आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 25
ओंकार और सतयुग
Bhakt Parv Mittal Hariyana: आप बाबू कोठारी है। पाकिस्तान से है। माँ हिंगलाज भवानी के भक्त। आपका ग्रुप में स्वागत है। आप अध्यात्म के विषय मे इछुक है। कृपया ज्ञानी जन अवश्य मार्गदर्शन करें
92 332 3046814: आप का आभार
जय मां हिंगलाज भवानी
Mjhe Parsnta he k m apno k Group m add hua hoo Mere Sadguru Swami Shivom Tirth ji n Swami Gopalanand Giri Ji Mahraj apni ahettoki anukmpa Banae rakhe
Bhakt Komal: 🙏🙏jai Gurudev
92 332 3046814: यहां संन्यास आश्रम हैं। जहां वेदों का अध्ययन होता हे
हम महायोग साधना से जुड़े हुए हैं। हमारे श्री सदगुरू सुवामी गोपाल गिरी जी महाराज ओर सूवमी शिव ऊं तीर्थ जी महाराज हैं
श्री गूरू मंगल गिरी संन्यास आश्रम ऐवम महायोग साधना केंद्र खैरथल जला अलवर राजस्थान के शिशय हैं
जी सूवमी शिव ऊं तीर्थ जी महाराज के शिष्य है
swami Shivom Tirth se Devas Narain Kooti Ujjain m dekhasht Hua Hoo
Shri GURU MANGAL GIRI SANYAS ASHRAM EVAM MAHAYOG SADHNA KENDER THANA BULA KHAN SINDH PAKISTAN Mein he waha se hum Jurre hue hein
Hb 96 A A Dwivedi: जय हो महाराज जी👏🙏🌹😊सवागत है
+92 332 3046814: I'm Babu Kothari evam Heman Das from Sindh Pakistan, Shishey of Swami Gopalanand Giri Ji Mahraj n Shaktipat Acharya Swami Shivom Tirth ji
Im Shewadhari of Sidhh PEETH Aad Shakti Maa Hinglaj Bhawani LASBELA Balochistan Pakistan
I upload My Shri Guru Dev Pictures
पूज्य गुरुदेव जी के परम पावन चरण कमलों शत शत नमन च कोटिशः वन्दनम...!
भगवन ! वर्तमान समय में कोरोना संक्रमित महामारी से जीव भयाक्रांत हैं .....! समस्त सद्गुरु पद पर प्रतिष्ठित गुरुदेवों की प्रति श्वास प्रश्वास जीवों के लिये कल्याणकारी होती है । सद्गुरु इस भवसागर के तारणहार जहाज हैं । सद्गुरुओं का अंतर्जीवन अति रहस्य लिये हुए होता है, जिसे हम विकारी जीवात्मा कदापि नहीं जान सकते ।
पावन चरणों में प्रार्थना है कि इस विकट समय में आपके परम सानिध्य में जीवकल्याणार्थ एक सामूहिक साधन एक समय , पर किये जाने का विचार आपकी ही प्रेरणा से उद्भूत हुआ है । आप तो तारणहार जहाज हैं, जिनकी लहरों से तरंगित होकर हम सांसारिक तिनके भी बह निकलेंगे ।
प्रभो ! उचित हो और सभी गुरु भाई बहिन सहमत हों तो गुरुदेव मार्गदर्शन करने की कृपा करें ।
🙏🏼🌹चरण वन्दनम मम महादेव🌹🙏🏼
Bhakt Parv Mittal Hariyana: अथ श्रीगुरुगीता...
श्रीनाथ चरण द्वंद्व, यस्यां दिशि विराजते।
तस्यै देशे नमस्कुयरद् भक्त्या प्रतिदिनं प्रिये।।50।।
अर्थ: श्री नाथ का अर्थ भगवान विष्णु होता है, "श्री है शक्ति जिनकी" दूसरा अर्थ होता है गुरुतत्व की समन्वित "गुरुवर्ग" इनके चरण जिस दिशा में स्थित हो (या गुरु का आश्रम जिस दिशा में स्थित हो) उस दिशा में उस देश की दिशा में प्रतिदिन भक्तिपूर्वक प्रणाम करना चाहिये (हे पार्वती, भक्ति और श्रद्धापूर्वक किया गया प्रणाम भावों को पवित्र बनाता है)
व्याख्या: श्री गुरु शक्ति और उसका आधारभूत तत्व "पर शिव" सर्व व्यापक ह। जगत के कण कण में व्याप्त है, सभी दिशाओं में वे (गुरु तत्व) विद्यमान है, अतः किसी दिशा विशेष का प्रश्न ही नही उठता, किंतु यहाँ जो दिशा विशेष का संकेत है, यह प्राथमिक भूमिका वाले शिष्यों के लिये है, उनको वर्तमान गुरु के आश्रम की ओर गुरूपदो का चिन्तन करते हुए प्रणाम करके प्रतिदिन भक्ति पूर्वक अपनी साधना प्रारंभ करना चाहिये। गुरुदेव के एक चरण में परशिव तथा दूसरे चरण में पराशक्ति का निवास है। अतः गुरु चरणों की सेवा से शिव शक्ति दोनों की आराधना का फल मिल जाता है। इस श्लोक में गुरुदेव के निवास स्थान के महत्व का प्रतिपादन हुआ है।
Ba anil ahirwar: संकट मोचन महाबली, श्री हनुमानजी के जनमोत्स्व की आप को एवं आपके परिवार को मेरी और मेरे परिवार और से हार्दिक हार्दिक शुभकामनाएं,,जय जय श्री राम,,
बजरंग बली मेरी नाव चली, मेरी नैया पार लगा देना,
अब तक तो निभाया है तुमने, आगे भी भार निभा लेना।
मै दास तो तेरा जनम से हूँ, बालक और शिष्य भी धर्म से हूँ ,
बेशर्म विमुख निज कर्म से हूँ, चित्त से मेरा दोष भुला देना।
बजरंग बली मेरी नाव चली, मेरी नैया पार लगा देना,
अब तक तो निभाया है तुमने, आगे भी भार उठा लेना।
दुर्बल, गरीब और दीन हूँ मैं, निज कर्म क्रियागत क्षीण हूँ मैं,
बलवीर तेरे अधीन हूँ मैं, मेरी बिगडी को नाथ बना देना ॥
बजरंग बली मेरी नाव चली, मेरी नैया पार लगा देना,
अब तक तो निभाया है तुमने, आगे भी भार उठा लेना।
आवाज पढ़ना हो तो हो लिंक पर जाए 🙏🏻🙏🏻
http://freedhyan.blogspot.com/2018/11/blog-post_85.html?m=0
+91 96726 33273: Sir ji Geeta ko padhna ya sunna... Kya jyada behatar h.. Khud padna ya.. Sunna🙏🙏🙏🌺🌹
Jinse Brahma Vishnu Mahesh Aur UNKI teeno Shaktiyo ki Utpatti hui or Jinki Tridev v STUTI karte hai. Wo kon hai, Un Devi ka NAAM kya hai.
