ब्रह्मसूत्र रचियता बादरायण क्या अल्पज्ञानी थे। मेरे तर्क
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
पूर्व सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
वेब: vipkavi.info वेब चैनल: vipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,
मेरा मानना है जो मात्र निराकार की बात करे।
वह अल्पज्ञानी। यह सत्य है ईश का अंतिम रूप निराकार सुप्त ऊर्जा ही है। जिसमें
ध्वनि कम्पन से सृष्टि का निर्माण हुआ। ये ही बिग बैंग सिदांत भी है। मेरा लेख “ब्रह्मांड
की उत्पत्ति” देखें।
किंतु
क्या कोई यह बता पायेगा कि ध्वनि क्यों हुई।
किसी की मरजी से ही ध्वनि हुई होगी। जी उसे ही ब्रह्म कहते हैं। अब जब उसकी मर्जी से
सृष्टि का निर्माण हो सकता है तो क्या वह स्वयं अपनी मरजी से साकार रूप नहीं ले सकता।
वह साकार रूप भी लेता है। जैसे कृष्ण जो ब्रह्म के अवतार थे।
श्रीमद्भग्वदगीता
के अनुसार
“श्री भगवानुवाच इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् |
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥ (4/01) भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा “मैंने इस अमर
योगविद्या का उपदेश सूर्यदेव विवस्वान्
को दिया और विवस्वान् ने मनुष्यों के पिता मनु को उपदेश दिया और मनु ने इसका उपदेश
इक्ष्वाकु को दिया “।
“अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्र्वरोऽपि सन्| प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया (4/6)” यद्यपि मैं अजन्मा तथा अविनाशी हूँ और
यद्यपि मैं समस्त जीवों का स्वामी हूँ,
तो भी प्रत्येक युग में मैं अपने
आदि दिव्य रूप में प्रकट होता हूँ।
अजोऽपि
सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्। प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय
संभवाम्यात्ममायया(4/6) अजन्मा, अविनाशी
और
सभी प्राणियों का ईश्वर
होते हुए भी
मैं,
अपनी प्रकृति को अधीन करके
अपनी योगमाया से प्रकट होता हू।
यदा
यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत। अभ्युत्थानमधर्मस्य
तदात्मानं सृजाम्यहम् (4/7) हे भारत! जब-जब धर्म की हानि और अधर्म की वृद्धि होती
है, तब-तब मैं
अपने
(साकार)
रूप को रचता हूँ।
परित्राणाय
साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम्। धर्मसंस्थापनार्थाय
सम्भवामि युगे युगे(4/8)। साधु पुरुषों का उद्धार करने के लिए,
पाप कर्म करने वालों का विनाश करने के
लिए और धर्म की
यथार्थ
स्थापना करने के लिए मैं युग-युग में
प्रकट हुआ करता हूँ।
ब्रह्म सूत्र में छोटे छोटे संस्कृत भाषा में सूत्र लिखे है। कुल 555 सूत्रों
को मिलाकर इसका निर्माण हुआ है।
ब्रहमसूत्र, हिन्दुओं के छः दर्शनों में से एक है। इसके रचयिता बादरायण हैं। इसे वेदान्त सूत्र, उत्तर-मीमांसा सूत्र, शारीरिक सूत्र और भिक्षु सूत्र आदि के नाम से भी जाना जाता है। इस पर अनेक भाष्य
भी लिखे गये हैं। वेदान्त
के तीन मुख्य स्तम्भ माने जाते हैं - उपनिषद्, भगवदगीता एवं ब्रह्मसूत्र। इन तीनों को प्रस्थान त्रयी कहा जाता है।
इसमें उपनिषदों को श्रुति प्रस्थान, गीता को स्मृति प्रस्थान और ब्रह्मसूत्रों को न्याय प्रस्थान कहते हैं। ब्रह्म सूत्रों को न्याय प्रस्थान
