मां तारा के भक्त: बामा खेपा या बामाचरण चट्टोपाध्याय
बामा-चरण चट्टोपाध्याय', माँ तारा के पुत्र
रूप में ख्याति प्राप्त 'बामा खेपा' नाम से प्रसिद्ध।
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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अध्यात्म
की कई शाखाऐं, सदियों से, दुनिया भर को आकर्षित करती रही हैं। पर अध्यात्म की सर्वोच्च शाखा अघोर का
संसार अद्भुत कहानियों से पटा पड़ा है। अघोरी साधूओं की रहस्यमय व आश्चर्य
में डाल देने वाली कहानियां और उनके मुख्य क़िरदार का सच्चा किस्सा कहीं-कहीं
देखने और सुनने को मिलता है। पूरी दुनिया में अघोर परम्परा के प्रमुख बाबा कीनाराम स्थल,
क्रीं-कुण्ड के बारे में तो कई लोग जानते हैं, लेकिन इस (अघोर) परम्परा के कई संत ऐसे भी रहे हैं, जिनकी अतुलनीय आध्यात्मिक शक्तियों का लोहा पूरी दुनिया मानती है। ये अलग
बात है कि इस घोर वैज्ञानिक युग में इन बातों की चर्चा यदा-कदा ही होती है। महान संत बामाखेपा/वामाखेपा भी एक ऐसी ही विभूति हैं।
शक्तिपीठ तारापीठ के निकट संत बामाखेपा का
जन्म 5 मार्च सन 1837 को, फाल्गुन की रात्रि
में, शिव रात्रि या शिव चतुर्दशी की रात्रि को पश्चिम
बंगाल राज्य के बीरभूम जिला, रामपुरहाट ब्लाक के आटला गांव में एक
बहुत ही गरीब बंगाली ब्राह्मण परिवार में हुआ। बामाखेपा की माँ का नाम राजकुमारी तथा पिता का नाम सर्वानंद
चटर्जी था। जो श्यामा संगीत के गायक थे। वे बेहाला या बेला बजाते तथा सामान्य पुरोहित थे। थोड़ी
सी खेती, यजमानों द्वारा दिया हुआ दान और संगीत उत्सवों में मिले हुए चढ़ावे
से किसी तरह, सर्वानन्द के परिवार का भरण पोषण हो जाता था। आम बच्चों से हटकर, बामाखेपा, बचपन से ही अलग स्वभाव
के थे। बामा बचपन से ही देवी तारा को अपनी बड़ी माँ मानते थे और
जन्मदात्री माता को छोटी माँ। प्रथम बड़ी बहन जय काली जो बाल्य काल में विधवा हुई, अंततः सिद्ध
संन्यासिन बनी तथा तारापीठ तथा अन्य तीर्थों में साधन करती थी, 25 वर्ष की आयु में
देहत्याग किया था। उनसे छोटे बामा-चरण, दुर्गा, द्रवमयी, सुंदरी तथा एक भाई रामचरण था।
जहाँ आम बच्चे स्कूल में जाना और खेलना-कूदना पसंद
करते थे, बामाखेपा भजन-कीर्तन और धार्मिक क्रिया-कलाप में व्यस्त रहते थे। आर्थिक
रूप से कमज़ोर माँ-बाप को बामाखेपा की ये आदतें पसंद नहीं थीं।
यद्यपि उनकी माँ, उन्हें प्राय: धार्मिक कहानियां ही सुनाया करती थीं।
जैसे-जैसे आयु बढ़ती गयी, बामा का आध्यात्मिक
अंतर्मन और ज़्यादा प्रबल होता गया। इतना प्रबल कि बामा को लोग अब बामाखेपा कह
कर पुकारने लगे। खेपा का मतलब अमूमन लोग पागल या विक्षिप्त से ही
लगाते थे। इस तरह बामा बामाखेपा बन गए।
आयु थोड़ी और बढ़ी तो उनकी माँ को चिंता सताने लगी। आर्थिक-अभाव से त्रस्त परिवार चाहता था
कि बामा कुछ काम-धाम करें और घर को चलाने में अपना सहयोग दें। इसी सोच के तहत उन्हें गाय-भैसों
को चराने का ज़िम्मा सौंपा गया, मग़र, बामा अब पूरी तरह से अध्यात्म के रंग से
सराबोर थे और माँ-तारा को ही हमेशा याद करते थे। तारा पीठ का
