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Friday, September 11, 2020

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 9

 आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 9

विपुल सेन उर्फ विपुल लखनवी,
(एम . टेक. केमिकल इंजीनियर) वैज्ञानिक एवं कवि
सम्पादक : विज्ञान त्रैमासिक हिन्दी जर्नल वैज्ञनिक ISSN 2456-4818
 वेब:   vipkavi.info , वेब चैनल:  vipkavi
 फेस बुक:   vipul luckhnavi “bullet"  
ब्लाग : https://freedhyan.blogspot.com/

Bhakt Pallavi: प्रभु चरणों में समर्पित एक सूक्ष्म  रचना

साकार हो तुम, निराकार हो तुम ,

मेरे तो जीवन का आधार हो तुम| महादेव हो तुम या हो आदि शक्ति,

मेरा तो पूरा परिवार हो तुम॥

तुम्ही से है खिलना ,

तुम्ही में है मिलना

किस बात का फिर अभिमान करना॥

तुम्हारे ही नामों की माला  बनाकर

हृदय में अपने तुमको बसा कर

फिर कर्म बंधन से क्यों कर उलझना॥

परस्पर रहे प्रीत इतनी  दो शक्ति

तुम्हारी ही भक्ति से है मेरी मुक्ति

 किसी और जंजाल में फिर क्यों फंसना॥ 🙏🏻

Bhakt Lokeshanand Swami: आज भगवान वाल्मीकिजी के पास आए हैं, पूछते हैं, गुरुजी मैं कहाँ रहूँ?

वाल्मीकिजी कहते हैं, आप पूछते हैं "मैं कहाँ रहूँ?" तो यह तो बताइये कि आप कहाँ नहीं रहते?

देखें, आध्यात्मिक दृष्टि से तो परमात्मा सर्वव्यापक है, माने वह निराकार होकर सब जगह है। जैसे वायु सब जगह है, पर जबतक चले न तबतक अनुभव में नहीं आती। वह मालूम पड़े इसी के लिए पंखा है।

यों उस निराकार को एक नामरूप देकर, साकार बनाकर अंत:करण में उतारे बिना, वह परमात्मा अनुभव में नहीं आता।

वाल्मीकिजी कहते हैं कि इस प्रकार आप सर्वव्यापक होते हुए भी, उस भक्त के अंतःकरण में रहते हैं, जिसने आपको नामरूप की डोरी से अपने भीतर उतार लिया।

इस प्रकार व्यवहारिक दृष्टि से तो आप एक ही जगह ठहर सकते हैं, आप भक्तों के हृदय में ही निवास करिए, माने आप चित्रकूट में निवास करिए।

ध्यान दें, भगवान चित्रकूट में ठहरते हैं। यदि आप अपना हृदय चित्रकूट बना लें, तो भगवान अभी इसमें ठहर जाएँ।

देखें कूट माने स्थित होना। रामायण में दो ही कूट हैं, चित्रकूट और त्रिकूट। त्रिकूट में रावण रहता है, चित्रकूट में रामजी रहते हैं। और आपका हृदय जबतक चित्रकूट नहीं बन जाता, त्रिकूट ही है।

त्रिकूट माने ऐसा हृदय जहाँ तीन, सत रज तम, स्थूल सुक्ष्म कारण, जागृत स्वप्न सुषुप्ति, काम क्रोध लोभ स्थित हों, वहाँ मोह रूपी रावण की सत्ता है।

और जिस चित् में, भगवान का एक चित्र, स्थित हो गया, एक स्वरूप उतर आया, कूटस्थ हो गया, वह चित् ही चित्रकूट है। तब तो-

"जिगर में छिपी है तस्वीर ए यार।

जब जरा नजरें झुकाई दीदार हो गया॥"

अब आप भी लोकेशानन्द की बात मान कर अपने चित् को चित्रकूट बनाने के लिए, नाम के जप और रूप के चिंतन में लगें, और भगवान को ठहरा लें।

Hb 87 lokesh k verma bel banglore:

*सर्वतीर्थेषु वा स्नानं सर्वभूतेषु चार्जवम् ।*⚜️

*उभे त्वेते समे स्यातामार्जवं वा विशिष्यते।।*⚜️

*आत्मीय व्यवहार एवं मधुर वाचन* किसी पवित्र नदी मे स्नान से ज्यादा मूल्यवान है।

आत्मीयता सबसे महत्वपूर्ण है।

*Cordial behaviour and polite talking* is much more  valuable then taking a bath in holy river. Hence polite behaviour matters more then anything else.