Kripaya margdarshan Karen.
Ba Shetty Hindi: I think better than understanding is to put principles of Geeta in practical use.
🙏🏻🙏🏻
Bhakt Brijesh Singer: जी बिल्कुल 🙏
पर हम किसी चीज का प्रैक्टिकल करे इसके लिए यह जरूरी है कि हम पहले उस चीज को अच्छी तरह से समझ लें। फिर प्रैक्टिकल मे कोई रुकावट नही रहती है l
वर्तमान में कुछ पुस्तकें सिद्ध हो चुकी है जैसे श्रीमद भगवत गीता दुर्गा सप्तशती रामचरितमानस तमाम देवों के चालीसा आदि।आप इनको बिना समझे भी अगर पढ़ते हैं तो एक अवस्था के पश्चात यह आपको स्वयं समझ में आने लगते हैं और अपना प्रभाव दिखाने लगते हैं। महत्वपूर्ण यह है कि आप भगवत गीता पढ़ें समझने का प्रयास यदि करना चाहते हैं तो अवश्य करें लेकिन समझ में आया या नहीं आया यह महत्वपूर्ण नहीं है महत्वपूर्ण यह है कि आप भगवत गीता का पाठ करें।
इस ब्रह्मांड की उत्पत्ति महामाया से हुई है जिनका एक रूप महाकाली है जोकि तमोगुण का प्रतीक है सृष्टि की उत्पत्ति हेतु तमोगुण अति आवश्यक है अन्यथा सृष्टि चक्र नहीं चल सकता।
उस निर्गुण निराकार शक्ति ने सगुण साकार रूप लेकर ब्रह्मा विष्णु महेश की उत्पत्ति की और उनको संसार का निर्माणकर्ता पालनकर्ता और संघारकरता नियुक्त किया।
इसके लिए मोदी जी ने मना किया है अतः ध्यान ना दें।
🙏🙏ॐ नमो नारायण🙏🙏
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♻♻ॐ कार का अर्थ एवं महत्त्व♻♻
ॐ = अ+उ+म+(ँ)
अर्ध तन्मात्रा। ॐ का अ कार स्थूल जगत का आधार है (रजोगुण सहित स्रष्टि की रचना) । उ कार सूक्ष्म जगत का आधार है (सत्व गुण सहित सूक्ष्म रूप से स्रष्टि की पालन कार्य , जीव अंश प्रधान करता है )। म कार कारण जगत का आधार है (तमो गुण सहित संपूर्ण द्रष्य स्रष्टि को लय करता है । अर्ध तन्मात्रा (ँ) जो इन तीनों जगत से प्रभावित नहीं होता बल्कि तीनों जगत जिससे सत्ता-स्फूर्ति लेते हैं यही त्रिगुणात्मक शक्ति है (०) बिंदु (शुन्य ) अर्थात अवर्णनीय ,अपरिमित , अविरल ( दुर्लभ ),अखंड , शाश्वत चित्त( चित्त -ज्ञान), ,शक्ति विशिष्ट शिव का अव्यक्त रूप ,अनिर्वचनीय ( वाचा जिसे ना पकड़ पाए) , ,अगोचर , सिद्धांत शिखा मणि मे इस तत्व के लिए वर्णन आता है ..”अपरप्रत्यम( जो दूसरों को न दिखाया जा सके )शान्तम( शांत रूप ) प्रपंचैर अप्रपंचितम( रूप रस आदि प्रपंचैर गुणों की तरह जिसका वर्णन ना किया जा सके…वह इनसे नहीं जुड़ा है … ) निर्विकलाप्म( कल्पना से परे ..जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकते ) अनानार्थम( अनेकानेक अर्थों से भी हम जिसका अर्थ ना कर सकें ) एततत्वश्च लक्षणं ( यह उस तत्व का लक्षण है)” .यह शिव तत्व ( शून्य तत्व ) बौद्ध दर्शन के शून्य तत्व जैसा नहीं है..यह कर्तुं अकर्तुम अन्यथा कर्तुं समर्थ है …यह पूर्ण का जन्म दाता है …अनंत पूर्नों को समाहित करने वाला है ) यह इच्छा कर सकता है …कामना कर सकता है ..और क्रिया करके त्रिगुणात्मक श्रृष्टि उत्पन्न कर सकता है . है वह ओमकार में जो शुन्य (बिंदु ) है उसी मे यह संसार, इसमें पल्लवित जीवन तथा इसमें रही भावनाएं सभी कुछ के निर्माण का कारण यह पराशिव ही है, जो शून्य है। शून्य से सभी कुछ निर्मित हुआ है- यह वीरशैव तत्त्व है। अल्लम प्रभु कहते हैं कि शून्य का बीज है और शून्य की फसल है। अर्थात् शिव का बीज है और शिव की ही सृष्टि है। सभी जीवों में शिव का अंश है ही। जो कुछ इस सृष्टि में प्रकट है, दृश्यमान है वह उसी के रूप हैं। अंत में सभी कुछ इसी पराशिव यनी शून्य (बिंदु ) में समाहित होता है।इस प्रकार सत्त्वगुण, रजोगुण एवं तमोगुण- इन तीनों गुणों की उत्पत्ति त्रिगुणमयी माया जो मूल प्रकृति या महामाया भी है, से ही होती है। जड़ और चेतन रूप दो पदार्थों की उत्पत्ति तो सीधे परमात्मा जो कर्ता, भर्ता, हर्ता है, से होती है परन्तु इन तीनों गुणों की उत्पत्ति परमात्मा(शुन्य ) के संकल्प से उत्पन्न आदिशक्ति या मूल प्रकृति या महामाया जो एकमात्र परमात्मा (शिव ) की अर्द्धांगिनी रूप है, उसी परमात्मा की अध्यक्षता एवं निर्देशन में सृष्टि की उत्पत्ति, रक्षा व्यवस्था एवं संहार करती व कराती है। उत्पत्तिकर्ता (सृष्टि के) ब्रह्मा जी, सृष्टि के व्यवस्थापक श्री विष्णु जी एवं सृष्टि के संहारक शंकर जी, इन तीनों की उत्पत्ति एवं क्रिया-कलाप इसी आदि-शक्ति के निर्देशन में होता है। इस प्रकार परमात्मा एवं ब्रह्मा, विष्णु, महेश आदि के बीच यह आदि शक्ति दोनों वर्गों के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करती है भगवान कृष्ण गीता में कहते है मयाध्यक्षेण प्रकृतिः सूयते सचराचरम् ।