शमशान और माँ तारा का मंदिर ही उनका गंतव्य बन चुका था। अन्य लोगों के साथ-साथ
अब बामा की माँ भी उन्हें खेपा (पागल) ही समझने
लगी। आख़िरकार उन्होंने अपने प्रिय-पुत्र को घर से बाहर जाने देना बंद कर
दिया। इसी दरम्यान किशोरावस्था में पहुंच चुके बामा के पिता का निधन हो गया। मां की ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी थी, लेकिन बामा तो सिर्फ़ और सिर्फ़ माँ तारा
के हो चुके थे।
देवी माँ तारा के प्रति उनका लगाव इस क़दर बढ़ चुका था
कि घर की चारदीवारी को चकमा देकर, बामा, द्वारका नदी पार कर पहुंच गए, अपनी पारलौकिक माँ
तारा के पास। एक बार वहां उनकी भेंट संत
कैलाशपती बाबा से हुई। बाद में वही संत
बामाखेपा के उस भौतिक शरीर के गुरू बने। यहीं से शुरू हुआ बामाखेपा की अघोर यात्रा का
सफ़र। उधर बामा के भौतिक शरीर की जन्मदायिनी माँ पुत्र की तलाश में
भटकते-भटकते, बामा को खोज निकाली। फ़िर से पुत्र को सांसारिक
क्रिया-कलापों में बाँधने का यत्न किया। पर माँ की ये कोशिश परवान नहीं चढ़ी।
महान
संत बामाखेपा के बारे में “माँ तारापीठ
मंदिर” में दर्शन करते श्रद्धालूगण बताते
है कि वो निर्वस्त्र रह कर पूर्णतः अघोरी वृति हालत में ही तारापीठ शमशान में रहा करते थे। माँ-तारा का मंदिर और तारापीठ शमशान ही उनका घर बन चुका था। सांप-कुत्ते-सियार
उनके आस-पास
ही रहते थे। लोगों को भय भी लगता था, लेकिन, अब लोगों को एक बात साफ़ हो चुकी थी कि बामाखेपा एक अवतारी
महापुरुष हैं।
कहा जाता है कि बामाखेपा की माँ-तारा के “पुत्र” के रूप में इस क़दर
ख्याति हो चली थी कि माँ तारा के मंदिर में प्रसाद का भोग पहले बामाखेपा को चढ़ाया जाता था और फ़िर माँ-तारा को। माँ-तारा की भक्ति में
लीन बामा अपनी जन्मदायिनी माँ को भूल गए थे ? जी नहीं। इसका
पता इसी बात से चलता है कि जब उनकी माँ की मृत्यु हुई तो जिस समय बामा अपनी माँ के निर्जीव शरीर के पास पहुंचे, उस समय, घनघोर बारिश हो रही थी जबकि शमशान नदी के
उस पार था। नदी के एक पार घर तो दूसरी पार शमशान था। बामा अपनी माँ के
निर्जीव शरीर को अपने कंधों पर रख कर नदी
के उस पार शमशान ले गए। कहा जाता है कि
पूरे शमशान में बारिश हो रही थी, लेकिन, माँ-तारा के
पुत्र बामा की
उपस्थिति से ही उनकी जन्मदायिनी माँ की चिता पर बारिश की एक बूँद भी नहीं पड़ी। परिवार की आर्थिक स्थिति ऐसी नहीं थी कि तेरहीं का भोज हो सके पर बामा ने सबको बुलाया और आश्चर्य की बात ये कि हज़ारों लोगों के भोजन करने
के बाद भी भंडारा भरा पड़ा था। बामाखेपा की चमत्कारिक ऐसी अनगिनत कहानियां हैं जो ये बतलाती हैं कि बामाखेपा एक संत मात्र नहीं बल्कि अवतारी अघोरी थे।
22 जून 1911, आषाढ़ कृष्ण
अष्टमी, बंगला सन 1318, 2 श्रवण, तारापीठ
महा-श्मशान
में विद्यमान पञ्च मुंडी आसन में योग क्रिया द्वारा
बाबा ने पंचतत्व स्वरूपी देह त्याग कर, सूक्ष्म देह धारण किया। 1911 में तारापीठ में ही समाधिस्थ बामाखेपा जी की समाधि आज भी मौजूद है , जिसके दर्शन के लिए हर साल हज़ारों लोग यहां आते हैं !
