Search This Blog

Friday, December 28, 2018

शिर्डी साईं के गुरू थे लाहिडी महाराज



शिर्डी साईं के गुरू थे लाहिडी महाराज

 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
 फोन : (नि.) 022 2754 9553  (का) 022 25591154   
मो.  09969680093
  - मेल: vipkavi@gmail.com  वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"



परमहंस योगानंद के गुरु स्वामी युत्तेश्वर गिरी लाहिड़ी महाशय के शिष्य थे। कहते हैं कि शिर्डी सांईं बाबा के गुरु भी लाहिड़ी बाबा थे। लाहिड़ी बाबा से संबंधित पुस्तक 'पुराण पुरुष योगीराज श्री श्यामाचरण लाहिड़ी' में इसका उल्लेख मिलता है। इस पुस्तक को लाहिड़ीजी के सुपौत्र सत्यचरण लाहिड़ी ने अपने दादाजी की हस्तलिखित डायरियों के आधार पर डॉ. अशोक कुमार चट्टोपाध्याय से बांग्ला भाषा में लिखवाया था। बांग्ला से मूल अनुवाद छविनाथ मिश्र ने किया था।


श्यामाचरण लाहिड़ी का जन्म 30 सितंबर 1828 को पश्चिम बंगाल के कृष्णनगर के घुरणी गांव में हुआ था। योग में पारंगत पिता गौरमोहन लाहिड़ी जमींदार थे। मां मुक्तेश्वरी शिवभक्त थीं। काशी में उनकी शिक्षा हुई। विवाह के बाद नौकरी की। 23 साल की उम्र में इन्होंने सेना की इंजीनियरिंग शाखा के पब्लिक वर्क्स विभाग में गाजीपुर में क्लर्क की नौकरी कर ली।

23 नबंबर 1868 को इनका तबादला हेड क्लर्क के पद पर रानीखेत (अल्मोड़ा) के लिए हो गया। प्राकृतिक छटा से भरपूर पर्वतीय क्षेत्र उनके लिए वरदान साबित हुआ। एक दिन श्यामाचरण निर्जन पहाडी रास्ते से गुजर रहे थे तभी अचानक किसी ने उनका नाम लेकर पुकारा। श्यामाचरण ने देखा एक संन्यासी पहाड़ी पर खड़े थे। वे नीचे की ओर आए और कहा- डरो नहीं, मैंने ही तुम्हारे अधिकारी के मन में गुप्त रूप से तुम्हें रानीखेत तबादले का विचार डाला था। उसी रात श्यामाचरण को द्रोणागिरि की पहाड़ी पर स्थित एक गुफा में बुलाकर दीक्षा दी। दीक्षा देने वाला कोई और नहीं, कई जन्मों से श्यामाचरण के गुरु महाअवतार बाबाजी थे। श्यामाचरण लाहिड़ी ने 1864 में काशी के गरूड़ेश्वर में मकान खरीद लिया फिर यही स्थान क्रिया योगियों की तीर्थस्थली बन गई। योगानंद को ‍पश्‍चिम में योग के प्रचार प्रसार के लिए उन्होंने ही चुना। 


सन 1861 में काशी के एक एकाकी कोने में एक महान आध्यात्मिक पुनरुत्थान का श्रीगणेश हुआ। साधारण लोक समाज इससे पूर्णत: अनभिज्ञ था। जिस प्रकार फूलों की सुगन्ध को छिपा कर नहीं रखा जा सकता, उसी प्रकार आदर्श गृहस्थ का जीवन चुपचाप व्यतीत करते लाहिड़ी महाशय अपने स्वाभाविक तेज को छिपाकर नहीं रख सके। भारत के कोने कोने से भक्त-भ्रमर इस जीवन्मुक्त सद्गुरु से सुधापान करने के लिये मँड़राने लगे।

दिन प्रति दिन महान् गुरु एक-दो साधकों को क्रिया योग की दीक्षा देते थे। अपने इन आध्यात्मिक कर्त्तव्यों एवं व्यावसायिक तथा पारिवारिक जीवन के उत्तरदायित्वों के अलावा वे शिक्षा के क्षेत्र में भी सोत्साह हिस्सा लेते थे। उन्होंने कर्इ घरों में छोटी-छोटी पाठशालाएँ शुरू करवा दी थीं और काशी के बंगाली टोला मुहल्ले में एक बड़े हाइस्कूल के विकास में सक्रिय योगदान दिया था। साप्ताहिक सभाओं में, जो बाद में ‘‘गीता-सभा’’ के नाम से प्रतिष्ठित हुर्इ, महान गुरु अनेक जिज्ञासुओं को शास्त्रों का अर्थ समझाते थे।


इन बहुमुखी गतिविधियों द्वारा लाहिड़ी महाशय उस सामान्य प्रतिवाद का उत्तर देने की चेष्टा कर रहे थे।  ‘‘व्यावसायिक और सामाजिक कर्त्तव्यों को निभाते-निभाते ध्यान-धारणा का समय ही कहाँ बचता है?’’ इस महान गृहस्थ-योगी गुरु का पूर्ण संतुतिल जीवन हजारों नर-नारियों के लिये प्रेरणा का स्त्रोत बना। केवल साधारण-सा वेतन पाते हुए भी, किफायती खर्च करते हुए ये आड़म्बरहीन गुरु, जिनके पास कोर्इ भी पहुँच सकता था, अत्यंत स्वाभाविक तरीके से सुखपूर्वक संयमित सांसारिक जीवन व्यतीत कर रहे थे।


साक्षात परमात्मा के आसन पर विराजमान होते हुए भी लाहिड़ी महाशय बिना किसी भेदभाव के सभी लोगों का आदर करते थे। जब उनके भक्त उन्हें प्रणाम करते, तो वे भी उत्तर में उन्हें नमस्कार करते। गुरु के पाँव छूने की प्राचीन प्रथा होते हुए भी वे स्वयं ही शिशु सुलभ विन्रमता के साथ दूसरों के पाँव छू लेते थे, पर दूसरों को कभी अपने पाँव नहीं छूने देते थे।


हर धर्म के लोगों को क्रिया योग दीक्षा का दान लाहिड़ी महाशय के जीवन की एक उल्लेखनीय विशिष्टता थी। केवल हिंदू ही नहीं, बल्कि उनके प्रमुख शिष्यों में मुसलमान और र्इसार्इ भी थे। द्वैतवादी हो या अद्वैतवादी, चाहे वह किसी भी धर्म का अनुयायी हो या किसी भी प्रचलित धर्म को न मानता हो, विश्वगुरु सबका निष्पक्ष रूप से स्वागत करते और उन्हें शिक्षा देते थे। उनके एक मुसलमान शिष्य अब्दुल गफूर खान अत्यंत ऊँची अवस्था में पहुँचे हुए थे। स्वयं सर्वोच्च ब्राह्मण जाति के होते हुए भी लाहिड़ी महाशय ने अपने समय की कट्टर जाति व्यवस्था को तोड़ने की दिशा में साहसिक कदम उठाये थे। जीवन के सभी क्षेत्रों के लोगों को इस गुरु की सर्वव्यापी छत्रछाया में आसरा मिलता था। सभी र्इश-प्रेरित संतो  के समान ही लाहिड़ी महाशय ने भी समाज के पतित-दलितों के हृदयों में आशा की नयी किरण जगायी।


‘‘यह याद रखो कि तुम किसी के नहीं हो और कोर्इ तुम्हारा नहीं है। इस पर विचार करो कि किसी दिन तुम्हें इस संसार का सब कुछ छोड़कर चल देना होगा, इसलिये अभी से ही भगवान को जान लो,’’ महान गुरु अपने शिष्यों से कहते।
‘‘र्इश्वरानुभूति के गुब्बारे में प्रतिदिन उड़कर मृत्यु की भावी सूक्ष्म यात्रा के लिये अपने को तैयार करो। माया के प्रभाव में तुम अपने को हाड़-मांस की गठरी मान रहे हो, जो दु:खों का घर मात्र है।’’ अनवरत ध्यान करो ताकि तुम जल्दी से जल्दी अपने को सर्व-दु:ख-क्लेशमुक्त अनन्त परमतत्त्व के रूप में पहचान सको। क्रियायोग की गुप्त कुंजी के उपयोग द्वारा देह-कारागार से मुक्त होकर परमतत्त्व में भाग निकलना सीखो।’’


गुरुवर अपने विभिन्न शिष्यों को अपने-अपने धर्म के अच्छे परम्परागत नियमों का निष्ठा के साथ पालन करने के लिये प्रोत्साहित करते थे। मुक्ति की व्यावहारिक प्रविधि के रूप में क्रियायोग के सर्वसमावेशक स्वरूप  के महत्व को स्पष्ट करने के बाद फिर लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को अपने-अपने वातावरण एवं पालन-पोषण के अनुसार अपना जीवन जीने की स्वतन्त्रता देते थे।


वे कहते थे: ‘‘मुसलमान को रोज पाँच बार नमाज पढ़ना चाहिये। हिन्दू को दिन में कर्इ बार ध्यान में बैठना चाहिये। र्इसार्इ को रोज कर्इ बार घुटनों के बल बैठकर प्रार्थना करके फिर बाइबिल का पाठ करना चाहिये।’’


लाहिड़ी महाशय अत्यंत विचारपूर्वक अपने अनुयायियों को उनकी स्वाभाविक प्रवृत्तियों के अनुसार भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग या राजयोग के मार्ग पर चलाते थे। संन्यास लेने की इच्छा रखने वाले शिष्यों  को वे आसानी से उसकी अनुमति नहीं देते थे। हमेशा उन्हें संन्यास-जीवन की उग्र तपश्चर्या पर पहले भलीभाँति विचार कर लेने का परामर्श देते थे। अपने शि”यों को वे शास्त्रों की अनुमानमूलक चर्चा में न उलझने का परामर्श देते थे।


वे कहते: ‘‘केवल वही बुद्धिमान है, जो प्राचीन दर्शनों का केवल पठन-पाठन करने के बजाय उनकी अनुभूति करने का प्रयास करता है। ध्यान में ही अपनी सब समस्याओं का समाधान ढूँढ़ो। व्यर्थ अनुमान लगाते रहने के बदले र्इश्वर से प्रत्यक्ष सम्पर्क करो। शास्त्रों के किताबी ज्ञान से उत्पन्न मतांध धारणाओं के कचरे को अपने मन से निकाल फेंको और उसके स्थान पर प्रत्यक्ष अनुभूति के आरोग्यप्रद मीठे जल को अंदर आने दो। अन्तरात्मा के सक्रिय मार्गदर्शन से मन की तार को जोड़ लो; उसके माध्यम से बोलने वाली र्इश्वर-वाणी के पास जीवन की प्रत्येक समस्या का उत्तर है। अपने आप को संकट में डालने के मामले में मनुष्य की प्रतिभा का कोर्इ अंत प्रतीत नहीं होता, पंरतु उस परम दयालु र्इश्वर के पास सहायता की युक्तियों की भी कोर्इ कमी नहीं है।’’


