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Wednesday, February 13, 2019

कृपा की देवी मां काली से कालीदास तक



कृपा की देवी मां काली से कालीदास तक

 सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"


 विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल “वैज्ञनिक” ISSN 2456-4818
वेब:  vipkavi.info वेब चैनलvipkavi
ब्लाग: freedhyan.blogspot.com,



विद्योत्तमा महाकवि कालीदास  की पत्नी थीं। कालिदास के संबंध में यह कहानी  प्रचलित है कि वे पहले निपट मूर्ख थे। कुछ धूर्त पंडितों ने षड्यंत्र करके उनका विवाह विद्योत्तमा नाम की परम विदुषी से करा दिया। पता लगने पर विद्योत्तमा ने कालिदास को घर से निकाल दिया। इस पर दुखी कालिदास ने भगवती की आराधना की और समस्त विद्याओं का ज्ञान अर्जित कर लिया। 

जनश्रुति के अनुसार कालिदास पहले महामूर्ख थे। 'राजा शारदानन्द' की विद्योत्तमा नाम की एक विदुषी एवं सुन्दर कन्या थी। उसे अपनी विद्या पर बड़ा अभिमान था। इस कारण उसने शर्त रखी कि जो कोई उसे शास्त्रार्थ में पराजित करेगा उसी से ही वह विवाह करेगी। 

बहुत से विद्वान वहाँ आये, परंतु कोई भी उसे परास्त न कर सका; इस ईर्ष्या के कारण उन्होंने उसका विवाह किसी महामूर्ख से कराने की सोची। उसी महामूर्ख को खोजते हुए उन्होंने जिस डाल पर बैठा था, उसी को काटते कालिदास को देखा। उसे विवाह कराने को तैयार करके मौन रहने को कहा और विद्योत्तमा द्वारा पूछे गये प्रश़्नों का सन्तोषजनक उत्तर देकर विद्योत्तमा के साथ विवाह करा दिया। उसी रात ऊँट को देखकर पत़्नी द्वारा ’किमदिम ?’ पूछने पर उसने अशुद्ध उच्चारण ’ऊष्ट्र’ ऐसा किया।

 
विद्योत्तमा पण्डितों के षड़़यन्त्र को जानकर रोने लगी और पति को बाहर निकाल दिया। वह आत्महत्या के उद्देश्य से काली मन्दिर गया, किन्तु काली ने प्रसन्न होकर उसे वर दिया और उसी से शास्त्रनिष्णात होकर वापिस पत़्नी के पास पहुँचे।

 
घर पहुँचकर बन्द दरवाज़ा देखकर अनावृत्तकपाटं द्वारं देहि ऐसा कहा। विद्योत्तमा को आश़्चर्य हुआ और उसने पूछा – अस्ति कश़्चिद वाग्विशेष:, पत़्नी के इन तीन पदों से उसने अस्ति पद से अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा से कुमार सम्भव , कश़्चिद पद से कश़्चित्कान्ताविरहगरुणा से  मेघदूत।  वाग इस पद से वागर्थाविव संपृक़्तौ यह रघुवंशम महाकाव्य रच डाले।

 
भिक्षो, मांसनिसेवणम्‌ प्रकुरुषे, किं तेन मद्यं बिना। मद्यं चापि तवप्रिय, प्रियमहो वारांगनाभि: सह॥ तासामर्थ्यरुचि: कुतस्तव धनम्‌, द्यूतेन चौर्येण वा। द्यूतं चौर्यपरिग्रहोपि भवत:, नष्टस्य कान्या गति:॥”(कालिदासकथारहस्य से)

अरे भिखारी, तुम मांस भी खाते हो?’ ‘ख़ाता तो हूँ, लेकिन शराब के बिना उसे खाने में क्या मज़ा!’ ‘तो तुम्हें शराब भी प्रिय है?’ ‘प्रिय तो है, लेकिन जब तवायफ़ों के साथ पियें तब। ’ ‘ये शौक पूरा करने के लिए तुम्हें धन कहाँ से मिलता है?’ ‘जुआ खेलकर और चोरी करके।’ ‘तो आप जुआ भी खेलते हैं और चोरी भी करते हैं?’ ‘आदमी एक बार गिर जाए, फिर उसकी और क्या गति है?’

