वेद
के सार वचन! जो बदले जीवन
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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सनातन
का या हिंदुओं धर्मग्रंथ है वेद। वेद के 4 भाग हैं- ऋग, यजु, साम और अथर्व। चारों के अंतिम भाग या तत्वज्ञान को
वेदांत और उपनिषद कहते हैं। उपनिषदों की संख्या लगभग 1,000
बताई गई है। उसमें भी 108
महत्वपूर्ण
हैं। ये उपनिषद छोटे-छोटे होते हैं। लगभग 5-6
पन्नों के।
इन
उपनिषदों का सार या निचोड़ है भगवान श्रीकृष्ण द्वारा कही गई गीता। इतिहास ग्रंथ महाभारत
को पंचम वेद माना गया है। वाल्मीकि रामायण और 18
पुराणों को भी इतिहास ग्रंथों की
श्रेणी में रखा गया है।
मेरा विचार है कि यदि हम वेद को गौशाला मानें। तो उपनिषद है उसकी गाय।श्रीमदभग्वदगीता है दुग्ध। वहीं राम चरित मानस है उसका मक्खन, जिसमें पात्रों के नामों और कर्म के साथ योग और ब्रह्मप्राप्ति को साधारण भाषा में समझाया गया है।
मेरा विचार है कि यदि हम वेद को गौशाला मानें। तो उपनिषद है उसकी गाय।श्रीमदभग्वदगीता है दुग्ध। वहीं राम चरित मानस है उसका मक्खन, जिसमें पात्रों के नामों और कर्म के साथ योग और ब्रह्मप्राप्ति को साधारण भाषा में समझाया गया है।
इस प्रकार ब्रह्मसूत्र प्रमुखतया ब्रह्म के स्वरूप को विवेचित करता है एवं इसी के संबंध से उसमें जीव एवं प्रकृति के संबंध में भी विचार
प्रकट किया गया है। यह दर्शन चार अध्यायों एवं सोलह पादों में विभक्त है। इनका प्रतिपाद्य क्रमश: निम्रवत् है।
प्रथम
अध्याय का नाम 'समन्वय' है, इसमें अनेक प्रकार की परस्पर विरुद्ध श्रुतियों का
समन्वय ब्रह्म में किया गया है। इसमें भी खंड या पाद हैं
जैसे प्रथम अध्याय प्रथम खंड में 32 सूत्र है। दिव्तीय में 32 तृतीय में 44
और चतुर्थ में 28 श्लोक हैं।
वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है।
वेदान्त से संबंधित समस्त वाक्यों का मुख्य आशय प्रकट करके उन समस्त विचारों को समन्वित किया गया है, जो बाहर से देखने पर परस्पर भिन्न एवं अनेक स्थलों पर तो विरोधी भी प्रतीत होते हैं। प्रथम पाद में वे वाक्य दिये गये हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्टतया कथन है, द्वितीय में वे वाक्य हैं, जिनमें ब्रह्म का स्पष्ट कथन नहीं है एवं अभिप्राय उसकी उपासना से है। तृतीय में वे वाक्य समाविष्ट हैं, जिनमें ज्ञान रूप में ब्रह्म का वर्णन है। चतुर्थ पाद में विविध प्रकार के विचारों एवं संदिग्ध भावों से पूर्ण वाक्यों पर विचार किया गया है।
दूसरे अध्याय का साधारण नाम 'अविरोध' है। प्रथम खंड में 36 सूत्र है।
दिव्तीय में 42 तृतीय में 52 और चतुर्थ में 19 श्लोक हैं। इसके अन्तर्गत श्रुतियों
की जो परस्पर विरोधी
सम्मतियाँ हैं,
उनका मूल आशय प्रकट करके