*शुभोदयम्! लोकेश कुमार वर्मा Lokesh Kumar Verma*

शुभ कामनाएँ ।🌹🙏🕉

Bhakt Lokeshanand Swami: पुराने समय की बात है, एक शिक्षार्थी को अपनी शिक्षा पूरी होने पर, गुरूजी के दरवाजे से, अपने घर जाना था।

अकेले जाना था, रेल का समय रात दो बजे का था और रेलवे स्टेशन वहाँ से दस मील दूर था। तो वह लड़का अंधेरा होते ही निकला। जंगल का मामला था, सुनसान रास्ता था और अंधेरा भी था, तो गुरूजी ने उसे अपनी पुरानी लालटेन पकड़ा कर विदा किया।

वह लड़का कुछ ही कदम चला होगा कि वापस लौट आया, और बोला- गुरूजी! आप अपनी लालटेन अपने पास ही रख लें, क्योंकि वैसे भी इसका कोई लाभ तो है नहीं। लम्बा रास्ता है। और लालटेन की रोशनी दो ही कदम तक पड़ती है। इतने से प्रकाश से, इतना लम्बा रास्ता कैसे तय होगा?

गुरूजी ने मुस्कुराते हुए पूछा- तुम एक बार में कितने कदम चलते हो?

लड़का- एक बार में तो एक कदम ही चलना होता है, गुरूजी।

गुरूजी बोले- तब परेशानी क्या है? यह दो कदम रास्ता दिखाती है, तुम एक कदम चलते हो। यह फिर दो कदम दिखा देगी, तुम एक कदम फिर चल देना। योंही दो कदम आगे देखते देखते, एक एक कदम चलते रहना, रास्ता तय हो जाएगा।

लड़का बात समझ गया और इसी प्रकार लालटेन का उपयोग कर अपनी मंजिल पर पहुँच गया।

लोकेशानन्द कहता है कि हम भी उस लड़के जैसे ही हैं। हम भी घर से निकलने से पहले ही मंजिल तक का पूरा रास्ता देख लेना चाहते हैं। हम कमियाँ निकालते हैं, बहस करते हैं, सैंकड़ों सवाल पूछते हैं, हजार शंकाएँ उठाते हैं, लाख इंतजाम करना चाहते हैं, पर चलते एक कदम भी नहीं।

ध्यान दें, अपने कदम की लम्बाई पर ध्यान न देकर, रास्ते की लम्बाई का चिंतन करने वाला, कभी मंजिल नहीं पाता।

Mrs Sadhna H Mishra: जय श्री कृष्ण, ज्ञान रूपी अद्वितीय अमृत को धारण करने के लिए विशेष रूप से ,  ध्यान, साधना की भूमिका परम आवश्यक है। अष्टांग योग साधना के  द्वारा अपने आप को एक योग्य पात्र के रूप में ढाल कर जीवन  यापन करना अति आवश्यक है। संत सानिध्य भी दिशा निर्देश के लिए होना ही चाहिए। जब व्यक्ति ईश्वर की कृपा से पात्रता अर्जित कर लेता है तब उसे  ईश्वर अनुकम्पा से सदगुरू से मिलन हो जाता है। उसके उपरांत ही उनके कृपा से ज्ञान के द्वारा अज्ञान की निवृति होती है, तब हमें अपने स्वरूप का बोध होता है।

Mrs Sadhna H Mishra: इसलिए साधना की अपनी भूमिका है।

Mrs Sadhna H Mishra: जो नितांत आवश्यक है।

Bhakt Parv Mittal Hariyana: अथ श्रीगुरुगीता...

सप्त सागर पर्यन्त तीर्थ स्नानादिकं फलम्।

गुरोरङ्घ्रिपयोबिन्दुसहस्रांशे न दुर्लभम्॥७८॥

हरौ रुष्टे गुरुस्त्राता गुरौ रुष्टे न कश्चन।

तस्मात्सर्वप्रयत्नेन श्रीगुरुं शरणं व्रजेत्॥७९॥


अर्थ: गुरुदेव के चरण प्रक्षालित जल के एक बिंदु का सहस्त्राशं से (एक हजारवां भाग से) सप्तसागर पर्यंत तीर्थों में स्नान का फल मिल जाता है।

यदि भगवान शंकर रुष्ट हो जाए,  तो गुरुदेव रक्षा कर लेते हैं, किंतु यदि गुरु रुष्ट हो जाए तो, कोई भी रक्षा नहीं कर सकता, इसीलिए सब प्रकार से प्रयत्न पूर्वक गुरुदेव की शरण ग्रहण करने कर लेना चाहिए।।