कहने का अर्थ है कि ये वेदान्त को पूर्णतः तर्कपूर्ण ढंग से प्रस्तुत करता है।
वेदान्त का अर्थ है- वेद का अन्त या सिद्धान्त। तात्पर्य यह है- ‘वह शास्त्र
जिसके लिए
उपनिषद् ही प्रमाण है।
वेदांत में जितनी बातों का उल्लेख है, उन सब का मूल उपनिषद् है। इसलिए वेदान्त शास्त्र के वे ही सिद्धान्त माननीय हैं, जिसके साधक उपनिषद् के वाक्य हैं। इन्हीं उपनिषदों को आधार बनाकर बादरायण
मुनि ने
ब्रह्मसूत्रों की रचना
की।’ इन सूत्रों का मूल उपनिषदों में हैं। जैसा पूर्व में कहा गया है- उपनिषद् में सभी दर्शनों के मूल
सिद्धान्त हैं।
वेदान्त का मूल ग्रन्थ उपनिषद् ही है। अत: यदा-कदा वेदान्त शब्द उपनिषद् का वाचक बनता
दृष्टिगोचर होता है। उपनिषदीय मूल वाक्यों के आधार पर ही बादरायण द्वारा अद्वैत वेदान्त
के
प्रतिपादन हेतु
ब्रह्मसूत्र सृजित किया गया। महर्षि पाणिनी द्वारा अष्टाध्यायी में उल्लेखित ‘भिक्षुसूत्र’ ही वस्तुत:
ब्रह्मसूत्र है। संन्यासी, भिक्षु कहलाते हैं एवं उन्हीं के अध्ययन योग्य उपनिषदों
पर
आधारिक पराशर्य (पराशर
पुत्र व्यास) द्वारा विरचित ब्रह्म सूत्र है, जो कि बहुत प्राचीन है।
यही वेदांत दर्शन पूर्व मीमांसा के नाम से प्रख्यात है। महर्षि जैमिनि का मीमांसा दर्शन पूर्व मीमांसा कहलाता है, जो कि द्वादश अध्यायों में आबद्ध है। कहा जाता है कि जैमिनि द्वारा इन द्वादश अध्यायों के पश्चात्
चार अध्यायों में संकर्षण
काण्ड (देवता काण्ड) का सृजन किया था। जो अब अनुपलब्ध है, इस प्रकार मीमांसा षोडश अध्यायों में सम्पन्न हुआ है। उसी सिलसिले में चार अध्यायों में उत्तर मीमांसा या ब्रह्म-सूत्र का सृजन हुआ।
इन दोनों ग्रन्थों में अनेक आचार्यों का नामोल्लेख हुआ है। इससे ऐसा
अनुमान होता है कि बीस
अध्यायों के रचनाकार कोई एक व्यक्ति थे, चाहे वे महर्षि जैमिनि हों अथवा बादरायण बादरि। पूर्व मीमांसा में कर्मकाण्ड एवं उत्तर
मीमांसा में ज्ञानकाण्ड
विवेचित है। उन दिनों विद्यमान समस्त आचार्य पूर्व एवं मीमांसा के समान रूपेण विद्वान् थे। इसी कारण जिनके नामों का उल्लेख
जैमिनीय सूत्र में है, उन्हीं का ब्रह्मसूत्र में भी है। वेदान्त संबंधी साहित्य
प्रचुर मात्रा में विद्यमान है, जिसका उल्लेख अग्रिम पृष्ठों पर ‘वेदान्त का अन्य साहित्य और आचार्य परम्परा’ शीर्षक में आचार्यों के नामों
सहित विवेचित किया
गया है।
‘वेदों’ के सर्वमान्य, सर्वश्रेष्ठ सिद्धान्त ही ‘वेदान्त’ का प्रतिपाद्य हैं। उपनिषदों में ही ये सिद्धान्त मुख्यत: प्रतिपादित हुए
हैं,
इसलिए वे ही ‘वेदान्त’ के पर्याय माने जाते हैं। परमात्मा का परम
गुह्य ज्ञान वेदान्त के रूप में सर्वप्रथम उपनिषदों में ही प्रकट हुआ है। ‘वेदान्तविज्ञानसुनिश्चितार्था:…..’(मुण्डक. )।
‘वेदान्ते परमं गुह्यम् पुराकल्पे प्रचोदितम्’ (श्वेताश्ववतर. ) ‘यो वेदादौ स्वर: प्रोक्तो वेदान्ते च प्रतिष्ठित:’ (महानारायण, ) इत्यादि श्रुतिवचन उसी तथ्य का डिंडिम घोष करते हैं। इन श्रुति वचनों का सारांश इतना
ही है कि संसार में जो कुछ भी दृश्यमान है और जहाँ तक हमारी बुद्धि अनुमान कर सकती है, उन सबका का मूल स्रोत्र एकमात्र ‘परब्रह्म’ ही है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध में भी विचार