उनके द्वारा अद्वैत सिद्धान्त की सिद्धि की गयी है। इसके साथ ही वैदिक मतों (सांख्य, वैशेषिक, पाशुपत आदि) एवं अवैदिक सिद्धान्तों (जैन, बौद्ध आदि) के दोषों एवं उनकी अयथार्थता को दर्शाया गया है। आगे चलकर लिंग शरीर प्राण
एवं इन्द्रियों के स्वरूप दिग्दर्शन के साथ पंचभूत एवं जीव से सम्बद्ध शंकाओं का निराकरण
भी
किया गया है।
इसके प्रथम पाद में स्वमतप्रतिष्ठा के लिए स्मृति-तर्कादि विरोधों का परिहार किया गया है।
द्वितीय पाद में विरुद्ध मतों के प्रति दोषारोपण किया गया है।
चतुर्थ पाद में भूतविषयक श्रुतियों का विरोधपरिहार किया गया है।
तृतीय
अध्याय का साधारण नाम 'साधन' है। इसमें जीव और ब्रह्म के
लक्षणों का निर्देश करके मुक्ति के
बहिरंग और अन्तरंग साधनों का निर्देश
किया गया है।
प्रथम खंड में 27 सूत्र है।
दिव्तीय में 40 तृतीय में 64 और चतुर्थ में
52 सूत्र हैं। इसके अन्तर्गत प्रथमत: स्वर्गादि प्राप्ति के साधनों के दोष दिखाकर ज्ञान एवं विद्या के वास्तविक
स्रोत्र परमात्मा की उपासना प्रतिपादित की गयी है, जिसके द्वारा जीव ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है। इस उद्देश्य की पूर्ति में कर्मकाण्ड
सिद्धान्त के अनुसार मात्र अग्निहोत्र आदि पर्याप्त नहीं वरन् ज्ञान एवं भक्ति द्वारा ही
आत्मा और
परमात्मा का सान्निध्य
सम्भव है।
चतुर्थ
अध्याय का नाम 'फल' है। इसमें जीवन्मुक्ति, जीव की उत्क्रान्ति, सगुण और निर्गुण उपासना के फलतारतम्य पर विचार किया
गया है। प्रथम खंड में 19 सूत्र है। दिव्तीय में 20 तृतीय में 15 और चतुर्थ में 22 सूत्र हैं। चतुर्थ अध्याय साधना का परिणाम होने से फलाध्याय है। इसके अन्तर्गत
वायु, विद्युत एवं वरुण लोक से उच्च लोक-ब्रह्मलोक तक पहुँचने का वर्णन है, साथ ही जीव की मुक्ति, जीवन्मुक्त
की मृत्यु एवं परलोक में उसकी गति आदि भी वर्णित है। अन्त में यह भी वर्णित है कि ब्रह्म की प्राप्ति होने से
आत्मा की स्थिति किस
प्रकार की होती है, जिससे वह पुन: संसार में आगमन नहीं करती। मुक्ति और निर्वाण की अवस्था यही है। इस प्रकार वेदान्त दर्शन में
ईश्वर, प्रकृति, जीव, मरणोत्तर दशाएँ, पुनर्जन्म, ज्ञान, कर्म, उपासना, बन्धन एवं मोक्ष इन दस विषयों का प्रमुख रूप से विवेचन किया गया है।
ब्रह्मसूत्र
पर सभी वेदान्तीय सम्प्रदायों के आचार्यों ने भाष्य,
टीका व
वृत्तियाँ लिखी हैं। इनमें गम्भीरता,
प्रांजलता,
सौष्ठव और प्रसाद गुणों
की अधिकता के कारण शांकर भाष्य
सर्वश्रेष्ठ स्थान रखता है। इसका नाम 'शारीरक भाष्य' है।
ब्रह्म
ही सत्य है। 'एकं एवं अद्वितीय'
अर्थात वह एक है और दूसरे की
साझेदारी के बिना है- यह 'ब्रह्मसूत्र' कहता है। वेद, उपनिषद और गीता
ब्रह्मसूत्र पर कायम है। ब्रह्मसूत्र
का अर्थ वेद का अकाट्य वाक्य, ब्रह्म वाक्य। ब्रह्मा को आजकल ईश्वर,
परमेश्वर या
परमात्मा कहा जाता है। इसका संबंध
