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Wednesday, December 19, 2018

क्या है दस विद्या ? पांचवी विद्या: छिन्नमस्ता


क्या है दस विद्या ? 
पांचवी विद्या: छिन्नमस्ता
 
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi




मित्रो मां दुर्गा की आरती में आता है।
दशविद्या नव दुर्गा नाना शस्त्र करा। अष्ट मातृका योगिनी नव नव रूप धरा॥


अब दशविद्या क्या हैं यह जानने के लिये मैंनें गूगल गुरू की शरण ली। पर सब जगह मात्र कहानी और काली के दस रूपों का वर्णन। अत: मैंनें दशविद्या को जानने हेतु स्वयं मां से प्रार्थना की तब मुझे दशविद्या के साथ काली और महाकाली का भेद ज्ञात हुआ जो मैं लिख रहा हूं। शायद आपको यह व्याख्या भेद कहीं और न मिले। किंतु वैज्ञानिक और तर्क रूप में मैं संतुष्ट हूं।


शाक्त सम्प्रदाय के देवी भागवत पुराण का मंत्र है।


काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्राकृर्तिता।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता।।

छिन्नमस्ता  लेखन और वाक पटुता प्राप्ति की विद्या की प्राप्ति। मतलब स्तम्भन से भी है। सामनेवाले को हत प्रत कर देना।

दिव्योर्वताम सः मनस्विता: संकलनाम । त्रयी शक्ति ते त्रिपुरे घोरा छिन्नमस्तिके।

इस पविवर्तन शील जगत का अधिपति कबंध है और उसकी शक्ति छिन्नमस्ता है। इनका सिर कटा हुआ और इनके कबंध से रक्त की तीन धाराएं बह रही है। इनकी तीन आंखें हैं और ये मदन और रति पर आसीन है। देवी के गले में हड्डियों की माला तथा कंधे पर यज्ञोपवीत है। इसलिए शांत भाव से इनकी उपासना करने पर यह अपने शांत स्वरूप को प्रकट करती हैं। उग्र रूप में उपासना करने पर यह उग्र रूप में दर्शन देती हैं जिससे साधक के उच्चाटन होने का भय रहता है।

माता का स्वरूप अतयंत गोपनीय है। चतुर्थ संध्याकाल में मां छिन्नमस्ता की उपासना से साधक को सरस्वती की सिद्ध प्राप्त हो जाती है। कृष्ण और रक्त गुणों की देवियां इनकी सहचरी हैं। पलास और बेलपत्रों से छिन्नमस्ता महाविद्या की सिद्धि की जाती है। इससे प्राप्त सिद्धियां मिलने से लेखन बुद्धि ज्ञान बढ़ जाता है। शरीर रोग मुक्त होताते हैं। सभी प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष शत्रु परास्त होते हैं। यदि साधक योग, ध्यान और शास्त्रार्थ में साधक पारंगत होकर विख्यात हो जाता है।

कामाख्या के बाद दुनिया के दूसरे सबसे बड़े शक्तिपीठ के रूप में विख्यात मां छिन्नमस्तिके मंदिर काफी लोकप्रिय है। झारखंड की राजधानी रांची से लगभग 79 किलोमीटर की दूरी रजरप्पा के भैरवी-भेड़ा और दामोदर नदी के संगम पर स्थित मां छिन्नमस्तिके का यह मंदिर है। रजरप्पा की छिन्नमस्ता को 52 शक्तिपीठों में शुमार किया जाता है।

महाविद्याओं में पाँचवाँ स्थान पर अवस्थित महाविद्या छिन्नमस्ता हैं, अनावश्यक तथा अत्यधिक वासनाओं, मनोरथों का स्व-त्याग या बलिदान की प्रतीक।
बढ़ी हुई कामनाओं से उत्पन्न विनाश की प्रतीक, महाविद्या छिन्नमस्ता।
 
 
महाविद्याओं की श्रेणी में महाविद्या छिन्नमस्ता पाँचवें स्थान पर अवस्थित हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने अन्य हाथ में धारण की हुई हैं। मस्तक कट जाने के पश्चात भी देवी जीवित हैं, यह देवी की श्रेष्ठ योग साधना की ओर इंगित करती हैं;  योग साधना के उच्चतम स्तर पर अवस्थित हैं महाविद्या छिन्नमस्ता। 
 
 
देवी, प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं, जो अत्यंत उग्र स्वभाव वाली हैं।
देवी का यह स्वरूप घोर डरावना, भयंकर तथा उग्र हैं, देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप अन्य समस्त देवी-देवताओं से भिन्न हैं। देवी स्वयं ही तीनों गुण सात्विक, राजसिक तथा तामसिक का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र पर टिका हुआ हैं। 
 