हेतुनानेन कौन्तेय जगद्विपरिवर्तते ॥
हे अर्जुन ! मुझ अधिष्ठाता के सकाश से अथवा मेरी अध्यक्षता एवं निर्देशन में ये मेरी माया चराचर (जड़-चेतन) सहित सब जगत को रचती है और इस उपर्युक्त कारण से ही यह संसार आवागमन के चक्र में घूमता है।श्वेता•श्वतर उपनिषद् में बहुत ही सुंदर व्याख्या किये है त्रिगुण सहित शक्ति और शिव का
मायां तु प्रकृतिम् विद्यान्मायिनं तु महेश्वरम् ।
तस्यावयवभूतैस्तु व्याप्तं सर्वमिदं जगत् ॥ (श्वेता॰ 4/10)
इस प्रकरण में जो माया के नाम से वर्णन हुआ है वह तो भगवान की शक्तिरूपा प्रकृति है और उस माया नाम से काही जाने वाली शक्तिरूपा प्रकृति का अधिपति (स्वामी) परमब्रह्म परमात्मा महेश्वर है। इस प्रकार इन दोनों को अलग-अलग समझना चाहिए। उस परमेश्वर की शक्तिरूपा प्रकृति के ही अंग कारण-कार्य समुदाय से यह सम्पूर्ण जगत् व्याप्त हो रहा है।
अतः उपर्युक्त प्रकरण से यह स्पष्ट हो रहा है कि परमात्मा की अध्यक्षता एवं निर्देशन में रहते हुये त्रिगुणमयी महामाया ही चराचर (जड़-चेतन) से युक्त संसार को उपर्युक्त तीनों गुणों के माध्यम से ही आवागमन चक्र के रूप में उत्पत्ति, रक्षा-व्यवस्था व संहार करती-कराती है।परब्रह्म सदाशिव (शून्य) के मुखों से सर्वप्रथम यह प्रणव ही प्रकट हुआ –“ॐकारो मन्मुखात् जज्ञे प्रथमं मत्प्रबोधकः”। यह ॐकार स्वयं शिव से उत्पन्न होने कारण शिव ही है। शिव और ॐकार में कोई भेद नहीं है। भगवान शंकर स्वयं अपने दोनों शिष्यों – ब्रह्मा और विष्णु को ‘पञ्चाक्षरी विद्या’ का रहस्य इस प्रकार बतलाते हैं – “हमारे पाँच मुख हैं। पाँचों मुखों में पाँच प्रकार की शक्तियाँ हैं – सृष्टि, स्थिति, संहार, तिरोभाव और अनुग्रह्। पाँच मुखों से ही पञ्च-तत्व (पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश) उत्पन्न हुए। इन पाँच तत्वों में भी पाँच शक्तियाँ निहित हैं। पाँच मुखों से क्रम से अकार, उकार, मकार, नाद और बिन्दु उत्पन्न हुए और सब संयुक्त होकर बना – ‘ॐ’। यह ॐकार ही ‘नमः शिवाय’ रूप में प्रकट हुआ। अकार से ‘न’ उकार से ‘मः’, मकार से ‘शि’ नाद से ‘वा’ और बिन्दु से ‘य’ प्रकट हुआ है। ‘नमः शिवाय’ में भी पाँचों शक्तियाँ सन्निहित हैं।
अस्मात् पंचाक्षरं जज्ञे बोधकं सकलस्य तत्।
अकारादि क्रमेणैव नकारादि यथा क्रमम्॥
इस पंचाक्षरी मंत्र से ही सम्पूर्ण वेद प्रकट हुआ और स्वयं को भी वेद में प्रकट कर दिया इस ‘पञ्चाक्षरी विद्या’ ने। इस पञ्चाक्षरी जप से ही सारी सिद्धियाँ और ज्ञान उपलब्ध हो जाता है। शिव वचन है – “पञ्चाक्षरी जपेनैव सर्वसिद्धिं लभेन्नरः”। ॐकार युक्त पञ्चाक्षरी जप में भी कोई हानि नहीं है। भगवान शंकर के अनन्त नाम और अनन्त मंत्र हैं पर शुद्ध स्वरूप को दर्शाने में ‘नमः शिवाय’ जैसा सक्षम अन्य कोई नहीं है। आचार्य पुष्पदन्त भी अपने जगत्प्रसिद्ध स्तोत्र में कहते हैं – हे परमेश्वर शंकर! आप ही जगत की सृष्टि के लिये रजोगुणी मूर्ति धारण करके ‘भव’ कहलाते हैं। आप ही संहरण लीला के लिये तमोगुण मूर्ति होकर ‘हर’ कहलाते हैं। और आप ही सारे प्राणियों को आनन्द देने के लिये व उनका भरण-पोषण करने के लिये सत्वप्रधान मूर्ति ‘मृड’ बन जाते हैं। आपको मेरा बार-बार प्रणाम है। तीनों गुणों से शून्य, माया रहित, शुद्ध, परम तेजोमय ‘शिव’ (शुन्य ) हो आप को बार बार प्रणाम स्वंभू बिंदु की उत्पत्ति वह बिंदु मचलने लगा। फिर उसके अंदर भयानक परिवर्तन आने लगे। इस बिंदु के अंदर ही होने लगे ॐ नाद । इस नाद और बिंदु के मिलन से ब्रह्मांड की उत्पत्ति हुई..........हरि ॐ
🌺नाद अर्थात ध्वनि और बिंदु अर्थात प्रकाश। इसे अनाहत या अनहद की ध्वनि कहते हैं जो आज भी सतत जारी है इसी ध्वनि ॐ के रूप में व्यक्त किया है। ब्रह्म प्रकाश स्वयं प्रकाशित है। परमेश्वर का प्रकाश........हरि ॐ
🌿सृष्टि के आदिकाल में न सत् था न असत्, न वायु थी न आकाश, न मृत्यु थी न अमरता, न रात थी न दिन, उस समय केवल वही था जो वायुरहित स्थिति में भी अपनी शक्ति से साँस ले रहा था। उसके अतिरिक्त कुछ भी नहीं था........हरि ॐ
♻शिव जगत और जीव – यह तीन तत्व हैं। ब्रह्म शब्द ब्रह् धातु से बना है, जिसका अर्थ ‘बढ़ना’ या ‘फूट पड़ना’ होता है। ब्रह्म वह है, जिसमें से सम्पूर्ण सृष्टि और आत्माओं की उत्पत्ति हुई है, या जिसमें से ये फूट पड़े हैं। विश्व की उत्पत्ति, स्थिति और विनाश का कारण शिव है..........हरि ॐ