प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत है।
प्रथम
अध्याय का नाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों का
समन्वय ब्रह्म में किया गया है। इसमें भी खंड या पाद हैं
जैसे प्रथम अध्याय प्रथम खंड में 32 सूत्र है। दिव्तीय में 32 तृतीय में 44
और चतुर्थ में 28 श्लोक हैं।
वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है।
वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है।
दूसरे अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है। प्रथम खंड में 36 सूत्र है।
दिव्तीय में 42 तृतीय में 52 और चतुर्थ में 19 श्लोक हैं। इसके अन्तर्गत श्रुतियों
की जो परस्पर विरोधी
सम्मतियाँ हैं,
उनका मूल आशय प्रकट करके
उनके द्वारा अद्वैत सिद्धान्त की सिद्धि की गयी है। इसके साथ ही वैदिक मतों (सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत आदि) एवं अवैदिक सिद्धान्तों (जैन, बौद्ध आदि) के दोषों एवं उनकी अयथार्थता को दर्शाया गया है। आगे चलकर लिंग शरीर प्राण
एवं इन्द्रियों के स्वरूप दिग्दर्शन के साथ पंचभूत एवं जीव से सम्बद्ध शंकाओं का निराकरण
भी
किया गया है।
इसके प्रथम पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है।
द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
तृतीय
अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के
लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के
बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश
किया गया है।
प्रथम खंड में 27 सूत्र है।
दिव्तीय में 40 तृतीय में 64 और चतुर्थ में
52 सूत्र हैं। इसके अन्तर्गत प्रथमत: स्वर्गादि प्राप्ति के साधनों के दोष दिखाकर ज्ञान एवं विद्या के वास्तविक
स्रोत्र परमात्मा की उपासना प्रतिपादित की गयी है, जिसके द्वारा जीव ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कर्मकाण्ड
सिद्धान्त के अनुसार मात्र अग्निहोत्र आदि पर्याप्त नहीं वरन् ज्ञान एवं भक्ति द्वारा ही
आत्मा और
परमात्मा का सान्निध्य
सम्भव है।
चतुर्थ
अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया
गया है। प्रथम खंड में 19 सूत्र है। दिव्तीय में 20 तृतीय में 15 और चतुर्थ में 22 सूत्र हैं। चतुर्थ अध्याय साधना का परिणाम होने से फलाध्याय है। इसके अन्तर्गत
वायु, विद्युत एवं वरुण लोक से उच्च लोक-ब्रह्मलोक तक पहुँचने का वर्णन है, साथ ही जीव की मुक्ति, जीवन्मुक्त
की मृत्यु एवं परलोक में उसकी गति आदि भी वर्णित है। अन्त में यह भी वर्णित है कि ब्रह्म की प्राप्ति होने से
आत्मा की स्थिति किस
प्रकार की होती है, जिससे वह पुन: संसार में आगमन नहीं करती। मुक्ति और निर्वाण की अवस्था यही है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन में
ईश्वर, प्रकृति, जीव, मरणोत्तर दशाएँ, पुनर्जन्म, ज्ञान, कर्म, उपासना, बन्धन एवं मोक्ष इन दस विषयों का प्रमुख रूप से विवेचन किया गया है।
ब्रह्मसूत्र
पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य,
टीका व
वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता,
