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Friday, September 18, 2020

वेद को गाली देनेवाले कौन थे चार्वाक

वेद को गाली देनेवाले कौन थे चार्वाक

शोध संकलन : सनातनपुत्र देवीदास विपुल “खोजी”


यह श्लोक आपने सुना ही होगा।

यावज्जीवेत सुखं जीवेद ऋणं कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मीभूतस्य देहस्य पुनरागमनं कुतः ॥

अर्थ है कि जब तक जीना चाहिये सुख से जीना चाहिये, अगर अपने पास साधन नहीं है, तो दूसरे से उधार लेकर मौज करना चाहिये, शमशान में शरीर के जलने के बाद शरीर को किसने वापस आते देखा है?

 

इसको लिखने वाले चार्वाक थे। 

 

लेकिन आगे पढने के पूर्व आप यह समझ लें कि सनातन या हिंदुत्व से महान कोई नहीं। जिस व्यक्ति ने उनके मूल्यों को गाली दी उसको भी एक ऋषि का दर्जा देकर उनकी बात पर चर्चा की। इसी लिये जो भी हिंदुत्व को समझ लेता है वह हिंदुत्व का मुरीद हो जाता है। इसी कारण पूरे विश्व में लोग सनातन की ओर प्रेरित हो रहें हैं। 

 

दूसरी एक बात और यदि हम प्रश्न पूछे कि आप कैसे देखते हैं तो आप कहेगे आंख से। यदि आंख नहीं तो अंधा है। जब मनुष्य मरता है तो आंख सहित सभी इंद्रियां रहती हैं पर मनुष्य देख नहीं पाता। तो वह देखनेवाला को उसी को आत्मा कहते हैं।  

 

प्रचलित धारणा यही है कि चार्वाक शब्द की उत्पत्ति ‘चारु’+’वाक्’ (मीठी बोली बोलने वाले) से हुई है। चार्वाक सिद्धांतों के लिए बौद्ध पिटकों में ‘लोकायत’ शब्द का प्रयोग किया जाता है जिसका मतलब ‘दर्शन की वह प्रणाली है जो जो इस लोक में विश्वास करती है और स्वर्ग, नरक अथवा मुक्ति की अवधारणा में विश्वास नहीं रखती’। चार्वाक या लोकायत दर्शन का ज़िक्र तो महाभारत में भी मिलता है लेकिन इसका कोई भी मूल ग्रन्थ उपलब्ध नहीं।

 

चार्वाक संभवत: इस दुनिया के पहले ऐसे ऋषि थे, जिन्होंने खुले तौर पर वेदों, वैदिक ऋषियों और वैदिक कर्मकांड को चुनौती दी. वे नास्तिक थे। 

 

चार्वाक ऐसे टेंपरामेंट में विश्वास रखते थे, जिसे आजकल रेशनलिज्म कहा जाता है।

चार्वाक ने कहा कि वेद धूर्त लोगों ने लिखे हैं और उन्हें मानने का कोई मतलब नहीं है।

चार्वाक के जो संस्कृत श्लोक आजकल मिलते हैं, वे या तो महाभारत से या फिर जैन और बौद्ध दर्शन ग्रंथों से मिलते हैं। 

 

स्वामी दयानंद सरस्वती ने भी उनके काफी श्लोक अपने ग्रंथ सत्यार्थप्रकाश में उद्धृत किए थे।

चार्वाक का दर्शन बहुत लोकप्रिय भी हुआ था लेकिन बौद्धों, जैनों और अज्ञानी अद्वैतवादी दर्शन के उभार के बाद चार्वाक को पूरी तरह भुला दिया गया।

चार्वाक का पूरा दर्शन इस बात पर टिका है कि खाओ, पियो और ऐश करो. भले इसके लिए आपको कर्ज भी क्यों न लेना पड़े. आप चिंता मत करो, क्योंकि एक बार मृत्यु हो जाने पर यह देह फिर जन्म लेने नहीं आने वाली।  इसलिए कुंठाओं से चिंताओं से मुक्त जीवन जियो। 

 

वैसे न तो ऋषि चार्वाक के बारे में कोई सटीक जानकारी मिलती है और न ही उनका दर्शन ही पूरी तरह कहीं उपलब्ध है. लेकिन यह तय है कि चार्वाक वेदों के बाद और बौद्धों-जैनों से पहले हुए।  

वेदों की वे आलोचना करते हैं और बौद्धों तथा जैनों के दर्शन में चार्वाक का जिक्र है.

चार्वाक को लोकायत कहा जाता है. कुछ जगह उनका नाम वृहस्पति भी बताया जाता है.