व्याख्या: तीर्थों में स्नान दानादि का बड़ा महत्व पुराणों में वर्णित है, पर संपन्न वर्ग के लोग ही तीर्थ यात्रा कर सकते हैं और दानादि क्रिया से पुण्य अर्जन कर सकते हैं। किंतु चरणोंदक की उपलब्धि सहज है। यह बिंदु के हजारवे भाग से सप्तसागर पर्यंत तीर्थों में स्नान का फल मिल जाता है, तो फिर व्यर्थ तीर्थ यात्रा के व्यय का वहन क्यों किया जाए।

साधारण निर्धन लोग भी इस तीर्थ का लाभ ले सकते हैं, जो तिरादे, उसे तीर्थ कहते हैं जो भवसागर से पार उतारने में नाव का काम करें। उसे तीर्थ कहते हैं।।

शिव और गुरु दोनों एक ही है, केवल साधक की श्रद्धा को दृढ़ करने के लिये ही शिव और गुरु की भिन्नता बतलाई गयी है। शिव और गुरु की भिन्नता का भाव शिष्यों के लिये भी हानिकारक ही माना गया है। यहाँ शिष्य के श्रद्धा भक्ति में उत्तरोत्तर वृद्धि के लिये, यह उदहारण दिया गया है। यहाँ श्री राम चरित मानस के एक उदहारण से विषय को समुचित रूप से समझा जा सकता है- " एक शिष्य ने गुरु का अपमान कर दिया था तो भगवान शंकर उस पर क्रोधित हो उठे और उसका संहार करने को उघत हुए, तब उस शिष्य के गुरुदेव ने ही, दयालु होकर भगवान शंकर की स्तुति की, तब भगवान शिव प्रसन्न हुए और शिष्य का अपराध क्षमा किया। अतः प्रयत्न पूर्वक गुरु शरणागति ही शिष्य का उद्धार कर सकती है।।

Swami Pranav Anshuman Jee: सभी आदरणीय जन श्रीराम कथा प्रेमी कवितावली बालकाण्ड का आनंद लें ।जय श्रीराम ।🙏🙏

Bhakt Anjana Dixit Mishra: अपने कदम की लंबाई पर ध्यान ना देकर, रास्ते की लंबाई का चिंतन करने वाला, कभी मंजिल नहीं पाता।।👌

नमन लोकेशानंद जी 🙏🙏

अति सुंदर स्वामी जी। आपकी प्रस्तुति आनंददायक है आप वीर रस के अच्छे कवि भी हो सकते हैं। अब आप का प्रवचन पूरा सुनना ही पड़ेगा।

जय राम जी की।

😃😀😃😀

घोर आश्चर्य।

परसों स्वप्न में या गहन ध्यान मुझे कुछ पता नहीं स्वामी नारायण देव तीर्थ जी महाराज आए थे मुझे उन्होंने सफेद बरफी का प्रसाद भी दिया मैंने ग्रहण भी किया था खा भी लिया लेकिन मैं उनको प्रणाम कर रहा था तो वह गद्दा बिछे तख्त पर बैठे थे। मैंने में उनको प्रणाम किया तखत पर हाथ और सर टेक कर। वह बोले थोड़ा और झुको मैं थोड़ा और झुका तब उन्होंने परसाद दिया था और उन्होंने यह भी कहा था इस समय सृष्टि अभी कुपित है और कृपाचार्य जैसे संत भी धरती पर आने वाले हैं।

यह स्वप्न तो बहुत लंबा है मैंने कम लिखा है।

फिर मैंने अपने पूजा के रूम में जाकर अपनी परंपरा के संतो को देखा तब फोटो से मैंने पहचाना अरे यह तो नारायण देव तीर्थ महाराज। आदि गुरु नारायण देव नहीं। उनके जूनियर जिन्होंने इस किताब में प्राक्कथन लिखा है।

जय गुरुदेव जय महाकाली।

चश्मा लगाए हुए गोरा रंग।

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 जी मैंने कल आपसे साधक/शिष्य के संबंध में प्रश्न किया था। आशा करता हूं ग्रुप के सदस्य अपने विचार दे।

क्या प्रश्न फिर से बताएंगे।

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 शिष्य/साधक के गुरु के प्रति क्या २ कर्तव्य होते हैै। गुरु आश्रम के प्रति । साधक/शिष्य को कैसा होना चाहिए।

प्रभु जी स्वामी शिवओम तीर्थ जी महाराज ने बहुत विस्तार से इसको बताया है और शायद साधन संकेत में यह दिया हुआ है।

मुंबई आश्रम में इसके प्रश्न उत्तर को बहुत बड़ा जिराक्स कराकर लगाया है।

मैं गुरु नहीं इसलिए इस संबंध में बोलना शायद सीमा को लांघना होगा लेकिन आपने पूछा है तो मैं अपनी अल्प बुद्धि से कुछ बताने का प्रयास करता हूं।