प्रांजलता,
सौष्ठव और प्रसाद गुणों
की अधिकता के कारण शांकर भाष्य
सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है।
ब्रह्म
ही सत्य है। 'एकं एवं अद्वितीय'
अर्थात वह एक है और दूसरे की
साझेदारी के बिना है- यह 'ब्रह्मसूत्र' कहता है। वेद, उपनिषद और गीता
ब्रह्मसूत्र पर कायम है। ब्रह्मसूत्र
का अर्थ वेद का अकाट्य वाक्य, ब्रह्म वाक्य। ब्रह्म को आजकल ईश्वर,
परमेश्वर या
परमात्मा कहा जाता है। इसका संबंध
ब्रह्मा नामक देवता से नहीं है।
'एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना नास्ति किंचन'
अर्थात एक ही ईश्वर है
दूसरा नहीं है,
नहीं है,
नहीं है- अंशभर भी नहीं है। उस ईश्वर
को छोड़कर जो अन्य की प्रार्थना,
मंत्र और पूजा करता है वह अनार्य है,
नास्तिक है या
धर्म विरोधी है।
पुनश्च, यदि प्राचीनता, तार्किकता तथा उपनिषदनुकूलता की कसौटी माना जाए तो शंकराचार्य का भाष्य ही बादरायण के अभिमतों के
सर्वाधिक निकट है। उनका दर्शन उपनिषदों के 'एकमेवाद्वितीय' सत् या ब्रह्म का ही प्रतिपादन करता है। शंकराचार्य के इस कथन को सभी भाष्यकार मानते हैं कि
ब्रह्मसूत्रों का मुख्य प्रयोजन उपनिषद के वाक्यों को संग्रथित करना है। अत: बादरायण
अद्वैतवादी थे। उनके प्रथम पांच सूत्र उनके दर्शन का सार प्रस्तुत करते हैं। ये
निम्नलिखित हैं-
1. अथातो ब्रह्मजिज्ञासा- अब,
इस प्रकार ब्रह्मजिज्ञासा करना है।
2. जन्माद्यस्य यत:- ब्रह्म वह है,
जिससे इस जगत् का जन्म होता है,
जिसमें इसकी स्थिति होती है तथा जिसमें
इसका लय होता है।
3. शास्त्रयोनित्वात्- ब्रह्म का ज्ञान शास्त्र से होता
है।
4. तत्तु समन्वयात्- वह ब्रह्मज्ञान शास्त्र के समन्वय
से होता है। शास्त्र का समन्वय धर्म ज्ञान में नहीं है।
5. ईक्षतेनशिब्दम्- ब्रह्म चेतन है। अत: वेदबाह्य प्रमाण
अर्थात् प्रत्यक्ष तथा अनुमान से जगत् के आदि कारण की जो
मीमांसा की जाती है, वह सत्य नहीं है।
इसमें
से प्रथम चार सूत्रों को चतु:सूत्री कहा जाता है। प्राय: इनमें ही
पांचवें सूत्र का भी अभिप्राय आ जाता
है। इसलिए चतु:सूत्री को ही बादरायण का मुख्य मन्तव्य माना जाता है।
बादरायण की इस प्रणाली में तर्क का महत्त्व इतना अधिक है कि उनका
ब्रह्मसूत्र मुख्यत: एक खंडन वाला ग्रन्थ प्रतीत होता है। ऊपर चौथे सूत्र में पूर्व मीमांसा शास्त्र
का खंडन है और पांचवें
सूत्र में सांख्य शास्त्र का खंडन है। लगता है बादरायण के समय में हिन्दू धर्म के अन्दर इन्हीं दोनों दर्शनों का अधिक प्रचार था। इस कारण
इनका खंडन करके बादरायण ने वेदान्त दर्शन की स्थापना की। पुनश्च, ब्रह्मसूत्र के द्वितीय अध्याय में, विशेषत: प्रथम दो पक्षों में, तो खंडन ही मुख्य हैं। द्वितीय अध्याय का प्रथमपाद स्मृतिपाद कहा जाता है और द्वितीय अध्याय का द्वितीयपाद
तर्कपाद। स्मृतिपाद में वेदान्त विरोधी स्मृतियों का खंडन है और तर्कवाद में वेदान्त
विरोधी दर्शनों का। इन दर्शनों में सांख्य, वैशेषिक, जैनमत, बौद्ध सर्वास्तिवाद, बौद्ध विज्ञानवाद, पाशुपत और पांचरात्र हैं। इस प्रकार परमत निराकरण के द्वारा स्वमत स्थापन की