 
सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं।  
बौद्ध धर्म में देवी, छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से जानी जाती हैं। देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणामस्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छा पर नियंत्रण की प्रतीक हैं। 
 
 
महाविद्या छिन्नमस्ता योग अभ्यास के पर्यन्त इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं।

महाविद्या छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं, जिसे कोई सिद्ध पुरुष ही जान सकता हैं। देवी के कटे हुए गले से रक्त की तीन धार निर्गत हो रही हैं, जिनमें से देवी एक धार से स्वयं रक्त-पान कर रहीं हैं तथा अन्य दो धाराएँ इन्होंने अपने सखी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान कर रखी हैं। 
 
 
इनके साथ इनकी दो सखी सहचरी डाकिनी तथा वारिणी हैं। जिनके क्षुधा निवारण हेतु ही देवी ने अपने ही खड्ग से स्वयं अपने मस्तक को अलग कर दिया। देवी कामदेव-तथा रति के ऊपर विराजमान हैं, यहाँ वे काम या अत्यधिक अनावश्यक वासनाओं से उत्पन्न विनाश को प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी के आभूषण सर्प हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा इन्होंने नर-मुंडो की माला धारण कर राखी हैं। 
 
 
स्वयं अपनी या स्वतः बलिदान देने वाली देवी छिन्नमस्ता, बुद्धि और ज्ञान से संबंधित।
यौन वासनाओं तथा अत्यधिक कामनाओं के त्याग और आत्म नियंत्रण की साक्षात छवि हैं 'देवी छिन्नमस्ता'
 
 
देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने हाथों में धारण करती हैं तथा प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं। देवी एक प्रचंड डरावनी, भयंकर तथा उग्र रूप में विद्यमान हैं। समस्त देवी देवताओं से पृथक देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप हैं, देवी स्वयं ही तीनों गुणों; सात्विक, राजसिक तथा तामसिक, का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। 
 
 
देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र से चलायमान हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ता की आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं तथा बौद्ध धर्म में देवी छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से विख्यात हैं।

देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन के उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं देवी। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणाम स्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति लाभ, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छाओं पर नियंत्रण का प्रतिनिधित्व करती हैं। देवी, योग शक्ति, इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन की विशेषकर प्रतिनिधित्व करती हैं।  समस्त प्रकार के अहंकार को छिन्न-छिन्न करती हैं। 
 
 
देवी के भयंकर उग्र स्वरूप में अत्यधिक कामनाओं तथा मनोरथों से आत्म नियंत्रण के सिद्धांतों का प्रतिपादन करती हैं। देवी छिन्नमस्ता का घनिष्ठ सम्बन्ध, "कुंडलिनी" नामक प्राकृतिक ऊर्जा या मानव शरीर में छिपी हुई प्राकृतिक शक्ति से हैं। कुण्डलिनी शक्ति प्राप्त या जागृत करने हेतु; योग अभ्यास, त्याग तथा आत्म नियंत्रण की आवश्यकता होती हैं। 
 
 
एक परिपूर्ण योगी बनने हेतु, संतुलित जीवन-यापन का सिद्धांत अत्यंत आवश्यक हैं, जिसकी शक्ति देवी छिन्नमस्ता ही हैं, परिवर्तन शील जगत (उत्पत्ति तथा विनाश, वृद्धि तथा ह्रास) की शक्ति हैं देवी छिन्नमस्ता। इस चराचर जगत में उत्पत्ति या वृद्धि होने पर देवी भुवनेश्वरी का प्रादुर्भाव होता हैं तथा विनाश या ह्रास होने पर देवी छिन्नमस्ता का प्रादुर्भाव माना जाता हैं।

देवी, योग-साधना की उच्चतम स्थान पर अवस्थित हैं। योग शास्त्रों के अनुसार तीन ग्रन्थियां ब्रह्मा ग्रंथि, विष्णु ग्रंथि तथा रुद्र ग्रंथि को भेद कर योगी पूर्ण सिद्धि प्राप्त कर पता हैं तथा उसे अद्वैतानंद की प्राप्ति होती हैं। योगियों का ऐसा मानना हैं कि मणिपुर चक्र के नीचे के नाड़ियों में ही काम और रति का निवास स्थान हैं तथा उसी पर देवी छिन्नमस्ता आरूढ़ हैं तथा इसका ऊपर की ओर प्रवाह होने पर रुद्रग्रंथी का भेदन होता हैं।
 
 
देवी छिन्नमस्ता बिखरे बालों युक्त नग्न हो, कामदेव तथा उनकी पत्नी रति देवी के ऊपर अत्यंत उग्र रूप धारण किये हुए, कमल के मध्य में खड़ी हैं। देवी का शारीरिक वर्ण पिला या लाल-पीले रंग का हैं तथा पूर्ण उभरे हुए स्तनों से युक्त देवी सोलह वर्ष कि कन्या के रूप में प्रतीत हो रही हैं। देवी ने मानव मुंडो की माला के साथ सर्पों तथा अन्य अमूल्य रत्नों से युक्त आभूषण धारण कर रखी हैं, देवी सर्प रूपी यज्ञोपवित धारण करती हैं।