शिष्य ऐसा चाहिए गुरु को सब कुछ दे।

गुरु ऐसा चाहिए शिष्य कुछ न ले।।

यहां पर शिष्य को चाहिए क्यों गुरु के भौतिक रूप में जो कुछ भी आवश्यकता है उसको धीरे धीरे पूरा करता रहे लेकिन गुरु से पूछ कर।

गुरु का भी कर्तव्य है कि वह लालच ना दिखाएं जैसा कि आजकल के गुरु करते हैं इतनी दक्षिणा दो तब तुम्हारा काम होगा।

यह हर्ष का विषय है कि हमारी परंपरा में अधिकतर गुरु महाराज लालची नहीं है वह मात्र जो आवश्यक होता है उसी को स्वीकार करते हैं बाकी मना कर देते हैं।

गुरु पूर्णिमा के दिन भी जो मिला उसको एक पेटी में बिना देखे डालते जाते हैं।

हमारे गुरु महाराज ब्रह्मलीन नित बोधानंद तीर्थ जी महाराज जब वर्ष उन्नीस सौ 97 या 98 के आसपास अमलनेर चले गए थे तब अमलनेर में कुछ नहीं था। तब एक अग्रवाल साहब जो गुजरात के थे वह लगभग ₹100000 लेकर वहां पहुंचे थे और उन्होंने महाराज जी के सामने रख दिए। हुआ यह था कि महाराज जी की कृपा से उन पर गिरी फालिज पूरी ठीक हो गई थी और वह फिर से चलने लगे थे। तब महाराज जी ने कहा आप इतना दान क्यों दे रहे हैं आपकी बेटी है उसका विवाह करना है। आपको सांसारिक कर्तव्य है उनको पूरा करना है। तब अग्रवाल साहब रोने लगे और कहने लगे कि मेरी बेटियों के विवाह का इंतजाम हो गया है और आप कृपया इसे स्वीकार करें। तब महाराज जी ने बोला ठीक है तब इससे एक कमरे का निर्माण करा दो और फिर उस धनराशि से आश्रम में कुछ निर्माण हुआ था।

यह दोहा उसी को चरितार्थ करता है।

उसके कुछ दिन बाद हमारे मित्र अति उत्साही श्री जनक कवि रत्न आश्रम में गए वहां पर बिजली बहुत चली जाती थी तो जनक जी एक साधक जो औरंगाबाद जा रहे थे उनसे बात करके केरोसिन से चलने वाला छोटा डीजी सेट खरीद लाए। जो उस वक्त करीबन 30000 के आसपास था।

महाराज जी ने पूछा भाई यह कौन लाया है तो जनक जी बोले मैं लाया हूं। तब महाराज जी ने उनकी जो चंपी करी वह शायद वह जिंदगी भर नहीं भूलेंगे महाराज जी ने बोला आश्रम साधन के लिए है सुविधाओं के लिए नहीं आप जाइए और यह वापस करिए।

तमाम विनती मांगने के बाद महाराज जी ने जनक जी को माफ कर दिया।

मजे की बात यह है यह घटना है मेरे सामने हुईं हैं।

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 इस प्रकार की घटना मेरे जीवन में बहुत बार घटित हुई एक बार में स्वयं एक मलमल का शाल लेकर गुरु महाराज के पास गया था। उस समय मेरी आय बहुत कम होने के कारण गुरुदेव बहुत नाराज़ हुए और आज्ञा दी के सदैव पूछ कर ही आवश्यकता का सामान लाओगे। और एक बार रसमलाई लेकर गया था तब भी बहुत चंपी हुई थी।

परंतु मैंने काफी साधक को देखा है वयसन में उलझे हुए। काफी साधक सिगरेट/ गुटखा /पान इस प्रकार के वयसन में फसे रहते हैं। उनके विषय में कुछ बताएं।

यहां तक में चाय पीना इसे भी वयसन की लाइन में रखता हूं

Hb 96 A A Dwivedi: बहुत ही बढ़िया चर्चा चल रही है इसे परम्परा वाले समुह में करना चाहिए कारण है कि बहुत सारे लोग मर्म समझ नहीं पा रहे होंगे बाकी जिसे इससे आनन्द मिल रहा है वो भी ईश्वर की कृपा है🙏👏😊🌹

यह हुई दान की बात।

शिवोम तीर्थ जी महाराज इससे भी बढ़कर थे।

एक बार मुंबई आश्रम में कुछ उत्साही दानदाता मौजूद थे मुंबई आश्रम में कुछ नहीं था उस समय उसके निर्माण के लिए उस समय के ब्रह्मचारी पंकज प्रकाश जो अभी स्वामी शंकर चेतन हैं। आश्रम के निर्माण हेतु मिस्त्री का काम करते थे और हम सब लोग मजदूरी का और महाराज जी सुपरवाइजर का। आपको यह मालूम हो शिवओम तीर्थ जी महाराज पहले भाखड़ा नांगल डैम के निर्माण में कार्यरत थे।

