बद्ररायण ब्रह्मसूत्र या उत्तर मीमांसा
समन्वय अध्याय का प्रथम पाद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
प्रथम अध्याय ( समन्वय )
समन्वय नाम क्यों। क्योकिं इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध
श्रुतियों का समन्वय ब्रह्म में किया गया है। यानि आपस में ताल मेल बैठाने का
प्रयास किया गया है।
अथातो
ब्रह्मजिज्ञासा । ( ब्रसू-१,१.१ । )
अथ ततो
ब्रह्म जिज्ञासा।
अथ
यानि ये ततो यानि बाद में ब्रह्म की जिज्ञासा।
मतलब
आदमी दुनिया के भोग विलास में कितना भी लिप्त रहे। कितने भी वहिर्मुखी कार्य करे। किंतु अंत में
उसके अंदर जब स्थाई शांति नहीं मिलती तब वह ब्रह्म को जानने की उत्सुकता रखता है।
बोलते है “देर आये दुरुस्त आये”। इसी बात को इस सूत्र में कहा है। “जान बची तो
लाखो पाये, लौट के बुद्धु घर को आये” । मतलब बच्चू बाबू कहां तक बचोगे एक न एक दिन
इस प्रश्न में फंसोगे। इसी लिये बोला अथातो ब्रह्मजिज्ञासा।
यदि साहित्यिक शब्दों में या तथाकथित सजावटी शब्दों में कहें तो “अब
हमें ब्रह्म जानने की जिज्ञासा हुई। अथवा दूसरों को समझाने हेतु कह सक्ते हैं "आओ, अब हम परम सत्य की जिज्ञासा करें।" यह एक आवाहन है, प्रस्थान है, दिशा है,
गति भी। धर्म-दर्शन की
यात्रा। धर्म की जननी है आस्था और दर्शन का अर्थ है जिज्ञासा।
अब आप देखें। वेद का
जन्म इसी लिये हुआ कि हम जान सके। ब्रह्म क्या
है। हम ही ब्रह्म हैं। यह मात्र सोंचना या
जानना नहीं है बल्कि अनुभव के द्वारा ही प्राप्त होता है। साथ ही हम वेद
महावाक्यों द्वारा यह भी जानें अनुभव करें “सर्व खलुमिदम ब्रह्म”।
प्रश्न यह है क्यों जानें। तो इसका उत्तर है कि क्यों कि मानव का शरीर
इसीलिये मिला है।
जन्माद्यस्य यतः । ( ब्रसू-१,१.२ । )
जन्म
अध्य अस्य यत: ।
यानि
जन्म जिसका वह धारणा से परे नियमित हुआ जानो। मतलब जो भी जन्म हुआ यानि इस धरा पर
उत्पन्न हुआ वह धारणा यानि तुम्हारे ज्ञान के परे और जो नियमित यानि सतत निरंतर
कार्यशील उसको जानो। या “जिसने यह सृष्टि उत्पन्न की है , जो इसका पालन कर रहा है और जो इसका (समय पर) संहार करेगा, वह (ब्रह्म अर्थात परमात्मा) है और हमारी बुद्धि से परे
है, उसको जानो।”।
संसार में कुछ भी स्वतः अर्थात अपने से बनता हुआ दिखाई नहीं देता । यह इस सर्वत्र प्रसिद्ध जगत् को देखने से हमें पत्ता चलता है। ब्रह्मसूत्र और फिर आधुनिक काल के विख्यात वैज्ञानिक न्यूटन ने भी कहा है कि प्रकृति का प्रत्येक कण यदि खड़ा है तो खड़ा ही रहेगा और यदि चल रहा है तो सीधी रेखा में एक स्थिर गति से चलता ही रहेगा , जब तक कि उस पर किसी बाहरी शक्ति का प्रभाव न पड़े।
अतः पृथ्वी , चन्द्र और अन्य बड़े - बड़े नक्षत्रों की गत्ति आरम्भ करने वाला और इसको इतने काल से अंडाकार मार्ग पर चलाने वाला, कोई महान् सामर्थ्यवान् होना चाहिए।
यह सिद्धांत सर्वमान्य हैं कि बिना कर्ता के कर्म नहीं होता। इसका
वर्णन
दर्शनाचार्य व्यास मुनि ने
भी ब्रह्मसूत्रों में भी किया है।
शास्त्रयोनित्वात् । ( ब्रसू-१,१.३ । )
शास्त्र योनि त्व आत।
शास्त्र उसकी योनि से उत्पन्न अर्थात वह शास्त्र मतलब ज्ञान का जनक