एक दिन भगवतगीता पर लाहिड़ी महाशय का प्रवचन सुन रहे शिष्यों को उनकी सर्वव्यापकता की झलक देखेने को मिली। लाहिड़ी महाशय सकल स्पन्दनशील सृष्टि में व्याप्त कूटस्थ चैतन्य का अर्थ समझा रहे थे। तभी हठात् वे हाँफने लगे मानो उनका दम घुट रहा था, और साथ ही चिल्ला उठे:
‘‘जापान के समुद्र तट के पास मैं अनेक लोगों के शरीरों के माध्यम से डूब रहा हूँ।’’
कुछ दिनों बाद शिष्यों ने समाचार पत्रों में उस दिन जापान के पास डूबे एक जहाज में यात्रा कर रहे अनेक लोगों की डूबने से मृत्यु का समाचार पढ़ा।


अनेक दूर-दूर तक रहने वाले शिष्यों को अपने इर्दगिर्द लाहिड़ी महाशय की संरक्षक एवं मार्गदर्शक उपस्थिति का अनुभव होता था। जो शिष्यगण परिस्थितिवश उनके पास नहीं रह सकते थे, उन्हें लाहिड़ी महाशय सांत्वना देते हुए कहते थे: ‘‘जो क्रिया का अभ्यास करते हैं, उनके पास मैं सदैव रहता हूँ। तुम्हारी अधिकाधिक व्यापक बनती जाती आध्यात्मिक अनुभतियों के माध्यम से मैं परमपद प्राप्त करने में तुम्हारा मार्गदर्शन करूँगा।’’


लाहिड़ी महाशय के एक मुख्य शिष्य श्री भूपेन्द्रनाथ सन्याल ने बताया कि 1892 र्इस्वी में, जब वे किशोरावस्था में थे, तो काशी जाने में असमर्थ होने के कारण उन्होंने आध्यात्मिक उपदेश के लिये लाहिड़ी महाशय से प्रार्थना की। लाहिड़ी महाशय ने उनके स्वप्न में आकर उन्हें दीक्षा दी। बाद में किशोर भूपेन्द्रनाथ काशी गये और वहाँ उन्होंने लाहिड़ी महाशय से दीक्षा के लिये अनुरोध किया। लाहिड़ी महाशय ने उत्तर दिया।  ‘‘मैंने स्वप्न में तुम्हें पहले ही दीक्षा दे दी है।’’
यदि कोर्इ शिष्य किसी सांसारिक दायित्व की उपेक्षा करता, तो लाहिड़ी महाशय उसे प्यार से समझाकर रास्ते पर ले आते।


‘‘जब किसी शिष्य के दोषो के बारे में खुले आम बोलने के लिये उन्हें विवश होना पड़ता, तब भी लाहिड़ी महाशय अत्यंत सौम्य और शान्तिदायक शब्दों में बोलते थे, ‘‘श्रीयुक्तेश्वरजी ने एक बार मुझे बताया। फिर विचारमग्न होते हुए आगे कहा: ‘‘कोर्इ भी शिष्य कभी हमारे गुरुदेव की फटकार से बचने के लिये भागा नहीं।’’ मैं अपनी हँसी को रोक नहीं सका, परंतु मैंने सच्चे हृदय से अपने गुरु को विश्वास दिलाया कि तीखा हो या कोमल, उनका हर शब्द मेरे कानों के लिये मधुर संगीत के समान है।


लाहिड़ी महाशय ने अत्यंत विचारपूर्वक क्रियायोग को साधक की प्रगति के अनुसार चार क्रमों में दी जाने वाली दीक्षाओं में विभाजित किया। साधक की एक निश्चित हद तक उन्नति होने के बाद ही वे उसे तीन उच्चतर क्रियाओं की दीक्षा देते थे। एक शिष्य को ऐसा लग रहा था कि उसका उचित मूल्यांकन नहीं हो रहा है। एक दिन उसने अपना असंतोष शब्दों में प्रकट किया। उसने कहा : ‘‘गुरुदेव! अब तो मैं निश्चय ही द्वितीय दीक्षा पाने के योग्य हो गया हूँ।’’ उसी समय दरवाजा खुला और एक विन्रम साधक, वृन्दा भगत ने कमरे में प्रवेश किया। वे काशी में पोस्टमैन थे। ‘‘वृन्दा! यहाँ मेरे पास आकर बैठो।’’ महान् गुरु उनकी ओर देखकर स्नेहापूर्वक मुस्कराये। ‘‘यह बताओ कि क्या तुम द्वितीय क्रिया के योग्य हो गये हो?’’
पोस्टमैन ने दीनभाव से हाथ जोड़ दिये और चौकन्ने होकर कहा : ‘‘गुरुदेव! अब मुझे और कोर्इ दीक्षा नहीं चाहिये! किसी उच्चतर शिक्षा को अब मैं कैसे आत्मसात् कर सकता हूँ? आज तो मैं आपका आशीर्वाद माँगने ही आया था, क्योंकि प्रथम क्रिया से ही मुझे ऐसा दिव्य नशा चढ़ जाता है कि ठीक से अपना पत्र बाँटने का काम भी नहीं कर पा रहा हूँ।


‘‘वृन्दा ब्रह्मानन्द सागर में पहले ही तैर रहा है।’’ लाहिड़ी महाशय के मुख से ये शब्द सुनकर उस द्वितीय दीक्षा माँगने वाले शिष्य ने शर्म से अपना सिर झुका लिया और कहा : ‘‘गुरुदेव! मेरी समझ में आ गया है कि मैं एक ऐसा घटिया कारीगर हूँ, जो अपने औजारों को ही दोष दिया करता है।’’
बाद में उस दीनअशिक्षित पोस्टमैन ने क्रिया के द्वारा अपनी अंतदृष्टि को इतना विकसित कर लिया कि कभी-कभी विद्वान और पंडित भी शास्त्रों के जटिल मुद्दों पर उसका मत जानने के लिये उसके पास पहुँच जाते थे। वाक्यों और शब्दों की रचना से तथा अहंकार और पाप से अनभिज्ञ वृन्दा विद्वान पंडितों में प्रख्यात हो गया।


काशी के असंख्य शिष्यों  के अतिरिक्त भारत के सुदूर भागों से भी सैंकड़ो लोग लाहिड़ी महाशय के पास आते थे। लाहिड़ी महाशय स्वयं भी अपने दो पुत्रों के ससुराल वालों से मिलने के लिये अनेक बार बंगाल में जाते थे। इस प्रकार बार-बार उनकी उपस्थिति से पावन हुए बंगाल में क्रिया योगियों की छोटी-छोटी मंडलियों का जाल-सा बन गया। विशेषत: कृष्णनगर एवं विष्णुपुर जिलों में चुपचाप अपनी साधना करने वाले अनेकानेक साधकों ने आज तक आध्यायित्मक ध्यान की अदृश्य धारा को बहती रखा है।


लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा प्राप्त करने वाले अनेकानेक संतों में काशी के प्रख्यात स्वामी भास्करानन्द सरस्वती तथा देवघर के अत्यंत उच्च कोटि के तपस्वी बालानन्द ब्रह्मचारी भी थे। कुछ समय के लिये लाहिड़ी महाशय काशी के महाराजा र्इश्वरी नारायण सिंह बहादुर के पुत्र के निजी शिक्षक भी रहे थे। उनकी आध्यात्मिक उपलब्धियों को पहचान कर महाराजा एवं उनके पुत्र, दोनों ने लाहिड़ी महाशय से क्रिया दीक्षा ली। महाराजा ज्योतीन्द्र मोहन ठाकुर ने भी उनसे दीक्षा ली।


वे कहते थे ‘‘क्रियायोग रूपी पुष्प की सुगंध को स्वाभाविक रूप से अपने आप फैलने दो। क्रिया योग का बीज आध्यात्मिक दृष्टि से उर्वरा हृदय-भूमियों में निश्चित रूप से जड़ पकड़ेगा। लाहिड़ी महाशय ने संगठन या मुद्रणालय के आधुनिक माध्यम से प्रचार करने की पद्धति का अवलम्ब नहीं किया, तथपि वे जानते थे कि  उनके संदेश की शक्ति रोकी न जा सकने वाली बाढ़ की भँति उमड़ पड़ेगी और अपने शक्तिवेग से मानव - मनों में घुस जायेगी। उनके शिष्यों का परिवर्तित और शुद्ध हुआ जीवन क्रिया की अमर-अपार शक्ति का प्रत्यक्ष प्रमाण था।


रानीखेत में दीक्षा ग्रहण करने के 24 वर्ष बाद सन 1886 र्इस्वी में लाहिड़ी महाशय पेंशन पर रिटायर हो गये। अब दिन में भी उनके उपलब्ध होने के कारण उनके पास आने वाल भक्तों की संख्या में अधिकाधिक वृद्धि होती गयी। अब महान गुरु अधिकांश समय निश्चल पद्मासन में मौन बैठे रहते थे। वे सदा अपने छोटे से बैठकखाने में ही बैठे रहते थे।  यहाँ तक कि कभी टहलने जाने या घर के दूसरे हिस्सों में जाने के लिये भी वे शायद ही कभी वहाँ से उठते थे गुरु के दर्शन के लिय शिष्यों के आगमन का क्रम लगभग अखंड रूप से चलता रहता था।


लाहिड़ी महाशय के शरीर में अधिकांश समय अतिमानवी लक्षणों का दिखायी देना प्राय: दर्शनार्थियों को चिंता और विस्मय में डाल देता था; जैसे श्वासरहितता, निद्रारहितता, नाड़ी और हृदय की धड़कन का रुका हुआ होना, घंटों तक पलकें झपकाये बिना शान्त आँखों का खुला होना, और उनके चारों ओर शान्ति का प्रगाढ़ वलय हो।

क्या आप इस बात पर यकीन कर सकते हैं कि आपने किसी व्यक्ति को सामने बिठाकर खुद उसकी तस्वीरें ली लेकिन जब फोटो देखा तो वह उससे गायब था। एक आम इंसान के लिए तो कम से कम ऐसी बातों पर यकीन करना मुश्किल है... लेकिन आपको जानकर आश्चर्य होगा कि यह कोरी कल्पना नहीं, बल्कि हकीकत है।
आम इंसानों के लिए यह असंभव सी बात है, लेकिन कुछ योग क्रियाओं में शरीर के अणुओं को समाहित तथा ऊर्जा को समत्व करते हुए उसे अपने अनुसार एकसार किया जा सकता है। पर यह इतनी कठिन और अनुशासनात्मक प्रकिया है कि हर किस के लिए करना संभव नहीं है। खुद को कड़े अनुशासन में रखने वाला कोई संत ही ऐसा कर सकता है और जिसने इसे कर लिया उसके लिए ऐसे चमत्कार करना संभव है। इसका उदाहरण यह घटना है।  
यह अदभुत घटना जुड़ी है परमहंस योगानंद के गुरु लाहिड़ी महाराज से, जो 18वीं सदी में क्रिया योग के बहुत बड़े गुरु थे। उन्होंने यह योग 1861 में अपने गुरु महावतार बाबाजी से सीखा था। परमहंस योगानंद के घर पर ही लाहिड़ी महाराज की वह एकलौती तस्वीर मौजूद थी जिसकी पूजा उनका पूरा परिवार करता था। वह तस्वीर लाहिड़ी महाराज के पिता भगवती चरण घोष ने उन्हें दिया था।

पब्लिक वर्क्स डिपार्टमेंट , मिलिटरी ईन्जीनीयरिंग वर्क्स का आफिस. स्थान - दानापुर.
आफिस के लाहिरी महाशय कुछ फाईलें लेकर बड़े साहब के कमरे के पास आकर कहा-``क्या मैं अन्दर आ सकता हूँ, सर?``

