बडे भाग्य मानुष तन पावा। 84
लाख योनियां
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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सनातन हिन्दू धर्मानुसार सृष्टि में जीवन का विकास क्रमिक रूप से हुआ है।
श्रीमद्भागवत
पुराण
के
अनुसार..
सृष्ट्वा पुराणि विविधान्यजयात्मशक्तया
वृक्षान् सरीसृपपशून् खगदंशमत्स्यान्।
तैस्तैर अतुष्टहृदय: पुरुषं विधाय
ब्रह्मावलोकधिषणं मुदमाप देव:॥ (11 -9 -28 श्रीमद्भागवतपुराण)
अर्थात विश्व की मूलभूत शक्ति सृष्टि के रूप में अभिव्यक्त हुई और इस क्रम में वृक्ष, सरीसृप, पशु-पक्षी, कीड़े-मकोड़े, मत्स्य आदि अनेक रूपों में सृजन हुआ, परंतु उससे उस चेतना की पूर्ण अभिव्यक्ति नहीं हुई अत: मनुष्य का निर्माण हुआ, जो उस मूल तत्व ब्रह्म का साक्षात्कार कर सकता था।
संसार
में
चौरासी
लाख
योनियाँ
हैं.
जीव
इन
चौरासी
लाख
योनियों
में
भ्रमण
करता
घूमता
है.
इन
चौरासी
लाख
योनियों
में
घूमते
हुए
जीव
मनुष्य
जन्म
पाता
है
| जिसको सर्वश्रेष्ठ
कहा
जाता
है।
84 लाख योनियां अलग-अलग पुराणों में अलग-अलग बताई गई हैं, लेकिन हैं सभी एक ही। अनेक आचार्यों ने इन 84 लाख योनियों को 2 भागों में बांटा है। पहला योनिज तथा दूसरा आयोनिज अर्थात 2 जीवों के संयोग से उत्पन्न प्राणी योनिज कहे गए और जो अपने आप ही अमीबा की तरह विकसित होते हैं उन्हें आयोनिज कहा गया। इसके अतिरिक्त स्थूल रूप से प्राणियों को 3 भागों में बांटा गया है-
1. जलचर : जल में रहने वाले सभी प्राणी।
2. थलचर : पृथ्वी पर विचरण करने वाले सभी प्राणी।
3. नभचर : आकाश में विहार करने वाले सभी प्राणी।
उक्त
3 प्रमुख
प्रकारों
के
अंतर्गत
मुख्य
प्रकार
होते
हैं
अर्थात
84 लाख योनियों
में
प्रारंभ
में
निम्न
4 वर्गों
में
बांटा
जा
सकता
है।
1. जरायुज : माता के गर्भ से जन्म लेने वाले मनुष्य, पशु जरायुज कहलाते हैं।
2. अंडज : अंडों से उत्पन्न होने वाले प्राणी अंडज कहलाते हैं।
3. स्वदेज
: मल-मूत्र, पसीने
आदि
से
उत्पन्न
क्षुद्र
जंतु
स्वेदज
कहलाते
हैं।
4. उदि्भज : पृथ्वी से उत्पन्न प्राणी उदि्भज कहलाते हैं।
पदम् पुराण के एक श्लोकानुसार...