🍁जिस तरह मकड़ी स्वयं, स्वयं में से जाले को बुनती है, उसी प्रकार ब्रह्म भी स्वयं में से स्वयं ही विश्व का निर्माण करता है। ऐसा भी कह सकते हैं कि नृत्यकार और नृत्य में कोई फर्क नहीं। जब तक नृत्यकार का नृत्य चलेगा, तभी तक नृत्य का अस्तित्व है, इसीलिए ईश्वर के होने की कल्पना अर्धनारीश्वर के रूप में की नटराज है। जिस ओमकार में सारा स्रष्टि और जीव और ब्रह्म समावित है जभ हम ॐ कार के एक एक अक्षर तत्व दर्शाता है बिंदु से लेके म कार तक जीव ,जगत और शक्ति सहित शिव का तत्व का ज्ञान हो जाता है प्रथम हम ॐ कार की जहासे प्रारंभ हुवा है वाहसे यनी शून्य से तत्व चिंतन करे जो शून्य है उसे बिंदु भी कहा जाताहै और वीरशैव दर्शन में य तत्व शिव लिंग है लिंग शब्द का अर्थ होता है “ली ” “अनुस्वार ” और “ग ” इस प्रकार तिन अक्षर का य लिंग प्रति अक्षर का एक एक अर्थ है . “ली” का अर्थ लीयते लय जगत जिस में लय होता है “अनुस्वार ” का अर्थ है जगत का स्थित और “ग ” अर्थ गम्यते यानि जगत का उत्पति चन्द्रज्ञान अगम में इस लिंग का बहुत ही सुंदर वर्णन हुवा है “जठरे लीयते सर्वं जगत स्थावरजंगमम | पुन्रुत्पद्यते यस्माद तद्ब्रह्म लिंगसंज्ञकम || भावार्थ जिस के जठर में सर्व चराचरात्मक जगत (स्रष्टि के पूर्व ) लीन रहता है और जिसे जगत उत्पति होता है उसीको लिंग कहा जाता है इसी भाव का प्रमाण छान्दोग्योपनिषद् में कहा गया है “सर्वं खल्विदं ब्रह्म तज्जलान इति शांत उपासीत || अर्थार्त य ( सभ ब्रह्म है इसी के कारण से जगत का ” ज ” जायते -उत्पति “ल ” लीयते – लीन और “अन” अनति -जीवत (सास लेरहा है ) य अर्थ से उसे “जलान” के स्वरूप में शांत से उपासना किया जाय ) ऐसे उपनिषद् का वर्णन है प्रभु शिव लिंग बिन्दुनादात्मक है ओमकार प्रणव उसका (मंच) अधर अर्थात पीठिका है उस के ऊपर नाद ही लिंग आकार (बिंदु ) रूप धारण किया है इसतरह बिंदु-नादात्मक लिंग में सर्वदा शिव (ब्रह्म ) स्थिर (वास ) है सुक्ष्मागम में य कहा गया है ” लकारो लय बुद्धिस्थो बिंदुना स्थितिरुच्यते | गकारात स्रष्टिरित्युक्ता लिंगम स्रष्टि आधीकारणं || स्रष्टि स्थिति लय का जो कारण है उसे ही लिंग कहा जाता है जगत स्रष्टि का संबंध में बिंदु उपादान कारण है बिंदु शक्ति है नाद शिव है बिन्दुनादात्मक ही शिव लिंग है इसका बोहत ही सुंदर वर्णन चंद्र ज्ञानगम में कहा गया है ” बिंदु नादात्मकं सर्वं जगत स्थावर जंगमं | बिंदु शक्तिः शिवो नादः शिव शक्त्यात्मकं जगत || संपूर्ण चराचर सहित य सारा जगत बिदु नादात्मक है य हां पर बिंदु शक्ति है और नाद शिव है इस तरह जगत शिव और शक्ति से समावित हैॐ कार में अबतक हम बिंदु और नाद की विवेचन किये अभ ओमकार का र कार यानि जो शक्ति का चिंतन करे ‘ॐकार’ अनुभूति-जन्य है, जिसे अक्षरों के गायन से अनुभव किया जाता है। यह अक्षरब्रह्म की ही व्याख्या है। सृष्टी के निर्माण के हेतु शिव ने अपनी शक्ति को स्वयं से पृथक किया| शक्ति शिव की अभिभाज्य अंग हैं। शिव नर के द्योतक हैं तो शक्ति नारी की। वे एक दुसरे के पुरक हैं। शिव के बिना शक्ति का अथवा शक्ति के बिना शिव का कोई अस्तित्व ही नहीं है। शिव अकर्ता हैं। वो संकल्प मात्र करते हैं; शक्ति संकल्प सिद्धी करती हैं शक्ति वशिष्ट शिव के सभी स्वरूपों में विलयकर्ता स्वरूप सर्वाधिक चर्चित, विस्मयकारी तथा भ्रामक है। सृष्टी का संतुलन बनाए रखने के लिए सृजन एवं सुपालन के साथ विलय भी अतिआवश्यक है| अतः ब्रह्मा (रजो गुण ॐ कार में अकार ) एवं विष्णु (सत्व गुण ॐ कार में उकार ) के पुरक के रूप में शक्ति वशिष्ट शिव ने रूद्र रूप में (तमो गुण ॐ कार में मकार ) विलयकर्ता अथवा संहारक की भुमिका का चयन किया| पर यह समझना अतिआवश्यक है कि शिव शक्ति का यह स्वरूप भी काफी व्यापक है| शिव विलयकर्ता हैं पर मृत्यूदेव नहीं | मृत्यू के देवता तो यम हैं| शिव(शक्ति ) के विलयकर्ता रूप के दो अर्थ हैं|
विनाशक के रूप में शिव शक्ति )वास्तव में भय,अज्ञान, काम, क्रोध, लोभ, हिंसा तथा अनाचार जैसे बुराईयों का विनाश करते हैं। नकारात्मक गुणों का विनाश सच्चे अर्थों में सकारात्मक गुणों का सुपालन ही होता है। इस प्रकार शिव(शक्ति ) सुपालक हो विष्णु के पुरक हो जाते हैं। शिव का तीसरा नेत्र जो कि प्रलय का पर्याय माना जाता है वास्त्व में ज्ञान का प्रतीक है जो की प्रत्यक्ष के पार देख सकता है। शिव का नटराज स्वरूप इन तर्कों की पुष्टी करता है।