भीतर से कोई जवाब नहीं आया तो लाहिरी महाशय ने धीरे से भीतर जाकर उनकी मेज पर फाईलें रख दी। साहब दार्शनिकों की तरह खिडकी के बाहर का दृश्य देख रहे थे। आधे घंटे बाद पुनः कुछ फाईलें लेकर लाहिरी महाशय आये तो देखा- साहब पहले की तरह खोये खोये से हैं। `सर` साहब ने गौर से लाहिरी महाशय की ओर देखते हुए कहा-`` आज मन नहीं लग रहा है।  आप फाईलें रख कर जा सकते हैं। “ लाहिरी महाशय ने नम्रतापूर्वक पूछा -``क्षमा करें सर,  आखिर क्या बात है? मेरे योग्य कोई सेवा हो तो हुक्म कीजिए``


साहब ने गहरी सांस लेते हुए कहा-“इंग्लैंड से पत्र आया है मेरी पत्नी सख्त बीमार है।  समझ नहीं आ रहा कि क्या करूँ ? वहां होता तो देखभाल करता ``लाहिरी महाशय ने कहा-`` तभी सोच रहा हूँ कि क्या बात है जो साहब फाईल में हाथ नहीं लगा रहे हैं।  मैं थोड़ी देर बाद आता हूँ``
लाहिरी महाशय की बातें सुनकर साहब का उदास चेहरा मुस्कान में बदल गया।  आफिस के सभी बाबू इस करानी बाबू को -पगला बाबू- कहते थे।  हमेशा न जाने कहाँ खोये से रहते थे। बातें करते समय हमेशा मुस्कुराते रहते थे।  आँखें ढापी ढापी सी रहती थीं।  अपने में मस्त रहते थे।


थोड़ी देर बाद साहब के कमरे का दरवाजा खुला और लाहिरी महाशय भीतर आये।  साहब ने कहा-``आज मैं कुछ भी नहीं करूँगा।  आप कृपया मुझे तंग न करें।  अब फाईलों का काम कल होगा``। साहब की बातें सुनकर लाहिरी महाशय ने कहा-``सर, आप बिलकुल बेफिक्र रहिये।  मेम साहब स्वस्थ हो गयीं हैं।  वे आपको आज की तारीख में पत्र लिख रहीं हैं।  अगली मेल से आपको पत्र मिल जाएगा. सिर्फ यही नहीं, टिकट मिलते ही वे अगले जहाज़ से भारत के लिए रवाना हो जायेंगी।


इधर लाहिरी महाशय अपनी बात कह रहे थे उधर साहब मुस्कुरा रहे थे. साहब ने कहा-`` आप तो इस तरह कह रहे हैं जैसे मेरी पत्नी से मिलकर आ रहे हों।  पगला बाबू आपकी बातों से निःसंदेह मुझे सांत्वना मिली है।  इसके लिए आपको धन्यवाद, अब आप अपनी टेबुल पर चले जाईये। ``लाहिरी महाशय मुस्कुरा कर अपने टेबुल पर चले गए।  गोरे साहब ने बात पर ध्यान नहीं दिया। एक महीने बाद साहब के चपरासी ने लाहिरी महाशय को कहा कि साहब ने याद किया है। साहब इन्हें देखते ही बोले-`` पगला बाबू क्या आप ज्योतिष वगैराह जानते हैं ? आप कमाल के आदमी हैं।  आपकी बात सही निकली।``श्यामाचरण जी अनजान बनते हुए बोले-``कौन सी बात सर जी``

साहब बड़ी प्रसन्नता से बोले-`` आपने मेरी पत्नी के बारे में जो कुछ कहा सब सच निकला।  वो बिलकुल ठीक हो गयी है और भारत के लिए रवाना हो चुकी हैं।  मैं बहुत चिंता में था।  मैडम को आने दो। उनकी मुलाक़ात आपसे करवाऊंगा। इस घटना के २०-२५ दिन बाद एक दिन लाहिरी महाशय को फिर साहब ने बुलवा भेजा।  साहब के कमरे में पहुँचते ही साहब बोले-``आओ पगला बाबू ये ही हैं मेरी मैडम और ये हैं.......````माई गाड``-कहने के साथ ही मेम साहिबा अपनी कुर्सी से उछल पड़ी जैसे करेंट लगा हो। साहब ने चौंक कर पूछा-``क्या बात है?`` मेम साहब लाहिरी महाशय को देखते बोली-``आप कब आये?``साहब ने कहा-``ये क्या कह रही हो, क्या मजाक है? पगला बाबू कब आये मतलब। ये तो यहीं काम करते हैं।`` लाहिरी महाशय मुकराते हुए बिना कुछ बोले बाहर निकल गए।  उनके जाने के बाद मेम साहिबा बोलीं-`` बड़े आश्चर्य की बात है जैसे मैं यहाँ आकर जादू देख रही हूँ।  घर में जब बीमार थी तब एक दिन यही आदमी मेरे सिरहाने खडा होकर सर पर हाथ फेरता रहा। मुझे घोर आश्चर्य हुआ कि ये आदमी आखिर घर में घुस कैसे गया।  लेकिन दुसरे ही क्षण इसने मुझे सहारा देकर बिस्तर पर जब बैठाया तो मेरी सारी बीमारी दूर हो गयी।  मुझे अजीब सा लगा।  इसने कहा- बेटी तुम बिलकुल ठीक हो गयी हो।  अब तुम्हें कोई कष्ट नहीं होगा।  भारत में तुम्हारे पति बड़े बेचैन हैं।  उन्हें अभी पत्र लिख कर पोस्ट कर दो।  कल ही जहाज़ का टिकट बुक करा कर भारत चली जाओ, वरना साहब नौकरी छोड़ कर वापिस आ जायेंगे।  इतना कहकर आपके पगला बाबू गायब हो गए और आज इस आदमी को यहाँ देख कर डर गयी हूँ``मेम साहिबा की बातें सुनकर साहब को भी कम आश्चर्य नहीं हुआ।


बंगाल में तीन संतों की चर्चा पिछले सौ सालों से होती आ रही है।  सर्वश्री लोकनाथ ब्रह्मचारी, श्यामाचरण लाहिरी महाशय और श्री विशुद्धानंद सरस्वती (गंध बाबा)।  इन संतों के चमत्कारिक जीवन चरित्र की अनेक कहानियाँ अभी भी भक्त जन श्रद्धाभाव से सत्संग रूप में भगवत शक्ति के स्मरण के रूप में सुनते सुनाते हैं। लाहिरी महाशय को संत समाज में योगियों का बाप कहा जाता है।  उनके समान योगी कई सौ वर्षों में नहीं सुनने में आया और इससे भी बड़ी बात थी कि वे गृहस्थ थे।  इसलिए भी उनकी मान्यता बहुत अधिक है।  

किसी ने अगर योगानंद परमहंस द्वारा रचित जगत प्रसिद्द पुस्तक- योगिकथाम्रित पढी हो तो उसमें उनका सुन्दर वर्णन हैं।  क्रियायोग सरल रूप में जनमानस के अध्यात्मिक लाभ का योगदान लाहिरी महाशय का ही है।  आत्मसाक्षात्कार के रास्ते को बड़े सरल ढंग से शिष्य परम्परा के रूप में आगे दिया।

लाहिरी महाशय का जन्म नदिया जिले के घूर्णी गाँव में ३० सितम्बर सन १८२८ को हुआ था। आपके पिता गौरमोहन लाहिरी की प्रथम पत्नी से दो पुत्र और एक पुत्री हुयी थी।  आपकी प्रथम पत्नी के निधन के बाद गौरमोहन ने दूसरा विवाह किया।  द्वितीय पत्नी के गर्भ से लाहिरी महाशय प्रथम पुत्र हुए। अपने पैत्रिक गाँव को छोड़ कर गौरमोहन लाहिरी काशी आ गए और बंगाली टोला स्थित एक भवन में सपरिवार रहने लगे।


बचपन से ही लाहिरी महाशय अपनी प्रतिभा का परिचय देने लगे. बँगला, अंग्रेजी, हिन्दी के अलावा फारसी भाषा की शिक्षा आप लेने लगे। यहाँ शिक्षा सम्पूर्ण कर संस्कृत कालेज में संस्कृत का अध्ययन करने लगे। गौरमोहन के पड़ोसी देवनारायण सान्याल थे।  अपनी मैत्री को सुद्रढ़ करने के लिए बेटे श्यामाचरण का विवाह देवनारायण की पुत्री काशीमणि देवी के साथ कर दिया।  इस प्रकार लाहिरी महाशय के विवाह पश्चात दो पुत्र और दो पुत्रियों का जन्म हुआ।  सन १८५१ में ब्रिटिश सरकार के सैनिक ईन्जीनीयरिंग विभाग में अकाउनटेंट के पद पर आपकी नियुक्ती हुयी।  शांतिप्रिय लाहिरी महाशय कई जगह बदली होने के बाद दानापुर पोस्ट पर लग गए।

इस बीच परिवार में संपत्ति को लेकर विवाद हुआ।  लाहिरी महाशय सबकुछ अपने सौतेले भाई को सौंप कर गरुडेश्वर में एक मकान ले लिया।  इस बीच उनकी पोस्टिंग दानापुर से रानीखेत हो गयी।  अपने परिवार को काशी में छोड़कर अकेले ही लाहिरी महाशय रानीखेत पहुँच गए. अपने कार्य करने के बा लाहिरी महाशय कई मील दूर पैदल चल कर हिमालय के सौन्दर्य का निरीक्षण करने निकल पड़ते थे।



यहीं रानीखेत से उनके अनोखे चमत्कारिक यौगिक जीवन की शुरुआत हुयी. अब तक वे एक साधारण गृहस्थ की तरह रह रहे थे. पढ़ाई करके नौकरी पर लगे. पारिवारिक विवाद को देखा. शांतिप्रिय और मधुर व्यवहार के लाहिरी महाशय की संतानें हुयीं. अब रानीखेत से जिन्दगी के दुसरे ही अद्भुद चेप्टर का आरम्भ हुआ. ये एक बहुत ही अनोखी स्वप्न जैसी कहानी है. पर सत्य है. अहोभाग्य भारत भूमि का जो ऐसे महान आत्माएं इस भारत भूमि को पवित्र कर गयीं. सांस्कृतिक गरिमा को उस उच्च स्तर पर पहुंचा दिया कि सभी भारतवासी गर्व कर सकें.
एक दिन आप टहलते हुए द्रोणगिरी पर्वत पर चले गए. सहसा आपको लगा जैसे कोई आपका नाम लेकर पुकार रहा हो. पुकारने वाले ने एक या दो बार पुकारा होगा, पर पहाड़ों से टकराकर उसकी आवाज बार बार गूंजने लगी. आपको बड़ा आश्चर्य हुवा कि इस सुनसान स्थान पर मेरा परिचित कौन हो सकता है? आप पुकारने वाले व्यक्ती को चारों ओर दृष्टी दौड़ाकर खोजने लगे. थोड़ी देर बाद एक ऊँचे शिखर पर एक युवक दिखाई दिया जो हाथ के इशारे से पास आने का संकेत कर रहा था.