कई विद्वान् कहते हैं कि चार्वाक पहले हुए।  वृहस्पति उनको लोकप्रिय बनाने वाले एक और दार्शनिक थे, जो चार्वाक पंथ को मानते थे और वृहस्पति ने ही चार्वाक दर्शन को लोगों के बीच पहुंचाया.

इनका कहना था: जो कुछ भी है, इस जीवन में है, इसी धरती पर है.

चार्वाक पूरी तरह भौतिकवादी थे. आप उनके दर्शन को समझकर कह सकते हैं कि वे माउज और मजे करो सिध्दांत के जनक थे। 

 

उनका कहना था कि जो सुख का त्याग करते हैं, वे मूर्ख हैं. उनका कहना था कि जैसे किसान गेहूं से भूसे को अलग करके गेहूं रख लेते हैं और भूसे को छोड़ देते हैं, वैसे ही इंसान को सुख को ग्रहण करना चाहिए और दुख को छोड़ देना चाहिए.

चार्वाक ने कहा कि वेद धूर्त लोगों ने लिखे हैं और उन्हें मानने का कोई मतलब नहीं है. वेदों के ऋषि सुख को छोड़ने और दु:ख को गले लगाने को कहते हैं. यह गलत है. आप सुख को गले लगाओ और दु:ख से किनारा कर लो. दु:ख को लगे लगाने की बात कहने वाले पूरी तरह आपके जीवन को बर्बाद कर देंगे.

जो कुछ भी है वह यही लोक है, परलोक-वरलोक कुछ नहीं है

चार्वाक ने कहा कि कुछ मूर्ख लोग इस धरती के सुख को छोड़कर परलोक में जाकर सुख हासिल  करने की कामना लेकर पूजा-पाठ, अग्निहोत्र, यज्ञ, कर्म, उपासना आदि सब करते हैं.  ऐसा करके ये लोग अपने अज्ञान का प्रदर्शन करते हैं.

जब परलोक है ही नहीं और सिर्फ लोक ही है तो लोक के सुख की उपेक्षा करके अगले जन्म में सुख मिलने की उम्मीद करना तो मूर्खता ही है.

वहीं हिन्दू शास्त्रों में वेदों को ब्रह्मा के मुख से निकला हुआ बताया गया है.

 

-अग्निहोत्रं त्रयो वेदा…यानी अग्निहोत्र करना, तीन वेदों को मानना और भस्म रमाना बुद्धिहीन लोगों का काम है. ऐसा माना जाता है कि चार्वाक के समय तक तीन ही वेद थे चौथा अथर्ववेद बाद में जुड़ा।

 प्राचीन भारतीय दर्शन में वेद त्रयी की बात की जाती है - ऋगवेद यजुर्वेद और सामवेद.

 

-न कोई स्वर्ग है और न कोई नर्क. न कोई परलोक में जाने वाली आत्मा है और न कोई कर्मफल. जो कुछ है यहीं है.

-जो यज्ञ में पशु को मारकर स्वर्ग जाने की बात कहते हैं तो वे अपने पिता या दादा को, मां या दादी को मारकर उन्हें स्वर्ग क्यों नहीं भेजते?

-श्राद्ध करना पागलपन है. अगर कौए को खिलाया हुआ पितरों को पहुंचता है तो कौए का खिलाया हुआ विदेश गए आपके पिता तक क्यों नहीं पहुंचता?

 

यह दर्शन वेदबाह्य भी कहा जाता है।

वेदबाह्य दर्शन छ: हैं- चार्वाक, माध्यमिक, योगाचार, सौत्रान्तिक, वैभाषिक, और आर्हत(जैन)। इन सभी में वेद से असम्मत सिद्धान्तों का प्रतिपादन है।

अजित केशकंबली को चार्वाक के अग्रदूत के रूप में श्रेय दिया जाता है, जबकि बृहस्पति को आमतौर पर चार्वाक या लोकायत दर्शन के संस्थापक के रूप में जाना जाता है।

चार्वाक के अधिकांश प्राथमिक साहित्य गायब या खो गए हैं।

इसकी शिक्षाओं को ऐतिहासिक माध्यमिक साहित्य से संकलित किया गया है जैसे कि शास्त्र, सूत्र, और भारतीय महाकाव्य कविता में और गौतम बुद्ध के संवाद और जैन साहित्य से।

नास्तिक मत के प्रवर्तक बृहस्पति के शिष्य माने जाते हैं। बृहस्पति और चार्वाक कब हुए इसका कुछ भी पता नहीं है। बृहस्पति को चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र ग्रन्थ में अर्थशास्त्र का एक प्रधान आचार्य माना है।

सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक का मत दिया हुआ मिलता है। सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक के मत से सुख ही इस जीवन का प्रधान लक्ष्य है सुखवाद।

 

पद्मपुराण में लिखा है कि असुरों को बहकाने के लिये बृहस्पति ने वेद विरुद्ध मत प्रकट किया था।

नास्तिक मत के संबध में विष्णुपुराण में लिखा है कि जब धर्मबल से दैत्य बहुत प्रबल हुए तब देवताओं ने विष्णु के यहाँ पुकार की। विष्णु ने अपने शरीर से मायामोह नामक एक पुरुष उत्पन्न किया जिसने नर्मदा तट पर दिगबंर रूप में जाकर तप करते हुए असुरों को बहकाकर धर्ममार्ग में भ्रष्ट किया।

मायामोह ने असुरों को जो उपदेश किया वह सर्वदर्शनसंग्रह में दिए हुए चार्वाक मत के श्लोकों से बिलकुल मिलता है। लिंगपुराण में त्रिपुरविनाश के प्रसंग में भी शिवप्रेरित एक दिगंबर मुनि द्वारा असुरों के इसी प्रकार बहकाए जाने की कथा लिखी है जिसका लक्ष्य जैनों पर जान पड़ता है।

वाल्मीकि रामायण अयोध्या कांड में महर्षि जावालि ने रामचंद्र को वनवास छोड़ अयोध्या लौट जाने के लिये जो उपदेश दिया है वह भी चार्वाक के मत से बिलकुल मिलता है। 

 

इन सब बातों से सिद्ध होता है कि निरीश्वरवादी मत बहुत प्राचीन है।

सांख्य दर्शन, जो एक आस्तिक दर्शन हैं, वह भी निरीश्वरवादी मत हैं।

संसार में दुःख भी है, यह समझकर जो सुख नहीं भोगना चाहते, वे मूर्ख हैं।

मछली में काँटे होते हैं तो क्या इससे कोई मछली ही न खाय ? चौपाए खेत पर जायँगे, इस डर से क्या कोई खेत ही न बोवे ? इत्यादि। 

 

चार्वाक आत्मा को पृथक् कोई पदार्थ नहीं मानते अनात्मवाद।

उनके मत से जिस प्रकार गुड़, तंडुल आदि के संयोग से मद्य में मादकता उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार पृथ्वी, जल, तेज और वायु इन चार भूतों के संयोगविशेष से चेतनता उत्पन्न हो जाती है भूतचैतन्यवाद।

इनके विश्लेषण या विनाश से 'मैं' अर्थात् चेतनता का भी नाश हो जाता है। इस चेतन शरीर के नाम के पीछे फिर पुनरागमन आदि नहीं होता।

ईश्वर, परलोक आदि विषय अनुमान के आधार पर हैं जिनकी कोइ वस्तुगत अस्तित्व नही है।अनीश्वरवादी और इहलौकिकवादी।

चार्वाक दर्शन प्रत्यक्ष को ही एकमात्र प्रमाण मानते है लेकिन अनुमान को प्रमाण नहीं मानते। उनका तर्क है कि अनुमान व्याप्तिज्ञान पर आश्रित है। जो ज्ञान हमें बाहर इंद्रियों के द्वारा होता है उसे भूत और भविष्य तक बढ़ाकर ले जाने का नाम व्याप्तिज्ञान है, जो असंभव है। 

 

मन में यह ज्ञान प्रत्यक्ष होता है, यह कोई प्रमाण नहीं क्योंकि मन अपने अनुभव के लिये इंद्रियों पर ही आश्रित है। यदि कहो कि अनुमान के द्वारा व्याप्तिज्ञान होता है तो इतरेतराश्रय दोष आता है, क्योंकि व्याप्तिज्ञान को लेकर ही तो अनुमान को सिद्ध किया चाहते हो।

चार्वाक का मत सर्वदर्शनसंग्रह, सर्वदर्शनशिरोमणि और बृहस्पतिसूत्र में देखना चाहिए। नैषध के १७वें सर्ग में भी इस मत का विस्तृत उल्लेख है।

उसके मत से पृथ्वी जल तेज और वायु ये चार ही तत्व है, जिनसे सब कुछ बना है। उसके मत में आकाश तत्व की स्थिति नहीं है, इन्ही चारों तत्वों के मेल से यह देह बनी है, इनके विशेष प्रकार के संयोजन मात्र से देह में चैतन्य उत्पन्न हो जाता है, जिसको लोग आत्मा कहते है। शरीर जब विनष्ट हो जाता है, तो चैतन्य भी खत्म हो जाता है देहात्मवाद।

