ज्ञान – विज्ञान के भंडार हैं वेद
सनातनपुत्र देवीदास विपुल "खोजी"
विपुल सेन उर्फ विपुल “लखनवी”,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक
एवं कवि
वैज्ञानिक अधिकारी, भाभा परमाणु अनुसंधान
केन्द्र, मुम्बई
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल
“वैज्ञनिक” ISSN
2456-4818
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मनुष्य के ह्दय में एक कौतूहल आज भी प्रश्नवाचक बना हुआ है कि आखिर
संसार
है क्या? सृष्टि की रचना, सभ्यता एवं संस्कृति का विकास-क्रम कैसे और किस प्रकार बना और सृष्टि का विनाश कब, कैसे और किस रूप में होने वाला है? युद्ध, महायुद्ध, भूकंप, ओजोन परत में छिद्र या परमाणु विखंडन आदि जैसे संसार का नष्ट होना निश्चित है? ऐसे प्रश्न पर चर्चा-परिचर्चा विश्व-स्तर पर होती रहती है, लेकिन इस विषय में सभी का समान मत नहीं होने से विषय पर प्रश्नवाचक बना हुआ है।
परंतु विभिन्न विद्धानों, वैज्ञानिकों एवं भविष्यवेताओं में संसार की स्थिति, निर्माण और उसके नष्ट होने की तिथि के बारे में मतभेद हो सकते हैं कि वेद, ज्ञान का प्रकाश पुंज है, जिससे ऐसा अखंड, अनंत, अपरिमित ज्ञान बोध होता है, जिसको सृष्टि के ऋषियों ने हृदयंगम किया था। वेद, शास्त्र के विद्वान, वेद को सृष्टि विज्ञान के संपूर्ण एवं परिपूर्ण ग्रंथ की मान्यता देने हेतु सर्वसहमत हैं। मनुष्य की उन्नति, प्रगति सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ है या भविष्य में होगा, वह वैदिक विज्ञान के आश्रय से ही संभव है।
आगे बढने के पूर्व हमें ज्ञान
और विज्ञान में क्या अंतर है यह समझ लेना चाहिये। इनकी
परिभाषा चतुष्श्लोकी भागवत के गीता प्रेस गोरखपुर में श्रीकृष्ण के मुख से बताया गया है।
परिभाषा चतुष्श्लोकी भागवत के गीता प्रेस गोरखपुर में श्रीकृष्ण के मुख से बताया गया है।
भाग्वत का यह श्लोक देखें।
ज्ञानं परमगुह्मं में यद्
विज्ञानसमंवितम्।
सर्हस्यं तदंग च गृहाण गदितं
मया॥
यह विज्ञानसहित ज्ञान समस्त गुह्य और गुह्यतर विषयों
से भी अतिशय गुह्या और गोपनीय है, इसी लिये यह परमगुह्य है। सबसे बढकर गुप्त रखने योग्य
है। ऐसे परम गोपनीय ज्ञान के साधनों का मैं रहस्य सहित वर्णन करता हूं, तुम उसे धारण करो।
“ ब्रह्मन! मेरे सगुण-निराकार
सच्चिदानन्द स्वरूप के तत्व, प्रभाव, माहात्म्य का यथार्थ
ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
ज्ञान ही “ज्ञान” है।“
“मेरे सगुण और दिव्य
साकार-स्वरूप के लीला, गुण, प्रभाव, तत्व, रहस्य और माहात्म्य
का वास्त्विक ज्ञान ही “विज्ञान” है।“
का वास्त्विक ज्ञान ही “विज्ञान” है।“
परंतु विभिन्न विद्धानों, वैज्ञानिकों एवं भविष्यवेताओं में संसार की स्थिति, निर्माण और उसके नष्ट होने की तिथि के बारे में मतभेद हो सकते हैं कि वेद, ज्ञान का प्रकाश पुंज है, जिससे ऐसा अखंड, अनंत, अपरिमित ज्ञान बोध होता है, जिसको सृष्टि के ऋषियों ने हृदयंगम किया था। वेद, शास्त्र के विद्वान, वेद को सृष्टि विज्ञान के संपूर्ण एवं परिपूर्ण ग्रंथ की मान्यता देने हेतु सर्वसहमत हैं। मनुष्य की उन्नति, प्रगति सभ्यता एवं संस्कृति का विकास हुआ है या भविष्य में होगा, वह वैदिक विज्ञान के आश्रय से ही संभव है।
विश्व की प्राचीनतम मानव सभ्यता के युग से आधुनिक सभ्यता, संस्कृति एवं वैज्ञानिक आविष्कारों का मुख्यत: आधार भू-मंडल में स्थित प्रमुख चार अवयव-जल, अग्नि, वायु और मृदा हैं। इन चारों वस्तुओं के विषद ज्ञान को वेद कहते हैं।