शिव चतुर्दशी की रात्रि के चारों
प्रहर। शिव जी के अलग-अलग नामों से जाने जाते हैं, जो क्रमशः गंगानाथ, अधराय, बामदेव तथा सद्योजात
हैं। बालक का जन्म रात्रि के तीसरे प्रहार
में हुआ, जो शिव जी के बामदेव नाम का प्रतीक हैं।
पुत्र प्राप्ति हेतु भुवनेश्वरी देवी ने माँ तारा के मंदिर में धरना दिया था, कारणवश वह गर्भवती
हुई; तारा माँ के अनेक नाम हैं
जैसे नीला, बामा, उग्रा, एक-जटा, नील-सरस्वती इत्यादि। सर्वानन्द
मानते थे कि माँ तारा के कृपा से ही उन्हें पुत्र की
प्राप्ति हुई हैं, इसी कारण उन्होंने अपने पुत्र का नाम 'बामा-चरण' रखा।
एक बार वे अपने पिता के साथ शक्ति गीत गाने हेतु तारापीठ मंदिर में गए, वहां वे गीत गाते
हुए अचेत हो गए। मंदिर में उपस्थित सभी यजमान इस पर बहुत चिंतित हुऐ, उनकी माता भुवनेश्वरी देवी ने तारा माँ विग्रह के सामने अचेत पड़े बामा को रखा
और अपने पुत्र बामा को उन्हें सौंपते हुए, उनका सारा दाईत्व
उन्हें दे दिया। जिसके बाद बामा की चेतना वापस आ गयी, यह बामा के जीवन से
सम्बंधित बहुत महत्त्वपूर्ण घटना साबित हुई।
तारापीठ के महा-श्मशान में ही अधिकतर रहना बामा को अधिक प्रिया था, उनका मन घर-संसार
में तनिक भी नहीं लगता था। पारिवारिक आर्थिक दशा को सुधारने हेतु, विवश हो उन्होंने मुलती के काली मंदिर में नौकरी भी की, परन्तु कुछ दिनों
में वहाँ से नौकरी छोड़कर वापस आ गए। माँ तारा नहीं चाहती थी की बामा उनसे दूर रहे, उन्होंने सभी को
नौकरी छोड़ने का यह तर्क दिया। इसके बाद वे अधिकतर महा-श्मशान
में ही रहने लगे, मंदिर के प्रधान पुरोहित मोक्षदानन्द यह समझ गए थे, कि! यह कोई साधारण
व्यक्ति नहीं है। उन्होंने बामा को तारापीठ मंदिर मंदिर में एक नौकरी दिला दी, पर उनका मन वहाँ की
नौकरी में भी नहीं लगा, वे केवल माँ तारा को ढूंढ़ते थे, माँ को प्रत्यक्ष
दर्शन प्राप्त चाहते थे; परिणामस्वरूप तारापीठ मंदिर की नौकरी भी जाती रही।
एक दिन बामा श्मशान में द्वारका नदी के किनारे बैठे हुए थे, उन्होंने देखा की नदी के बहते हुए पानी के ऊपर से चल कर कोई संन्यासी आ रहें हैं, यह उन्हें बहुत अचंभित करने वाली तथा अलौकिक लगी और तब से वे उन योगी संन्यासी के पीछे लग गए। वे कैलाशपति बाबा थे। अब वे कैलाशपति के साथ महा-श्मशान में रहने लगे, उनकी सेवा जतन करने लगे और माँ के साक्षात् दर्शन दिलाने हेतु उनसे बार-बार प्रार्थना करने लगे। एक दिन योगी कैलाशपति के आदेशानुसार, दीक्षा विधि के पालन हेतु वे अपनी छोटी माँ से सन्यास दीक्षा की आज्ञा लेने हेतु अपने गाँव आटला