यह उत्साही दानदाता ने पूछा महाराज जी आपका सबसे प्रिय शिष्य कौन है। महाराज जी ने उनकी आशाओं पर कुठाराघात करते हुए बोला वह शिष्य आज से 27 साल पहले हमसे दीक्षा लेने आया था। तो लोगों ने पूछा अच्छा वह आपसे मिलता है क्या। महाराज जी बोले नहीं उसके बाद वह कभी मिलने नहीं आया। लेकिन वह रोज नियत समय पर साधन करता है और मुझसे वह ध्यान में आकर मिलता रहता है।

यहां पर गुरु महाराज मात्र शिष्य का कल्याण चाहते हैं तुम साधन करो बाकी कुछ करो न करो।

यहां पर एक और प्रसंग आता है स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज का। जो महाराज जी ने पुस्तकों मे लिखा है।

एक बार आश्रम में अन्न की कमी पड़ गई समस्या यह थी कि साधकों को भोजन कैसे कराया जाए तो किसी ने स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज से कहा कि आप किसी विशेष तिथि पर गुरु पूजन कराइए तो आश्रम की कुछ आमदनी हो जाएगी इसके बाद स्वामी विष्णु तीर्थ जी महाराज नाराज हो गए कहने लगे आश्रम शिव का है शिव ही चलाता है मैं क्यों इस तरह का कार्यक्रम करूं वह भी धन के लिए।

पता यह चला कि दोपहर को एक गांव वाला 1 बोरी गेहूं लेकर आ गया कहने लगा हमारे सेठ की मृत्यु हो गई और उसके पूर्व उन्होंने कहा कि मेरी मृत्यु के बाद एक बोरी गेहूं आश्रम में पहुंचा देना।

इन महान संतों की परंपरा है अपनी।

अब दूसरी बात आती है कि शिष्य के कर्तव्य क्या है वह आश्रम में कैसे रहे।

सबसे पहली बात आश्रम स्वयं सेवा से चलता है। मतलब अपना काम खुद करना पड़ता है जैसे कि अपना बिस्तर खुद लगाना सुबह उठकर उसको बराबर तह करके अपनी जगह पर रखना भोजन करने के पश्चात अपने बर्तन खुद साफ करके उनको पोछ कर अपनी जगह पर रखना इसके अलावा आश्रम में बकवास न करना क्योंकि आश्रम रिश्तेदारी बढ़ाने के लिए नहीं होता है जान पहचान के लिए नहीं होता है आश्रम मात्र साधन का होता है तो साधक का कर्तव्य है और उसका लक्ष्य एक ही होना चाहिए कि वह साधन करें नहीं तो एक आदमी बैठ कर स्वाध्याय करें।

नहीं तो आश्रम की साफ सफाई पर ध्यान दें अपने गुरु को कोई काम न करने दे।

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: आकाश वृती आश्रम में मैंने स्वयं अनेक घटना देखी है जो गुरु परंपरा के सामर्थ्य का अनुपम उदाहरण है।

Hb 96 A A Dwivedi: तैलंग स्वामी जी के पास एक व्यक्ति कई वर्षों से दर्शन के लिए आता था और दिक्षा लेने के लिए विनती करता था तैलंग स्वामी जी ने कहा कि कुछ वर्षों तक नाम जप तथा पठन पाठन का अनुभव लो फिर आना ऐसा करते हुए कई वर्ष बीत गए और फिर उस व्यक्ति को उन्होंने कहा कि अब तुम दिक्षा लेने के लायक हो कल तुमको दिक्षा देते हैं और फिर उसे दिक्षा देने के बाद कहा कि कुछ दिन मछली का सेवन करना कारण आपका शरीर थोड़ा कमजोर है शक्ति को सम्हालने के लिए तब उस व्यक्ति ने पूछा महाराज जी मछली खाने से तो अपवित्र हो जाऊंगा तो तैलंग स्वामी जी हंस कर उसे एक परमात्मा के साकार रूप के सामने ले गए और वहां पर पेशाब करने लगे यह देखकर वह व्यक्ति घबड़ाए और बाद में पुछा महाराज जी यह क्या है तो तैलंग स्वामी जी ने कहा कि सर्वत्र व्याप्त एकमात्र ब्रह्म ही है और जबतक चित्त में अशुद्धि है तब तक वाहिक शुद्धि की जरूरत होती है और जिस प्रकार यह शरीर हमेशा मल मुत्र से भरा हुआ है तो भी हम स्नान आदि जो करते है वो भी चित्त की अशुद्धता के कारण है।।