उसके पास जाने पर भी युवक को लाहिड़ी महाशय पहचान नहीं सके. उक्त अपरिचित युवक ने कहा-``मैंने ही तुम्हें पुकारा था. तुम मुझे नहीं पहचान पा रहे हो.``
लाहिड़ी महाशय ने नकारात्मक भाव से सर हिलाया कि, नहीं. उन्हें साथ लेकर वह युवक एक गुफा के पास गया और भीतर रखे कम्बल तथा कमंडल को दिखाते हुए कहा-`` क्या इन सामग्रियों को पहचान रहे हो.?`` ``नहीं महाराज, मैं तो आपको भी नहीं पहचान पा रहा हूँ. इधर देख रहा हूँ कि आप मेरा नाम तक जानते हैं.?`` ``मैं तुम्हें बहुत दिनों से जानता हूँ, एक विशेष कार्य के लिए तुम्हें दानापुर से यहाँ बुलवाया है. कुछ दिनों बाद तुम्हें यहाँ से वापिस चले जाना पड़ेगा.``


लाहिड़ी महाशय का विस्मय अभी दूर नहीं हुआ था. वे जड़भरत की तरह खड़े उस युवक को देख रहे थे. तभी उस युवक ने श्यामाचरण के ललाट को स्पर्श किया. उनके स्पर्श से ही लाहिड़ी महाशय का समस्त शरीर झनझना उठा. धीरे धीरे उनकी पूर्व जन्म की स्मृतियाँ जागृत हो गयी. उन्हें स्मरण हो आया कि पिछले जन्म में वे इसी गुफा में तपस्या करते थे. यह कमंडल उन्ही का है, इसी आसन पर बैठते थे. अब उनका चेहरा आनंद से खिल उठा. उन्होंने उक्त व्यक्ती को प्रणाम करते हुए कहा-``हाँ, अब पहचान गया. आप मेरे गुरुदेव हैं. यह गुफा मेरी साधना भूमि है. अज्ञान के लिए मुझे क्षमा कर दें.``

``मैं पिछले चालीस वर्षों से यहाँ तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा था. यहाँ से वापिस जाने के बाद से मैं सायें की तरह तुम्हारे पीछे लगा रहा. जन्म लेने के बाद से तुम पर मेरी दृष्टी रही. अब जाकर तुम मेरे पास आये हो. अब तुम्हारी शुद्धी होगी. इस पात्र से थोड़ा तेल पीकर नदी किनारे जाकर लेट जाओ.``  गुरुदेव की आज्ञानुसार लाहिड़ी महाशय तेल पीकर नदी किनारे जाकर वहीँ लेट गए. पहाड़ की ठंडी हवा बदन से टकराने लगी. वेगवती नदी की प्रखर ध्वनि को परास्त करती हुयी कभी कभी वन्य पशुओं की दहाड़ सुनाई देती रही. धीरे धीरे लाहिड़ी महाशय ने अनुभव किया कि उनके शरीर की उष्मा बढ़ रही है. कुछ देर तक इस स्थिति में पड़े रही. सहसा किसी की पगध्वनि सुनाई पड़ी. एक ब्रह्मचारी ने पास आकर कुछ सूती वस्त्र देते हुए कहा-``आप इन्हें पहन लीजिये और मेरे साथ चलिए. गुरुदेव आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं. `` उस ब्रह्मचारी के साथ काफी दूर आगे जाने पर लाहिड़ी महाशय ने एक अद्भुद दृश्य देखा. विस्मय से उन्होंने पूछा-``क्या सूर्योदय हो रहा है.?`` साथी शिष्य ने मुस्करा कर कहा-``नहीं, अभी तो अर्ध रात्री है, आप जिस प्रकाश को देख रहे हैं, वह स्वर्ण महल है. इसकी सृष्टि आज एक विशेष कारण से गुरुदेव ने की है. आज इसी महल में आपकी दीक्षा होगी ताकि आपके पिछले सभी कर्म बंधन समाप्त हो जाएँ.``


धड़कते हुए ह्रदय से लाहिड़ी महाशय उस अपूर्व महल के पास आकर खड़े हो गए. चकित दृष्टि से उन्होंने देखा- चारों ओर पृथ्वी से प्राप्त विभिन्न रत्नों से महल का श्रृंगार किया गया था. जड़े हुए रत्नों की आभा से जो प्रकाश निकल रहा था उसी से उन्होंने सूर्योदय होने का अनुमान लगाया था. दरवाजे के पास कई गुरुभाई खड़े थे. हवा में तैरती अपूर्व सुगंध मन को उत्फुल्ल कर रही थी.
महल के भीतर आने पर लाहिड़ी महाशय ने देखा- भीतर अनेक संत विराजमान हैं. इन संतों के आसपास स्थित दीपकों से रंग बिरंगे प्रकाश निकल रहे हैं. वहीँ कुछ विद्यार्थी मन्त्र पाठ कर रहे हैं. समस्त दृश्य जादू जैसा लगने लगा. अपने जीवन में इस प्रकार का दृश्य देखने को मिलेगा, इसकी परिकल्पना उन्होंने कभी नहीं की थी. कुछ दूर आगे बढ़ने पर गुरुदेव के दर्शन हुए.


उनके चरणों पर सर रखकर लाहिड़ी महाशय ने प्रणाम किया. गुरुदेव ने कहा-``जागो वत्स, आज तुम्हारी सारी भौतिक इच्छाएं सर्वदा के लिए शांत हो जायेंगी. ईश्वरीय राज्य की प्राप्ति के लिए क्रिया योग की दीक्षा ग्रहण करो. `` सामने स्थित होमकुंड के आगे गुरुदेव ने ज्योंही हाथ फैलाया त्योहीं उसके चारों ओर फूलों के ढेर लग गए. प्रज्वलित कुंड के सामने गुरुदेव ने लाहिड़ी महाशय को क्रिया योग दीक्षा दी. दीक्षा लेने के बाद लाहिड़ी महाशय ने एक बार महल को जी भर के देखा. इसके बाद गुरुदेव के समीप आकर बैठ गए. लाहिड़ी महाशय ने अपनी आँखें बंद कर ली. कुछ देर बाद गुरुदेव के आदेश पर अपनी आँखें खोली. उस वक्त वहां न सोने का महल था और न वे संत थे जिन्हें आते समय लाहिड़ी महाशय ने देखा था. इस समय वे चिर परिचित गुफा के सामने शिष्यों से घिरे हुए अपने गुरुदेव के सामने बैठे हुए थे.  यह दृश्य लाहिड़ी महाशय के लिए अद्भुद विस्मयकारी था. अभी इसी विषय पर कुछ सोच रहे थे कि तभी गुरुदेव ने उन्हें भोजन करने की आज्ञा दी. इसके बाद उन्होंने कहा-``श्यामाचरण, अब तुम अपनी गुफा में जाकर ध्यानस्थ हो जाओ.`` गुरुदेव के आदेशानुसार लाहिड़ी महाशय गुफा के भीतर जाकर कम्बल पर बैठ गए. गुरुदेव ने उनके मस्तक पर हाथ फेरा और वे समाधिस्थ हो गए.


इसी प्रकार ये क्रिया कई दिनों तक चलती रही. आठवें दिन गुरुदेव ने कहा-``वत्स, अब मेरा कार्य पूरा हो गया है. शीघ्र ही तुम्हें यहाँ से जाना पडेगा. मैंने तुम्हारे हेड आफिस को प्रेरणा देकर इसी कार्य के लिए बुलाया था. अब उन्हें अपनी भूल मालूम हो गयी है अतेव वे लोग शीघ्र तुम्हें अपने यहाँ वापिस बुला लेंगे.`` इस बात को सुनकर लाहिड़ी महाशय व्याकुल हो उठे. उन्होंने कहा-``गुरुदेव, अब मुझे वापिस मत भेजिए. अपने चरणों की सेवा का अवसर दीजिये. मैं आपके निध्य में रहना चाहता हूँ. `` गुरुदेव ने कहा-``नहीं वत्स, तुम्हें वापिस जाना ही होगा. संन्यासी के वेश में नहीं, बल्कि गृहस्थ के रूप में रहते हुए जन कल्याण का कार्य करना होगा. आगे चल कर अनेक लोग तुमसे दीक्षा ग्रहण करेंगे. तुम्हें देखकर लोग यह जान सकेंगे कि उच्चस्तर की साधना से गृहस्थ भी लाभ उठा सकते हैं. तुम्हें गृहस्थी से अलग होने की आवश्यकता नहीं है. तुम उस बंधन से मुक्त हो गए हो. यह याद रखना कि योग्य व्यक्ति को ही दीक्षा देना. ईश्वर प्राप्ति के लिए जो सर्वस्व त्याग कर सकता है, वही इस मार्ग के योग्य है. ``


लाहिड़ी महाशय के मन में सोने के महल को देखने और रहने की इच्छा थी. इसी मन की इच्छा के निर्मूलन के हेतु उनके गुरुदेव- बाबाजी महाराज (क्रिया योगियों के मध्य वे इसी नाम से जाने जाते हैं.), ने स्वर्ण महल का योगशक्ति से निर्माण किया था. महल में ही दीक्षा देने का कारण भी यही था. इस घटना के बाद लाहिड़ी महाशय में अभूओत्पूर्व परिवर्तन हो गया. वे पुनः इस स्वर्ग को छोड़कर कर्मक्षेत्र में जाना नहीं चाहते थे. मन ही मन प्रार्थना करने लगे कि गुरुदेव हमेशा के लिए अपने पास रख लें. लाहिड़ी महाशय के मनोभाव को समझने के बाद गुरुदेव ने कहा-``इस जन्म में तुम अनेक जन्मों की साधना से धन्य हो चुके हो. मैंने तुम्हें यहाँ तब तक नहीं बुलाया जब तक तुम विवाहित नहीं हो गए. अब तुम्हें एक आदर्श गृहस्थ के रूप में आगे का जीवन व्यतीत करना होगा. अगणित लोग तुमसे क्रिया योग की दीक्षा लेकर अध्यात्मिक शान्ति का अनुभव करेंगे. परम सत्ता का साक्षात्कार करेंगे. साथ ही गीता के एक श्लोक को दीक्षा के वक्त सुनाने का भी निर्देश दिया-

नेहाभिक्रमनोशोस्ति प्रत्यवायो न विद्यते. स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात.
इस प्रयास में न तो हानि होती है न ही ह्रास अपितु इस पथ पर की गई अल्प प्रगति भी महान भय से रक्षा कर सकती है |

आगे गुरुदेव ने फिर कहा-``केवल योग्य शिष्यों को क्रिया योग की दीक्षा देना जो ईश्वर प्राप्ति के लिए अपना सर्वस त्याग करने का संकल्प ले सकतें हैं. ऐसे ही लोग इस क्रिया के पात्र होते हैं.``
दुसरे दिन गुरुदेव से बिछुड़ते समय लाहिड़ी महाशय रोने लगे. यह देखकर गुरुदेव ने उन्हें कंठ से लगाया. और सांत्वना देते हुए बोले-``तुम मुझसे बिछुड़ नहीं रहे हो. मैं हमेशा तुम्हारे पास रहूँगा. जब जहां स्मरण करोगे तब वहीँ उपस्थित हो जाऊँगा. मेरे लिए व्याकुल होने की आवश्यकता नहीं है.