वेद चार हैं-ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। इनकी चार अलग-अलग संहिताएं हैं। बिखरे हुए वेद मंत्रो का संकलन करने का कार्य ऋषियों ने संपन्न कर उन्हें संहिताओं में विभाजित किया। भू-मंडल में स्थित चार वस्तुओं में से जल के संबंध में सामवेद में वर्णन किया गया है।सामदेव में जल के इस रूपांतर कार्य तथा गुणों का ज्ञान आदि विश्लेषणात्मक एवं वैज्ञानिक ढंग से सविस्तार उपलब्ध है। ऋग्वेद से अग्नि के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। यजुर्वेद में वायु के विभिन्न प्रकार एवं उनके कार्यों के बारे में ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। इसी प्रकार अथर्ववेद में मृदा के विभिन्न गुणों के संबंध में जानकारी अवगत हो सकती है। इसी कारण जल, अग्नि, वायु और मृदा को क्रमश: ऋग्वेद, सामवेद और अथर्ववेद कहा जाता है। अग्नि, जल, वायु, और मृदा के क्रमशः 21,1000, 101 एवं 9 मुख्य विभाग होते हैं। इन सबका योग 1,131 के बराबर होता है वेदों की भी 1000, 21, 101, 9 ऋचाएं हैं। यजु का अर्थ वायु है और अथर्व का अर्थ मिट्टी है।
प्रत्येक वेद में जल, अग्नि, वायु और मिट्टी पारिभाषिक शब्द हैं और उनसे केवल हमारे इस जल, अग्नि, वायु और मिट्टी का ही तात्पर्य नहीं है, वरन् इन चारों पदार्थों के आदिस्वरूप, प्रकृति की अव्यय अवस्था से लेकर स्थलतम अवस्था तक जितने रूप प्रकारांतर, विभाग इत्यादि बनते हैं, उन सबका जातिवाचक नाम जल, अग्नि, वायु और मिट्टी वेद में निहित हैं। उदाहरणस्वरूप जल से वेद में घृत, मधु, सुरा, जल इत्यादि समस्त जलीय पदार्थों से अभिप्राय है और जल के सूक्ष्म कण जो भाप रूप में आकाश में स्थित हैं, उनको भी वेद जल ही कहकर पुकारता है।
प्राचीन ऋषियों ने प्रकृति की आदि अवस्था से अन्त्य अवस्था तक पूर्णावलोकन कर प्रत्येक देश में उन देशों की प्राकृतिक रचना को देखकर इन शाखाओं का विस्तृत तथा सक्रम प्रचार किया। उदाहरणस्वरूप उत्तर प्रदेश में जल और वायु प्रधान होने से विंध्य पर्वत के ऊपर साम और यजुर्वेद का प्रचार हुआ तथा विंध्य से नीचे दक्षिण देश अग्नि और भूमि प्रधान होने से वहां ऋग्वेद तथा अथर्ववेद का प्रचार एवं प्रसार हुआ। इससे स्पष्ट है कि हमारे ऋषि-मुनियों को संसार का जबरदस्त सूक्ष्म एवं विस्तृत ज्ञान था, तभी तो वे परिस्थिति-अनुकूल वेदों का प्रचार करने में सक्षम सिद्ध हो सके।
जिन वेदों की रचना भारत में हुई, उनकी 1,131 शाखाएं थीं, उनमें से केवल मात्र 6 शाखाएं ही उपलब्ध हैं अर्थात् 1,125 शाखाएं उपलब्ध नहीं है। जर्मन में 103 शाखाएं अवश्य उपलब्ध हैं, जिन्हें जर्मन सरकार ने बहुत ही सुरक्षित ढंग से रखा है, जिनका अध्ययन केवल वहां के शीर्षस्थ वैज्ञानिकों द्वारा किया जा सकता है। वेद का अर्थ निरुक्त से होता है। प्राचीनकाल में 18 निरुक्त प्रचलित थे। अब भारत में केवल एक यास्कीन निरुक्त ही उपलब्ध है। जर्मनी में 3 निरुक्त उपलब्ध हैं।
वेदों का अध्ययन प्राचीनकाल में वेद की आज्ञानुसार (यजुर्वेद अ.26/15) ही पर्वतों के शिखर पर अथवा नदियों के संगम पर किया जाता था। ऋक् और अथर्व का अध्ययन पर्वतों पर होता था, कारण कि पत्थर पर जो प्रभाव पड़ता है, वह भी जाना जा सकता है। इससे अग्नि तथा मिट्टी का ज्ञान विशेष रूप से वहां जाना जा सकता है। साम और यजु का अध्ययन नदियों के संगम पर हुआ करता था, इसका कारण भी स्पष्ट है कि दो नदियों के जल-संगम से विभिन्न गुणों एवं शक्तियों की संभावित संभावनाओं का भी अवलोकन हो सकता है। वायु और जल के संघर्ष से नवीन शक्ति के प्रकट होने की संभावनाएं होती थीं, उसका भी प्रत्यक्ष रूप से अवलोकन सरलता एवं सुगमता से किया जा सकता है। अग्नि और मिट्टी को वैज्ञानिक एकजातीय समझते हैं। ठीक इसी प्रकार जल और वायु भी एकजातीय हैं।
