क्या होती है भक्ति???
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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“bullet
जिस
मानव ने
भक्तिरस के
प्रेमाश्रुओ का
आनन्द नहीं लिया वह
प्रेम और
विरह की
अनूभुति नही
जान सकता” देवीदास विपुल “खोजी”
“जिस
मानव ने रामरस का
नशा न
पिया उसे
नशे का
ज्ञान मात्र एक भ्रम है” देवीदास विपुल “खोजी”
ईश्वरे परमं प्रेम भक्तितरित्यभिधीयते। आसक्तिविषय प्रेम देहदारगृहादिषु॥
ईश्वर
के
प्रति
जो
परम
प्रेम
है
उसे
भक्ति
कहते
हैं।
अपनी
देह
अथवा
पत्नि
या
अन्य
विषयो
के
प्रति
जो
प्रेम
है
उसे
आसक्ति
कहते
हैं।
भक्ति को संत लोग अपने तरीके से वर्णन करते हैं पर वह सब मात्र एक बौद्धिक लेखन है जगत के लिये। शब्दों की बहस के लिये। मेरे विचार से भक्ति एक छोटी सी किंतु आनंददायक अनुभूति है जिसमें रस ही रस है। भक्ति के बिना जीवन नीरस है। वहीं भक्ति योग से हम ज्ञान योग सहजता से प्राप्त कर लेते हो। किंतु ज्ञान योग एक दम नीरस पकाऊ है जिसमें पतन का अहंकार का खतरा हमेशा बना रहता है। क्योकि यह अद्वैत का अनुभव देकर वेद महावाक्यों की अनुभुतियां करवा देता है। जिससे मनुष्य अपने को ही ब्रह्म मानने लगता है। लेकिन मैं इसको प्रभु का मायाजाल कहता हूं क्योकि ब्रह्म वो जिसके अधीन माया। मानव वो जो माया के अधीन। हम कितना भी ज्ञान का ज्ञानयोग का अनुभव कर लें लेकिन हम रहते तो माया के अधीन ही हैं। अत: हम ब्रह्म का अंश हो सकते हैं। ब्रह्म में विलीन होकर मोक्ष भी प्राप्त कर सकते हैं। किंतु ब्रह्म नहीं हो सकते।
चलिये कुछ भक्ति क्या है इस पर भी चर्चा की जाये।
किसी संत ने कहा “ जब तुम्हें मोक्ष भी जहर लगने लगे तब समझना तुम्हे भक्ति प्राप्त हो गई”।
कितनी सटीक बात सुंदर परिभाषा। भक्त को मोक्ष से क्या लेना देना। मैं तेरा, तू जैसे चाहे रखे जो चाहे दे। जो चाहे करे। प्रभु मुझे सिर्फ तेरा समरण रहे। तेरी इच्छा मेरी इच्छा। मैं और मेरी इच्छा कुछ नहीं।
“जो विभक्त नहीं वो भक्त” स्वामी शिवोम तीर्थ।
कितनी गूढार्थी बात। मतलब जो सदा तुझमें लीन रहे तुझसे अलग न हो। वो ही भक्त। दुनिया छोडकर सिर्फ तेरा वह ही भक्त।
वैसे
कुछ
संतों
के
अनुसार
भक्ति
को
निम्नलिखित
प्रकारों
से
जाना
जा
सकता
है
।
1.