कालिदासकथारहस्य का यह विचित्र श्लोक किंवदन्ती या जनश्रुति पर आधारित है। जनश्रुति के अनुसार यह उनकी विदुषी पत्नी और उनके बीच उस मौके पर हुआ संवाद है जब वे विद्वत्ता और कवित्व अर्जित करने के बाद आत्म-विश्वास से लबरेज़ वापस लौटे थे। आत्म-विश्वास से लबरेज़ व्यक्ति ही इस तरह अपनी खाट खड़ी कर सकता है।

उपरोक्त बहु-प्रचलित किंवदन्ती कालिदास के प्रारम्भिक दिनों की आत्यंतिक मूर्खता और एक विदुषी राजकुमारी के साथ उनके विवाह और फिर उससे अपमानित होकर घर छोड़ने को लेकर है। इसमें बड़े रोचक प्रसंग आते हैं। मूल किंवदन्ती तो सबको पता ही है। विदुषी राजकुमारी विद्योत्तमा की प्रतिज्ञा कि वह उसी विद्वान से विवाह करेगी जो शास्त्रार्थ में उसे हरा देगा। शास्त्रार्थ में हारकर खीझे पंडितों का किसी महामूर्ख को खोजकर उससे उसका विवाह करा देने का षड्यंत्र । खोजते-खोजते एक ऐसे व्यक्ति (कालिदास) का दिख जाना जो पेड़ की जिस डाल पर बैठा था, उसी को काट रहा था। अब उससे ज़्यादा मूर्ख मिलने की आशा छोड़कर उसे ही पेड़ से उतारकर, सजा-बजा कर शास्त्रार्थ के लिए दरबार में हाजिर कर दिया गया। राजकुमारी से कहा गया कि पंडित जी आजकल मौन व्रत पर हैं, इसलिए इशारों से ही शास्त्रार्थ करेंगे।

विद्योत्तमा ने एक उंगली दिखाई– ब्रह्म एकमात्र सत्य है। निरक्षर कालिदास ने समझा वह उनकी एक आँख फोड़ने की धमकी दे रही है। उन्होंने दो उंगलियाँ उठा दीं—दोनों आँख फोड़ देंगे। पंडितों ने सिद्ध कर दिया कि महान विद्वान कह रहे हैं कि नहीं, ब्रह्म और माया, पुरुष और प्रकृति दोनों उतने ही सत्य हैं। हमारे देश के पंडित जो न सिद्ध कर दें सो थोड़ा।… तो बात जम गई।

फिर विद्योत्तमा ने पाँचों उँगलियों को उठाकर पंजा दिखाया—मनुष्य पाँच ज्ञानेन्द्रियों के वशीभूत है। कालिदास ने समझा वह तमाचा मारने की धमकी दे रही है। उन्होंने उंगलियों को मोड़कर मुट्ठी कस ली और उसे ऊपर उठाया—घूँसा लगाउँगा। पंडितों ने व्याख्या की– नहीं, मन के नियंत्रण में एकजुट होकर ही ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञानेन्द्रियाँ बनती हैं, अन्यथा तो वे जड़ और निरर्थक हैं. फिर बात बन गई.

कालिदास जीत गए और विद्योत्तमा से उनका विवाह हो गया। लेकिन शीघ्र ही उनकी पोल खुल गई। विद्योत्तमा और कालिदास राजमहल के अपने कक्ष में खिड़की के पास बैठे थे, जब बाहर से एक ऊंट के बलबलाने की आवाज़ आई। विद्योत्तमा ने पूछा–यह कैसी आवाज़ है ? कालिदास शुद्ध शब्द उष्ट्र के बजाए उट्र-उट्र कह कर रह गए। विद्योत्तमा को समझ में आ गया कि उसके साथ कैसा छल हुआ है। उसने क्रोध में आकर उन्हें खिड़की से बाहर ढकेल दिया। पत्नी से अपमानित होकर वे निकल पड़े और उच्च कोटि के विद्वान बनकर ही वापस लौटे। आत्म-विश्वास से भरे हुए। एक गंदे-मंदे भिखारी का वेश धरकर। भिक्षा आई तो मांसाहार की फ़र्माइश कर दी। उत्सुकतावश विद्योत्तमा बाहर आई। तभी दोनों में उपरोक्त संवाद सम्पन्न हुआ। यह जन-श्रुति है। हर व्यक्ति अपने-अपने ढंग से कालिदास की गर्वोक्ति की व्याख्या कर सकता है। लेकिन विद्वज्जनों में अंतिम पंक्ति एक सूक्ति (कहावत) के रूप में प्रचलित हो गई—नष्टस्य कान्या गति:। जो एक बार गिर गया, गिरते जाना ही उसकी नियति है।

प्रसंगवश, कालिदास अपने छंदों के बीच-बीच में पिरोई सूक्तियों के लिए भी बहुत प्रसिद्ध हैं। कुछ छंद तो पूरे के पूरे ही सूक्ति बन गए हैं। मुझे उनके नाटक मालविकाग्निमित्रम् के उस श्लोक की अक्सर याद आती है—

पुराणमित्येव न साधु सर्वं न चापि काव्यं नवमित्यवद्यम्।
संत: परीक्षान्यतरद्भजन्ते मूढ़: परप्रत्ययनेयबुद्धि:॥1:2
पुरानी होने से ही कोई चीज़ अच्छी नहीं हो जाती , न ही नई होने से बुरी। समझदार लोग तो विवेक से परीक्षण करने के बाद ही अच्छे-बुरे का निर्णय करते हैं, जब कि मूर्खों की बुद्धि सुनी-सुनाई बातों पर जाती है।