वहां से जब वे अपने कार्यालय में वापिस आये तो उनके सहयोगियों को अपार प्रसन्नता हुई. पिछले दस दिनों से लाहिड़ी महाशय गायब रहे थे. लोग यह समझ चुके थे कि वे किसी वन्य पशु का शिकार हो गए हैं अथवा किसी दुर्घटना के कारण उनका निधन हो गया है. सहकर्मियों के बार बार प्रश्न करने पर भी लाहिड़ी महाशय ने अपने अज्ञातवास के बारे में किसी को कुछ नहीं बताया.
उन लोगों की उत्सुकता समाप्त करने के लिए केवल इतना बोले- ``मैं जंगल में भटककर दूर चला गया था. नयी जगह होने के कारण मुझे वापिस आने में इतना समय लग गया.``
कई दिनों बाद प्रधान कार्यालय से आदेश आया कि आफिस की गलती से लाहिड़ी महाशय का तबादला रानीखेत कर दिया गया था. उन्हें अविलम्ब यहाँ भेज दिया जाय. वहां का कार्य देखने के लिए जिनकी नियुक्ति की गयी थी, उन्हें शीघ्र भेजा जाएगा.


रानीखेत से वापिस आते समय लाहिड़ी महाशय कुछ मित्रों के अनुरोध पर मुरादाबाद में रुक गए. एक दिन न जाने किस बात पर एक सज्जन ने कहा-``आजकल वास्तविक संत हैं कहाँ? सभी `क्षेत्रे भोजन मठे निद्रा`वाले हैं. इन लोगों का राजशाही ठाटबाट देखकर ईर्ष्या होती है. बड़े बड़े मठ बनवा कर, आम जनता को उपदेश देकर मूर्ख बनाते हैं. असली संत कभी इन ऐश्वर्यों को स्पर्श भी नहीं करते`` इस बैठक में लाहिड़ी महाशय भी  मौजूद थे. उन्होंने कहा-``आपका ख्याल गलत है. भारत में अभी भी उच्च कोटि के संत हैं. हम उनको पहचान नहीं पाते हैं. वे घरों से दूर रहकर अपनी साधना में निमग्न रहते हैं. मेरे गुरुदेव ऐसे ही महान संत हैं. जिनकी कृपा से मुझे नया जीवन मिला है.``इतना कहकर लाहिड़ी महाशय अपने परम पूज्य गुरुदेव से मिलने की अनोखी कहानी सुनाने लगे. उनकी बातों पर किसी ने विश्वास नहीं किया. गुरुदेव की कृपा तथा पूर्व जन्म के संस्कार के कारण लाहिड़ी महाशय योगारूढ़ तो हो गए पर साधारण मनुष्यों की तरह अपने गर्व का शमन अभी नहीं कर पाए थे. अपना मजाक उड़ता देखकर लाहिड़ी महाशय ने उत्तेजनावश कहा-``आप लोगों को मेरी बात पर विश्वास नहीं हो रहा है? अगर मैं चाहूँ तो अभी इसी क्षण, यहीं, अपने गुरुदेव को बुला सकता हूँ.`` अब लोगों ने विश्वास करना भी क्यों था.


अचानक लाहिड़ी महाशय इस अपमान से अत्यंत क्षुब्ध हो उठे. वे यह भूल गए कि ऐसे ही किसी के सामने पराशक्ति व पराइच्छा का उपयोग नहीं करना चाहिए जो इसके योग्य नहीं हैं.
लाहिड़ी महाशय एक दुसरे कमरे में चले गए और अन्दर न आने का निर्देश देकर ध्यानस्थ हो गए. कुछ ही देर में कमरे में प्रकाश हुआ और गुरुदेव प्रकट हुए. उनकी दृष्टि कठोर थी. उन्होंने गंभीर स्वर में कहा-``श्यामाचरण, तुमने इन पापिष्ठ अकर्मण्य मित्रों के कारण मुझे बुलाया? अब मैं जा रहा हूँ, अब ऐसे तुच्छ कारणों पर मैं कभी नहीं आऊंगा.`` गुरुदेव के इस कथन से लाहिड़ी महाशय का मन काँप उठा. तुरंत जमीन पर माथा टेकते हुए कहा-``अपराध के लिए क्षमा कर दें गुरुदेव. उत्तेजनावश मैं बाल हठ कर बैठा. अविश्वासी मन वाले इन अंधों को बताना चाहता था कि भारत में अभी भी उच्चस्तर के योगी हैं. अब आप आ ही गायें हैं तो इन अविश्वासियों को दर्शन देकर इनके भ्रम को दूर करने की कृपा करें. ``


गुरुदेव ने अभय वाणी देते हुए कहा-``ठीक है. भविष्य में कभी विनोद के निमित्त मेरा स्मरण मत करना. जब वास्तव में तुम्हें आवश्यकता होगी तब ही आऊंगा. `` इस आश्वासन को पाते ही लाहिड़ी महाशय ने कमरे का दरवाजा खोल दिया. लोग चकित दृष्टि से उनके गुरुदेव को देखने लगे. फिर भी एक अविश्वासी बोल उठा-``यह तो सामूहिक सम्मोहन है. वास्तविक नहीं है. ``
गुरुदेव मुस्कुराए आगे बढ़ कर सभी को स्पर्श किया और प्रसाद के रूप में हलुवा दिया. ज्यों ही लोगों ने हलुवा मुह में डाला त्यों ही वह प्रकाश लुप्त हो गया.  इन दर्शनार्थियों में से एक ने आगे चलकर लाहिड़ी महाशय से दीक्षा प्राप्त की. अब आप अनुमान लगा लीजिये की स्वयं बाबाजी महाराज प्रकट हुए. दर्शन दिए. तब भी लोगों को विश्वास नहीं हुआ. कभी कभी तो लगता है कि इंसान अविश्वास पर ही विश्वास करना चाहता है।


रानीखेत से वापिस आकर वे अपने कार्यालय में पूर्व की भांति कार्य करने लगे. गुरु द्वारा बतायी गयी क्रियायों की साधना भी चलती रही. इस प्रकार लाहिड़ी महाशय ने सन १८८० तक सरकार की सेवा में रहने के बाद अवकाश ग्रहण किया था. अवकाश लेने के बाद लाहिड़ी महाशय की कठिनाईयां बढ़ गयी. पेंशन के रुपयों से गृहस्थी न चलती देखकर वे काशी नरेश महाराज ईश्वरीयनारायण सिंह के सुपुत्र प्रभुनारायण सिंह को शास्त्रादी पढ़ाने के लिए कुछ दिनों तक तीस रुपये मासिक वेतन पर गृह शिक्षक का कार्य करते रहे. राजा की ओर से नित्य उन्हें लेने नाव आती थी और फिर रामनगर किले से घर तक पहुंचा जाती थी. लाहिड़ी महाशय की प्रतिभा से काशी नरेश के उच्च पदाधिकारी श्री गिरीश चन्द्र परिचित थे. बचपन में दोनों ने जयनारायण कालेज में पढाई की थी. एक दिन उन्होंने महाराज से कहा-``महाराज जी, कृपया अपने गृह शिक्षक का विशेष रूप से ध्यान रखें. उनका असम्मान किसी से न होने पाए. लाहिड़ी महाशय सामान्य अध्यापक नहीं हैं. आप एक महान योगी हैं. इस बात को हर कोई जान न ले. इसलिए अपने को छिपाए रखते हैं. मैं इनकी योग विभूतियों को देख और सुन चुका हूँ. `` महाराज ने कहा-``मेरा भी ऐसा ही विचार है. इनके ज्ञान और अध्ययन को देखकर में यह समझ गया था. आप स्वयं ही इनका विशेष रूप से ख्याल रखें ताकि इन्हें किसी प्रकार की असुविधा न हो.``


आगे चलकर ईश्वरीयनारायण सिंह लाहिड़ी महाशय से इतने प्रभावित हुए की उन्होंने और उनके पुत्र ने भी श्यामाचरण लाहिड़ी को गुरु रूप में स्वीकार किया. कट्टर ब्राह्मण होते हुए भी लाहिड़ी महाशय जात पात के अहम् को नहीं मानते थे. उनकी दृष्टि में सभी सम थे. इलाहाबाद में होने वाले कुम्भ के मेले में गए थे. वहाँ एक घटना को देखकर वे समदर्शी हो गए थे. कहा जाता है की लाहिड़ी महाशय मेले में घूम रहे थे. अचानक उनकी दृष्टि एक ऐसे जटाजूट धारी महात्मा पर पड़ी जिनके सामने वीर आसन में बैठकर उनके गुरुदेव श्रद्धा पूर्वक पैर धो रहे थे.  यह दृश्य देखकर लाहिड़ी महाशय ने पूछा-``गुरुदेव, आप..और इनकी सेवा में.?`` लाहिड़ी महाशय की ओर बिना देखे बाबाजी महाराज बोले- ``इस समय में इन महात्मा के चरण धो रहा हूँ. इसके बाद इनके बर्तनों को साफ़ करूँगा.`` लाहिड़ी महाशय को समझते देर नहीं लगी कि इस उदाहरण को प्रस्तुत करते हुए गुरुदेव मुझे शिक्षा दे रहे हैं. भविष्य में उंच नीच का भेद न करूँ. प्रत्येक मानव में ईश्वर का निवास होता है, इसे मान कर चलूँ. गुरुदेव ने उस दिन कहा था-``मैं ज्ञानी अज्ञानी साधुओं की सेवा कर नम्रता सीख रहा हूँ.``


इस घटना के बाद से ही लाहिड़ी महाशय के स्वभाव में परिवर्तन हो गया. भेद भाव पूर्ण रूप से समाप्त हो गया. योगीराज का भवन श्रद्धालुओं के लिए तीर्थस्थल था. हर वर्ग के लोग वहां उनके श्रीमुख से गीता की व्याख्या सुनने के लिए आते थे. इन भक्तों में राम प्रसाद जायसवाल भी थे. कलवार होने के कारन लोग उन्हें अछूत समझते थे. योगीराज के यहाँ आने वाले ब्राह्मणों को ये पसंद नहीं था कि एक कलवार उनके निकट बैठे. एक दिन एक पंडित ने घृणा के साथ कहा-``तुम्हें शर्म नहीं आती? कलवार होकर तुम किनारे बैठना दूर रहा, हमारे सर पर चढ़ जाते हो. चलो, हटो, किनारे बैठो.`` योगिराज ने इस कटु वचन को सुना. कुछ देर बाद वे आसन से उठ कर खड़े हो गए और राम प्रसाद की ओर हाथ से इशारा करते हुए बोले-``राम प्रसाद, तुम मेरे इस आसन पर आकर बैठो.`` इतना कहकर लाहिड़ी महाशय दूसरी ओर बैठ गए. राम प्रसाद मन ही मन कुंठाग्रस्त हो गए. एक तो पंडित की फटकार और अब योगिराज यह मजाक कर रहे हैं. शायद मुझसे ही गलती हो गयी, इस उधेड़बुन में पड़ गए. रामप्रसाद को उहापोह करते देख कर योगिराज ने कहा-``मैं मजाक नहीं कर रहा हूँ. आओ यहाँ बैठो.`` राम प्रसाद भय से सिहर उठा. योगिराज के सामने हाथ जोड़कर उसने कहा-``महाराज, ऎसी आज्ञा मत दीजिये. मुझसे ये अपराध नहीं होगा.`` राम प्रसाद को फटकारने वाले सज्जन काशिमपुर के जमींदार राय बहादुर गिरीश प्रसन्न थे. उन्हें तुरंत अपनी गलती मालूम हुयी. उन्होंने पहले योगिराज से और तब रामप्रसाद से क्षमा मांगी. इसके बाद अपनी बगल में बैठाया.