हमारे पूर्वोजों ने अनेक ऐसे आविष्कार किए, जिनका विचारमात्र भी आज के वैज्ञानिक नहीं कर सकते। वेद में 18 प्रकार के वायुयानों का उल्लेख है। हमारे ऋषि सूर्य आदि अन्य मंडलों में जा सकते थे। सामान्य वायुयान अभी तक 21 मील ऊपर तक ही जा सकता है। 9 प्रकार के विद्युत को ऋषिगण जानते थे। यजुर्वेद के वर्णनानुसार, एक ही विद्युत दीप जिसे उत्तरी ध्रुव के नीचे बिंदु सरोवर के ऊपर रखा जाता था, संपूर्ण एशिया में प्रकाश देता था। ऋग्वेद 4 अ. 4 के अनुसार उनका सामाजिक जीवन इतना पवित्र तथा उच्च था कि सदैव उनका उद्देश्य यही रहता था कि सभी देशों में शांति तथा स्वराज्य स्थापित रहे।
यजुर्वेद आख्यान 17/20 में लिखा है कि वैदिक मंत्रों के आधार पर मन द्वारा ही सृष्टि की उत्पत्ति क्रम का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है। आधुनिक काल के वैज्ञानिक सृष्टि की उत्पत्ति के विषय में तथ्यात्मक प्रत्युत्तर देने में असफल हैं कि ईश्वर ने इतने विशाल संसार की रचना कैसे की। जब सृष्टि के आदि में कुछ भी नहीं था तो भला उसका वर्णन कौन कर सकता है? उस काल में न देवता थे और न ही पितृ और न ही मनुष्य, फिन मन और प्राण ही सूक्ष्म अवस्था में उस काल में वहा उपस्थित थे। अतः वेद ने उसी मन की ओर संकेत कर हमें सृष्टि विज्ञान को सही ढंग से जानने व पहचानने का एकमात्र यंत्र है तो मन हीं है? (ऋग्वेद अ. 20 सू. 164 स. 4 के अनुसार)
अपने मन से यदि हम पूछें कि कौन-सा वन है, उस वन में कौन-सा वृक्ष है, उस वृक्ष में कौन-सी डाली है, जिस डाली को काटकर ईश्वर ने इतने बड़े संसार की रचना की है तो इसका उत्तर वृष्ण यजु. अ. में 7 दिया है कि स्वयंभू वन है, वाक् वृक्ष है, मन उसकी डाली है, जिसको काटकर उस एक शक्ति ने इतना बड़ा संसार बनाया है।
ऋग्वेद अ. 2 अ. 20 म. 13 के अनुसार संपूर्ण ब्रह्मांड पांच चक्रों स्वयंभू, परमेष्ठ, सूर्य, पृथ्वी और चंद्र पर आधारित है। प्रत्येक चक्र, सृष्टि, पृथ्वी एवं चंद्र के स्वयंभू मंडल मे विलीन हो जाने से प्रलय होती है। जिन शक्तियों और नियमों के आधार पर पांचों चक्र अपने-अपने भार को धारण करते हैं, उन्हें सनातन धर्म कहते हैं, क्योंकि ये आदि से अंत तक धारण किए रहता है। धर्म वही है, जो प्रकृति के अनुकूल हो और पाप वही है, जो प्रकृति के विरुद्ध हो।
भारतीय संस्कृति ‘अरण्य संस्कृति’ है। वन दार्शनिक एवं रहस्यमय ज्ञान के लिए उपयुक्त स्थल माना गया है, लेकिन आज कि भौतिकवादी संस्कृति ने वनों का विनाश द्रुतगति से किया है, जिससे कालांतर में सूर्य एवं पृथ्वी को अपने भार को वहन करने की क्षमता क्षीण होती प्रतीत हो रही है। सूर्य की बैंगनी किरणें पृथ्वी पर सीधे रूप से पड़ने पर संभावित संतुलन को क्षति पहुंचने की संभावनाएं प्रबल बनती जा रही हैं। अब हमें प्रकृति के प्रतिकूल आचरण से जलवायु परिवर्तन के खतरों से सावधान होकर परिस्थिति के संतुलन की आवश्यकता है।
जिस पृथ्वी से हमारा जन्म से मृत्यु तक का सह संबंध है, उस पर करुणामय वृत्ति नहीं है। जो पेड़ अपने काटने वाले को भी छाया देता है, उसकी भी कुल्हाड़ी से हत्या अर्थात् हम पर्यावरण को असंतुलित करके निश्चय ही असनातनी एवं अवैदिक बनते जा रहे हैं, जिसमें हमारा भविष्य अंधकारमय परिलक्षित हो रहा है। यदि पृथ्वी पर सूर्य की बैंगनी किरणों के आगमन की गति तीव्र हो गई तो पुंडरीकात्मक संसार नहीं रह पाएगा। अतः समय रहते पर्यावरण को संतुलित रखने से ही मानव सुरक्षित रह सकेगा।
सनातन
विद्या वेदों के पुरातन एवं आधुनिक
विद्वानों ने स्पष्ट कहा है कि सृष्टि रचना से लगाकर आज तक वैज्ञानिकों ने
जो-जो खोज की, उनकी वह खोज सदा से वेदों के अनुरुप रही है। अर्थात सृष्टि
में जो हो रहा है वह वेदों के अनुसार है। जैसे हम वेदों के अनन्त विज्ञान
के भंडार से आधुनिक विज्ञान की ओर दृष्टि डालें जो कि आज के आधुनिक काल
में भी प्रचलित है तो पाएंगे कि यजुर्वेद मंत्र 3/6
में कहा कि यह प्रत्यक्ष गति करने वाला