है। त्व आत। उसी से आते है या जन्मते है। यानि ज्ञान भी उसी के द्वारा उत्पन्न होता
है।
अर्थ हुआ ब्रह्म में जगत् का कारणत्व दिखलाने से उसकी सर्वज्ञता सूचित हुयी, अब उसी को दृढ़ करते हुये कहते हैं- अनेक विद्यास्थानों से उपकृत, दीपक के समान सब अर्थों के प्रकाशन में समर्थ और शास्त्र का योनि अर्थात् कारण ब्रह्म है। वेद उपनिषद इत्यादि जो भी सर्वज्ञगुणसंपन्न शास्त्र कि
उत्पत्ति सर्वज्ञ को छोड़ कर अन्य से संभव ही नहीं है। यह तो लोकप्रसिद्ध तत् तु समन्वयात् । ( ब्रसू-१,१.४ । )
वो
तू समन्व्य करता है।
वो
ब्रह्म ही है जो जगत में समन्वय करनेवाला यानि ताल -मेल, पाप- पुण्य, कर्म- अकर्म
में ताल मेल यानि न्याय करनेवाला है।
अन्य अर्थ हैं “ पदार्थ- (तत्) इसमें (तु) आक्षेपकत्र्ता के उत्तर
के लिये
आया है। (समन्वयात्) सब
विद्वानों के लेखों को एकमत होने से वा सबका उसमें सम्मत होने से।“
ईक्षतेर् नाशब्दम् । ( ब्रसू-१,१.५ । )
ईशतेर ना शब्दम
ईशतेर न अशब्दम
पहली पंक्ति का अर्थ हुआ। ईश मात्र शब्द नहीं है।
दूसरी पंक्ति के अर्थ पहले यह श्लोक देखे।
इस श्लोक के अनुसार
अशब्दम स्पर्शमरूपंव्ययम् ,तथा रसं नित्यं गन्धवच्च
यत"(कठोपनिषद 1/3/15 )अर्थात वह परब्रह्म अशब्द, अस्पर्श, अरूप, अव्यय, नित्य व अनादि है । भार रहित, स्वयम्भू, कारणों का कारण, कारण ब्रह्म है। उसे ऋषियों ने आत्मानुभूति से जाना व वेदों में गाया।
ईश्वर अशब्द
भी नहीं है।
गौणश् चेन् नात्मशब्दात् । ( ब्रसू-१,१.६ । )
वह पदार्थं (गौणः) कथनमात्र शब्द भी नहीं है।
(आत्मशब्दात्) उपनिषद्
का तात्पर्य आत्मा से होने से लें। तो मात्र आत्मा भी नहीं है।
गौणश
का अर्थ मराठी भाषा में भाग्यवान, सक्रिय, लक्षपूर्वक, स्वैच्छिक होता है।
गौणश चे न न आत्म शब्दात ।
वह भाग्यवान, सक्रिय, लक्षपूर्वक, स्वैच्छिक भी नहीं है।
यानि भक्तों के अधीन है। साथ ही वह न मात्र आत्म शब्द है।
अन्य अर्थ । वह गौण यानि महत्वहीन नहीं है। और न मात्र शब्द है।
अन्य अर्थ । वह गौण यानि महत्वहीन नहीं है। और न मात्र शब्द है।
तन्निष्ठस्य मोक्षोपदेशात् । ( ब्रसू-१,१.७ । )
तन्निष्ठ मोक्ष
उपदेशात् ।
उसमें बैठना मोक्ष में बैठना है।
उसमें (परब्रहम् में) स्थित होने वाले व्यक्ति की मुक्ति बतलाई गई है।
इसमें चित्त के स्थिर होने से है मोक्ष को उपदेश होने से।
इसमें स्थिर होना मोक्ष में स्थिर होना है।
सब शास्त्रकार और वेद इस बात को उपदेश करते हैं कि जिसको परमात्मा को साक्षात् ज्ञान होता है, उसकी मुक्ति होती है और जो प्रकृति की उपासना करता है, वह महान्धकार वाली योनियों को प्राप्त होता हैं। यदि प्रकृति को आत्मा मान लिया जाय, तो वेद के विरूद्ध होने के अतिरिक्त व्यवस्था भी उचित नहीं होगी; क्योंकि बंधन के कारण मुक्ति होना असम्भव है और यह भी बतलाया है कि जो आत्मा को जानते हैं, वे दुःखों से तर जाते हैं। प्रकृति को आत्मा कहने से और उसके जानने से दुःखों से तर जाना चाहिए; यह हो नहीं सकता।
हेयत्वावचनाच् च । ( ब्रसू-१,१.८ । )
हेयत्व वचनाच्
च
।
प्रकृति को
आत्मा मतलब (पहले कहे
वचन जैसे ब्रह्म को
आत्मा कहना,
ईशव्र को
शब्द कहना प्रकृति को
आत्मा कहना इत्यादि) हीनतापूर्ण यानि निम्न यानि गलत
बातें हैं।