इस प्रकार से जीव इन भूतो से उत्पन्न होकर इन्ही भूतो के नष्ट होते ही समाप्त हो जाता है, आगे पीछे इसका कोई महत्व नहीं है। इसलिये जो चेतन में देह दिखाई देती है वही आत्मा का रूप है, देह से अतिरिक्त आत्मा होने का कोई प्रमाण ही नहीं मिलता है।

चार्वाक के मत से स्त्री पुत्र और अपने कुटुम्बियों से मिलने और उनके द्वारा दिये जाने वाले सुख ही सुख कहलाते है। उनका आलिन्गन करना ही पुरुषार्थ है, संसार में खाना पीना और सुख से रहना चाहिये। 

 

जिस प्रकार बौद्ध उसी प्रकार चार्वाक का भी मत है कि आकाश नामक कोई तत्त्व नहीं है। यह शून्य मात्र है। अपनी आणविक अवस्था से स्थूल अवस्था में आने पर उपर्युक्त चार तत्त्व ही बाह्य जगत, इन्द्रिय अथवा देह के रूप में दृष्ट होते हैं। आकाश की वस्त्वात्मक सत्ता न मानने के पीछे इनकी प्रमाण व्यवस्था कारण है। जिस प्रकार हम गन्ध, रस, रूप और स्पर्श का प्रत्यक्ष अनुभव करते हुए उनके समवायियों का भी तत्तत इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष करते हैं। आकाश तत्त्व का वैसा प्रत्यक्ष नहीं होता।

अत: उनके मत में आकाश नामक तत्त्व है ही नहीं। चार महाभूतों का मूलकारण क्या है?

इस प्रश्न का उत्तर चार्वाकों के पास नहीं है। 

 

चैतन्य आत्मा का गुण है। चूँकि आत्मा नामक कोई वस्तु है ही नहीं अत: चैतन्य शरीर का ही गुण या धर्म सिद्ध होता है। अर्थात यह शरीर ही आत्मा है।

इसकी सिद्धि के तीन प्रकार है- तर्क, अनुभव और आयुर्वेद शास्त्र।

तर्क से आत्मा की सिद्धि के लिये चार्वाक लोग कहते हैं कि शरीर के रहने पर चैतन्य रहता है और शरीर के न रहने पर चैतन्य नहीं रहता। इस अन्वय व्यतिरेक से शरीर ही चैतन्य का आधार अर्थात आत्मा सिद्ध होता है।

अनुभव 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं दुर्बल हूँ', 'मैं गोरा हूँ', 'मैं निष्क्रिय हूँ' इत्यादि अनुभव हमें पग-पग पर होता है। स्थूलता दुर्बलता इत्यादि शरीर के धर्म हैं और 'मैं' भी वही है। अत: शरीर ही आत्मा है।

आयुर्वेद जिस प्रकार गुड, जौ, महुआ आदि को मिला देने से काल क्रम के अनुसार उस मिश्रण में मदशक्त उत्पन्न होती है, अथवा दही पीली मिट्टी और गोबर के परस्पर मिश्रण से उसमें बिच्छू पैदा हो जाता है अथवा पान, कत्था, सुपारी और चूना में लाल रंग न रहने पर भी उनके मिश्रण से मुँह में लालिमा उत्पन्न हो जाती है उसी प्रकार चतुर्भूतों के विशिष्ट सम्मिश्रण से चैतन्य उत्पन्न हो जाता है।

किन्तु इन भूतों के विशिष्ट मात्रा में मिश्रण का कारण क्या है? 

 

इस प्रश्न का उत्तर चार्वाक के पास स्वभाववाद के अतिरिक्त कुछ नहीं है।

चूँकि चार्वाक प्रत्यक्ष और केवल प्रत्यक्ष प्रमाण को मानता है अत: उसके मत में प्रत्यक्ष दृश्यमान राजा ही ईश्वर हैं वह अपने राज्य का तथा उसमें रहने वाली प्रजा का नियन्ता होता है। अत: उसे ही ईश्वर मानना चाहिये।

प्रमेय अर्थात विषय का यथार्थ ज्ञान अर्थात प्रमा के लिये प्रमाण की आवश्यकता होती है।

विषय तथा इन्द्रिय के सन्निकार्ष से उत्पन्न ज्ञान प्रत्यक्ष ज्ञान कहलाता है।

हमारी इन्द्रियों के द्वारा प्रत्यक्ष दिखलायी पड़ने वाला संसार ही प्रमेय है। इसके अतिरिक्त अन्य पदार्थ असत है।