सर्गुण भक्ति 2. निर्गुण भक्ति 3. परा भक्ति 4. निर्वाणी भक्ति
सर्गुण भक्ति का जैसे – गुरूद्वारा, मंदिर, मस्जिद, चर्च आदि में पूजा के लिए जाना, देवी-देवताओं की पूजा कराना, मूर्ति पूजा, ग्रहों की पूजा, यज्ञ आदि करना । इनमे विभिन्न मंत्रों का सहारा भी लिया जाता है । इसमे साधक प्रभु के विभिन्न रूपों की पूजा करता है । यह वाह्यमुखी भक्ति है । इस प्रकार की भक्ति करने वाले साधक को मृत्यु उपरांत आत्मा के पुण्य कर्मों के आधार पर उसको पित्र लोक या स्वर्ग लोक आदि में निवास मिलता है लेकिन पुण्य कर्मों के फल की समाप्ति पर आत्मा को पुन: इस नाशवान संसार में भेज दिया जाता है ।
निर्गुण भक्ति आंतरिक संगीतमय आवाजों तथा ज्योति की भक्ति है । निर्गुण भक्ति करने वाले लोग मानते हैं कि प्रभु का कोई रंग, रूप नही है और वह निराकार है और मानव रूपी मंदिर के अंदर ही पाया जा सकता है । इसमे साधक मुख्यत: आत्म साक्षात्कार पर केन्द्रित रहते हैं । यह भक्ति पाँच मुद्राओं चाचरी, भूचरी, अगोचरी, उन्मुखी और खेचरी पर आधारित है । उक्त सभी ध्यान की मुद्राओं से ब्रहमाण्ड में प्रवेश व यात्रा करने का माध्यम सुषमना नाड़ी है । निर्गुण भक्ति की पहुँच सहस्रसार चक्र तक है । इसमे ध्यान की मदद से साधक ब्रहमाण्ड को अपने शरीर के अंदर देखने लगता है और अपने अंतर में असीम परमानंद अनुभव होने लगता है ।
परा भक्ति की पहुँच सर्गुण, निर्गुण दोनों भक्तियों, वेदों तथा अन्य धार्मिक ग्रन्थों से परे है । लेकिन इसमे भी साधक भक्ति के लिए विभिन्न मंत्रों का उपयोग करता है । इस भक्ति से ब्रह्मांड की चौथी तक साधक गमन करता है तथा असीम आनंद का अनुभव करता है लेकिन जिस प्रकार बूंद समुद्र में मिलकर समुद्र हो जाती है इसी प्रकार आत्मा परमपिता परमेश्वर में मिलकर स्वयं परमपिता परमेश्वर नहीं होती है ।
निर्वाणी भक्ति
यह भक्ति का वह प्रकार है जिसके माध्यम से कोई साधक अपनी आत्मा का पूर्ण कल्याण कर लेता है । इस विधि में जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है कि किसी मंत्र आदि का जाप नही करना होता है । परा भक्ति के पार जाकर “सार शब्द” जो मुक्ति प्रदान करने वाला आत्मिक शब्द है । जिसको लिखा, पढ़ा या बोला नहीं जा सकता है यही मुक्ति कारक है । यही सार शब्द साधक की आत्मा को कालातीत कर स्थायी मुक्ति प्रदान करने की आध्यात्मिक शक्ति रखता है। सद्गुरु की कृपा से जब सार शब्द प्रकट होता है तो यह मन माया की सीमा से खीच कर पार ले जाता है । इसी सार शब्द के बारे में कबीर साहिब ने बहुत ही विस्तार से चर्चा की है ।
अपने आराध्य के प्रति सम्पूर्ण समर्पण ही भक्ति है। भक्ति प्रेम की वह धारा है जो हृदय के समस्त कलुषों को बहा कर उसे निर्मल तो करती है साथ ही भक्त को भी इस लोक से परे, वहाँ ले जाती है, जहाँ केवल आनंद ही आनंद है; जहाँ ईश्वर हैं। ईश्वर की प्राप्ति के लिए गीता में कृष्ण ने कर्मयोग, ज्ञानयोग, और भक्तियोग का उपदेश दिया है। भक्ति को इनमें सबसे उत्तम मन गया है क्योंकि यह सहज साध्य है तथा यह इसलिए भी उत्तम है क्योंकि इसमें सम्पूर्ण समर्पण को प्रधानता दी गई है। सम्पूर्ण समर्पण के बिना भक्ति संभव नहीं हो सकती है और अहंकार के रहते आत्म-समर्पण नहीं हो सकता है – "जब मैं था तब हरि नहीं, अब हरि हैं मैं नाहीं।"