देवी, मस्तक पर अमूल्य रत्नों से युक्त मुकुट तथा अर्ध चन्द्र धारण करती हैं, तीन नेत्र से युक्त हैं। देवी छिन्नमस्ता के दाहिने हाथ में स्वयं का कटा हुआ मस्तक रखा हुआ हैं जो उन्होंने स्वयं अपने खड्ग से काटा हैं तथा बायें हाथ में वह खड़ग धारण करती हैं जिससे उन्होंने अपना मस्तक कटा हैं। 
 
 
देवी के कटे हुए गर्दन से रक्त की तीन धार निकल रही हैं, एक धार से देवी स्वयं रक्त पान कर रही हैं तथा अन्य दो धाराओं से देवी की सहचरी योगिनियाँ रक्त पान कर रही हैं।
दोनों योगिनियों का नाम जया तथा विजया या डाकिनी तथा वारिणी हैं। देवी, स्वयं तथा दोनों सहचरी योगिनियों के संग सहर्ष रक्त पान कर रही हैं। 
 
 
देवी की दोनों सहचरियां भी नग्नावस्था में खड़ी हैं तथा अपने हाथों में खड़ग तथा मानव खप्पर धारण की हुई हैं। देवी की सहचरी डाकिनी तमो गुणी (विनाश की प्राकृतिक शक्त) एवं गहरे वर्ण युक्त तथा वारिणी की उपस्थिति लाल रंग तथा राजसिक गुण (उत्पत्ति से सम्बंधित प्राकृतिक शक्ति) युक्त हैं।
देवी अपने दो सहचरियों के साथ अत्यंत भयानक, उग्र स्वरूप वाली प्रतीत होती हैं, क्रोध के कारण उपस्थित महा-विनाश की प्रतीक है! देवी छिन्नमस्ता।

नारद-पंचरात्र के अनुसार, एक बार देवी पार्वती अपनी दो सखियों के साथ मंदाकिनी नदी में स्नान हेतु गई। नदी में स्नान करते हुए, देवी पार्वती काम उत्तेजित हो गई तथा उत्तेजना के फलस्वरूप उनका शारीरिक वर्ण काला पड़ गया। उसी समय, देवी के संग स्नान हेतु आई दोनों सहचरी डाकिनी और वारिणी, जो जया तथा विजया नाम से भी जानी जाती हैं क्षुधा (भूख) ग्रस्त हुई और उन दोनों ने पार्वती देवी से भोजन प्रदान करने हेतु आग्रह किया।

देवी पार्वती ने उन दोनों सहचरियों को धैर्य रखने के लिये कहा तथा पुनः कैलाश वापस जाकर भोजन देने का आश्वासन दिया। परन्तु, उनके दोनों सहचरियों को धैर्य नहीं था, वे दोनों तीव्र क्षुधा का अनुभव कर रहीं थीं तथा कहने लगी! "देवी आप तो संपूर्ण ब्रह्मांड की माँ हैं और एक माता अपने संतानों को केवल भोजन ही नहीं अपितु अपना सर्वस्व प्रदान कर देती हैं।

संतान को पूर्ण अधिकार हैं कि वह अपनी माता से कुछ भी मांग सके, तभी हम बार-बार भोजन हेतु प्रार्थना कर रहे हैं। आप दया के लिए संपूर्ण जगत में विख्यात हैं, परिणामस्वरूप देवी को उन्हें भोजन प्रदान करना चाहिए।" सहचरियों द्वारा इस प्रकार दारुण प्रार्थना करने पर देवी पार्वती ने उनकी क्षुधा निवारण हेतु, अपने खड़ग से अपने मस्तक को काट दिया, तदनंतर, देवी के गले से रक्त की तीन धार निकली। एक धार से उन्होंने स्वयं रक्त पान किया तथा अन्य दो धाराएं अपनी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान किया। इस प्रकार देवी ने स्वयं अपना बलिदान देकर अपनी सहचरियों के क्षुधा का निवारण किया।

देवी छिन्नमस्ता के उत्पत्ति से संबंधित एक और कथा प्राप्त होती हैं! जो समुद्र मंथन के समय से सम्बंधित हैं। एक बार देवताओं और राक्षसों ने अमृत तथा अन्य प्रकार के नाना रत्नों के प्राप्ति हेतु समुद्र मंथन किया। देवताओं और राक्षसों दोनों नाना रत्न प्राप्त कर शक्तिशाली बनना चाहते थे, सभी रत्नों में अमृत ही सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रत्न था, जिसे प्राप्त कर अमरत्व प्राप्त करने हेतु, देव तथा दानव समुद्र मंथन कर रहे थे।