आँख, कान, नाक, जिह्वा और त्वचा के द्वारा रूप शब्द गन्ध रस एवं स्पर्श का प्रत्यक्ष हम सबको होता है। जो वस्तु अनुभवगम्य नहीं होती उसके लिये किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता भी नहीं होती। 

 

बौद्ध, जैन नामक अवैदिक दर्शन तथा न्यायवैशेषिक आदि अर्द्धवैदिक दर्शन अनुमान को भी प्रमाण मानते हैं।

उनका कहना है कि समस्त प्रमेय पदार्थों की सत्ता केवल प्रत्यक्ष प्रमाण से सिद्ध नहीं की जा सकती। परन्तु चार्वाक का कथन है कि अनुमान से केवल सम्भावना पैदा की जा सकती है। निश्चयात्मक ज्ञान प्रत्यक्ष से ही होता हैं।

दूरस्थ हरे भरे वृक्षों को देखकर वहाँ पक्षियों का कोलाहल सुनकर, उधर से आने वाली हवा के ठण्डे झोके से हम वहाँ पानी की सम्भावना मानते हैं। जल की उपलब्धि वहाँ जाकर प्रत्यक्ष देखने से ही निश्चित होती है। अत: सम्भावना उत्पन्न करने तथा लोकव्यवहार चलाने के लिये अनुमान आवश्यक होता है किन्तु वह प्रमाण नहीं हो सकता।

जिस व्याप्ति के आधार पर अनुमान प्रमाण की सत्ता मानी जाती है वह व्याप्ति के अतिरिक्त कुछ नहीं है। धूप के साथ अग्नि का, पुष्प के साथ गन्ध का होना स्वभाव है।

सुख और धर्म का दु:ख और अधर्म का कार्यकारण भाव स्वाभाविक है। जैसे कोकिल के शब्द में मधुरता तथा कौवे के शब्द में कर्कशता स्वाभाविक है उसी प्रकार सर्वत्र समझना चाहिये।

जहाँ तक शब्द प्रमाण की बात है तो वह तो एक प्रकार से प्रत्यक्ष प्रमाण ही है। आप्त पुरुष के वचन हमको प्रत्यक्ष सुनायी देते हैं। उनको सुनने से अर्थ ज्ञान होता है। यह प्रत्यक्ष ही है।

जहाँ तक वेदों का प्रश्न है उनके वाक्य अदृष्ट और अश्रुतपूर्ण विषयों का वर्णन करते हैं अत: उनकी विश्वसनीयता सन्दिग्ध है। साथ ही अधर्म आदि में अश्वलिंगग्रहण सदृश लज्जास्पद एवं मांसभक्षण सदृश घृणास्पद कार्य करने से तथा जर्भरी तुर्फरी आदि अर्थहीन शब्दों का प्रयोग करने से वेद अपनी अप्रामाणिकता स्वयं सिद्ध करते हैं।

 

यहां पर प्रश्न है कि जिस व्यक्ति की इंद्रियां नष्ट हो चुकीं हो वह क्या मानेगा। इसका उत्तर नहीं है।

उपर्युक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि चार्वाक लोग इस प्रत्यक्ष दृश्यमान देह और जगत के अतिरिक्त किसी अन्य पदार्थ को स्वीकार नहीं करते।

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष नामक पुरुषार्थ चतुष्टय को वे लोग पुरुष अर्थात मनुष्य देह के लिये उपयोगी मानते हैं।

उनकी दृष्टि में अर्थ और काम ही परम पुरुषार्थ है।

धर्म नाम की वस्तु को मानना मूर्खता है क्योंकि जब इस संसार के अतिरिक्त कोई अन्य स्वर्ग आदि है ही नहीं तो धर्म के फल को स्वर्ग में भोगने की बात अनर्गल है।

पाखण्डी धूर्त्तों के द्वारा कपोलकल्पित स्वर्ग का सुख भोगने के लिये यहाँ यज्ञ आदि करना धर्म नहीं है बल्कि उसमें की जाने वाली पशु हिंसा आदि के कारण वह अधर्म ही है तथा हवन आदि करना तत्त्द वस्तुओं का दुरुपयोग तथा व्यर्थ शरीर को कष्ट देना है इसलिये जो कार्य शरीर को सुख पहुँचाये उसी को करना चाहिये।

जिसमें इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आन्दित हो वही कार्य करना चाहिये। जिनसे इन्द्रियों की तृप्ति हो मन आनन्दित हो उन्हीं विषयों का सेवन करना चाहिये।