कुछ लेने के लिए झुकना पड़ता है। विनीत याचक को ही दान दिया जा सकता है, रौब के साथ क्या याचना संभव है? रौब से याचना नहीं डकैती की जाती है। वैसे, भक्ति तो निष्काम की जाती है। भक्त की इच्छा यदि कुछ होती भी है तो भी वह अपने आराध्य के सामीप्य की इच्छा और अनुकम्पा की कामना से अधिक कुछ नहीं होती। परन्तु इसके लिए भी आराध्य का अनुराग्रह आवश्यक है, और उनके अनुग्रह के लिए विनय आवश्यक है। भक्ति विनय देती है। ज्ञानमार्ग और कर्ममार्ग में अहं की गुंजाइश है पर भक्ति में अहं नहीं हो सकता, 'मैं' नहीं हो सकता, वहाँ केवल और केवल हरि ही होंगे।
प्रेम के कई रूप होते हैं । अनुराग कई रूपों में प्रकट होता है। सेवक का स्वामी के प्रति सम्मान, माता का पुत्र के प्रति वात्सल्य, दिन-दुखियों के प्रति करुणा अथवा प्रेमी-प्रेमिका का एक दूसरे के प्रति प्रेम, ये सभी प्रेम के ही विभिन्न रूप है। भक्ति भी प्रेम का ही एक रूप है इसलिए भक्तिमार्ग में भी विभिन्न प्रकार से ईश्वर प्रेम करने की स्वतंत्रता दी गई है।
इस आधार संतों ने पर भक्ति के 5 भेद बताए गए हैं-
1 . दास्य भक्ति 2. सख्य भक्ति 3. माधुर्य भक्ति 4. वात्सल्य भक्ति और 5. शांत भक्ति
1. दास्य भक्ति - जब ईश्वर के प्रभाव और प्रभुता के सम्मुख नतमस्तक होकर भक्त ईश्वर की सेवा और आज्ञा पालन को ही सर्वाधिक महत्व देने लगता है तब ऐसी भक्ति दास्य भक्ति कहलाती है। तुलसीदास ने ऐसी ही भक्ति की थी।
2. सख्य भक्ति - अपने आराध्य के प्रभाव को जानते हुए, उसीको सर्वाधिक महत्वपूर्ण मानना तथा स्वयं को उसके अनुकूल बनाने का प्रयास करना, सम्पूर्ण विश्वास के साथ उससे मित्रवत स्नेह रखना तथा उसके लीलाओं का गान करके प्रसन्न रहना। ये सब बातें सख्य भक्ति के अंतर्गत आती हैं। अपने आराध्य का स्मरण भक्त को सुख प्रदान करता है और वो उसी में रमा रहता है। इस तरह की भक्ति सूरदास ने की थी।
3. माधुर्य
भक्ति
- भक्त जब अपने
अराध्य
से
कान्तभाव
से
प्रेम
करने
लगे
तो
ऐसी
भक्ति
माधुर्य
भक्ति कहलाती
है।
ब्रजांगनाओं
ने
कृष्ण
से
ऐसा
ही
प्रेम
किया
था।
मीरा
ने
भी कृष्ण
की
आराधना
पति
रूप
में
की
थी।
यहाँ
यह
ध्यान
देना
आवश्यक
है
कि
माधुर्य
भक्ति
सूफ़ियों
के
प्रेममार्ग
से भिन्न
है
वहाँ
ईश्वर
स्त्री
है
तथा
भक्त
पुरुष
, अर्थात
वहाँ
कान्ताभाव नहीं
है।
4. वात्सल्य भक्ति - भक्ति के इस प्रकार में भक्त या तो अपने अराध्य को पितृवत प्रेम करने लगता है अथवा भगवान के बालरूप पर मुग्ध हो कर उसकी सेवा में उसी तरह लग जाता है जैसे कोई अपने शिशु की परवारिश करता है। एक माँ का पुत्र के प्रति प्रेम वात्सल्य कहलाता है अतः इसीलिए इस प्रकार की भक्ति वात्सल्य भक्ति कहलाती है। नन्द यशोदा का कृष्ण के प्रति प्रेम वासल्य भक्ति का ही उदाहरण है।
5. शांत भक्ति - 'यह संसार माया है
अर्थात अवास्तविक है। जीवन अनित्य है,क्षणभंगुर है और
विषय वासनादि आत्मा के बंधन स्वरुप है' ऐसा
मान कर
जब कोई
भक्त भगवान् की शरण में
जाता है, तब
एक ओर सांसारिकता के प्रति विरक्ति तथा
दूसरी ओर
इष्ट प्रति अनुराग के कारण उसके मन एक
प्रकार की
