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Wednesday, September 16, 2020

आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 31 (पितरों को नमन)

 आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 31 (पितरों को नमन)   


Bhakt Lokeshanand Swami: इधर नंदिग्राम में भरतजी माला जप रहे हैं। किसी विशालकाय आकृति ने आकाश को ऐसा ढक लिया कि अनिष्ट की आशंका से भरतजी ने चौदह वर्षों बाद धनुष-बाण उठा लिया। आज लोग कहते हैं कि माला जपने वाला भाला न उठाए। भैया! देश ही न बचेगा, तो माला बचेगी?

पर भरतजी ने बिना फल का बाण मारा, एक कारण तो यह कि एक बार फल वाला बाण दशरथजी ने अनुमान से चला दिया था, उसी से यह सारा झंझट हुआ है। दूसरे भगवान का काम करें तो फल दृष्टि में नहीं रहना चाहिए, इसीलिए बिना फल वाला।

हनुमानजी मूर्छित होकर गिरे, राम राम राम राम करते गिरे। भरतजी ने रामनाम सुना तो हनुमानजी को गोदी में लपक लिया। आँखें तो नम रहती ही थीं, दो बूंद हनुमानजी पर गिरी तो मूर्छा टूटी। भरतजी कहें कि मुझसे भूल हो गई, तो हनुमानजी कहें कि आपने भूल की नहीं, मेरी भूल सुधार दी। मैं अयोध्या के ऊपर से जा रहा था, बाण ने कहा कि इस भूमि पर तो परमात्मा तक नीचे उतर आया, तुम भी उतर आओ।

आपने बड़ी कृपा की जो बाण मारा। मैं समझ रहा था कि पर्वत मैंने उठा रखा है। पर जब मैं गिरा, तो मैं ही गिरा, पर्वत नहीं गिरा, वह तो अब भी आकाश में ही खड़ा है। आपके बाण ने मेरा भ्रम मिटा दिया, पर्वत तो भगवान की कृपा ने ही उठा रखा है।

देखो काम का बाण मूर्छित करे तो भगवान को भुला देता है, संत का बाण भगवान की कृपा की स्मृति करा देता है।

सब समाचार आग की तरह फैल गया। सब दौड़े आए। कौशल्याजी कहती हैं- हनुमान! राम से कहना, कि जैसा मुस्कुराता लक्ष्मण मेरे दरवाजे से ले गया था, वैसा ही लक्ष्मण साथ लेकर आना, नहीं तो आना ही मत। सुमित्राजी मुंह पर हाथ रखकर कहती हैं- दीदी! ऐसी बात मत कहो।

पुकार कर शत्रुघ्नजी को बुलाती हैं, कि तुम्हारे भैया भगवान के काम आ गए हैं, तुम हनुमान के साथ चले जाओ, आज जीवन धन्य करने का समय आ गया।

"ठहरें माँ!" दाँई ओर से आवाज आई। किसकी? उनकी, जिनका जिक्र अभी तक इस रामकथा में हुआ ही नहीं, उर्मिला जी की। उर्मिला जी की चर्चा कल।

अब विडियो देखें- भरत जी का बाण

https://youtu.be/gw7SI5b7k9o

*यथा  यथा  हि  पुरुष:  कल्याणे कुरुते  मन: ।*

*तथा तथास्य सर्वार्था: सिद्धयन्ते नात्र संशय:।।*इस मे कोई संशय नहीं है कि जो व्यक्ति सेवा वृति होते हैं व परोपकार के कार्यों मे लिप्त  हैं , वे जो चाहते हैं  प्राप्त कर लेते हैं ।

There is no doubt about it that as a man involves himself in virtuous deeds and works for the welfare of others , he succeeds in whatever he aims for.

शुभोदयम् ! लोकेश कुमार वर्मा (L K Verma)

Vs P Mishra: 🙏

प्यार दे कर जो हमें

विदा हुए संसार से,

आओ उनका

स्वागत करें आज से।

वो हुए पुरखो में शामिल

जो कभी थे साथ में,

आज से नमन करेंगे

हम मन के द्वार से।

पितर चरण में नमन करें,

ध्यान धरें दिन रात।

कृपा दृष्टि हम पर करें,

सिर पर धर दें हाथ।

ये कुटुम्ब है आपका,

आपका है परिवार।

आपके आशिर्वाद से,

फले - फूले संसार।

भूल -चूक सब क्षमा करें,

करें महर भरपूर।

सुख सम्पति से घर भरें,

कष्ट करें सब दूर।

आप हमारे हृदय में,

आपकी हम संतान।

आपके नाम से हैं जुड़ी,

मेरी हर पहचान।

*सभी पितरो को सादर*

*नमन*

श्री योग वशिष्ठ

मुमुक्षु व्यवहार प्रकरण

अध्याय ७

महर्षि वशिष्ठ का उपदेश

अ) यह जगत भ्रम एवं मिथ्या है (सर्ग ३)