प्रतिज्ञाविरोधात् । ( ब्रसू-१,१.९ । )
प्रतिज्ञा विरोधात।
प्रतिज्ञा अविरोधात।
पहले वाक्य में प्रतिज्ञा का विरोध। जो गलत दिखता है।
दूसरे वाक्य में जो बाते कहीं है वे परिज्ञापूर्वक है और और उनका विरोध नहीं। अर्थात वे सत्य हैं।
स्वाप्ययात् । ( ब्रसू-१,१.१० । )
स्व अप्य यात ।
स्वाप्ययात् । ( ब्रसू-१,१.१० । )
स्व अप्य यात ।
मतलब जिसको यह ज्ञान आ गया वह जगत की ओर से सो जाता है। अर्थात विमुख हो जाता है।
गतिसामान्यात् । ( ब्रसू-१,१.११ । )
गति सामान्य
अत्।
(जो उसका ज्ञान प्राप्त कर लेता है) उसकी गति सामान्य हो जाती है। दूसरे शब्दों में वह गीतानुसार स्थिरबुद्धि हो जाता है। अर्थात कहीं दिखावा और अंदर कुछ और बाहर कुछ और वाली स्थिति नहीं रहती है। यूं कहे तो वह सिंगिल फेस बन जाता है। कई चेहरे नहीं लगाता है।
श्रुतत्वाच् च । ( ब्रसू-१,१.१२ । )
श्रुत त्वाच् च।
सभी सुनी बातें यही कहती है। (क्या कहती हैं)
आनन्दमयोऽभ्यासात् । ( ब्रसू-१,१.१३ । )
आनन्दमयोऽभ्यासात् । ( ब्रसू-१,१.१३ । )
आनंदमय अभ्यासात्।
उसको जानने का अभ्यास आनंदमय है। अर्थात वह आनंददाता है तुम उसको पाने का अभ्यास यानि प्रयत्न तो करो।
विकारशब्दान् नेति चेन् न प्राचुर्यात् । ( ब्रसू-१,१.१४ । )
विकार शब्दान न इति न प्राचुर आत।
विकार शब्दान न इति न प्राचुर आत।
(ये जो सूत्र पहले बोले हैं) ये विकार यानि गलत नहीं हैं और न अधिक ही बोले हैं।
तद्धेतुव्यपदेशाच् च । ( ब्रसू-१,१.१५ । )
तद् उद्भव्य उप्देशाच् च।
वो उद्भासित यानि प्रकट हुये उपदेश ही हैं।
मान्त्रवर्णिकमेव च गीयते । ( ब्रसू-१,१.१६ । )
मान्त्र वर्णिक मेव च गीयते।
मंत्र के वर्णो यानि शब्दों और अर्थों ने यही गाया है। यानि मंत्र और उनके शब्द भी यही कहते हैं। (जो हमने ऊपर कहा है)।
नेतरोऽनुपपत्तेः । ( ब्रसू-१,१.१७ । )
न इतर अनुपपत्ते (अन् उप पत्ते किसी भी उपाय से)
नेतरोऽनुपपत्तेः । ( ब्रसू-१,१.१७ । )
न इतर अनुपपत्ते (अन् उप पत्ते किसी भी उपाय से)
(और यह सब जो बोला) उसे इधर युक्तियों से सिद्ध नहीं किया जा सकता।
भेदव्यपदेशाच् च । ( ब्रसू-१,१.१८ । )
भेदव्य उपदेश च ।
भेद युक्त उपदेश से ( भी नहीं जान सकते)
कामाच् च नानुमानापेक्षा । ( ब्रसू-१,१.१९ । )
कामाच् च नानुमानापेक्षा । ( ब्रसू-१,१.१९ । )
काम अच् न अनुमान अपेक्षा।
न काम की भांति इच्छा होने से या अनुमान (से उसको जान सकते हैं)
अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति । ( ब्रसू-१,१.२० । )
तद् योग श अस्ति।
अस्मिन्न् अस्य च तद्योगं शास्ति । ( ब्रसू-१,१.२० । )
तद् योग श अस्ति।
(आगे जो दिये हैं) इसमें न यह की उसका ही जुडाव शासित है।
हम जो कहेगें उसमें उस ब्रह्म की ही कृपा होगी।
अन्तस् तद्धर्मोपदेशात् । ( ब्रसू-१,१.२१ । )
अन्तस् तद् धर्म उपदेश अत् ।
यह जो उपदेश है वह ह्रदय में उत्पन्न उसका ही उपदेश है। मतलब वो ही वह ही करवा रहा है।
भेदव्यपदेशाच् चान्यः । ( ब्रसू-१,१.२२ । )
भेदव्य (भेद
होने
से)
उपदेश अच् च अन्य:।
(बुद्धि के) भेद होने के कारण यह उपदेश किसी अन्य द्वारा कहे गये लगते हैं। (जबकि यह सब ब्रह्म की ही कृपा है)
आकाशस् तल्लिङ्गात् । ( ब्रसू-१,१.२३ । )
आकाशस् तल्लिङ्गात् । ( ब्रसू-१,१.२३ । )