महापुरुष लोग कभी भेदभाव नहीं करते. सामान्य जन भेदभाव के आधार पर जीवन यापन करता है. कुछ सीखना चाहिए. मन के भेद को मिटाने की साधना ही सबसे बड़ी साधना है. स्वामी युक्तेश्वर और राम घनिष्ठ मित्र ही नहीं, बल्कि गुरुभाई थे. योगिराज के दोनों प्रिय शिष्य थे. एक बार राम हैजे से पीडित हुआ. सारी दवादारू के बाद भी वो ठीक नहीं हुआ. हालत बद से बदतर हो गयी. व्याकुल होकर युक्तेश्वर लाहिड़ी महाशय के पास आये. लाहिड़ी महाशय बोले-``डाक्टर जब उसकी चिकित्सा कर रहा है. तो ठीक हो जाएगा. चिंता मत कर और उसकी देखभाल करो. `` इस आश्वासन के बाद युक्तेश्वर चुपचाप आकर सेवा करने लगे. डाक्टर ने अंत में कहा-``अब राम को मैं बचा नहीं सकता. ये दो घंटे का मेहमान है. `` इस बात को सुनते ही युक्तेश्वर फिर दौड़े लाहिड़ी महाशय के पास. वे बोले-`` नहीं युक्तेश्वर वो ठीक हो जाएगा. `` वापिस आकर युक्तेश्वर ने देखा, राम की हालत और खराब है और डाक्टर का पता नहीं. एकाएक राम झटके से उठा और बोला-``युक्तेश्वर मैं जा रहा हूँ, गुरुदेव से कहना कि मेरे शरीर को आशीर्वाद अवश्य दें.`` इतना कहकर राम धडाम से बिस्तर पर गिर गया और उसके प्राण पखेरू उड़ गए. युक्तेश्वर फफक फफक कर रोने लगा. काफी देर बाद जब एक अन्य शिष्य और आया तो शव के पास उसे बैठकर वे समाचार देने लाहिड़ी महाशय के पास चले गए. सुनते ही लाहिड़ी महाशय समाधि में लीन हो गए. तीसरे प्रहर का समय था. शाम गुजरी, रात बीती, पर गुरुदेव की समाधि भंग नहीं हुयी. भोर समय में उनकी आँखें खुली. उन्होंने कहा-``सामने पड़े दीपक से थोडा सा तेल शीशी में भर लो. इसे ले जाकर राम के मुह में एक एक करके सात बूँद डाल दो. ``गुरूजी राम तो कल ही मर चुका है. अब इस तेल से क्या होगा.?``



``मैं जो कह रहा हूँ वही करो. चिंता की बात नहीं है.`` लाचारी में युक्तेश्वर तेल लेकर गए. यहाँ आने के बाद उन्होंने देखा- राम का शरीर सख्त हो गया है. मित्र की सहायता से बड़ी मुश्किल से मुह खोलकर एक एक करके सात बूँद तेल डाल दी. सातवी बूँद डालते ही राम के शरीर में कम्पन शुरू हो गया. धीरे धीरे उठकर वो बैठ गया. राम ने कहा-``मैंने एक प्रकाश के भीतर गुरुदेव को देखा. उन्होंने कहा कि राम अब निद्रा त्यागकर अब उठ बैठो. युक्तेश्वर के साथ अविलम्ब मेरे पास आओ.`` तुरंत तीनो शिष्य गुरुदेव के पास आये. इन्हें आया देखकर गुरुदेव प्रसन्न हो गए. उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर, मैंने तुमसे दो बार कहा था कि चिंता की बात नहीं है, राम अच्छा हो जाएगा. लेकिन तुमको मेरी बात पर विश्वास नहीं हुआ. मैं डाक्टरी कार्य में हस्तक्षेप नहीं करना चाहता था. अब आगे से अपने पास रेडी का तेल रखोगे, किसी के मृत व्यक्ति के मुह में डालोगे तो वह यम की शक्ति को बेकार कर देगा . `` गुरुदेव के परिहास युक्त वचन सुनकर प्रेमसहित तीनों ने गुरुदेव के चरण स्पर्श किये.


यह कथा युक्तेश्वर स्वामी योगानंद के गुरु हुए जिनकी विश्व प्रसिद्द पुस्तक- योगी कथामृत में है. किसी को मौक़ा लगे तो पढ़ ले. बहुत अच्छी पुस्तक है।


लाहिड़ी महाशय के शिष्य उन्हें श्रद्धा के साथ महामुनि बाबाजी, महाराज, महायोगी, त्रयम्बक बाबा, और शिव बाबा जैसे सम्मानजनक विशेषणों से संबोधित करतें हैं. इस अमर महागुरु के शरीर पर आयु का कोई प्रभाव दृष्टिगोचर नहीं होता. वे अधिक से अधिक पच्चीस वर्ष के युवक दिखाई पड़ते हैं. गहुआ रंग, मध्यमा कृतिवाले बाबाजी का शरीर सुंदर और बलिष्ट देह है, नेत्र काले, शांत और दयार्द्र हैं, उनके लम्बे चमकीले केश ताम्रवर्ण के हैं.


लाहिड़ी महाशय के शिष्य केवलानंद ने एक घटना का जिक्र स्वामी योगानंद से किया था जिसके वे प्रत्यक्षदर्शी थे. एक रात कुछ शिष्य एक अग्नीइकुन्द के पास बैठे थे. कुंद से जलती हुयी एक लकड़ी उठाकर बाबाजी ने पास बैठे एक शिष्य पर प्रहार किया.
शिष्य चीख उठा. यह देखकर केवलानंद ने कहा-``गुरूजी ये तो निष्ठुरता है.``
बाबाजी ने कहा-``पिछले कर्मफल की आग में यह तुम्हारे सामने भस्म हो जाए, क्या यह उचित होगा?`` इतना कहने के बाद उन्होंने शिष्य के जले हुए स्थान पर हाथ रखा. जब उन्होंने वहां से हाथ हटाया तब देखा गया कि वहां घाव के निशान नहीं थे.


इसी प्रकार एक दिन एक व्यक्ति आया और बाबाजी से कहा-``गुरुदेव आपकी तलाश में इन पहाड़ियों पर मैं महीनों से परेशान था. आज आपके पास एक प्रार्थना लेकर आया हूँ. आप मुझे शिष्य रूप में ग्रहण करें.`` बाबाजी ने इस बात का कोई उत्तर नहीं दिया. यह देखकर वह व्यक्ति उतावला हो उठा. उसने कहा-``अगर आप मुझे स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं इस पहाड़ से कूदकर अपनी जान दे दूंगा.`` बाबाजी ने कहा-``कूद पड़ो मैं विकास कि इस अवस्था में तुम्हें ग्रहण नहीं कर सकता.`` बाबाजी की बात सुनते ही उसने छलांग लगा दी और नीचे कूद पड़ा. वस्तुतः यह आज्ञा पालन की कठिन परीक्षा थी. वह अपनी परीक्षा में सफल रहा. बाद में बाबाजी ने अपने शिष्यों से कहा कि उसके शव को उठा लाओ. कई एक नीचे से शव को उठा लाये. बाबाजी ने उसके सर पर हाथ रखा. सभी लोगों ने चकित दृष्टि से देखा कि वह व्यक्ति जीवित हो गया है और उसने गुरुदेव को प्रणाम किया. केवलानंद के बताये अनुसार उस वक्त वहां लाहिड़ी महाशय भी उपस्थित थे. मेरा व्यक्तिगत मत मैं जोड़ दूँ. कोई छलांग न लगाये. ये साधारण जगत की घटना नहीं है. मैं स्वयं चाहे कुछ हो जाए छलांग नहीं लगाने वाला. बाबाजी ने प्रसन्न होकर कहा-``तुम कठिन परीक्षा में उत्तीर्ण हो गए हो. अब तुम शिष्य बनने के अधिकारी हो. मृत्यु तुम्हे अब स्पर्श नहीं करेगी.


लाहिड़ी महाशय अपने महान गुरु के बारे में कहा करते थे कि वे अवतारी पुरुष हैं. बाबाजी ईसा मसीह के साथ संपर्क बनाए रखते हैं. जब कोई व्यक्ति श्रद्धा के साथ बाबाजी महाराज का नाम उच्चारण करता है तब तत्क्षण उस पर आध्यात्मिक आशीर्वाद की वर्षा होती है.
यहाँ तक कि लाहिड़ी महाशय के शिष्यों ने बाबाजी को स्थूल शरीर में देखा है. लाहिड़ी महाशय के प्रिय शिष्य युक्तेश्वर ने एक बार नहीं, कई बार देखा है. ईश्वर की प्रेरणा से युक्तेश्वर जी प्रयाग के कुम्भ मेले में स्नान करने के लिए गए थे. चारों और साधू संतों की अपार भीड़ थी. अधिकाँश साधुओं को मेले में खप्पर लिए भीख मांगते देखकर युक्तेश्वर के मन में यह विचार उत्पन्न हुआ कि यहाँ तो भीख मांगने वाले संत अधिक हैं. परमार्थ की तलाश करने वाला कोई नहीं. क्या कुम्भ मेला भिखारियों का है.? तभी उनके पास एक अपरिचित व्यक्ति ने आकर कहा -`` महाराज, आपको एक संत बुला रहे हैं. कृप्या मेरे साथ चलिए.`` युक्तेश्वर जी को आश्चर्य हुआ कि इस अनजाने शहर में उनका कौन परिचित निकला.? उन्होंने आगंतुक से पूछा -``कौन हैं वे.?`` आगंतुक ने कहा-``सामने वृक्ष के नीचे विराजमान हैं.`` कुतुहल्वश युक्तेश्वर जी वहां आये तो देखा कि एक संत कुछ लोगों से घिरे बैठे हैं. युक्तेश्वर जी को देखते हुए वे उठकर खड़े हुए और उन्हें अपने आलिंगन में बाँध लिया. युक्तेश्वर को लगा जैसे कोई अपूर्व शक्ति उनके शरीर को स्पर्श कर रही है. स्वर्गीय आनंद से उनका मन तृप्त हो उठा. संत ने कहा-``यहाँ बैठिये स्वामीजी. ``
युक्तेश्वर ने कहा-``मैं स्वामी नहीं हूँ.`` उस समय तक युक्तेश्वर ने संन्यास ग्रहण नहीं किया था. केवल लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की शिक्षा प्राप्त की थी. संत ने कहा-``मैं जिस व्यक्ति को स्वामी की उपाधि देता हूँ, उसे वह ग्रहण कर लेता है, आप यहाँ विराजमान होईये.``
युक्तेश्वर जी के बैठने के बाद असंत समागत लोगो के सामने गीता की व्याख्या करते हुए अचानक से पूछ बैठे-``आप तो गीता पर टीका लिख रहे हैं न?`` युक्तेश्वर जी को इस बात पर आश्चर्य हुआ क्योंकि एक अरसे से वे गीता जी पर भाष्य लिख रहे थे पर अब तक किसी से इस विषय में चर्चा नहीं की थी. आखिर इन्हें कैसे मालूम पड़ गया.? तभी संत ने कहा-``आप काशी के श्यामाचरण लाहिड़ी महाशय को जानते होंगे. उन्हें मेरा एक सन्देश जाकर दीजियेगा. कहियेगा: अब समय कम रह गया है. शक्ति समाप्त हो रही है. युक्तेश्वर जी चकित दृष्टि से संत की ओर देखते रहे. चलते समय संत ने कहा-``मैं आपसे पुनः मिलूंगा. आप यथाशीघ्र पुस्तक लिखिए.``



प्रयाग से काशी आकर युक्तेश्वर जी ने अपनी यात्रा का विवरण लाहिड़ी महाशय को दिया. संत से मुलाक़ात की चर्चा करते ही लाहिड़ी महाशय प्रसन्नता से गदगद हो गए.
उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर, तुम बड़े भाग्यवान पुरुष हो. तुमने मेरे गुरुदेव के दर्शन कर लिए.``
अपने गुरु की बातें सुनकर युक्तेश्वर हक्का बक्का रह गए. उन्हें स्वप्न में भी विश्वास नहीं था कि इस प्रकार वे उस महान गुरु से मिलेंगे जिनके दर्शन के लिए न जाने कितने साधक तरसते हैं. इस वक़्त युक्तेश्वर जी अपने को धिक्कारने लगे कि क्यों नहीं उन चरणों पर मैंने अपना माथा टेका.