वशिष्ठ जी ने कहा - पूर्व काल में सृष्टि के प्रारंभ के समय भगवान ब्रह्मा ने संसाररूपी भ्रम के निवारण के लिए ज्ञान का उपदेश दिया था, उसी का मैं यहां वर्णन करता हूं।

यह जगत स्वप्न में देखे गए नगर के समान भ्रम द्वारा निर्मित हुआ है। मृत्यु काल में पुरुष स्वयं अपने हृदय में इसका अनुभव करता है। इस प्रकार जगत मिथ्या होने पर भी चिरकाल तक अत्यंत परिचय में आने के कारण घनिभाव को प्राप्त हो कर जीव के हृदयाकाश में प्रकाशित हो बढ़ने लगता है। यही ईहलोक कहलाता है। वासना के भीतर अन्य अनेक शरीर और उनके भीतर भी दूसरे दूसरे शरीर - येे इस संसार में केले के वृक्ष की त्वचा के समान एक के पीछे एक प्रतीत होते हैं। वस्तुतः इस संसार में कोई सार नहीं है। न तो पृथ्वी आदि पंच महाभूतों के समुदाय है और न जगत की सृष्टि की कोर्इ क्रम ही है। येे सब के सब मिथ्या है। तथापि मृत और जीवित जीवों को इनमें संसार का भ्रम होता है यह अविद्या रूपिणी नदी है जिसका कहीं अंत नहीं है। मूढ़ पुरुषों के लिए यह इतनी विशाल है कि वे इसे पार नहीं कर सकते।

श्री राम! परमार्थ सत्य रूपी विशाल महासागर में सृष्टि रूपी असंख्य तरंगें उठती हैं। इस समय ब्रह्म कल्प का बहतरवां त्रेतायुग चल रहा है। यह पहले भी अनेक बार हो चुकी है और आगे भी होता रहेगा। यह वही पहले वाला त्रेतायुग है और उससे विलक्षण भी है। येे जितने लोक हैं वे पूर्व में भी हुए हैं। श्री राम! तुम भी अनेक बार त्रेतायुग में अवतार ले चुके हो और भविष्य में भी लोगे। मैं कितनी ही बार वशिष्ठ रूप में उत्पन्न हो चुका हूं और आगे भी होऊंगा। हमारे यह सभी रूप पूर्व के तुल्य होंगे और भिन्न भी। इस बात को मैं अच्छी तरह जानता हूं। सभी प्राणी पूर्व कल्पों के समान होते हैं।

क्रमशः

Jb Lokesh Sharma: *Way re Judiciary, Sudarshan TV ki series ban ho Sakti hai par Ye film Nahin Jo Airforce ko andhere ke samay, kamjor dikhati hai*

https://hindi.livelaw.in/category/top-stories/gunjan-saxena-the-kargil-girl-delhi-hc-refuses-to-grant-injunction-in-a-plea-moved-by-centre-162288

Jb Rajeev Sharma: 🌷 *पितरों को नमन*🌷

वो कल थे तो आज हम हैं

उनके ही तो अंश हम हैं..

जीवन मिला उन्हीं से

उनके कृतज्ञ हम हैं..

सदियों से चलती आयी

श्रंखला की कड़ी हम हैं..

गुण धर्म उनके ही दिये

उनके प्रतीक हम हैं..

रीत रिवाज़ उनके हैं दिये

संस्कारों में उनके हम हैं..

देखा नहीं सब पुरखों को

पर उनके ऋणी तो हम हैं..

पाया बहुत उन्हीं से पर

न जान पाते हम हैं..

दिखते नहीं  वो हमको

पर उनकी नज़र में हम हैं..

देते सदा आशीष हमको

धन्य उनसे हम हैं..

खुश होते उन्नति से

दुखी होते अवनति से

देते हमें सहारा

उनकी संतान जो हम हैं..

इतने जो दिवस मनाते

मित्रता प्रेम आदि के

पितरों को भी याद कर लें

जिनकी वजह से हम हैं..

आओ नमन कर लें कृतज्ञ हो लें

क्षमा माँग लें आशीष ले लें

पितरों से जो चाहते हमारा भला

उनके जो अंश हम हैं..