सम उत्पन्न होता है।
इस कोटि की
भक्ति इसी
प्रकार का निर्विकार और शांत प्रवृति का
साधक करता है।
इस प्रकार भक्ति के अनेक रूप है, अनेक रीतियाँ है। कोई ईश्वर को स्वामी के रूप में देखता है तो कोई सखा भाव से, कोई उन्हें पुत्रवत प्रेम करता है तो कोई पति के रूप में। भक्त हर रूप में उनसे प्रेम करने के लिए स्वतंत्र है।
भक्त भगवान् की सेवा करता है, उनकी महिमा का गान करता है, उनकी लीलाओं पर रीझता है, उनसे प्रेम करता है, उनके अनुरूप बनने का प्रयत्न करता है। कभी-कभी वह उनसे रूठ भी जाता है, तो कभी-कभी उपलम्भ भी देता है। वह उनकी बाल-लीलाओं पर मुग्ध होता है तो कभी उन्हीं के पीड़ा में स्वयं भी पीड़ित हो जाता है। भक्त और भगवान् का यह सम्बन्ध ही भक्ति है।
भक्ति ईश्वर से साक्षात्कार कराती है। इसमें भक्त और भगवान् के बीच अन्य किसी की आवश्यकता नहीं पड़ती है न ही इसमें धर्म और जाति आदि का भेद-भाव होता है। यह सभी को एक धरातल पर लाती है, मनुष्यता के धरातल पर............ इसीलिए भक्ति आज भी प्रासंगिक है तथा आगे भी रहेगी।
ईश्वर के प्रति सच्चा प्रेम प्रकट हो जाने के बाद भक्त घर-परिवार और संसार के व्यवहार के काम का नहीं रह जाता। ऐसी स्थिति में उसे न दिन का भान रहता है और न रात का। वह कभी हसंता है तो कभी अपने अपास्य की स्मृति में रोने लगता है।
इसीलिए देवर्षि नारद जी भक्ति
सूत्र
देते
हैं-
'गुणरहितं काम रहितं प्रतिक्षणं वर्धमानयविच्छन्नं सूक्ष्मतरमनुभवरूपम्।'
नारदजी कहते हैं- भगवद् भक्ति मत छोड़ो; चाहे तुम दिखावे के लिए ही कर रहे हो,
क्योंकि एक न एक दिन श्रीकृष्ण तुम्हें स्वयं अपना लेंगे। वृजगोपांगनांओं ने यही तो किया था।
“प्रेम मार्ग में प्रतिपदा, द्वितीया आदि उत्तरोत्तर वृद्धि तिथियां तो हैं, परंतु इस भक्ति प्रेम के पक्ष में पूर्णिमा कभी नहीं आती।“
कृष्ण भक्त तो यह कहते हैं। श्रीकृष्ण प्रेम में रोने का फल जितना प्रभावी होता है उतना श्रीकृष्ण प्रेम में गाने का नहीं। जब गोपियों ने श्रीकृष्ण के विरह में गाया तो सुकदेवजी कहते हैं रोते हुए करुण एवं सुस्वर में गोपी गीत प्रस्फुटित हुआ। वस्तुतः कलाकार और भक्त के गायन में यही अंतर है एक लोकमर्यादा एवं शास्त्रों के विधि-निषेध को ध्यान में रख कर गाता है तो भक्त विधि-निषेध के बंधन से परे होकर अपने उपास्य के लिए गाता है।
अत: सच्चा प्रेमी दूसरों पर दोष नहीं लगता बल्कि अपने को भी दोषी मानने लगता है। जिस प्रकार भगवान श्रीराम के वनवास पूर्ण होने पर अयोध्या आने में देरी को देखकर भरत जी कहने लगते हैं- 'उन्होंने मेरा ही कोई कुटिलपन अथवा कपटपूर्ण व्यवहार देखा होगा इसी कारण आने में देर कर रहे हैं।
भक्ति के लक्षण तो तब समझे जा सकते हैं जब भक्ति के स्तर या अवस्था समझी जाय। भक्ति में भी भक्त की अवस्थाएं होती है। एक को कहा गया है गौणी भक्ति और एक तो है प्रेमा भक्ति या एकांत भक्त।
गौणी भक्त वो होता है जो परमेश्वर प्राप्ति के लिए उपासना या भक्ति की शुरवाती दौर में हो और दूसरा तो वो होगा जो कि भक्ति की इन सब अवस्था में से होकर द्वारा सही मार्ग पर चलते हुए एक उच्च स्थिति तक पहुच जाता है।
