वेद महावाक्यों का जन्म कैसे? ब्रह्म क्या??
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "अन्वेषक"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) पूर्व परमाणु वैज्ञानिक, एवं कवि लेखक
सेवानिवृत्त वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
पूर्व प्रधान सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” , वेब: vipkavi.info
फेस बुक: vipul luckhnavi
“bullet"
हमारे वेदांतों में सत्य को 'ब्रह्म' के रूप में स्वीकार किया गया है। इस ब्रह्म के पास ही वह माया नामक शक्ति है, जिसके कारण एक सत्य तक पहुंचने के कई रास्ते दिखते हैं। जो कई रास्ते या ब्रह्म के कई रूप दिखते हैं, वह दरअसल माया नामक शक्ति का परिणाम है।
ब्रह्म एक है और
जो
विभिन्नता दिखती है, वह ब्रह्म के ही अलग-अलग रूप हैं। हर रूप की अलग विशेषता हो सकती है, उनके
नाम
भी अलग-अलग हो सकते हैं, पर सार-तत्व एक ही है और मूल भी एक
ही
और सिर्फ एक ही है। हमारा रूप व नाम
दूसरे
से अलग हो सकता है और इस तरह अनंत लोगों का रूप सामने
आ
सकता है। लेकिन इस अनंतता को
पहचानना
और अद्वैत के रहस्य को समझना ही मानव जीवन का
असल
मकसद
होता है। पूर्ण मुक्ति या मोक्ष तक पहुंचने का यह इकलौता
रास्ता
है।
इस अद्वैत के सिद्धांत के मुख्य चार बिंदु हैं- ब्रह्म का अस्तित्व है, ब्रह्म
एक है, आप
ब्रह्म हैं और मैं भी ब्रह्म हूं। इसमें ब्रह्म को भगवान या चैतन्य का भी नाम दिया जा सकता है। उपनिषदों की बात करें तो, इनके बुनियादी
उपदेश 'महावाक्यों' पर टिके हैं। दरअसल, ये महावाक्य वेदांतों से लिए गए हैं और उपनिषदों में भी रखे गए हैं।
महावाक्य को समझने की कोशिश करें तो 'महा'
का एक अर्थ तो महान हुआ और वाक्य से मतलब 'वाक्य' है। उपनिषदों में चार महत्वपूर्ण वाक्य हैं, जो आत्मा (स्वयं) और ब्रह्म के संबंधों पर आधारित हैं। इन्हें ही महावाक्य कहा जाता है। ये चारों वाक्य ब्रह्म के स्वरूप को अलग-अलग तरीके से पेश करते हैं। विशेष बात यह है
कि इनमें
यह भी बताने की कोशिश की
गई है
कि आत्मा और ब्रह्म के बीच
कोई अंतर
नहीं है। इन चारों
महावाक्यों की चर्चा वेदों की उत्पत्ति के क्रम में है।
आगे बढने के पूर्व हमें ज्ञान
और विज्ञान में क्या अंतर है यह समझ लेना चाहिये। इनकी
परिभाषा चतुष्श्लोकी भागवत के गीता प्रेस गोरखपुर में श्रीकृष्ण के मुख से बताया गया है।
परिभाषा चतुष्श्लोकी भागवत के गीता प्रेस गोरखपुर में श्रीकृष्ण के मुख से बताया गया है।
भाग्वत का यह श्लोक देखें।
ज्ञानं परमगुह्मं में यद्
विज्ञानसमंवितम्।
सर्हस्यं तदंग च गृहाण गदितं
मया॥
यह विज्ञानसहित ज्ञान समस्त गुह्य और गुह्यतर विषयों
से भी अतिशय गुह्या और गोपनीय है, इसी लिये यह परमगुह्य है। सबसे बढकर गुप्त रखने योग्य
है। ऐसे परम गोपनीय ज्ञान के साधनों का मैं रहस्य सहित वर्णन करता हूं, तुम उसे धारण करो।
“ ब्रह्मन! मेरे सगुण-निराकार
सच्चिदानन्द स्वरूप के तत्व, प्रभाव, माहात्म्य का यथार्थ
ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
“मेरे सगुण और दिव्य
साकार-स्वरूप के लीला, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य और माहात्म्य
का वास्त्विक ज्ञान ही “विज्ञान” है।“
का वास्त्विक ज्ञान ही “विज्ञान” है।“
पहला महावाक्य ऋग्वेद के ऐतरेय उपनिषद में उद्धृत किया गया है, "प्रज्ञानं ब्रह्म" जिसे 'लक्षणा वाक्य' भी कहा गया है। इसका संबंध ब्रह्म की चैतन्यता से है, क्योंकि इसमें ब्रह्म को चैतन्य रूप में रखा गया है। मतलब है "ज्ञान ही ब्रह्म है"। पर क्यों और कैसे अत: य्ह समझे "प्रकट ज्ञान ही ब्रह्म है"।