भूगोल आदित्य (सूर्य) रक्षक के चारों ओर गति करता हुआ अपने
उत्पत्ति-निमित जल की भी गति करता हुआ अंतरिक्ष में चारों ओर घूमता है तथा
अपनी कक्षा में भी घूमता है। मंत्र का भाव यह है कि पृथ्वी अग्रि और जल
से उत्पन्न होती है। सूर्य पृथ्वी का पिता है इसलिए पृथ्वी आकर्षण शक्ति
से आकाश में सूर्य के चारों ओर अपनी कक्षा में भ्रमण करती है। पृथ्वी के
भ्रमण का निमित सूर्य है।
सूर्य के चारों और पृथ्वी के भ्रमण से ही दिन-रात, शुक्ल-पक्ष, कृष्ण-पक्ष, 6 ऋतुंए तथा उतरायण एवं दक्षिणायन काल विभाग बनते हैं। यही सब कुछ तो आधुनिक विज्ञान की खोज है जो अनादि काल से वेदों में पहले से ही उपलब्ध है।
शास्त्रीय
वचन है-
"तरवोअपि हि जीवंति जीवंति मृगपक्षिण:, स जीवति मनो यस्य मननेन तृ जीवति||"
अर्थात वृक्ष भी जीते हैं,
मृग-पक्षी भी जीते हैं परंतु वास्तव
में वही पुरुष जीता है जिसका मन वैदिक संस्कृति का मनन चिंतन एवं
आचरण करता है।
भाव
है कि वृक्षों में जीवात्मा है और
वृक्ष योनि उनके पापों का फल है। वृक्ष
सुख-दुख,
गर्मी-सर्दी आदि सब अनुभव करते हैं
परंतु उनका अनुभव कोई देख नहीं सकता। अनुभव दो प्रकार के हैं - एक तो जीवात्मा
वृक्षों अथवा मनुष्यों के शरीर में है। इस चीज का जीवात्मा को ज्ञान होना यह
वैदिक साधना द्वारा पहला अनुभव प्राप्त किया जाता है। दूसरा बुद्धि द्वारा
सुख-दुख हिंसा आदि का अनुभव होना। वृक्षों की बुद्धि सुशुप्त अवस्था वाली
होती है। इसलिए वृक्ष अपनी बुद्धि द्वारा सुख-दुख आदि का अनुभव न के बराबर
करते हैं। जीवात्मा वृदा की जड़ में होती है। जैसे हम अपने बढ़े हुए
नाखून काट देते हैं, हमें इसका दुख दर्द महसूस नहीं होता उसी प्रकार वृक्षों से
फल तोडऩे पर वृक्षों को कोई दुख दर्द आदि कुछ महसूस नहीं होता। यह भगवान
की बनाई हुई व्यवस्था है।
ऋग्वेद
मंत्र 1/32/1-2 में सूर्य द्वारा वर्षा होना सिद्ध है। यही आधुनिक विज्ञान की भी खोज है। ऋग्वेद
मंत्र 8/77/4 में कहा कि सूर्य अपनी किरणों से सरोवर आदि का पानी भाप बनाकर
ऊपर ले जाता है और वर्षा ऋतु में पुन: पृथ्वी पर बरसाता है। सूर्य
बादलों में स्थित पानी को अपनी तीक्ष्ण किरणों द्वारा बरसाता है और नदी-नाले व
समुद्र आदि को पानी से भरपूर कर देता है। ऋग्वेद मंत्र 10/51/58
में जल से बिजली उत्पादन का ज्ञान दिया है जिससे मनुष्य को अनेक लाभ हैं। ऋग्वेद
मंत्र 8/5/8 में ऐसा शीघ्रग्रामी यान बनाने का संकेत है कि जिसमें बैठकर 3 दिन और 3 रात्रि लगातार यात्रा की जा सकती है।
ऋग्वेद
मंत्र 1/28/2 में कहा
कि मनुष्यों को योग्य है कि जैसे दोनों
जांघों की सहायता से मार्ग का चलना-चलाना सिद्ध होता है। वैसे ही एक तो पत्थर की
शिला नीचे रखें और दूसरा ऊपर से पीसने के लिए बट्टा जिसको हाथ में लेकर पदार्थ
पीसे जाएं, इनसे औषधी आदि पदार्थों को पीसकर यथावत भक्ष्य आदि
पदार्थों को सिद्ध करके खावें यह भी दूसरा साधन ओखली मुसल के समान बनाना चाहिए। यह
वैज्ञानिक प्रचलन घर-घर में हैं। ऋग्वेद मंत्र 1/15/1
में कहा समय का विभाग करने वाला सूर्य
बसंत आदि पदार्थों के रस को पीता है।
यजुर्वेद मंत्र 18/24 में एक से लेकर
अनन्त संख्याओं का ज्ञान दिया गया है
जिसमें शून्य का ज्ञान भी है तथा अगले
मंत्र में संख्या 4
का पहाड़ा दिया गया है।
यजुर्वेद
मंत्र 17/2 में एक, दस और 100 आदि अनन्त संख्याओं का ज्ञान देता है जिसमें शून्य
का ज्ञान भी है। इसी प्रकार अथर्ववेद
में चिकित्सा विज्ञान आदि का भरपूर ज्ञान दिया है। सामवेद मंत्र 377
में कहा कि परमेश्वर की असंख्य भूमि
(लोक) एक साथ घूम रहीं है आपस में टकराती नहीं है। भाव यह
कि अंतरिक्ष में ग्रह घूम रहे हैं परंतु आपस में टकराते नहीं है। भाव यह है
कि तिनके से लगाकर ब्रहा तक का संपूर्ण ज्ञान व विज्ञान का भंडार चारों