ब्रह्मा नामक देवता से नहीं है।
'एकं ब्रह्म द्वितीय नास्ति नेह ना नास्ति किंचन'
अर्थात एक ही ईश्वर है
दूसरा नहीं है,
नहीं है,
नहीं है- अंशभर भी नहीं है। उस ईश्वर
को छोड़कर जो अन्य की प्रार्थना,
मंत्र और पूजा करता है वह अनार्य है,
नास्तिक है या
धर्म विरोधी है।
पुनश्च, यदि प्राचीनता, तार्किकता तथा उपनिषदनुकूलता की कसौटी माना जाए तो शंकराचार्य का भाष्य ही बादरायण के अभिमतों के
सर्वाधिक निकट है। उनका दर्शन उपनिषदों के 'एकमेवाद्वितीय' सत् या ब्रह्म का ही प्रतिपादन करता है। शंकराचार्य के इस कथन को सभी भाष्यकार मानते हैं कि
ब्रह्मसूत्रों का मुख्य प्रयोजन उपनिषद के वाक्यों को संग्रथित करना है। अत: बादरायण
अद्वैतवादी थे। उनके प्रथम पांच सूत्र उनके दर्शन का सार प्रस्तुत करते हैं। ये
निम्नलिखित हैं-
।।प्रथमेनार्जिता
विद्या द्वितीयेनार्जितं धनं।तृतीयेनार्जितः कीर्तिः चतुर्थे किं करिष्यति।।
अर्थ
: जिसने प्रथम अर्थात ब्रह्मचर्य आश्रम में विद्या
अर्जित नहीं की, द्वितीय अर्थात गृहस्थ आश्रम में धन अर्जित नहीं किया,
तृतीय अर्थात
वानप्रस्थ आश्रम में कीर्ति अर्जित
नहीं की, वह चतुर्थ अर्थात संन्यास
आश्रम में क्या करेगा?
उपनिषदों
को जिसने भी पढ़ा और समझा, यह मानकर चलिए कि उसका जीवन बदल गया।
उसकी सोच बदल गई। उपनिषदों से ऊपर कुछ
भी नहीं। दुनिया का संपूर्ण दर्शन, विज्ञान और धर्म उपनिषदों में समाया हुआ है। आओ हम
जानते हैं उपनिषदों के उन 5 वचनों को जिसे हर मनुष्य को याद रखना चाहिए।
पहला वचन : आहार
शुद्धि से प्राणों के सत की शुद्धि
होती है, सत्व शुद्धि से स्मृति निर्मल
और स्थिरमति (जिसे प्रज्ञा कहते हैं) प्राप्त होती है। स्थिर बुद्धि से
जन्म-जन्मांतर के बंधनों और ग्रंथियों का नाश होता है और
बंधनों और ग्रंथियों से मुक्ति ही मोक्ष है। अत: आहार शुद्धि प्रथम नियम और
प्रतिबद्धता है।
आहार
केवल मात्र वही नहीं जो मुख से लिया जाए, आहार का अभिप्राय है स्थूल
शरीर और सूक्ष्म शरीर को पुष्ट और
स्वस्थ रखने के लिए इस दुनिया से जो खाद्य लिया जाए।
1. कान के लिए आहार है शब्द या
ध्वनि।
2. त्वचा के लिए आहार है स्पर्श।
3. नेत्रों के लिए आहार है दृश्य
या रूप जगत।
4. नाक के लिए आहार है गंध या
सुगंध।
5. जिह्वा के लिए आहार है अन्न
और रस।
6. मन के लिए आहार है उत्तम
विचार और ध्यान।
अत: ज्ञानेन्द्रियों के जो 5 दोष हैं जिससे चेतना में विकार पैदा होता है, उनसे बचें।
दूसरा वचन : प्रत्येक पूर्ण है। चाहे वह व्यक्ति हो, जगत हो, पत्थर, वृक्ष या अन्य कोई ब्रह्मांड हो, क्योंकि उस पूर्ण से ही सभी की उत्पत्ति हुई है।
स्वयं की पूर्णता को प्राप्त करने के लिए ध्यान जरूरी है। जिस
तरह एक बीज खिलकर वृक्ष बनकर हजारों बीजों में बदल जाता है, वैसी ही मनुष्य की भी गति है। यह संसार उल्टे वृक्ष के समान है। व्यक्ति के मस्तिष्क