मेरा विचार है कि इसके यह अर्थ भी होंगें। प्र यानि प्रकृति ज्ञानं। मतलब प्रकृति ही ज्ञान है। प्रज्ञान का अर्थ यह भी है कि वह ज्ञान हम लेकर आते है। वह ज्ञान ब्रह्म ही होता है पर सांसारिक ज्ञान में हम यह ब्रह्म ज्ञान भूल जाते हैं। मतलब हमारी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति है और यह ज्ञान हमें प्राप्त है। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर मन में स्थाई आनन्द प्राप्त हो जाता है। इसी लिये कहते हैं कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति आनंद है।
मेरा विचार है कि इसके यह अर्थ भी होंगें। प्र यानि प्रकृति ज्ञानं। मतलब प्रकृति ही ज्ञान है। प्रज्ञान का अर्थ यह भी है कि वह ज्ञान हम लेकर आते है। वह ज्ञान ब्रह्म ही होता है पर सांसारिक ज्ञान में हम यह ब्रह्म ज्ञान भूल जाते हैं। मतलब हमारी मूल प्रकृति और प्रवृत्ति ब्रह्म ज्ञान की प्राप्ति है और यह ज्ञान हमें प्राप्त है। इस ज्ञान के प्राप्त होने पर मन में स्थाई आनन्द प्राप्त हो जाता है। इसी लिये कहते हैं कि मनुष्य की मूल प्रवृत्ति आनंद है।
दूसरा महावाक्य यजुर्वेद के वृहदारण्यक उपनिषद से लिया गया है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें यह बताने
की कोशिश की गई है कि हम सभी ब्रह्म (अहं ब्रह्मास्मि) हैं। इसे 'अनुभव वाक्य' भी कहते हैं और इसके मूल स्वरूप को सिर्फ अनुभव के द्वारा ही प्राप्त किया जा सकता है।
तीसरा महावाक्य सामवेद के छांदोग्य उपनिषद से लिया गया है। इस महावाक्य 'तत त्वम असि' का मतलब यह है कि सिर्फ मैं ही ब्रह्म नहीं हूं, आप भी ब्रह्म है,
बल्कि विश्व की हर वस्तु
ही ब्रह्म है। इसे उपदेश वाक्य भी कहा जाता है। यह उपदेश वाक्य इसलिए भी कहा जाता है, क्योंकि इसके जरिए गुरु अपने शिष्यों में अहंकार को रोकते हैं। साथ ही, वह दूसरों के प्रति आदर की भावना को भी पैदा करते हैं।
चौथा महावाक्य मुंडक उपनिषद से लिया गया है। 'अयम आत्मा ब्रह्म' महावाक्य के जरिए यह जताने की कोशिश हुई है कि आत्मा ही ब्रह्म है। वास्तव
में यह अद्वैतवाद के सिद्धांत को प्रतिपादित करता है और परम सत्य के बड़े स्वरूप की जानकारी देता है, इसलिए इसे 'अनुसंधान वाक्य' भी कहा जाता है।
वास्तव में आध्यात्मिक मार्ग के जीवन के तीन प्रमुख
चरण या पडाव होते हैं- द्वैतवाद जिसमें
भक्तियोग का जन्म होता है। विशिष्टतावाद, मेरा इष्ट ही विशेष, जिनके आधार
पर पुराण लिखे गये। जो ऋषि जिस देव की आराधना से योग तक पहुंचा, उसने उसी को
सर्वश्रेष्ठ बता दिया। तीसरा और अंतिम चरण जिसके अनुभव से मोक्ष मिलता है वह है अद्वैतवाद। हर व्यक्ति जीवन के इन तीन
चरणों से होकर गुजरता है।
द्वैतवाद रूपी पहले चरण में व्यक्ति और भगवान दोनों का अलग-अलग अस्तित्व है। दूसरे चरण में व्यक्ति खुद को भगवान की तरह समझना तो शुरू करता है, फिर भी उसे इस बात का अहसास रहता है कि दो अलग अस्तित्व अब भी मौजूद हैं। साथ ही
उसका इष्ट ही श्रेष्ठ्। अद्वैतवाद रूपी अंतिम चरण में व्यक्ति को एक भगवान का अनुभव होता है। उसे यह पता चलता है कि मेरा या तेरा जैसे शब्दों का कोई अस्तित्व नहीं। यही कारण है कि इस चरण में यह कहा जाता है कि ब्रह्म और आत्मा एक ही हैं। पुन: उपनिषदों के
महावाक्यों की ओर लौटें तो चार महावाक्यों के अलावा कुछ अन्य महत्वपूर्ण वाक्य भी हैं, जो अद्वैतवाद
से जुड़े हुए हैं।
'ब्रह्म सत्यं जगत मिथ्या' नामक
महावाक्य
के