गए, पर उनकी माता ने उन्हें सन्यास लेने की अनुमति नहीं दी। अपनी माता से द्वेष कर बामा, योगी कैलाशपति के पास तारापीठ महा-श्मशान चेले आये, पीछे से उनकी माता भी दौड़ती हुई वहां आ गयी। योगी कैलाशपति ने बामा की माता से पूछा! "एक बार बचपन में जब बामा गीत गाते हुए तारापीठ मंदिर में अचेत होकर गिर गए थे, तब उन्होंने बामा को किस के हाथों में सौंपा था?" सोच विचार कर भुवनेश्वरी देवी ने तदनंतर बामा को सन्यास लेने की आज्ञा दे दी।
यहाँ से शुरू हुई एक महान योगी, संन्यासी, समाज-सेवी की चमत्कारिक
गाथा;
बामा को उनके गुरु योगी कैलाशपति द्वारा वेद-शास्त्रों का
ज्ञान प्राप्त हुआ,
साथ
ही वह साधना क्रम जिस पर चल कर एक योगी, सिद्धि लाभ कर अपने इष्ट
के दर्शन लाभ कर पाता हैं। बामा, पञ्च मुंडी आसान में समाधि लगाकर माँ तारा की साधना करने लगे तथा अंततः उनके साक्षात्
दर्शन प्राप्त किये। माँ ने जीवित कुंड की समस्त अलौकिक शक्तियां बामा को प्रदान की तथा उन्हें
आदेश दिया कि! वे जन कल्याण हेतु उन शक्तिओं का उपयोग करे।
इसके बाद माँ-बेटे (तारा माँ और बामा
खेपा) की लीला शुरू हुई। समस्या-विपद ग्रस्त लोग उनके पास आने
लगे और अपनी-अपनी समस्याओं का समाधान पाने लगे, उनकी कीर्ति दूर-दूर
तक फैलने लगी। उन्होंने समाज में व्याप्त नाना प्रकार की
कु-रीतिओं, कुप्रथाओं को मिटने में भी अहम भूमिका प्रदान की। उनकी कीर्ति से
मंदिर के कुछ पुरोहित उनसे द्वेष करने लगे तथा बामा के बारे में गलत
भ्रान्ति फैलाने लगे। इसी बीच मंदिर के प्रधान पुजारी मोक्षदानन्द ने काशी यात्रा करने
का निश्चय किया तथा वे बामा के साथ काशी यात्रा
हेतु निकले। परन्तु, माँ तारा नहीं चाहती थी की बामा काशी जाये, बामा जब यात्रा की अनुमति
लेने हेतु माँ के पास गए उन्होंने उन्हें काशी जाने की अनुमति देने से
मना कर दिया था, परन्तु वे हठ कर काशी चेले गए। जिस पर माँ ने उन्हें
सावधान किया! वहाँ उन्हें भूखा रहना पड़ेगा। माँ के कहे अनुसार
उन्हें काशी में एक दिन भी भोजन नहीं मिला, मोक्षदानन्द भी वहाँ से अन्य
तीर्थों के दर्शन हेतु निकल पड़े, बामा ने काशी से वापस तारापीठ आने में ही अपनी भलाई समझी और वहाँ से
अकेले निकल पड़े। चलते-चलते पथ पर वे बहुत थक गए और एक पेड़ के नीचे
विश्राम करते हुए सोचने लगे कि! मैंने अगर बड़ी माँ की बात मान ली होती
और काशी नहीं आया होता तो मुझे यह दिन न देखना पड़ता।
वे विलाप ही कर रहे थे की थोड़े समय पश्चात एक बालिका
उनके सामने आई और उनका परिचय एवं किस हेतु वे वहाँ इस प्रकार बैठे है!