वेदों में हैं। हमने वेदों का अध्ययन छोड़ दिया इसलिए हम विद्वान नहीं बन पाए।
प्रसिद्ध
वैज्ञानिक फ्रिथ जोफ कोर्पे ने अपनी ताओ ऑन फिजिक्स नामक पुस्तक
(1979) में इसी बात को पूर्ण रुप से स्वीकार
किया है कि वैदिक तत्व ज्ञान बीसवीं सदी के विज्ञान के अनुकूल है। ऋग्वेद में
ज्ञान कांड अर्थात विस्तृत पदार्थ विद्या, यजुर्वेद में कर्मकांड अर्थात शुभ-अशुभ,
कर्तव्य ,
अकर्तव्य कर्मों का संपूर्ण वर्णन,
सामदेव में ईश्वर उपासना तथा अथर्ववेद
में 3
वेदों की सिद्धि सहित औषधित वर्णन आदि
एवं अनेक विषयों का ज्ञान प्राप्त होता है। वस्तुत: चारों वेदों में
थोड़े-थोड़े सभी विषय है। परंतु प्रत्येक वेद ऊपर कहे अपने विशेष विषयों सहित तृण से
लेकर ब्रहा तक का ज्ञान एवं विज्ञान मानव कल्याणार्थ प्रदान करता है।
संसार
के सभी ग्रंथों में भी जो-जो सत्य ज्ञान है वह सब प्रथम
ही वेदों में सुलभ है। परंतु भौतिक एवं आध्यात्मिकवाद सहित वैज्ञानिक
स्तर के ज्ञान की जो-जो जानकारी वेदों में है,
उसकी खोज करना अभी शेष है। जब से पाश्चात्य
विद्वानों ने वेदों का अध्ययन प्रारंभ
किया है तब से भारत व युरोप के आध्यात्मिकवाद एवं विज्ञान आदि विषयों में समानता आई
है एवं वैदिक विद्या की ओर विदेशियों का भी झुकाव एक शुभ लक्षण हैं।
जर्मनी
के विद्वान डा. मैक्समूलर ने चालीस वर्ष तक घोर परिश्रम
करके ऋग्वेद का संस्करण प्रकाशित किया एवं अपनी संपूर्ण आयु इसी
विद्या में लगा कर मानवता की सेवा की है। इस प्रकार विश्व में विदेशी विद्वान,
डा. रोजन,
डा. राय,
डा. वनफी,
डा. वेबर,
डा. अन्फ्रिचटे तथा डा. ग्रासमेन ने
वेद-विद्या के स्वाध्याय द्वारा सत्य को स्वयं समझकर विश्व को
समझाया। विदेशी वैज्ञानिक विद्वान लार्ड मैटरलिक अपनी पुस्तक द ग्रेट सीक्रेट
में कहते हैं कि हमें अपने कानों में ऋग्वेद वाणी सुनने में लगाना चाहिए।
जो कि सनातन परंपरा की अत्याधिक एवं अविनाशी प्रमाणिक वाणी है।
हमें यह ज्ञात होना चाहिए कि यह
वेद वाणी किस तरह गुप्त समस्याओं को भी
सुलझा देती है।
ऋग्वेद
वाणी कहती है कि प्रलय में न जन्म था न मृत्यु थी,
इसलिए वहां न कोई
वायुमंडल अथवा अंतरिक्ष आदि भी नहीं था
अर्थात न तो मनुष्य थे, न ज्ञान
था,
न मोक्ष था। न दिन था न रात्रि थी ।
अत: गहन-गंभीर जल इत्यादि भी नहीं था क्योंकि पानी का प्रयोग करने वाला कोई प्राणी भी
नहीं था। एक जीता जागता तत्व जो वायु, अन्न आदि की अपेक्षा से रहित था,
वह स्वतंत्र रुप से प्रलय
में था और उसे ही सर्वशक्तिमान परमेशवर
कहते हैं। परमेशवर के अतिरिक्त प्रलयावस्था में और कुछ भी नहीं था।
धन्य
है लार्ड मैटरलिक जिसने ईश्वर से उत्पन्न ऋग्वेद वाणी का अध्ययन किया
और अपने विचार संसार के समझ रखे। विज्ञान जगत में आज एंट्रोपी के
नियमानुसार अपेक्षाकृत गर्म पिंडों से ठंडे पिंडों की ओर ताप लगातार प्रवाहित
होता रहता है और इस प्रवाह को उल्टाकर स्वत: विरुद्ध दिशा में प्रवाहित
नहीं किया जा सकता है। जैसे सूर्य से ताप पृथ्वी इत्यादि ग्रहों में आता है।
अत: अवश्य ही कभी संसार की ऐसी स्थिति आएगी जब एंट्रोपी के इस नियम के
परिणाम स्वरुप विश्व की शक्ति सूर्य इत्यादि समाप्त हो जाएगी और गर्म पिंड
तथा ठंडे पिण्ड सब के तापक्रम एक समान हो जाएंगे तब जीवन भी समाप्त हो
जाएगा।
योग-शास्त्र सूत्र 3/52 का
भाव है कि काल का सबसे सूक्ष्म भाग क्षण कहलाता है।
एक क्षण के पश्चात दूसरे क्षण का आना। यह एक रुप क्रम है। व्यास मुनि इस
विषय में कहते हैं कि दिन रात्रि मनुष्यों की बुद्धि द्वारा बने है परंतु
काल तो शून्य है और वर्तमान ही क्षण है। अर्थात जो हम जीवन की गणना, दिन-रात्रि, महीनों, वर्षों
द्वारा करते हैं कि यह सब व्यर्थ है। हम वर्तमान