Printer Raman Mishra: हर ज़र्रा* चमकता है अनवार-ए-इलाही* से

हर साँस ये कहती है हम हैं तो ख़ुदा भी है।

⚫अकबर इलाहाबादी

जर्रा  =  कण,  अनवार-ए-इलाही  =  भगवान की रौशनी

Printer Raman Mishra: *कहाँ गए 'काग भुसुंडी*

प्रचलित पौराणिक कथाओं में काग भुसुंडी की कहानी भी है. ये एक ऋषि थे जिन्हें अमरत्व का वरदान मिला था और माना जाता है कि कौवे के रूप में से आज भी धरती पर ही हैं.

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हिंदू धर्म में पुरखों के नाम पर तर्पण करने के पखवाड़े पितृपक्ष में उनकी अहमियत बहुत बढ़ जाती है.

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दिल्ली - मुंबई के लोगों को इस बात की शिकायत है कि वो अपने पुरखों को मालपुए-पूरी नहीं खिला पा रहे हैं.

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पितृपक्ष में पुरखों को याद करने और उन्हें भोग लगाने के लिए कौवे को आहार देना पड़ता है पर समस्या यह है कि कौवे बड़े शहरों में कम ही हैं.

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चिंता की बात है पर सोचना तो तब चाहिए था जब पुरखों तक श्राद्ध सामग्री पहुँचाने वाले इस जीव के आशियानों को उजाड़कर कंक्रीट-सीमेंट के मकान बेहिसाब बनाए जा रहे थे.

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आंगन की गौरैया तो कब की ग़ायब हो चुकी थीं और गिद्ध भी अधिकतर लोग किताबों में ही देखते हैं. अब बारी कौवों की है और कौवे संकट में हैं.

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प्रभु ने काग भुसुंडी को अमरत्व का वरदान दिया था तब उन्हें पता नहीं था दिल्ली-मुंबई वाले सबसे चतुर पक्षी का भी जीना मुहाल कर देंगे.

Bhakt Lokeshanand Swami: इधर नंदिग्राम में भरतजी माला जप रहे हैं। किसी विशालकाय आकृति ने आकाश को ऐसा ढक लिया कि अनिष्ट की आशंका से भरतजी ने चौदह वर्षों बाद धनुष-बाण उठा लिया। आज लोग कहते हैं कि माला जपने वाला भाला न उठाए। भैया! देश ही न बचेगा, तो माला बचेगी?

पर भरतजी ने बिना फल का बाण मारा, एक कारण तो यह कि एक बार फल वाला बाण दशरथजी ने अनुमान से चला दिया था, उसी से यह सारा झंझट हुआ है। दूसरे भगवान का काम करें तो फल दृष्टि में नहीं रहना चाहिए, इसीलिए बिना फल वाला।

हनुमानजी मूर्छित होकर गिरे, राम राम राम राम करते गिरे। भरतजी ने रामनाम सुना तो हनुमानजी को गोदी में लपक लिया। आँखें तो नम रहती ही थीं, दो बूंद हनुमानजी पर गिरी तो मूर्छा टूटी। भरतजी कहें कि मुझसे भूल हो गई, तो हनुमानजी कहें कि आपने भूल की नहीं, मेरी भूल सुधार दी। मैं अयोध्या के ऊपर से जा रहा था, बाण ने कहा कि इस भूमि पर तो परमात्मा तक नीचे उतर आया, तुम भी उतर आओ।

आपने बड़ी कृपा की जो बाण मारा। मैं समझ रहा था कि पर्वत मैंने उठा रखा है। पर जब मैं गिरा, तो मैं ही गिरा, पर्वत नहीं गिरा, वह तो अब भी आकाश में ही खड़ा है। आपके बाण ने मेरा भ्रम मिटा दिया, पर्वत तो भगवान की कृपा ने ही उठा रखा है।

देखो काम का बाण मूर्छित करे तो भगवान को भुला देता है, संत का बाण भगवान की कृपा की स्मृति करा देता है।

सब समाचार आग की तरह फैल गया। सब दौड़े आए। कौशल्याजी कहती हैं- हनुमान! राम से कहना, कि जैसा मुस्कुराता लक्ष्मण मेरे दरवाजे से ले गया था, वैसा ही लक्ष्मण साथ लेकर आना, नहीं तो आना ही मत। सुमित्राजी मुंह पर हाथ रखकर कहती हैं- दीदी! ऐसी बात मत कहो।

पुकार कर शत्रुघ्नजी को बुलाती हैं, कि तुम्हारे भैया भगवान के काम आ गए हैं, तुम हनुमान के साथ चले जाओ, आज जीवन धन्य करने का समय आ गया।