भक्ति के महान आचार्य रहे थे नारद मुनी , शांडिल्य ऋषि और भी थे मगर इन दोनों ने भक्ति सूत्र की रचना कर भक्ति को शास्त्र के रूप में ढाला है।
यहां ये भी समझ लेना जरूरी है कि पिछले 700 साल के काल मे भी अनेक संतो ने साधारण समाज को आसानी से अवगत हो जाय इस उद्देश्य से भक्ति के शास्त्र को और भी आगे बढ़ाया है। इनमे गोस्वामीजी, कबीरजी, नानकजी, चैतन्य महाप्रभु, सुरदास , मीरा आदि इन आचार्यों की भी बड़ी पंक्ति है।
इस
विषय के
संबंध में
नारदजी के
द्वारा भक्ति क्या है
समझाने की
कोशिश की
थी।
भक्ति के लक्षण और भक्तों के लक्षण तो कहते
कहते कहते
जीवन बित
जाएगा। यहाँ
तो केवल
अनन्यता लक्षण क्या है
इतना ही
कहा जा
रहा है।
अनन्यता एक
सर्वाधिक महत्वपूर्ण लक्षण है।
देवर्षि
नारद
द्वारा
रचित
'नारद
भक्ति
सूत्र' के 84 सूत्रों
में भक्ति विषयक
विचार
दिए
गये
हैं।
भक्ति
की
व्याख्या, महत्ता, लक्षण, साधन, भगवान
का
स्वरूप, भक्ति
के
नियम, फल आदि
की
इसमें
विशद
चर्चा
की
गयी
है।
भक्ति
भगवान
के
प्रति
परम
प्रेमरूपा
है, अमृत
स्वरूपा
है।
अन्याश्रय
का त्याग
करना, भगवान
को
अपने
सभी
आचरण
अर्पित
कर
देना, कामना
का
त्याग
करना, ये भक्ति
के
लक्षण
हैं।
ज्ञानयुक्त
भक्ति
उत्तम
है।
भगवान
के
विरह
से व्याकुल
हो
जाना
भक्ति
का
चिह्न
है।
आदर्श भक्ति के दृष्टांत
के
रूप
में ब्रज की गोपियों का उल्लेख
किया
जाता
है।
भागवद पुराण में नवधा के विषय में कहा गया हैं।
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वन्दनं दास्यं सख्यमात्मनिवेदनम् ॥
अर्थात
श्रवण (सुनना), कीर्तन (गुणगान), स्मरण (सदा याद यानी मंत्र जप), पादसेवन (सेवा संतो और समाज की), अर्चन (नियमित पूजन), वंदन (नियमित प्रार्थना), दास्य (अपने को प्रभुदास समझना यानी कुछ गर्व न करना), सख्य (स्थिर बुद्धि और स्थितप्रज्ञ और समत्व का भाव) और आत्मनिवेदन (अपने को वश में रखना) - इन्हें नवधा भक्ति कहते हैं।
वहीं तुलसीदास श्रीराम के मुख से शबरी को नवधा भक्ति का ये पाठ देते हैं।
पहली भक्ति है संतों का सत्संग। दूसरी भक्ति है मेरे कथा प्रसंग में प्रेम॥ तीसरी भक्ति है अभिमानरहित होकर गुरु के चरण कमलों की सेवा और चौथी भक्ति यह है कि कपट छोड़कर मेरे गुण समूहों का गान करें॥ मंत्र का जाप और मुझमें दृढ़ विश्वास- यह पाँचवीं भक्ति है छठी भक्ति है इंद्रियों का निग्रह, शील (अच्छा स्वभाव या चरित्र), बहुत कार्यों से वैराग्य और निरंतर संत पुरुषों के धर्म (आचरण) में लगे रहना॥ सातवीं भक्ति है जगत् भर को समभाव से मुझमें ओतप्रोत (राममय) देखना और संतों को मुझसे भी अधिक करके मानना। आठवीं भक्ति है जो कुछ मिल जाए, उसी में संतोष करना और स्वप्न में भी पराए दोषों को न देखना॥ नवीं भक्ति है सरलता और सबके साथ कपटरहित बर्ताव करना, हृदय में मेरा भरोसा रखना और किसी भी अवस्था में हर्ष और दैन्य (विषाद) का न होना।
अंत में मेरा अनुभव है और आपसे निवेदन “आपको जो भी इष्ट,
देव मंत्र,
नाम अच्छा लगे। बस उसी के सतत
निरन्तर जप में जुट जाओ। ये ईष्ट और मंत्र तुम्हे भक्ति से ज्ञान,
द्वैत से अद्वैत,
ज्ञान से विज्ञान,
जाप गुरू तक स्वयं पहुंचा देगा”।
(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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