कालिदास के बारे में दूसरी किंवदन्ती विद्वत्जनों में अधिक प्रचलित है। यह भी विद्वान बनकर लौटने के बाद उनके और विद्योत्तमा के बीच संवाद को लेकर ही है। दोनों किंवदंतियों को मिलाया भी जा सकता है। हो सकता है, पहली बार पत्नी को देखकर और भड़कीली बातें बोलकर वे लौट गए हों, फिर दूसरी बार आने पर ऐसा हुआ हो। इस बार आकर उन्होंने दरवाज़ा खटखटाया—अनावृत्तम् कपाटम् देहि–किवाड़ खोलो। अब की बार विद्योत्तमा ने स्वर से पहचान लिया और पूछा—अस्ति कश्चिद् वाग्विशेष:–वाणी (या भाषा) में कुछ परिष्कार आ गया क्या ? कालिदास द्वारा पहले उच्चरित ‘उट्र’ और उससे उजागर हुआ छल उसे कैसे भूलता ! स्वाभिमानी कालिदास फिर लौट गए। विद्योत्तमा के प्रश्न में तीन शब्द थे। उन्हीं तीनों से शुरू करके उन्होंने तीन महाकाव्य लिख डाले। अस्ति से—
अस्त्युत्तरस्यां दिशि देवतात्मा हिमालयो नाम नागाधिराज:।
पूर्वापरौ तोयनिधीवगाह्य स्थित: पृथिव्या इव मानदण्ड:॥ (कुमारसम्भवम् 1:1)
(भारत के) उत्तर में देव-तुल्य हिमालय नाम का पर्वतों का राजा है, जो पूरब और पश्चिम के समुद्रों को छूता हुआ ऐसे स्थित है, जैसे पृथ्वी का मानदंड हो।

कश्चिद् से—
कश्चित्कांताविरहगुरुणा स्वाधिकारात्प्रमत्त: शापेनास्तंगमितमहिमा वर्षभोग्येण भर्तु:। यक्षश्चक्रे जनकतनयास्नानपुण्योदकेशु स्निग्धच्छायातरुषु वसतिं रामगिर्याश्रमेशु॥ (मेघदूतम्,पूर्वमेघ: 1:1)
अपने काम में ढिलाई बरतनेवाले यक्ष को शाप मिला कि वह एक वर्ष तक अपनी प्रिय पत्नी से दूर रहकर वियोग की पीड़ा सहे। इस शाप से उसकी महिमा अस्त हो गई। शाप के दिन काटने के लिए उसने रामगिरि (आज के नागपुर के पास स्थित रामटेक की पहाड़ी ?) में स्थित उन आश्रमों में आकर डेरा डाला जहाँ के जलाशयों के जल पूर्व में सीता जी के स्नान करने से पवित्र हुए हैं, और जहाँ स्निग्ध छायावाले वृक्ष लहलहाते हैं।

और वाग्विशेष: से—
वागर्थाविव संपृक्तौ वागर्थप्रतिपत्तये। जगत: पितरौ वंदे पार्वतीपरमेश्वरौ॥ (रघुवंशम् 1:1)
शब्द और अर्थ पर अधिकार पाने के लिए संसार के माता-पिता शंकर और पार्वती की वंदना करता हूँ, जो उसी तरह अविच्छेद्य रूप से परस्पर जुड़े हुए हैं जैसे शब्द और अर्थ।

और कालिदास के ये तीनों महाकाव्य संस्कृत के उन छ: महाकाव्यों में शुमार हुए जिन्हें शीर्षस्थ माना जाता है। तीन बड़े—बृहत्त्रयी हैं और तीन अपेक्षाकृत छोटे—लघुत्रयी हैं। ख़ास बात यह कि तीनों बड़े महाकाव्य तीन अलग-अलग कवियों के हैं–भारवि (किरातार्जुनीयम्‌), माघ (शिशुपालवधम्‌) और श्रीहर्ष (नैषधीय चरितम्‌) — जब कि तीन के तीनों छोटे कालिदास के हैं। तो तकरीबन आधे में कालिदास और आधे में शेष सारे उत्कृष्ट महाकाव्यों के प्रणेता। जब कि इन तीनों महाकाव्यों के अलावा कालिदास के तीन उत्कृष्ट नाटक भी हैं, जिनमें अभिज्ञानशाकुंतलम् तो विश्व-प्रसिद्ध है ही। और भी रचनाएँ हैं उनकी।

तो कालिदास ने इस उक्ति को, कि हर महान पुरुष के पीछे एक महान नारी होती है, अपने ढंग से चरितार्थ किया। और इस तरह कि आज के नारीवादियों को कोई शिकायत नहीं होगी।

अब आप सम्झ गये होंगे कि "फिल्म"शोले में मौसी के साथ वीरू का सम्वाद कहां से चुराया गया है। साथ ही मेरा नाम देवीदास क्योहै। 

(तथ्य व कथन गूगल से साभार)


MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
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