पूछने लगी; बामा ने बताया की वह माँ तारा का बेटा है और वह तारापीठ जाना चाहता है, पर तारापीठ तो बहुत दूर है। बालिका ने बामा से कहा! तारापीठ पास ही है और वे उसे तारापीठ तक ले जायेगी; बालिका से साथ हो बामा तक्षण ही तारापीठ पहुँच गए।
बामा भूख के मारे, मरे जा रेहे थे, कई दिनों से उन्होंने कुछ भी नहीं खाया था; वे सीधा दौड़ते हुए माँ तारा के पास गए और व्याकुल होकर कहने लगे कि! उन्हें बहुत भूख लगी है। माँ ने बामा से कहा! वहाँ उनके सामने जो भोग उनके निवेदन हेतु रखा गया हैं उसे खा ले, बामा ने माँ के कहे अनुसार उनके भोग हेतु रखे हुए अन्न-भोग को खाने लगे। मंदिर के पुरोहितों ने जब देखा की बामा, माँ को बिना निवेदन किये हुए भोग को उछिष्ट कर रहे हैं, तो सभी क्रोधित हो उन्हें बहुत मारा। इस पर बामा, माँ से बहुत क्रोधित हुए और प्रण कर लिया की जब तक उनकी बड़ी माँ उन्हें स्वयं नहीं खिलाती हैं वे उनके भोग-प्रसाद को नहीं खायेंगे।
उन्हें
चोटें भी आई, वे महा-श्मशान स्थित अपने कुटिया में जाकर रोने लगे, इतने उन्होंने देखा की उनकी जन्म-दात्री छोटी माँ उनके पास आई हैं और उनसे रोने का कारण पूछ रहीं हैं। बामा
ने उन्हें बताया की उनके बड़ी माँ! माँ तारा ने उन्हें मार पड़वाई हैं, जिस पर भेष बदल कर आई हुई माँ ने कहा कि! निश्चित ही वे अवध्य हुए होंगे तथा वे उनके उन स्थानों को सहलाने लगी जहाँ-जहाँ चोट पहुंची थीं। कुछ ही क्षण में बामा
के सभी चोट चमत्कारिक रूप से ठीक हो गए, इस पर उन्हें बड़ा ही आश्चर्य हुआ। उनकी वास्तविक माता को ज्ञात हुआ की बामा
को मंदिर के पुरोहितों ने बहुत मारा है, वे दौड़ते हुए उनके पास आई तथा उन्हें यह जानकर बड़ा ही आश्चर्य हुआ की उनसे पहले ही वे उनके पास आ चुकीं थीं। वे समझ गई की अवश्य ही माँ तारा भेष बदलकर बामा
के पास आई थी।
तदनंतर बामा ने तीन दिन तक कुछ नहीं खाया, माँ तारा ने नाटोर स्टेट की महारानी भवानी देवी को सपना दिया कि। वह अपने पुत्र बामा के साथ ३ दिन से उपवास कर रही हैं, उनके पागल पुत्र बामा को मंदिर के पुरोहितों ने भोग उच्छिष्ट करने के कारण बहुत मारा हैं, जिस कारण से बामा ने ३ दिन से कुछ नहीं खाया हैं और साथ ही वे भी अपने पुत्र के साथ उपवासी हैं। वे मंदिर में जाकर कोई ऐसा उपाय करें, जिससे उनके पागल पुत्र बामा को पहले भोग दिया जाये तदनंतर उन्हें, उनके पुत्र को इछानुसार मंदिर में कुछ भी करने की स्वतंत्रता हो; नहीं तो वे उनके राज्य से चली जायेगी। अगले ही दिन रानी माँ, तारापीठ आयी और नियम बना दिया! प्रथम बामा को भोग दिया जायेगा, इसके पश्चात भोग माँ को निवेदन किया जायेगा; मंदिर के कार्यों में उनका मत ही अंतिम होगा।
रानी माँ द्वारा बामा को मंदिर का पूर्ण
भार देने पर, वहां के अन्य पुरोहित उनके द्वेषी हो गए, उन्हें बामा के ख्याति को क्षीण
करने का षड्यंत्र रचा। षड्यंत्र के तहत उनके द्वेषीयों ने रात में एक वैश्य को बामा के पास भेजने की
योजना बनाई और आस पास के जितने रसूकदार लोग थे उन्हें बताया गया की रात को बामा महा-श्मशान में वेश्या लीला
करते हैं, अगर वे देखना चाहते हैं तो रात में महा-श्मशान जाये। षड्यंत्र योजना
के अनुसार एक वेश्या को रात में बामा के पास भेजा गया, अन्य लोग छुप पर