का क्षण सम्भल-सम्भल कर केवल शुद्ध विचार शुभ कर्मों के लिए ही प्रयोग
में लाएं क्योंकि क्षण ही बलवान है और क्षण ही वर्तमान हैं, किस क्षण, किसके
प्राण निकल जाएं, इसका कोई भरोसा नहीं।
यजुर्वेद
मंत्र 12/79 में इस विषय को इस प्रकार कहा है- हे जीव। तेरा कल
रहे,
न रहे ऐसे शरीर में तेरा निवास है।
ऋग्वेद मंत्र 1/25/8 में कहा कि
मनुष्यों को काल की व्यवस्था को जानकर
एक क्षण भी व्यर्थ में नहीं खोना चाहिए। ऊपर जो कुछ लिखा है कि वह एंट्रोपी नियम से
संबंधित है। योग-शास्त्र सूत्र 4/33 का भाव है क्षण के बाद दूसरा क्षण आता है। इस क्षण के
साथ ही धर्मी (तत्व का) स्वरु भी क्षण-प्रतिक्षण क्षण के साथ
बदल रहा है। अर्थात पदार्थ का स्वरुप क्षण-प्रतिक्षण बदलता रहता है। इस
प्रकार प्रकृति के तीनों गुणों से बने सृष्टि के सूर्य चंद्रमा,
शरीर,
पेड़-पौधे,
पर्वत,
लोहा
आदि सभी पदार्थों में क्षण-प्रतिक्षण
बदलाव आता है। जैसे एक क्षण बीतता है
तब सृष्टि के प्रत्येक छोटे-बड़े
पदार्थों का स्वरुप भी प्रत्येक क्षण के
बाद बदल जाता है। परंतु यह बदलाव की
क्रिया आंखों से दिखाई नहीं देती। जैसे
नवजात शिशु का जन्म होता है तो उसका
शरीर प्रतिक्षण अपने स्वरुप को बदलता
हुआ बढ़ रहा है। लेकिन उसका प्रतिक्षण
बदलता हुआ स्वरुप तो दिखाई नहीं देगा। परंतु महीने,
2 महीने बाद यह महसूस होगा कि नवजात शिशु
का शरीर कुछ बढ़ गया है, इत्यादि।
इसी
प्रकार उस नवजात शिशु को जवानी फिर बुढ़ापा आता है और क्षण-क्षण शरीर में
बदलाव के कारण शरीर के अवयव हृदय आदि काम करना बंद कर देते हैं। यह नियम
संसार के संपूर्ण पदार्थों पर लागू है, इसे ही एंट्रोपी नियम कह सकते हैं जो आज के वैज्ञानिकों की खोज से पहले ही से अनादि काल से वेदों
में चला आ रहा है। इसी नियम के अनुसार संसार की उत्पत्ति के पश्चात समय
व्यतीत होने पर प्रलय आती है। अत: हम वेदों के अनन्त ज्ञान भंडार से जीवन, मृत्यु, संसार की रचना और पदार्थ-विद्या का ज्ञान प्राप्त करने का प्रयत्न
करें, क्योंकि वेद ज्ञान से ही पहले भी समस्त पृथ्वी पर शांति थी और अब
भी हो जाएगी। इसलिए आओ हम वेदों की ओर पुन: लौटे।
वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है सब
सत्य विद्या और जो पदार्थ विद्या से जाने जाते हैं, उन सबका आदिमूल परमेश्वर है। वेदों में विज्ञान के अनेक प्रारूपों में से एक खगोल विद्या है। विश्व इतिहास में सूर्य, पृथ्वी, चन्द्रमा
आदि को लेकर अनेक मतमतांतर में अनेक भ्रांतियां प्रसिद्द हैं जो न केवल
विज्ञान विरूद्ध है अपितु कल्पित भी है जैसे पृथ्वी चपटी है, सूर्य का
पृथ्वी के चारों ओर घूमना, सूरज का कीचड़ में डूब जाना, चाँद के दो टुकड़े होना, पृथ्वी का शेषनाग के सर पर अथवा बैल के सींग पर अटका होना आदि। इन मान्यताओं
की समीक्षा के स्थान पर वेद वर्णित खगोल विद्या को आप देखें।
वेदों
में विश्व को तीन भागों में विभाजित किया गया हैं- पृथ्वी, अंतरिक्ष (आकाश) एवं धयो। आकाश
का सम्बन्ध बादल, विद्युत और वायु से हैं, धुलोक का सम्बन्ध सूर्य, चन्द्रमा,गृह और तारों से हैं।
पृथ्वी
गोल है : ऋग्वेद
1/33/8 में पृथ्वी को आलंकारिक भाषा में गोल बताया गया है।
इस मंत्र में सूर्य पृथ्वी को चारों ओर से अपनी किरणों
द्वारा घेरकर सुख का संपादन (जीवन प्रदान) करने वाला बताया गया है। पृथ्वी
अगर गोल होगी तभी उसे चारों और से सूर्य प्रकाश डाल सकता है।
अब
कुछ लोग यह शंका कर सकते है कि पृथ्वी अगर चतुर्भुज होगी तो भी तो उसे चारों दिशा
से सूर्य प्रकाशित कर सकता है। इस शंका का समाधान यजुर्वेद 23/61-62
मंत्र में वेदों पृथ्वी को अलंकारिक
भाषा में गोल सिद्ध करते है।
यजुर्वेद
23/61 में लिखा है कि इस पृथ्वी का अंत क्या है?
इस भुवन का
मध्य क्या है?