प्रवृत्ति बादरायण में विशेष रूप से देखी जाती है। 'तु', 'न', 'चेत्' आदि शब्दों के द्वारा बादरायण पक्षपाती थे, न कि रूढ़िवादी दर्शन के। उनका वेदान्त पूर्ण आलोचनात्मक दर्शन है। याज्ञवल्क्य और काशकृत्स्न के पश्चात् वे ही सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण
वेदान्ती हुए हैं।
ब्रह्मसूत्रों का
अध्ययन करने से पता चलता है कि बादरायण प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान तथा शब्द या श्रुति को
प्रमाण मानते थे। किन्तु वे श्रुति विरोधी प्रत्यक्ष, अनुमान और उपमान को ग़लत
समझते थे। अत: वे मुख्यत: श्रुतिवादी या
वेदवादी थे। उनके अनुसार श्रुति अनुगृहीत तर्क ही मुख्य प्रमाण हैं, जिसके द्वारा ब्रह्म की
जिज्ञासा की जानी चाहिए। दर्शन का स्वरूप मीमांसा है। श्रुतियों की
तर्क संगत मीमांसा करना ही दर्शन है। इस मीमांसा से सिद्ध होता है कि दर्शन
ब्रह्मविद्या है, क्योंकि श्रुतियों की
मीमांसा का समन्वय उसी में है।
पहले गुरु से ब्रह्म का श्रवण करना है, फिर उस श्रवण पर मनन करना है। मनन से
ब्रह्मविद्या का निश्चय हो जाता है और अन्य दर्शनों का खंडन हो जाता है। अन्त
में इस मनन पर निदिध्यासन करना है। निदिध्यासन आत्मसाक्षात्काररूप होता है।
उसका अन्त आत्म त्याग में होता है। यही आत्म त्याग ब्रह्म प्राप्ति है।
आत्मा ही ब्रह्म है। जो ब्रह्म को जानता है, वह ब्रह्म ही हो जाता है।
अब
मैंनें क्यों ब्रह्म सूत्र रचयिता बादरायण को अल्पज्ञानी कहा। क्योकिं वे इन बातों का उत्तर नहीं
दे सकते।
तो
क्या ये सब कार्य वेद विरूद्ध हैं? उनके अनुसार
जो
एक ब्रह्म को छोड़कर तरह-तरह के देवी-देवताओं की प्रार्थना करता है। एक देवता को छोड़कर दूसरे देवता को पूजता रहता
है। अर्थात एक को छोड़कर अनेक में भटकने वाले लोग।
जो
मूर्ति या समाधि के सामने हाथ जोड़े खड़ा है।
जो
नक्षत्र तथा ज्योतिष विद्या में विश्वास रखने वाला है।
जो
सितारों और अग्नि की पूजा करने वाला है।
जो
एक धर्म से निकलकर दूसरे धर्म में जाने वाली विचारधारा का है। (उनके समय मुस्लिम और
इसाइत की व्याख्या नहीं हो पाई थी। मात्र जैन और बौद्ध धर्म ही थे)
जो
शराबी, जुआरी और झूठ वचन बोलकर खुद को और दूसरों को गफलत में
रखने वाला है। (मैं इससे सहमत हूं)
खुद
के कुल, धर्म और परिवार को छोड़, दूसरों से आकर्षित होने वाले और झुकने वाले।(मैं इससे
सहमत हूं)
नास्तिकों
के साथ नास्तिक और आस्तिकों के साथ छद्म आस्तिक बनकर रहने वाले।(मैं इससे सहमत हूं)
वेदों
की बुराई करने वाले और वेद विरुद्ध आचरण करने वाले। (मैं इससे सहमत हूं)
जो
जातियों में खुद को विभाजित रखता है और अपने ही लोगों को नीचा या ऊंचा समझता है। (मैं
इससे सहमत हूं)
जो
वेद और धर्म पर बहस करता है और उनकी निंदा करता है। (मैं इससे सहमत हूं)
जो
नग्न रहकर साधना करता है और नग्न रहकर ही मंदिर की परिक्रमा लगाता है। (पूर्णतया सहमत
नहीं)
जो
रात्रि के कर्मकांड करता है और भूत या पितरों की पूजा-साधना करता है। (मैं इससे सहमत
हूं)
ब्रह्मसूत्र के अतिरिक्त वेदान्त दर्शन का और भी साहित्य प्रचुर
