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Wednesday, December 5, 2018

क्या हैं “त्याग” के अर्थ



क्या हैं “त्याग” के अर्थ
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी" 
मो.  09969680093
 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
                 ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,  फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"


त्याग संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है जाने देना, छोड़ देना, परित्याग कर देना, संबंध विच्छेद कर लेना, स्वयं को वस्तु के आकर्षण से मुक्त कर लेना। त्याग का अभ्यास वह शक्तिशाली माध्यम है जिसका परिणाम अत्यंत वृहद होता है। यह अभ्यास आपमें मूलभूत परिवर्तन लाने की क्षमता रखता है, और, यही वह अभ्यास है जिसके द्वारा आप अपनी परमानंद की स्थिति प्राप्त कर उसी में स्थित रह सकते हैं।


त्याग पुल्लिंग है जिसके अर्थ वस्तु पर से अपना स्वत्व हटा लेना, उत्सर्ग, नाता तोड़ देने की क्रिया, सांसारिक विषयों एवं व्यवहारों आदि को छोड़ देने की क्रिया, स्वार्थ की उपेक्षा, उदारता पूर्वक दिया गया दान। वास्तव में त्याग को अष्टांग योग के पहले अंग यम के पांचवे उपांग अपरिग्रह से और तीसरे अंग प्रत्याहार से बेहतर तरीके समझा जा सकता है।
एक बार रामकृष्ण परमहंस के एक भक्त ने उनसे पूछा, "भगवद् गीता की मुख्य शिक्षा क्या है?" ऋषि ने उत्तर दिया, "यदि तुम तेजी से लगातार 'गीता' शब्द को बोलो तो आप 'तागी' 'तागी' कहना शुरू कर देते हैं और यही गीता का सार है।" 'तागी' का मतलब होता है त्याग।  


त्याग आध्यात्मिक जीवन का मूल मंत्र है। त्याग का शाब्दिक अर्थ 'परित्याग, 'छोड़ना', 'अस्वीकृति' और 'निंदा' है। हालांकि, गीता में प्रयोग की गयी भावना यह नहीं है। गीता में त्याग का मतलब हमारे रोजमर्रा के जीवन के कर्तव्यों को छोड़ना और एक मठ का जीवन व्यतीत करने के लिए एक वैरागी बनना नहीं है। ही इसका मतलब अन्य दुनियादारी है। इसका मतलब दुनिया और इसके मामलों के प्रति उदासीनता (वैराग्य) भी नहीं है।


कर्म का त्याग असंभव है। प्रत्येक मनुष्य सदैव विचार, वाणी अथवा शरीर द्वारा मनसावाच्याकर्मणा) कर्मरत रहता है। श्री कृष्ण अर्जुन से कहते हैं

ना ही देहभृता शक्यं त्यक्तुं कर्माण्यशेषतः
यस्तु कर्मफल त्यागी त्यागीत्यभिधीयते॥(भ० गी० १८.११)

जब तक प्राणी देह में है, कर्म का संपूर्ण त्याग असंभव है। किंतु जब प्राणी असंग हो जाता है कर्म फल के प्रति अलिप्त हो जाता है, वास्तव में तब वह योगी कहलाता है।

यहां असंग क्या है अलिप्त क्या है। इन शब्दों के सीधे निष्काम कर्म का होना। जो योगी की पहिचान है। पातांजलि के अनुसार कर्म करते समय भी चित्त में कोई वृत्ति नहीं आई। यह योगी के लक्षण हैं।