शरीर में रहकर किया कोई भी कार्य आत्मा को प्रभावित नहीं कर सकता है जो हमारा निज रुप है और जबतक हम शुद्धि और अशुद्धि में अंतर देखते हैं तबतक चित्त की दशा में सुधार की जरूरत होती है।।

😊🌹👏🙏

इसके अतिरिक्त आश्रम में धीरे बोलना किसी बाग से फल या फूल नहीं तोड़ना। आश्रम के नियमों का पालन करना निश्चित समय पर गुरु गीता आरती या अन्य धार्मिक गतिविधियों में भाग लेना।

बहुत से लोग दान दिखाकर करते हैं। ताकि दूसरों पर रोब दिखा सकें यह अहंकार है अतः दान को किसी लिफाफे में या छुपा कर देना चाहिए।

यदि आश्रम निर्माण हेतु धन दे रहे हैं तो आप चेक से दें और रसीद भी ले लें।

Hb 96 A A Dwivedi: भगवान शिव के सारे आश्रम है और वो ही उन्हें चला रहे हैं और कोई साधक अगर यह समझता है कि उसके दान या सेवा के कारण वो चल रहा है तो अज्ञानता है

स्वामी विष्णु तीर्थ जी के द्वारा कहे गए वाक्य है🙏👏🌹😊

यार यह तुम वही बात कर रहे हो रवे का हलवा बना रहे हैं और तुम उसमें अमूल्य मिष्ठान डाल रहे हो।

सर्वत्र ब्रह्म सर्वस्व ब्रह्म इस स्थिति में आने के लिए साधन बहुत परिपक्व होना चाहिए।

हम सब लोग बहुत निम्न कोटि के साधक हैं। यह उदाहरण समझकर गलत अर्थ लगा लेंगे।

🙏🏻🙏🏻🙏🏻🙏🏻

Hb 96 A A Dwivedi: तैलंग स्वामी जी की पुस्तक में उनके द्वारा नियुक्त शिष्य द्वारा वर्णित घटना को लिखा है इसमें हमारा रनच मात्र भी बुद्धि या विवेक नहीं है कापी पेस्ट है😊🌹👏🙏

अब प्रश्न है बहुत सारे साधक नशा कर रहे हैं पान बीड़ी सिगरेट से जूझ रहे हैं।

नशा करना तैलंग स्वामी के समान कोई व्यक्ति है तो अलग बात है लेकिन हम लोग बहुत ही छुद्र मनुष्य हैं।

यदि हम नर्सरी केजी के बच्चों को पोस्ट ग्रेजुएट शब्द बताएंगे तो वे उसमें एबीसीडी ढूंढ लेंगे।

हमारी हालत नर्सरी केजी के बच्चों से ऊपर नहीं है।

एक बार अघोर पंथ के पुनर स्थापक संत कीनाराम और तैलंग स्वामी महाराज रात भर शराब पीते रहे और चिलम पीते हैं लेकिन सुबह जब उठे तो बिल्कुल नॉर्मल थे उनके व्यवहार से लग नहीं रहा था कि उन्होंने नशा किया है।

हम में से कौन ऐसा है।

संत लीला को हम नहीं समझ सकते।

Hb 96 A A Dwivedi: पेट आगे निकलना यह भी तैलंग स्वामी जी की निशानी है।

बाबा गोरखनाथ जी इसे व्यसन मानते हैं

जस मति तस गति

चित्त में बज रहा था तो लिख दिया जय श्री राम👏🙏🌹😊

तैलंग स्वामी दिक्षा नहीं देते थे क्योंकि वे कहते थे शिष्य गुरु के अनुसार नहीं चलते हैं।‌उन्होंने मात्र एक माताजी को दिक्षा दी थी और उसके बाद वह कोई भी शिष्य ना देख सके और माताजी ने भी किसी को दीक्षा नहीं ली।

मेरा भी बहुत पेट निकला हुआ है लेकिन मैं तैलंग स्वामी के पैरों की धूल धूल उसके नीचे वाली धूल भी नहीं है।