दुसरे अर्थों में सृजन, सुपालन एवं संहार एक चक्र है और किसी चक्र का आरंभ या अंत नहीं होता| अतः संहार एक दृष्टी से सृजन का प्रथम चरण है| लोहे को पिघलाने से उसका आकार नष्ट हो जाता है पर नष्ट होने के बाद ही उससे नय सृजन हो सकते हैं| तो लोहे के मुल स्वरूप का नष्ट होना नव निर्माण का प्रथम चरण है| उसी प्रकार संहार सृजन का प्रथम चरण है| इस दृष्टी से शिव ब्रह्मा के पुरक होते हैं| ओमकार दर्शन में दिखाई पड़ने वाले त्रिगुण राज तम सत्व का समाधान त्रिगुणात्मक प्रकृति की सर्वकारण रूप में प्रतिष्ठा करके बड़े सुंदर ढंग से किया। शिवाचार्यों के इस प्रकृति-कारण-वाद का महान् गुण यह है कि पृथक्-पृथक् धर्म वाले सत्वों, रजस् तथा तमस् तत्वों के आधार पर जगत् के वैषम्य का किया गया समाधान बड़ा न्याययुक्त तथा बुद्धिगम्य प्रतीत होता प्रकृति सत्व, रजस एवं तमस् – इन तीनों गुणों की साम्यावस्था का नाम है। ये गुण “बल च गुणवृत्तम्” न्याय के अनुसार प्रति क्षण परिगामी हैं। इस प्रकार शिवाचार्यों के अनुसार सारा विश्व त्रिगुणात्मक प्रकृति का वास्तविक परिणाम है। शंकराचार्य के वेदांत की भाँति भगवन्माय: का विवर्त, अर्थात् असत् कार्य अथवा मिथ्या विलास नहीं है। इस प्रकार प्रकृति (शक्ति ) को पुरुष (शिव) की ही भाँति अज और नित्य मानने तथा विश्व को प्रकृति का वास्तविक परिणाम सत् कार्य मानने के कारण वीरशैव सच्चे अर्थों में बाह्यथार्थवादी या वस्तुवादी दर्शन हैं।
इसके अनुसार प्रकृति से महत् या बुद्धि, उससे अहंकार, तामस, अहंकार से पंच-तन्मात्र (शब्द, स्पर्श, रूप, रस तथा गंध) एवं सात्विक अहंकार से ग्यारह इंद्रिय (पंच ज्ञानेंद्रिय, पंच कर्मेंद्रिय तथा उभयात्मक मन) और अंत में पंच तन्मात्रों से क्रमश: आकाश, वायु, तेजस्, जल तथा पृथ्वी नामक पंच महाभूत, इस प्रकार तेईस तत्व क्रमश: उत्पन्न होते हैं। इस प्रकार मुख्यामुख्य भेद से वीरशैव दर्शन 25 तत्व मानता है........हरि ॐ
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वायरस संक्रमण का सबसे बड़ा स्रोत होते हैं आपकी जेब में पड़े हुए कागज के नोट। मेरे पास भी कुछ लोग आए तो मैंने उनको अभी हैंड वॉश वाले साबुन से धोकर सुखा रहा हूं।
Bhakt Jagat Bhatt Bhav Nagar: "भावो हि विद्यते देवः तस्मात् भावो हि कारणम् ।"
ॐअसतो मा सद् गमय ।
तमसो मा ज्योतिर्गमय ।
मृत्योर्मा अमृतं गमय ।
"विश्वानि देव सवितर्दुरितानि परासुव ।यद् भद्रम् तन्न आसुव ।।जय गुरुदेव
Bhakt Lokeshanand Swami: ॥ सीता स्वयंवर ॥
यह सीता स्वयंवर है, स्वयं-वर, सीताजी स्वयं वरण करती हैं, चुनाव करती हैं। भक्ति पर यूंही कोई अधिकार नहीं जमा सकता। भक्ति की प्राप्ति उसी को संभव है, जो सीताजी की शर्त पूरी कर दे।
शर्त पूरी जिसने की, उसे ही भक्ति मिली, उसे ही भगवान मिले, वह रामजी को जानकर "जानत तुमहिं तुमहि हो जाय" स्वयं राम ही हो गया। वहाँ बूंद सागर में मिल कर सागर ही हो जाती है। तब जीव भाव रहता ही नहीं, ब्रह्म भाव उपलब्ध हो जाता है।
रावण जैसे, जो बिना शर्त पूरी किए जबरन भक्ति पर एकाधिकार जमाना चाहते हैं, उनका सर्वनाश होता है।
सीताजी की शर्त क्या है? सबसे पहले विश्वामित्रजी के पीछे चलें, माने विश्वास करके संत का संग करें, अनुसरण करें।
फिर तर्क रूपी ताड़का को मार दें, मूढ़ स्वभाव रूपी सुबाहु को विचार की अग्नि से जला डालें, और भ्रम रूपी मारीच को दूर भगा दें, माने यह जो दुखरूप जगत में सुख का भ्रम हो रहा है, यह न रहे।
तब पत्थर हुई अहिल्या, माने जड़ हुई बुद्धि को, रामजी की चरण धूलि से, माने रामनाम जप से, चैतन्य कर ले, माने दृष्टि को जड़ जगत से हटा कर, भगवान पर लगा लें।
बस अंत में, अब तक यह जो भी किया गया, इस करने का जो कर्तृत्वाभिमान है, उसे भगवान के चरणों में समर्पित कर दें।
यह कर्तृत्वाभिमान ही धनुष का स्वरूप है। इस का भगवान के हाथों टूट जाना ही भक्ति की प्राप्ति का अंतिम सोपान है।
प्रस्तुत प्रसंग में जो धनुष है, वह आत्मज्ञानी महापुरुष रूपी शंकर जी का, काम क्रोध लोभ रूपी त्रिपुरासुर का वध करने का कर्तृत्व भाव है, जो भगवान के हाथों टूटने की प्रतीक्षा कर रहा है।
और स्पष्टता निम्न विडियो से संभव है-
https://youtu.be/7MLQoiVYsU0
और
https://youtu.be/846txIiue0s
Hb 87 lokesh k verma bel banglore
*अश्रुं रक्तं श्रमं खेदं देहि राष्ट्राभिवृध्दये ।*
*ऐकैकं श्रेयसे भूयात् किमु यत्र चतुष्टयम् ॥*
अश्रु, रक्त, परिश्रम, और दु:ख राष्ट्र की वृद्धि करते है| एक एक कार्य ही पर्याप्त है लेकिन यदि चारों ही कार्य कर रहे हैं तो और क्या चाहिये ?