एक किस्सा है। अरुंधती को दुर्वासा ऋषि के पास भोजन प्रसाद लेकर जाना था तो वे अपने पति वशिष्ठ ऋषि के पास आई व बोलीं कि नदी तो प्रबल वेग से उफन रही है। हम कैसे जाएँ?  ऋषि बोले - नदी के पास जाकर कहना कि यदि वशिष्ठ ऋषि ब्रह्मचारी हैं तो मुझे रास्ता दे दें। पशोपेश में पड़ गई अरुंधती। हमारे तो बच्चे हैं। हमारे पति ब्रह्मचारी कैसे हुए? फिर भी सोचा कि ऋषि की वाणी हैं मिथ्या, नहीं हो सकती।गई नदी से बोलीं, नदी ने मार्ग दे दिया।
दुर्वासा ऋषि को भोजन करा दिया। पूछा अब मैं वापस कैसे जाऊँ। नदी तो पुनः उसी वेग से बह रही है। ऋषि बोले-जाओ नदी से कहना कि यदि दुर्वासा ऋषि निराहारी हो तो मुझे रास्ता दे दो। अरुंधती सोचने लगीं अभी तो ऋषि ने इतना भोजन किया है। निराहारी कैसे हुए?  फिर भी चल पड़ी। नदी से बोली और मार्ग मिल गया। लौटने पर वशिष्ठ मुनि ने समझाया कि मर्म तुम समझी कि नहीं?  हमारी इंद्रियाँ भोग में लिप्त नहीं हैं। अंतःकरण निर्मल है। देह-व्यापार चलता रहता है। अंतरात्मा अपन विशुद्ध रूप में बनी रहती है। हम जब उस रूप में स्थित होते हैं तो जिसका अर्थ जगत त्याग चुके होते हैं।
दुर्वासा इंद्रिय तृप्ति के लिए आहार लेते तो ग्रहण करने वाले कहलाते। ईश्वरीय चिंतन में लीन ऋषि -महापुरुषों को इंद्रियभोग नहीं व्यापते। जहाँ इंद्रियों को तृप्ति मिलती है, वहाँ आदमी के समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में हलचल पैदा हो जाती है। आत्मारूपी समुद्र में यदि कोई हलचल न पैदा हो, ऐसा व्यक्ति इंद्रियभोग करता हुआ दिखाई देकर भी वैसा होता नहीं है।
इसी कारण बाल गंगाधर तिलक कहते हैं कि गीता किसी भी प्रकार के त्याग की शिक्षा देने की बजाय 'ऊर्जावाद' (कर्म योग) का उपदेश देती है। उनके अनुसार कर्म का नियम एक ऊर्जावान सिद्धांत है क्योंकि जब तक कोई कर्म या कृत्य किया जाए, तब तक अगोचर का गोचर बनना या गुणवत्ता रहित का गुणवत्ता युक्त बनना संभव नहीं है। वह कहते हैं कि "कोई भी आदमी कृत्य से मुक्त नहीं है, और उस कृत्य को कभी छोड़ा नहीं जाना चाहिए।" बल्कि इसके बजाय व्यक्ति को उन कृत्यों को करने में व्यस्त होना चाहिए जो सर्वभूताहिते रीता सभी का कल्याण को बढ़ावा देते हैं।


तिलक तर्क देते हैं: "गीता को तो लोगों को स्वार्थ की खोज में एक सांसारिक जीवन जीने के बाद थक जाने पर एक मनोरंजन के रूप में प्रस्तुत किया गया, और ही इस तरह के सांसारिक जीवन को जीने के लिए एक प्रारंभिक सबक के रूप में।" इसका मुख्य प्रयोजन यह खुलासा करना है, "इस सांसारिक जीवन में किसी को कैसे जीना चाहिए" और "सांसारिक जीवन में हमारे सच्चे कर्तव्य" की ओर इशारा करना है। यही कारण है कि यदि वैराग्य की भावना अनुपस्थित है तो गीता मठवासी या तपस्वी जीवन को हतोत्साहित करती है।


गीता में त्याग कृत्य के त्याग करने को संदर्भित नहीं करती है अपितु यह कृत्य में त्याग का संकेत देती है। इसका मतलब है अपना कर्तव्य निभाना लेकिन एक वैरागी मन के साथ सभी कृत्यों को केवल भगवान को समर्पित करते हुए सांसारिक लाभ के बारे में सोचे बिना। यह समर्पण त्याग का सबसे महत्वपूर्ण घटक है।


गीता का सच्चा आदर्श मानवता के लिए बलिदान नहीं, अपितु मानवता के लिए सेवा है। यह अपने आप के लिए सेवा है और किसी भी व्यक्तिगत लाभ, महिमा या जीत के लिए नहीं की जाती है। कोई भी मानवता की सेवा करने में तभी सक्षम होता है जब वह अपने कृत्यों को कुशलता के साथ, दक्षता से और परिणाम की चिंता किए बिना करता है।