शरीर इन्द्रिय मन को अनन्दाप्लावित करने में जो तत्त्व बाधक होते हैं उनको दूर करना, न करना, मार देना धर्म है। शारीरिक मानसिक कष्ट सहना, विषयानन्द से मन और शरीर को बलात विरत करना अधर्म है।

तात्पर्य यह है कि आस्तिक वैदिक एवं यहाँ तक कि अर्धवैदिक दर्शनों में, पुराणों स्मृतियों में वर्णित आचार का पालन यदि शरीर सुख का साधक है तो उनका अनुसरण करना चाहिये और यदि वे उसके बाधक होते हैं तो उनका सर्वथा सर्वदा त्याग कर देना चाहिये।

चार्वाकों की मोक्ष की कल्पना भी उनके तत्त्व मीमांसा एवं ज्ञान मीमांसा के प्रभाव से पूर्ण प्रभावित है। जब तक शरीर है तब तक मनुष्य नाना प्रकार के कष्ट सहता है। यही नरक है।

इस कष्ट समूह से मुक्ति तब मिलती है जब देह चैतन्यरहित हो जाता है अर्थात मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव मर जाता है। यह मरना ही मोक्ष है क्योंकि मृत शरीर को किसी भी कष्ट का अनुभव नहीं होता।

यद्यपि अन्य दर्शनों में आत्मा के अस्तित्व को स्वीकार करते हुए उसी के मुक्त होने की चर्चा की गयी है और मोक्ष का स्वरूप भिन्न-भिन्न दर्शनों में भिन्न-भिन्न है, तथापि चार्वाक उनकी मान्यता को प्रश्रय नहीं देते। वे न तो मोक्ष को नित्य मानते हुए सन्मात्र मानते हैं, न नित्य मानते हुए सत और चित स्वरूप मानते हैं न ही वे सच्चिदानन्द स्वरूप में उसकी स्थिति को ही मोक्ष स्वीकार करते हैं।

 

चार्वाक दर्शन जीवन के हर पक्ष को सहज दृष्टि से देखता है। जीवन के प्रति यह सहज दृष्टि ही चार्वाक दर्शन है। वास्तविकता तो यह है कि, विश्व का हर मानव जो जीवन जीता है वह चार्वाक दर्शन ही है। यही कारण है कि हम चार्वाक दर्शन को लोकायत दर्शन के नाम से भी जानते हैं। यह दर्शन बार्हस्पत्य दर्शन के नाम से भी विद्वानों में प्रसिद्ध है।

इस नाम से यह प्रतीत होता है कि यह दर्शन बृहस्पति के द्वारा विरचित है।

भारतीय साहित्य में बृहस्पति एक नहीं हैं। चार्वाक दर्शन के प्रवर्तक आचार्य बृहस्पति कौन हैं, यह निर्णय कर पाना अत्यन्त कठिन कार्य है।

आङिगरस एवं लौक्य रूप में दो बृहस्पतियों का समुल्लेख ऋग्वेद में प्राप्त होता है। अश्वघोष के अनुसार आङिगरस बृहस्पति राजशास्त्र के प्रणेता हैं।

लौक्य बृहस्पति के मत में सत पदार्थ की उत्पत्ति असत से मानी जाती है। इसी प्रकार असत पदार्थ की उत्पत्ति सत से मानी गयी है। जड़ पदार्थों को ही असत कहा जाता है। चेतन पदार्थों को इस मान्यता के अनुसार सत कहा जाता हैं।

एक बृहस्पति का निर्देश महाभारत के वन पर्व में भी प्राप्त होता है। यह बृहस्पति शुक्र का स्वरूप धारण कर इन्द्र का सरंक्षण एवं दानवों का विनाश करने के उद्देश्य से अनात्मवाद या प्रपंच विज्ञान की संरचना करता है। इस प्रपंच विज्ञान के फलस्वरूप शुभ को अशुभ एवं अशुभ को शुभ मानते हुए दानव वेद एवं शास्त्रों की आलोचना एवं निन्दा में संलग्न हो जाते हैं।

अन्य प्रसंग में महाभारत में ही एक और बृहस्पति का वर्णन मिलता है जो शुक्राचार्य के साथ मिल कर प्रवंचनाशास्त्र की रचना करते हैं।

 

विभिन्न शास्त्रों के आचार्यों की माने तो चार्वाक मत दर्शन की श्रेणी में नहीं माना जा सकता क्योंकि इस दर्शन में मात्र मधुर वचनों की आड़ में वंचना का ही कार्य किया गया है। यह बात और है कि यदि चार्वाक की सुनें तो वह भी विभिन्न शास्त्रज्ञों को वंचक ही घोषित करता है।