में उसकी पूर्णता की जड़ें हैं। ऐसा उपनिषदों में लिखा है।
ॐ
पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य
पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥ -वृहदारण्यक उपनिषद
अर्थ : अर्थात वह सच्चिदानंदघन
परब्रह्म पुरुषोत्तम परमात्मा सभी प्रकार से सदा सर्वदा परिपूर्ण है। यह जगत भी उस परब्रह्म से
पूर्ण ही है, क्योंकि यह पूर्ण उस पूर्ण पुरुषोत्तम से ही उत्पन्न हुआ है।
इस प्रकार परब्रह्म की पूर्णता से जगत पूर्ण होने
पर भी वह परब्रह्म परिपूर्ण है। उस पूर्ण में से पूर्ण को निकाल देने पर भी वह पूर्ण ही शेष रहता
है।
तीसरा वचन : जो व्यक्ति परस्पर सह-अस्तिव की भावना रखता है, मनुष्यों में वह श्रेष्ठ है। सभी के स्वास्थ्य और रक्षा की कामना करने वाला ही खुद
के मन को निर्मल बनाकर श्रेष्ठ माहौल को प्राप्त होता है। जो व्यक्ति
निम्नलिखित भावना को आत्मसात करता है, उसका जीवन श्रेष्ठ बनता जाता है।
ॐ
सह नाववतु। सह नौ भुनक्तु। सह वीर्यं करवावहै।
तेजस्विनावधीतमस्तु
मा विद्विषावहै॥ -कठोपनिषद
अर्थ : परमेश्वर हम
शिष्य और आचार्य दोनों की साथ-साथ रक्षा करें। हम दोनों को साथ-साथ विद्या
के फल का भोग कराए। हम दोनों एकसाथ
मिलकर विद्या प्राप्ति का सामर्थ्य प्राप्त करें। हम दोनों का पढ़ा हुआ तेजस्वी हो। हम
दोनों परस्पर द्वेष न करें। उक्त तरह की भावना रखने वाले का मन निर्मल रहता
है। निर्मल मन से निर्मल भविष्य का उदय होता है।
शरीरमाद्यं
खलु धर्मसाधनम्।। -उपनिषद
अर्थ :
शरीर ही सभी
धर्मों (कर्तव्यों) को पूरा करने का साधन है। अर्थात शरीर को सेहतमंद
बनाए रखना जरूरी है। इसी के होने से सभी का होना है अत: शरीर की रक्षा और उसे
निरोगी रखना मनुष्य का सर्वप्रथम
कर्तव्य है। पहला सुख निरोगी काया।
येषां न विद्या न तपो न दानं, ज्ञानं न शीलं न गुणो न धर्म:।
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। -उपनिषद
ते मृत्युलोके भुवि भारभूता, मनुष्यरूपेण मृगाश्चरन्ति।। -उपनिषद
अर्थ
: जिसके पास
विद्या,
तप,
ज्ञान,
शील,
गुण और धर्म में से कुछ नहीं,
वह मनुष्य ऐसा जीवन
व्यतीत करते हैं जैसे एक मृग। अर्थात
जिस मनुष्य ने किसी भी प्रकार से विद्या अध्ययन नहीं किया,
न ही उसने व्रत और तप किया,
थोड़ा बहुत
अन्न-वस्त्र-धन या विद्या दान नहीं दिया,
न उसमें किसी भी प्रकार का ज्ञान
है,
न शील है,
न गुण है और न धर्म है,
ऐसे मनुष्य इस धरती पर भार होते हैं।
मनुष्य रूप में होते हुए भी पशु के
समान जीवन व्यतीत करते हैं।
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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(तथ्य संकलन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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