कृत्यों का त्याग नहीं किया जाना चाहिए क्योंकि "इस बात का विचार करने में कई कठिनाइयां पैदा होती हैं कि क्या किया जाना चाहिए और क्या नहीं किया जाना चाहिए" क्योंकि कृत्यों को क्रियान्वित करने में समस्याएं आती हैं। एक बार हमको पता चल जाए कि लोकसमाग्रह या जन कल्याण के लिए क्या अच्छा है, हमें फिर पूरी ईमानदारी के साथ और सफलता या विफलता की चिंता किए बिना खुद को संलग्न करना होगा, कथित कृत्य को करने में पूरे विश्वास के साथ।

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुषः।।3.19।।

इसलिये तू निरन्तर आसक्ति रहित होकर कर्तव्यकर्म का भली भाँति आचरण कर क्योंकि आसक्तिरहित होकर कर्म करता हुआ मनुष्य परमात्माको प्राप्त हो जाता है।

यानि किसी भी कृत्य के परिणामों से संलग्न होने से किसी की इसे सबसे अधिक कुशलता से करने और "उच्चतम परिणाम को प्राप्त" करने में मनोवैज्ञानिक तौर पर मदद मिलती है।  कृत्य से कोई लगाव होने को नैशकर्मण्य कहा जाता है। शंकराचार्य के अनुसार इसको उस ज्ञान के द्वारा प्राप्त किया जाता जिसके हम एजेंट मात्र हैं, क्योंकि भगवान ही असली कर्ता है और रामानुजाचार्य के अनुसार सभी कृत्यों को भगवान को समर्पित करके।


प्रयास के बिना यह संभव नहीं हो सकता। यह कोई स्वतः सिद्ध कृत्य नहीं है। अनासक्ति परित्याग की ऐसी स्थिति तक पहुँचने से पूर्व, समर्पित भाव सहित इस पर कार्य करना आवश्यक है। यहाँ इस प्रश्न की सार्थकता बनती है कि वह कार्य क्या हो सकता है?

आप अपनी पसंद की वस्तुओं/पदार्थों का परित्याग करना आरंभ करें। वास्तविक रूप से, यही अभ्यास है; परित्याग करना आरंभ करें। तो क्या आपको अपनी कार, घर एवं अन्य उपयोगी सामग्री को त्याग देना होगा? नहीं, कदापि नहीं। हमारी आसक्ति साधारणतः वस्तुओं में नहीं होती बल्कि उनके द्वारा प्राप्त सुख प्रसन्नता हमें आसक्त करते हैं। आप चाय के प्रति नहीं वरन चाय पीने से प्राप्त सुखानुभूति के प्रति आसक्त होते हैं। अतः यदि आप चाय के स्वाद से प्राप्त सुख का त्याग करने के इच्छुक हो जाएँ तो चाय पीने की आदत आपको स्वतः, बिना प्रयास के ही, छोड़ देगी। मेरी बेटी ने एक बार चर्चा में बहुत सुंदर बात की। उसने कहा पापा आपने भोजन में क्या छोडा कया रखा यह प्रश्न नहीं है। प्र्शन यह है आप जो खाते हैं वह आप कितना सीमित ग्रहण करते हैं।


त्याग करने का अभ्यास प्रथम स्तर पर उन वस्तुओं की पहचान से आरंभ होता है जो आपको अतिप्रिय हों। उनमें से किसी एक वस्तु से आरंभ करें। एक निश्चित अवधि के लिए उसे छोड़ने का निश्चय करें। वह एक सप्ताह, एक मास, एक वर्ष अथवा आपके द्वारा निश्चित कोई भी समयावधि हो सकती है।


जिसने इच्छा का त्याग किया है, उसको घर छोड़ने की क्या आवश्यकता है? और जो इच्छा का बंधुआ है उसको वन में रहने से क्या लाभ हो सकता है? सच्चा त्यागी जहां रहे वही वन और वही भवन कंदरा है।

चाणक्य कहते हैं।  जिस आदमी की त्याग की भावना अपनी जाति से आगे नहीं बढ़ती, वह स्वयं स्वार्थी होता है और अपनी जाति को भी स्वार्थी बनाता है।