युक्तेश्वर जी की व्याकुलता देखकर लाहिड़ी महाशय ने कहा-``व्याकुल होने की आवश्यकता नही है. जब गुरुदेव ने पुनः दर्शन देने का वचन दिया है. तब वे अवश्य तुम्हें दर्शन देंगे. तुम अपना लेखन कार्य पूरा कर डालो.`` युक्तेश्वर जी ने अपना आश्रम बंगाल के श्रीरामपुर कसबे में बनाया था. लेखन कार्य समाप्त हो गया था. एक दिन वे गंगा स्नान करने के बाद वापिस आ रहे थे तो मार्ग में एक वृक्ष के नीचे कई लोगो के साथ परम गुरु को बैठे देखा. इस बार उनसे भूल नहीं हुयी. तुरंत साष्टांग प्रणाम करते हुए निवेदन किया-``जब आप यहाँ तक आ गए हैं. तब एक बार मेरी कुटिया में चरण रज देखर उसे पवित्र बनाने कि कृपा करें. बाबाजी ने इस अनुरोध को स्वीकार नहीं किया. यह देखकर युक्तेश्वर जी ने कहा -``तब आप यहाँ कुछ देर कृपा करके ठहर जाईये. मैं अपने दादा गुरु को भोग देने का पुण्य प्राप्त कर लूँ.`` यह कहकर युक्तेश्वर तुरंत तेज़ी से मिष्ठान्न खरीदने चले गए. वापिस आकर उन्होंने देखा कि गुरुदेव गायब हैं. क्षोभ से उनका मन भर गया. ये क्षोभ काशी में प्रकट हुआ. अपने गुरुदेव से मिलने युक्तेश्वर जब उनके स्थान पर गए तब ज्योहीं लाहिड़ी महाशय को उन्होंने प्रणाम किया त्योहीं उन्होंने कहा-``दरवाज़े पर पूज्य बाबाजी से मुलाक़ात हो गयी न?`` युक्तेश्वर ने अनजाने भाव से कहा-``नहीं तो`` -``यह देखो, वे खड़े तो हैं.``
युक्तेश्वर ने चौंक कर दरवाज़े की ओर देखा तो वहां परम पूज्य बाबाजी महाराज खड़े थे. उनके अंग प्रत्यंग से दिव्य आभा प्रकट हो रही थी. युक्तेश्वर को प्रणाम न करता देख लाहिड़ी महाशय विचलित हो उठे. उन्होंने कहा-``युक्तेश्वर यह क्या तुमने अभी तक दादा गुरु को प्रणाम नहीं किया.`` तभी बाबाजी स्वयं बोले-``युक्तेश्वेर मुझ से नाराज हो बेटा. ? उस समय तुम बहुत चंचल हो उठे थे. तुम्हारी चंचलता की आंधी में मैं उड़ गया था. उस वक़्त मैं सूर्य के पीछे था. तुम देख नहीं पाए. अभी तुममें अभाव है. आगे से ध्यान में अधिक समय लगाना. `` इतना कहकर बाबाजी अदृश्य हो गए.


इसी प्रकार एक बार लाहिड़ी महाशय के एक अन्य शिष्य राम गोपाल मजूमदार को गुरु के दिव्य दर्शन हुए थे. लाहिड़ी महाशय से उन्होंने कई बार निवेदन किया. पर हर बार यही उत्तर मिलता था-``मौका आने पर हो जाएगा.`` एक बार वे लाहिड़ी महाशय से मिलने के लिए काशी आये. घर पर शिष्यों और भक्तों से घिरे लाहिड़ी महाशय बैठे थे. शाम ढल चुकी थी. रात्री का दूसरा प्रहर प्रारम्भ हो चूका था. ठीक इसी समय लाहिड़ी महाशय ने राम गोपाल से कहा-``राम गोपाल तुम तुरंत दशाश्वमेघ घाट पर चले जाओ और वहीँ बैठे रहना.`` गुरु की आज्ञा पाते ही राम गोपाल में यह पूछने का साहस नहीं हुआ कि आखिर इस समय वहां क्यों भेज रहे हैं.? जरुर कोई विशेष कारण होगा. वे घाट पर आकर बैठ गए. कुछ देर बाद सीढ़ियों से पत्थर का ढोन्का हवा में उठा और शून्य में टिक गया. पत्थर का वो टुकड़ा जहाँ से निकला था वहां एक गुफा दिखायी पड़ी. उस गुफा से एक परम सुंदरी निकली. बाहर आकर वो बोलीं.-``मैं माता जी हूँ लोग मुझे इसी नाम से जानते हैं. मैं लाहिड़ी महाशय के गुरु बाबाजी की बहन हूँ. आज एक विशेष कारण से वो यहाँ आने वाले हैं.`` थोड़ी देर में आकाश में एक प्रकाश दिखाई पड़ा. जब वह प्रकाश पास आया तब उसमें से लाहिड़ी महाशय प्रकट हुए. ठीक इसी समय एक दूसरी ज्योति सुदूर आकाश से आयी जिसमें से बाबा जी प्रकट हुए. इस अद्भुद घटना को देखकर राम गोपाल दंग रह गए. बाबाजी और लाहिड़ी महाशय की आकृति में इस समय साम्य लग रहा था. केवल बाबाजी के सर के बाल लम्बे और चमकीले थे. उनके आते ही लाहिड़ी महाशय माताजी और मजुमदार ने जमीन से माथा टेक कर प्रणाम किया. बाबाजी ने कहा-``कल्याणमयी बहन, अब मैं अपने भौतिक शरीर का त्याग करना चाहता हूँ.`` माताजी ने कहा-``मैं आपकी इच्छा का आभास पा चुकी थी. इसलिए आज विचार विमर्श के लिए आपका आह्वाहन किया है. मेरा अनुरोध है कि आप देह त्याग न करें.`` इस विषय पर और भी कई बातें हुयीं. अंत में बाबाजी ने कहा-``तथास्तु मैं कभी भी अपने भौतिक शरीर का परित्याग नहीं करूँगा. ``


इसके बाद दोनों व्यक्तियों का शरीर शून्य में उठकर विलीन हो गया. लाहिड़ी महाशय के घर आने के बाद मजूमदार जी को ज्ञात हुआ की उनके दशाश्वमेघ घाट जाने के बाद से अब तक लाहिड़ी महाशय अपने आसन से हिले तक नहीं थे. !!! वे अमरत्व विषय पर प्रवचन देते रहे थे.
जब राम गोपाल ने लाहिड़ी महाशय को प्रणाम किया तो वे बोले-``तुमने कई बार कहा था कि बाबाजी का दर्शन करना चाहते हो. बड़े आश्चर्यजनक ढंग से तुम्हारी आकांक्षा की पूर्ति हो गयी.

श्री अविनाश बाबु उन दिनों बंगाल नागपुर रेलवे आफिस में क्लर्क थे. पता नहीं क्यों उनका मन एकाएक अपने गुरुदेव को देखने के लिए चंचल हो उठा. उन्होंने अपने वरिष्ठ अधिकारी भगवती चरण घोष (योगानंद परमहंस के पिता.), को एक सप्ताह की छुट्टी के लिए आवेदनपत्र लिखा.
भगवती बाबु ने अविनाश बाबु को बुलाकर पूछा-``क्या काम है? किसलिए ये आवेदन पत्र भेजा है. ?`` ``अपने गुरु लाहिड़ी महाशय के दर्शन करने की इच्छा है न जाने क्यों मेरा मन चंचल हो उठा है.`` ``अविनाश बाबु यह सब पागलपन बंद कीजीये और काम पर मन लगाईये. धर्म-गुरु से बड़ा कर्म है जिससे आप दाल रोटी प्राप्त करतें हैं. अगर आप जीवन में उन्नति करना चाहते हैं तो ये सब पचड़े में मत फंसकर काम में मन लगाईये.``


बड़े साहब के उत्तर से अविनाश बाबू और अधिक उदास हो गए. वे समझ गए कि अब पुनः अनुरोध करना बेकार है. शाम को आफिस से छुट्टी मिलने पर वे मन ही मन गुरु का स्मरण करते हुए घर की ओर बढ़ने लगे. ऎसी गुलामी के प्रति उन्हें सख्त नफरत होने लगी. मन में जो आकांक्षा उत्पन्न हुयी थी, वो पूरी न हो पाई. सहसा मार्ग में बड़े साहब भगवती बाबू से मुलाक़ात हो गयी. इनके उदास चेहरे को देखकर वे सांसारिक बातें समझाने लगे ताकि उनके मन का क्षोभ दूर हो जाए. लेकिन उनकी बातों का असर अविनाश बाबु पर नहीं हुआ. इस वक़्त उनका मन और तेज़ी से गुरुदेव को याद करने लगा. दोनों व्यक्ति चलते चलते खुले मैदान में आये. एकाएक कुछ दूर पर न जाने कैसे एक तीव्र प्रकाश हुआ और उसमें से लाहिड़ी महाशय प्रकट हुए.
लाहिड़ी महाशय ने कहा-``भगवती, तुम अपने कर्मचारी के प्रति कठोर हो.``
इधर लाहिड़ी महाशय को देखते ही अविनाश बाबु नत्जानु होकर गुरुदेव,गुरुदेव कहते हुए प्रणाम करने लगे. इस दृश्य को देखकर इधर भगवती बाबु की हालत काटो तो खून नहीं वाली हो गयी. अचानक होने वाली घटना से वे सकपका से गए.


कुछ देर बाद वह प्रकाश शून्य में उड़कर गायब हो गया. इस दृश्य को देखकर भगवती बाबु बोले-``अविनाश, मैं केवल तुम्हें ही नहीं, बल्कि मैं स्वयं भी छुट्टी ले रहा हूँ. मुझे ये सब विश्वास नहीं था कि तुम्हारे गुरु इस तरह प्रकट हो सकते हैं. कल ही मैं अपनी पत्नी के साथ वाराणसी जाऊँगा. क्या तुम अपने गुरु से दीक्षा दिलाने की कृपा करोगे.?`` अविनाश बाबु के साथ भगवती बाबु सपत्नीक काशी आये. गुरुदेव के पास पहुंचकर ज्योंही भगवती बाबु ने प्रणाम किया त्योहीं योगीराज बोल उठे.-``भगवती तुम अपने कर्मचारी के प्रति कठोर हो.`` अब भगवती बाबु का संदेह पूर्ण रूप से दूर हो गया.