आकाशस् तल लिंगात
।
आकाश से तल ( नभ से धरातल तक) (उसका ही लिंग है) तक वो ही जनक है।
अत एव प्राणः । ( ब्रसू-१,१.२४ । )
और यह प्राण भी (वो ही है)।
अत एव प्राणः । ( ब्रसू-१,१.२४ । )
और यह प्राण भी (वो ही है)।
ज्योतिश् चरणाभिधानात् । ( ब्रसू-१,१.२५ । )
ज्योतिश् चरणा अभि धन आत ।
ज्योतिश् चरणा अभि धनात।
(ज्ञान की बुद्धी की) ज्योति उसके चरणों से प्राप्त धन है।
छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् । ( ब्रसू-१,१.२६ । )
छन्दो अभिधान न । न इति । तथा चेत अर्पण नि गदात् तथा हि दर्शनम्।
छन्दोऽभिधानान् नेति चेन् न तथा चेतोऽर्पणनिगदात् तथा हि दर्शनम् । ( ब्रसू-१,१.२६ । )
छन्दो अभिधान न । न इति । तथा चेत अर्पण नि गदात् तथा हि दर्शनम्।
(वह) छंद (गीतों) की उपाधि (कथन) नहीं (है)। और (वह) चेतना का अर्पण और उस चेतना का दर्शन है।
भूत आदि पादव्य उपदेश उप पत्तेश।
भूत यानि बीता हुये भूले बिसरे उपदेश किसी पत्ते के उप यानि बीच की नसें या सूक्ष्म टहनियां।
अर्थात अभी तक के दिये गये पिछ्ले उपदेश उस भांति (जिस भांति) पत्तो का (आधार उनके अंदर विद्ध्यमान मन सूक्ष्म टहनी या नसें है) आधार है।
उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात् । ( ब्रसू-१,१.२८ । )
उपदेशभेदान् नेति चेन् नोभयस्मिन्न् अप्य् अविरोधात् । ( ब्रसू-१,१.२८ । )
उपदेश भेदान नेति। चेन् नोभय अस्मिन्न् अप्य् अविरोधात्।
नोभय : माया सत्, असत्, उभय, नोभय से विलक्षण अनिर्वचनीय है ।
(ये) उपदेश में भेद होने से (भी) समाप्त नहीं। नोभय (सत्, असत्, उभय) होने पर भी कोई विरोध नहीं।
प्राणस् तथानुगमात् । ( ब्रसू-१,१.२९ । )
प्राणस् तथा अनुगमात्।
प्राण से और अनुगमन से।
प्राण (दे देने से) से और न किसी का अनुगमन यानि मार्ग पर चलने से (समझा जा सकता है।)
न वक्तुर् आत्मोपदेशाद् इति चेद् अध्यात्मसंबन्धभूमा ह्य् अस्मिन् । ( ब्रसू-१,१.३० । )
न वक्तुर् आत्म उपदेश
आद् चेद् आध्यात्म संबंध भूमा ह्य अस्मिन्।
न वक्तव्य (देने से) आत्म उपदेश आदि (से) (अथवा) आध्यात्म सम्बंधित ऐश्वर्य से (वह प्राप्त होता है)।
शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् । ( ब्रसू-१,१.३१ । )
शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत् । ( ब्रसू-१,१.३१ । )
शास्त्र दृष्टया तू उपदेशो वामदेववत
।
शास्त्र की दृष्टि से (ही सही) (ज्ञानी) वामदेव की भांति तेरे उपदेशों (से भी नहीं प्राप्त होगा)
जीवमुख्यप्राणलिङ्गान् नेति चेन् नोपासात्रैविध्यादाश्रितत्वाद् इह तद्योगात्। (ब्रसू-१,१.३२। )
जीव मुख्य प्राण लिंगान् नेति चेन् न उपासा
त्रै
विद्ध्या आश्रित
त्वाद् इह तद् उद्ध्योगात
।
जीव का मुख्य प्राण का लिंग (हो) ऐसा नहीं (होकर) तीन विद्द्या (जन्म, पोषण और मरण) और इस जगत में उसके आश्रित होने से योग (भी) नहीं है।
यानि इस जगत में वह जीव के प्राणों का जनक हो, मात्र जन्म पोषण और मरण अथवा आश्रय देने वाला या (मात्र) योग हो। (मतलब वह मात्र यह सब भी नहीं है)
इति श्री बादरायण कृत ब्रह्म सूत्रो प्रथम अध्यायेअंतर्गत: प्रथम पाद समंवय:
॥
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
अति स
ReplyDelete