समुद्र मंथन से कुल १८ प्रकार के रत्न प्राप्त हुए, देवताओं के वैध धन्वन्तरी, अमृत कलश के साथ अंत में प्रकट हुए। तदनंतर देवताओं और राक्षसों दोनों में अमृत कलश प्राप्त करने हेतु, भारी उत्पात हुआ अंततः देवताओं से दैत्य अमृत कलश लेने में सफल हुए। समस्या के निवारण हेतु भगवान विष्णु ने मोहिनी अवतार धारण किया। अपने नाम के स्वरूप ही देवी मोहिनी ने असुरों को मोहित कर लिया तथा असुर-राज बाली से अमृत कलश प्राप्त कर, देवताओं तथा दानवों को स्वयं अमृत पान करने हेतु तैयार कर लिया। मोहिनी अवतार में स्वयं आद्या शक्ति महामाया ही भगवान विष्णु से प्रकट हुई थी। देवी मोहिनी ने छल से सर्वप्रथम देवताओं को अमृत पान कराया तथा शेष स्वयं पान कर, अपने हाथों से अपने मस्तक को धर से अलग कर दिया, जिससे अब और कोई अमृत प्राप्त न कर सकें।

सामान्यतः देवी छिन्नमस्ता के भयावह तथा उग्र स्वरूप के कारण, स्वतंत्र रूप से या घरों में उनकी पूजा नहीं करते हैं। देवी के कुछ-एक मंदिरों में उनकी पूजा-आराधना की जाती हैं, देवी छिन्नमस्ता तंत्र क्रियाओं से सम्बंधित हैं तथा तांत्रिकों या योगियों द्वारा ही यथाविधि पूजित हैं। देवी की पूजा साधना में विधि का विशेष ध्यान रखा जाता हैं, देवी से सम्बंधित एक प्राचीन मंदिर रजरप्पा में हैं, जो भारत वर्ष के झारखंड राज्य के रामगढ़ जिले में अवस्थित हैं। देवी का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं इसे केवल सिद्ध साधक ही जान सकता हैं। देवी की साधना रात्रि काल में होती हैं तथा देवी का सम्बन्ध तामसी गुण से हैं।

देवी अपना मस्तक काट कर भी जीवित हैं, यह उनकी महान यौगिक (योग-साधना) उपलब्धि हैं। योग-सिद्धि ही मानवों को नाना प्रकार के अलौकिक, चमत्कारी तथा गोपनीय शक्तियों के साथ पूर्ण स्वस्थता प्रदान करती हैं।

वास्तव में यह कुण्डलनी शक्ति को व्यक्त करती हैं। यह स्वयं सुषुम्ना नाडी का प्रतीक हैं। सहचरी देवियां इडा पिंगला हैं। जब मनुष्य का अहंकार नष्ट होता है तब उसकी कुण्डलनी शक्ति जागृत होकर सुषुम्ना में प्रवेश करती है। यही चित्र के देवी रूप को समझाता है।
  • मुख्य नाम : छिन्नमस्ता।
  • अन्य नाम : छिन्न-मुंडा, छिन्न-मुंडधरा, आरक्ता, रक्त-नयना, रक्त-पान-परायणा, वज्रवराही।
  • भैरव : क्रोध-भैरव।
  • भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : भगवान नृसिंह अवतार।
  • तिथि : वैशाख शुक्ल चतुर्दशी।
  • कुल : काली कुल।
  • दिशा : उत्तर।
  • स्वभाव : उग्र, तामसी गुण सम्पन्न।
  • कार्य : सभी प्रकार के कार्य हेतु दृढ़ निश्चितता, फिर वह अपना मस्तक ही अपने हाथों से क्यों न काटना हो, अहंकार तथा समस्त प्रकार के अवगुणों का छेदन करने हेतु शक्ति प्रदाता, कुण्डलिनी जाग्रति में सहायक।
  • शारीरिक वर्ण : करोड़ों उदित सूर्य के प्रकाश समान कान्तिमयी।

छिन्नमस्ता का मंत्र :
रूद्राक्ष माला से दस माला प्रतिदिन 'श्रीं ह्नीं ऎं वज्र वैरोचानियै ह्नीं फट स्वाहा' मंत्र का जाप कर सकते हैं। जाप के नियम किसी जानकार से पूछें।

दस महाविद्या में छिन्नमस्ता के शिव के रूप अवतार हैं क्रोध भैरव ।
दस महाविद्या में  छिन्नमस्ता का विष्णु रूप अवतार है नृसिंह । 
 

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 जय मां छिन्नमस्ता

 
 

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