पुरुषों की अपेक्षा महिलाएं अधिक भक्तिमती होती हैं,.भगवती बाबु की पत्नी श्रीमती ज्ञानप्रभा तो लाहिड़ी महाशय को साक्षात ईश्वर मानती थीं. अपने घर में नित्य पूजा करती थीं. जब कभी मन में कोई इच्छा होती तो गुरुदेव के स्मरण करके कृपा से पूर्ण हो जाती थी.
दुर्भाग्य से उनका कनिष्ठ पुत्र मुकुन्दलाल घोष हैजे से पीड़ित हो गया. हालत शोचनीय हो गयी. डाक्टर भी परेशान हो उठे. लड़का बिछौने से उठ नहीं पाता था. स्वयं भगवती बाबु निराश हो गए. यह सब देखकर ज्ञानप्रभा देवी लड़के के पास आये और लड़के के सामने लाहिड़ी महाशय का चित्र दिखाते बोली-``बेटा तुम चित्र में लाहिड़ी महाशय को प्रणाम कर लो.``
मुकुंद ने हाथ उठाना चाहा पर कमजोरी से हाथ भी नहीं उठा सका. माँ ने कहा-``कोई बात नहीं बेटा मन ही मन प्रणाम कर लो.`` दुसरे दिन से लड़का स्वस्थ होने लगा.
आगे चलकर यही बालक परमहंस योगानंद के नाम से प्रसिद्द हुआ. जिन्होंने माउन्ट वाशिंगटन, लास एंजेलस, कैलीफोर्निया तथा भारत में रांची - पुरी में आश्रमों की स्थापना की.


योगिराज के कई शिष्य थे. परिवार में उनकी पत्नी, २ पुत्र - दुकौडी व तिनकौड़ी, बाहर के लोगो में. पंचानन जी भट्टाचार्य, युक्तेश्वर गिरी, केशवानंद, केवलानंद, विशुद्धानंद सरस्वती (गंध बाबा नहीं!!!), काशीनाथ शास्त्री, रामदयाल मजुमदार, नागेन्द्र बहादुरी, नेपाल नरेश, काशी नरेश, और भी बहुत से. इनके अलावा कुछ उच्च कोटि के संत भी लाहिड़ी महाशय से क्रिया योग की शिक्षा ले चुके थे. जिनमें सर्वश्री भास्करानंद सरस्वती, बालानंद ब्रह्मचारी आदि थे.
काशी नरेश अक्सर भास्करानंद स्वामी तथा तैलंग स्वामी के दर्शन करने जाते थे. इनकी जबानी योगिराज श्यामाचरण लाहिड़ी की प्रशंशा सुनकर भास्करानंद जी में उत्सुकता हुयी. उन्होंने काशी नरेश ईश्वरीनारायण सिंह से अनुरोध किया कि योगिराज को किसी दिन ले आयें. लाहिड़ी महाशय गृहस्थ थे इसलिए भास्करानंद जी उनके पास नहीं जा सकते थे. महाराज अपनी गाडी से लाहिड़ी महाशय को उनके पास ले गए. दोनों महापुरुषों में काफी समय तक सत्संग हुआ तथा साधन क्रियायों के विषय में गहन बातचीत हुयी.


लाहिड़ी महाशय अपने शिष्यों को क्रिया योग की शिक्षा देते समय इस बात का पूरा ध्यान रखते थे कि कौन पात्रता रखता है. इसकी शिक्षा वे कई चरणों में देते थे. प्रथम चरण की प्रक्रिया देने के बात वे ध्यान रखते थे कि किस शिष्य ने कितनी प्रगति की है. फिर दुसरे चरण की प्रक्रिया दी जाती थी.  क्रिया योग के बारे में स्वामी योगानंद लिखते हैं. -``क्रिया योग एक सरल मनः कायिक प्रणाली है जिसके द्वारा मानव- रक्त कार्बन से रहित तथा आक्सीजन से प्रपूरित हो जाता है. इसके अतिरिक्त आक्सीजन के अणु जीवन - प्रवाह में रूपांतरित होकर मस्तिष्क और मेरुदंड के चक्रों को नवशक्ति से पुनः पूरित कर देता है. अशुद्ध और नीले रक्त संचय को रोककर योगी तंतुओं के अपक्षय को कम कर देने या रोक देने में समर्थ होता हिलप्रगट योगी अपने कोशाणुओं को जीवन शक्ति में रूपांतरित कर सकता है. क्रियायोग एक सुप्राचीन विज्ञान है. जो भारत वर्ष में लुप्त सा हो गया था. लाहिड़ी महाशय ने अपने गुरु बाबाजी से क्रियायोग प्राप्त किया. युगों युगों की विस्मृति के अतल गह्वर से क्रियायोग का पुनरुद्धार किया और इसकी प्रविधि को परिष्कृत किया. बाबाजी ने ही इसे क्रियायोग का सरल नाम दिया.


अब एक समाचार देखें।
इस शख्स के आगे डॉक्टर भी हुए फैल, मरे लड़के को कर दिया था जिंदा।

लॉयन न्यूज, रांची। इस शख्स के आगे डॉक्टर भी फैल हो गये। इन्होंने एक मरे हुए लड़कों को जिंदा कर दिया था जिसे डॉक्टर ने मरा कहकर छोड़ दिया था। आज हम आपकों एक ऐसे शख्स की कहानी बताते है जिससे पढ़कर आप भी सलाम करेंगे। परमहंस योगानंद के गुरु युक्तेश्वर गिरी अक्सर खाली समय में अपने शिष्यों को अपने गुरु लाहिड़ी महाराज की बातें बताया करते थे। ऐसे ही एक दिन वह रामपुर के आश्रम की बालकनी में ईसा मसीह के जीवन से जुड़ी एक किताब पढ़ रहे थे। उस समय वहां रांची के कुछ लोग भी उपस्थित थे।मित्र राम और गुरु लाहिड़ी महाराज के बारे में बतायायुक्तेश्वर महाराज जो किताब पढ़ रहे थे, उसका विषय मृत्यु के बाद फिर से जिंदा होने से संबंधित था। उनके सामने बैठे शिष्यों से उन्होंने इस संबंध में थोड़ी बातचीत की। फिर उन्होंने अपने मित्र राम और गुरु लाहिड़ी महाराज के बारे में बताना शुरू किया। उस शिष्य मंडली में परमहंस योगानंद भी शामिल थे। दो डॉक्टरों को बुलाया। युक्तेश्वर महाराज ने बताया कि वह और उनका मित्र राम साथ-साथ ही रहते थे। एक दिन राम को हैजा हो गया। उसकी गंभीर हालत को देखते हुए दो डॉक्टरों को बुलाया गया, दोनों डाक्टरों ने बहुत देर तक उसका उपचार किया। जब डॉक्टर उसे देख रहे थे, उसी समय युक्तेशवरजी अपने गुरु लाहिड़ी महाराज के पास चले गए और उन्हें राम के बारे में बताया। लाहिड़ी महाराज ने कहा- तुम चिंता मत करो। राम जल्द ठीक हो जाएगा। डॉक्टर ने कहा- जिंदा रहने की उम्मीद नहीं इधर, राम की हालत बिगड़ती जा रही थी। युक्तेश्वर महाराज लाहिड़ी महाराज के पास थे। डॉक्टरों ने भरसक प्रयास किया, लेकिन राम की हालत में कोई सुधार नहीं हुआ। जाते समय एक डॉक्टर युक्तेश्वरजी के नाम से पत्र  छोड़ गया कि हमने बहुत प्रयास किया पर अब इसके जिंदा रहने की उम्मीद नहीं है। युक्तेश्वर जब लाहिड़ी महाराज के घर से लौटे तो उन्हें वहां डॉक्टर का पत्र  मिला । उसे पढ़ वे अपने मित्र के पास गए, उसकी हालत देख वह रोने लगे। मित्र राम अंतिम सांसे ले रहा था। दोपहर का समय था, थोड़ी देर बाद ही राम ने देहत्याग दिया। वैसी ही हालत में युक्तेश्वर अपने एक दोस्त को राम के शव के पास छोड़ फिर से लाहिड़ी महाराज के पास दौड़ते हुए गए।


लाहिड़ी महाराज ने उनसे पूछा- अब राम कैसा है? युक्तेश्वर ने उनसे कहा- आपको जल्द ही मालूम चल जाएगा वह कैसा है, जल्द ही उसके शव को श्मशान ले जाया जाएगा। लाहिड़ी महाराज ने कहा- युक्तेश्वर अपने आपको संभालो और यह कहने के बाद वह ध्यान में चले गए।
पूरी रात ध्यान में बैठे रहे लाहिड़ी महाराज दोपहर में यह घटना हुई और शाम हो गई पूरी रात भी इसी तरह बीत गई पर लाहिड़ी महाराज ध्यान में ही बैठे रहे। सुबह लाहिड़ी महाराज ने युक्तेश्वरजी से कहा तुम व्यर्थ में चिंता क्यों कर रहे हो। तुम ने कल ही मुझसे ये क्यों नहीं कहा कि तुम राम के बारे में ठोस वचन मुझसे चाहते हो। वह भी किसी दवा के रूप में। फिर गुरुदेव लाहिड़ी महाराज ने एक दीपक की ओर संकेत किया। उसमें अरंडी का तेल था। वह बोले किसी छोटी सी सीसी में ये तेल भर लो और राम के मुंह में इसकी सात बूंदे ले जाकर डाल दो। युक्तेश्वरजी ने लाहिड़ी महाराज से कहा- गुरुदेव वह तो कल दोपहर में ही मर गया है। उसे मरे हुए 18 घंटे हो गए हैं। इसपर लाहिड़ी महाराज ने कहा- तुम चिंता नहीं करो, जो मैं कह रहा हूं, वही करो। युक्तेश्वरजी ने अपने शिष्यों को बताया कि वह तेल लेकर दौड़ते हुए अपने मित्र के पास पहुंचे। मरने के बाद राम का शरीर अकड़ गया था। मृत शरीर की हालत खराब हो गई थी। जैसे-तैसे उन्होंने राम के अकड़े हुए होंठ खोले और मुंह में अरंडी के तेल की सात बूंदे डाल दीं। जैसे ही राम के मुंह में सातवीं बूंद गई, उसका अकड़ा शरीर कांपने लगा और थोड़ी ही देर बाद वह उठकर बैठ गया। उसी समय वहां प्रकाश सा फैल गया- राम ने कहा देखो गुरुदेव कह रहे हैं- उठो मुझसे मिलने आओ। राम तुरंत खड़ा हो गया और कपड़े पहनकर गुरुजी लाहिड़ी महाराज से मिलने चला गया।



(तथ्य कथन गूगल साइट्स इत्यादि से साभार)


"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग :  https://freedhyan.blogspot.com/

No comments:

Post a Comment

 गुरु की क्या पहचान है? आर्य टीवी से साभार गुरु कैसा हो ! गुरु की क्या पहचान है? यह प्रश्न हर धार्मिक मनुष्य के दिमाग में घूमता रहता है। क...