Hb 96 A A Dwivedi: यह पुस्तक का वर्णन है महाराज जी🙏🌹😊👏

चित्त को बजाते रहो।

गुरु गीत गाते रहो।।

कभी न कभी किनारा मिलेगा।

अपनी नौका यूंहीं चलाते रहो।।

😃😃😃

महाराज योगेन्द्र विज्ञानी जी के भी गुरु थे तैलंग स्वामी जी👏😊🌹🙏

अपने चित्त को सदा बजाते रहो।

गुरु प्रेम के गीत गाते रहो।।

कभी न कभी किनारा मिलेगा।

अपनी नौका यूंहीं चलाते रहो।।

😃😃😃

Hb 96 A A Dwivedi: यह बात घनघोर आश्चर्य में डाल दिया था महाराज लेकिन फिर वाराणसी आश्रम में उनकी समाधि देखा तब पता चला इस बात का वर्णन पुनुरदय में भी है कि स्वामी योगेन्द्र विज्ञानी महाराजजी को बंगाल जाने के लिए उन्होंने हि कहा था।।

तैलंग स्वामी जी दिक्षा जल्दी नहीं देते थे कुल तीन लोगों के बारे में उल्लेख है और इनके वाराणसी आश्रम में साक्षात दर्शन किए जा सकते हैं🌹😊🙏👏

Hb 96 A A Dwivedi: 😃😃महाराज जी तैलंग स्वामी जी की समाधि के दर्शन लाभ के लिए अनुमति हो तो फोटो डाल दें बहुत ही शक्तिशाली है सिर्फ फोटो से क्रिया हो सकती है अगर उनका आशीर्वाद है👏🙏😊🌹

अरे डालो ना यार।

🙏🏻🙏🏻💐💐🙏🏻🙏🏻

Hb 96 A A Dwivedi: आपको मां काली का आशीर्वाद प्राप्त है आप सरल हृदय है हमारी तरह कपटि नहीं है और सरल हृदय में ही वो निवास करते हैं भगवन्😊🌹🙏👏

मित्र यह तो सत्य है कि मेरी अशरीरी गुरु मां काली है शरीरी गुरु स्वामी नित्य बोधानंद तीर्थ जी महाराज है और शिवओम तीर्थ जी महाराज हैं।

यह इस नश्वर शरीर का अहोभाग्य ही कहा जाएगा।

प्रभु कृपा गुरु कृपा जो भी कह लो।

जय हो भगवन्।

Hb 96 A A Dwivedi: यह शिवलिंग बारह सौ किलो वजन के आस पास है और नौ फुट ज़मीं के भीतर है इसे गंगा जी से अपने कन्धों पर उठाकर स्थापित किया था।।

यह शिवलिंग शिवरात्रि में दुसरे रंग का हो जाता है और यह बातों पर कोई शक न करें यह सब ईश्वर की लीला है

Hb 96 A A Dwivedi: महाराज जी हमने इस समाधि को धड़कते हुए देखा है यह बात हमारे गुरु महाराज जी सुन रहे हैं कोई भी ग़लत बात नहीं कहेंगे यह अनुभव उनके आश्रम में हुआ जब दो दिन लगातार वहां ध्यान साधना कर रहे थे और भी बहुत कुछ अनुभव हुआ तब पता चला कि तैलंग स्वामी जी का हमारी परम्परा के साथ क्या सम्बन्ध है🌹😊👏🙏

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 इस सत्संग से मैंने एक बिंदु यह निकला साधक का परम कर्तव्य यह होना चाहिए वह अपने गुरु के चिंतन में स्थान प्राप्त करने के लिए सदैव प्रयास रत रहे।

💐💐💐🙏🏻🙏🏻

Ba A K Agrawal: आपका बहुत-बहुत धन्यवाद विपुल जी

🙏🙏

Ba A K Agrawal: विपुल जी

मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि गुरु शिष्य की परंपरा एवं आवश्यकता पर और भी चर्चा होनी चाहिए हमारे देश और समाज दोनों को ही इसकी आवश्यकता है।

🙏🙏

मित्र इस बात का प्रयास जारी रहेगा।

🙏🏻🙏🏻

Swami Somendratirthji: आज गुरुवार का दिन है सबको बहुत-बहुत आशीर्वाद

हरि ओम जय जय गुरुदेव श्री सद्गुरु नाथ महाराज की जय

Swami Somendratirthji: हकीकत में आज गुरुवार का दिन नहीं है बुधवार है और आप सब लोग कितने सावधान हो वह देखना चाहता थे, ध्यान समाधि हमें कर्मों में कुशलता प्रदान करती है बेहोशी नहीं

महाराज जी यह बताइए वह दिन कौन सा दिन है जो गुरु का नहीं है।

अपने लिए प्रत्येक दिन गुरुवार है।

🙏🏻🙏🏻🙏🏻

यदि आपने बृस्पतिवार लिखा होता तब सोचने की आवश्यकता थी।

Swami Somendratirthji: बहुत सुंदर विपुल भाई हर दिन गुरु का दिन होता है वाह वाह

Bhakt Ranjan Sharma Jaipur: 🙏 जब मन करता निष्काम कर्म और ईश्वर के पास कुछ ना हो देने को तब मिलते है सदगुरु देने को वह ब्रह्म विचार।