एक ऐसे बृहस्पति का तैत्तरीय ब्राह्मण ग्रन्थ में वर्णन मिलता है जो गायत्री देवी के मस्तक पर आघात करता है गायत्री देवी को पद्म पुराण के अनुसार समस्त वेदों का मूल माना गया है। इस दृष्टि से यह बृहस्पति वेद का विरोधी माना जा सकता है। सम्भवत: वेद का विरोध प्रति पद करने के कारण इस बृहस्पति को चार्वाक दर्शन का प्रणेता भी माना जाना युक्तियुक्त होगा।

 

विष्णु पुराण में भी बृहस्पति का प्रसंग प्राप्त होता है। बृहस्पति की इस मान्यता के अनुसार वैदिक कर्मकाण्ड बहुवित्त के व्यय एवं प्रयास से साध्य हे। विविध सुख के साधक ये वैदिक उपाय कुछ अर्थ लोलुप स्वार्थ केन्द्रित धूर्तों का ही विधान है। तार्किक बृहस्पति का भी कहीं कहीं वर्णन मिलता है। ये बृहस्पति वेद के अनुगामी तो अवश्य हैं पर तर्कसम्मत अनुष्ठानों का ही समर्थन करते हैं। इनकी दृष्टि से तत्त्व निर्णय शास्त्र पर आधारित अवश्य होना चाहिए परन्तु यह शास्त्रीय अनुसन्धान तर्क पोषित होना नितान्त आवश्यक है। तर्क विरहित चिन्तन धर्म के निर्धारण में कभी भी सार्थक नहीं हो सकता है।

वात्स्यायन मुनि ने अपने विश्व प्रसिद्ध ग्रन्थ कामसूत्र में अर्थशास्त्र के रचयिता के रूप में बृहस्पति का उल्लेख किया है। बृहस्पति द्वारा विरचित अर्थशास्त्र के एक सूत्र के अनुसार शास्त्र के रूप में मात्र लोकायत को ही मान्यता दी गयी है। फलत: अर्थशास्त्र के प्रणेता बृहस्पति एवं लोकायत शास्त्र के प्रवर्त्तक में अन्तर कर पाना अत्यन्त दुरूह कार्य है।

कुछ समालोचकों ने अर्थशास्त्र के एवं लोकायत शास्त्र के निर्माता को अभिन्न मानने के साथ-साथ कामसूत्रों के प्रणेता भी बृहस्पति ही हैं, यह माना है।

यदि लौकिक इच्छाओं को पूर्ण करना ही चार्वाक दर्शन का उद्देश्य है तो कामशास्त्र के प्रवर्त्तक मुनि वात्स्यायन ही बृहस्पति हैं, यह मानना उपयुक्त ही है।

 

कौटिल्य ने अर्थशास्त्र में लोकायत दर्शन का सहज प्रतिपादन किया है।

इस प्रकार अर्थशास्त्र के रचनाकार कौटिल्य एवं लोकायत दर्शन के प्रणेता बृहस्पति एक ही हैं ऐसा माना जा सकता है। कोषकार हेमचन्द्र के अनुसार अर्थशास्त्र, कामसूत्र, न्यायसूत्र-भाष्य, पंचतन्त्र एवं चाणक्य नीति के रचयिता एक ही है।

पद्म पुराण के सन्दर्भ में अंगिरा ब्रह्मा के मानस पुत्र हैं। आंगिरस बृहस्पति अंगिरा के पुत्र एवं ब्रह्मा के पौत्र हैं। फलत: इनकी देवों में गणना होती है। 

 

इस प्रकार देव गुरु बृहस्पति एवं आंगिरस बृहस्पति में कोई भेद नहीं माना जा सकता।

देवों की संरक्षा के लिए देवताओं के गुरु द्वारा असुरों को प्रदत्त उपदेश विभिन्न लोकों में आयत हो गया यह कथन देव गुरु बृहस्पति के सन्दर्भ में विश्वसनीय नहीं हो सकता।

असुर अपने गुरु शुक्राचार्य के रहते देवगुरु के उपदेश को क्यों आदर देंगे? अत: देवगुरु से अतिरिक्त कोई चार्वाक दर्शन का प्रवर्त्तक होना अपेक्षित है।

कुछ समालोचकों ने स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि चार्वाक के गुरु बृहस्पति, स्वर्ग के स्वामी इन्द्र के आचार्य विश्वविख्यात बृहस्पति नहीं हैं। ये बृहस्पति किसी राजकुल के गुरु हैं। ऐतिहासिक दृष्टि से देंखे तो वसिष्ठ, विश्वामित्र, द्रोणाचार्य आदि का किसी राजकुल का गुरु होना इस मान्यता को आधार भी दे रहा है।