मात्रा में संप्राप्त होता है, जो विभिन्न आचार्यों ने विविध प्रकारेण ब्रह्म-सूत्र आदि ग्रन्थों पर भाष्य, वृत्तियाँ टीकाएँ आदि लिखी हैं। यद्यपि प्राचीन आचार्यों में बादरि, आश्मरथ्य, आत्रेय, काशकृत्स्न, औडुलोमि एवं कार्ष्णाजिनि आजि के मतों का भी वर्णन प्राप्त है; किन्तु इनके ग्रन्थ उपलब्ध नहीं हैं। आइये जो ग्रन्थ उपलब्ध हैं, उनका व उनके आचार्यों का संक्षिप्त परिचय प्राप्त करें।
श्रृंगेरी पीठ के प्रतिष्ठित यति श्री विद्यारण्य स्वामी ने वेदान्त विषयक कई
ग्रन्थ
लिखे, जिनमें ‘पंचदशी’ का विशेष स्थान है। इनके अन्य ग्रन्थ
हैं-
जीवन्मुक्ति विवेक, विवरण प्रमेय संग्रह, बृहदारण्यक वार्तिक सार आदि।
1- आद्य शंकराचार्य– ब्रह्म-सूत्र पर सर्वप्राचीन एवं प्रामाणिक भाष्य आद्य शंकराचार्य का उपलब्ध होता है। यह शांकरभाष्य के नाम से प्रख्यात है।
विश्व में भारतीय दर्शन
एवं शंकराचार्य के नाम से जितनी ख्याति प्राप्त की है, उतनी न किसी आचार्य ने प्राप्त की और न ग्रन्थ ने। शंकराचार्य का जन्म 788 ई. में तथा निर्वाण 820 ई. में
हुआ बताया जाता है, इनके गुरु गोविन्दपाद तथा परम गुरु गौड़पादाचार्य थे। इनके ग्रन्थों में ब्रह्मसूत्र-भाष्य
(शारीरिक भाष्य), दशोपनिषद् भाष्य, गीता-भाष्य, माण्डूक्यकारिका
भाष्य, विवेकचूड़ामणि, उपदेश-साहस्री आदि प्रमुख हैं।
2- भास्कराचार्य– आचार्य शंकर के समकालीन भास्कराचार्य त्रिदण्डीमत के
वेदन्ती थे। ये ज्ञान एवं कर्म दोनों से मोक्ष स्वीकार करते हैं। इनके अनुसार ब्रह्म के शक्ति-विक्षेप से ही सृष्टि और स्थिति व्यापार अनवरत
चलता है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक लघु भाष्य लिखा है।
3- सर्वज्ञात्म मुनि– ये सुरेश्वराचार्य के शिष्य थे, जिन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक पद्यात्मक व्याख्या लिखी है, जो ‘संक्षेप-शारीरिक’ नाम से प्रसिद्ध है।
4- अद्वैतानन्द– ये रामानन्द तीर्थ के शिष्य थे, इन्होंने शंकराचार्य की शारीरिक भाष्य पर
‘ब्रह्मविद्याभरण’ नामक श्रेष्ठ व्याख्या लिखी है।
5- वाचस्पति मिश्र– वाचस्पति मिश्र ने भी शांकर- भाष्य पर ‘भामती’ नामक
उत्तम व्याख्या ग्रन्थ लिखा है। ‘ब्रह्मतत्त्व समीक्षा’ नामक वेदान्त ग्रन्थ इन्हीं का
है।
6-
चित्सुखाचार्य– तेरहवीं सदी के
चित्सुखाचार्य ने वेदान्त का प्रसिद्ध ग्रन्थ ‘तत्त्व-दीपिका’ नाम से लिखा, जिसने उन्हीं के नाम से
‘चित्सुखी’ के रूप में विशेष प्रसिद्धि
प्राप्त की।
7- विद्यारण्य स्वामी
8- प्रकाशात्मा– इन्होंने पद्मपादकृत पंचपादिका पर ‘विवरण’ नाम की व्याख्या का सृजन
किया
है। इसी के आधार पर ‘भामती
प्रस्थान’ से पृथक् ‘विवरण प्रस्थान’ निर्मित हुआ है।
9- अमलानन्द– अमलानन्द (जो अनुभवानन्द के शिष्य थे) ने भामती पर
‘कल्पतरु’ नामक व्याख्या
एवं ब्रह्मसूत्र पर एक वृत्ति भी लिखी है। इसका अपर नाम ‘व्यासाश्रम’ था।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
(तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
श्री मंत विपुल खोजी महाशय, बहुत शास्त्रों के संकलित आपका सूचनात्मक ज्ञान अल्प मनन युक्त और अनूभूति शून्य प्रतीत होता है । आप जबतक यह सब अर्थहीन समझकर उदासीन नहीं होते जबतक अनुभूति की मार्केटिंग न करें
ReplyDeleteहरो यदि उपदेष्टा ये हरि: कमलजोपि वा। तथापि न त्वं स्वास्थ्यं सर्व विस्मरणादृते।।