महात्मा गांधी के अनुसार आत्म-त्याग का सच्चा मतलब समझे बिना लोग उसके बदले में कई अन्य क्रियाओं का आचरण करके ही सन्तुष्ट हो जाते हैं। यहाँ तक कि कई लोगों ने तो उसका मतलब आत्मघात तक समझ रक्खा है। कितनों का विश्वास है कि बाह्य वस्तुओं-धन, कुटुम्ब, ऐश्वर्य और घर वार को छोड़कर जंगल में जा बैठना ही आत्मत्याग है। कितने नाना प्रकार की यातनाओं द्वारा शरीर को कष्ट देकर सुखा डालने को आत्मत्याग समझते हैं। कितने लौकिक यश की इच्छा से प्रेरित होकर अपने धन और प्राणों को समाज और देश के नाम पर न्यौछावर कर देने को आत्मत्याग मानते हैं। कहाँ तक कहें, दुनिया में जितने उत्तम कार्य हैं वे सब आत्म-त्याग के स्वरूप ही समझते जाते हैं।


आत्म-त्याग का सच्चा स्वरूप उपर्युक्त सब दृष्टांतों से भिन्न और विलक्षण है। आत्म-त्याग स्वार्थ त्याग का दूसरा नाम है और स्वार्थ कोई ऐसी वस्तु नहीं जो हृदय से बाहर फेंकी जा सकें। वह तो मन की एक अवस्था विशेष है जिसको दूसरे रूप में बदलने की आवश्यकता है। आत्म-त्याग का मतलब आत्मा का नष्ट करना नहीं, परन्तु वासनाओं और इच्छाओं से लिप्त आत्मा का त्याग है। स्वार्थ का ठीक अर्थ क्षणस्थायी सुखों में फंसकर सदाचरण और विवेक को भूलना है। स्वार्थ हृदय की उस वासनामय और लोभ-पूर्ण अवस्था का नाम है जिसका त्याग किये बिना सत्य का उदय नहीं हो सकता और शान्ति और सुख का ही हृदय में संचार हो सकता है।


केवल वस्तुओं का त्याग ही सच्चा स्वार्थ त्याग नहीं कहला सकता, किन्तु वस्तुओं की इच्छा का त्याग करना ही वास्तविक त्याग है। मनुष्य अपने धन, कुटुम्ब, परिवार और घर को छोड़कर भले ही संन्यासी बन जाय, परन्तु जब तक मानसिक वासनाओं और इच्छाओं का दमन किया जाय तब तक सारी बाह्य क्रियायें केवल ढोंग मात्र है। सब लोगों को विदित है कि महात्मा बुद्ध संसार को त्यागकर जंगल में भी बैठे, परन्तु छः वर्ष तक उनके हृदय में ज्ञान का उदय हो सका, क्योंकि वे इतने दिन तक अपने मन को वश में कर सके थे। ज्यों ही उनका हृदय शुद्ध हुआ त्यों ही एक दम उनके ज्ञान नेत्र खुल गये और चराचर जगत उन्हें प्रत्यक्ष हो गया।


यदि चित्त को वश में किये बिना कोई मनुष्य वस्तुओं का परित्याग कर दे तो उसे शान्ति के बदले क्षोभ और दुःख प्राप्त होगा। यही कारण है सैकड़ों नवयुवक साधु अपने वेश के प्रतिकूल आचरण करने लगते हैं। केवल मान बड़ाई अथवा यशः प्राप्ति के लिए छोड़ा हुआ संसार थोड़े ही समय में उनके हृदय पर ऐसा आकर्षण करता है कि वे बेचारे अपने आवेगों को सहने में असमर्थ हो जाते हैं। यदि बाह्य वस्तुओं की ममता नहीं घटी है तो उनका परित्याग करना ही मूर्खता है। मानसिक शाँति को नष्ट करने वाले बाह्य पदार्थ नहीं हैं। अपने हृदय में इन पदार्थों के प्रति जो इच्छा उत्पन्न होती है, वही सुख और शान्ति को चुराने वाली है।

.................... क्रमश: ..............................................
(तथ्य, कथन गूगल से साभार) 

"MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
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