देखने आये की बामा जैसे महान योगी ऐसा क्या करते हैं? साथ ही वे सभी
षड्यंत्रकारी भी रात में महा-श्मशान में आयें।
वैश्य ने बामा के पास जाकर! जो की
पंच-मुंडी आसन में ध्यान-योग मग्न थे, काम वासना में लिप्त होना चाहा। परन्तु बामा के बार-बार सावधान
करने पर भी जब वास वैश्य नहीं मानी, तो उन्होंने सभी को अपना ऐसा भयानक रूप
दिखाया जिससे प्रथम तो वह वेश्या वही अचेत हो गयी, षड्यंत्रकारियों को
वहाँ के भूत-प्रेतों ने पकड़ लिया और बाकी भाग खड़े हुए।
षड्यंत्रकारियों के अचेत होकर गिरने और चीखने चिल्लाने पर बामा के शिष्यों ने आ कर
उन्हें भयमुक्त किया, तदनंतर सभी ने बामा से क्षमा याचना की, बामा ने सभी को क्षमा करते
हुए माँ के नाम कीर्तन करने की सलाह दी।
बामा एक ऐसे विराचारी या बमाचारी
तांत्रिक संत हुए जिन्होंने अपनी तंत्र साधनाओं से अर्जित
शक्तिओं का निःस्वार्थ भाव से, समाज के सभी वर्गों
की सेवा हेतु प्रयोग किया। अनगिनत धनी-दरिद्र रोगी उनके पास आये
जिनमें राजा-रंक सभी थे तथा बामा के कृपा और आशीर्वाद से कठिन से
कठिन रोग ग्रस्त रोगी पूर्णतः स्वस्थ हुए। साथ ही, विभिन्न प्रकार की
आपत्ति-विपत्ति, समस्याओं, नाना प्रकार की चिंता और भय से मुक्त होने हेतु सभी बामा के पास आने लगे।
समाज में व्याप्त नाना प्रकार के कु-रीतिओं और कु-संस्कारो
जैसे उच्च-नीच जाती भेद-भाव, विधवा पुनर्विवाह विवाह, बाल विवाह, तंत्र-विद्या से अनैतिक कार्यों का प्रचलन आदि को
दूर करने में उन्होंने अपनी अहम भूमिका प्रदान की।
बामा समाज के एक अति विशिष्ट एवं सम्माननीय व्यक्ति थे, भविष्य वक्ता तथा वाक्-सिद्ध पुरुष थे; उनकी भविष्यवाणी कभी मिथ्या सिद्ध नहीं होती थी, त्रि-काल पुरुष थे बामा बाबा। उन्हें अनेक अलौकिक शक्तियां प्राप्त थी, उनके जन्मदात्री माँ के श्राद्ध कर्म में तीव्र वर्षा शुरू हुई, बामा ने उस स्थान पर वर्षा का स्तंभन (रोक) किया, जिससे आयोजन सुचारु रूप से चला। उन्होंने जो आदेश दे दिया! उसकी अवज्ञा करने का साहस किसी में नहीं होता था और अगर किसी ने उलंघन किया तो उसे भारी दुष्परिणाम भोगना पड़ता था। बामा कई बार बहुत चिढ़ जाते थे, खिन्न हो जाते थे, भक्तों का ताता लगा रहता था हर किसी की कोई न कोई समस्या होती थीं, कई बार वे क्रुद्ध होकर गली-गलोच करते थे, क्रोध के मारे पागल हो जाते थे। एक बार वे क्रोध में आकर माँ तारा को अपने त्रिशूल से मारने गए, (उन्हें ऐसा लग रहा था की माँ ने जान बूझ कर उन्हें संसार से हटाया तथा इस कार्य में लगा दिया), इस कृत्य पर माँ तारा ने मंदिर में उन्हें इतने जोर से थप्पड़ मारा की वे मंदिर से बहार जा गिरे थे।
७४ वर्ष की आयु में खेपा बाबा ने देह त्याग किया, देह त्याग से पहले वे
बहुत जीर्ण हो गए थे यहाँ तक की उठना-बैठना उनके लिए कठिन हो गया था, नगेन काका उनकी सेवा सुश्रुत करते
थे। एक दिन बाबा एकदम कहने लगे 'लगेन डाक आया हैं', नगेन काका ने उत्तर दिया क्या
उल्टा-पुल्टा बोल रहे हो, माँ की मंगल आरती में बहुत देर हैं अभी सो
जाओ तथा वे भी उनके निकट सो गए। अगले दिन खेपा बाबा ने सुबह द्वारका नदी में
स्नान किया,
तदनंतर नगेन काका, बाबा को पकड़ कर कुटिया तक ले
आयें,
बाबा!