यजुर्वेद 23/62
में इसका उत्तर इस प्रकार से लिखा है
कि यह यज्ञवेदी ही पृथ्वी की अंतिम सीमा है। यह यज्ञ ही
भुवन का मध्य है। अर्थात जहाँ खड़े हो वही पृथ्वी का अंत है तथा यही स्थान भुवन
का मध्य है। किसी भी गोल पदार्थ का प्रत्येक बिंदु (स्थान) ही उसका अंत
होता है और वही उसका मध्य होता है। पृथ्वी और भुवन दोनों गोल हैं।
ऋग्वेद 10/22/14 मंत्र
में भी पृथ्वी को बिना हाथ-पैर वाला कहा गया है।
बिना हाथ पैर का अलंकारिक अर्थ गोल ही बनता है। इसी प्रकार से ऋग्वेद 1/185/2 में
भी अंतरिक्ष और पृथ्वी को बिना पैर वाला कहा गया है।
पृथ्वी
के भ्रमण का प्रमाण : पृथ्वी को गोल सिद्ध करने के पश्चात प्रश्न यह है कि
पृथ्वी स्थिर है अथवा गतिवान है। वेद पृथ्वी को सदा गतिवान मानते है।
ऋग्वेद
1/185/1 मंत्र में प्रश्न-उत्तर शैली में प्रश्न पूछा गया है
कि पृथ्वी और धुलोक में कौन आगे हैं और
कौन पीछे हैं अथवा कौन ऊपर हैं और कौन नीचे हैं? उत्तर में कहा गया कि जैसे दिन के पश्चात रात्रि और
रात्रि के पश्चात दिन आता ही रहता है,
जैसे रथ का चक्र ऊपर नीचे होता रहता है
वैसे ही धु और पृथ्वी एक दूसरे के ऊपर नीचे हो रहे हैं
अर्थात पृथ्वी सदा गतिमान है।
अथर्ववेद
12/1/52 में लिखा है वार्षिक गति से (वर्ष भर) पृथ्वी सूर्य
के चारों ओर चक्र काटकर लौट आती है।
पृथ्वी
आदि गृह सूर्य के आकर्षण से बंधे हुए हैं: ऋग्वेद 10/149/1 मंत्र का देवता सविता है। यहाँ पर ईश्वर द्वारा
पृथ्वी आदि ग्रहों को निराधार आकाश में आकर्षण से बांधना लिखा है।
ऋग्वेद
1/35/2 मंत्र में ईश्वर द्वारा अपनी आकर्षण शक्ति से सूर्य,
पृथ्वी आदि लोकों को धारण करना लिखा
है।
ऋग्वेद
1/35/9 मंत्र में सूर्य को धुलोक और पृथ्वी को अपने आकर्षण
से स्थित रखने वाला बताया गया है।
ऋग्वेद
1/164/13 में सूर्य को एक चक्र के मध्य में आधार रूप में बताया गया है एवं पृथ्वी आदि को उस चक्र के चारों ओर स्थित
बताया गया है। वह चक्र स्वयं घूम रहा है एवं बहुत भार वाला अर्थात
जिसके ऊपर सम्पूर्ण भुवन स्थित है , सनातन अर्थात कभी न टूटने वाला बताया गया है।
चन्द्रमा में प्रकाश का स्रोत्र: ऋग्वेद
1/84/15 में सूर्य द्वारा पृथ्वी और चन्द्रमा को
अपने प्रकाश से प्रकाशित करने वाला बताया गया है।
दिन
और रात कैसे होती हैं: ऋग्वेद
1/35/7 में प्रश्नोत्तर शैली में प्रश्न आया है कि यह सूर्य
रात्रि में किधर चला जाता है तो उत्तर
मिलता है पृथ्वी के पृष्ठ भाग में चला जाता है। दिन और रात्रि के होने का यही कारण है।
ऋग्वेद
10/190/2 में लिखा है ईश्वर सूर्य द्वारा दिन और रात को बनाता
हैं।
अथर्ववेद
10/8/23 में लिखा है नित्य ईश्वर के समान दिन और रात्रि नित्य
उत्पन्न होते हैं।
वेदों
में गूढ़ विज्ञान-सम्बन्धी
सामग्री विस्तृत मात्रा में संचित है। जिसमें से बहुत ही अल्प मात्रा में अब तक
जानकारी हो सकी है, कारण यह है कि वैज्ञानिक सामग्री ऋचाओं में अलंकारिक भाषा
में है जिसका शाब्दिक अर्थ या तो सामान्य सा दिखाई पड़ता है या वर्तमान
सभ्यता के संदर्भ में प्रथम दृष्टितया कुछ तर्क संगत नहीं दिखलाई पड़ता
जबकि उसी पर गहन विचार करनें के पश्चात उसका कुछ अंश जब समझ में आता है तो
बहुत ही आश्चर्य होता है कि वेद की छोटी-छोटी ऋचाओं(सूत्रों) के रूप में कितने गूढ़ एवं कितने उच्च स्तर के
वैज्ञानिक रहस्य छिपे हुए हैं।
कुछ ही समय पूर्व साइन्स रिपोर्टर नामक अंग्रेजी पत्रिका
जो नेशनल इंस्टीच्युट आफ साइन्स कम्युनिकेशन्स ऐन्ड इन्फार्मेशन रिसोर्सेज (NISCAIR)/CSIR, डा०के० यस० कृष्णन मार्ग नई दिल्ली ११००१२ द्वारा
प्रकाशित हुई थी, में
माह मई 2007 के अंक में एक लेख ANTIMATTER The ultimate fuel के नाम के शीर्षक से छपा था। इस लेख के लेखक श्री डी०पी०सिहं एवं सुखमनी कौर ने यह लिखा है कि सर्वाधिक कीमती वस्तु संसार में
हीरा, यूरेनियम, प्लैटिनम, यहाँ तक कि कोई पदार्थ भी नहीं है बल्कि अपदार्थ/या प्रतिपदार्थ अर्थात ANTIMATTER है।
वैज्ञानिकों
ने लम्बे समय तक किये गये अनुसंधानों एवं सिद्धान्तो के आधार यह माना है कि
ब्रह्मांड में पदार्थ के साथ-साथ अपदार्थ या प्रतिपदार्थ भी समान रूप से मौजूद है। इस
सम्बन्ध में वेदों में ऋग्वेद के अन्तर्गत नासदीय सूक्त जो संसार में