"ठहरें माँ!" दाँई ओर से आवाज आई। किसकी? उनकी, जिनका जिक्र अभी तक इस रामकथा में हुआ ही नहीं, उर्मिला जी की। उर्मिला जी की चर्चा कल।

अब विडियो देखें- भरत जी का बाण

https://youtu.be/gw7SI5b7k9o

Bhakt Lokeshanand Swami: उर्मिलाजी के प्रसंग से पहले यह समझ लें कि राम माने द्रष्टा रूप से अवस्थित परमात्मा, तो सीता माने शांति। भरत माने भाव, तो मांडवी माने अंतःकरण का भाव से मंडित हो जाना। भीतर के शत्रुओं को काटने की क्षमता शत्रुघ्न है, तो श्रुतियाँ कीर्ति गाने लगें यह श्रुतकीर्ति है। लक्ष्य पर मन का टिक जाना लक्ष्मण है, तो लक्ष्य से एकाकार हो जाना, उर का मिल जाना उर्मिला है।

उर्मिलाजी कहती हैं- जिनके सिर पर सदा रामजी का हाथ रहता हो, विधाता भी उनका बाल तक बाँका नहीं कर सकता। फिर मेघनाद की तो औकात ही क्या है, कि उनको मार डाले? काम तो उन्हें छू तक नहीं सकता।

"रघुनाथ के हाथ हैं साथ जहाँ,

वहाँ रूठी बिगाड़ी सकई क्या विधाता।

घननाद के बाण से प्राण तजें,

यह मेरे नहीं मन में जम पाता॥

मान कदाचित् लेती भी हूँ,

तो पति का प्रतिबिम्ब है सामने आता।

स्वामी थके रण के श्रम से,

नहीं और कछु है दूसरी बाता॥"

माँ! मैं देख रही हूँ कि स्वामी तो युद्ध से थक कर, भगवान की गोद में विश्राम कर रहे हैं, वे इतने वर्षों से सोए नहीं थे ना। माँ! आप मेरी माँग का सिंदूर देख रही हैं? एक कण भी दाँए से बाँए नहीं है। उनका स्वरूप एक पल के लिए भी मेरी पलकों से नहीं हटता।

"भाल सुहाग के बिंदु सुशोभित,

माँग में लाली निहारति हूँ।

मारि सकै उनको कोऊ क्या,

पल भी पलकों ना टारती हूँ॥"

और यदि मान भी लूं, तो भी आप शत्रुघ्नजी को मत भेजें। अभी मेरी तो श्वास चल रही है, मैं स्वामी की अर्धांगिनी हूँ, उनका आधा भाग हूँ, मैं तो जीवित हूँ। मैं लंका के गढ़ में जाकर, मेघनाद को अपने हाथों से मारकर, सुलोचना की माँग का सिंदूर मिटा दूंगी। और रावण के दसों सिर काटकर, जानकी जी को निकाल कर भगवान के चरणों में पहुँचा दूंगी।

"मत भेजो अभी रिपुसूदन को,

यदि सत्य है तो गढ़ लंक में जाऊँ।

समरांगण में हत के घननाद,

सुलोचनी माँग सिंदूर मिटाऊँ॥

दसशीश के शीश उतार सभी,

भगिनी को निकाली प्रभु ढिग लाऊँ॥"

लोकेशानन्द उर्मिला चाची के चरणों में बारम्बार माथा रखता है।

*लावण्यरहितंरूपं विद्यया वर्जितं वपुः ।*

*जलत्यक्तं सरो भाति नैव धर्मो दयां विना !!*

लावण्यरहित रुप, विद्यारहित शरीर,

जलरहित तालाब शोभा नही देते । उसी प्रकार दयारहित धर्म भी शोभा नही देता हैं ।

A persona without lustre, a body without knowledge  , a lake without water don't look good & a religion without compassion and sympathy is  not graceful too.

*शुभोदयम ! लोकेश कुमार वर्मा (L K Verma)*

Printer Raman Mishra: बहुत महत्व की बात।

करुणा..... महावीर, बुद्ध से शुरू हो कर गांधी तक....यही करुणा भारतीय दर्शन और संस्कृति की पहचान है।🙏

काश.....धर्म की पूंछ पकड़ कर सत्ता सुख भोगने वाले इस मर्म को समझ पाते....!🙏

दया और करुणा के बिना धर्म की कल्पना असंभव है।🙏

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आत्म अवलोकन और योग: ग्रुप 4 सार्थक ज्ञानमयी चर्चा: भाग 32 (बोझ या अज्ञानता)

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