बहुत समय तक माँ के ब्रह्म शिला रूपी चरण पर सर रखकर पड़े रहे तथा
नगेन काका से कहा! मेरी यही पर समाधि देना। उन्होंने दोपहर में बहुत
सामान्य ही माँ का भोग ग्रहण किया, संध्या के समय माँ की संध्या आरती हुई, रात्रि का भोग भी बाबा
ने थोड़ा सा ही खाकर नगेन काका को दे दिया। तदनंतर, वे पञ्च-मुंडी आसन पर
बैठे! जहाँ बैठ कर उन्होंने जीवन भर नाना लीलाएं की थी, अंततः उन्होंने योग
क्रिया शुरू की तथा मध्य रात्रि १ बजे के करीब बाबा का ब्रह्म-तालू
झट से फट गया,
उन्होंने
अपनी
ज्योति
स्वरूपी आत्मा को ब्रह्म-रन्ध से निष्कासित किया।
बामा ने भक्ति की एक ऐसी प्रथा शुरू की जो
अद्वितीय हैं उन्होंने तंत्रोक्त या शास्त्रोक्त विधि का अनुसरण ना कर, आत्मा की भाव भक्ति
का प्रचार किया एवं अपनाया तथा अपने भक्तों तथा शिष्यों को इसी मार्ग के
अनुसरण हेतु प्रेरित किया। उनके अनुसार सर्वदा माँ तारा का नाम लेना ही हर प्रकार के समस्या
निवारण हेतु पर्याप्त था, साथ ही जन्म तथा मृत्यु रूपी चक्र से
मुक्ति प्राप्त करने का भी।
बाल्य-कल से ही बामा की सबसे बड़ी आकांक्षा थी कि माँ तारा उनके हाथ से भोजन करें और एक दिन उनकी यह अभिलाषा भी पूरी हुई। सिद्धि प्राप्ति के पश्चात एक दिन वे मंदिर में माँ की पूजा करने गए, उन्होंने बिना मंत्र के फूल-बेलपत्र माँ को अर्पण करना शुरू किया, जिस पर वहाँ के पुरोहितों ने कहा! माँ बिना मंत्र के जल पुष्प नवैध्य इत्यादि स्वीकार नहीं करती हैं, उन्हें शास्त्रोक्त विधि से द्रव्य, पूजा सामग्री निवेदन करना चाहिए। बामा ने उन सभी से कहा! देखो इस पुष्प पात्र में जितने पुष्प हैं, मैं माँ के विग्रह के सामने उछालूंगा और यह सारे पुष्प, बेल-पत्र माला बनकर माँ के गले में स्वतः ही पड़ जायेगी। बामा द्वारा पुष्प पत्र माँ तारा के विग्रह के सामने उछालते ही, बेल-पत्र, पुष्प माला बनकर माँ के गले में अपने आप चली गई। यह ही नहीं उस दिन बामा के हाथों से माँ तारा ने फल भी खाया। वे सर्वदा ही आत्म शुद्धि एवं निर्मलता, पवित्र ज्ञान, भक्ति को शास्त्रोक्त पूजा साधना पद्धति से श्रेष्ठ मानते थे तथा उन्होंने इस अलौकिक घटना से इस तथ्य को सिद्ध भी किया।
बामा खेपा क्रान्तिकारी स्वतंत्रता सेनानी भी थे, प्रत्यक्ष रूप में तो उन्होंने भारतीय
स्वतंत्रता संग्राम में भाग नहीं लिया। परन्तु उनके शिष्य तारा खेपा जो स्वयं एक सिद्ध हठ योगी थे, उन्हें आर्थिक तथा
अलौकिक शक्तियां प्रदान की। बामा के भक्तों द्वारा दी
जाने वाली दान स्वरूप सामग्री, धन, आभूषण, रत्न इत्यादि, वे तारा खेपा को अस्त्र-शस्त्र संग्रह करने हेतु दे देते
थे।
तारा खेपा बहुत ही क्रुद्ध स्वभाव युक्त तथा योग
सिद्ध पुरुष थे तथा उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में अपनी आध्यात्मिक, अलौकिक शक्तियों के साथ
योगदान
दिया।
(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)
"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक
विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी
न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग
40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके
लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6
महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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