जिस प्रकार आस्तिक दर्शनों में शंकर दर्शन शिरोमणि के रूप में स्वीकृत है उसी प्रकार नास्तिक दर्शनों में सबसे उत्कृष्ट नास्तिक के रूप में शिरोमणि की तरह चार्वाक दर्शन की प्रतिष्ठा निर्विवाद है।

यहाँ यदि आस्तिक दर्शन यह कहे कि परलोक स्वर्ग आदि को सिद्ध करने वाला व्यापार अदृष्ट या धर्म एवं अधर्म है जिससे स्वर्ग की सिद्धि होती है तो यह चार्वाक को स्वीकार्य नहीं है।

अलौकिक अदृष्ट का खण्डन करते हुए चार्वाक स्वर्ग आदि परलोक के साधन में अदृष्ट की भूमिका को निरस्त करता है तथा इस प्रकार आस्तिक दर्शन के मूल पर ही कुठाराघात कर देता है। यही कारण है कि अदृष्ट के आधार पर सिद्ध होने वाले स्वर्ग आदि परलोक के निरसन के साथ ही इस अदृष्ट के नियामक या व्यवस्थापक के रूप में ईश्वर का भी निरास चार्वाक मत में अनायास ही हो जाता है।

 

चार्वाक मत में कोई जीव शरीर से भिन्न नहीं है। शरीर ही जीव या आत्मा है। फलत: शरीर का विनाश जब मृत्यु के उपरान्त दाह संस्कार होने के बाद हो जाता है तब जीव या जीवात्मा भी विनष्ट हो जाता है। शरीर में जो चार या पाँच महाभूतों का समवधान है, यह समवधान ही चैतन्य का कारण है। यह जीव मृत्यु के अनन्तर परलोक जाता है यह मान्यता भी, शरीर को ही चेतन या आत्मा स्वीकार करने से निराधार ही सिद्ध होती है।

शास्त्रों में परिभाषित मोक्ष रूप परम पुरुषार्थ भी चार्वाक नहीं स्वीकार करता है। चेतन शरीर का नाश ही इस मत में मोक्ष है।

धर्म एवं अधर्म के न होने से चार्वाक सिद्धान्त में धर्म-अधर्म या पुण्य-पाप को, कोई अदृश्य स्वर्ग एवं नरक आदि फल भी नहीं है यह अनायास ही सिद्ध हो जाता है।

चार्वाक मत में शरीर को ही आत्मा मान लेने पर बाल्यावस्था में अनुभूत कन्दुक क्रीडा आदि का वृद्धावस्था या युवावस्था में स्मरण कैसे होता है? यह एक ज्वलन्त प्रश्न सहज ही उठ खड़ा होता है।

यदि शरीर ही आत्मा है तो चार्वाक से यह पूछा जा सकता है कि 'मम शरीरम्' यह मेरा शरीर है, ऐसा लोकसिद्ध जो व्यवहार है वह कैसे उत्पन्न होगा? इस व्यवहार से तो यह प्रतीत हो रहा है कि शरीर अलग है एवं शरीर का स्वामी कोई और है, जो शरीर से भिन्न आत्मा ही है।

इस प्रश्न का समाधान करते हुए चार्वाक कहता है कि जैसे दानव विशेष के सिर को ही राहू कहा गया है, फिर भी जन-सामान्य 'राहू का सिर' यह व्यवहार बड़े ही सहज रूप में करता है, उसी प्रकार शरीर के ही आत्मा होने पर भी 'मेरा शरीर' यह लोकसिद्ध व्यवहार उपपन्न हो जायेगा।

चार्वाकों में कुछ चार्वाक इन्द्रियों को ही आत्मा मानने पर इन्द्रिय के नष्ट होने पर स्मरण की आपत्ति का निरास नहीं हो पाता है। 

 

किन्हीं चार्वाकों ने प्राण एवं मन को भी आत्मा के रूप में माना है।

शरीर ही आत्मा है यह सिद्ध करने के लिए चार्वाक इस वेद के सन्दर्भ को भी आस्तिकों के सन्तोष के लिए प्रस्तुत करता है। इस वेद वचन का तात्पर्य है कि 'विज्ञान से युक्त आत्मा इन भूतों से उत्पन्न हो कर अन्त में इन भूतों में ही विलीन हो जाता है। यह भूतों में शरीर स्वरूप आत्मा का विलय ही मृत्यु है।

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समझे वेद या श्रुति क्या : वैज्ञानिकेय व्याख्या 

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