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Tuesday, September 15, 2020

मृग की कस्तूरी |बूझो तो जानूं। ज्ञानी मैं मानूं।

मृग की कस्तूरी

 

सनातनपुत्र देवीदास विपुल “खोजी” 


जंगल जंगल ढूंढ रहा है। 

मृग अपनी ही कस्तूरी को।

पास उसी के जो है रहता। 

किधर कहां गई कस्तूरी को॥ 

 

कितना मुश्किल है तय करना। 

खुद से खुद की ही दूरी को। 

भीतर शून्य है बाहर शून्य। 

शून्य शून्य बन मजबूरी को॥    

मैं नही हूं मुझमें फिर भी मैं। 

मैं ही शोर हर ओर मचा।

मृग आखेट बन बैठा जब। 

पा सका नहीं वो कस्तूरी को॥  

विपुल तले पकवान अनेकों। 

सब अधपके कच्चे रह जाते।

मूरख विपुल भट्टी क्यों बैठा। 

तल न पाया एक पूरी को॥

 



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