुत चमत्कार के संज्ञा देते हैं ”।
अघोरी समय-काल और प्रकृति के बनाए नियमों
का उल्लंघन बेहद कठिन परिस्थितियों में ही करता है। समाज में मौजूद सु-पात्रों के
ज़रिये सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के व्यवस्था को क्रियान्वित करता है। गोपनीयता का इतना घना आवरण रहता है -कि-ये बात
समाज के सु-पात्रों को भी नहीं मालूम चलती। पर अघोरी जो कहता है, वो घटता है। कहा भी गया है- जो ना करे राम, वो करे
कीनाराम। अंत में यह कह देना ज़रूरी है कि- विश्वास और अंधविश्वास में फर्क होता
है। साथ ही , आस्था
और विश्वास, पूरी तरह निजी ख़यालात हैं। मानने-ना-मानने का सर्वाधिकार
सबके पास सुरक्षित है। मानो तो भगवान् और ना मानो तो पत्थर।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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