जलज
नव
लक्षाणी, स्थावर
लक्ष
विम्शति, कृमयो
रूद्र
संख्यक:।
पक्षिणाम
दश
लक्षणं, त्रिन्शल
लक्षानी
पशव:, चतुर
लक्षाणी
मानव:।। -(78:5 पद्मपुराण)
अर्थात जलचर 9 लाख, स्थावर अर्थात पेड़-पौधे 20 लाख, सरीसृप, कृमि अर्थात कीड़े-मकौड़े 11 लाख, पक्षी/नभचर 10 लाख, स्थलीय/थलचर 30 लाख और शेष 4 लाख मानवीय नस्ल के। कुल 84 लाख।
यानि ८४ चौरासी लाख योनि का गणना इस प्रकार है:
जलज जन्तु-900000
स्थावर जन्तु-2000000
कृमि (कीटपतंग)- 1100000
पक्षिगण वर्ग- 1000000
पशुयोनि वर्ग- 3000000
मानव वर्ग योनि- 400000
कुल = 8400000
चौरासी
लाख
योनियों
को
भोगने
के
बाद
हमें
मानव
शरीर
मिला
है।
मानव
योनि
को
चौरासी
लाख
योनियों
में
सबसे
उत्तम
माना
गया
है।
मनुष्य योनि प्राप्त करके इंसान को शुभ कर्म करने चाहिए। अशुभ कर्मों से मुख मोडऩा चाहिए। चौरासी लाख योनियों को भोगने के बाद हमें मानव शरीर मिला है। मानव योनि को चौरासी लाख योनियों में सबसे उत्तम माना गया है। मनुष्य योनि प्राप्त करके इंसान को शुभ कर्म करने चाहिए।
मानव योनि सभी योनियों में श्रेष्ठ है। वेद में इस योनी की उपमा दिव्य रथ से की गई है। मानव योनी कभी भी परास्त न होने वाली अयोध्या है। यह एक ऐसा नौका है, जिसमें बैठकर मनुष्य संसार सागर रूपी सागर को तैरने में समर्थ हो जाता है। कवियों, लेखकों ने भी मानव शरीर की प्रशंसा की है। कबीर ने शरीर को नवद्वारे का ¨पजरा कहा है। मानव देह में ही ईश्वर की अनुभूति हो सकती है। अत: इसे नारायण की नगरी भी कहते हैं। मानव शरीर ही पारस कहलाता है। इसके द्वारा हम सुख विशेष रूप से स्वर्ग से भी अधिक मूल्यवान, ज्ञान, विज्ञान और मोक्ष को भी प्राप्त कर सकते हैं। यह सुंदर शरीर हमें व्यर्थ करने के लिए नहीं मिला है।
वेद कहता है कि हे मनुष्य तुझे यह शरीर ईश्वर प्राप्ति के लिए मिला है। विलासिता, धन बटोरने के लिए नहीं मिला। इसलिए सत्य अ¨हसा आदि कठिन से कठिन तपों का अनुष्ठान करने के लिए व मरने के पश्चात मोक्ष प्राप्त करने के लिए मिला है। शरीर के गौरव व महत्व को समझकर इसका सदुपयोग करना चाहिए। आलस्य व परमार में जीवन को व्यर्थ नहीं करना चाहिए। यदि जीवन ईश्वर प्राप्ति के बिना ही चला गया तो बड़ी हानि हो जाएगी।
सनातन की मान्यता के अनुसार जीवात्मा 84 लाख योनियों में भटकने के बाद मनुष्य जन्म पाता है। अब सवाल कई उठते हैं। पहला यह कि ये योनियां क्या होती हैं?
दूसरा यह कि जैसे कोई बीज आम का है तो वह मरने के बाद भी तो आम का ही बीज बनता है तो फिर मनुष्य को भी मरने के बाद मनुष्य ही बनना चाहिए। पशु को मरने के बाद पशु ही बनना चाहिए। क्या मनुष्यात्माएं पाशविक योनियों में जन्म नहीं लेतीं? या कहीं ऐसा तो नहीं कि 84 लाख की धारणा महज एक मिथक-भर है?
तीसरा सवाल यह कि क्या सचमुच ही एक आत्मा या जीवात्मा को 84 लाख योनियों में भटकने के बाद ही मनुष्य जन्म मिलता है?
योनियां
क्या
हैं?