One must do any of the following four
SHED TEARS for the nation,
GIVE BLOOD for the nation,
WORK HARD for the nation,
&
FEEL PAIN when nation is in pain...
If one can do all the four , nothing more needed.
*शुभोदयम! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*
Hb 96 A A Dwivedi: प्यारी आत्माओं🙏🙏
जगत जो कुछ भी दिखाई दे रहा है वो पहले हमारे चित्त में संस्कार के रूप में स्थापित होता है और फिर दृढ़ता से सथुल रुप दिखाई देता है।।
जितना भी योग हैं सबमें मन का संयमित होना कहा गया है और जो कुछ भी संसार में दिखाई दे रहा है वो सब मृत्यु के समय वापिस हदय में लीन हो जाता है और शरीर मिलने पर फिर से सथुल रुप दिखाई देता है।।
जगत मिथ्या है और हम जब इसका विचार अभ्यास करते हैं तो मन से ही मन नष्ट होने लगता है और वैराग्य दृढ़ होता है।।
शरीर के सारे हिस्से चाहे कोई भी हो सब नश्वर पदार्थ से बना है और वापिस उसमें मिल रहा है और अज्ञान के कारण हम शरीर में मौजूद उस चैतन्य आत्मा को भुलाकर नश्वर शरीर के भोगों के कारण सुख दुख इत्यादि पा रहे हैं ।।
विचारों पर लगातार नजर रखने पर हमारे विचार शुद्ध विचारों में परिवर्तित करने लगते हैं और जब न कुछ पाने का न कुछ खोने का संकल्प विकल्प समाप्त हो जाता है तो हम उस चैतन्य आत्मा को जानने लगते हैं।।
चैतन्य अविनाशी निराकार निर्विकार आतमरुप हि हमारा परिचय है और कोई भी दुसरा परिचय नहीं है।।
गुरु के चरणों में बैठकर लगातार प्राणायाम और ध्यान से प्राणों की गति बहुत ही सुक्ष्श्रम हो जाती है और प्राणो का निस्तारण करने से मन समाप्त होने लगता है और दृष्टा भाव आने लगता है।। विचारों और ध्यान दोनों के अभ्यास से तीव्र गति होती है और वास्तविक स्वरूप अद्वैत दर्शन होता है ।।
जय गुरुदेव👏🌹😊🙏
Bhakt Parv Mittal Hariyana: अथ श्रीगुरुगीता...
तस्यै दिशे सततमन्ज्लिरेष आर्ये
प्रक्षिप्यते मुखरितो मधुपैर्बुधैइश्च।
जागर्ति यत्र भगवान गुरु चक्रवर्ती
विश्वोदय प्रलय नाटक नित्य साक्षी।।51।।
अर्थ: जहाँ भगवान गुरु चक्रवर्ती जागते हुए, विश्व के उदय, प्रलय रूपी नाटक के नित्य साक्षी है, उस दिशा में सारग्राही विद्वत-जन प्रसन्नता पूर्वक प्रणामाजंलि समर्पित करते है।
व्याख्या: इस श्लोक में गुरुदेव को भगवान और चक्रवर्ती इन दो विशेषणों से सम्बोधित किया गया है।
भगवान का अर्थ होता है, सम्पूर्ण ऐश्वर्य, सम्पूर्ण धर्म, सम्पूर्ण यश, सम्पूर्ण श्री, सम्पूर्ण वैराग्य, सम्पूर्ण ज्ञान, इन छः विभूतियों को "भग" कहा जाता है, इन छः विभूति सम्पन्न को भगवान कहते है। गुरु तत्व भी इन छ: विभूतियों से सम्पन्न है।
अखण्ड साम्राज्य के अधिनायक को चक्रवर्ती कहते है। यहाँ चक्रवर्ती से सर्व व्यापक सत्ता को ग्रहण करना चाहिये।
इसी श्लोक के चतुर्थ पंक्ति में गुरु तत्व को विश्व के प्रलय, उदय रूपी नाटक का साक्षी कहा गया है।
गुरु शक्ति चैतन्य रूप से सर्वत्र विधमान है यदि हम यह कहे कि सारा दृश्य जगत ही गुरु शक्ति की परिणति मात्र है, तो अतिशयोक्ति नही है। अनन्त सृष्टि निर्माण करने की शक्ति है "गुरु तत्व" में। जिस प्रकार हम नाटक देखते है, उसी प्रकार गुरु शक्ति इस विश्व के उदय और प्रलय की द्रष्टा है अतः एवं साक्षी भी है। जगत में वेद मंत्रों का उच्चारण हो, अथवा खून की नदियां बहे, उस शक्ति के दृष्टा भाव मे अंतर नही आता। अतः विद्वत वर्ग द्वारा उसी शक्ति का अभिनन्दन किया जाता है और उसे ही प्रणमाजंलि अर्पित करते है।
क्या यही सतयुग है"*
1- ना Sunday बीतने की चिंता*
2- ना Monday आने का डर*
3- ना पैसे कमाने का मोह*
4-ना खर्च करने की ख्वाइश्*
5-ना होटल मे खाने की इच्छा*
6-ना घुमने जाने की खुशी*
7-ना सोना-चांदी का मोह
8-ना पैसे का मोह
9-ना नए कपड़े पहनने की एक्साइटमेन्ट
10-ना अच्छे से तैयार होने की चिंता
*क्या हम मोक्ष के द्वार पर पहुंच गए है??????*
*🤔लगता है कलयुग समाप्त हो गया और सतयुग आ गया है।*
11- पूजा-पाठ,परिवार का साथ,उपवास,रामायण, महाभारत।
12-प्रदूषण रहित वातावरण।