जरिए यह बताया गया है कि ब्रह्म ही सत्य है, जगत यानी यह
दुनिया
मिथ्या
है। आप
देखें आप अपना जीवन दो तरह से बिताते हैं। एक आंख खोलकर दूसरा आंख बंद कर। जब आंख
बंद तो खुली आंख का जगत गलत जब आंख खुली तो बंद आंख के अनुभव गलत। तो सत्य क्या? दोनो ही गलत। परम सत्य कभी समय के साथ
परिवर्तित नही होता अत: सम्पूर्ण सृष्टि मिथ्या एक मात्र बह्म अपरिवर्तित। अत: यह
महावाक्य।
'सर्वम् खलविदम् ब्रह्म' का भी संदेश यही है कि सभी ब्रह्म हैं। यानि भूत वर्तमान
भविष्य, दृष्य अदृष्य सब
ब्रह्म ही है। वास्तव में यह अनुभव हमें पूर्ण ब्रह्म ज्ञानी बनाता है। जब हम इस
भाव में सांख्य होकर स्थिर हो जाते हैं। तो हमारा शरीर सभी पीडाओं से मुकत हो जाता
है। शरीर के कष्ट हमें विचलित नहीं करते। जैसे गुरु बंदा बैरागी के सर का कवच
औरंगजेब ने काट डाला था। रमण महृषि ने अपना आपरेशन बिना एनस्थिसिया से करावाया था।
औरंगजेब
ने भाई मतिदास को धर्म-परिवर्तन करने के
लिए विवश करने के उद्देश्य से अनेक प्रकार की यातनाएँ देने की धमकी दी|
खौलते हुए गरम तेल
के कड़ाहे दिखाकर उनके मन में भय
उत्पन्न करने का प्रयत्न किया, परंतु धर्मवीर पुरुष अपने प्राणों की चिन्ता नहीं किया
करते। धर्म के लिए अपना जीवन उत्सर्ग कर देना श्रेष्ठ समझते हैं |
जब औरंगजेब की सभी धमकियाँ
बेकार गयीं, सभी प्रयत्न असफल रहे, तो वह चिढ़ गया | उसने काजी को बुलाकर पूछाः
“बताओ इसे क्या सजा दी जाये"? काजी ने कुरान
का हवाला देकर हुक्म सुनाया कि "इस काफिर को इस्लाम ग्रहण न करने के आरोप में
आरे से लकड़ी की तरह चीर दिया जाये| "औरंगजेब ने सिपाहियों को काजी
के आदेश का पालन करने का हुक्म जारी कर दिया|
दिल्ली के चाँदनी चौक में भाई मतिदास को दो खंभों के
बीच रस्सों से कसकर बाँध दिया गया और सिपाहियों ने ऊपर से आरे के द्वारा
उन्हें चीरना प्रारंभ किया। किंतु उन्होंने ‘सी’ तक नहीं की| औरंगजेब
ने पाँच मिनट बाद फिर कहाः “अभी भी समय
है| यदि तुम इस्लाम कबूल कर लो,
तो तुम्हें छोड़ दिया जायेगा और धन-दौलत
से मालामाल कर दिया जायेगा|”
वीर
मतिदास ने निर्भय होकर कहा “मैं जीते जी अपना सनातन धर्म नहीं छोड़ूँगा|”
यह देखकर दयाला बोला
"औरंगजेब तूने बाबर वंश को और अपनी
बादशाहियत को चिरवाया है |" यह सुनकर औरंगजेब ने दयाला को उबलते पानी के कढाहे में डलवाकर
जिंदा ही जला दिया | भाई दयाला जी को गुरु तेगबहादुर जी की मौजूदगी में एक
बड़ी देग, जो पानी से भरी थी, देग में बैठाया गया| देग को आग लगाई गई उबलते पानी में दयाला जी की शहादत हुई|
यह संत गुरू ब्रह्म से आत्मसात कर ब्रह्म स्वरूप
हो चुके थे।
मैं देखता हूं कुछ अल्प ज्ञानी और कुछ हद तक मूर्ख साकार निराकार के
तर्क लेकर आपस में उलझते रहते हैं। जबकि यह सब अवस्थायें वेदों में वर्णित हैं। ब्रह्म का अंतिम रूप निराकार
निर्गुण अद्वैत ही है। किंतु वह साकार भी है अत: बिना गुरू के मानव को साकार द्वैत
सगुण से ही साधना आरम्भ करनी चाहिये। कारण भक्ति मार्ग और द्वैत आनन्ददायक सुखद और
नम्रता से परिपूर्ण होता है। प्रेमाश्रुओं का आनंद विरह और प्रेम का वास्तविक रूप
दिखाता है। रामरस का नशा दुनिया के तमाम नशों से अधिक नशा देकर आनन्दमग्न रखता है।
किंतु ज्ञान योग नीरस होने के साथ निरंकुश और अहंकारी भी बना सकता है। जिसके कारण
मानव का पतन हो जाता है।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(कुछ तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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