जैसा कि सभी को पता है कि मादा के जिस अंग से जीवात्मा का जन्म होता है, उसे हम योनि कहते हैं। इस तरह पशु योनि, पक्षी योनि, कीट योनि, सर्प योनि, मनुष्य योनि आदि। उक्त योनियों में कई प्रकार के उप-प्रकार भी होते हैं। योनियां जरूरी नहीं कि 84 लाख ही हों। वक्त से साथ अन्य तरह के जीव-जंतु भी उत्पन्न हुए हैं। आधुनिक विज्ञान के अनुसार अमीबा से लेकर मानव तक की यात्रा में लगभग 1 करोड़ 04 लाख योनियां मानी गई हैं। ब्रिटिश वैज्ञानिक राबर्ट एम मे के अनुसार दुनिया में 87 लाख प्रजातियां हैं। उनका अनुमान है कि कीट-पतंगे, पशु-पक्षी, पौधा-पादप, जलचर-थलचर सब मिलाकर जीव की 87 लाख प्रजातियां हैं। गिनती का थोड़ा-बहुत अंतर है। लेकिन यह महत्वपूर्ण है कि आज से हजारों वर्ष पूर्व ऋषि-मुनियों ने बगैर किसी साधन और आधुनिक तकनीक के यह जान लिया था कि योनियां 84 लाख के लगभग हैं।
क्रम विकास का सिद्धांत : गर्भविज्ञान के अनुसार क्रम विकास को देखने पर मनुष्य जीव सबसे पहले एक बिंदु रूप होता है, जैसे कि समुद्र के एककोशीय जीव। वही एककोशीय जीव बाद में बहुकोशीय जीवों में परिवर्तित होकर क्रम विकास के तहत मनुष्य शरीर धारण करते हैं। स्त्री के गर्भावस्था का अध्ययन करने वालों के अनुसार जंतुरूप जीव ही स्वेदज, जरायुज, अंडज और उद्भीज जीवों में परिवर्तित होकर मनुष्य रूप धारण करते हैं। मनुष्य योनि में सामान्यत: जीव 9 माह और 9 दिनों के विकास के बाद जन्म लेने वाला बालक गर्भावस्था में उन सभी शरीर के आकार को धारण करता है, जो इस सृष्टि में पाए जाते हैं।
गर्भ में बालक बिंदु रूप से शुरू होकर तीरासी
प्रकार से खुद को बदलता है। बच्चा जब जन्म लेता है। तो पहले वह पीठ
के बल पड़ा रहता है अर्थात किसी पृष्ठवंशीय जंतु की तरह। बाद में वह छाती के बल
सोता है। फिर वह अपनी
गर्दन वैसे ही ऊपर उठाता है। जैसे कोई सर्प या सरीसृप जीव उठाता है। तब वह
धीरे-धीरे रेंगना शुरू करता है। फिर चौपायों की तरह घुटने के बल चलने लगता
है। अंत में वह संतुलन बनाते हुए मनुष्य की तरह चलता है। आक्रामकता, चिल्लाना या
भय के साथ ही अपने नाखूनों से खरोंचना, रोना, चीखना, क्रोध, ईर्ष्या इतयादि क्रियाएं सभी
पशुओं की हैं जो मनुष्य में स्वत: ही विद्यमान रहती हैं। यह सब उसे क्रम विकास में
प्राप्त होता है।
क्रम विकास के हिन्दू और वैज्ञानिक सिद्धांत से हमें बहुत-कुछ सीखने को
मिलता है, लेकिन हिन्दू धर्मानुसार जीवन एक चक्र
है। इस चक्र से निकलने को मोक्ष या निरवाण कहते हैं। माना जाता है कि जो ऊपर उठता
है। एक दिन उसे नीचे भी गिरना हो सकता है
लेकिन यह तय करना है उक्त आत्मा की योग्यता और उसके जीवट संघर्ष पर।
यदि यह मान लिया जाए कि कोई पशु आत्मा पशु ही बनती है और मनुष्य आत्मा
मनुष्य तो फिर तो कोई पशु आत्मा कभी मनुष्य बन ही नहीं सकती। किसी कीड़े की आत्मा
कभी पशु बन ही नहीं सकती। ऐसा मानने से बुद्ध की जातक कथाएं अर्थात उनके पिछले