13-भाग दौड़ भरी जिंदगी समाप्त।
14-सादगी भरा सबका जीवन
15-सब दाल-रोटी खा रहे हैं।
16-समानता आ गयी है,
17-कोई नौकर नहीं,घर में सब मिल जुलकर काम कर लेते हैं।
18- ना कोई महँगे कपड़े पहन रहा है ।
19- ना कोई आभूषण धारण कर रहा है।
20-सब 24 घण्टे ईश्वर को ही याद कर रहे हैं।
21-लोग अपार दान धर्म भी कर रहे हैं।
22-अहंकार भी शान्त हो गया है।
23-लोग परस्पर सहयोग कर रहे हैं।
24-सभी बच्चे बाहर से अपने घर आकर माँ बाप के पास रहने लगे हैं।
25- घर घर भजन कीर्तन हो रहे हैं।
*ये सतयुग नहीं तो और क्या है ?*🙏🏼🌷🇮🇳
Hb 96 A A Dwivedi: प्यारी आत्माओं👏👏
हमारे सनातन धर्म में वो खजाना छिपा है जिसे जानकर विज्ञान और वैज्ञानिक दोनों ही सबकुछ छोड़कर उसकी शरण में शरणागत हो जाये लेकिन उसे पाने के लिए जो विधि है उसके बगैर मरुस्थल में जल कि कल्पना जैसे ही है।।
डाक्टर पुरा जीवन शरीर को ठीक करने में लगा देता है और साधारण मनुष्य फिल्म स्टार सब लोग पुरा जीवन शरीर को पालने संवारने में जुटे हुए हैं और हाथ कुछ भी नहीं आता है न उम्र रुकती है और न शरीर का ढलना।।
ऋषियो ने साबित कर दिया है कि जब चाहे शरीर के भीतर प्राणों का संयम से उम्र बढ़ाने और कायाकल्प कर सकते हैं लेकिन उन्होंने इसे तुच्छ वस्तु समझा।।
शरीर तुच्छ जानकर जो साधक आगे बढ़ते हैं उनके सामने प्रर्कति हाथ जोड़कर खडि है और इसके लिए तपोबल इकठ्ठा करने की जरूरत होती है और वो तपोबल से शरीर में ही मौजूद जड़ चेतन ग्रनथी को अलग कर देते हैं और साफ दिखाई देता है कि हम चैतन्य आत्मा है और शरीर का कोई भी सुख दुख राग दैष हमें छु नहीं सकता है और इसलिए जिसे ग्रनथी तोड़ने की विधि मालूम है वो ही गुरु है।।
चाहे जो भी अभ्यास हो कोई भी साधना करते हो सब में तपोबल इकठ्ठा करने का कार्य किया जाता है और तपोबल इकठ्ठा करने के बाद जैसे चाहे वैसे शरीर से काम कर सकते हैं।।
शरीर के कारण इस जन्म मृत्यु के चक्र में स्थित होने से हम लोग अपने वास्तविक स्वरूप को भुला बैठे हैं।।
जड चेतन ग्रनथी को तोड़ने के लिए जुट जाइए और भगवती कुणडलीनि इसका श्रेष्ठ मार्ग है और इस मार्ग पर चलने वाले साधक को समय लग सकता है लेकिन वो ग्रनथी को तोडे बगैर रुकते नहीं है।।
शरीर से जुड़े होने के समान कोई भी दुसरा दुख नहीं है और यह सबसे बड़ा शत्रु है और इस शत्रु को काबू में करने के लिए भगवती की आराधना करें।।
जय गुरुदेव😊🌹🙏👏
+91 99834 33388: भाई कितने सारे साधकों को भी डायबिटीज, BP, साइटिका जैसी कई बीमारियां हैं। ऐसा क्यों .. ?
Bhakt Lokeshanand Swami: जनकपुर में देश देश के राजा लोग एकत्रित हुए हैं। वे राजा बेशक हैं, पर भीतर से हम जैसे ही हैं। कैसे?
ध्यान दें, बुद्धि के तीन भेद हैं,
सुमति, कुमति और निर्मल मति।
"सुमति कुमति सबके उर रहहिं"
सामान्य मनुष्य में सुमति और कुमति रहती ही हैं। कभी सुमति कुमति को दबा रखती है, तो कभी कुमति सुमति को।
ये दोनों प्रकृति के अंतराल में कार्य करती हैं, पर निर्मल मति तो प्रकृति पार है, और उनकी कृपा से मिलती है जो स्वयं प्रकृति पार हैं, सीताजी की कृपा से मिलती है। और यह निर्मल मति मिल जाए तो इसी से फिर रामजी मिलते हैं।
"निर्मल मन जन सो मोहि पावा"
जगत में कुमति वाले तो बहुत हैं ही, ऐसे भी बहुत हैं जिनमें सुमति मालूम पड़ती है। पर कोई लाख सुमतिवान हो, हलकी सी चोट पड़ते ही, कुमति उभर आती है। ये दुनिया के चिकने चुपड़े चेहरे, ऊपर से देखने भर को ही शांत सौम्य मालूम पड़ते हैं, भीतर तो ये मनुष्य रूप में चलते फिरते ज्वालामुखी हैं। जरा सी खरोंच पड़ी की फूट पड़ेंगे।
आप देखते नहीं, कैसे छोटी छोटी बातों पर, हंसते खेलते परिवार, टूट टूट कर बरबाद हो रहे हैं। मानो इनके प्रत्येक रक्त कण में अहंकार और क्रोध भरा है, जरा सा धैर्य तक किसी को नहीं, कारण क्या है?
देखें, जब तक प्रकृति का बंधन है, तभी तक अहंकार की सत्ता है, मैं और मेरा है, राग और द्वेष है, कष्ट और क्लेश है, जन्म और मरण का चक्कर है, तब तक विश्राम कहाँ? आनन्द कहाँ? चैन कहाँ?