वैज्ञानिक चिंतन में उच्चतम श्रेणी का माना जाता की एक ऋचा में लिखा है
किः-
तम आसीत्तमसा गू---हमग्रे----प्रकेतं
सलिलं सर्वमा इदम्।
तुच्छेच्येनाभ्वपिहितं
यदासीत्तपसस्तन्महिनाजायतैकम्।। (ऋग्वेद
१०।१२९।३)
अर्थात्
सृष्टि से पूर्व प्रलयकाल में सम्पूर्ण विश्व मायावी अज्ञान(अन्धकार) से ग्रस्त था, सभी अव्यक्त और सर्वत्र एक ही प्रवाह था, वह चारो ओर से सत्-असत्(MATTER AND ANTIMATTER) से आच्छादित था। वही एक अविनाशी तत्व तपश्चर्या के
प्रभाव से उत्पन्न हुआ। वेद की उक्त ऋचा से यह स्पष्ट हो जाता है कि
ब्रह्मांड के प्रारम्भ में सत् के साथ-साथ असत् भी मौजूद था (सत् का अर्थ है पदार्थ) ।
यह कितने
आश्चर्य का विषय है कि वर्तमान युग में वैज्ञानिकों द्वारा अनुसंधान पर
अनुसंधान करने के पश्चात कई वर्षों में यह अनुमान लगाया गया कि विश्व में
पदार्थ एवं अपदार्थ/प्रतिपदार्थ(Matter
and Antimatter) समान रूप
से उपलब्ध है। जबकि ऋग्वेद में एक छोटी सी ऋचा में यह वैज्ञानिक सूत्र पहले
से ही अंकित है। उक्त लेख में यह भी कहा गया है कि Matter and Antimatter जब पूर्ण
रूप से मिल जाते हैं तो पूर्ण उर्जा में बदल जाते है। वेदों में भी यही
कहा गया है कि सत् और असत् का विलय होने के पश्चात केवल परमात्मा की सत्ता
या चेतना बचती है जिससे कालान्तर में पुनः सृष्टि (ब्रह्मांड) का
निर्माण होता है।
छान्दोग्योपनषद् में भी ब्रह्म एवं सृष्टि के बारे में यह उल्लेख आता है कि आदित्य (केवल वर्तमान अर्थ सूर्य नहीं,बल्कि व्यापक
अर्थ में) ब्रह्म है। उसी की
व्याख्या की जाती है। तत्सदासीत्-वह असत् शब्द
से कहा जाने वाला तत्व, उत्पत्ति से पूर्व
स्तब्ध, स्पन्दनरहित, और असत् के समान था, सत् यानि कार्याभिमुख होकर कुछ प्रवृति पैदा होने से सत्
हो गया। फिर उसमें भी कुछ स्पन्दन
प्राप्तकर वह अकुरित हुआ। वह एक अण्डे में परणित होगया। वह कुछ समय पर्यन्त फूटा; वह अण्डे के दोनों खण्ड रजत एवं सुवर्णरूप हो गये। फिर उससे जो उत्पन्न हुआ
वह यह आदित्य है। उसके उत्पन्न होते हुये ही एक भयानक श्ब्द हुआ तथा उसी से सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग पैदा हुए हैं। इसीसे उसका उदय और अस्त होने पर दीर्घशब्दयुक्त घोष उत्पन्न होते हैं तथा सम्पूर्ण प्राणी और सारे भोग भी उत्पन्न होते हैं।
अथ
यत्तदजायत सोऽसावादित्यस्ततं जायमानं घोषा।
उलूलवोऽनुदतिष्ठन्त्सर्वाणि
च भूतानि सर्वे च॥
कामास्तस्मात्तस्योदयं
प्रति प्रत्या यनं प्रति घोषा।
उलूलवोऽनुत्तिष्ठन्ति सर्वाणि च भूतानि सर्वे च कामाः॥
(छान्दग्योपनिषद् -शाङ्करभाष्यार्थ खण्ड १९ ।।३।।
अधुनिक
वैज्ञानिक भी ब्रह्माण्ड के पैदा होने पर जोर की ध्वनि होना ही मानते है। स्टीफेन हाँकिंग महाविज्ञानी आंइस्टाइन के आपेक्षिकता
सिद्धान्त की व्याख्या करते हुये घोषित करते है कि दिक् और काल (Time
and space) का आरम्भ
महाविस्फोट (Big bang) से हुआ और इसकी परणति ब्लैक होल से होगी।
कणीय भौतिकी में, एंटीमैटर पदार्थ के
एंटीपार्टिकल के सिद्धांत का विस्तार होता है, जहां एंटीमैटर उसी
प्रकार एंटीपार्टिकलों से बना होता है, जिस प्रकार पदार्थ कणों का बना
होता है। उदाहरण के लिये, एक एंटीइलेक्ट्रॉन (एक पॉज़ीट्रॉन, जो एक घनात्मक आवेश
सहित एक इलेक्ट्रॉन होता है) एवं एक एंटीप्रोटोन (ऋणात्मक आवेश सहित एक
प्रोटोन) मिल कर एक एंटीहाईड्रोजन परमाणु ठीक उसी प्रकार बना सकते हैं, जिस प्रकार एक
इलेक्ट्रॉन एवं एक प्रोटोन मिल कर हाईड्रोजन परमाणु
बनाते हैं। साथ ही पदार्थ एवं एंटीमैटर के संगम का परिणाम दोनों
का विनाश (एनिहिलेशन) होता है, ठीक वैसे ही जैसे एंटीपार्टिकल एवं कण
का संगम होता है। जिसके परिणामस्वरूप उच्च-ऊर्जा फोटोन (गामा किरण) या अन्य
पार्टिकल-एंटीपार्टिकल युगल बनते हैं। वैसे विज्ञान कथाओं और साइंस
फिक्शन चलचित्रों में कई बार एंटीमैटर का नाम सुना जाता रहा है।
(तथ्य व कथन गूगल से साभार)
MMSTM समवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।" सनातन पुत्र देवीदास विपुल खोजी
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/
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