ब्रह्म विचार को पाकर वह स्वयं ब्रह्म बन जाता है पर रहता सदैव शिष्य ही ,सदगुरु समक्ष मस्तक झुकाता हैं।।

Hb 96 A A Dwivedi: साधारण मनुष्य के जीवन में अनुशासन कि कमी अध्यात्म में उन्नति के लिए बाधा उत्पन्न करती है और इसलिए सशरीर गुरु के चरणों में तीव्र गति प्रापत होती है और जो भी शंका विकार होते हैं वो निरमुल हों जाते हैं।।

बगैर सशरीर गुरु के साधक अभिमान के वशीभूत हो सकता है और प्राया ऐसा ही होता है और जो सदगुरु को प्राप्त करते हैं वो लोग निश्चित रूप से मनुष्य योनि के नीचे नहीं जा सकते हैं इसके पीछे बहुत ही बड़ा विज्ञान छुपा है।।

सशरीर दिक्षा लेने पर शिष्य के रोगो तथा संस्कार क्षय का दायित्व गुरु के ऊपर आ जाता है और सदगुरु के पद पर जो आसीन हैं वो इतनी शक्ति अपनी परम्परा से प्राप्त कर चुके होते हैं कि हदय चक्र तक साधक का सिद्ध कर सकते हैं बगैर किसी भी प्रयास के।।

शिष्य के प्रति लगाव होने पर उसके भौतिक जीवन के सारे कष्ट सद्गुरु पल में दुर कर सकते हैं और कर रहे हैं।।

गुरु के जीवन का एकमात्र लक्ष्य शिष्य का आध्यात्मिक उत्थान हि होता है और वो कभी भी किसी भी प्रकार का भौतिक सुख नहीं लेता है।।

सदगुरु को शिष्य के भीतर संचित सभी संस्कारों का पता होता है और भविष्य में होने वाली सभी घटनाओं को वो जान सकते हैं अगर शिष्य के ऊपर कृपा करना चाहे।।

यहां तक कि बड़ी से बड़ी बीमारी को अपने शरीर में लेकर तपोबल से उसे समाप्त कर देते हैं या फिर अपने अन्त समय में उसे धारण कर भस्म कर देते हैं।।

स्वामी रामकृष्ण परमहंस जी जैसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं और जो लोग ईश्वर को सीधे रुप से गुरु मानकर चलते हैं तो उन्हें बहुत ही संयम और अनुशासन का पालन करना चाहिए नहीं तो जरा सी गलती होने पर तकलीफ़ हो सकती है।।

सनसार में गुरु मिलने के समान दुसरी कोई घटना नहीं है और जो लोग सद्गुरु के चरणों का ध्यान करते हुए यात्रा करते हैं उनके लिए भवसागर सिर्फ कुछ जन्म का समय मात्र रह जाता है।।

भगवान शिव ने मां पार्वती जी को कहा है कि सद्गुरु धरती पर मेरा हि प्रतिक है और जो सदगुरु के प्रति समर्पण भाव से साधना करेगा उसकी मुक्ति कि जिम्मेदारी मेरे ऊपर है


गुरु मेरी पुजा गुरु गोविंद

गुरु मेरा परबरहम गुरु भगवंत

गुरु के चरणों में मेरे सारे तीर्थ

गुरु के चरणों में जगत का ज्ञान


जय गुरुदेव🌹👏😊🙏

अनुशासन का अणुशासन।

यह देता है स्व शासन।।

स्वशासन से जग शासन।

बन जाता तब सुशासन।।

Bhakt Sarvesh Rajput: विपुल सर और अन्य सदस्य को मेरा सादर नमस्कार ग्रुप में add करने के लिए धन्यवाद 🙏🙏🙏🙏🙏

"MMSTM सवैध्यावि ध्यान की वह आधुनिक विधि है। कोई चाहे नास्तिक हो आस्तिक हो, साकार, निराकार कुछ भी हो बस पागल और हठी न हो तो उसको ईश अनुभव होकर रहेगा बस समयावधि कुछ बढ सकती है। आपको प्रतिदिन लगभग 40 मिनट देने होंगे और आपको 1 दिन से लेकर 10 वर्ष का समय लग सकता है। 1 दिन उनके लिये जो सत्वगुणी और ईश भक्त हैं। 10 साल बगदादी जैसे हत्यारे के लिये। वैसे 6 महीने बहुत है किसी आम आदमी के लिये।"  देवीदास विपुल 
 

 जय गुरूदेव । जय महाकाली



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