विश्राम तो प्रकृति पार की वस्तु है, परमात्मा प्राप्ति का फल है। वह तो निर्मल मति से ही प्राप्त होता है। यदि सीताजी की कृपा, भक्ति देवी की अनुकंपा हो जाए, तो हमें भी निर्मल मति मिल जाए, विश्राम मिल जाए। तो कह दें-
"जनकसुता जगजननी जानकी।
अतिशय प्रिय करुणानिधान की॥
ताके जुगपद कमल मनावऊँ।
जासु कृपा निर्मल मति पावऊँ॥"
आज इतना ही, शेष कल।
अब विडियो देखें- शर्म की बात
https://youtu.be/SiPEA9TxwbU
Hb 96 A A Dwivedi: पाप का भोगमान तो करना ही होगा।।
साधकों के कष्ट दुर नहीं होते हैं उनका प्रभाव कम हो जाता है और भोगते हुए कष्ट कम होता है लेकिन भोगे बगैर प्रारबध समाप्त नहीं होते हैं।।
शरीर मिलते ही उसके नष्ट होने का समय तय हो जाता है चाहे जो भी युकति करलो और वो नष्ट होने के लिए बीमारियों का शिकार होता है।।
बगैर आंख से दिखाई देने वाले विकाणु ने संसार की गति रोक दी है और मनुष्य समझता है कि कोई भी शक्ति नहीं है जो संसार का संचालन कर रही है।।
मनुष्य का शरीर मिलता हि है योग के लिए और कोई दुसरा कारण नहीं है।।
भोग के लिए जानवरों की योनि मिलती है जानवर भोगते हैं लेकिन उनके भीतर वासना नहीं होती है और इस वासना के कारण ही बार बार इन बीमारियो का सामना करना पड़ता है
😊🌹🙏👏जय गुरुदेव
Bhakt Lokeshanand Swami: एक बार रात के समय, एक शेर, जंगल से एक गाँव में आ गया। वह एक झोपड़ी के बाहर, दीवार के साथ जा बैठा।
उस समय उस झोपड़ी में, एक चार वर्ष का बच्चा जोर जोर से रो रहा था। उसकी माँ उसे चुप कराने का प्रयास कर रही थी।
माँ ने बच्चे से कहा- बेटा चुप हो जा, नहीं तो शेर आ जाएगा।
पर बच्चा चुप नहीं हुआ। उस बाहर बैठे शेर ने सोचा कि ये बच्चा बड़ा ढीठ है, जो मुझ से भी नहीं डरता।
फिर माँ ने कहा- बेटा चुप हो जा, मैं किशमिश लाती हूँ।
बच्चा तुरंत चुप हो गया। उस शेर ने विचार किया कि लगता है यह किशमिश कोई मुझसे भी खतरनाक जीव है। यह विचार कर शेर भय से काँपने लगा।
संयोग से उस समय, उसी झोपड़ी के छप्पर पर एक चोर भी छिपा हुआ था। शेर के काँपने से, उसे लगा कि कोई आ गया। नीचे देखा तो उसे शेर दिख गया। शेर देख कर वह भी भय से काँपने लगा और हड़बड़ी में छप्पर से फिसल कर, सीधा शेर के ऊपर ही आ गिरा। और मरता क्या न करता, वह चोर शेर की गर्दन के बाल (अयाल) कस के पकड़कर शेर से चिपक गया।
शेर को लगा कि उस पर किशमिश चढ़ आया। वह घबरा कर तेजी से जंगल की ओर दौड़ने लगा।
वह तो दैवयोग से इतने में उस चोर को, सामने पेड़ की एक टहनी लटकती दिखाई दे गई। वह चोर उस टहनी को पकड़ कर लटक गया। और शेर जंगल में भाग गया।
लोकेशानन्द कहता है कि जब कोई मनुष्य, उस शेर की ही तरह, वस्तु को कुछ का कुछ समझ लेता है, माने जब मनुष्य को वस्तु में अवस्तु का भ्रम हो जाता है, तब उसके स्वरूप पर आवरण पड़ जाता है और वह योंही अपना बल भूल कर, बिना किसी बात के, भयग्रस्त हुआ, मारा मारा दौड़ा करता है।
समझना यह है कि मिथ्या जगत को सत्य मान लेने से, अपने आत्मस्वरूप पर अज्ञान का आवरण पड़ गया है, और सर्वसमर्थ शाश्वत मुक्त परमेश्वर का अंश, अपने को असहाय मरणधर्मा और बंधनग्रस्त मानकर, बार बार मृत्यु का ग्रास बन रहा है।
Bhakt Parv Mittal Hariyana: आप सभी साधको से एक आग्रह है। आप सभी बार बार जो वीडियो, फोटो इत्यादि डालते है जिसकी वजह से एडमिन को ग्रुप की सेटिंग बदलनी पड़ती है। कृपया उस मनस्थिति को नियन्त्रित कीजिये।
निश्चित ही यहाँ सभी हिन्दू साधक है (यद्यपि साधक को किसी परिणति में बांधा नही जा सकता) और अपने दायित्वों के निर्वहन में पूरी तरह प्रतिबद्ध भी है, कृपया बार बार ग्रुप के विषय से हटकर पोस्ट न करें।
हम नही चाहते कि जब सब जगह लॉक डाउन है तो आप अपने विचारों को व्यक्त करने हेतु भी प्रतिबंधित हो जाये। सामाजिक प्राणी को सामाजिक बने रहने में सभी जन सहयोग कीजिये। और ग्रुप शीर्षकानुसार अध्यात्म सम्बन्धी पोस्ट ही करें।
Hb 87 lokesh k verma bel banglore:
*अग्निशेषमृणशेषं शत्रुशेषं तथैव च |*
*पुन: पुन: प्रवर्धेत तस्माच्शेषं न कारयेत् ||*
यदि कोई आग, ऋण, या शत्रु अल्प मात्रा अथवा न्यूनतम सीमा तक भी अस्तित्व में बचा रहेगा तो बार बार बढ़ेगा ; अत: इन्हें थोड़ा सा भी बचा नही रहने देना चाहिए । इन तीनों को सम्पूर्ण रूप से समाप्त ही कर डालना चाहिए ।
If a fire, a loan, or an enemy continues to exist even to a small extent, it will grow again and again; so do not let any one of it continue to exist even to a small extent.
*शुभोदयम्! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*
+92 332 3046814: चलो, हम 10000008 लोगों कि चेन बनाते है।
*महामृत्युंजय मंत्र*
*ॐ त्र्यंबकं यजामहे, सुगंधिम् पुष्टिवर्धनं, उर्वारूक मिवबंधनान्, मृत्योर्मुक्षीय मामृतात्.*
सिर्फ एक बार पढिए आैर अागे भेज दिजीए।
विश्व कल्याण के लिये चैन नही टूटनी चाहिये
http://freedhyan.blogspot.com/2018/12/blog-post.html?m=0
आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 2 6
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