जन्म की कहानियों को फिर झूठ मान लिया जाएगा। इसी तरह ऐसे कई ऋषि-मुनि हुए हैं
जिन्होंने अपने कई जन्मों पूर्व हाथी-घोड़े या हंस के होने का वृत्तांत सुनाया।
...तो यदि यह कोई कहता है कि मनुष्यात्माएं मनुष्य और पशु-पक्षी की आत्माएं पशु या
पक्षी ही बनती हैं वे सैद्धांतिक रूप से गलत हैं। हो सकता है कि उन्हें धर्म की
ज्यादा जानकारी न हो।
प्रत्येक जीव की मरने के बाद कुछ गतियां होती हैं।
जो कि उसके कर्म
के भाव विचार और घटनाओं पर आधारित होती हैं।
मरने के बाद आत्मा की तीन
तरह की
गतियां होती हैं-
उर्ध्व गति, स्थिर गति और अधो गति।
इसे ही अगति और गति में बांटा जा सकता है।
वेदों व उपनिषदों और गीता के अनुसार मृत्यु के बाद आत्मा की आठ तरह की गतियां मानी गई हैं।
ये गतियां ही आत्मा की दशा या दिशा तय करती हैं।
इन गतियों को मूलत: दो
भागों
में बांटा गया है- अगति
और गति।
अधो गति में गिरना अर्थात फिर से कोई पशु या पक्षी की योनि में चला जाना जो
कि एक चक्र में फंसने जैसा है।
अगति : अगति में व्यक्ति को मोक्ष नहीं मिलता
है और उसे फिर से जन्म लेना पड़ता है।
गति : गति में जीव को किसी लोक में जाना
पड़ता है।
अगति के प्रकार : अगति के चार प्रकार हैं:
क्षिणोदर्क : क्षिणोदर्क अगति में जीव पुन:
पुण्यात्मा के रूप में मृत्युलोक में आता है और संतों-सा जीवन जीता है।
भूमोदर्क : भूमोदर्क में वह सुखी और ऐश्वर्यशाली
जीवन पाता है।
अगति : अगति में नीच या पशु जीवन में चला जाता
है।
दुर्गति : गति में वह कीट-कीड़ों जैसा जीवन पाता
है।
गति - प्रकार : गति के अंतर्गत चार लोक दिए गए हैं
पहला ब्रह्म, दूसरा देव लोक तीसरा
पितृ और
चौथा नर्कलोक।
जीव अपने कर्मों के अनुसार उक्त लोकों
में जाता है।
पुराणों में आत्मा तीन मार्गों के
द्वारा उर्ध्व या अधमलोक की यात्रा करती है।
अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक : अर्चि मार्ग ब्रह्मलोक और देवलोक की यात्रा
के लिए है।
धूममार्ग पितृलोक : धूममार्ग पितृलोक की यात्रा के लिए है।
सूर्य की किरणों में एक अमा नामक किरण होती है जिसके माध्यम से पितृगण पितृ पक्ष
में आते-जाते हैं।
उत्पत्ति-विनाश मार्ग : उत्पत्ति-विनाश मार्ग नर्क की यात्रा के
लिए है। यह यात्रा बुरे सपनों की तरह होती है।
जब भी कोई मनुष्य मरता है और आत्मा शरीर को त्यागकर उत्तर कार्यों के बाद
यात्रा प्रारंभ करती है तो उसे उपरोक्त तीन मार्ग मिलते हैं। उसके कर्मों के अनुसार उसे कोई एक मार्ग यात्रा के लिए
प्राप्त हो जाता है।
गीता अध्याय 8 का 25 वां श्लोक
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगत: शाश्वते मते। एकया यात्यनावृत्ति
मन्ययावर्तते पुन:।।
भावार्थ : क्योंकि जगत के ये दो
प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन
माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया हुआ (अर्थात इसी अध्याय के श्लोक 24 के अनुसार अर्चिमार्ग
से गया हुआ योगी।)-- जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त
होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ ( अर्थात इसी
अध्याय के श्लोक 25
के
अनुसार धूममार्ग से गया हुआ सकाम कर्मयोगी।) फिर वापस
आता है अर्थात् जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है॥26॥
कठोपनिषद में यमराजजी कहते हैं कि अपने-अपने
शुभ-अशुभ कर्मों के अनुसार गुरु सानिध्य के अनुसार नौकरी चाकरी
व्यवसाय शिक्षा और शास्त्र अध्ययन व अन्य आदि के द्वारा
सुने हुए भावों के अनुसार मरने के पश्चात कितने ही जीवात्मा दूसरा शरीर धारण करने
के लिए वीर्य के साथ माता की योनि में प्रवेश कर जाते हैं। जिनके पुण्य-पाप समान
होते हैं वे मनुष्य का और जिनके पुण्य कम तथा पाप अधिक होते हैं वे पशु-पक्षी का
शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं और कितने ही जिनके पाप अत्यधिक होते हैं वे स्थावर
भाव को प्राप्त होते हैं अर्थात पेड पौधे घास फूस, बेल लता आदि जड़
शरीर में उत्पन्न होते हैं।
अंतिम इच्छाओं के अनुसार परिवर्तित जीन्स जिस प्रकार के जीव जींस से मिल
जाते हैं, उसी ओर ये आकर्षित होकर वही योनि धारण कर
लेते हैं। चौरासी लाख योनियों में भटकने के बाद वह फिर
मनुष्य शरीर में आता है।
पूर्व योनि तहस्त्राणि दृष्ट्वा चैव ततो मया।
आहारा विविधा मुक्ता: पीता नानाविधा:। स्तना...।
स्मरति जन्म मरणानि न च कर्म शुभाशुभं विन्दति॥ गर्भोपनिषद्
अर्थात उस समय गर्भस्थ प्राणी सोचता है कि अपने हजारों पहले जन्मों को देखा
और उनमें विभिन्न प्रकार के भोजन किए। विभिन्न योनियों के स्तनपान किए तथा अब जब गर्भ से बाहर निकलूंगा तो ईश्वर का आश्रय लूंगा। इस प्रकार विचार
करता हुआ प्राणी बड़े कष्ट से जन्म लेता है किंतु माया का स्पर्श होते ही वह गर्भज्ञान
भूल जाता है। शुभ-अशुभ कर्म लोप हो जाते हैं। मनुष्य फिर मनमानी करने लगता है और
इस सुरदुर्लभ शरीर के सौभाग्य को गंवा देता है।
विकासवाद के सिद्धांत के समर्थकों में प्रसिद्ध वैज्ञानिक हीकल्स के
सिद्धांत आंटोजेनी रिपीट्स फायलोजेनी के विचार से चेतना गर्भ में
एक बीज कोष में आने से लेकर पूरा बालक बनने तक सृष्टि में या विकासवाद के अंतर्गत
जितनी योनियां आती है, उन सबकी पुनरावृत्ति होती है। प्रति तीन सेकंड से कुछ
कम के बाद भ्रूण आकृति बदल जाती है। स्त्री के प्रजनन कोष में प्रविष्ट होने के
बाद पुरुष का बीज कोष दुना होकर एक से दो , दो से चार , ऐसे ही 32 से चौतीस कोषों में
विभाजित होकर शरीर बनता है।
योग के चौरासी
आसन भी
इसी क्रम विकास से ही प्रेरित हैं। एक बच्चा वह सभी आसन करता है जोकि योग आसन में
बताए जाते हैं। उक्त आसन करने रहने से किसी भी प्रकार का रोग व शोक नहीं होता।
वृक्षासन से लेकर वृश्चिक आसन तक कई पशुवत आसन हैं। मत्स्यासन या सर्प आसन या बकासन या कुर्मासन या वृश्चिक या वृक्षासन या ताड़ासन आदि अधिकतर पशुवत आसन ही है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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